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ऐसे थे पण्डित लेखराम : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

मास्टर गोविन्दसहाय आर्य समाज अनारकली लाहौर के लगनशील सभासद थे

श्री मास्टर जी पर पण्डित जी का गहरा प्रभाव था . आप पण्डित लेखराम की शूरता की एक घटना सुनाया करते थे

एक दिन किसी ने पण्डित जी को सुचना दी कि लाहौर की बादशाही मस्जिद में एक हिन्दू लड़की को शुक्रवार के दिन बलात मुसलमान बनाया जायेगा

लड़की को कुछ दुष्ट पहले ही अपहरण करके ले जा चुके थे . यह सुचना पाकर पण्डित जी बहुत दुखी ही . देवियों का अपहरण व बलात्कार उनके लिए असह्य था . वे इसे मानवता के विरुद्ध एक जघन्य अपराध मानते थे . पण्डित जी की आँखों में खून उतर आया ..

पण्डित जी ने मास्टर गोविन्दसहाय जी से कहा “चलिए , मास्टर जी हम आज रात्रि ही उस लडकी को खोजकर लावेंगे “

बृहस्पतिवार को सायंकाल के समय दोनों मस्जिद में गए . लड़की वही पाई गयी .लड़की से कहा : चलो हमारे साथ .

वह साथ चल पडी . वहां उस समय कुछ मुसलमान उपस्थित थे परन्तु किसी को भी पण्डित जी के मार्ग में बाधक बनने का दुस्साहस न हुआ. धर्म प्रचार व जाति रक्षा के लिए वे प्रतिपल जान जोखिम में डालने के लिए तैयार  रहते थे . यह घटना श्री मास्टर गोविन्दसहाय जी ने दिवंगत वैदिक विद्वान वैद्य रामगोपाल जी को सुनाई थी. श्री महात्मा हंसराज जी भी पण्डित जी के जीवन की इस प्रेरक घटना की चर्चा किया करते थे

“अमर शहीद भगत सिंह को श्रद्धाजंली” -मनमोहन कुमार आर्य।

देश को अंग्रेजों के अत्याचारों से मुक्त कराने तथा गुलामी दूर कर देशवासियों को स्वतन्त्र कराने के स्वप्नद्रष्टा शहीद भगत सिंह जी का २८ सितम्बर को 109 वां जन्म  दिवस था। शहीद भगद सिंह ने देश को स्वतन्त्र कराने के लिए जो देशभक्ति के साहसिक कार्य किये और जेल में यातनायें सहन कीं, उन्हें देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वह देशभक्त, वीर, साहसी, बलिदानी भावना वाले भारत माता के ऐसे पुत्र थे जिन पर भारतमाता व देश को गर्व है। हमें यह पंक्तियां लिखते हुए उनके जीवन की वह घटना याद आ रही है जब कोर्ट में हसंने पर अंग्रेज न्यायाधीश ने उनसे कहा था कि यह कोर्ट का अपमान है। इस पर वह बोले थे कि जज महोदय, मैं तो फांसी के फन्दे पर खड़ा हो कर भी हंसूगां, तब यह किस कोर्ट का अपमान होगा?

भगत सिंह जी के पिता का नाम सरदार किशन सिंह, माता का नाम विद्यावती और दादा का नाम सरदार अर्जुन सिंह था। आपका पूरा परिवार सिख होकर भी आर्यसमाजी था। सरदार अर्जुन सिंह जी के बारे में तो हमने पढ़ा है कि वह जब कहीं जाते थे तो हवन कुण्ड उनके साथ होता था और वह प्रतिदिन हवन करते थे। भगत सिंह जी दयानन्द ऐग्लो वैदिक स्कूल में पढ़े थे तथा भाई परमानन्द जैसे महर्षि दयानन्द जी के प्रसिद्ध क्रन्तिकारी भक्त उनके मार्गदर्शक थे। भगत सिंह जी का यज्ञोपवीत संस्कार भी हुआ था जो आर्य समाज के पुरोहित पं. लोकनाथ तर्क वाचस्पति जी ने कराया था। अमेरिका यान से अन्तरिक्ष वा चन्द्रमा में जाने वाले श्री राकेश शर्मा पं. लोकनाथ जी के ही पौत्र हैं। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि साण्डर्स को गोली मारने के बाद भगतसिंह जी वेश बदल कर कोलकत्ता गये थे और वहां आर्यसमाज में निवास किया था। आप जब कलकत्ता से अन्यत्र गये तो अपने भोजन के बर्तन वहीं आर्यसमाज के सेवक को दे आये थे और उससे कहा था कि इनमें किसी देशद्रोही को भोजन मत कराना।

 

पंजाब केसरी लाला लाजपतराय महर्षि दयानन्द के शिष्य थे। वह कहते थे कि आर्य समाज मेरी माता है और महर्षि दयानन्द मेरे पिता हैं। आजादी के आन्दोलन में लाला लाजपत राय और भगतसिंह के चाचा श्री अजीत सिंह, यह दो ही ऐसे वीर क्रान्तिकारी थे जिन्हें जलावतन अर्थात् देश निकाला दिया गया था और यह दोनों ही महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज के अनुयायी थे। लाला लाजपत राय पर अंग्रेजों ने जो लाठियां बरसाईं थी, उसका बदला लेने की कसम ही भगत सिंह जी ने खाई थी और उसी कारण उन्होंने साण्डर्स को अपनी पिस्तौल का निशाना बनाया था। इस देश भक्ति के गौरवपूर्ण कार्य के लिए उन्हें व उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरू को भी उनके साथ फांसी दी गई थी। हमें याद है कि हमने अपनी 12 वर्ष की आयु में सन् 1964 में फिल्म कलाकार मनोज कुमार निर्मित शहीद फिल्म देखी थी। लगभग 7 या 8 बार हमने चकरौता के सैनिक सिनेमाघर में इसे देखा था। चकरौता में हमारे पिता सैनिक क्षेत्र में उन दिनों कार्य करते थे और हम गर्मीयों के स्कूल के अवकाश में वहां गये हुए थे। हमें अभी तक याद है कि इस फिल्म को देखकर ही हमने भगत सिंह और अन्य देशभक्तों से प्रेरणा ग्रहण की थी। तभी से इस फिल्म के प्रायः सभी गाने हमें स्मरण थे और हम विद्यार्थी काल में इन्हें प्रायः गुनगुनाया करते थे। 1- मेरा रंग दे बसन्ती चोला, 2- वतन, वतन हमको तेरी कसम, तेरी राह में जान तक लुटा जायेंगे, फूल क्या चीज है तेरे कदमों में हम, भेंट अपने सरों की चढ़ा जायेंगे तथा 3- सरफरोसी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजूएं कातिल में है, आदि इसके प्रमुख गीत थे।

 

शहीद भगत सिंह जी के जन्म दिवस पर हमारी उनको श्रद्धांजलि है।

 

मनमोहन कुमार आर्य 

~पं.मनसाराम जी वैदिक तोप~राजेंद्र जी जिज्ञासु

लौह लेखनी चलाई, धूम धर्म की मचाई।

जयोति वेद की जगाई, सत्य कीर्ति कमाई।।

तेरे सामने जो आये, मतवादी घबराये।

कीनी पोप से लड़ाई, ध्वजा वेद की झुलाई।।

वैदिक तोप नाम पाया, दुर्ग ढोंग का गिराया,

विजय दुंदुभि बजाई।।

रूढ़िवादी को लताड़ा, मिथ्या मतों को पछाड़ा।।

काँपे अष्टादश पुराण, पोल खोलकर दिखाई।।

लेखराम के समान, ज्ञानी गुणी मतिमान।

जान जोखिम में डाल, धर्म भावना जगाई।।

जिसकी वाणी में विराजे, युक्ति, तर्क व प्रमाण।

धाक ऋषि की जमाई, फैली वेद की सच्चाई।।

मनसाराम जी बेजोड़, कष्ठसहे कई कठोर।

धुन देश की समाई, लड़ी गोरोंसे लड़ाई।।

बड़ा साहसी सुधीर, मनसाराम प्रणवीर,

सफल हुआ जन्म जीवन, तार गई तरुणाई।।

धर्म धौंकनी चलाई, राख तमकी हटाई।

जीवन समिधा बनाके, ज्ञानाग्नि जलाई।।

~राजेंद्र जी जिज्ञासु~

अमर हुतात्मा श्रद्धेय भक्त फूल सिंह के 74 वें बलिदान दिवस पर – चन्दराम आर्य

जीविते यस्य जीवन्ति विप्राः मित्राणि बान्धवाः।

सफलं जीवनं तस्य आत्मार्थे को न जीवति।।

अर्थात् जिस व्यक्ति के जीवन से ब्राह्मण, मित्र गण एवं बान्धव जीवित रहते हैं उसका जीवन सफल माना जाता है। अपने लिए तो कौन नहीं जीता। अमर हुतात्मा श्रद्धेय भक्त फूल सिंह का जीवन भी ठीक उसी प्रकार का था।

जन्म व स्थानः- 24 फरवरी सन् 1885 को हरियाणा प्रान्त के अन्तर्गत वर्तमान में सोनीपत जिले के माहरा ग्राम में चौधरी बाबर सिंह के घर माता तारावती की कोख से एक होनहार एवं तेजस्वी बालक ने जन्म लिया। तत्कालीन रीति-रिवाज अनुसार नामकरण सस्ंकार करवाकर बालक का नाम हरफू ल रखा गया। बालक का मस्तक बड़ा प्रभावशाली एवं आकृति आकर्षक रही जिससे पण्डितों ने उसको बड़ा भाग्यशाली बताया।

शिक्षाः- जब हरफूल आठ वर्ष का हुआ तो पिता ने अपने गाँव के समीप जुूआं गांव के स्कूल में पढ़ने ोज दिया। उस काल में कृषकों के बच्चों का पढ़ना या पढ़ाना बड़ा कठिन कार्य था। बालक ने प्रथम, द्वितीय व तृतीय श्रेण्ी उत्तम अंक अर्जित करके उत्तीर्ण की। परन्तु चौथी श्रेणी में बालक पर कुसं ग का रंग चढ़ गया और अनुत्तीर्ण रहा माता-पिता व गुरुजनों के काफी प्रयास से बालक न पुनः प्रवेश लिया औरबड़ी योग्यता  से चतुर्थ श्रेणी उत्तीर्ण की। बालक को आगे पढ़ने के लिए ऐतिहासिक स्थल महरौली के  स्कूल में भेजा। उस स्कूल से हरफूल ने पांच, छठी और सप्तम श्रेणी उत्तीर्ण की। उस स्कूल के मुयाध्यापक की चरित्रहीनता के कारण पिता ने वह स्कूल छूड़ा कर खरखौदा के स्कूल में प्रवेश दिलवा दिया।

अद्भूत घटना एवं हरफू ल सिंह से फूल सिंह नाम पड़नाः- खरखौदा स्कूल के कूएं में वर्षा ऋ तु में वर्षा की अधिकता के कारण जलस्तर ऊपर आ गया और पानी भी दूषित हो गया। मुयाध्यापक जी ने छात्रों को बालटियों से पानी निकालने का आदेश दिया जब वेपानी निकाल रहे थे तो उनको कुएं में एक विषैला सर्प दिखाई दिया। मुयाध्यापक के पास सर्प होने की सूचना दी गई। सब छात्र भयभीत हो गए। हरफूल सिंह को बुलाया गया। बालक हरफू ल सिंह ने कहा गुरु जी एक मोटी रस्सी से टोकरी को बन्धवा कर कू एं में लटकवा दे और मुझे एक मजबूत डण्डा दे दें। मैं साँप को मारकर बाहर निकाल दूंगा। तदनन्तर टोकरी में हरफूल डण्डा लेकर बैठ गया। पानी से फूट भर ऊपर उसने टोकरी को रुकवा लिया। फिर बड़ी फूर्ती से उस साँप को उसने मार डाला । इसके बाद अपने साथियों को कहा कि टोकरी को खींच लो। उनकेाींचने पर हरफूल लाठी पर साँप लटकाये ं बाहर निकले। बालक की इस वीरता तथा निर्भयता को देख मुयाध्यापक दंग रह गये। वे प्रेम से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले- बेटा फूल सिंह। तू वास्तव में वीर है, साहसी है। इस साहस के बाद से हरफूल को फूल सिंह नाम से पुकारा जाने लगा।

तदुपरान्त मिडिल श्रेणी को उत्तीर्ण कर फूलसिंह ने खलीला गाँव में रहकर पटवार की एक वर्ष तक तैयारी की। समय पर पानीपत में पटवार की परीक्षा देकर उसमें बहुत अच्छे नबरों से उत्तीर्ण हुए। अब बालक फूल सिंह न रहकर फूलसिंह पटवारी कहलाने लगे।

गृहस्थाश्रम में प्रवेशः- पटवारी बने फूल सिंह को आी एक ही वर्ष हुआ था। उनका बीस वर्ष की आयु में रोहतक जिलेके खण्डा गाँव की कन्या धूपकौर के साथ विवाह सपन्न हुआ। माल विभाग की ओर से आप सन् 1904 में पटवारी बनकर सबसे प्रथम सीख पाथरी गाँव जिला करनाल में आये। आप में कार्य करने की क्षमता स्वभाव से ही थी। आप अपने काम को पूरा करके ही विश्राम लेते थे। उस समय पटवारी को गाँव का राजा माना जाता था। छोटे से लेकर बड़े पुरुषों तक सभी आपका बहुत समान  करते थे। युवावस्था वाले दोष संस्कृत के महाकवि बाणभट्ट के कथनानुसार ‘‘योवनम् स्खलितं दुर्लभम्’’ अर्थात् यौवन का निर्दोष रहना बड़ा कठिन है। आप भी यौवन के बसन्त काल में मखमल लगा सुन्दर जूता, चमकीले कीमती वस्त्र पहनकर गलियों में घूमना, हुक्का रखने वाले नौकर को साथ लेकर चलना अपनी शान मानते थे आप 1907 में उरलाने में स्थायी पटवारी बनकर आये। वस्तुतः यहीं से पटवारी फूल सिंह का जीवनोद्देश्य परिवर्तित हुआ। अब आपने पटवार का काम के उपरान्त अतिरिक्त समय में जनता जर्नादन की सेवा करना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया।

आर्य समाज में प्रवेशः- इसराना गाँव के पटवारी प्रीत सिंह उस समय के प्रसिद्ध आर्य समाजी माने जाते थे। वे प्रति सप्ताह पानीपत नगर में आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संग में जाया करते थे । आपका तथा पटवारी प्रीतसिंह का परस्पर बड़ा प्रेम था जब दोनों आपस में कभी मिलते तो बड़े प्रसन्न होते थे। देवयोग से एक बार पटवारी प्रीत सिंह व पटवारी फूलसिंह को पटवार के विशेष कार्य से पानीपत नगर में तीन मास तक इकट्ठा रहने का अवसर मिला। प्रीत सिंह आपमें विशेष गुण देखकर आपको आर्य समाजी  बनाना चाहते थे। उन्होंने इसका एक उपाय सूझा। वे पानीपत आर्य समाज से भजनों की एक पुस्तक खरीद कर लाये और पटवारी फूल सिंह को पढ़ने के लिए दी। फूलसिंह भजनों को गाते हुए तन्मय हो जाते थे। प्रीत सिंह जी आपको समय-समय पर आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संग में चलने की प्रेरणा भी देते रहते थे। पटवारी प्रीत सिंह के साथ साप्ताहिक सत्संग में भी जाना आपने प्रारभ कर दिया। वहाँ पर विद्वानों, सन्यासियों, महात्माओं, प्रसिद्ध भजनोपदेशकों के व्यायान प्रवचन, मधुर गीत और भजन सुने तो आपकी अन्तर्ज्योति जाग उठी। अब तो आप आर्य समाज के प्रत्येक सत्संग में स्वयं जाने लगे तथा मित्रों को भी चलने की प्रेरणा देने लगे।

एक बार आप अपने मित्रों सहित आर्य समाज के प्रसिद्ध गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार के वार्षिकोत्सव पर पधारे। वहाँ पर महात्मा मुन्शी राम (स्वामी श्रद्धानन्द) का मधुर उपदेश व शिक्षाप्रद हो रहा था। महात्मा जी कह रहे थे- ‘‘मानव जीवन दुर्लभ है। इस जीवन को जो लोग भोग विलास तथा प्रदर्शन में नष्ट कर देता है, उसे बाद में पछताना पड़ता है। सुकर्म करो, कुकर्म से सदा दूर रहो। आर्य समाज का मुय उद्देश्य संसार का उपकार करना है। भटके हुए लोगों को सुमार्ग पर लाओ।’’ महात्मा जी के मुखारविन्द से आपने जब ये शद सुने तो आपने मन ही मन निश्चय किया कि मैं आज से ही पटवार के अतिरिक्त समय को आर्य समाज के प्रचार व प्रसार में लगाऊँगा।

गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार से आप आर्य समाज के दीवाने बन कर आये । फिर आपने नियम पूर्वक आर्य समाज का सदस्य बनने का निश्चय किया। आपने इसके लिए योग्य गुरु की तलाश थी। आपकी इच्छानुसार पानीपत आर्य समाज उत्सव में पण्डित ब्रह्मानन्द जी (स्वामी ब्रह्मानन्द)जी के दर्शन हुए। उनसे आपने अपने मन की इच्छा प्रकट की। पण्डित जी ने भी  श्रद्धालु शिष्य में दिव्य ज्योति के दर्शन हुए। पण्डित जी ने यज्ञ के  उपरान्त आपका यज्ञोपवीत संस्कार कराकर आपको शिक्षाप्रद उपदेश देकर लाभान्वित किया । उसी दिन से आप आर्य समाज के सदस्य बन गये।

वैदिक धर्म का प्रचार एवं जनता की सेवाः- आर्य समाज के रंग में रंगे हुए फूल सिंह पटवारी सरकारी काम के अतिरिक्त अपना सारा समय समाज सेवा में लगाने लगे महात्माओं, सन्यासियों, विद्वानों का अपके यहाँ डेरा लगा रहता था। आप पटवार भवन में धर्म-कर्म चर्चा के साथ-साथ गांव के आस-पास के विवादाी सुलझाने लगे। जब आप उरलाना में पटवारी थे तो उस वर्ष वर्षा न होने के कारण सारी फसलें नष्ट हो गई थी तो आपने उसी गाँव के मुसलमान राजपूत से पाँच हजार रूपये उधार लेकर साी ग्रामवासियों की मालगुजारी सरकारी खजाने में जमा करा दी। ग्राम वासियों के भी संकट मोचक को उक्त राशि सहर्ष एवं सधन्यवाद वापिस कर दी।

प्लेग की महामारी में जनता जनार्दन की महान सेवा का व्रत लेनाः- सन् 1909 में सारे भारत में प्लेग की महामारी सर्वत्र फैल गई। इस महामारी से कोई गाँव या नगर अछूता न बचा था। आप उन दिनों उरलाना गाँव में पटवारी थे। उरलाना गाँव भी महामारी से बचा न रहा। इस महामारी के  प्रकोप से चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था। रोगियों को सभालने वाला कोई नहीं था।

माता-पिता अपने दिल के टूकड़े को,ााई-बहिन को पति-पत्नी को अनजान से बनकर भूल गये थे। ऐसे भयंकर संकट के समय आपने उरलाना गाँव के लोगों की सहायता करने का निर्णय लिया। इस घोर संकट काल में सब आफिसर अवकाश लेकर अपने-अपने परिवारों को सँभालने के लिये अपने-अपने घरों में चले गए पर सेवा भावी फूल सिंह ने अपने कुटुब को भुलाकर उरलाना गाँव के दुःखियों, रोगियों को ही अपना परिवार मानकर उनकी दिन-रात सेवा की। आपके आफिसर भी आपकी निस्वार्थ सेवा से बहुत प्रभावित हुए।

मनुष्य पर संकट सदा नहीं बना रहता है। वह मनुष्य की परीक्षा का समय होता है। एक वह समय आता है कि आकाश के बादलों के हटने के समान उसके  संकट स्वयंमेव दूर हो जाते हैं। पटवारी जी ने भी देखा कि उनके पुरुषार्थ से और प्रभु की अपार कृपा से प्लेग के दिन समाप्त हुए। बिछुड़े हुए लोग परस्पर आकर मिले। बेटे ने बाप को, पति ने पत्नी को, भाई ने भाई को पहचाना तथा परस्पर गले मिले। पता नहीं जो महामारी आई थी वह कहाँ चली गई। सब गाँवो वालों ने पटवारी जी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की एवं पावों में गिरकर उनकी सेवा और त्याग और साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की। पटवारी जी नेाी उन सबको उठाकर अपनी छाती से लगाया।

रिश्वत छोड़ने का दृढ़ निश्चयः- आपके ऊपर आर्य समाज के सिद्धान्तों, महात्माओं व विद्वानों के उपदेशों का इतना प्रभाव हुआ कि आप आत्मशोधन के लिए भी उद्यत हो गये। इसके लिये रिश्वत छोड़ने की एक महत्वपूर्ण घटना इस प्रकार हुई कि बुआना लाखू गाँव में एक बनिये ने क्रुद्ध होकर अपनी स्त्री को मार डाला । इसकी सूचना जब पुलिस को लगी वह वहाँ पहुँची पुलिस को देख बनिया बहुत डरा, आपकी शरण में आकर बोला पटवारी जी आप चाहे कितना ही रूपया मुझसे ले लें आप नबरदारों की सहायता से मेरा छुटकारा पुलिस से करा दें। पटवारी जी ने 600 रूपया लेकर बनिये को छुड़ाने का वायदा किया। पटवारी ने नबरदारों की सहायता से उस बनिये का पुलिस से पिण्ड छुड़वा दिया। रिश्वत में लिए हुए तीन सौ रूपये पटवारी जी के तथा तीन सौ नबरदारों के निश्चित हुए थे। आपने 300 रुपये स्वयं लेकर शेष रूपये नबरदारों में बाँट दिये। सब नबरदारों ने अपना-अपना भाग ले लिया परन्तु दृढ़ आर्य समाजी नबदार याली राम ने रिश्वत का रूपया लेना स्वीकार न किया। पूछने पर उन्होंने कहा रिश्वत का रुपया बहुत बुरा होता है, जिसे इसकी चाट लग जाती है फिर इससे छुटकारा कठिन है।  आपने 1914 में रिश्वत न लेने की प्रतिज्ञा की तथा जो रिश्वत लेता था उसका डटकर विरोध करते थे। रिश्वत लेने को आप महापाप कहने लगे।

थानेदार से रिश्वत वापिस दिलवानाः- जिन दिनों आप बुवाने में पटवारी थे उन दिनों एक थानेदार ने कात गाँव के लोगों को डरा-धमकाकर उनसे आठ सौ रूपये ले लिये । उसी समय कात से एक आदमी भागा हुआ बुवाना ग्राम आया और आपके सामने सारी घटना कह सुनाई। आप उसके साथ कात गाँव आये और गांव वालों ने बताया कि आठ सौ रूपये थानेदार के मूढ़े के नीचे दबे हुए है। आपका मुख-मण्डल क्रोध से रक्त-वर्ण हो गया और आपने थानेदार को कड़क कर कहा थानेदार बना फिरता है, गरीब ग्राम वासियों को तंग करके रूपये हड़पने में तुझे शर्म नहीं आती। ऐसा कहकर थानेदार को मूढ़े से नीचे धकेल दिया ओर कमर पर जोर से लात मारी ओर कहा पापी निकल यहाँ से नहीं तो तू जीवित नहीं बचेगा। वह थानेदार आपकी गर्जना सुनकर थर-थर काँपने लगा गिड़गिड़ाकर घोड़े पर सवार होकर चुपचाप थाने की ओर चला गया। इसके बाद उसमें कोई भी अदालती आदि कार्यवाही करने का साहस नहीं रहा। ऐसी उदाहरणें अन्य भी हैं।

समाज सेवा करने की अभिलाषा से पटवार से त्याग पत्र देने की इच्छाः- आपका जीवन आर्य समाज की सेवा के  लिए अर्पित हो गया। आप सोचने लगे दीन-दुखियों की सेवा करनी है तो पटवार का मोह छोड़ना होगा। इससे भी समाज सेवा में बाधा उपस्थित होती है। कई दिन विचार करते हुए आपने यह बात अपने प्रेमियों से भी कही तो उन्होंने सलाह दी शीघ्रता से कार्य करना लाभप्रद नहीं होता अतः आप त्याग पत्र न देकर एक वर्ष का अवकाश ले लें । आपको साथियों की यह बात समझ आ गई। आपने विचार किया इस अवकाश काल में स्वामी सर्वदानन्द जी महाराज के आश्रम में रहकर सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर आर्य समाज के सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त किया जाये। ऐसा निश्चय करके सन् 1916 दिसबर मास में एक वर्ष का अवकाश प्राप्त कर अपना चार्ज बरकत अली नाम के पटवारी को सौंप दिया। ऐसा करके निश्चित होकर आप पटवार गृह में ही सो गये।

सभालका गाँव में गोहत्या स्थल (हत्थे) को रोकनाः- अपने जीवन को देश के लिये अर्पण करने का मानचित्र स्वसंकल्पों से चित्रित कर अभी पटवार घर में सोये ही थे कि उनके परिचित मित्र सभालका निवासी चौ. टोडरमल की आवाज सुनाई दी। उन्होंनें कहा, भक्त जी हम बड़े धर्म संकट में हैं। इधर कु आँ है, उधर खाई है। एक ओर धर्म की पुकार है दूसरी ओर सरकार का विरोध है। हमारे गाँव सभालका में गौ-हत्था खोलने की मुसलमानों को स्वीकृति मिल गई है और कल ही इसकी नींव रखी जायेगी। आपने श्री टोडरमल की बात ध्यान से सुनी और ओजस्वी वाणी में कहा कि हत्था नहीं खुलेगा। तुम जाओ, तुम से जो बन सके तुम भी करो।

प्रातःकाल ही आपने अपने पटवार गृह में बुवाना गाँव के प्रतिष्ठित पुरुषों को इकट्ठा किया और उनके सामने श्री टोडरमल की बात सबके सामने कही। गाँव वालों ने कहा ‘‘हम सब आपके साथ हैं, बताओ हमने क्या करना है?’’ भक्त जी ने कहा ‘‘पहले तो हम शान्ति से निपटाना चाहेंगे अगर ऐसे काम नहीं चला तो लड़ाई भी लड़नी पड़ेगी। बिना हथियारों के लड़ाई नहीं लड़ी जाती है। हथियारों के लिए 1200 रु. की आवश्यकता है। दो दिन में ही गांव वालों ने 1200 रु. एकत्रित कर आपके चरणों में अर्पित कर दिए। आपने उन रूपयों से उपयोगी हथियारों का संग्रह किया। तदन्तर प्रत्येक गांव ूमें आदमी भेजकर निर्धारित तारीख व स्थान पर हत्था तोड़ने के लिए चलने का सन्देश भेजा। आपके सन्देश को सुनक र ग्रामों से ग्रामीण भाई दलबल समेत सभालका गाँव की ओर चल पड़े। जब मुसलमानों को ग्रामीणों की इस चढ़ाई का पता चला तो वे भागकर कस्बे के डिप्टी कमिश्नर की सेवा में पहुँचे और गा्रमवासियों के आक्रमण की सूचना डिप्टी कमिश्नर महोदय को दी।’’

कमिश्नर महोदय ने क्रुद्ध जनता की क्रोध एवं जोशपूर्ण आवाज सुनी, कोई कह रहा था यदि यहाँ हत्था खुला तो खून की नदी बह जायेगी, कोई कह रहा था कि हमारी लाशों पर ही हत्था खुल सकेगा। हम किसीाी कीमत पर हत्था नहीं खुलने देंगे। क्रुद्ध जन समुदाय को शान्त करते हुए कमिश्नर ने घोषणा की ‘‘प्यारेग्राम वासियों। मैं आपकी भावना को जानता हूँ मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यहां पर हत्था नहीं खुलेगा।’’ आप सब अपने-अपने घरों को जाओ। किन्तु जिलाधीश कीघोषणा के उपरान्त भी कुछ क्रुद्ध वीर युवक आक्रमण की प्रतीक्षा में बाग में छिपे बैठे थे। आपने एक टीले पर चढ़कर चारों ओर चद्द्र घुमाकर सबको संकेत किया कि भाइयों जिस उद्देश्य से हम आये थे वह काम हमारा पूरा हो गया और आप इस स्थान को छोड़कर अपने-अपने घरों को चले जायें। कवि ने ठीक ही कहा है-

इरादे जब पाक होते हैं, सफलता चलकर आती है

चट्टानें थरथराती हैं और समुद्र रास्ते देते हैं।

पटवारी बरकत अली की नीचताः- इस घटना को साप्रदायिक रंग देने के लिये मुसलमान पटवारी पदवृद्धि के लोभी  बरकत अली ने उसी हल्के के अदुल हक नामक गिरदावर के साथ मिलकर एक समिलित रिपोर्ट तैयार की। उस रिपोर्ट में इस विप्लव का मुखिया आपको बतलाते हुए यह सिद्ध किया कि जाटों को भड़का कर मुसलमानों को खत्म करने की योजना थी और धीेरे-धीेरे अंग्रेज सरकार का तता उलटना पटवारी फूल सिंह चाहता था। अतः पटवारी फूल सिंह को बागी घोषित कर जल्दी से जल्दी बन्दी बनाया जाये। इस दोनों  की रिपोर्ट पर श्री गोकुल जी नबरदार बिजावा, श्री बशी राम परढ़ाणा, श्री मोहर सिंह सभालका श्री टोडरमल सभालका, श्री चन्द्रभान और सूरज भान सहित सबको बन्दी बना लिया। सब से पाँच-पाँच हजार की जमानत लेकर छोड़ा गया।

आप इन मुकदमों की पैरवी के लिए करनाल के वकीलों व रोहतक के वकीलों के पास गये । किसी में भी सरकार का सामना करने का साहस न हुआ। अन्त में आप निराश होकर ग्रामीण जनता के परम सेवक दीनबन्धु श्री चौधरी छोटूराम जी की सेवा में उपस्थित हुए उनके सामने जो घटना जैसी घटी थी वह सब सुना डाली और यह भी कहा सब स्थानों पर घूम चुका हूँ कोई भी वकील इस मुकदमें की पैरवी करने के लिए तैयार नहीं है। भक्त जी की बातों को सुनकर उन पर गहरा विचार कर चौधरी छोटूराम जी ने उनसे कहा- ‘‘भक्त जी, मैं आपके मुकदमे की पैरवी करुंगा। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप इस मुकदमे से मुक्त हो जाओगे। यह मेरा निश्चय है आप सर्वदा निश्चित रहें। और मैं आपसे इसकी फीस भी नहीं लूँगा।’’

चौधरी साहब ने अपने वचन के अनुसार उस मुकदमे की पैरवी करने में बड़े वाक् चातुर्य से काम लिया। उन दोनों मुसलमानों की रिपोर्ट की धज्जियाँ उड़ा दी। जब आप पैरवी करते थे तब सुनते ही बनता था। उन्होंने कानून की दृष्टि से मुकदमे का अध्ययन अति सूक्ष्मता से किया हुआ था। विरोधी वकील उनके द्वारा प्रस्तुत तर्कों को काट न सके। आपकी प्रबल पैरवी से भक्त जी के साथ ही अन्य सब साथी अभियुक्त भी मुक्त हो गये।

शेष भाग अगले अंक में……

इससे हमने क्या सीखा?ः- राजेन्द्र जिज्ञासु

पूर्वजों के तर्क व युक्तियाँ सुरक्षित की जायेंः आज हम लोग एक बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं। हम कुछ हल्के दृष्टान्त, हंसाने वाले चुटकले सुनाकर अपने व्यायानों को रोचक बनाने की होड़ में लगे रहते हैं। इससे हमारा स्तर गिरता जा रहा है। यह चिन्ता का विषय है। पं. रामचन्द्र जी देहलवी हैदराबाद गये तो आपने हिन्दुओं के लिए मुसलमानों के लिए व्यायान के पश्चात् शंका करने के दिन निश्चित कर रखे थे। निजाम ने प्रतिबन्ध लगा दिया कि मुसलमान पण्डित जी से शंका समाधन कर ही नहीं सकता। वह जानता था कि पण्डित रामचन्द्र जी का उत्तर सुनकर मुसलमान का ईमान डोल जायेगा। उसके भीतर वैदिक धर्म घुस जायेगा। देहलवी जी से प्रश्न करने पर लगाई गई यह पाबन्दी एक ऐतिहासिक घटना है।

इससे हमने क्या सीखा?ः- हमें बड़ों के मनन-चिन्तन की सुरक्षा को मुयता देकर नये सिरे से उनके विचारों पर गहन चिन्तन करना होगा।

होना तो यह चाहिये था कि पं. लेखराम, स्वामी दर्शनानन्द, पं. गणपति शर्मा, स्वामी नित्यानन्द, पं. धर्मभिक्षु, श्री महाशय चिरञ्जीलाल प्रेम, पं. चमूपति, पं. शान्तिप्रकाश और पं. अमरसिंह आर्य पथिक आदि सबके मौलिक चिन्तन व युक्तियों को संग्रहीत करके उनका नाम ले लेकर लेखों व व्यायानों में उन्हें प्रचारित करके अगली पीढ़ियों तक पहुँचाया जाये।

मैंने इस दिशा में अत्यधिक कार्य किया है। इन महापुरुषों के साहित्य, व्यायानों व लेखों से इनकी ज्ञान राशि को खोज-खोज कर सुरक्षित तो किया है परन्तु वक्ता या तो उनका नाम नहीं लेते हैं और नाम लेते भी हों तो तर्क, युक्ति प्रसंग को बिगाड़ करके रख देते हैं। इसके बीसियों उदाहरण दिये जा सकते हैं। यह बहुत दुःखदायक है।

दुःखी हृदय से ऐसे दो प्रसंग यहाँ दिये जाते हैं। श्रद्धेय पं. सत्यानन्द जी वेदवागीश, पं. ओम् प्रकाश जी वर्मा दोनों पं. शान्तिप्रकाश जी के पुनर्जन्म विषय पर एक शास्त्रार्थ का प्रेरक प्रसंग सुनाया करते हैं। पण्डित जी के मुख से स्वपक्ष में कुरान की आयतें सुनकर प्रतिपक्षी मौलाना ने अपनी बारी पर पण्डित जी के आयतों के उच्चारण व कुरान पर अधिकार के लिए कहा था, ‘‘कमबख्त  पिछले जन्म का कोई हाफिजे कुरान है।’’

इस पर पण्डित जी ने कहा- बस पुनर्जन्म का सिद्धान्त सिद्ध हो गया। आपने इसे स्वीकार कर ही लिया है। मैं भी यह घटना सुनाया करता हूँ। शास्त्रार्थ के अध्यक्ष स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज थे। यह शास्त्रार्थ लाहौर में हुआ था। वर्मा जी भी यह बताया करते हैं।

अभी पिछले दिनों पं. शान्ति प्रकाश जी के पुत्र श्री वेदप्रकाश जी ने मेरे मुख से यह घटना सुनने की इच्छा प्रकट की। आपने पिताश्री के मुख से कभी इसे सुना था। मैंने उसको पूरा-पूरा प्रसंग सुना दिया। अब हो क्या रहा है। गत दिनों एक भद्रपुरुष ने इस घटना को बिगाड़ कर पं. रामचन्द्र जी देहलवी के नाम से जोड़ दिया। श्री देहलवी जी के पुनर्जन्म विषयक किसी लेख, व्यायान और शास्त्रार्थ में इसका कहीं भी संकेत नहीं मिलता।

न जाने लोगों को गड़बड़ करने में क्या स्वाद आता है। एक ने मुझे कहा कि मैंने राधा व श्री कृष्ण पर लेख देना है। कहाँ से सामग्री मिलेगी? मैंने उसे पं. मनसाराम जी की दो पुस्तकें देखने को कहा। उसने झट से लेख तो छपवा दिया परन्तु पं. मनसाराम जी के ग्रन्थ का उल्लेख नहीं किया। क्या ऐसा करके वह ठाकुर अमरसिंह की कोटि का विद्वान् बन गया? बड़ों ने वर्षों श्रम किया, तप किया, दुःख कष्ट झेले तब जाकर वे पूज्य बने। तस्करी करके या बड़ों का नाम न लेकर, उनकी उपेक्षा करके हम यश नहीं प्राप्त कर सकते।

आचार्य प्रियव्रत जी ने मुझे आज्ञा दीः आचार्य प्रियव्रत जी ने एक बार मुझे एक भावपूर्ण पत्र लिखकर एक महत्त्वपूर्ण कार्य सौंपा था। आपने मेरे ग्रन्थ में स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के द्वारा सुनाये जाने वाले कई दृष्टान्त पढ़कर यह आज्ञा दी कि मैं स्वामी जी महाराज के सब दृष्टान्तों की खोज करके उनका दृष्टान्त सागर तैयार कर दूँ। वे सत्य कथाओं का अटूट भण्डार थे। यदि स्वामी सर्वानन्द जी, स्वामी विज्ञानानन्द जी, पं. शान्तिप्रकाश जी, पं. नरेन्द्र जी और आचार्य प्रियव्रत मेरे पर निरन्तर दबाव बनाते तो यह कार्य तब हो सकता था। अब इसे करना अति कठिन है। कोई युवक इस कार्य के लिए आगे निकले तो मैं उसको पूरा-पूरा सहयोग करूँगा। यह एक करणीय कार्य है।

बड़ों को समझो, उन्हें बड़ा मानो तोः- कोई 20-22 वर्ष पुरानी बात होगी। आर्यसमाज नया बांस देहली में एक दर्शनाचार्य युवक से भेंट हो गई। वह रोजड़ से दो दर्शनों का आचार्य बनकर आया था। उससे मिलकर बड़ा आनन्द हुआ। तब पं. चमूपति जी के पुत्र श्री डॉ. लाजपतराय भी वहीं बैठे थे। मैंने दर्शनाचार्य जी से पूछा, किस-किस आर्य दार्शनिक के दार्शनिक साहित्य को आपने पढ़ा है? उसने कहा, जो वहाँ पढ़ाये जाते थे, वही ग्रन्थ पढ़े हैं।

अब मैंने उसे कहा- हम त्रैतवाद को मानते हैं। जीव और प्रकृति को भी अनादि व नित्य मानते हैं। मुसलमान जीव की उत्पत्ति तो मानते हैं परन्तु नाश नहीं मानते। हमारे विद्वान् यह प्रश्न पूछते रहे कि क्या एक किनारे वाले भी कोई नदी होती है? जिसका अन्त नहीं उसका आदि भी नहीं होगा और जिसका आदि नहीं उसी का अन्त नहीं होगा। यह नहीं हो सकता कि कहीं एक किनारे की नदी हो।

उसे बताया गया कि झुंझलाकर एक मौलाना ने लिखा कि फिर ऐसी भी तो किनारा न हो अर्थात् जिसका न आदि हो और न अन्त हो।

मैंने कहा- दर्शनाचार्य जी! आप इसका क्या उत्तर देंगे। वह लगे सूत्र पर सूत्र सुनाने परन्तु मियाँ के तर्क को काट न सके। लाजपत जी ने उसे संकेत दिया- भाई किनारे को काटो तब उत्तर बनेगा परन्तु उसे कुछ न सूझा। तब मैंने उसे बताया कि पं. चमूपति जी ने इसका उत्तर दिया, ‘‘हाँ, मौलाना एक ऐसी नदी भी है- अल्लाह मियाँ, जिसका न आदि आप मानते हैं और न अन्त आप मानते हैं।’’ कैसा बेजोड़ मौलिक सबकी समझ में आने वाला उत्तर है। मैं किसी को निरुत्साहित करना पाप मानता हूँ। मेरी इच्छा है कि परोपकारिणी सभा पं. लेखराम जी, स्वामी दर्शनानन्द जी, पं. चमूपति जी, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय के दार्शनिक चिन्तन पर उच्च स्तरीय शिविर लगाये। इस प्रकार के शिविरों से इन विचारकों का वंश बढ़ेगा। फूलेगा, फलेगा।

दिल्ली के दो प्राणवीरः- – राजेन्द्र जिज्ञासु

तड़प-झड़प’ के प्रेमी पाठक प्रत्येक मणि में स्वर्णिम इतिहास के कुछ प्रेरक प्रसंग देने की माँग करते हैं। आज इस मणि में दिल्ली के दो प्राणवीरों की एक-एक घटना दी जाती है। दिल्ली के वर्तमान आर्यसमाज अब भूल गये कि यहाँ कभी महाशय मूलशंकर नाम के एक कर्मठ धर्मात्मा मिशनरी थे। मैंने भी उनको निकट से देखा। वह बहुत अच्छे तबला वादक और आदर्श आर्य पुरुष थे। उनके ग्राम कोटछुट्टा (पं. शान्तिप्रकाश जी का जन्म स्थान) में पौराणिक कथावाचक कृष्ण शास्त्री प्रचारार्थ पहुँचा। उसकी कथा में सनातनियों की विनती मानकर कट्टर आर्य मूलशंकर ने तबला बजाना मान लिया। कृष्ण शास्त्री को ऋषि को गाली देने का दौरा पड़ गया।

भरी सभा में मूलशंकर जी ने तबला उठाकर कृष्ण शास्त्री के सिर पर दे मारा और सभा से निकल आये। ‘‘मेरे होते महर्षि दयानन्द को गाली देने की तेरी हिमत!’’ पौराणिकों ने भी कृष्ण शास्त्री को फटकार लगाई। आर्य पुरुषो! इस घटना का मूल्याङ्कन तो करिये।

पंजाब के लेखराम नगर कादियाँ के एक आर्य नेता और अद्भुत गायक हमारे पूज्य लाला हरिराम जी देहल्ली रहने लग गये। कादियाँ में मिर्जाई छह मार्च के दिन पं. लेखराम जी को कोसते हुए वहाँ के हिन्दूओं विशेष रूप से आर्यों का मन आहत किया करते थे। बाजार में खड़े होकर एक बड़े मिर्जाई मौलवी ने पं. लेखराम जी के ग्रन्थ का नाम लेकर ऋषि जी के बारे में एक गन्दी बात कही। हमारे प्रेरणा स्रोत साहस के अंगारे लाला हरिराम ने भरे बाजार में स्टूल पर खड़े मियाँ की दाढ़ी कसकर पकड़कर खींचते हुए कहा, ‘‘बता पं. लेखराम ने कहाँ यह लिखा है?’’ तब कादियाँ में हिन्दू सिख मुट्ठी भर थे। मिर्जाइयों का प्रचण्ड बहुमत था। उनका उस क्षेत्र में बहुत आतंक था।

‘कलम आज उनकी जय बोल।’

वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

‘योगेश्वर श्री कृष्ण जन्म दिवस पर्व और शिक्षक दिवस’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारतीय धर्म व संस्कृति के गौरव योगेश्वर श्रीकृष्ण का आज जन्म दिवस है। हमें और हमारे देश को इस बात का गौरव है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण, मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम और वेद, वैदिक धर्म और संस्कृति के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द आदि अनेक महापुरूषों के समान विश्व में ऐसे गौरवमय जीवन उत्पन्न नहीं हुए। श्रीकृष्ण आदि सभी ऋषि, मुनि महान युगपुरूष वैदिक धर्म संस्कृति की ही देन थे। इसी लिए आद्य धर्मशास्त्र के निर्माता मनु ने लिखा था कि आर्यावत्र्त की पुण्य भूमि संसार के अग्रजन्मा महापुरूषों की जन्मदात्री है जहां संसार के लोग उत्कृष्ट जीवन व चरित्र की शिक्षा लेने आते हैं। हमें श्री कृष्ण, मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम और महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्रों का अध्ययन करने पर इनमें ज्ञान व चिन्तन अथवा विचारधारा में कहीं कोई विरोधाभास दृष्टिगोचर नहीं होता अभी यह सभी वेदों के अनुयायी व प्रचारक ही प्रतीत होते हैं। वेदों में ही यह शक्ति, क्षमता व सामथ्र्य है कि वेदों का अध्ययन कर मनुष्य ऋषि, मुनि, ब्रह्मचारी, देशभक्त, ईश्वरभक्त, मातृ-पितृ-आचार्य भक्त, मर्यादित-आदर्शजीवन व चरित्र का धनी, परोपकारी, सेवाभावी, सदुपदेशक, वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ओतप्रोत, अंहिसक, अस्तेयसेवी वा भ्रष्टाचारमुक्त, शुद्ध मन-वचन-कर्म का सेवनकरनेहारा बनता है। वेदों में वेद को ही ‘सा संस्कृति प्रथमा भाविवारा कह कर इसका गौरवगान किया गया है जो कि ऐतिहासिक दृष्टि से पुष्ट व सत्य है। इन उच्च आदर्शों व गुणों से सम्पन्न हमारी संस्कृति है व हमारे महापुरूष इसके संवाहक रहे हैं। दूसरी ओर हमारे कुछ अल्पज्ञानी लोगों ने अपने अज्ञान व कुछ स्वार्थवश श्रीकृष्ण जी के चरित्र को दूषित करने का भी प्रयास किया है जो कि उस महापुरूष के प्रति घोर निन्दनीय कार्य रहा है। श्री कृष्ण ने कभी किसी प्रकार की चोरी व जार कर्म नहीं किया। गोपियों व उद्धव आदि के जो प्रसंग लिख कर उनका प्रचार किया जाता है, वह सब प्रक्षेप व कुछ अन्धभक्ति के भावों से भरे हुए लोगों की कल्पना ही कही जा सकती हैे। इसके विपरीत श्रीकृष्ण जी तो सच्चे ब्रह्मचारी, योगेश्वर तथा राजनीति वा राजधर्म के मर्मज्ञ अग्रणीय महापुरूष थे। वह मातृशक्ति का ऐसा ही सम्मान करते थे जैसा कि वेदों में वर्णित है। वह नारी जाति वा मातृशक्ति के पुजारी थे क्योंकि उन्होंने मनु के यह वाक्य पढ़े थे कि जहां नारियों का सम्मान व पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं और जहां चोर व जार कर्म होता है वहां कि सभी क्रियायें व्यर्थ व प्रतिगामी होने से देश व समाज को अधोगति में ले जाती हैं। महाभारत के कृष्ण वीर, बलशाली, बुद्धिमान, नीतिज्ञ, सुदर्शनचक्र धारी, दुष्टभंजक, साधुओं के रक्षक आदि गुणों से परिपूर्ण थे।

 

हम यहां श्रीकृष्ण के वैदिक धर्म के प्रति अनुराग का एक उदाहरण भी प्रस्तुत करना चाहते हैं। महाभारत के शान्तिपर्व में महर्षि वेद व्यास ने लिखा है कि श्री कृष्ण भीष्म से उपदेश ग्रहण करने के दिन युधिष्ठिर की राजधानी में सुखपूर्वक निद्रा लेने के पीछे, पहर रात्रि रहने पर जागे तथा प्रातः स्मरणीय मन्त्रों से सनातन ब्रह्म का ध्यान कर उन्होंने स्नान किया। फिर प्रणव गायत्री का जाप एवं सन्ध्या कर नित्य किया जाने वाला होम किया। इन पंक्तियों में महर्षि व्यास ने श्री कृष्ण जी के प्रातःकाल की दिनचर्या पर प्रकाश डाला है। श्री कृष्ण जी हमारे पूर्वज हैं अतः हमें भी उनके इन गुणों को ग्रहण व धारण करना चाहिये। यही संकल्प इस कृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर हम कृष्ण भक्तों को लेना चाहिये। हम इस अवसर पर महर्षि दयानन्द के उन विचारों को भी स्मरण करना चाहते जिसमें उन्होंने कहा है कि श्री कृष्ण जी का महाभारत ग्रन्थ में इतिहास अति उत्तम है। उनके गुण, कर्म व स्वभाव आप्त पुरूषों अर्थात् वेद के ऋषियों के समान थे। उन्होंने जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त कोई बुरा काम नहीं किया। इसके अतिरिक्त मूर्तिपूजा के प्रसंग में सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में वह लिखते हैं कि ‘‘संवत् 1914 (सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम) के वर्ष में तोपों के मारे मंदिर की मूर्तियां अंगरेजों ने उड़ा दी थीं, तब मूर्ति (मूर्ति की शक्ति) कहां गई थीं? प्रत्युत् बाघेर लोगों ने जितनी वीरता की, और लड़े, शत्रुओं को मारा, परन्तु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी तोड़ सकी। जो श्री कृष्ण सदृश (उन दिनों) कोई होता तो इनके (अंग्रेजों के) घुर्रे उड़ा देता और ये लोग भागते फिरते। भला यह तो कहो कि जिसका रक्षक मार खाय, उसके शरणागत क्यों पीटे जायें?’’

 

आज शिक्षक दिवस भी है। शिक्षक आचार्य को कहा जाता है। वैदिक धर्म व संस्कृति में आचार्य को माता-पिता के समान ही सम्मान दिया जाता रहा है। माता सन्तान को केवल जन्म देती है परन्तु उसे द्विज अर्थात् ज्ञान व विद्या से सम्पन्न कर नया जन्म देने वाला आचार्य ही होता है। आज न तो अच्छे आचार्य हैं और न हि राम, कृष्ण, चाणक्य व दयानन्द जी जैसे शिष्य। गुरू का माता-पिता के समान आदर, ब्रह्मचर्य का सेवन, सत्य धर्म व अन्य विषयों के शास्त्रों व पुस्तकों का अध्ययन करने वाले छात्र आज देश में बहुत ही कम होंगे? हम जानते हैं कि श्री राम का निर्माण उनके गुरू विश्वामित्र और वशिष्ठ आदि ने किया था। इसी प्रकार श्री कृष्ण जी का निर्माण उनके गुरू सान्दिपनी जी ने किया था। महर्षि दयानन्द का निर्माण यद्यपि अनेक गुरूओं ने किया। महर्षि दयानन्द का शिष्यत्व इतिहास प्रसिद्ध शिष्यों में अपूर्व हैं। बच्चे लगभग पांच से आठवें वर्ष में आचार्यकुल वा विद्यालय में प्रवेश लेते हैं। महर्षि दयानन्द के माता-पिता ने इसी वय में उनका अध्ययन आरम्भ कराया। इक्सीस वर्ष पूर्ण होने तक उन्होंने अपने माता-पिता के द्वारा योग्य गुरूओं से अध्ययन किया। बाईसवें वर्ष में उन्होंने और अध्ययन के लिए गृह त्याग किया अन्यथा माता-पिता उन्हें विवाह के बन्धन में बांध देते और फिर वह जो बनना चाहते थे वा बने, वह कदापि नहीं बन सकते थे। गृह त्याग के बाईसवें वर्ष से लेकर अपनी आयु के 38 वर्ष पूर्ण करने पर भी वह अध्ययनरत रहे। उनके गुरू के साथ कैसे सम्बन्ध थे, यह इन दोनों गुरू-शिष्य के जीवन चरित पढ़कर ही जाना जा सकता है। इतना कह सकते हैं कि यह आदर्श व अपूर्व थे। इस बीच उन्होंने न केवल योग का पूर्ण अभ्यास कर समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार किया अपितु वेद सहित सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान भी प्राप्त किया। उनके शास्त्र ज्ञान के दाता और उसे पूर्णता देने वाले गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा थे। जिन लोगों ने स्वामी दयानन्द व स्वामी विरजानन्द जी के जीवन चरित्र का गम्भीरता से अध्ययन किया है वह जान सकते हैं कि विगत लगभग 5,200 वर्षों में इन दो गुरू-शिष्यों के समान अन्य कोई गुरू-शिष्य उत्पन्न नहीं हुआ। इनसे जितना देशोपकार हुआ है, उतना किसी अन्य गुरू-शिष्य के द्वारा नहीं हुआ। वेदों का उद्धार तो एकमात्र. महर्षि दयानन्द की ही देन है जिसमें उनके गुरू वा आचार्य स्वामी विरजानन्द जी का विद्यादान अदृश्य रूप में छिपा हुआ है। स्वामी दयानन्द ने महाभारत काल के बाद आलसी व प्रमादी वैदिक धर्म व संस्कृति के अनुयायियों द्वारा विकृत धर्म व संस्कृति को पूर्ण शुद्ध रूप प्रदान किया और इसे संसार का पूर्ण व एकमात्र तर्क व युक्तियों पर आधारित प्राचीनतम ईश्वर प्रदत्त विज्ञान सम्मत धर्म सिद्ध किया। यथा गुरू तथा शिष्य की कहावत के अनुसार ही शिष्य अपने गुरू के ज्ञान व आचरण के अनुरूप होता है। आज आवश्यकता है कि हमारे शिक्षक, आचार्य व गुरू आदर्श जीवन व चरित्र के धनी बने और अपने शिष्यों को भी वैसा ही बनायें। शिक्षित वा साक्षर, इंजीनियर व डाक्टर अथवा कम्प्यूटर विज्ञान में प्रवीण शिष्य व युवा तैयार करना अच्छी बात है परन्तु यदि कोई शिक्षा ग्रहण करने के बाद स्वार्थी, अर्थलोलुप या लोभी बनता है और भ्रष्टाचार-अनाचार-दुराचार व देशद्रोह के कार्य करता है तो उसे पूर्ण शिक्षित नहीं कहा जा सकता। आज देश को स्वामी विरजानन्द स्वामी दयानन्द जैसे गुरू शिष्यों की आवश्यकता है। इसी से देश का निर्माण होकर हम अपने प्राचीन यश व गौरव को प्राप्त कर सकते हैं।

 

आज शिक्षक दिवस पर हम सभी शिक्षकों व शिष्यों को शुभकामनायें और बधाई देते हैं और उनसे आग्राह करते हैं कि वह प्राचीन शास्त्रों का अध्ययन कर आदर्श आचार्य, शिक्षक एवं शिष्य बनने का व्रत लें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

योगेश्वर श्री कृष्ण और १६ कलाएं तथा जन्माष्टमी

नमस्ते मित्रो,

५००० वर्ष और उससे भी पूर्व अनेको मनुष्य उत्पन्न हुए मगर इतिहास में याद केवल कुछ ही लोगो को किया जाता है, इतिहास में केवल उनके लिए जगह होती है जो कुछ अनूठा करते हैं, कुछ लोग अपने द्वारा की गयी बुराई से अपना नाम इतिहास में दर्ज करवाते हैं, और कुछ अपने सदगुणो, सुलक्षणों और महान कर्तव्यों से अपना नाम अमर कर जाते हैं, क्योंकि आज कृष्ण जैसा सुलक्षण नाम अपने पुत्र का तो कोई भी रखना चाहेगा, मगर रावण, कंस आदि दुर्गुणियो के नाम कोई भी अपने पुत्र का न रखना चाहेगा, इसी कारण कृष्ण अमर हैं, राम अमर हैं, हनुमान अमर हैं, मगर रावण, कंस आदि मृत हैं।

आर्यावर्त में उत्पन्न हुए अनेको ऐतिहासिक महापुरषो में से एक महापुरुष, ज्ञानी, वेदवेत्ता योगेश्वर श्री कृष्ण का आज ही के दिन जन्म हुआ था, इस दिन को आज जन्माष्टमी कहते हैं, क्योंकि आज भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि है, इसी दिन कृष्ण महाराज का जन्म हुआ था। इसलिए इस दिन को जन्माष्टमी के नाम से जाना जाता है।

हमारे बहुत से बंधू कृष्ण महाराज को पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं। यहाँ हम अवतार का अर्थ संक्षेप में बताना चाहेंगे, “अवतार का शाब्दिक अर्थ “जो ऊपर से नीचे आया” और “पूर्ण” “पुरुष” इस हेतु कहते हैं पूर्ण कहते हैं जो अधूरा न रहा, और पुरुष शब्द के दो अर्थ हैं :

1. पुरुष शब्द का अर्थ सामान्य जीव को कहते हैं जिसे आत्मा से सम्बोधन करते हैं।

2. पुरुष शब्द का प्रयोग परमात्मा के लिए भी किया जाता है जिसने इस सम्पूर्ण ब्राह्मण की रचना, धारण और प्रलय आदि का पुरषार्थ किया और करता है।

हम सभी जीव जो इस धरती पर व अन्य लोको पर विचरण कर रहे वो सभी अवतारी हैं क्योंकि हम सब ऊपर से ही नीचे आये क्योंकि मरने के बाद हमारी आत्मा यमलोक (यम वायु का नाम है अतः वायुलोक यानी अंतरिक्ष में जाती है) तब नीचे आती है। और हम सभी अपनी आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर पाते अर्थात मोक्ष को ग्रहण करने योग्य गुणों को धारण नहीं कर पाते और कुछ ही गुणों को आत्मसात कर पाते हैं। इसलिए हम आवागमन के चक्र में फंसे रह जाते हैं। अतः इसी कारण हम अवतार होते हुए भी मृतप्राय रह जाते हैं अमर नहीं हो पाते।

अब हम आते हैं कृष्ण को १६ कलाओ से युक्त पूर्ण अवतारी क्यों कहते हैं यहाँ हमारे कुछ पौराणिक बंधू पहले इस तथ्य को भली भांति समझ लेवे की परमात्मा जो पुरुष है वह अनेको कलाओ और विद्याओ से पूर्ण है, जबकि जीव पुरुष अल्पज्ञ होने से कुछ कलाओ में निपुण हो पाता है, यही एक बड़ा कारण है की जीव ईश्वर नहीं हो सकता। क्योंकि जीव का दायित्व है की ईश्वर के गुणों को आत्मसात करे इसीलिए कृष्ण महाराज ने योग और ध्यान माध्यम से ईश्वर के इन्ही १६ गुणों (कलाओ) को प्राप्त किया था इस कारण उन्हें १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं।

अब आप सोचेंगे ये १६ कलाएं कौन सी हैं, तो आपको बताते हैं, देखिये :

इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, आकाश, दशो इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम इन सोलह के स्वामी को प्रजापति कहते हैं।

ये प्रश्नोपनिषद में प्रतिपादित है।

(शत० 4.4.5.6)

योगेश्वर कृष्ण ने योग और विद्या के माध्यम से इन १६ कलाओ को आत्मसात कर धर्म और देश की रक्षा की, आर्यवर्त के निवासियों के लिए वे महापुरष बन गए। ठीक वैसे ही जैसे उनसे पहले के अनेको महापुरषो ने देश धर्म और मनुष्य जाति की रक्षा की थी। क्योंकि कृष्ण महाराज ने अपने उत्तम कर्मो और योग माध्यम से इन सभी १६ गुणों को आत्मसात कर आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण किया इसलिलिये उन्हें पूर्ण अवतारी पुरुष की संज्ञा अनेको विद्वानो ने दी, लेकिन कालांतर में पौरणिको ने इन्हे ईश्वर की ही संज्ञा दे दी जो बहुत ही

अब यहाँ हम सिद्ध करते हैं की ईश्वर और जीव अलग अलग हैं देखिये :

यस्मान्न जातः परोअन्योास्ति याविवेश भुवनानि विश्वा।
प्रजापति प्रजया संरराणस्त्रिणी ज्योतींषि सचते स षोडशी।

(यजुर्वेद अध्याय ८ मन्त्र ३६)

अर्थ : गृहाश्रम की इच्छा करने वाले पुरुषो को चाहिए की जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोको का रचने और धारण करने वाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात सदा ऐसा ही बना रहता है, सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान परमात्मा जिससे कोई भी पदार्थ उत्तम व जिसके सामान नहीं है, उसकी उपासना करे।

यहाँ मन्त्र में “सचते स षोडशी” पुरुष के लिए आया है, पुरुष जीव और परमात्मा दोनों को ही सम्बोधन है और दोनों में ही १६ गुणों को धारण करने की शक्ति है, मगर ईश्वर में ये १६ गुण के साथ अनेको विद्याए यथा (त्रीणि) तीन (ज्योतिषी) ज्योति अर्थात सूर्य, बिजली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थो में स्थापित करता है। ये जीव पुरुष का कार्य कभी नहीं हो सकता न ही कभी जीव पुरुष कर सकता क्योंकि जीव अल्पज्ञ और एकदेशी है जबकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है, इसी हेतु से जीव पुरुष को जो गृहाश्रम की इच्छा करने वाला हो, ईश्वर ने १६ कलाओ को आत्मसात कर मोक्ष प्राप्ति के लिए वेद ज्ञान से प्रेरणा दी है, ताकि वो जीव पुरुष उस परम पुरुष की उपासना करता रहे।

ठीक वैसे ही जैसे १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष योगेश्वर कृष्ण उस सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान, परम पुरुष परमात्मा की उपासना करते रहे।

आइये हम भी इन गुणों को अपना कर कृष्ण के सामान अपने को अमर कर जाए। हम १६ कला न भी अपना पाये तो भी वेद पाठी होकर कुछ उन्नति कर पाये।

आइये सत्य को अपनाये और असत्य त्याग कर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी का त्यौहार मनाये। आप सभी मित्रो, बंधुओ को योगेश्वर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये।

लौटिए वेदो की और।

नमस्ते।

नोट : अब स्वयं सोचिये जो पुरुष (जीव) इन १६ कलाओ (गुणों) को योग माध्यम से प्राप्त किया क्या वो :

कभी रास रचा सकता है ?

क्या कभी गोपिकाओं के साथ अश्लील कार्य कर सकता है ?

क्या कभी कुब्जा के साथ समागम कर सकता है ?

क्या अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य महिला से सम्बन्ध बना सकता है ?

क्या कभी अश्लीलता पूर्ण कार्य कर सकता है ?

नहीं, कभी नहीं, क्योंकि जो इन कलाओ (गुणों) को आत्मसात कर ले तभी वो पूर्ण कहलायेगा और जो इन सोलह कलाओ को अपनाने के बाद भी ऐसे कार्य करे तो उसे निर्लज्ज पुरुष कहते हैं, पूर्ण अवतारी पुरुष नहीं।

इसलिए कृष्ण का सच्चा स्वरुप देखे और अपने बच्चो को कृष्ण के जैसा वैदिक धर्मी बनाये।

योगेश्वर महाराज कृष्ण की जय।

धन्यवाद

महर्षि दयानन्द की प्रथम शिष्या – इन्द्रजित्देव

पञ्जाब के जिला हुशियारपुर में एक कस्बा है- हरयाणा। इस कस्बे ने आर्य समाज के दो उपदेशक लेखक उत्पन्न किए हैं। एक का नाम है- माई भगवती और दूसरे हैं- श्री हरिवंशलाल मेहता जी

श्री मेहता जी का जन्म 1917 ईस्वी में हुआ था। भारत सरकार के संचार मन्त्रालय में कार्य करने के पश्चात् जब वे सेवा-निवृत्त हुए तो वे उत्तरप्रदेश के लखनऊ में निवास करने लगे। श्री आचार्य हरिशरण सिद्धान्तालङ्कार से प्रेरणा पाकर आप वेदाध्ययन करते रहे हैं तथा कई वैदिक पत्रिकाओं में लेख भी छपाते रहे हैं। आपकी रचनाएं दिव्योपदेश, सुमधुर पुष्पाञ्जलि, भक्त की जीवनचर्या नाम से प्रकाशित हुई।

माई भगवती का जन्म सन् 1844 ईस्वी में एक उच्च क्षत्रियकुल में हुआ था। तब भारत भर में स्त्री-शिक्षा का नाम तक न था। तब पढ़ने लिखने में पुरुष भी बहुत पिछड़े हुए थे। आठवीं कक्षा तक पढ़ चुके पुरुष बहुत आदरणीय पद ग्रहण करते थे । कुछ पुरुष मन्दिरों में पुजारियों से थोड़ी-बह़ुत कथित धार्मिक शिक्षा ग्रहण कर लेते थे। स्त्रियों का पढ़ना तो अत्यन्त हेय कार्य माना जाता था। माता भगवती जी का पूर्व नाम पार्वती था। उनके परिवार ने बड़े साहस से निर्णय लेकर उन्हें एक पण्डित जी के पास पढ़ने के लिए भेजना आरभ किया । माता ने थोड़े ही दिनों में कई ग्रन्थों का स्वाध्याय कर लिया। अन्धविश्वासियों व संकीर्ण दृष्टिकोण वाले समाज के कथित ठेकेदारों ने उनकी शिक्षा का विरोध किया व उन्हें अनेक प्रकार के दुःख भी पहुँचाए। कई-कई दिनों तक उन्हें भूखी-प्यासी भी रहना पड़ा परन्तु उन्होंने सभी कष्टों को वीरतापूर्वक सामना किया।

माता भगवती का नवीन वेदान्त की ओर झुकाव होता चला गया परन्तु इसी बीच कई शंकाएं भी उनके दिमाग में नवीन वेदान्त के सिद्धान्तों पर उत्पन्न हुई जो समुचित समाधान न पा सकीं। संयोग से उनको कालान्तर में ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ मिला तथा उन्होंने इसका गहन-गभीर अध्ययन किया। परिणाम यह निकला कि माता जी ने महर्षि दयानन्द सरस्वती को एक पत्र भेजकर उन शंकाओं के समाधान करने की प्रार्थना की। महर्षि दयानन्द के दर्शन करने की प्रबल इच्छा भी माता जी ने इस पत्र में प्रकट की। तब महर्षि मुबई में थे। पत्र पाकर महर्षि ने अपनी स्वीकृति प्रदान की। माता भगवती जी अपनेभाई श्री चूनी लाल जी के साथ जब महर्षि के चरणों में उपस्थित हुई तो महर्षि अपने खैमे में ही रहे। बीच में माई भगवती ने अपनी शंकाएँ प्रस्तुत कीं, जिनका समाधान महर्षि जी ने कर दिया। माताजी का मन पूर्ण सन्तुष्ट हुआ तो उन्होंने महर्षि से अपने भविष्य के जीवन के लिए मार्गदर्शन देने का अनुरोध किया। महर्षि ने उन्हें कहा-‘‘इस समय स्त्रियों की दशा बड़ी शोचनीय है। यदि तुम करना चाहती हो तो अपने क्षेत्र में जाकर स्त्रियों की शिक्षा, उन्नति तथा उनके कर्तव्य व अधिकारों के लिए अपना जीवन अर्पित कर दो।’’

माता भगवती जी ने महर्षि दयानन्द जी के आदेशानुसार शेष जीवन इन्हीं कार्यों में लगाया। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि वे महर्षि दयानन्द की प्रथम शिष्या बनीं। आर्यसमाज के प्रथम भजनोपदेशक (पं. अमीं चन्द मेहता को जन्म देने का गौरव पंजाब को मिला तो प्रथम आर्य भजनोपदेशिका माता भगवती भी पंजाब की ही सुपुत्री थीं। दोनों ने महर्षि के दर्शन किए थे व दोनों को महर्षि की प्रेरणा व आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ था। माई जी की बुद्धि विशाल थी। थोड़े ही समय में बहुत से ग्रन्थ पढे तथा जीवन भर पढ़ने-लिखने में ही लगी रहीं। उन्हें तत्कालीन पुरुष प्रधान समाज ने बहुत कष्टदिए परन्तु माता ने धैर्यपूर्वक सबका सामना किया । पंजाब ही नहीं, उत्तर भारत के नगर-नगर में जाकर व्यायान दिए तथा स्त्री-शिक्षा का प्रचार भी किया। उनके स्वरचित ललित व मनोहर भजन श्रोताओं पर भरपूर प्रभाव डालते थे। इनका एक संग्रह विरजानन्द यन्त्रालय, लाहौर से ‘‘अबला मति वेगरोधक संगीत’’ नाम से सन् 1893 ई. में प्रकाशित हुआ था।

माई भगवती जी ने अपने कस्बे में एक कन्या पाठशाला भी खोली जिसमें वे स्वयम् अवैतनिक अध्यापिका रहीं। पढ़ाई के अतिरिक्त प्रतिदिन सत्संग भी चलता था। इससे नारियों ने माई जी के उपदेशों द्वारा बहुत लाभ प्राप्त किया। माई जी का देहान्त सन् 1899 ईस्वी में 55 वर्षों की अवस्था में हुआ था। माता जी ने मरने से पूर्व अपनी सपूर्ण सपत्ति का सदुपयोग करने व नारी – शिक्षा के प्रचार-प्रसार में ही लगाने की वसीयत करके  एक समिति को सौंप दी थी। जो लोग उनका-विरोध करते थे, माई जी के अन्तिम दिनों में उनके विचार बदले व भगवती जी के कार्यों व योग्यता के आगे नतमस्तक हो गए थे। जब माई भगवती जी की शवयात्रा आरा हुई तो सहस्रों पुरुष उनके शव पर पुष्प वर्षा करते तथा सामूहिक रूप में जय देवी, जयदेवी बोलते हुए मरघट तक गए थे। महर्षि दयानन्द की प्रथम शिष्य की पावन स्मृति को सश्रद्ध नमन्

-चूना भट्टियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर

रक्षाबंधन – स्वाध्याय द्वारा जीव और प्रकृति का रक्षण।

रक्षा बंधन, ये शब्द सुनते ही भाई और बहन का वो पवित्र रिश्ता आँखों के दिखना शुरू हो जाता है जो एक धागे से बंधा होता है।

इस दिन श्रावण मास की पूर्णमासी को ये धागा एक बहिन द्वारा अपने भाई की कलाई में बाँध कर भाई से अपनी रक्षा का वचन लेना बहन का कर्तव्य और भाई का अपनी बहन की रक्षा करने का वचन देना करने से ही पूर्ण हो जाता है ऐसा समझा जाता है, और इस कार्य की इतिश्री करके धागा बंधने से पूर्ण कर दिया जाता है। मगर क्या यही सनातन संस्कृति है ?

ऐसे अनेको प्रमाण मिलते हैं की इस प्रकार का रक्षा बंधन सनातन संस्कृति नहीं है बल्कि ये एक ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित कार्य है। इसके पीछे जो ऐतिहासिक तथ्य है उनमे पौराणिक बंधू इन्हे प्रमुखता देते हैं :

1. द्रौपदी का कृष्ण की आकस्मिक अंगुली कटने पर साडी व दुपट्टा का टुकड़ा बाँध देना।

2. कुंती का अपने पौत्र अभिमन्यु को महाभारत युद्ध में कलाई पर रक्षा कवच बाँध देना।

3. पौराणिक दानी दैत्य राजा बलि का रक्षा बंधन से रक्षा होना।

इन प्रमुख कारणों पर यदि ध्यान से देखा जाए तो भी ये रक्षा बंधन यानी बहन का भाई की कलाई पर राखी बांधना और रक्षा का वचन लेना सनातन संस्कृति सिद्ध नहीं होती। क्योंकि ये सभी ऐतिहासिक तथ्य हैं और ऐतिहासिक तथ्य कभी सनातन नहीं हो सकते हैं।

आखिर क्या कारण है की एक दिन के लिए ही भाई अपनी बहन की रक्षा का वचन देता है ? क्या पुरे साल उसे याद दिलाते रहने के लिए ?

मुझे तो नहीं लगता, लेकिन यदि कुछ सालो पीछे जाये तो याद आएगा की हमारे देश में मुगलो का राज था जिसमे महिलाओ की अस्मत और आबरू खतरे में थी, मुझे ऐसा लगता है की ये त्यौहार भाई बहन के लिए उस समय ज्यादा प्रचलन में आया ताकि सामाजिक तौर पर प्रत्येक हिन्दू जाती की महिला को सुरक्षा का भाव मिले। केवल अपने भाई से ही नहीं वरन सभी पुरुषो से।

अब सवाल उठेगा की फिर ये श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन क्यों मनाते हैं ? इसका जवाब हमें अपने भारतीय जनजीवन और भौगोलिक परिस्थियों अनुरूप मिलता है। देखिये हमारा देश कृषि प्रधान राष्ट्र है, और कृषि प्रधान राष्ट्र होने के नाते हमारे देश में कृषक समुदाय अधिक हैं या वो लोग जो कृषि से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। इसलिए यदि आप ध्यान देवे तो आप पाएंगे की हमारे देश में आषाढ से लेकर सावन तक फ़सल की बुआई सम्पन्न हो जाती है। ये क्रम आज भी वैसा ही है जैसे पूर्व काल में होता था मगर बदला है आज का साधु समाज क्योंकि वैदिक काल में ॠषि-मुनि अरण्य में वर्षा की अधिकता के कारण गांव के निकट आकर रहने लगते थे। जो गाँव वालो को वेद धर्म की शिक्षा देते थे। क्योंकि इस समय कृषक समाज अपनी खेती आदि कार्यो से फारिग हो जाता था इसलिए इस धार्मिक कृत्य में प्रमुखता से जुड़ता था जिससे देश और धर्म दोनों का ही कल्याण होता था। इसमें पारस्कर गृह सूत्र का प्रमाण है :

अथातोSध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम् “ (2/10/2-2)

इसके पीछे जो रहस्य है वो ऊपर बताने और समझाने का प्रयास किया है।

वर्षा ऋतु में वेद के पारायण का विशेष आयोजन इसलिए भी किया जाता था क्योंकि वर्षा के दौरान बीमारिया फ़ैलाने वाले जीवाणु अधिक उतपन्न होते हैं इसलिए इनके निवारण हेतु यज्ञ अधिकमात्रा में होते थे जिसमे विशेष सामग्रियाँ डाली जाती थी।

यही रक्षाबंधन था उस यज्ञ का और जीव का जिससे प्रकृति की रक्षा होती थी और इसी स्वाध्याय के आधार पर यज्ञ होते थे जिससे वर्षा ऋतु में उत्पन्न हुए अनेको विषाणुओं का जो गंभीर बीमारियां उत्पन्न करते थे उनसे यज्ञ द्वारा जीव और प्रकृति की रक्षा होती थी, स्वाध्याय करते हुए नित नए औषधि युक्त सामग्रियों का निर्माण करना और यज्ञ करते हुए प्रकृति, कृषि और जीव इनकी रक्षा करना यही बंधन को ऋषि समझते थे, ज्ञान देते थे।

आज भी अनेको गुरुकुलों में पूर्णिमा को गुरुकुलों में विद्यार्थियों का प्रवेश हुआ करता है। इस दिन को विशेष रुप से विद्यारंभ दिवस के रुप में मनाया जाता है। बटूकों का यज्ञोपवीत संस्कार भी किया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा को पुराने यज्ञोपवीत को धारण करके नए यज्ञोपवीत को धारण करने की परम्परा भी रही है।

भले ही इस पवित्र परंपरा को आज लोग भूल गए क्योंकि वो वेदो से विमुख होकर अनार्ष ग्रंथो के अध्यन में रत हुए मगर ये भी सत्य है की पूरी तरह से सिद्धांतो को न बदल पाये, मुगल काल में महिलाओ की रक्षा हेतु रक्षाबंधन का वचन देकर अपनी बहनो माताओ की रक्षण करना, यज्ञोपवीत धारण करना आदि अनेको भ्रान्तिया भी चली मगर सत्य सनातन वैदिक मत यही है की हम वेद और विज्ञानं आधारित बातो को माने क्योंकि सत्य वही है।

केवल भाई बहन तक सीमित न रहकर, इस पवित्र त्यौहार को पुरे विश्व बंधुत्व की और ले जाए, अग्रसर हो इस पवित्र त्यौहार को वैदिक रीति से मनाने के लिए, क्योंकि ये केवल भाई बहन तक सीमित नहीं रखा जा सकता।

आइये लौटियो उसी सनातन संस्कृति की और, लौटिए उस विज्ञानं की और जो ऋषियों ने वेदो के द्रष्टा बनकर हमें दिया। आइये लौटियो वेदो की और।

नमस्ते।