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( शिखा ) चोटी क्यों रक्खें? धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व

|| ओ३म् ॥
( शिखा ) चोटी क्यों रक्खें? धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व
वैदिक धर्म में सिर पर चोटी (शिखा ) धारण करने का असाधारण महत्व है। प्रत्येक बालक के जन्म के बाद मुण्डन संस्कार के
नवजात बच्चे पश्चात् सिर के उस भाग पर गौ के के खुर के प्रमाण वाले आकार की चोटी रखने का विधान है।
यह वही स्थान सिर पर होता है, जहां से सुषुम्ना नाड़ी पीठ के मध्य भाग में से होती हुई ऊपर की ओर आकर समाप्त होती है
और उसमें से सिर के विभिन्न अंगों के वात संस्थान का संचालन करने के लिए अनेक सूक्ष्म वात नाड़ियों का प्रारम्भ होता है ।
सुषुम्ना नाड़ी सम्पूर्ण शरीर के वात संस्थान का संचालन करती है।
दूसरे शब्दों में उसी से वात संस्थान प्रारम्भ व संचालित होता है। यदि इसमें से निकलने वाली कोई भी नाड़ी किसी भी कारण
से सुस्त पड़ जाती है तो उस अंग को फालिज़ (अधरंग) मारना कहते हैं। आप यह ध्यान रक्खें कि समस्त शरीर को जो भी
शक्ति मिलती है, वह सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा ही मिलती है।
सिर के जिस भाग पर चोटी रखी जाती है, उसी स्थान पर अस्थि के नीचे लघुमस्तिष्क का स्थान होता है, जो गौ के नवजात
बच्चे के खुर के ही आकार का होता है और शिखा भी उतनी ही बड़ी उसके ऊपर रखी जाती हैं।
बाल गर्मी पैदा करते हैं। बालों में विद्युत का संग्रह रहता है जो सुषुम्ना नाड़ी को उतनी ऊष्पा हर समय प्रदान करते रहते हैं,
जितनी कि उसे समस्त शरीर के वात नाड़ी संस्थान को जागृत व उत्तेजित रखने के लिए आवश्यकता होती है। इसका
परिणाम यह होता है कि मानव का वात नाड़ी संस्थान आवश्यकतानुसार जागृत रहता है जो समस्त शरीर को बल देता है।
किसी भी अंग में फालिज गिरने का भय नहीं रहता. है । और साथ ही लघु मस्तिष्क विकसित होता रहता है जिसमें जन्म-
जन्मान्तरों के एवं वर्तमान जन्म के संस्कार संग्रहीत रहते हैं।
यह परीक्षण करके देखा गया है कि बड़ी गुच्छेदार शिखा धारण करने वाले दाक्षिणीय ब्राह्मणों के मस्तिष्क शिखा न रहने
वाले ब्राह्मणों की अपेक्षा विशेष विकसित पाये गये हैं। यह परीक्षण अनेक वैज्ञानिकों ने दक्षिण भारत में किया था।
सुषुम्ना का जो भाग लघुमस्तिष्क को संचालित करता है । वह उसे शिखा द्वारा प्राप्त ऊष्मा (विद्युत) से चैतन्य बनाता है।
इससे स्मरण शक्ति भी विकसित होती है।
वेद में शिखा धारण करने का विधान कई स्थानों पर मिलता है, देखिये-
शिखिभ्यः स्वाहा॥

  • अथर्ववेद १९-२२-१५
    अर्थ- चोटी धारण करने वालों का कल्याण हो। आत्मन्नुपस्थे न वृकस्य लोम मुखे श्मश्रूणि न व्याघ्रलोमा केशा न शीर्षन्यशसे
    श्रियैशिखा सिँहस्य लोमत्विषिरिन्द्रियाणि ॥
  • यजुर्वेद अध्याय १९ मन्त्र ९२ यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए सिर पर शिखा धारण करें।
    याज्ञिकैगोदर्पण माजनि गोक्षुर्वच्च शिखा ।
  • यजुर्वेदीय काठकशाखा । अर्थात् सिर पर यज्ञाधिकार प्राप्त मानव को गौ के खुर के बराबर स्थान में चोटी रखनी चाहिये।
    नोट-गौ के खुर के प्रमाण से तात्पर्य है कि गाय के पैदा होने के समय बछड़े के खुर के बराबर सिर पर चोटी धारण करें।
    • केशानाँ शेष कारणं शिखास्थापनं केश शेष करणम्।

इति मंगल हेतोः ॥
.
-पारस्कर गृह्य सूत्र
मुण्डन संस्कार के बाद जब भी बाल सिर के कटावे तो चोटी के बालों को छोड़कर शेष बाल कटावे, मंगलकारक होता है।
सदोपवीतिना भाव्यं सदा वद्धशिखेन च। बिशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम् ॥
यह

  • कात्यायन स्मृति ४ अर्थ-यज्ञोपवीत सदा धारण करें तथा सदा चोटी में गांठ लगा कर रखें। बिना शिखा व यज्ञोपवीत के
    कोई यज्ञ सन्ध्योपासनादि कृत्य न करें अन्यथा वह न करने के ही समान है।
    बड़ी शिखा धारण करने से वीर्य की रक्षा करने में भी सहायता मिलती है। शिखा बल-बुद्धि लक्ष्मी व स्मृति को संरक्षण प्रदान
    करती है।
    एक अंग्रेज डॉक्टर विक्टर ई क्रोमर ने अपनी पुस्तक विरलि कल्पक में लिखा है जिसका भावार्थ निम्न प्रकार है-
    ध्यान करते समय ओज शक्ति प्रकट होती है। किसी वस्तु पर चिन्तन शक्ति एकाग्र करने से ओज शक्ति उसकी ओर दौड़ने
    लगती है।
    यदि ईश्वर पर ध्यान एकाग्र किया जावे तो मस्तिष्क के ऊपर शिखा के चोटी के मार्ग से ओज शक्ति प्रकट होती है या प्रवेश
    करती है। परमात्मा की शक्ति इसी मार्ग से मनुष्य के भीतर आया करती है।
    सूक्ष्म दृष्टि सम्पन्न योगी इन दोनों शक्तियों के असाध रण सुन्दर रंग भी देख लेते हैं। जो शक्ति परमात्मा के द्वारा मस्तिष्क में
    आती है वह वर्णनातीत है।
    प्रोफेसर मैक्समूलर ने भी लिखा था-
    The Concentration of mind upwards sends a rush of this power through the of the head.
    अर्थात् शिखा द्वारा मानव मस्तिष्क सुगमता से इस ओज शक्ति को धारण कर लेता है। श्री हापसन ने भारत भ्रमण के पश्चात्
    एक लेख में गार्ड पत्रिका नं० २५८ में लिखा था।
    For a long time in India I studied on Indian civilization and tradition southern Indians cut their hair up to
    half head only. I was highly effected by their mentality. I assert that the hair tuft on head is very useful in
    Culture of mind. I also believe in Hindu religion now. I am very particular about hair tuft.
    अर्थात् भारत में कई वर्षों तक रहकर मैंने भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं का अध्ययन किया। दक्षिण भारत
    में आधे सिर तक बाल रखने की प्रथा है। उन मनुष्यों की बौद्धिक विलक्षणता से मैं प्रभावित हुआ। निश्चित रूप से शिखा
    बौद्धिक उन्नति में बहुत सहायक है । मेरा तो हिन्दू धर्म में अगाध विश्वास है और अब मैं चोटी धारण करने का कायल हो गया
    हूँ।
    इसी प्रकार सरल्यूकस वैज्ञानिक ने लिखा है-
    शिखा का शरीर के अंगों से प्रधान सम्बन्ध है। उसके द्वारा शरीर की वृद्धि तथा उसके तमाम अंगों का संचालन होता है। जब
    से मैंने इस वैज्ञानिक तथ्य का अन्वेषण किया है मैं स्वयं शिखा रखने लगा हूँ।

सिर के जिस स्थान पर शिखा होती है उसे Pinial- Joint कहते हैं। उसके नीचे एक ग्रन्थि होती है जिसे Picuitary कहते हैं।
इससे एक रस बनता है जो सम्पूर्ण शरीर व बुद्धि को तेज सम्पन्न तथा स्वस्थ एवं चिरंजीवी बनाता है। इसकी कार्य शक्ति
चोटी के बड़े बालों व सूर्य की प्रतिक्रिया पर निर्भर करती है।
मूलाधार से लेकर समस्त मेरु मण्डल में व्याप्त सुषुम्ना नाड़ी का एक मुख ब्रह्मरन्ध ( बुद्धि केन्द्र) में खुलता है।
इसमें से तेज (विद्युत) निर्गमन होता रहता है।
शिखा बन्धन द्वारा यह रुका रहता है। इसी कारण से शास्त्रकारों ने शिखा में गांठ लगाकर रखने का विधान किया है।
डॉक्टर क्लार्क ने लिखा है- के
मुझे विश्वास हो गया है कि हिन्दुओं का हर एक नियम विज्ञान से भरा हुआ है। चोटी रखना हिन्दुओं का धार्मिक चिन्ह ही नहीं
बल्कि सुषुम्ना नाड़ी की रक्षा लिए ऋषियों की खोज का एक विलक्षण चमत्कार है।
अर्ल टामस ने सन् १८८१ में अलार्म पत्रिका के विशेषांक में लिखा था-
Hindus keep safety of Medulla oblongle by lock of hair. It is superior than other religious experiments.
Any way the safety of oblongle is essential.
अर्थात् सुषुम्ना की रक्षा हिन्दू शिखा रख कर करते हैं। अन्य धर्म के कई प्रयोगों में चोटी सबसे उत्तम है। किसी भी प्रकार
सुषुम्ना की रक्षा आवश्यक है।
गुच्छेदार चोटी बाहरी उष्णता को अन्दर आने से रोकती है और सुषुम्ना व लघुमस्तिष्क तथा सम्पूर्ण स्नायविक
संस्थान की गर्मी से रक्षा करती है और शारीरिक विशेष उष्णता को बाहर निकाल देती है। हां, यदि अत्यन्त उष्ण प्रदेश हो तो
शिखा न रखना भी हानिकारक नहीं होगा।
संन्यासी ( चतुर्थ आश्रमी ) को शिखा न रखने का आदेश इस आधार पर है कि उसने तीन आश्रमों में उसे रखकर शरीर को पुष्ट
कर लिया होता है और चौथे आश्रम में वह योगाभ्यास द्वारा वात नाड़ी संस्थान को पुष्ट करता रहता है, अतः उसके लिये
शिखा विहित नहीं रह जाती है।

  • इस प्रकार वैदिक धर्म में शिखा वैज्ञानिक- आयुर्वेदिक तथा धार्मिक दृष्टि से मानव मात्र के लिये अत्यन्त उपयोगी है । किन्तु
    उससे लाभ तभी होगा जबकि शास्त्रादेश के अनुसार गौ के पैदाशुदा बच्चे के खुर के बराबर की जगह पर रखकर उसे बड़ा
    किया जायेगा व ग्रन्थि लगाकर रखा जावेगा।
    जापानी पहलवान अपने सिर पर मोटी चोटी गांठ लगाकर धारण करते हैं, यह भारतीय परम्परा जापान में आज भी
    विद्यमान देखी जा सकती है।
    चोटी के बाल वायु मण्डल में से प्राणशक्ति ( आक्सीजन) को आकर्षण करते हैं और उसे शरीर में
    स्नायविक संस्थान के माध्यम से पहुंचाते हैं। इससे ब्रह्मचर्य के संयम में सहायता मिलती है। जबकि शिखाहीन व्यक्ति कामुक व
    उच्छृंखल देखे जाते हैं।
    शिखा मस्तिष्क को शान्त रखती है तथा प्रभु चिन्तन में साधक को सहायक होती है। शिखा गुच्छेदार रखने व उससे गांठ
    बांधने के कारण प्राचीन आर्यो में ब्रह्मचर्य -तेज- मेधा बुद्धि व दीर्घायु तथा बल की विलक्षणता मिलती थी।
    जब से अंग्रेजी कुशिक्षा के प्रभाव में शिखा व सूत्र का परित्याग करना प्रारम्भ कर दिया है उनमें यह शीर्षस्थ गुणों का निरन्तर
    ह्रास होता चला जा रहा है।

पागलपन-अन्धत्व तथा मस्तिष्क के रोग शिखाधारियों को नहीं होते थे, वे अब शिखाहीनों में बहुत देखे जा सकते हैं।
जिस शिखा व सूत्र की रक्षा के लिए लाखों भारतीयों ने विधर्मियों के साथ युद्धों में प्राण देना उचित समझा, अपने बलिदान
दिये। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी गुरु गोविन्दसिंह धर्मवीर हकीकतराय आदि सहस्रों भारतीयों ने चोटी जनेऊ की रक्षार्थ
अन्तिम बलिदान देकर भी इनकी
रक्षा मुस्लिम शासन के कठिन काल में की, उसी चोटी जनेऊ को आज का बाबू टाइप का अंग्रेजीयत का गुलाम सांस्कृतिक
चिन्ह (चोटी जनेऊ) को त्यागता चला जा रहा है यह कितने दुःख की बात है।
आज के इस बाबू को इन परमोपयोगी धार्मिक एवं स्वास्थ्यवर्धक प्रतीकों को धारण करने में ग्लानि व हीनता महसूस होती
है।
परन्तु अंग्रेजी गुलामी की निशानी ईसाईयत की वेषभूषा पतलून पहन कर खड़े होकर मूतने (पेशाब करने) में कोई शर्म
अनुभव नहीं होती है जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकारक है तथा भारतीय दृष्टि से घोर असभ्यता की निशानी है।
आजकल का ये सभ्य कहलाने वाला व्यक्ति जहाँ चाहे खड़े होकर स्त्रियों, बच्चों अन्य पुरुषों की उपस्थिति का ध्यान किये बिना
ही मूतने लगता है, जबकि टट्टी और पेशाब छिपकर आड़ में एकान्त स्थान में त्यागने की भारतीय परम्परा है।
प्रश्न- यदि केवल चोटी न रखकर समस्त सिर पर लम्बे बाल रखे जावें तो क्या हानि होगी?
उत्तर-तालु भाग पर लम्बे बालों से स्मृति शक्ति कम हो जावेगी, दाहिने कान के ऊपर सिर पर लम्बे बालों से जिगर को हानि
होगी व बायें कान के ऊपर के भाग पर रखने से प्लीहा को नुकसान पहुंचेगा।
स्त्रियों के सिर पर लम्बे बाल होना उनके शरीर की बनावट तथा उनके शरीरगत विद्युत के अनुकूल रहने से उनको अलग से
चोटी नहीं रखनी चाहिए। उनका फैशन के चक्कर में पड़कर बाल कटाना अति हानिकारक रहता है।
अतः स्त्रियों को बाल कदापि नहीं कटाने चाहिये।
समाप्त।

पौरुष का पर्याय: आचार्य धर्मवीर (द्वितीय पुण्यतिथि पर स्मरण)

पौरुष का पर्याय: आचार्य धर्मवीर

वह तेज पुंज, वैदिक विचारधारा के संरक्षण हेतु सतत जागरूक प्रहरी, धर्माघात करने वालों के हृदयों को जिनकी वाणी पाञ्चजन्य की ध्वनि सम विदीर्ण करती रही सहसा ही हमारे मध्य नहीं रहा . “ऊर्जा के स्त्रोत” अमर धर्मवीर को हमसे विमुख हुए २ वर्ष व्यतीत हो गए लेकिन वह रिक्त स्थान यथावत है उसकी पूर्ति वर्तमान परिस्तिथियों में दुष्कर प्रतीत हो रही है एवं इस वास्तविकता का निरन्तर भान कराती है.

शिवाजी की भूमि पर स्वात्रंत्र प्रेमी ऋषि भक्त पण्डित भीमसेन जी के घर जन्मा यह बालक कपिल कणादि जैमिनी से दयानन्द पर्यंत ऋषियों द्वारा प्रदत्त ज्ञान रूपी सोम का पान कर , शश्त्र शाश्त्रों से सुसज्ज्ति धर्म पर स्व एवं परकीयों द्वारा हो रहे आघातों से आकुल ह्रदय लिय वह धर्मरक्षक योद्धा इस समर भूमि में सर्वस्व न्योछावर कर अम्रत्व्य को प्राप्त हो गया .

उनका जीवन, कर्म क्षेत्र, घर्म क्षेत्र, समर क्षेत्र में अधर्मियों के कृत्यों से पीड़ित होने के उपरान्त अंगद सम धर्म पथ पर अटल रहने का उद्धरण प्रदर्शित करता हुआ अनंत काल तक युवकों को प्रेरणा देता हुआ कीर्ति पुंज है उनका जीवन दर्शन अगणित ऐसी घटनाओं से शोभित  है जो धर्म पथगामियों को सदा ही प्रेरित करता रहेगा.

आरोप पत्र या अभिनन्दन पत्र: भारतवर्ष का इतिहास साक्षी है कि विदेशियों की विजय पताका फहराने में सहायक स्वजन ही थे बिना उसके इस धर्म भूमि पर परकीयों के वर्चस्व का ध्वज कैसे गगन चूम सकता था !

हमने ही स्वयं की तलवारों से स्व बान्धवों के रक्त का पान कर इस मातृभूमि को विधर्मियों के सुपुर्द कर दिया . भला आर्य समाज इस रोग से ग्रसित होने से कहाँ रह सकता था ? लाला मूलराज आदि के द्वारा बोया गया यह परजीवी पौधा, मानस पुत्रों को जन्म देता रहा और वैदिक धर्म के प्रचार में अभिनव प्रयोग कर अनेकों बाधाएं  पग पग पर वैदिक धर्म के दीवानों के रास्ते में खडी की गयी.

धर्मवीर जी का जीवन इससे अछुता नहीं था . आचार्य रामचंद्र जी ने ऐसी ही एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है की अधिकारियों ने व्यक्तिगत खुन्नस के कारण दयानन्द कॉलेज अजमेर से आपकी सेवाओं को निलम्बित कर दिया . आपके विरुद्ध जो आरोप पत्र जारी किया गया वह भी वास्तव में आपके कार्यों के महत्व का , आपके दृढ चरित्र का एक प्रमाण पत्र है . उसमें आरोप लगाया लगाया था – १. आप परोपकारिणी सभा का कार्य करते हें .२ आप परोपकारी पत्रिका का संपादन करते हैं ३. आप आर्य समाज का प्रचार करते हैं . इस पत्र को पढ़कर अचम्भित होना स्वाभाविक ही है कि ये अभिनन्दन पत्र है या आरोप पत्र !

धर्मवीर जी परिस्थियों से घबराने का नाम नहीं है धर्मवीर वह ज्वाला है जो तम आवृत जग के लिए पथ प्रदर्शक का कार्य करती रही. क्या ये यातनाएं धर्मवीर को पथ से विचलित कर सकती थी ?  क्या ये यातनाएं वेदनाएं उनके साहस को चूर चूर करने में सक्षम थीं ? वह ऋषि भक्ति के लिए समर्पित योद्धा विश्व के वैभव लालसाओं का त्याग कर चुका था . ऋषि दयानन्द ही उसके लिए सर्वस्व था .

जीत की हार : श्रद्धेय श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आचार्य धर्मवीर जी की जीवनी में एक घटना का  उल्लेख किया है कि जब प्राचार्य वाब्ले धर्मवीर जी को अपमानित करने व कुचलने  पर तुला हुआ था उन्ही दिनों उसने अहंकार में आकर धर्मवीर जी से कहा “ मैं यदि तुम्हें निकाल दूँ तो सुप्रीम कोर्ट भी तुम्हें नहीं रखवा सकता “

जितने भरपूर अहंकार में पाचार्य वाब्ले ने धर्मवीर जी को धमकी देकर डराया और उनका मनोबल गिराना चाहा उतने ही अटल ईश्वर – विश्वास तथा आत्मबल से आपने उसे  तत्काल उत्तर दिया “ मैं मनुष्य को भगवान् नहीं मानता और अजमेर को सकल सृष्टि नहीं मानता “

प्रखर ऋषिभक्ति: धर्मवीर जी महाराणा प्रताप के साहस अभिमन्यु के महान पौरुष की प्रतिमूर्ति थे .भला वह इन वज्र सम विपदाओं से कहाँ विचलित हो सकते थे . ऋषि मार्ग  के पथिक  का समझौता वादी व्यक्तित्व न होने के कारण ऐसा प्रतीत होता था मानों वे स्वयं विपदाओं को आमन्त्रित कर रहे हों . ये जग उन्हीं धर्मवीरों का गायन करता है जो विपदाओं की परवाह किये बिना प्राण हथेली पर लिए रण भूमि में अर्जुन के गांडीव की तरह गुंजायमान हो रिपु दल के हृदयों को विदीर्ण कर विजय रस का पान करते हैं .

आचार्य धर्मवीर जी की इस विशेषता से कोई अभागा ही हो जो परिचित न हो . वैदिक धर्म पर यदि कहीं भी प्रहार होता था तो उनकी आत्मा कम्पायमान हो उठती थी, उनका ह्रदय वेदना से भर उठता था और कभी ऐसा न हुआ कि वैदिक धर्म पर प्रहार हुआ हो और धर्म रक्षक धर्मवीर की लेखनी न चली हो .

ऐसी ही घटना का  “ धौलपुर सत्यागृह शताब्दी यात्रा “ के समय सभा के मंत्री श्री ॐ मुनि जी ने वर्णण किया कि  एक दर्शनाचार्य ने ऋषी दयानन्द अब  अप्रसान्गिक  हो गए हैं, यदि अधिक लोगों को आकर्षित करना है तो ऋषि दयानंद का नाम मंच से न लिया जाये ऐसा कहने का दुस्साहस किया . इस घटना को दो और सज्जनों ने शब्द भेद, यथा “ऋषि दयानंद का नाम बदनाम हो गया है अतः प्रचार को संकुचित न करने के लिए इस नाम को प्रयोग न किया जाये” , के साथ सुनाया .

जिस धर्मवीर का रोम रोम ऋषि भक्ति के रंग में रंगा हुआ था जो ऋषि दयानन्द के लिए सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रतिपल सहर्ष तैयार था वह भला कहाँ ये सुन के चुप रह सकता था . ऋषि के लिए स्वजनों ने ऐसे शब्द  सुनते ही उनके ह्रदय में प्रबल प्रचण्ड धधकती हुयी ज्वाला जाग्रत होना स्वाभाविक ही था. धर्मवीर जी ने काल सम तुरन्त ध्वनियंत्र को लेकर सिंह गर्जना करते हुए कहा कि आपने जो शब्द अभी बोले हैं क्या वो दोहरा सकते हो ? सभा में सन्नाटा छा गया ! इस धधकती हुयी ज्वाला का सामना कौन करे . दर्शनाचार्य को माफी मांगनी पडी.

धर्म पर प्रतिवाद विश्व के किसी भी कौने में हो , चाहे वो ईसाईयों का “ पवित्र ह्रदय “ पत्रिका , जमाअते इस्लामी के  “ कांति “ मासिक का पुनर्जन्म खंड विशेषांक , रामपाल का ऋषि के प्रति विष वमन या स्वजनों का द्रोहराग  धर्मवीर जी की लौह लेखनी सदैव उद्वेग से आवेश से इनका  प्रतिकार करती रही . श्रद्धेय राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा लिखित “ अमर धर्मवीर “ में ऐसे अंकों उद्धरण उन्होंने दिए हैं. धर्मवीर जी विधर्मियों दारा धर्म पर कुत्सित प्रहार का बिना प्रतिकार लिए कहा चैन से बैठने वाले थे . धार्मिक गर्व पर अरि का प्रहार हो और जब तक प्राण  हैं गौरव मर्दन कैसे हो सकता है .धर्मवीर जी भीम की गदा, अर्जुन के गांडीव, हिमगिरि  सदृश्य रक्षक बन सदैव खड़े हो जाते थे. उस  धीरता की प्रतिमा कोमल दृदय देव का पौरुष, क्षत्रित्व सदा जागृत रह मानो धर्म की रक्षार्थ प्रज्वलित ज्वाला लिए न केवल अम्बर को गुंजायमान कर रहा था अपितु अनेकों आर्य वीरों को सुप्तता से जगाने धर्म के प्रति सजग होने की प्रेरणा का निमित्त था.

धर्म पर प्रहार होने की स्तिथी में आर्य लोग केवल परोपकारिणी प्रत्रिका की तरह ही आशा लिए निहारते थे. उन्हें आभास था यह वो धर्मवीर पौरुष है जो किसी लोभ के वश मूक नहीं रह सकते यह वह नेता कथित योगी नहीं जो दिन रात निमग्न योगचिंतनादि में ही लीन रहे. अपितु वो तो वह वीर योद्धा है जिसकी तलवार कभी म्यान में नहीं सोती वह तो हर दुषाशन के लिए भीम का प्रतिशोध है हर हिरण्यकश्यप के लिए नृसिंह का प्रतिशोध है वह तो लेखराम जैसी धर्म धुन का धुनी है जो यज्ञ वेदी पर धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व समर्पित करने के लिए सदैव उद्धत है .

वैदिक सिद्धातों पर निष्कंप निष्ठायुक्त , ऋषि की वाटिका के पुष्पों के रक्षार्थ सर्वस्व समर्पण का प्रण लिए ,स्वधर्मियों के अन्यायों से त्रसित वह विप्र, समर्पण का प्रतिकार करता हुआ , वज्र सम धर्म के मार्ग पर अविचल जीवन व्यतीत कर वर्तमान और भावी पीढी के लिए ऐसा जीवन दर्शन प्रस्तुत कर गया जो अनेक धर्म रक्षकों के पथ को अंतरिक्ष में ध्रुव के सम द्वीपित करता रहेगा .

धर्मवीर प्रतिपल युवकों में गौरवमयी आर्यत्व चैतन्य भरने का प्रयास सतत करते रहते थे. उनका स्नेह उनका समर्पण युवकों को सदैव आकर्षित करता था. वह प्रतिभा के धनी गहन शोध, ऋषि भक्ति, देशभक्ति के पर्याय थे उनका जीवन स्वयं में एक दर्शन है. आज आवश्यकता है कि हम उनके जीवन से प्रेरणा लें उन धुन के धुनी बनें .

लक्ष्मण जिज्ञासु ( पण्डित लेखराम वैदिक मिशन )

 

वह महामानव कौन था जिसने भगत सिंह को शहीदे आज़म भगत सिंह बना दिया: -कन्हैयालाल आर्य

पंजाब के जि़ला लायलपुर की धरती सचमुच वन्दनीय है, जिसने न जाने कितने ऐसे वीर पुत्रों को जन्म दिया, जिन्होंने हंसते-हंसते माँ भारती की स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी। इसी लायलपुर के एक गाँव बंगा में एक सिख परिवार रहता था, जिसने आगे चलकर अपनी क्रांतिकारी परम्पराओं से भारतीय इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा। इसी परिवार में सरदार अर्जुन सिंह पैदा हुए थे। सरदार अर्जुन सिंह अपने ही ढंग के क्रांतिकारी थे। वे जाट सिख थे, परन्तु स्वामी दयानन्द जी से जब उनकी भेंट हुई तो वे आर्य समाज की ओर झुक गए। यह कहा जाता है कि स्वामी दयानन्द जी ने उन्हें स्वयं दीक्षा दी और अपने हाथ से उनका यज्ञोपवीत संस्कार किया था।

यह सरदार अर्जुन सिंह जी ही थे, जिन्होंने अपने पोते भगत सिंह को क्रांतिकारी विचारों के संस्कार दिये। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के कुछ ही दिनों के उपदेशों के प्रभाव से वे स्वाधीनता संग्राम और समाज-सुधार की क्रांति के अग्रदूत बन गए थे। उन्होंने अपने वंश को देश की आज़ादी के लिए बलिदान कर दिया।

सरदार अर्जुन सिंह और शिवाजी समारोह-१२ जून १८९७ को शिवाजी समारोह पर अध्यक्ष पद से बोलते हुए लोकमान्य तिलक ने जो भाषण दिया था वह भी सरदार अर्जुन सिंह के लिए प्रेरणा का स्रोत बना। वह भाषण इस प्रकार था-

‘‘क्या शिवाजी ने अफज़ल $खान को मारकर कोई पाप किया था?’’

‘‘इस प्रश्र का उत्तर महाभारत में मिल सकता है। गीता में श्री कृष्ण जी ने अपने गुरुओं तथा बान्धवों तक को (यदि वे दुष्टों का सहयोग करते हैं) मारने का उपदेश दिया है। उनके अनुसार कोई व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म करता है तो वह किसी भी तरह पाप का भागी नहीं बनता। श्री शिवाजी ने अपनी उदरपूर्ति के लिए कुछ नहीं किया था। बहुत ही नेक इरादे के साथ, दूसरों की भलाई के लिए उन्होंने अ$फजल $खान का वध किया था। यदि घर में चोर घुस आये और हमारे अन्दर उसको बाहर निकालने की शक्ति न हो तो हमें बेहिचक उस चोर को दरवाजा बन्द करके जि़न्दा जला देना चाहिए। ईश्वर ने भारत के राज्य का पट्टा ताम्रपत्र पर लिखकर विदेशियों को तो नहीं दिया है। शिवाजी महाराज ने उनको अपनी जन्मभूमि से बाहर खदेडऩे का प्रयास किया। ऐसा करके उन्होंने दूसरों की वस्तु हड़पने का पाप नहीं किया। कुएँ के मेंढक की तरह अपनी दृष्टि को संकुचित मत करो, ताज़ीराते हिन्द की कैद से बाहर निकलो, श्रीमद्भगवद् गीता के अत्यन्त उच्च वातावरण में पहुँचो और महान् व्यक्तियों के कार्यों पर विचार करो।’’

सरदार अर्जुन सिंह सिख परिवार के होते हुए भी संस्कारों से दृढ़ आर्य समाजी बन गए थे। वे जहाँ भी जाते, अपने साथ एक पोटली रखते थे, जिसमें यज्ञकुण्ड और यज्ञ सम्बन्धी सामान रहता था। वे प्रतिदिन यज्ञ करते थे। वे पूरी निष्ठा और गम्भीरता से महर्षि दयानन्द जी द्वारा रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का स्वाध्याय किया करते थे।

सरदार अर्जुन सिंह उन थोड़े लोगों में से थे जो जिस काम को हाथ में लेते थे, उसे पूरा करके दिखाते थे। साधारण व्यक्ति का जीवन एक ही लीक पर परवान चढ़ता है। जिस परिवार और परिस्थितियों में व्यक्ति उत्पन्न होता है वह आजीवन उन्हीं से चिपटा रहता है। यदि वह स्वतन्त्र चिन्तन करने का प्रयास करता है तो भी वह सीमित चारदीवारी के बीच में कैद रह कर ही रह जाता है। यदि वह चिन्तन के क्षेत्र में थोड़ा बहुत स्वतन्त्र चिन्तन प्रदर्शित करता भी है तब भी वह उसे व्यवहार में परिणत नहीं कर सकता, परन्तु सरदार अर्जुन सिंह तो स्वतन्त्र पथ के ऐसे पथिक थे जो न तो एक ही लीक पर चलने वाले थे और न ही एक चारदीवारी में कैद रहने वाले। वह ऐसे महामानव थे जिन्होंने अपने स्वतन्त्र चिन्तन को अपने जीवन के व्यवहार में उतारने में ही आनन्द का अनुभव किया था।

‘सत्यार्थ प्रकाश’ (आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के प्रमुख ग्रन्थ) के प्रति उनकी अपार श्रद्धा थी। उस ग्रन्थ से उन्होंने स्वराज्य प्रेम की प्रेरणा ली थी। यही स्वराज्य भावना उनके तीनों पुत्रों श्री किशन सिंह, श्री अजीत सिंह और श्री स्वर्ण सिंह में कूट-कूट कर भरी गयी थी। स्वराज्य के लिए तीनों पुत्रों ने कारावास भोगा, जेल की यातनाएं सहीं। जैसे ही भगतसिंह के पिता श्री किशन सिंह, चाचा अजीत सिंह तथा स्वर्ण सिंह जी के जेल से रिहा होने की खबर पहुँची, उसी दिन भगत सिंह का जन्म (२८ सितम्बर १९०७) हुआ था। उनकी दादी अर्थात् अर्जुन सिंह की पत्नी ने प्रसन्न होकर उन्हें (भागों वाला) भगत सिंह नाम दिया। बचपन से ही उनका पालन-पोषण दादा जी की छत्र-छाया में हुआ। भगत सिंह की दादी भी एक धार्मिक महिला थीं। यही संस्कार एवं परम्पराएँ भगत सिंह में भी आयीं। तीन वर्ष की अवस्था में भगत सिंह ने गायत्री मन्त्र स्मरण कर लिया था। भगत सिंह व उनके बड़े भाई जगत सिंह का यज्ञोपवीत संस्कार पं. लोकनाथ तर्कविद्यावाचस्पति जी ने कराया। इस अवसर पर भगत सिंह के दादा श्री अर्जुन सिंह जी ने अपने दोनों पोतों को बाहों में भरकर संकल्प किया, ‘‘मैं अपने दोनों वंशधरों को इस यज्ञवेदी पर खड़ा होकर देश के लिए दान करता हूँ।’’

सिख मत के अनुयायी होते हुए भी आर्य समाज के प्रबल समर्थक थे-गुरुद्वारा आन्दोलन में भाग लेने से पूर्व भगत सिंह न तो सिर पर केश रखते थे और न ही पगड़ी बाँधते थे। इसका कारण संभवत: उनके दादा सरदार अर्जुन सिंह का सिख होते हुए भी बहुत कुछ आर्य समाजी होना था। वे नियमित रूप से यज्ञ क रते थे और सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय भी करते थे। इस सम्बन्ध में श्री यशपाल जी ने ‘सिंहावलोकन’ में एक रोचक प्रसंग का उल्लेख किया है जिसका शब्दश: यहाँ उल्लेख किया जा रहा है। इससे सरदार अर्जुन सिंह जी की आर्यसमाज के प्रति आस्था अच्छी तरह स्पष्ट हो जायेगी।

‘‘सन् १९२५ के जाड़ों की बात है। सरदार किशन सिंह एक इंश्योरेंस कम्पनी की एजेन्टी कर रहा था। एजेंसी का यह दफ्तर हमारे लिए आराम का डेरा बना हुआ था। मैं उन दिनों लाहौर के नेशनल स्कूल में पढ़ रहा था। नेशनल कॉलेज समाप्त होकर नेशनल हाई स्कूल ही रह गया था। भगतसिंह अनिच्छा से थोड़ा बहुत समय करोबार में लगाता। शेष समय पढ़ता और संगठन के लिए भूमि को तैयार करने में लगा रहता। सुखदेव कभी लायलपुर अपने घर पर चला जाता। वहाँ उसके परिवार ने आटे की चक्की लगवा दी थी। लाहौर आता तो भगत सिंह के साथ ही बना रहता। हमारे सहपाठी झंडासिंह और जयदेव गुप्ता भी वहीं थे।

एक दिन स्कूल में छुट्टी थी। दूसरे लोग मकान पर मौजूद नहीं थे। मैं अपनी सनक में मेज़ पर बैठा कोई लेख या कहानी लिख रहा था। मेज़ के नीचे टीन की क्या चीज पड़ी है, वह ख्याल न कर उस पर जूते जमाकर रख दिये थे। संभव है अचेतन रूप से यह धारणा रही हो कि रद्दी की टोकरी के तौर पर कोई डिब्बा है। लिखते समय विचारों को ठेलने के लिए मेज़ के नीचे उस टीन की चीज़ को जूते से एड़ किए जा रहा था।

जीने पर भारी कदमों से धम-धम करते हुए एक सिख सज्जन अपने ग्रामीण वेश में ऊपर द$फतर में आ गए। मैंने एक द$फा नजर उठाकर उनकी तर$फ देखा और लिखने में तन्मय रहा। सरदार जी के ऐसे अनेक सम्बन्धी गाँवों से आते-जाते रहते थे। इस सज्जन की दाढ़ी खूब प्रशस्त, बर्फ की तरह श्वेत और चेहरा खूब तेजोमय गुलाबी रंग का था। मैंने उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया, आगन्तुक भी मुझसे आदर की प्रतीक्षा न कर एक कुर्सी खींचकर चुपचाप दीवार के पास बैठ गए। मैं मालिक बना बैठा लिखता रहा और मेज़ के नीचे टीन की चीज़ पर जूते की ठोकरें भी जमाता रहा।

अचानक वज़नी गालियों से भरी एक करारी डाँट सुनकर आँख उठाकर देखा कि वयोवृद्ध भव्यमूर्ति की आँखें लाल और चेहरा क्रोध से तमतमा उठा है और वे हाथ में थमी मोटी लाठी को फर्श पर ठोक रहे हैं।

‘‘गधा, उल्लू, नास्तिक, बदमाश, सिर तोड़ दूँगा।’’ उनके हाथ में लाठी मेरे सर पर पडऩा ही चाहती थी। वृद्ध ने अपने आवेश को कठिनता से वश में कर मेज़ के नीचे संकेत करते हुए फटकारा-‘‘उल्लू, यही तेरी तमीज़ है।’’

मेज के नीचे झाँककर देखा तो अपने जूतों के बीच पाया एक औंधा पड़ा हवनकुण्ड। सब कुछ समझ में आ गया। उपेक्षा के कारण पहचानने में भूल हुई थी। भगतसिंह से सुन रखा था कि दादा जी नित्य हवन करते हैं। जहाँ जाते हैं, पोटली में हवन कुण्ड और हवन सामग्री साथ बाँध ले जाते हैं।’’

इस घटना से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि सरदार अर्जुनसिंह सिख धर्म के अनुयायी होते हुए भी आर्य समाज के प्रबल समर्थक थे।

सन् १९२३ में भगत सिंह नेशनल कॉलेज लाहौर के विद्यार्थी बने थे। जन-जागरण के लिए वे ड्रामा क्लब में भी भाग लेते थे। क्रांतिकारी अध्यापकों और साथियों से नाता जुड़ गया था। भारत को आज़ादी कैसे मिले, इस बारे में लम्बा-चौड़ा अध्ययन और बहसें जारी थीं। घर में दादा श्री अर्जुनसिंह जी ने पोते (भगतसिंह) के विवाह की बात चलाई। उनके सामने अपना तर्क न चलते देख पिताजी के नाम यह पत्र लिखा और घर छोड़ दिया। पिताजी के नाम लिखा गया भगतसिंह का यह पत्र घर छोडऩे संबन्धी उनके विचारों को सामने लाता है-

पूज्य पिताजी, नमस्ते।

मेरी जि़न्दगी मकसदे आला (उच्च उद्देश्य) यानि आज़ादी-ए-हिन्द के असूल (सिद्धान्त) के लिए वक्$फ हो चुकी है। इसलिए मेरी जि़न्दगी में आराम और दुनियाबी ख्वाहिशात (सांसारिक इच्छाएँ) वायसे कोशिश (आकर्षण) नहीं है।

आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था तो बापू जी (दादा श्री अर्जुन सिंह जी) ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन (देश-सेवा) के लिए वक्$फ (दान) कर दिया गया है। लिहाज़ा (अत:) मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हँू। उम्मीद है मुझे मा$फ करेंगे।

आपका ताबेदार (सेवक)

भगतसिंह

यह उपर्युक्त पत्र दर्शाता है कि भगतसिंह के दादा श्री अर्जुन सिंह जी ने अपनी संतानों में देश-प्रेम को कितना गहरे तक उतार दिया था।

सरदार अर्जुन सिंह जी के समय में आर्य समाज का जो रूप था, उसमें विद्रोह के तत्त्व अधिक थे। उस समय आर्य समाज का अर्थ था स्वदेशाभिमान। सम्भवत: इसी कारणवश लाला लाजपत राय, सूफी अम्बाप्रसाद और अर्जुनसिंह जी आदि सभी आर्य समाज से प्रभावित थे। अर्जुन सिंह सिख से आर्य समाजी बने, इससे पता चलता है कि वे किस सीमा तक स्वतन्त्र चिन्तक थे। वे आर्य समाज के इतने भक्त बन गये कि जहाँ से जितना भी आर्य समाज का साहित्य उन्हें मिला, वह सारा का सारा पढ़ डाला। उन्होंने आर्य समाज के मंच से भाषण देना भी प्रारम्भ कर दिया था।

सरदार अर्जुन सिंह के व्यक्तित्व में अद्भुत अन्तद्र्वन्द्व का समावेश हो गया था। वे परम्परा से बिल्कुल कटना नहीं चाहते थे, परन्तु आवश्यकता पडऩे पर परम्पराओं की धज्जियाँ उड़ाने में भी पीछे नहीं हटते थे। जो बात उनकी तर्क की तुला पर खरी नहीं उतरती थी, उसको त्यागने एवं नई राह खोजने और फिर उस पर चलने का साहस उनमें था। वह आर्य समाज के उस नियम ‘‘सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने में सर्वदा उद्यत’’ रहते थे। यही बुनियादी तत्त्व उनको क्रान्तिकारी बना रहा था।

अर्जुन सिंह जी केवल विचारों से ही परिवर्तनवादी थे, ऐसी बात नहीं थी। जीवन में मुख्य निर्णय लेने में उन्होंने कभी विलम्ब नहीं किया। एक बार सरकार ने वनक्षेत्र को बसाने का निर्णय लिया कि जो लोग वहाँ बसना चाहेंगे, उन्हें सरकार २५ एकड़ भूमि प्रति-परिवार देगी। इस निमन्त्रण से आकृष्ट होकर वे बंगा गांव में आ बसे, जहाँ भगत सिंह का जन्म हुआ।

सरदार अर्जुन सिंह के दो भाई और थे- सरदार बहादुर सिंह और सरदार दिलबाग सिंह। दोनों ने ब्रिटिश सरकार की खूब चापलूसी की और बहुत अधिक धन कमाया। वे दोनों अर्जुन सिंह को मूर्ख समझते थे और कहा करते थे कि अर्जुन सिंह ने यदि दूरदर्शिता से काम नहीं लिया तो उन्हें एक दिन भीख माँगनी पड़ेगी, परन्तु सरदार अर्जुन सिंह पर ऋषि दयानन्द की छाप पड़ चुकी थी। वे ब्रिटिश सरकार की चापलूसी की बात तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे। उन्होंने आत्म सम्मान, निर्भीकता, स्पष्टवादिता और देशभक्ति के जिस मार्ग को चुना, आजीवन उसी मार्ग के पथिक बने रहे।

सरदार अर्जुन सिंह के यहाँ तीन पुत्र-सरदार किशन सिंह, सरदार अजीत सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह उत्पन्न हुए। तीनों पिता की तरह वीर, निर्भीक, देशभक्त और स्पष्टवादी थे। तीनों पुत्र साक्षात् उन्हीं के प्रतिरूप थे। इनके परिवार पर अंग्रेजों का कहर टूटता ही रहता था। श्री अजीत सिंह स्वतन्त्रता के युद्ध को आगे बढ़ाने के लिए विदेश चले गए। वहाँ (ब्राजील) से वे सन् १९४७ ई. में ही लौट सके, परन्तु स्वतन्त्रता की पहली ही प्रात: (१५ अगस्त १९४७ ई.) को ४ बजे उन्होंने देश के विभाजन से दु:खी होकर किसी योगी की भाँति स्वेच्छा से शरीर त्याग दिया। भगत सिंह के दूसरे चाचा सरदार स्वर्ण सिंह भी अंग्रेज सरकार के अन्यायों से मात्र २३ वर्ष की आयु में चल बसे। सरदार किशन सिंह जी का क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस व करतार सिंह सराभा से निरन्तर सम्पर्क रहता था। इन तीनों भाइयों ने सूफी अम्बा प्रसाद, लाला हरदयाल, महाशय घसीटा राम, केदारनाथ सहगल आदि क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर भारत माता सोसाइटी की स्थापना की। इनके उग्र भाषणों व कार्यों के कारण अंग्रेजी सरकार ने तीनों भाइयों को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया।

सरदार अर्जुन सिंह जी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के विरुद्ध कुछ न सुन सकते थे- सरदार अर्जुन सिंह जब ऋषि दयानन्द जी के सम्पर्क में आये, तो वे सर्वात्मना आर्य समाज के रंग में रंग गये। ऋषि दयानन्द जी द्वारा रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ उनके लिए एक प्रकाश स्तम्भ बन गया। उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का पूरा अध्ययन कर लिया था। यदि कोई भी व्यक्ति सत्यार्थ प्रकाश की आलोचना करता था, तो वह उनसे सहन न होती थी। ऐसी ही घटना उनके जीवन में आई। एक बार सरदार अर्जुन सिंह जी अपने गाँव से ६० मील दूर किसी विवाह में सम्मिलित होने के लिए गये। विवाह के अवसर पर सिख पुरोहित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के उदाहरण दे-देकर उसकी कटु आलोचना कर रहा था। अर्जुन सिंह जी ने देखा कि वह व्यक्ति झूठे उदाहरण सुना-सुना कर लोगों को भडक़ा रहा था। अर्जुन सिंह जी ने उसे टोकते हुए कहा कि आप लोगों को मिथ्या और कल्पित उदाहरण देकर सत्यार्थ प्रकाश के नाम पर सुना रहे हैं, ये बातें सत्यार्थ प्रकाश में नहीं हंै। आप सत्यार्थ प्रकाश को व्यर्थ बदनाम न करें। उसने कहा कि सत्यार्थ प्रकाश लाओ, मैं सारे उद्धरण दिखा दूँगा। उस समय कहीं-कहीं कोई-कोई पुस्तक मिलती थी। पुरोहित ने सोचा कि तेरी बात ऊपर रह जायेगी। यहाँ किसके पास सत्यार्थ प्रकाश मिलेगा? सत्यार्थप्रकाश के प्रति श्रद्धा रखने वाले श्री अर्जुन सिंह रात को ही ६० मील पैदल चलकर घर आये और सत्यार्थ प्रकाश लेकर सवेरे तक पैदल ही वापस विवाह स्थल पर पहुँच गये। जब पुरोहित को सत्यार्थ प्रकाश हाथ में थमाकर उद्धरण दिखाने के लिए कहा तो वह पुरोहित बगलें झाँकने लगा। अन्तत: पुरोहित ने अपनी भूल के लिए क्षमा माँग कर ही पीछा छुड़ाया।

जन्म से ही विद्रोही स्वभाव (वज्रादपि कठोराणि)- डॉ. सुभाष रस्तोगी जी ने अपनी पुस्तक ‘क्रान्तिकारी भगत सिंह’ में भी अर्जुन सिंह जी के विद्रोही स्वभाव की एक दृष्टान्त के द्वारा प्रस्तुति की है-

‘‘यह उनके क्रान्तिकारी व्यक्तित्व का एक ज्वलन्त उदाहरण है कि उन्होंने सरकार से मिली भूमि में तम्बाकू की खेती करने का निर्णय लिया, क्योंकि यह भूमि तम्बाकू की खेती के लिए सर्वोत्तम थी। आसपास के गाँवों में जहाँ सिख नहीं थे, वहाँ के लोग तम्बाकू की खेती से खूब धन अर्जन कर रहे थे। इसलिए उन्होंने भी तम्बाकू की खेती करने का निर्णय ले लिया, परन्तु क्योंकि सिख मत में तम्बाकू सेवन निषेध है, अत: पूरे गाँव में इनका न केवल विरोध हुआ बल्कि उनको बिरादरी से निकालने की बात के साथ-साथ उनका बिरादरी से आना-जाना और पानी बन्द हो गया, परन्तु सरदार जी चट्टान की तरह अपने निर्णय पर अटल रहे। तम्बाकू ऊँचे दामों में बिका और काफी धन घर में आ गया। अब सरदार अर्जुनसिंह जी ने दबंग स्वर में घोषणा की,‘‘गुरु जी ने उस युग की परिस्थितियों के अनुकूल तम्बाकू को शिष्यों में प्रचलन का निषेध करार दिया होगा, परन्तु यदि यह पाप है तो मैं अपना अपराध स्वीकार करता हँू। अब वह घृणित वस्तु मैंने अपने घर से निकाल दी है। आप जिस तरह कहें मैं उसी तरह अपने मकान को शुद्ध करने के लिए तैयार हँू।’’ इस घटना को किसी भी अर्थ में लिया जा सकता है, परन्तु इससे यह तथ्य तो उजागर होता है कि अर्जुन सिंह जी जन्म से ही विद्रोही स्वभाव के थे। भवभूति के शब्दों में उन्हें ‘‘वज्रादपि कठोराणि’’ की संज्ञा दी जा सकती है।’’

मृदूनि कुसुमादपि-३ मार्च १९३१ का दिन वह अन्तिम दिन था जिस दिन भगत सिंह अपने परिवार के सदस्यों से अन्तिम बार मिले। उस दिन भगत सिंह के पिता श्री किशन सिंह, माता श्रीमती विद्यावती, भाई कुलबीर, चाची और दादा श्री अर्जुन सिंह जी आये थे, जिन्होंने इस परिवार में ऋषि दयानन्द जी की प्रेरणा से क्रान्ति का बीज बोया था।

सरदार अर्जुन सिंह भगतसिंह के पास जैसे-तैसे साहस बटोरकर आये और भगतसिंह के सिर पर उसी प्रकार हाथ फेरने लगे जैसे बचपन में स्नहेवश फेरा करते थे। उन्होंने उस समय बोलने का पूरा प्रयास किया, परन्तु कण्ठ अवरुद्ध हो गया और मुख से एक भी शब्द न निकला। वे सोच रहे थे कि सम्भवत: इसके पश्चात् इस प्रिय भगतसिंह का मुख देखने का अवसर नहीं मिलेगा। वे परिवार से दूर जाकर खड़े हो गये। भगतसिंह ने देखा कि दादा जी जितना भी आंसुओं को छिपाने का प्रयास कर रहे थे, उतने ही वेग से वे निकल जाना चाहते थे। भगतसिंह ने स्वयं को संयत करते हुए कहा था-दादाजी! आपने तो मुझे बहुत समय पूर्व मेरे यज्ञोपवीत के समय राष्ट्र को दान कर दिया था, फिर आज उस दान दी हुई सम्पत्ति को अलग करने में यह मोह कैसा? आप जैसा व्यक्ति, जो वज्र की तरह कठोर है, वह आज मुरझाये हुए फूलों की तरह अच्छा नहीं लगता। मुझे लगता है कि अब आप बूढ़े हो गये हैं। क्योंकि आपके आँसु इस बुढ़ापे को दर्शा रहे हैं, परन्तु मुझे विश्वास है कि आप ऋषि दयानन्द के शिष्य हो। ऋषि दयानन्द जी ने मृत्यु से कुछ क्षण पूर्व कहा था, ‘‘हे ईश्वर! तेरी इच्छा पूर्ण हो, तूने अच्छी लीला की।’’ उनके शिष्य कभी घबराया नहीं करते। इस प्रकार परिवार का यह अन्तिम मिलन था उसके पश्चात् २३ मार्च १९३१ को इस शहीदे आजम भगतसिंह को फाँसी दे दी गई और अंग्रेज़ सरकार ने अपने नाम एक काला अध्याय और जोड़ दिया।

भगतसिंह अपनी प्रत्येक बात अपने दादा श्री अर्जुनसिंह से किया करते थे। १४ नवम्बर १९२१ को केवल १४ वर्ष की आयु का भगतसिंह अपने दादा श्री अर्जुनसिंह को एक पत्र लिखता है-परिवार का हाल-चाल जानने के पश्चात् वह अपनी सक्रियता को दादा जी के साथ किस प्रकार बाँटता है, उसका उदाहरण पत्र की ये पंक्तियाँ हैं-

मेरे पूज्य दादा साहब जी, नमस्ते।

‘‘आजकल रेलवे वाले हड़ताल की तैयारी कर रहे हैं। उम्मीद है कि अगले सप्ताह के बाद जल्दी शुरु हो जाएगी।’’

आपका ताबेदार (सेवक)

भगतसिंह

दादाजी को लिखे इस पत्र से पता चलता है कि उस समय चल रहे चर्चित असहयोग आन्दोलन का प्रभाव किस तरह जनता में जोर मार रहा था, जिसका प्रभाव भगतसिंह पर भी हुआ। वे उससे अनजान न रह सके। साथ ही दादा जी को भी यह बताए बिना न रह सके कि जल्दी आरम्भ होने वाली रेल-हड़ताल की भी उन्हें सूचना है। वे अपनी पूरी गतिविधि के बारे में अपने दादा श्री अर्जुन सिंह जी को अवगत कराते रहते थे। इससे सिद्ध होता है कि भगतसिंह के विचारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन का कितना श्रेय सरदार अर्जुन सिंह जी को है। ये श्री अर्जुन सिंह जी ही हंै, जिन्होंने भगतसिंह को शहीदे आज़म भगत सिंह बना दिया था।

PADMAVATI The Flame of Valour :Vinita arya

The Flame of Valour “Padmavati” – Vinita Arya – Part 1

 

The country’s modern uneducated historians are creating a new folk tale regarding Queen Padmavati. Blinded by money and fame these “experts” are bent on selling the honour of their ancestors.

Today the young people who should be coming forward to defend the honour of these brave men and women, have instead sacrificed their characters on the altar of materialism.

So called patriotism today has become infested by casteism and selfishness.

A poet has quite rightly said “it is but a stone, the heart which has no love for its country, which is not full of emotions flowing with feeling”.

Sanjay LeelaBhansali, the director of the soon to- be released film “Queen Padmavati” has dared to twist Queen Padmavati’s history and show such distortions in his film.

The patriots who should be opposing this however, have instead just called this matter a caste issue and are sitting quietly. The reason for their silence must be their ignorance of the real life story of Queen Padmavati.

The historians of today just rely on Mohammed Jayasi’s “Padmavat” and unfortunately ever since the making of Bhansali’s romance and action film their ill deserved reputation has only increased due to the film being riddled with references from this inaccurate book.  Many articles on Queen Padmavati exist on social media, but the sad fact is that there is an alarming lack of research seen in such articles.

In these two articles I have made an effort to reproduce and use some parts of the research work undertaken on this subject by writers such as GaurishankarHeerachandOjha and DamodarlallGarg, whose works are evidence based. Queen Padmavati was not only a valorous fiery woman in her time, but she is very much a burning symbol of bravery even today.

 

The lands of Rajasthan are not made up of sand, but it is the never ending birthplace of brave men and women of iron-wills.

 

History is witness to one of the most nationally and internationally famous among these valiant souls – Queen Padmavati or Padmini. In other words Queen Padmavati is a synonym for Chittorgarh Fort which is well known for its association with this brave queen. Both Queen Padmavati and Chittorgarh Fort have played a huge part in defending the nation and protecting the honour of women.

Influenced by this a bard once quite rightly said

“Garh to Bas Chittorgarh, baki Sab Garhiya” (Chittorgarh is theFort and all the rest (forts) are just fortresses. Padmavati is the Queen and all the rest are …”).

It is said by writers and historians about Queen Padmavati or Padmini that she was such a beauty that anyone on seeing her would be captivated by her. As for her bravery and intellect very few have lauded these aspects of her character.

The Mughals who were always tormented by Indian bravery, interfered with history by adding their biased insertions to show Mughal valour instead.

This conspiracy to distort history continued two hundred and fifty years after Queen Padmavati’s “jauhar”, self-immolation at Chittorgarh, when in 1540, Malik Mohammed Jayasi’s “Padmavat” was written.

Before his work, it is said that a wandering bard called Vain composed a piece on the Queen, however this was never published. Since Jayasi’s composition no serious research has been done on the life of Queen Padmavati and Jayasi’s work has been followed blindly ever since. In order to destroy the historical authenticity of Queen Padmavati’s story, her husband Ratan Singh is described as being from Sri Lanka, and furthermore he is portrayed as a sensual character.

Unintelligent people have increased the period that he was active in this story from one year to twelve years during which he is described as wandering around as sadhu.

He is described as going to Sri Lanka and as having married Queen Padmavati there. Other writers have just followed this line without questioning its truthfulness and in doing so have also supported other myths from Jayasi’s work namely that; Ratan Singh fulfilled the condition of showing his Queen to the attacker AlauddinKhilji, Padmavati was more of a beauty than a fierce warrior and that she placated a royal servant called RaghavChetan with a gift.

In reality the evidence of accounts of Queen Padmavati’s bravery and that of the traditions of her royal household tell a very different story. In reality, one can only imagine the robustness of Queen Padmavati’s bravery. In the articles that follow, the true history of Queen Padmavati will be told and the distortions of so called historians and writers on this subject will be exposed.

 

 The Flame of Valour“ Padmavati” – Vinita Arya – Part 2

 

Malik Mohammed Jayasi wrote a poem called “Padmavat” about King Ratan Singh and Queen Padmavati and today it is that poem which is at the centre of controversy and much opposition.

Due to there being very few instances of their lives being documented in history, Jayasi’s “Padmavat” has been accepted by many as a serious historical book.

His tale in fact bears greater resemblance to the highly imaginative and fictional romances we see today than any genuine historical work.

Evidence of the indifferent attitude of Indian historical researchers to this subject is found in the way that they have so easily accepted “Padmavat” as being an authoritative and authentic depiction of the bravery of the Rajputs.

This is despite the fact that this work was written by a poet of the Mughal court who lived two hundred and fifty years after the “jauhar” or the self-immolation of Queen Padmavati. The reason why it is so disheartening to see ‘Padmavat” regarded as authentic today and to see a film actually based on this work is because this poem has completely destroyed the honour the dignity, the pride and the traditions of the Rajputs.

Jayasi has written quite a lot in the “Padmavat” but in brief the story can be summarised as follows.

The daughter of King Gandharvasen of the kingdom of Singhal was called Padmini. This princess loved to keep birds.

Among her birds was a parrot called Heeramun, who understood and spoke the language of humans. One day a hunter caught this parrot and in his greed he sold the parrot to a Brahmin. The Brahmin in turn gave it to the King of Chittorgarh, Ratan Singh. One day the wife of Ratan Singh was praising her own beauty when the parrot began to praise the beauty of Padmini. Ratan Singh having heard the parrot’s praises became determined to have the princess for himself and went to the kingdom of Singhal, which is in modern day Sri Lanka.

As he was a lone warrior, King Ratan Singh abandoned the idea of war and decided to spend twelve years as a sadhu, or wandering sage during which time he made many attempts to try and get Princess Padmini. One day the parrot Heeramun, escapes from Ratan Singh and goes to Princess Padmini and he tells her about Ratan Singh. By just listening to Heeramun’s account she falls in love with Ratan Singh. One day, both Ratan Singh and Padmini meet and Ratan Singh on seeing Padmini’s beauty faints. King Gandharvasen witnessing the princess’ love for him, respects his daughter’s wishes and both Ratan Singh and Padmini get married. Ratan Singh then takes Padmini back to Chittorgarh.

Now, in order to make this tale more interesting and to link the royal couple to Khilji, Jayasi adds another character, RaghavChetan to the story, One day this person enters the court of King Ratan Singh and requests employment from him. The king gives him employment but later finds out that RaghavChetan, knows black magic.

He removes him from the court, however Queen Padmini takes pity on him and personally gives him money. When Raghav sees the Queen in person, he falls madly in love with her beauty.

Filled with feelings of vengeance against King Ratan Singh he goes to Delhi and poisons the mind of Sultan AlauddinKhilji and incites him to wage war against him. Raghav also tells him about Padmini’s beauty and cunningly persuades him that he needs to make Padmini a part of his court. Khilji then attacks Chittorgarh and a battle ensues between him and King Ratan Singh for sixth months.

The Mughal army become despondent but then Khilji hits apon a great idea; he tells Ratan Singh that if you allow me and my army to see your wife through a mirror, then we will leave you. King Ratan Singh accepts Khilji’s proposal, and he makes preparations for a mirror to be brought to the palace through which Khilji can see Ratan Singh’s wife from afar. When Khilji sees Padmini he becomes enchanted by her beauty.

He makes arrangements to leave Chittorgarh and King Ratan Singh comes to see him off personally. However the king is deceived by Khilji and gets captured by him instead and he is taken to Delhi. Having taken Ratan Singh there, Khilji sends a message to Chittorgarh, that if you give me Queen Padmini, then I will let Ratan Singh go.

Queen Padmini then makes a plan to rescue her husband. She goes with seven hundred soldiers dressed in royal maid servants’ clothes in palanquins to Khilji. With great cunning and skill the Queen rescues her King from Khilji’s clutches and brings him back to Chittorgarh. Khilji on discovering this deception attacks Chittorgarh again, during which Ratan Singh becomes martyred and Queen Padmini and her many royal maidservants commit “jauhar” or self immolation.

Khilji on hearing the news of Queen Padmini’s death becomes very depressed and full of despair. He leaves soon after for Delhi. (This brief summary of “Jayasi’sPadmavat” has been taken from DamodarlallGarg’s book –ChittorgarhkiJvala Rani Padmini- Chittorgarh’s Fiery Queen Padmini)

The Jayasi’s “Padmavat” story has been given in brief here but this is enough to show that the poem has been laced with so much romance that the honour, duty, traditions and bravery of the Rajputs are nowhere to be seen.

According to the writer of the book “The History of the Kingdom of Udaipur p. 174” (in the original Hindi – “Udaipur RajyaKaItihaas)

“at the end of the “Padmavat” tale, Jayasi calls the whole tale a metaphor”. Writers that come after Jayasi have also regarded the tale as authentic and have used it to support their works, by diluting the story even further and writing their own even more watered-down version.

Readers who already have knowledge of the honour and the sense of duty of the Rajputs on actually reading the “Padmavat” can easily see that in this tale Queen Padmavat’s “jauhar” and Rajputivalour have been meddled with.

Evidence instead of their actual bravery can be seen in these lines from other poems –

“Chittor champak hi rahayadyapiyavanali ho gaye, dharamarthHaldighat me kitnesubhatbali ho gaye”

(Chittor’s rose fragrance remained despite the foreigners turning into wasps, how many great warriors were sacrificed for Dharma, righteousness at Haldighat!),

“Kulmaan jab takpraan tab tak, yah nahin to vahnahin”

(maintain the honour of the clan until the last breath, as if that disappears so will it (the clan)”.

These instructions have resounded throughout the Mewar region of Rajasthan. The burning fiery blood of those born on Rajasthani soil can also be seen in these lines

“vikhyaat ve jauhar yahan ke aaj bhi hai lok men, ham magna hai, un padmini-si deviyon ke shok men! Aarya striya nij dharm par marti hui darti nahin, sadyant sarv satitva-shiksha visva men milti nahin”

(jauhar is still commemorated today and throughout the world, we are plunged into mourning for noble, virtuous ladies such as Padmini! Arya ladies defend their own virtue, are never afraid to die and such a lesson in wifely fidelity you will never see anywhere else in the whole world”.)

The following points are also worthy of serious consideration:

  1. By reading the Padmavat poem and comparing it with the actual reign of Ratan Singh then Jayasi’s whole poem becomes clearly a baseless total lie. According to the evidence that is available, the inscriptions that have been found, Ratan Singh’s reign was only for around a year (see “The History of the Kingdom of Udaipur” p. 187) Now what’s worth thinking about is how in reality all of the events described in the poem could have occurred within his very short reign, for example Ratan Singh’s coronation, his taking care of his kingdom, then shortly after meeting the parrot, making plans to go to the Kingdom of Singhal, actually going to Singhal and spending twelve years as a sadhu, a wandering ascetic, coming back to Chittor, the arrival of RaghavChetan in his court, his subsequent removal, Raghav’s trip to Delhi where after several months he meets Khilji, Khilji’ssubsequent six month attack on Chittor, the imprisonment of King Ratan Singh and his removal to Delhi, his subsequent release and return to Chittor, followed by a battle and the jauhar of Queen Padmini. If these events really did happen they would have taken years to take place! But the clear evidence that the duration of Ratan Singh’s reign was only for one year is proof enough that Jayasi’s poem is pure fantasy.

 

  1. If for argument’s sake Ratan Singh’s reign was longer, then for a king to wander around for twelve years dressed as a sadhu seems not in keeping with the world famous reputation of the Rajputs. It is more plausible and credible that Ratan Singh in his capacity as king would have gone to King Gandharvasen and asked for Padmini’s hand in marriage up front and that it would have been readily accepted.

 

  1. There was in fact no King Gandharvasen of the Kingdom of Singhal during the reign of King Ratan Singh. Nor was there a person called HammeerShankh who was king as written somewhere else. The ruler of Singhal was actually KeertinisshankdevParakrambahu the Fourth (“The History of the Kingdom of Udaipur” p. 187)

 

 

  1. It is very doubtful that Queen Padmini would have helped the courtier RaghavChetan as described in Jayasi’s tale because according to Rajput etiquette no wife, daughter, sister can speak to a man who doesn’t belong to her family, let alone give him alms. This is not only the etiquette of the Rajput’s but of all good families in India.

 

  1. It also impossible that King Ratan Singh would have gone against all Rajput etiquette and ignored the Rajput’s great history of chivalry and accept Khilji’s alleged proposal – i.e. that of showing his wife off to another man in exchange for Khilji’s cessation of war. Ratan Singh being a very powerful King with everything at his disposal would never have acted against the honour and dignity of the Rajputs. No husband in his right mind would ever accept such a proposal.

 

 

  1. There is no evidence whatsoever also for – the imprisonment of King Ratan Singh by Khilji and the seven hundred palanquins that are taken to Delhi to attack Khilji. These are all figments of Jayasi’s very vivid imagination.

 

  1. As during King Ratan Singh’s time the blood of a Rajput was a synonym for valour, it is very wrong of Jayasi to depict Ratan Singh as fainting on seeing Padmini for the first time. It is frankly laughable when even today men do not swoon on seeing a woman.

 

  1. Queen Padmini did not in fact live in Singhal. She belonged to the Kingdom of Pangal, Pingal or Pungalgadh, which is within modern day Bikaner, Rajasthan. The heroine of the romantic folk tale of Dhola-Maru lives in fact in this citadel. Lines from Rajasthani folk songs also are proof that Queen Padmini lived in Pangal (Pungalgadh) such as – “Pagipagipangipanth sir upariambarchah, pavaspragatuPadmini, kahutpangaljah”. To re-emphasise the truth about Queen Padmini’s parents and husband, it must be underlined that her father’s name was actually King Punyapal, her mother was Queen Jamkavar and her husband was King Ratan Singh.    (See –ChittorkiJvala “Rani Padmini” –from Rani Padmini Ki AitihasiktaaurKhyatipraptJauhar -Chittor’s Flame – “Queen Padmini” in the Hindi book – “Queen Padmini’s Historical and Famous Jauhar” – p. 51)

 

In conclusion, the historical authenticity of Jayasi’s “Padmavat” is non-existent due to a lack of evidence. Spatially, geographically and in terms of the alleged events that occurred theygo against all authentic historical accounts.

 

Having read and understood all these facts my opposition to Bhansali and his film is that he has based his film on “historical” accounts which can not be regarded as the truth.

In doing so Bhansali has distorted history, which is unacceptable. Another unacceptable thing about this film is the choice of actress to play the role of Queen Padmavati (DeepikaPadukone).

She is in my view a person with a questionable character. Contrast the input of such a person in this film to the non-existent consultation of the Rajput community who are rightly very concerned about how this film depicts their iconic Queen, Queen Padmini.

By stubbornly ignoring their sentiments and continuing to distort history this has inevitably led to this level of opposition. A cynic would say that this is what Bhansali has always wanted as courting such opposition is only giving him free publicity.

Whatever Bhansali’s secret agenda is, one can only make a final judgment on his film once it is released. It is left to the reader’s own conscience whether s/he should go and see this film or not.

 

Namaste

(Hindi Article translated and edited by Vinita Arya)

 

शौर्य की ज्वाला “पद्मावती” भाग -२ : गौरव आर्य

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शौर्य की ज्वाला “पद्मावती” :गौरव आर्य

गतांक से आगे

 

राजा रतनसिंह और रानी पद्मिनी को लेकर “मलिक मुह्हमद जायसी” ने एक काव्य “पद्मावत” लिखा था, आज विरोध का कारण वही काव्य है

इतिहास के अभाव में लोगों ने “पद्मावत” को एतिहासिक पुस्तक मान लिया, परन्तु वह आजकल के किसी काल्पनिक उपन्यासों के जैसी है

रानी पद्मिनी के जोहर के लगभग २५० वर्ष पश्चात एक मुगल कवि द्वारा राजपूतों की शान बताकर कोई काव्य लिखना और उसे प्रमाणिक मानना हमारे शोधकर्ताओं के उदासीन रवैये को प्रदर्शित करता है और आज पर्यन्त उसे प्रमाणिक मानकर उसका उपयोग लेना और फिल्मनिर्माता द्वारा उस पर फिल्म बनाना अत्यंत निराशाजनक है

जबकि उस काव्य में राजपूत मान मर्यादा, शान, रीतिरिवाज को नष्ट कर दिया गया हो

पद्मावत में क्या लिखा है –

 

जायसी ने काव्य “पद्मावत” तो बहुत विस्तृत लिखा है यहाँ सिमित दायरे में आपको बताते है:-

सिंहल देश के राजा गन्धर्वसेन की पुत्री का नाम पद्मिनी था, इस राजपुत्री को पक्षी पालने का शौक था ! उसके पक्षियों में एक हिरामन नाम का तोता था जो मनुष्यों की भाषा समझने और उसी में बोलने की कला में निपुण था

 

एक दिन तोते को एक व्याध ने पकड़ लिया और रुपयों के लालच में एक ब्राह्मण को बेच दिया, ब्राह्मण ने तोते को चितोडगढ़ के रावल रतनसिंह को भेंट कर दिया

 

तत्पश्चात रतनसिंह की रानी अपनी प्रशंसा कर रही थी तो तोते ने पद्मिनी के सोंदर्य का बखान किया,  जिसे सुन रतनसिंह उसे पाने के लिए अधीर हो गया और सिंहल देश (श्री लंका) पहुँच गया,  अकेला होने की वजह से युद्ध का विचार त्यागकर १२ वर्ष साधू के वेश में रहकर उसे पाने का बहुत प्रयास किया, एक दिन तोता रतनसिंह के चंगुल से छुटकर पद्मिनी के पास चला गया और रतनसिंह के बारे में बताया जिससे राजकुमारी उस पर मोहित हो गई एक दिन दोनों की भेंट होती है जहाँ रतनसिंह पद्मिनी का सोंदर्य देखकर मुर्छित हो जाता है, राजकुमारी के प्रेम को देखकर राजा गन्धर्वसेन राजकुमारी की इच्छाओं का सम्मान करता है और अंततः दोनों का विवाह हुआ और रतनसिंह पद्मिनी को लेकर चितोड़गढ़ आ गया

 

अब कहानी को दिलचस्प बनाने और उसे खिलजी से जोड़ने के लिए एक किरदार और जोड़ा

जायसी ने लिखा एक दिन “राघव चेतन” नाम का व्यक्ति रावल के दरबार में आया और नौकरी पर रखने की प्रार्थना की जिसे राजा ने स्वीकार कर लिया, थोड़े समय पश्चात रावल को ज्ञात हुआ की राघव चेतन जादू टोना जानता है तो रावल ने उसे बाहर निकाल दिया, रानी पद्मिनी को उस पर तरस आता है तो वह स्वयं उसकी सहायता के लिए पेसे देती है, उस समय राघव रानी को देखता है और वह रानी के सोंदर्य का दीवाना हो जाता है, राघव ने रावल रतनसिंह से बदले की भावना से अल्लाउद्दीन के कान भरकर उसे युद्ध के लिए प्रेरित करने का विचार किया और दिल्ली जाकर उसे पद्मिनी के सोंदर्य के बारे में बताया और राजा को उकसाया की ऐसे सौन्दर्य की देवी को तो आपके राज दरबार का हिस्सा होना चाहिए

 

तो खिलजी चितोड़गढ़ पर चढाई कर देता है रावल रतनसिंह और खिलजी के बीच करीब ६ महीने युद्ध चलता है और मुगल सेना निराश होने लगती है तो खिलजी राजा के पास प्रस्ताव लेकर जाता है की तुम अपनी पत्नी को केवल कांच में दिखा दो तो भी हम यहाँ से चले जायेंगे और राजा यह शर्त स्वीकार कर लेता है और योजना बनती है की महल में काच लगाया जाए जहाँ से खिलजी दूर से रानी को देखे, रानी को देखकर खिलजी मोहित हो जाता है, चितोड़ से प्रस्थान का कार्यक्रम बनता है रतनसिंह द्वार पर छोड़ने आता है, जहाँ से धोखे से उसे बंदी बनाकर दिल्ली ले जाया जाता है

 

दिल्ली ले जाकर खिलजी सुचना भेजता है की यदि रानी पद्मिनी को हमें दे दिया जाए तो हम रतनसिंह को छोड़ देंगे तो रानी एक योजना बनाती है जिसमें ७०० पालकियों में सैनिकों को दासियों के वेश में लेकर जाती है और खिलजी को कहाँ जाता है की वह आ रही है और युक्ति लगाकर राजा को वहां से भगाकर पुनः चितोड़ ले आते है

 

जिससे खिलजी क्रोधित होकर पुनः चितोड़ पर आक्रमण करता है जहाँ रतनसिंह शहीद हो जाते है और रानी पद्मिनी कई रानियों दासियों के साथ जोहर कर लेती है

जिसकी सुचना पाकर खिलजी को आत्मग्लानि होती है और वह निराश होकर दिल्ली लोट जाता है

(“चितोड की ज्वाला रानी पद्मिनी : दामोदरलाल गर्ग” से कुछ भाग)

 

यह बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में कहानी को यहाँ बताया है

 

जायसी ने तो इस काव्य में प्रेम प्रसंग का इतना पुट दिया है की कही से राजपूती शान, मर्यादा, रीतिरिवाज, वीरता के दर्शन नहीं होते |

“पद्मावत कथा की समाप्ति में जायसी ने इस सारी कथा को एक रूपक बतलाया है”

(उदयपुर राज्य का इतिहास पृष्ठ १७४)

बाद के लेखकों ने भी इसे प्रमाणिक मानकर अपनी लेखनी को गति दी है और उस पर कुछ कुछ घालमेल कर अपने अपने काव्य लिख दिए है

पाठकों को इस काव्य को राजपूती मान मर्यादा उनके जीवन को ध्यान में रखकर इसे पढ़कर निर्णय लेना चाहिए की इस कवि ने रानी पद्मिनी के जोहर राजपूती शान के साथ कितना खिलवाड़ किया

राजपूती शान क्या रही है इस पद्य को पढ़कर समझा जा सकता है

“चितोड़  चम्पक  ही  रहा  यद्यपि  यवन  अली  हो  गये,

धर्मार्थ  हल्दीघाट  में  कितने  सुभट  बली  हो  गये !

“कुल  मान  जब  तक  प्राण  तब  तक,  यह  नहीं  तो  वह  नहीं”,

मेवाड़  भर  में  वक्तृताए  गुँजती  ऐसी  रही ||

राजस्थान की मिटटी में जन्में रक्त की ज्वाला देखो

“विख्यात  वे  जौहर  यहाँ  के  आज  भी  है  लोक  में,

हम  मग्न  है  उन  पद्मिनी-सी  देवियों  के  शोक  में !

आर्य-स्त्रियाँ  निज  धर्म  पर  मरती  हुई  डरती  नहीं,

साद्यंत  सर्व  सतीत्व-शिक्षा  विश्व  में  मिलती  नहीं ||”

 

“पद्मावत” काव्य को पढ़कर और रतनसिंह के कार्यकाल के समय को देखा जाए तो यह पूरा काव्य झूठा और बेबुनियाद लगता है

 

जो प्रमाण मिलते है जो शिलालेख मिले है उसके अनुसार रतनसिंह का कार्यकाल १ साल के करीब रहा है

(उदयपुर राज्य का इतिहास भाग १, पृष्ठ संख्या १८७)

अब यह विचारणीय है की इस १ वर्ष में उक्त काव्य की घटनाए कैसे घटित हुई होगी

१. जैसे रतनसिंह का राजतिलक हुआ होगा, राजकाज सम्भाला फिर कुछ समय बाद तोते का मिलना, फिर सिंहल देश जाने की योजना बनाना, सिंहलदेश जाने का समय और वहां जाकर १२ वर्ष साधू के वेश में रहना, फिर पुनः चितोड़ आना, फिर राघव का आना, उसे निकाला जाना और उसका दिल्ली जाकर कई महीनों बाद खिलजी से मिलना, खिलजी का चितोड़ पर ६ महीने तक आक्रमण करना फिर रावल को बंदी बनाकर दिल्ली ले जाना जहाँ से पुनः छुड़ाकर लाना उसके बाद पुनः युद्ध होना फिर जोहर होना

इतने सारे कार्य में कितने वर्ष लगे होंगे और उन सबके पश्चात रतनसिंह का केवल १ वर्ष का कार्यकाल सिद्ध होना प्रमाण के लिए पर्याप्त है की जायसी का काव्य कपोल कल्पित है

२. यदि मान लिया जाए की रावल का कार्यकाल अधिक रहा होगा तो एक राजा का १२ वर्ष तक साधू के वेश में रहना अमान्य है और राजपुताना तो विश्व प्रसिद्ध रहा है फिर यदि रावल स्वयं जाकर राजा गन्धर्वसेन से उनकी पुत्री का हाथ मांगते तो उन्हें स्वीकार अवश्य होता इसमें कोई संशय नहीं

 

३. जो कार्यकाल रावल रतनसिंह का पाया जाता है उस समय सिंहल देश में गन्धर्वसेन नाम का कोई राजा नहीं था एक अन्य जगह पद्मिनी के पिता का नाम हम्मीर शंख बताया है इस नाम का राजा भी उस समय सिंहल देश में नहीं था उस समय राजा कीर्तिनिश्शंकदेव पराक्रमबाहू (चतुर्थ) था |

(उदयपुर राज्य का इतिहास भाग १, पृष्ठ संख्या १८७)

४. उसके बाद राघव की सहायता स्वयं रानी के हाथों से होना भी संदेह उत्पन्न करता है क्यूंकि राजपूती मर्यादा इस बात की आज्ञा नहीं देती की घर की बहन बेटियां किसी गैर मर्द को मिले बात करें या किसी प्रकार का कोई दान या भिक्षा दे, राजपूती क्या जन समान्य में भी जो अच्छे घराने के लोग है वे भी इसकी आज्ञा नहीं देते

 

५. अपनी पत्नी के प्रदर्शन की शर्त स्वीकार करना किसी भी राजपूत की मर्यादा के विपरीत है जहाँ एक और राजपूती इतिहास वीरता से भरा पड़ा है, सब प्रकार से साधन सम्पन्न शक्तिशाली राजा के होते ऐसी बात को स्वीकार करना बिलकुल राजपूती मान मर्यादा के विपरीत है, एक सामान्य मनुष्य भी अपनी पत्नी को लेकर ऐसी शर्त स्वीकार नहीं करेगा

 

६. सिंहल देश में रावल रतनसिंह का पद्मिनी को देखकर मूर्छित हो जाना भी गलत लगता है, यह तो उस काल की बात है जब राजपूती रक्त वीरता का पर्याय था उस समय राजा का मूर्छित होना हास्यास्पद है जबकि आजकल के लड़के तो किसी सुन्दरी को देखकर भी मूर्छित न हो |

७. चूँकि राजा रतनसिंह का कार्यकाल १ वर्ष का ही रहा और इतने से कार्यकाल में उसका विवाह होना और ६ से ८ माह का युद्ध होना उसके अनुसार रानी पद्मिनी का दिल्ली जाकर राजा को छुड़ाना भी कल्पना मात्र ही है, अनुमान है की इस कार्यकाल में अलाउद्दीन ने चितोड़ पर आक्रमण किया युद्ध ६ माह के लगभग चला और इस युद्ध में राजा रतनसिंह इस लड़ाई में लक्ष्मणसिंह सहित कई सामंतों के साथ मारा गया, उसकी रानी पद्मिनी ने कई रानियों के साथ जौहर किया

(उदयपुर राज्य का इतिहास भाग १ पृष्ठ १९१)

८. रानी पद्मिनी को लेखक सिंहल देश का बताते है और उस काल में जिस राजा का नाम लिया जाता है उस समय में उस नाम के किसी भी राजा का कोई इतिहास नहीं मिलता और राजा रतनसिंह के इतने से छोटे से कार्यकाल में उसका सिंहलदेश जाना वहां साधू का वेश धारण करना यह सब कल्पना ही है इसमें सच्चाई लेशमात्र भी नहीं |

वस्तुतः रानी पद्मिनी पंगल, पिंगल अथवा पूंगलगढ़ की रहने वाली थी जो वर्तमान में बीकानेर के अंतर्गत आता है | ढोला-मारू लोक गाथा की नायिका भी इसी गढ़ की रहने वाली थी | राजस्थानी लोकगीतों से भी प्रमाणित होता है की रानी पद्मिनी पंगल (पूंगलगढ़) की रहने वाली थी- देखे:-

 

“पगि पगि पांगी पन्थ सिर ऊपरि अम्बर छांह |

पावस प्रगटऊ पद्मिनी, कह उत पंगल जाहं ||”

इसी प्रकार इसके पिता और पति के नामों में भ्रम का संचार हुआ है जबकि पिता का नाम रावल पूण्यपाल एवं माता का नाम जामकंवर था | पति का नाम रावल रतनसिंह था |

(चितोड़ की ज्वाला “रानी पद्मिनी” {रानी पद्मिनी की एतिहासिकता और ख्यातिप्राप्त जौहर} पृष्ठ ५१)

 

सार यही है की रानी पद्मिनी को लेकर जो इतिहास “पद्मावत” उपलब्ध है वह सर्वदा अमान्य है क्यूंकि उसमें लिखी कई बातों के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, उसमें जो समय गणना है, जो जो भौगौलिक स्थिति दर्शाई गई है, जो जो घटनाए दर्शाई गई है वे मूल इतिहास से बिलकुल नहीं जुडती/विपरीत है

 

रानी पद्मिनी के इतिहास और भौगौलिक स्थितियों को देखकर, उदयपुर राज्य के इतिहास को समझकर, राजाओं के काल को देखकर यही प्रतीत होता है की

रानी पद्मिनी रावल रतनसिंह की पत्नी थी, रावल का कार्यकाल १ वर्ष रहा उसी समय अलाउद्दीन खिलजी ने चितोड़ पर आक्रमण किया यह एक बार ही किया गया था और ६ माह के युद्ध में रावल रतनसिंह मारे गये और रानी पद्मिनी ने अपने सतीत्व की रक्षा में कई रानियों और दासियों के साथ जौहर कर लिया

इसके अतिरिक्त जो घटनाए जैसे

७०० डोलियाँ लेकर जाना

राघव चेतन द्वारा मुखबरी करना

रावल द्वारा रानी पद्मिनी का चेहरा दिखाना

धोखे से रावल को कैद कर दिल्ली ले जाना

सिंहल देश जाकर १२ वर्ष साधू के वेश में रावल का रहना

और इसके अतिरिक्त कई तथ्य केवल कल्पना मात्र है इनका कोई प्रमाण आज तक नही मिलता
इन सब तथ्यों को पढ़कर मेरा भंसाली से विरोध यही है की जिस इतिहास को प्रमाणिक नहीं माना गया है उसे उपयोग में लेकर फिल्म बनाकर उसे प्रदर्शित करना इतिहास प्रदुषण है जो मान्य नहीं है,

ऐसी अभिनेत्रियों को रानी पद्मिनी के किरदार में प्रदर्शित करना जिनका स्वयं का चरित्र निम्न स्तर का हो

जिस वर्ग पर फिल्म बनाई जा रही है उससे चर्चा न करना, उनसे विचार विमर्श किये बिना उनके इतिहास से छेड़छाड़ करना

उनके विरोध के पश्चात उसमें बदलाव न करना और उसे प्रदर्शित करने पर अड़े रहना

यह सब विरोध के प्रमुख कारण है परन्तु एक तथ्य यह भी है की फिल्म के मुफ्त प्रमोशन के लिए भी हो सकता है यह भंसाली का कोई एजेंडा हो

यह सब गर्त में छुपा है इस पर पूरी प्रतिक्रिया फिल्म की कहानी पता चलने के बाद ही दी जा सकती है इससे आगे यह कहना की यह फिल्म न देखने जाए या जाए यह पाठकों की बुद्धि पर छोड़ दिया जाना ज्यादा उचित है

 

इति शम

नमस्ते

शौर्य की ज्वाला “पद्मावती” :गौरव आर्य

रानी पद्मावती को लेकर देश के आधुनिक गढ़रिये नई गाथा गढ़ रहे है पैसे और नाम की चकाचौंध में ये गढ़रिये अपने पूर्वजों के सम्मान को बेचने पर आमादा है

वही इन वीर वीरांगनाओं के सम्मान के लिए आज जिन युवाओं को आगे आना चाहिए वे अपने चरित्र को ही भौतिकता की बलि पर चढा रहे है

आज की राष्ट्र भक्ति जातिवाद और स्वार्थी भावनाओं से ग्रस्त होती जा रही है | किसी कवि ने ठीक ही कहा है

“जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमें रसधार नहीं |

वह हृदय नहीं वो पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ||”

भंसाली आज रानी पद्मावती के इतिहास को तोड़ मरोड़कर अपनी फिल्म में प्रस्तुत करने का साहस कर चूका है और जिन राष्ट्रवादियों को इसका विरोध करना चाहिए वे इसे जातिवाद का रंग देकर शांत हो चुके है

इसका कारण कहीं न कहीं रानी पद्मावती का जीवन ज्ञात न होना है

आज के इतिहासज्ञ तो मुह्हमद जायसी की लिखी “पद्मावत” के सहारे ही जीवित है तभी इन अंधों में काणे राजाओं की पूछ बढ़ी है

जबसे भंसाली ने इस वीरांगना पर रोमांस और एक्शन की मिलावटी फिल्म बनाई है सोशल मिडिया पर लेखों की भरमार है पर दुःख उस समय होता है जब इन लेखों में शोध की भयंकर कमी दिखती है

 

हमने थोडा सा प्रयास कर रानी पद्मिनी के इतिहास पर शोध कर चुके लेखकों के कुछ अंशों को यहाँ दिखाया है

जिसमें गोरीशंकर हिराचंद ओझा और दामोदरलाल गर्ग प्रमाणिक लेखकों में से है उनके शोध का उपयोग किया है

 शौर्य की ज्वाला :पद्मावती

रानी पद्मावती मात्र इतिहास नहीं, वीरता की जीती जागती ज्वाला है

 

राजस्थान की भूमि रेत ही नहीं उगलती वह शूरमा, वीर वीरांगनाओं की जननी रही है इसका इतिहास साक्षी रहा है

ऐसे ही वीर वीरांगनाओं में एक नाम जो मात्र भारत ही नहीं विश्व प्रसिद्ध रहा है

वह है “रानी पद्मावती / पद्मिनी”

दुसरे शब्दों में रानी पद्मावती चितोड़गढ़ दुर्ग का पर्याय है, इस दुर्ग की मुख्य पहचान ही रानी पद्मावती रही है

देश और नारी के सम्मान की रक्षा में रानी पद्मावती और दुर्ग चितोड़ दोनों ने ही बलिदान दिया है इससे प्रभावित होकर किसी चारण ने क्या खूब कहा है

“गढ़ तो है चितोड़गढ़ और सब गढ़ेया है |

रानी तो पद्मावती और सब …… हैं ||

रानी पद्मिनी या पद्मावती के बारे में कहा जाता है की वह सुन्दरता की देवी थी जिस पर कोई भी मंत्रमुग्ध हो जाए इससे अधिक रानी पद्मिनी की वीरता उनकी बुद्धि का बखान बहुत कम लेखकों और इतिहासज्ञों ने किया है

 

भारतीय वीरता से परेशान मुगलों ने हमेशा से ही यहाँ के इतिहास से छेड़छाड़ और प्रक्षेपण किया है जिससे मुगलों के इतिहास को गौरव प्राप्त हो सके

 

इसी षड्यंत्र के चलते चितोड़ के जोहर की घटना के तकरीबन २५० वर्ष पश्चात “मलिक मुह्हमद जायसी” ने पद्मावत की रचना की, इससे पहले कहा जाता है की एक व्यक्ति वैन नामक चारण था जिसने रानी पद्मिनी पर लिखा था परन्तु वह प्रकाशित नहीं हो पाया

जायसी की कथा लिखने के बाद लगभग लेखको ने उसी का अनुशरण किया किसी ने इस पर शोध करने का कष्ट नहीं उठाया

 

राजस्थान की वीरता के इतिहास को ध्वस्त करने के उद्देश्य से रानी पद्मिनी पत्नी रतनसिंह को श्री लंका निवासी बताया और रतनसिंह को विलासी तक सिद्ध करने में इन इतिहास प्रदूषकों ने कोई कसर नहीं छोड़ी

अतिविद्व्तजनों ने रतनसिंह के १ वर्ष के कार्यकाल में १२ वर्ष साधू का वेश भी धारण करवा दिया, श्री लंका भेज कर रानी पद्मिनी से विवाह करना भी बता दिया और उसी विद्वता का अनुशरण कई लेखकों ने भी कर लिया

रानी पद्मिनीं का शौर्य कितना जबर्दस्त रहा होगा इसका विचार इसी से किया जा सकता है की उनके पुरे इतिहास से छेड़छाड़ की गई

राजपूत द्वारा अपनी पत्नी को मुगल आक्रान्ता को दिखाने की शर्त, राजपूत को अत्यंत विलासी प्रदर्शित करना, रानी के केवल सौन्दर्य की चर्चा करना उसकी वीरता का बखान न करना, रानी को दुसरे देश की बताना, साथ ही राघव चेतन को स्वयं रानी से भीख दिलवाना आदि आदि छोटी छोटी और बड़ी से बड़ी मिलावटे इन मुगलों और भाड़े के लेखकों ने की है

 

परन्तु जो ऐतिहासिक निशानियाँ और प्रमाण रानी पद्मिनी की वीरता और राजघराने की परम्पराओं के मिलते है उनसे यह सब बाते झूठी सिद्ध होती है

रानी पद्मावती के सच्चे इतिहास और अन्य इतिहासज्ञों के मिलावटी लेखों और उनके मिलावट के प्रमाण आगामी लेखों में प्रस्तुत किये जायेंगे

अगला भाग यहाँ क्लिक करके पढ़े

http://aryamantavya.in/padmavati-2/

—गौरव आर्य

‘पं. गणपति शर्मा का वैदिक धर्म व महर्षि दयानन्द के प्रति श्रद्धा से पूर्ण प्रेरणादायक जीवन’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

प्राचीनकाल में धर्म विषयक सत्य-असत्य के निणर्यार्थ शास्त्रार्थ किया जाता था। अद्वैतमत के प्रचारक स्वामी शंकराचार्य के बाद विलुप्त हुई इस प्रथा का उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में महर्षि दयानन्द ने पुनः प्रचलित किया। इसी शास्त्रार्थ परम्परा को पं. गणपति शर्मा ने अपने जीवन में अपनाया और यह सिद्ध किया कि किसी विषय में एक या अधिक मत होने पर उसका निर्णय शास्त्रार्थ द्वारा सरलता से किया जा सकता है।

 

पं. गणपति शर्मा का जन्म राजस्थान राज्य के अन्तर्गत चुरू नामक नगर में सन् 1873 में पं. भानीराम वैद्य के यहां हुआ था। आप पाराशर गोत्रीय पारीक ब्राह्मण थे। आपके पिता सच्चे ईश्वर भक्त थे और ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास पंडित गणपति शर्मा के जीवन में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। आपकी शिक्षा काशी और कानपुर आदि स्थानों पर हुई। 22 वर्ष की आयु तक आपने संस्कृत व्याकरण और दर्शनों का अध्ययन किया। जब आप अपने पैतृक स्थान चुरू आये तो वहां महर्षि दयानन्द के शिष्य व राजस्थान में वैदिक धर्म के महान प्रचारक श्री कालूराम जी जोशी के प्रभाव से आर्यसमाजी बने। आर्यसमाजी बनकर आपने वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार का कार्य आरम्भ कर दिया।

 

सन् 1905 के गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार के वार्षिक उत्सव में आप सम्मिलित हुए थे। इस उत्सव में देश भर के आर्यसमाजों से भी लोग सम्मिलित हुए थे। लगभग 15 हजार श्रोताओं की उपस्थिति में आपने व्याख्यान दिया। इस व्याख्यान से आपकी विद्वता एवं प्रभावशाली प्रवचन शैली की धाक जम गई। सारे आर्यजगत का ध्यान आपकी ओर आकर्षित हुआ और इसके बाद आप आर्यसमाज के एक प्रमुख विद्वान के रूप में प्रसिद्ध रहे। गुरुकुल के उत्सव में मिया अब्दुल गफूर से शुद्ध होकर धर्मपाल बने सज्जन भी उपस्थित थे। गुरुकुल के आयोजन पर अपने विस्तृत समाचार एवं संस्मरण विषयक लेख में उन्होंने पं. गणपति शर्मा के व्याख्यान की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा था कि वह शब्दों में कुछ कहने में असमर्थ हैं। पंडित जी की ज्ञान प्रसूता वाणी का आनन्द तो सुनकर ही लिया जा सकता है।

 

पं. गणपति शर्मा की एक विशेषता यह भी थी कि वह बिना लाउडस्पीकर के 15-15 हजार की संख्या में 4-4 घटों तक धारा प्रवाह व्याख्यान करते थे। उनकी विद्वता एवं व्याख्यान में रोचकता के कारण श्रोता थकते नहीं थे। इसका एक कारण जन-जन में पंडित जी के प्रति श्रद्धा का होना भी था। अपने युग के प्रसिद्ध नेता स्वामी श्रद्धानन्द ने इस संबंध में लिखा था किलोगों में पण्डित जी के प्रति श्रद्धा का कारण उनकी विद्वता एवं व्याख्यान कला नहीं, अपितु उनका शुद्ध एवं उच्च आचरण तथा सेवाभाव है। यही कारण है कि शास्त्रार्थ में वह जिस विधर्मी विद्वान से वार्तालाप करते थे वह उनका मित्र एवं प्रशंसक हो जाता था।

 

सन् 1904 में पसरूर (पश्चिमी पंजाब) में पादरी ब्राण्डन ने एक सर्व धर्म सम्मेलन का आयोजन किया। आर्यसमाज की ओर से इस आयोजन में पं. गणपति शर्मा सम्मलित हुए। उनकी विद्वता एवं सद्व्यवहार का पादरी ब्राण्डन पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह पं. जी का मित्र एवं प्रशंसक हो गया। इसके बाद उन्होंने जब भी कोई आयोजन किया वह आर्य समाज जाकर पं. गणपति को भेजने का आग्रह करते थे। ऐसे ही अनेक उदाहरण और हैं जब प्रतिपक्षी विद्वान शास्त्रार्थ में पराजित होने पर भी उनके सदैव प्रशंसक रहे।

 

जहां पण्डित जी के व्यक्तिगत आचरण में सभी के प्रति आदर था वहीं धर्म प्रचार में भी वह सदैव तत्पर रहते थे। सन् 1904 में उनके पिता एवं पत्नी का देहावसान हुआ। पिता की अन्त्येष्टि सम्पन्न कर आप धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े और चूरु से कुरुक्षेत्र गये जहां उन दिनों सूर्यग्रहण पर मेला लगा था। अन्य मतावलम्बियों ने भी यहां प्रचार शिविर लगाये थे। इस मेले पर पायनियर पत्रिका में एक योरोपियन लेखक का लेख छपा जिसमें उसने स्वीकार किया था कि मेले में आर्यसमाज का प्रभाव अन्य प्रचारकों से अधिक था। इसका श्रेय भी पं. गणपति शर्मा को है जो इस प्रचार के प्राण थे। धर्म प्रचार की धुन के साथ पण्डित जी त्यागवृत्ति के भी धनी थे। इसका उदाहरण उनके जीवन में तब देखने को मिला जब पत्नी के देहान्त हो जाने पर उसके सारे आभूषण लाकर गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर को दान कर दिये।

 

पंडित जी ने देश भर में पौराणिक, ईसाई, मुसलमान एवं सिखों से अनेक शास्त्रार्थ किये एवं वैदिक धर्म की मान्यताओं को सत्य सिद्ध किया। 12 सितम्बर सन् 1906 को श्रीनगर (कश्मीर) में पादरी जानसन से महाराजा प्रताप सिंह जम्मू कश्मीर की अध्यक्षता में पंडित गणपति शर्मा जी ने शास्त्रार्थ किया। पादरी जानसन संस्कृत भाषा एवं दर्शनों का विद्वान था। उसने कश्मीरी पण्डितों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी परन्तु जब कोई तैयार नहीं हुआ तो पादरी महाराजा प्रताप सिंह के पास गया और उनसे कहा कि आप राज्य के पण्डितों से शास्त्रार्थ कराईयें अन्यथा उसे विजय पत्र दीजिए। महाराज के कहने पर भी राज्य का कोई पण्डित शास्त्रार्थ के लिए तैयार नहीं हुआ, कारण उनमें विद्वता शास्त्रार्थ करने की योग्यता थी। इस स्थिति से महाराजा चिन्तित व दुःखी हुए। इसी बीच महाराज को कहा गया कि एक आर्यसमाजी पण्डित श्रीनगर में विराजमान है। वह पादरी जानसन का दम्भ चूर करने में सक्षम है। राज-पण्डितों ने पंडित गणपति शर्मा का आर्य समाजी होने के कारण विरोध किया जिस पर महाराज ने पण्डितों को लताड़ा ओर शास्त्रार्थ की व्यवस्था कराई। पं. गणपति शर्मा को देख पादरी घबराया और बहाने बनाने लगा, परन्तु महाराजा की दृणता के कारण उसे शास्त्रार्थ करना पड़ा। शास्त्रार्थ में पण्डित जी ने पादरी जानसन के वैदिक दर्शनों पर किये प्रहारों का उत्तर दिया और उनसे कुछ प्रश्न किये? शास्त्रार्थ संस्कृत में हुआ। सभी राज-पण्डित शास्त्रार्थ में उपस्थित थे। पं. गणपति शर्मा जी के तर्कों व युक्तियों तथा वेद आदि शास्त्रों के कभी न देखे, सुने व पढ़े प्रमाणों व उनके अर्थों को सुनकर राजपण्डित विस्मित हुए। अगले दिन 13 सितम्बर, 1906 को भी शास्त्रार्थ जारी रहना था। परन्तु पादरी जानसन जी चुपचाप सिसक गये। वह जान गये थे कि आर्यसमाज के इस पर्वत के शिखर तुल्य ज्ञानी पण्डित पर शास्त्रार्थ में विजय पाना असम्भव है। इस विजय से पं. गणपति शर्मा की कीर्ति देशभर में फैल गई। कश्मीर नरेश महाराज प्रतापसिंह जी ने पण्डित जी का उचित आदर सत्कार कर उन्हें कश्मीर आते रहने की प्रार्थना की और निमन्त्रण दिया।

 

पं. गणपति शर्मा का वृक्षों में अभिमानी जीव है या नहीं, विषय पर आर्य समाज के ही सुप्रसिद्ध विद्वान व शास्त्रार्थ महारथी स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती से 5 अप्रैल 1912 को गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर में शास्त्रार्थ हुआ था। दोनों विद्वानों में परस्पर मैत्री सम्बन्ध थे। यद्यपि इसमें हार-जीत का निर्णय नहीं हुआ फिर भी दोनों ओर से जो प्रमाण, युक्तियां एवं तर्क दिये गये, वह खोजपूर्ण एवं महत्वपूर्ण थे।

 

पं. जी का कुल जीवन मात्र 39 वर्ष का ही रहा। वह चाहते थे कि वह व्याख्यान शतक नाम से पुस्तक लिखें। हमें लगता है कि पंडित जी इस व्याख्यानों की पुस्तक में एक सौ विषयों पर तर्क, युक्ति प्रमाणों से पूर्ण व्याख्यान शैली में प्रवचन वा लेख देना चाहते थे। इसी क्रम में उन्होंने मस्जिद मोठ में एक लीथो प्रेस भी स्थापित किया था परन्तु प्रचार कार्य में व्यस्त रहने व समयाभाव के कारण वह इस योजना को सफल न कर सके। उन्होंने मात्र एक पुस्तक ‘‘ईश्वर भक्ति विषयक व्याख्यान ही लिखी है। पंडित जी ने देश भर का भ्रमण कर वैदिक धर्म का प्रचार किया। 103 डिग्री ज्वर में भी आप व्याख्यान दिया करते थे। जीवन में रोगी होने पर भी आपने कभी विश्राम नहीं किया जिसका परिणाम आपकी अल्पायु में 27 जून सन् 1912 को मृत्यु के रूप में हुआ। वैदिक धर्म और आर्यसमाज की यह बहुत बड़ी क्षति थी।

 

पण्डित जी ने अपने जीवनकाल में स्वयं को वैदिक धर्म के प्रचार के लिए समर्पित किया था। वर्तमान के आर्यसमाजों में पंडितजी जैसी त्यागपूर्ण भावनाओं का सर्वथा लोप हो गया दिखाई देता है। आज हमारे विद्वान जो अध्ययन-अध्यापन कार्यों से भी खूब धन कमाते हैं, दक्षिणा व यात्रा-व्यय लेकर ही कहीं प्रचार के लिए जाते हैं और रटे-रटाये भाषण देते हैं जिनका क्षणिक प्रभव होता है। इन विद्वानों का व्यक्तिगत जीवन आर्यसमाज के सिद्धान्तों से कितना मेल खाता है, कहा नहीं जा सकता। आर्यसमाज के उन विद्वानों, जो प्रतिष्ठा व स्वार्थ से ऊपर उठे हुए हैं और सच्चे ऋषि भक्त हैं, उन्हें विचार व चिन्तन कर समाज का मार्गदर्शन करना चाहिये जिससे आर्यसमाज की पुरानी प्रतिष्ठा व गौरव पुनः स्थापित हो सके।

 

आर्यकवि नाथूराम शंकर की पंडितजी पर निम्न पंक्तियों को प्रस्तुत कर लेख को विराम देते हैं:

 

भारत रत्न, भारती का बड़भागी भक्त, शंकर प्रसिद्ध सिद्ध सागर सुमति का।

मोहतमहारी ज्ञान पूषण प्रतापशील, दूषण विहीन शिरो भूषण विरितिका।।

लोकहितकारी पुण्य कानन विहारी वीर, वीर धर्मधारी अधिकारी शुभगति का।

देख लो विचित्र चित्र बांचलो चरित्र मित्र, नाम लो पवित्र स्वर्गगामी गणपति का।।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

महर्षि के मिशन के सबसे पहले ब्राह्मणेतर शास्त्रार्थ महारथी राव बहादुरसिंह- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

राव बहादुरसिंह मसूदा-इतिहास के लुप्त पृष्ठः-

महर्षि दयानन्द जी की जीवनी लिखने वाले पुराने विद्वान् लेखकों ने मसूदा राजस्थान के राव बहादुरसिंह जी की अच्छी चर्चा की है, परन्तु उन पर कुछ विशेष खोज करने का उद्यम न तो मसूदा के किसी गवेषक ने किया और न ही राजस्थान के आर्यों ने राव जी की ठोस सेवाओं तथा व्यक्तित्व के अनुरूप ही करणीय पुरुषार्थ किया। वास्तव में ऐसे कार्य धन से ही नहीं होते। इनके लिए पण्डित लेखराम की आग, स्वामी स्वतन्त्रानन्द की ललक और इतिहासकार पं. विष्णुदत्त  जैसी लगन चाहिए। हमने राव बहादुरसिंह की विशेष देन तथा आर्यसमाज के इतिहास में उनके स्थान का नये सिरे से मूल्याङ्कन करके ऋषि जीवन तथा ‘परोपकारी’ पाक्षिक में कुछ नया प्रकाश डाला है।
हमारी खोज अभी जारी है। महर्षि के मिशन के सबसे पहले ब्राह्मणेतर शास्त्रार्थ महारथी राव बहादुरसिंह थे। परोपकारिणी सभा के निर्माण, दयानन्द आश्रम आदि की स्थापना तथा सभा के आरम्भिक काल के उत्सवों के आयोजन में आपने दिल खोलकर दान दिया। आपके दान से परोपकारिणी सभा तथा राजस्थान का आर्यसमाज ही लाभान्वित नहीं हुआ, वरन अन्य-अन्य प्रदेशों के समाजों व संस्थाओं को भी आपने उदारतापूर्वक दान दिया-
१. देशहितैषी मासिक को उस युग में ६५/- रु. दान दिये।
२. आर्यसमाज मन्दिर अजमेर के लिये ४००/- रु. प्रदान किये।
३. आर्य अनाथालय फीरोजपुर को १५०/- रु. दिये।
४. फर्रुखाबाद की पाठशाला के लिए १००/- रु. दिये।
५. आर्यसमाज शिमला (हिमाचल) के मन्दिर निर्माण के लिए ५०/- रु. दिये।
६. स्वामी आत्मानन्द जी को उस युग में १००/- रु. भेंट किये।
उनके एक और बड़े दान की फिर चर्चा की जायेगी। जब दयानन्द आश्रम की स्थापना के उत्सव पर देशभर से भारी संख्या में आर्यगण पधारे, तब एक समय के भोजन का सब व्यय आपने दिया था।

दुःख उसी को होता है जो नासमझ होता है। स्वामी विश्वंग

संसार में व्यक्ति को सबसे अधिक दुःख तब होता है, जब कोई प्राप्त वस्तु व्यक्ति से छूटने लगती है। जब प्राप्त वस्तु छूटती या उसमें कोई ह्रास होता है, उसमें कोई कमी आती है, उसमें विकृति पैदा होती है तो व्यक्ति को दुःख होता है। प्रायः व्यक्ति इस दुःख को सहन नहीं कर पाता। योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि समस्त पदार्थों को दो भागों में बाँटा जा सकता है, जड़ और चेतन। इन दोनों प्रकार के पदाथरें से व्यक्ति का सम्पर्क/सम्बन्ध रहता है। जब इनकी बढ़ोत्तरी वृद्धि होती है तो व्यक्ति  को अच्छा लगता है और जब दोनों में अवनति होती है, ह्रास होता है तो व्यक्ति को दुःख होता है। वस्तुतः दुनिया में दुःख उसी को होता है जो नासमझ होता है। जिस किसी को, जिस किसी भी प्रकार का दुःख होता है तो समझ लेना चाहिए कि जिस किसी विषय में दुःख हो रहा है, उस विषय का बोध नहीं है। ईश्वर ने वेद में स्पष्ट रूप से समझाने का प्रयास किया है-

अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता।

गोभाजऽइत्किलासथ यत्सनवथ पूरुषम्।।

यह मन्त्र यजुर्वेद में दो बार आया है- एक १२/७९ में, दूसरा ३५/०४ में। दोनों स्थलों में पूरा का पूरा मन्त्र वही है। तो प्रश्न हो सकता है कि वेद में एक ही मन्त्र दो बार क्यों आया है। महर्षि दयानन्द ने अपने वेदभाष्य में इन दोनों मन्त्रों का अलग-अलग अर्थ किया है, एक मन्त्र का आत्मा परक अर्थ किया है और दूसरे का परमात्मा परक।

अश्वत्थे= श्वः स्थास्यति न स्थास्यति वा तस्मिन्ननित्ये संसारे

अर्थात् जो कल रहेगा या नहीं रहेगा ऐसे अनित्य संसार में, संसार की वस्तुएँ कल रहेंगी या नहीं रहेंगी इसका हमें पता नहीं, ऐसी जगह-पर्णे वो वसतिष्कृता– पत्ते  के तुल्य चञ्चल जीवन में हमारा निवास किया है, अर्थात् जैसे पत्ता  विशेषकर पीपल का पत्ता (क्योंकि अश्वत्थ=पीपल) अपनी यौवन अवस्था में सुन्दर दृढ़ दिखाई देता है, पेड़ से मजबूती से चिपका हुआ प्रतीत होता है, लेकिन जब हवा तेज आए तो पता नहीं वह पत्ता कहाँ जाएगा? संसार के समस्त पदार्थ भी ऐसे ही हैं, आज हैं तो कल नहीं रहेंगे। यहाँ कल से अभिप्राय केवल कल नहीं है, इसका अभिप्राय परसों भी हो सकता है, एक सप्ताह बाद भी हो सकता है, एक महीने बाद, एक वर्ष बाद, कभी भी कुछ भी हो सकता है। जब व्यक्ति को यह अहसास नहीं होता तब उसे दुःख होता है । यह कपड़ा कल ऐसा नहीं रहेगा, कल का मतलब ३ महीने बाद, ६ महीने बाद, सालभर के बाद, २ साल के बाद ऐसा नहीं रहेगा, यह बात मुझे पता है, इसलिए जब कपड़ा ऐसा नहीं रहता तो मुझे दुःख नही होता, क्योंकि मुझे बोध है, ज्ञान है, लेकिन मकान के विषय में ज्ञान नहीं है। कल मकान टूट सकता है, गिर सकता है, भूकम्प आए या जमीन धँस जाए तो जमीन में समा सकता है। अश्वत्थे वो निषदनम् संसार के समस्त पदार्थ कल रहेंगे या नहीं रहेंगे- किसी को पता नहीं है, क्योंकि ये उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न मात्र पदार्थ स्थिर नहीं रह सकता। जब व्यक्ति क ो यह बोध होता है तो उसे दुःख नहीं होता। यहाँ जब तक वस्तु है, उससे जुड़े रहना है, उसका पूरा लाभ लेना है, इस बात का निषेध नहीं किया जा रहा, बल्कि इसका विधान किया जा रहा है। कल रहेगा या नहीं- अतः उसका ठीक प्रयोग नहीं करना, वस्तु को नजरन्दाज करना, ठीक नहीं। उस वस्तु की भलीभाँति देखभाल करनी है, उससे लाभ लेना है लेकिन हाँ, यह बोध भी रखना है कि यह नश्वर है तो जब वह वस्तु नष्ट होगी तो दुःखी नहीं होंगे। इसी प्रकार शरीर के विषय में भी समझना चाहिए। अश्वत्थे= जो कल रहे या न रहे ऐसे शरीर में वः=तुम्हारा निषदनम्= निवास है अर्थात् ‘‘शरीर कल रहेगा या नहीं रहेगा अथवा कल इस शरीर में कुछ भी हो सकता है, कोई भी रोग आ सकता है, खून की कमी हो सकती है, हृदय में समस्या आ सकती है, किडनी में समस्या आ सकती है। पेट, मस्तिष्क, कान, आँख, नाक, जिह्वा, हाथ-पैर आदि में कुछ भी हो सकता है, किसी भी प्रकार की कोई भी कमी आ सकती है’’ जब सतत् मुझे यह बोध होगा तो कल कुछ हो जाये, तो मुझे दुःख नहीं होगा। इस बोध के लिये हमें अभ्यास करना होगा। कुछ विषयों में हम अभ्यास करते हैं वहाँ हमें दुःख नहीं होता, जैसे कपड़ों के विषय में। आज मेरा जन्मदिन है, मुझे नए वस्त्र मिले हैं, मैं उन्हें धारण कर रहा हूँ, नए वस्त्रों को धारण कर प्रसन्न हूँ, लेकिन यह बोध मुझको है कि एक समय के बाद ये कपड़े पुराने हो जाएँगे, २ साल बाद फट जाएँगे, पुराने हो जाएँगे, कोई बात नहीं, दुःख नहीं होता। जैसे कपड़े के विषय में जानते हैं वैसे ही इस शरीर के विषय में भी अभ्यास करना होगा और अभ्यास होने पर यदि शरीर में कोई समस्या आ जाए तो दुःख नहीं होगा, सम स्थिति में रहता है, यही स्थितप्रज्ञा है। नहीं तो व्यक्ति दुःखी होगा, रोएगा, छाती पीटेगा। स्थितप्रज्ञ होने पर स्वयं के शरीर में कुछ भी होने पर दुःखी नहीं होता, तो उससे सम्बन्धित अन्यों (माता-पिता, भाई-बहन, चाचा, ताऊ) को कुछ भी हो गया तो कोई समस्या नहीं आएगी। उसका चिन्तन होगा कि ठीक है, यह तो होना ही था, ठीक है समस्या आई तो इसका समाधान करेंगे, जितने अंश में समस्या को सुलझा सकते हैं, उसे सुलझाना है, लेकिन रोना-धोना, परेशान होना, चिन्तित होना, मानसिक स्थिति को बिगाड़ के रखना और दुःख में जीना-ये बुद्धिमत्ता  का कार्य नहीं है। ये मूर्खता के कार्य, नासमझी के कार्य हैं, इसी बात को हमें समझना होगा।

देश व जाति के लिये जो जिए….. कृतिशील आर्य सेनानी – स्वामी स्वात्मानन्द – डॉ. नयनकुमार आचार्य

कीर्तिर्यस्य स जीवति-अपार धैर्य के साथ जिनका संघर्षमय जीवन समाज, देश व जाति के लिए व्यतीत हुआ हो, ऐसी आत्माएँ धन्य होती हैं। शरीर से वे इस संसार में न रहते हुए भी उनकी अमर कीर्ति गाथाएँ युगों-युगों तक आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्तम्भ बन जाती हैं। आर्य जगत् दक्षिण भारत के देशभक्तों से भलीभाँति परिचित हैं हैदराबाद स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास को अपने अनोखे शौर्य व बलिदान से अमरता प्रदान करने वाले कई नरवीरों की गाथाएँ भले ही ज्ञात हैं, लेकिन प्रखर धैर्यधुरन्धर आर्य सेनानी, ऋषिभक्त स्वामी स्वात्मानन्द जी (रामचन्द्र जी मन्त्री-बिदरकर) के क्रान्तिकारी जीवन व साहस भरे कार्यों से शायद सभी परिचित नहीं होंगें। पद, प्रतिष्ठा व प्रसिद्धी से कोसों दूर रहकर श्री स्वामी जी ने मातृभूमि की रक्षा व आर्य समाज के प्रचार कार्य हेतु जो अनोखे कार्य किये हैं, वे निश्चय ही प्रेरणाप्रद हैं। हैदराबाद स्वतन्त्रताकालीन महाराष्ट्र का लातूर शहर व परिसर ऐसा ही क्रान्तकारी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहाँ की पुरानी आर्यसमाज (गाँधी चौक) इस समय ८० वें वर्ष में पर्दापण कर रही है। इसी आर्य समाज के एक समय के बहुत ही क्रियाशील मन्त्री वह महान देशभक्त, स्वाधीनता सेनानी श्री रामचन्द्र जी बिदरकर जो क्रान्तिकारी जीवन के कार्यों के कारण तथा बाद में संन्यास दीक्षा लेकर स्वामी स्वात्मानन्द जी के नाम से सर्वत्र विख्यात हुए।

आरम्भिक जीवन– श्री स्वामी जी का जन्म सन् १९०४ में कर्नाटक के बीदर शहर में एक साधारण परिवार में हुआ। माता चन्द्रभागा बाई तथा पिता श्री तुकाराम डोईजोडे ये दोनों धार्मिक, सहिष्णु, स्नेहील स्वभाव के थे। इस दम्पति की रामचन्द्र, लक्ष्मण, पुण्डलिक एवं रत्नाबाई (सोनवे) ये चार संन्तानें हुई। इन सभी में बड़े होने के कारण रामचन्द्र जी पर परिवार की जिम्मेदारियाँ आ पड़ी। युवावस्था में सन् १९३० को वे अपने भाई व परिवार को लेकर लातूर आये। वैसे तो पहले से ही इनका कपड़ा सिलाई (दर्जी) का पारम्परिक व्यवसाय था। शायद बीदर में इस व्यवसाय में प्रगति नहीं हुई होगी, इस कारण उन्हें लातूर आना पड़ा। यहाँ के कपड़ा लाईन में उनका यह सिलाई काम बहुत ही उत्तम रीति से चलता था। उनकी दुकान में लगभग ३५ सिलाई मशीनें थी। बढ़िया काम की वजह से शहर में उनकी प्रतिष्ठित दर्जी के रूप में ख्याति हुई।

 

आर्यसमाज व स्वतन्त्रता संग्राम – लातूर के कई दर्जी (भावसार) लोगों पर आर्यसमाज के विचारों का प्रभाव रहा है। इस कारण रामचन्द्र जी भी इसी विचारधारा की ओर आकृष्ट हुए। वैदिक विचारों का इन पर ऐसा रंग जमा कि देखते ही देखते वे पक्के आर्यसमाजी बन गये। उस समय हैदराबाद स्वतन्त्रता आन्दोलन में आर्यसमाज की सक्रिय भूमिका थी। रामचन्द्र जी में भी क्षात्रवृत्ति  कूट-कूटकर भरी थी, तब वे चुप-चाप थोड़े ही बैठते। अतः बडे उत्साह से इस आन्दोलन में सम्मिलित हुए और  इस आन्दोलन का नेतृत्व भी किया। ऊँचा पूरा कद, बलिष्ट शरीर और धैर्य-वीरता होने से किसी प्रकार का अन्याय सहन करना, यह उनके बस का नहीं था। इन्हीं कारणों से निजाम के विरुद्ध चलाये गये आन्दोलन में वे जोश के साथ कूद पड़े।

उनकी निराली धाक– इस परिसर में आज भी उनका नाम बड़े गौरव के साथ लिया जाता है। हैदराबाद स्वतन्त्रता संग्राम में आपने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। अनोखी धैर्यवृत्ति व शौर्यगुणों के कारण उनकी रजाकरों में एक प्रकार की निराली धाक थी। निजाम की पुलिस भी उनके अतुल बल के कारण सदैव भयभीत रहती थी। क्रान्तिकारों में वे दबंग के रूप में पहचाने जाते थे। अतः लोग इनसे बहुत डरते थे। वे मृत्यु को अपने हाथ में लेकर चलने वाले शूरता की शान, व वीर सैनिक थे। देशभक्ति का उत्साह इनके रग-रग में भरा हुआ था। अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध लड़ना वे अपना परमधर्म समझते थे, किन्तु व्यर्थ ही किसी को कभी कष्ट नहीं दिया। अपूर्व साहस के साथ रजाकारों के अत्याचारों का जमकर मुकाबला किया और कितनों को मौत के घाट उतार दिया। ‘मन्त्री जी’ का नाम सुनते ही प्रतिपक्षियों में आतंक सा छाया रहता था। लातूर तथा परिसर के गाँवों में उनके क्रान्तिकारी जीवन व सहासपूर्ण कार्यों की चर्चा होती रहती थी। बार्शी (जि. सोलापूर) इस ग्राम के समीप ही स्थापित चिंचोली कै म्प के वे प्रमुख थे। श्री स्वामी जी, जहाँ अन्य नागरिकों को देशकार्य के लिए प्रेरित करतें, वहीं कई धनवान् व्यापारियों को राष्ट्रकार्यों के लिए आर्थिक सहयोग हेतु आग्रह भी करते। उनके आवाह्न पर जनता अपना धनमाल व जेवरादि सम्पत्ति  देशकार्य हेतु उन्हें प्रदान करते। एक बार लगभग ५० किलो सोना जमा हुआ, तब स्वामी जी ने यह सारा धन शासन के प्रतिनिधि (जिलाधीश) को सुपूर्द किया। यदि कोई व्यापारी स्वार्थवश सहयोग करने में हिचकिचाता, तो उसे वे समझाते और मातृभूमि की सेवा का महत्वबताकर सत्कर्म में प्रवृत्त  करते। फिर भी कोई इस बात को न मानें, तो वे उसे अच्छा ही सबक सिखाते। एक बार ऐसा ही हुआ। लातूर का एक सधन व्यापारी समझाने बुझाने पर भी आर्थिक सहयोग के लिए तैयार नहीं हुआ, तब उसे लातूर के समीपस्थ हरंगुल नामक गाँव में कड़े रूप में दंडित किया। इतना होने पर वह तुरन्त सहयोग के लिए तैयार हुआ।

निष्काम कर्मयोगी – श्री स्वामी जी एक ऐसे सच्चे देशभक्त थे, जिन्होंने ‘न मे कर्मफले स्पृहा’ इस सूक्ति के अनुसार भाव से माँ भारती की सेवा की। स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेने पर भी कभी अपने कामों की चर्चा तक नहीं की। यहाँ तक कि स्वाधीनता सैनिक की पेन्शन लेने से भी इन्कार किया। बाद में आर्यजनों व सहयोगी मित्रों के बहुत समझाने पर वे मान गये। उनसे पूछने पर कि ‘आपने देश व समाज के लिए इतना बड़ा काम किया है, तो पेन्शन क्यों नहीं लेते?’ तब वे कहते-‘मैंने कर्तव्य भावना से देश का काम किया है। माता की रक्षा करना, पुत्र का दायित्व होता है, मैंने पैसों के लिए कोई काम नहीं किया है?’ जब देश के गृहमन्त्री बूटासिंह जी थे, तब उन्हें दिल्ली आमन्त्रित किया गया। स्वामी जी के साथ मन्त्री महोदय ने चर्चा की। उनके क्रान्तिकारी कार्यों की गाथा सुनकर पेन्शन का फॉर्म भरने का आग्रह किया। बहुत विनती करने पर वे इसके लिये राजी हो गये, तब पेन्शन मजूंर हुई। वहीं पर स्वतन्त्रता सेनानी का प्रशस्ति पत्र देकर स्वामी जी का गौरव भी किया गया। इस कार्य के लिए स्वामी जी ने खुद आगे होकर पहल नहीं की, बल्कि भारत सरकार ने खुद आगे होकर  सम्मानित किया।

आगे चलकर स्वामी जी महाराष्ट्र शासन की ओर से स्वाधीनता सैनिक गौरव समिति के विभागीय अध्यक्ष भी बनें। वे देश के लिए प्रामाणिक वृत्ति  से कार्य करने वाले अनेकों स्वाधीनता सैनिकों को प्रमाण पत्र देने व पेन्शन मंजूर करने हेतु शासन को सिफारिशें की। इनके प्रयासों से सही मायने में  देश के लिए कार्य करने वाले उन राष्ट्रभक्तों को योग्य न्याय मिला, जो सदैव प्रसिद्धी से पराङ्मुख रहते थे।

आर्यसमाज का प्रसार कार्य– देशसेवा के साथ ही स्वामी जी का वैदिक धर्म प्रचार कार्य में भी काफी योगदान रहा है। आर्यसमाज (गाँधी चौक) लातूर के वे लगभग २२ वर्ष मन्त्री रहे। उनके कार्यकाल में इस समाज की गतिविधियाँ प्रगतिपथ पर थी। आर्य विचारों के प्रसार हेतु वे सतत प्रयत्नशील थे। प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला वार्षिक उत्सव आर्य जनता के लिए वैचारिक ऊर्जासंवर्धन का स्वर्णिम अवसर माना जाता था। सभा सम्मेलनों पर आमन्त्रित उद्भट वैदिक विद्वानों को सुनने के लिए शहर व देहातों के जिज्ञासु श्रोतागण हजारों की संख्या में आते रहते थे। आज भी वह परम्परा जारी है। सन् १९५६ में स्वामी जी के मन्त्रित्वकाल में विभागीय आर्य महासम्मेलन सफलता के साथ सम्पन्न हुआ, जिसके प्रभाव से अनेकों लोग आर्यसमाज की ओर आकृष्ट हुए। इस सम्मेलन में महात्मा आनन्द स्वामी सहित अन्य विद्वान् मनीषी पधारे थे। संस्था के पदाधिकारी भी उनकी आज्ञा में रहकर कार्य करते थे।

बाद में १९७४ में उन्हीं के निर्देशन में त्रिदिवसीय मराठवाड़ा स्तरीय आर्य महासम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें पूर्व प्रधानमन्त्री अटलबिहारी बाजपेयी, डॉ. सत्यप्रकाश, पूर्व सांसद ओमप्रकाश त्यागी, शिवकुमार शास्त्री आदि विद्वान् वक्ताओं को आमन्त्रित किया गया था। आर्य समाज को लोकोपयोगी बनाने में स्वामी जी अग्रणी रहे। दशहरे के पावन पर्व पर नगर में भव्य विजय-यात्रा (जुलूस) निकालने का श्रेय स्वामी जी को जाता है। आज भी नगरवासी बडे धूमधाम से प्रतिवर्ष यह दशहरा जुलूस निकालते हैं।

देववाणी के प्रचारक– लातूर में देववाणी संस्कृत भाषा के प्रचार हेतु स्वामी जी ने काफी प्रयास किये। संस्कृत अध्ययन केन्द्र चलाकर संस्कृत को जन-जन तक पहुँचाया। यद्यपि राज्य में शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी माने जाने वाले इस शहर में सम्प्रति पुराने व नये मिलाकर गुरुकुलीय स्नातकों की संख्या लगभग ६० से अधिक है। इन्हीं स्नातकों को प्रेरणा देकर स्वामी जी ने उनके माध्यम से संस्कृत का प्रचार कराया। स्वयं संस्कृत सीख न सके, लेकिन समाज में इस भाषा को बीजारोपित करने में स्वामी जी की अहम भूमिका रही है। भारतीय विद्या भवन की परीक्षाओं का केन्द्र भी उन्होंने चलाया। परीक्षाओं के आयोजन हेतु शहर से निधि संकलित कर छात्रों की व्यवस्था करते। साथ ही बच्चों को शुभगुणों से संस्कारित करने हेतु शिशु विहार केन्द्र भी संचालित किया। इस कार्य में नगर के प्रसिद्ध व्यापारी व वेद तथा संस्कृत के अध्येता श्री सेठ बलदवा जी का उन्हें विशेष सहयोग मिलता रहा। जब कभी धन की आवश्यकता पड़ती, तब स्वामी जी बलदवा जी के पास चले जाते और उनसे प्राप्त धनराशि द्वारा संस्कृत प्रचार, पुरस्कार वा अन्य वेदप्रचार आदि कार्य करवाते। स्थानीय ज्ञानेश्वर विद्यालय में संस्कृत प्रचार कार्य हेतु उनका सदैव आना-जाना रहता था। वहाँ के संस्कृत अध्यापक महानुभावपन्थी श्री शास्त्री जी  से उनके घनिष्ठ सम्बन्ध रहे।

प्रसिद्ध भाषाविद् प्रो. श्री ओमप्रकाश जी होलीकर बताते हैं कि ‘लातूर नगरी में आज संस्कृत का जो विशाल स्वरूप दिखाई दे रहा है, उसके मूल में स्वामी जी की तपस्या व पीठिका रही है। संस्कृत के प्रसार हेतु काम करने वाले इतने समर्पित व्यक्ति को मैंने पहली बार देखा है।’

 

अद्वितीय बलोपासक -बचपन से ही उन्हें व्यायाम से बहुत ही लगाव था। सब काम छोड़कर वे व्यायाम करते । इसलिए उनका शरीर सुडौल व वज्र के समान बन गया था। देश के बालक व युवक शरीरबल के धनी हो, इसीलिए आर्यसमाज में श्रद्धानन्द व्यायाम मन्दिर के नाम से विशाल व्यायामशाला की स्थापना की और आर्ययुवक व्यंकटेश हालिंगे को इसका अध्यक्ष बनाया। स्वामी जी की प्रेरणा से अनेकों युवक इस व्यायामशाला में आते रहे और अपने शरीरधन को संवर्धित करते रहें। मल्लखम्भ विद्या को भी स्वामी जी ने प्रोत्साहन दिया। फलस्वरूप अनेकों बच्चे-बच्चियों ने विभिन्न राष्ट्रीय व प्रान्तीय क्रीडा प्रतियोगिताओं में भाग लेकर पुरस्कार भी प्राप्त किये हैं। व्यायामशाला के अखाड़े में कुस्ती लड़नेवाले अनेकों मल्ल भी स्पर्धाओं में विजयी रहे हैं। अनेकों युवक आर्यवीरदल के राष्ट्रीय शिविरों में प्रशिक्षण प्राप्त करते रहे। व्यायामशाला में जब भी किसी साहित्य की कमी हो, तब स्वामी जी तुरन्त शहर के दानी व्यापारी सेठ के पास पहुँच जाते और उन्हें वे साहित्य दिलवाने हेतु प्रोत्साहन देते और समय पर सभी प्रकार का साहित्य उपल ध भी होता। लातूर शहर में साथ ही समीपस्थ कव्हा नामक ग्राम में भी स्वामी जी ने व्यायामशाला खोलने हेतु पूर्व विधायक श्री पाटील को प्रेरित किया। इस तरह स्वामी स्वात्मानन्द जी आर्य समाज के माध्यम से शारीरिक उन्नति का पथ प्रशस्त करते रहे। आचार्य देवव्रत को आमन्त्रित कर वे प्रतिवर्ष आसन-प्राणायाम शिविर लगवाते, जिसका अनेकों योगप्रेमियों को लाभ मिलता रहा।

 

पारिवारिक जीवन – मन्त्री जी (रामचन्द्र जी) का गृहस्थाश्रम अल्पकालिक ही रहा। श्रीमती अनसूयाबाई उनकी सहधर्मिणी का नाम था। इन्हें कोई सन्तान नहीं हुई। प्लेग की बिमारी के कारण धर्मपत्नी का अकस्मात ही निधन हो गया। भरी जवानी में पत्नी के बिछुड जाने से उन पर गहरा आघात हुआ। फिर भी धैर्य के धनी रामचन्द्र ने पुनर्विवाह का विचार तक नहीं किया। किसी अनाथ बालिका को बचपन में ही गोद लिया और उसका शन्नोदेवी नाम रखा। इस कन्या को शुभसंस्कार, ऊँ ची शिक्षा आदि दिलाकर बड़ी होने पर उसका डोणगाँव के होनहार डॉक्टर युवक दिगम्बर मुले से विवाह कराया। सम्प्रति यह मुले परिवार उदगीर में फलता-फूलता हुआ प्रगतिपथ पर विराजमान है। छोटे दोनों भाई श्री लक्ष्मणराव व पुंडलिकराव भी अपने भ्राताश्री के पदचिह्नों पर चलते रहें। इन्होंने भी हैदराबाद स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया और आर्यसमाज के सम्पर्क में आकर वैदिक विचारों से जुड़े रहे। अपने बड़े भाई से प्रेरणा पाकर ही अनुज लक्ष्मणराव बिदरकर ने अपनी कन्याओं को पढ़ाया और उनके अन्तर्जातीय विवाह कराये।

 

उत्तर  भारत का भ्रमण व संन्यास दीक्षा– वैराग्यवृत्ति धारण कर मन्त्री जी स्वाध्याय, चिन्तन, ध्यान-धारणा आदि कार्यों में संलग्न होकर उत्तर  भारत की ओर चल पड़े। दयानन्द मठ, दीनानगर (पंजाब) में कई माह तक साधना करते रहे। वहीं पर आर्यजगत् के वीतराग संन्यासी स्वामी सर्वानन्द जी का शुभ सान्निध्य पाकर उनसे संन्यास दीक्षा ली और स्वामी स्वात्मानन्द जी बन गये। कुछ समय तक वे हिमाचल के चंबा  स्थित मठ में भी रहे। बाद में हरिद्वार के समीपस्थ महाविद्यालय ज्वालापुर में भी कुछ काल तक निवास किया। भोजन व भण्डारविभाग के प्रमुख बनकर आप गुरुकुलीय व्यवस्था में सहयोग देते रहे और ब्रह्मचारियों को राष्ट्रभक्ति व सुसंस्कारों का पाठ पढ़ाते रहे।

पुनश्च जन्मभूमि में – कई वर्ष उत्तर  भारत में रहकर स्वामी जी महाराष्ट्र आये। लातूर के समीपस्थ कव्हा नामक ग्राम में छोटासा आश्रम (कुटिया)बनाकर तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगे। तब भोजनादि की असुविधा के कारण होने वाली अड़चनों को देखकर आर्यजनों ने उन्हें आर्यसमाज में रहने की विनती की। अतः उनके आग्रह पर वे आर्यसमाज में रहने लगे। यहाँ पर सादगीपूर्ण विरक्त वृत्ति  धारण कर वे पूर्व की भाँति वेदप्रचारादि कार्यों में संलग्न होकर आर्यों को प्रेरणा देते रहे। यज्ञकार्य में उन्हें विशेष रुचि थी। अपनी आर्यसमाज में भव्य यज्ञशाला बनें, यह उनकी तीव्र अभिलाषा थी। इसके लिए वे अपनी ओर से लगभग ५० हजार रूपयों की राशि भी दान में दी। उनके चले जाने के बाद पदाधिकारियों ने एक विशाल यज्ञशाला निर्माण किया है।

 

अनोखी क्षमाशीलता – किसी कवि ने कहा है- क्षमा वीरस्य भूषणम्। अर्थात् क्षमाशीलता वीरपुरुषों का आभूषण होती है। जुलमी रजाकारों के अत्याचारों से लोहा लेने वाले नरवीर स्वात्मानन्द जी में प्रखर शौर्य के साथ ही अनूठी क्षमावृत्ति भी थी। शहर के किसी प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा एक अन्याय हुआ। एक मासूम महिला की असहायता का फायदा उठाकर उसने अत्याचार किया। नाजायज गलत सम्बन्ध स्थापित किया, परिणाम वही हुआ, जो होना था। पेट में पलने वाले बच्चे को अपनाने व उस महिला को आश्रय देने के लिए तैयार नहीं हुआ, तब वह स्त्री स्वामी जी के पास आयी और उसने वह सारी दुःखभरी कहानी सुना दी। उस पीड़ित महिला के वेदना सुनकर स्वामी जी ने उसे आश्वस्त किया। अपने कार्यकर्ताओं  से उस अपराधी व्यक्ति की तलाश कर सामने लाने का आग्रह किया। स्वामी जी के प्रभाव से वह व्यक्ति उनके चरणों में आकर गिरा, उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया व क्षमा मांगी। स्वामी जी ने भी उसे अपूर्व क्षमादान करते हुए छोड़ दिया। उस महिला को किसी अज्ञात सुरक्षित स्थान पर रखकर पिता की भाँति उसकी देखभाल की। पूरा समय बीतने पर जब बच्चा पैदा हुआ, तब उस बच्चे की पालन-व्यवस्था का भार किसी अन्य परिवार पर सौंप दिया और उस महिला को समाज में प्रतिष्ठापूर्वक जीने का अधिकार प्रदान किया। ऐसे थे क्षमा, करुणा व दया के पुजारी श्री स्वामी स्वात्मानन्द जी

 

सभी को पितृतुल्य छत्रछाया – स्वामी जी के त्यागमय, कर्मठ जीवन को देखकर अनेकों लोग उनकी ओर आकृष्ट हो गये। सभी लोगों से उनके मधुर सम्बन्ध थे। उनका क्रान्तिकारी जीवन ही उन्हें यश गौरव दिलाने में पर्याप्त रहा। सर्व श्री स्वा. सै. वासुदेवराव होलीकर, स्वा. सै. शंकरराव जडे, स्वा. सै. निवृत्तिरव  होलीकर, स्वा. सै. चन्द्रशेखर बाजपेयी, पू. उत्ममुनि, हरिशचन्द्र गुरु जी, हरिशचन्द्र पाटील आदि से उनका सदैव विचारविमर्श होता था। धनंजय पाटील, परांडेकर, पाराशर, तेरकर, प्रो. नरदेव गुडे, प्रो. विजय शिंदे, प्रो. मदनसुरे, प्रो. होलीकर, प्रो. दत्तात्रेय  पवार, हालिंगे बंधू, कैप्टन डॉ. भारती जाधव आदियों पर उनका विशेष स्नेहाशीष रहा। श्री महेन्द्रकर सहित अनेकों आर्य परिवार स्वामी जी की श्रद्धाभाव भोजनादि की व्यवस्था करते  थे।स्वामी जी जीवन के अन्त तक आर्यसमाज लातूर में रहे। यहाँ का निवास भवन आज भी स्वामी जी के नाम से पहचाना जाता है। लेखक को भी छात्रावस्था में उनका प्रेमाशीर्वाद मिला व उनकी सेवा का सुअवसर प्राप्त हुआ। वृद्धावस्था में आर्य समाज के पदाधिकारियों, आर्यजनों व परिजनों ने उनकी श्रद्धाभाव से सेवा

शुश्रुषा की। ऐसे महान तपोनिष्ठ महात्मा ने दि. ७ अगस्त १९९४ को अपनी जीवन यात्रा समाप्त की। ऐसे महान कर्मयोगी, महान देशभक्त को शत् शत् अभिवादन।

– श्रुतिगन्धम्, ब-१३, विद्यानगर,

परली-वैजनाथ जि. बीड (महाराष्ट्र)