Category Archives: आर्य वीर और वीरांगनाएँ

वीतराग स्वामी सर्वदानन्द

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वीतराग स्वामी सर्वदानन्द

-डा. अशोक आर्य

आर्य समाज ने अनेक त्यागी तपस्वी साधू सन्त पैदा किये हैं । एसे ही संन्यासियों में वीतराग स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती जी भी एक थे । आप का जन्म भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से मात्र दो वर्ष पूर्व विक्रमी सम्वत १९१२ या यूं कहें कि १८५५ इस्वी को हुआअ । आप का जन्म स्थान कस्बा बस्सी कलां जिला होशियारपुर पंजाब था । आप के पिता का नाम गंगा विष्णु था, जो अपने समय के सुप्रसिद्ध वैद्य थे । यही उनकी जीविकोपार्जन का साधन भी था ।

स्वामी जी का आरम्भिक नाम चन्दूलाल रखा गया । यह शैव वंशीय परम्परा से थे । इस कारण वह शैव परम्पराओं का पालन करते थे तथा प्रतिदिन पुष्पों से प्रतिमा के साज संवार में कोई कसर न आने देते थे किन्तु जब एक दिन देखा कि एक कत्ता शिव मूर्ति पर मूत्र कर रहा है तो इन के ह्रदय में भी वैसे ही एक भावना पैदा हुई , जैसे कभी स्वामी दयानन्द के अन्दर  शिव पिण्डी पर चूहों को देख कर पैदा हुई थी । अत; प्रतिमा अर्थात मूर्ति पूजन से मन के अन्दर की श्रद्धा समाप्त हो गई । इस कारण वह वेदान्त की ओर बटे । इसके साथ ही साथ फ़ारसी के मौलाना रूम तथा एसे ही अन्य सूफ़ि कवियों की क्रतियों व कार्यों का अधययन किया । यह सब करते हुए भी मूर्ति पर कुते के मुत्र त्याग का द्रश्य वह भुला न पाए तथा धीरे धीरे उनके मन में वैराग्य की भावना उटने लगी तथा शीघ्र ही उन्होंने घर को सदा के लिए त्याग दिया ओर मात्र ३२ वर्ष की अयु में संन्यास लेकर समाज के उत्थान के संकल्प के साथ स्वामी सर्वदानन्द नाम से कार्य क्शेत्र में आए ।

अब आप ने चार वर्ष तक निरन्तर भ्र्मण , देशाट्न व तिर्थ करते हुए देश की अवस्था को समझने आ यत्न किया । इस काल में आप सत्संग के द्वारा लोगों को सुपथ दिखाने का प्रयास भी करते रहे ।

स्वामी जी का आर्य समाज में प्रवेश भी न केवल रोचकता ही दिखाता है बल्कि एक उत्तम शिक्शा भी देने वाला है । प्रसंग इस प्रकार है कि एक बार स्वामी जी अत्यन्त रुग्ण हो गए किन्तु साधु के पास कौन सा परिवार है , जो उसकी सेवा सुश्रुषा करता । इस समय एक आर्य समाजी सज्जन आए तथा उसने स्वामी जी की खूब सेवा की तथा उनकी चिकित्सा भी करवाई । पूर्ण स्वस्थ होने पर स्वामी जी जब यहां से चलने लगे तो उनके तात्कालिक सेवक ( आर्य समाजी सज्जन ) ने एक सुन्दर रेशमी वस्त्र में लपेट कर सत्यार्थ प्रकाश उन्हें भेंट किया । इस सज्जन ने यह प्रार्थना भी की कि यदि वह उसकी सेवा से प्रसन्न हैं तो इस पुस्तक को , इस भेंट को अवश्य पटें ।

स्वामी जी इस भक्त के सेवाभा से पहले ही गद गद थे फ़िर उसके आग्रह को कैसे टाल सकते थे । उन्होंने भक्त की इस भेंट को सहर्ष स्वीकार करते हुऎ पुस्तक से वस्त्र को हटाया तो पाया कि यह तो स्वामी दयानन्द क्रत स्त्यार्थ प्रकाश था । पौराणिक होने के कारण इस ग्रन्थ के प्रति अश्रद्धा थी किन्तु वह अपने सेवक को वचन दे चुके थे इस कारण पुस्तक को बडे चाव से आदि से अन्त तक पटा । बस फ़िर क्या था ग्रन्थ पटते ही विचारों में आमूल परिवर्तन हो गया । परिणाम स्वरूप शंकर व वेदान्त के प्रति उनकी निष्था समाप्त हो गई । वेद , उपनिषद, दर्श्न आदि आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया तथा आर्य समाज के प्रचार व प्रसार मे जुट गये । आर्य समाज का प्रचार करते हुए आप ने अनेक पुस्तके भी लिखीं यथा जीवन सुधा, आनन्द संग्रह, सन्मार्ग दर्शन, ईश्वर भक्ति, कल्याण मार्ग, सर्वदानन्द वचनाम्रत , सत्य की महिमा, प्रणव परिचय , परमात्मा के दर्शन आदि ।

जब वह प्रचार में जुटे थे तो उनके मन में गुरुकुल की स्थापना की इच्छा हुई । अत: अलीगट से पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर काली नदी के किनारे (जिस के मुख्य द्वार के पास कभी स्वामी दयानन्द सरस्वती विश्राम किया करते थे ) तथा स्वामी जी के सेवक व सहयोगी मुकुन्द सिंह जी के गांव से मात्र पांच किलोमीटर दूर साधु आश्रम की स्थापना की तथा यहां पर आर्ष पद्धति से शास्त्राध्ययन की व्यवस्था की ( यह गुरुकुल मैने देखा है तथा इस गुरुकुल के दो छात्र आज आर्य समाज वाशी , मुम्बई में पुरोहित हैं ) । आप के सुप्रयास से अजमेर के आनासागर के तट पर स्थित साधु आश्रम में संस्क्रत पाट्शाला की भी स्थापना की ।  आप को वेद प्रचार की एसी लगन लगी थी कि इस निमित्त आप देश के सुदूर वर्ती क्शेत्रों तक भी जाने को तत्पर रहते थे । आप तप , त्याग ,सहिष्णुता की साक्शात मूर्ति थे । इन तत्वों का आप मे बाहुल्य था । आप का निधन १० मार्च १९४१ इस्वी को ग्वालियर में हुआ ।

स्वामी आनन्दबोध

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स्वामी आनन्दबोध    

-डा. अशोक आर्य

           सन १९०९ में काशमीर के अनन्तनाग क्शेत्र में एक बालक का जन्म हुआ , जिसका नाम रामगोपाल रखा गया । इनके पिता का नाम लाला नन्द लाल था । आप मूलत: अम्रतसर के रहने वाले थे । यह बालक ही उन्नति व व्रद्धि करता हुआ आगे चल कर राम गोपाल शालवाले के नाम से विख्यात हुआ ।

            आप काशमीर से चलकर सन १९२७ में दिल्ली आ गए । दिल्ली आकर आप आर्य सम,आज के नियमित सदस्य बने । आप को पं.रमचन्द्र देहलवी की कार्य्शैली बहुत पसन्द आयी तथा आप ने उन्हें अपनी प्रेरणा का स्रोत बना लिया ।

          आप के आर्य समाज के प्रति समर्पण भाव तथा मेहनत व लगन के परिणाम स्वरूप आपको आर्य समाज दीवान हाल का मन्त्री बनाया गया । बाद में आप इस समाज के प्रधान बने । इन पदों को आपने लम्बे समय तक निभाया । इस आर्य समाज के पदाधिकारी रहते हुए ही आपने सामाजिक कार्यों का बडे ही सुन्दर टंग से निर्वहन किया ।

        आप की प्रतिभा का ही यह परिणाम था कि आप आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के अनेक वर्ष तक अन्तरंग सद्स्य रहे । अनेक वर्ष तक आप आर्य समाज की सर्वोच्च सभा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के उपमन्त्री, उप प्रधान तथा प्रधान रहे । उच्चकोटि के व्याख्यान करता, उच्चकोटि के संगटन करता तथा आर्य समाज के उच्चकोटि के कार्य कर्ता लाला रामगोपाल जी  ने सदा आर्य समाज की उन्नति मेम ही अपनी उन्नति समझी तथा इस के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते थे । देश के उच्च अधिकारियों से आप का निकट का सम्पर्क था तथा बडे बडे काम भी आप सरलता से निकलवा लेते थे ।

        जब अबोहर के डी ए वी कालेज में सिक्ख विद्यार्थियों ने उत्पात मचाया तथा यग्यशाला को हानि पहुंचाई तो कालेज के प्रिन्सिपल नारायणदास ग्रोवर जी ने मुझे आप से सम्पर्क कर यथा स्थिति आप के सामने रखने के लिए भेजा । आप ने मुझ किंचित से युवक की बात को ध्यान से सुना , समझा व कुछ करने के आदेश दिये ।

        जब १९७१ में अलवर में सम्पन्न सार्वदेशिक के अधिवेशन में स्वामी अग्निवेश के साथियों ने उत्पात मचाया तो आप की बात मंच द्वारा न मानने पर आप जब यहां से पलायण करने लगे तो मेरे तथा प्रा. राजेन्द्र जिग्यासु जी की प्रार्थना पर आप ने अपना निर्णय बदला तथा फ़िर से सम्मेलन को सुचारु रुप से चलाया ।

        आप ही के प्रयास से हैदराबाद सत्याग्रह को राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम स्वीकार किया गया । जिसका लभ आर्य समाज को मिला । आपके नेत्रत्व में अनेक आन्दोलन व अनेक सम्मेलन किए गय । कालान्तर में आपने संन्यास की दीक्शा स्वामी स्रर्वानन्द जी से ली तथा रामगोपाल शालवाले से स्वामी आनन्द बोध हुए ।

        आप ने पूजा किसकी , ब्रह्मकुमारी संस्था आदि पुस्तकें भी लिखीं । १९७८ इस्वी में आप की सेवाओं को सामने रखते हुए आप का अभिनन्दन भी किया गया तथा इस अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित किया गया । अन्त में आप का  अक्टूबर १९९४ देहान्त हो गया ।

जम्मू के शहीद वीर रामचन्द्र

om in english

जम्मू के शहीद वीर रामचन्द्र           

-डा. अशोक आर्य

आर्य समाज के वीरों ने विभिन्न समय पर विभिन्न प्रकार ए बलिदानी वीर पैदा किये । किसी ए धर्म की रक्शा के लिए, किसी ने जाति की रक्शा के लिए , किसी ने जाति के उत्थान  मे लिए अपने बलिदान  दिए । एसे ही बलिदानियों में एक आर्य बलिदानी हुए हैं वीर राम चन्द्र जी । जम्मू रियासत के कटुआ जिला की तहसील हीरानगर के लाला खोजूशाह महाजन नामक खजान्ची जी ए यहां दिनांक १९ आषाट स्म्वत १९५३ को जन्मे बालक ने मेघ जाति के उद्धार के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया था ।

बालक रमचन्द्र के आट भाई और एक बहिन थी । भाई बहिनों में सबसे बडे रामचन्द्र ने मिडिल तक की शिक्शा सदा अपनी कक्शा में प्रथम आते हुए पास व पूर्ण की । जब सरकार के कार्याल्यों में सब कर्य डोगरी भाषा के स्थान पर होने लगा तो पिता के स्थान पर खजान्ची का कार्य इस बालक को दिया गया ।

राम चन्द्र को आरम्भ से ही समाचार पत्र पटने व धर्म के कार्य करने में अत्यधिक रुचि थी । जब वह आर्य समाज के सत्संगों में जाने लगे तो आर्य समाज के कार्यों में इन्हें खूब आनन्द आने लगा तथा शीघ्र ही प्रमुख आर्यों में सम्मिलित हो गये  । जब आप की बदली बसोहली स्थान पर हुई तो इस स्थान पर आप ने आर्य समाज की निरन्तर दो वर्ष तक खूब सेवा की । तदन्तर आप बद्ल कर कटुआ आ गये । यह वह स्थान था कि जहां आर्य समाज का काम करना मौत को निमन्त्रण देने से कम न था किन्तु आप ने इस सब की चिन्ता किए बिना आर्य समाज का काम जारी रखा तथा अछूतोद्धार के कार्य व शुद्धि में भी लग गए । जब विरोध जोर से होने लगा तो आप को बदल कर १९१८  इस्वी को साम्बना भेज दिया गया । यहां पर जाते ही आपके यत्न से आर्य समाज की स्थापना हो गई तथा जब देश भर में एन्फ़्ल्यूऎन्जा का रोग फ़ैला तो आप ने सेवा समिति खोलकर रोगियों की खूब सेवा की । आप ने आर्य समाज के लिए बडे से बडे खतरों का भी सामना किया । आर्य समाज के प्रचार के कारण आपको अकेले ही वहां के राजपूतों और ब्राह्मणों के विरोध का सामना करना पडा किन्तु आर्य समाज के उत्सव में आपने किसी प्रकार की कमीं  न आने दी तथा इसे उत्तम प्रकार से सफ़ल किया ।

रामचन्द्र जी कांग्रेस के कार्यों के प्रति भी अत्यधिक स्नेह रखते थे । इस के वार्षिक समारोह में लगभग एक दशाब्दि तक निरन्तर जाते रहे ।जब पंजाब में मार्शल ला लगा हुआ था तो सरकारी कर्मचारी होते हुए भी यहां के समाचार आप गुप्त रुप से अन्य प्रान्तों में भेजते रहे । आप अपनी नौकरी को भी देश से उपर न मानते थे । यह ही कारण था कि १९१७ में जब आप को अम्रतसर जाने की सरकार ने सरकारी कर्मचारी होने के कारण अनुमति न दी तो आप ने तत्काल अपनी सरकारी सेवा से त्यागपत्र दे दिया किन्तु उनकी उत्तम सेवा को देखते हुए तहसीलदार उन्हें छोडना नहीं चाहते थे , इस कारण उन्हें अम्रतसर जाने की अनुमति दे दी गई । साम्बा क्शेत्र के लोग तो आप को देश सेवक के रुप मे ही जानते थे तथा इस नाम से ही आप को पुकारते थे ।

जब १९२२ में आप की नियुक्ति अखनूर में हुई तो वहां जा कर आप ने पाया कि यहां के लोग छूतछात को मानने वाले थे । यहां के लोग मेघ जाति के लोगों को अत्यधिक घ्रणा से देखते थे । रामचन्द्र जी ए इनका उत्थान करने क निश्चय किया तथा इन के लिए एक पाट्शाला आरम्भ कर दी । अब आप अपनी सरकारि सेवा के अतिरिक्त अपना पूरा समय इन पहादों मेम घूम घूम कर मेघों के दु:ख , दर्द के साथी बन उनकी सेवा, सहायता तथा उन्हें पटाने व उनकी बिमारी मेम उनकी सहायता करने लगे ।

इस सब का परिणाम यह हुआ कि जो लोग दलितों को उन्नत होता हुआ न देख सकते थे , उन्होंने सरकार के पास आप की शिकायते भेजनी आरम्भ कर दीं , मुसलमानों को आप के विरोध के लिए उकसाने लगे , आप के व्याख्यानों का भी विरोध आरम्भ कर दिया । इतने से ही सब्र न हुआ तो कुछ लोग लाटियां लेकर आप पर आक्र्मण करने के लिए आप के घर पर जा चटे किन्तु पुलिस ने उनका गन्दा इरादा सफ़ल न होने दिया । परिणाम स्वरुप १९२२ इस्वी में इन लोगों ने आर्य समाजियों का बाइकाट कर दिया , जो चोबीस दिन तक चला किन्तु एक दिन जब रामचन्द्र जी कहीं अन्यत्र गये हुए थे तो पीछे से सरकारी अधिकारियों के दबाब में आकर वहां के आर्य जन झुक गये तथा यह बात स्वीकार कर ली कि मेघों की पाटशाला गांव से दूर ले जावेंगे  । लौटने पर रमचन्द्र जी ने इस समझौते के सम्बन्ध सुना तो उन्होंने इसे स्वीकार करने से साफ़ इन्कार कर दिया । इस सम्बन्ध में लम्बे समय तक गवर्नर , वजीर आदि से पत्र व्यवहार होता रहा ।

रामचन्द्र जी ने जिस प्रकार मेघों की नि:स्वार्थ भाव से सेवा की , इस कारण मेघ लोग उन पर अपनी जान न्योछावर करने लगे  । इधर रामचन्द्र जी भी अपने आप को मेघ कहने लगे, चाहे आप महाजन ही थे । पाटशाला का निजी भवन बनाने की प्रेरणा से मेघ पण्डित रूपा तथ भाई मौली ने अपनी जमीन दान कर दी । मुसलमानों व सरकारी अधिकारियों के विरोध की चिन्ता न करते हुए आप ने इस के भवन निर्माण के लिए अपील की निर्माण के पश्चात १९२२ में ही इस वेद मन्दिर का प्रवेश संस्कार सम्पन्न हो गया । इस पाटशाला के खुलने से मेघ अत्यधिक उत्साहित हुए । यह एक सफ़लता थी , जिसने दूसरी उपलब्धि का मार्ग प्रशस्त कर दिया । अब रामचन्द्र जी को अन्य स्थानों से भी पाटशाला खोलने के लिए आमन्त्रण आने लगे कि इस मध्य ही आपको जम्मू स्थानन्तरित कर दिया गया ।  किन्तु अभी यहां की पाट्शाला का कार्य प्रगति पर थ इस कारण आपने चार महीने का अवकाश ले लिया।

बटोहडा से मेघ लोगों ने इन्हें निमन्त्रित किया । यह स्थान अखनूर से मात्र चार मील दूर है आप अपने आर्य बन्धुओं तथा विद्यार्थियों सहित हाथ्में औ३म की पताकाएं लेकर, भजन गाते तथा जय घोष लगाते हुए चल पडे किन्तु इस शोभायात्रा के बारे में सुन वैसे देख विरोधी भडक उटे । आप को गालियां देते हुए अपमानित किया गया झण्डे छीन लिये तथा हवन कुण्ड भी तोड दिया । इस कारण इस दिन कोई कर्यक्रम नहीं हो सका किन्तु आप ने शीघ्र ही ४ जनवरी १९२३ को यहां बडे ही समारोह पूर्वक पाटशाला आरम्भ करने की योजना बना डाली । इसके लिए लाहौर से उपदेश्क भी आ गए । यह सब देख राजपूतों ने आप के जीवन का अन्त करने का निर्णय  लिया । इस निमित उन्होंने गांव में एक दंगल का आयोजन कर लिया ।

इधर जम्मू से रामचन्द्र जी भी अपने आर्य बन्धुओं व विद्वानों सहित बटौहडा के लिए रवाना हो गए । इनके साथ लाला भगतराम,लाला दीनानाथ, लाला अनन्तराम, ओ३मप्रकाश तथा स्त्यार्थी जी आदि थे । मार्ग में ही आर्योपदेशक सावन  मल जी भी अपने दल के साथ आ कर मिल गए । इस मध्य ही पता चला कि गांव में विरोधियों ने भारी षडयन्त्र रच रखा है तथ हालात बेहद खराब हैं । इस कारण लौट जाने का निर्णय लेकर यह सब वापिस चल पडे किन्तु इस की सूचना भी तत्काल गांव में राजपूतों को मिल गई । वह तो भडके ही  हुए थे अत: भगतू नामक एक व्यक्ति के नेत्रत्व में मुसलमान , गूजर डेट सौ के लगभग राजपूतों के सवारों व पैदल लोगों ने पीछे से इन पर आक्रमण कर दिया । सब पर लाटियां बरसाईं । सब और से एक ही आवाज आ रही थी कि खजान्ची को बचने नहीं देना । इस को मारो । यह सुन भगतराम जी उन्हें बचाने के लिए आगे आए किन्तु उन पर भी भारी मात्रा में लाटियों की मार पडी । अन्त में रामचन्द्र जी उनके हाथ आ गये तथा उन पर लोहे की छडों से प्रहार किया गया ।  वह जब बुरी तरह से घायल व बेहोश हो गये तो यह आक्रमण कारी इन्हें मरा समझ कर लौट गए ।

घायल व बेहोश वीर रामचन्द्र जी को अस्पताल में भर्ती किया गया । यहां निरन्तर छ: दिन तक बेहोश रहते हुए मौत से युद्ध करते रहे किन्तु अन्त में प्रभु की व्यवस्था ही विजयी हुई तथा मात्र २३ वर्ष की आयु में यह योद्धा आर्य समाज को अपना जीवन समझते हुए तथा दलितों को ऊंचा उटाने का यत्न करते हुए अन्त में दिनांक २० जनवरी १९२३ इस्वी तदानुसार ८ माघ १९७० को रात्रि के ११ बजे वीरगति को पराप्त हुआ ।

इस वीर योद्धा तथा आर्य समाज के इस धुरन्धर प्रचारक की स्म्रति में आर्य प्रतिनिधि सबा पंजाब ने कुछ प्रकल्प आरम्भ किये । इन प्रकल्पों के अन्तर्गत वीर रामचन्द्र जी की स्म्रति को बनाए रखने के लिए एक स्मारक बनाया गया । इस स्मारक के चार कर्य निर्धारित किये गए । जो इस प्रकार थे :-

१.      दलितो को उन्नत कर उन्हें स्वर्णों के समकश लना ।

२.      दलितों के लिए नि:शुल्क शिक्शा की व्यवस्थ करना ।

३.      दलितों मेम धर्म प्रचार करने की व्यवस्था करना ।

४.      दलितों में आत्म सम्मान की भावना पैदा करना ।

इस प्रकार का स्मारक बना कर वीर रामचन्द्र जी को आर्य समाज के महाधनों की श्रेणी में लाया गया । सभा की और से रामचन्द्र जी की स्म्रति में यहां प्रतिवर्ष एक मेला का आयोजन होने लगा । आर्य समाज के पुरुषार्थ तथा महाराज हरिसिंह जी के उदारतापूर्ण सहयोग से यह कार्य निरन्तर चलता रहा । आरम्भ में इस स्मारक के अधिष्टाता लाला अनन्तराम जी को बनाया गया । इस स्मारक स्थल पर बाद में एक कुंआ बन गया । यह स्मारक स्थल नहर से सटा हुआ नहर के किनारे पर ही बनाया गया था ।

पण्डित ओंकारनाथ वाजपेयी

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पण्डित ओंकारनाथ वाजपेयी

– डा. अशोक आर्य

आर्य समाज के त्यागी व तपस्वी कार्यकर्ताओं में पण्डित ओंकार नाथ मिश्र भी एक थे । महुआ नामक गांव जिला आगरा में आप का जन्म महर्षि दयानन्द जी के निर्वाण से मात्र दो वर्ष पूर्व सन १८८१ इस्वी में हुआ । यह समय आर्य समाज का समय कहा जा सकता है । इस कारण आप पर आरम्भ से ही आर्य समाज का प्रभाव दिखाई देने लगा ।

आप ने प्रयाग विश्वविद्यलय से मैट्रिक की परीकशा उतीर्ण्करने के तदन्तर इलाहाबाद में एक प्रैस की स्थापना कर , प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया तथा इसके साथ ही एक पिस्तक विक्री एन्द्र ( बुक डिपो ) भी आरम्भ किया । आप के इस प्रकाशन संस्थान ने प्रकाशन के क्शेत्र में अच्छी ख्याति अर्जित की । आप ने अनेक महपुरुषों के जीवन जन जन तक फुंचाने का स्म्कल्प लिया तथा इस चरित प्रकाशन का कार्य एक माला के अन्तर्गत किया । इस माला का नाम आदर्श माला रका गया ।

आप ने आर्य कुमार सभा इलाहाबाद को भी अपना सक्रिय योगदान दिया तथा इसके सक्रिय कार्यकर्ता बन गए । आप के सतत प्रयास से इस आर्य कुमार सभा के सदस्यों की खूब व्रद्धि हुई तथा अनेक एसे बालक इस सभा के सदस्य बने , जो बाद में अपने कार्य के कारण अत्यधिक ख्याति प्राप्त हुए । एसे लोगों में हिन्दी के प्रख्यात कवि डा. हरिवंशराय बच्चन भी एक थे जो इस कुमार सभा के कार्यक्रमों में नियमित रुप से भाग लेते थे । बच्चन जी को आर्य समाज सम्बन्धी प्रेरणा बाजपेयी जी से ही मिली थी ।  बच्चन जी स्वामी सत्य प्रकाश जी के भी अन्तरंग मित्र तथा सह्पाटी थे । कहा जता है कि स्वामी जी जब आर्य कुमार सभा के प्रधान होते थे , उस समय बच्चन जी इस कुमार सभा के सदस्य थे । सम्भवतया यह ही वह समय रहा होगा ।

आप ने महिलोपयोगी साहित्य भी काफ़ी मात्रा में लिखा । इतना ही नहीं नारी शिक्शण को बटावा देने के लिए आपने “कन्या मनोरंजन” नाम से एक पत्रिका भी आरम्भ की । आप क नारि उत्थान तथा सदाचार की ओर विशेष ध्यान रहता था , इस कारण आप ने आदर्श कन्या पाटशाला , कन्या दिनचर्या, कन्या सदाचार , दो कन्याओं की बातचीत , शान्ता (उपन्यास) आदि पुस्तकेंलिखीं व प्रकाशित कीं ।

इस प्रकार अपने जीवन्का प्रत्येक क्शण आर्य समाज्के प्रचार प्रसार , लेकन व प्रकाशन को देने वाले पण्डित ओंकारनाथ वाजपेयी जी का देहान्त २८ जुलाई १९१८ को हो गया ।

मेहरचन्द महाजन by Dr. Ashok Arya

 

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 मेहरचन्द महाजन

-डा. अशोक आर्य

श्री मेहरचन्द महाजन एक महान न्यायविद तथा एक उत्तम प्रशासक थे । हिमाचल के टीका नगरोटा नामक स्थान पर २१ दिसम्बर १८८९ इस्वी को आप का जन्म हुआ । आप ने खूब दिल लगा कर शिक्शा प्राप्त की तथा एक अच्छे वकील बन गए ।

आप ने वकालत का आर्म्भ तो गुर्दासपुर पंजाब से किया किन्तु जल्दी ही आप लाहौर चले गये । लाहौर उन दिनों रजनीति तथा शिक्शा का केन्द्र था । अत: जल्दी ही आप लाहौर के कानूनविद से प्रतिष्टित कानून विद अर्था कानून के व्यवसायी हो गए ।

अपनी मेहनत व उसमें सफ़लता के कारण आप कानून के क्शेत्र में एक अच्छी विभूति बन गए इस कारण आप को लाहौर हाईकोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया गया । आप की सफ़लता यहां तक ही न रुकी , आप ने आगे बटते हुए काशमीर का प्रधान मन्त्री का पद भी प्राप्त किया । जब भारत स्वाधीन हुआ तो आप को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश भी बनने का गौरव मिला ।

देश की इस न्यायिक सेवा से मुक्त होने के पश्चात आप को डी ए वी कालेज प्रबन्ध कर्त्री समिति का प्रधान भी बनाया गया । आज हम टंकारा में जो महर्षि दयानन्द स्मारक ट्र्स्ट के नाम से एक बडी सुद्रट संस्था देख रहे हैं , इस का निर्माण व स्थापना भी आप ही ने की । इस कारण आप ही इस के संस्थापक अध्यक्श बने ।

आप ने अपनी एक आत्मकथा भी लिखी । अंग्रेजी में लिखी इस आत्मकथा का नाम लुकिंग बैक रखा गया । य्हह आत्मकथा आर्य समाज्के उस कल के संस्मरणों का पोथा बन गया है । सन १९६७ इस्वी में अप का देहान्त हो गया ।

कविरत्न पं. अखिलानन्द शर्मा By Dr. Ashok Arya

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कविरत्न पं. अखिलानन्द शर्मा

पण्डित अखिलानन्द जी का जन्म गांव चन्द्र नगर जिला बदायूं में मिती माघ शुक्ला २ दिनांक १९३७ विक्रमी को हुआ । आप के पिता का नाम पं. टीका राम स्वामी तथा माता का नाम सुबुद्धि देवी था । आप अपने समय के संस्क्रत के उच्चकोटि के कवि थे ।

जब स्वामी दयानन्द सरस्वती अलीगट से लगभग तीस किलोमीटर दूर गांव कर्णवास , जो गंगा के तट पर है तथा यह वह स्थान है जहां पर स्वामी जी ने कर्णवास के राजा राजा से तलवार छीन कर तोड दी थी , इस स्थान पर ही जब स्वामी जी टहरे थे तो पंण्डित जी के पिता पं. टीका राम स्वामि जी स्वामी जी से मिले थे । इस प्रकार स्वामी जी से प्राप्त विचार ही उन्हें आर्य समाज की ओर लेकर आये तथा इस का प्रभाव पंडित अखिलानन्द जी पर भी हुआ ।

पण्डित अखिलानन्द जी ने शास्त्रों का खूब अध्ययन किया तथा इस निमित स्वामी दयानन्द सरस्वती जी  के सह्पाटी पं. युगलकिशोर जी तथा अल्मोडा निवासी पं. विष्णु दत जी के मार्ग दर्शन से आप ने इन शास्त्रों का अध्ययन किया तथा पारंगतता प्राप्त की ।

शास्त्रों में पारंगत होने पर आप ने अपने पिता के बताये पथ पर चलना ही उपयुक्त समझते हुए आर्य समाज के उपदेशक्स्वरुप कार्य आरम्भ किया । आप को संस्क्रत काव्य से विशेष आत्मीयता थी तथा आप इस क्शेत्र में असाधारण गति के भी स्वामी थे । इस प्रकार आप अर्य समाज के प्रचार व प्रसार करने लगे ।

जब आप आर्य समाज्के प्रचार कार्य को गति देने में लगे थे तब ही आप का आर्य समाज के सिद्दन्तो के प्रश्न पर जब वर्ण व्यवस्था का प्रशन आया तो आप को आर्य समाज्का वर्ण व्यवस्था के प्रश्न पर कुछ मतभेद हो गया तथा इस कारण ही आप ने आर्य्समाज के क्शेत्र का परित्याग कर दिया तथा सनातन धर्म के प्रवक्ता बन गए । अब आप ने आर्य समाज के विद्वानों से कई शास्त्रार्थ भी किए । आप ने संस्क्रत काव्य के आधार पर आप ने लगभग तेरह पुस्तकें भी लिखीं । आअप की लिखी द्यानन्द लहरी एक उतम पुस्तक थी । दयानन्द दिग्विजय महाकाव्य , वैदिक सिद्धान्त वर्णन आदि आदि उनके प्रमुख ग्रन्थ थे । आप का देहान्त ८ मई १९५८ इस्वी को हुआ । इस समय आप की आयु ७८ वर्ष की थी

मुन्शी कन्हॆयालाल अलखधारी By Dr. Ashok Arya

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डा. अशोक आर्य

मुन्शी जी का जन्म उतर प्रदेश के आगरा में सन १८०९ इस्वी में हुआ । आर्य समाजी तो सदा ही क्रान्तिकरी विचारों के लिए प्रसिद्ध रहे हैं । इस कारण आप भी क्रान्तिकारी विचार रखते थे । मुन्शी जी के पिता का नाम धर्म दास था ।

मुन्शी कन्हॆयाला जी की शिक्शा कलकत्ता में हुई । आप ने कुछ समय के लिए बर्मा में  भी अपना निवास रखा किन्तु फ़िर आप भारत में वापिस लॊट आये । आप में अत्यधिक लगन ने आप को लुधियाना भेज दिया । यहां आ कर आप ने सन १८७३ में ” नीति प्रकाश” नाम से एक संस्था की स्थापना की । इस संस्था की स्थापना के साथ ही इस स्म्स्था के प्रचार व प्रसार के लिए एक समाचार पत्र भी आरम्भ किया इसका नाम भी ” नीति प्रकाश ” ही रखा गया ।

आज जो आरती नाम से यह भजन सब जगह गाया जाता है “ओ३म जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे ।” , के रच्यिता श्रद्धानन्द फ़िल्लोरी , जो कि सनातन धर्म के अपने समय के अच्छे विद्वान थे ( मुसलमानों से जिनका अत्यधिक लगाव था ) , मुन्शी कन्हॆयालाल अलखधारी जी के घोर प्रतिद्वन्द्वी थे तथा इन का विरोध व इनकी आलोचना क अवसर खोजते ही रहते थे । मुन्शी जी के प्रगतिवादी विचारों से उन्हें अत्यधिक घ्रणा थी ।

मुन्शी जी आर्य समाज के एक अच्छे सिपाही थे तथा महर्षि के उत्तम बक्त थे तथा स्वामी जी को पंजाब आने का निमन्त्रण देने वाले लोगों में मुन्शी जी का महत्व पूर्ण योग व अत्यधिक भूमिका थी । स्वामी जी के सामाजिक न्याय के विचारों के कारण अलख्धारी जी स्वामी जी के प्रशंसक तथा उत्तम शिष्य थे ।

मुन्शी जी ने आर्य समाज के प्रसार तथा वेद प्रचार के लिए अनेक ग्रन्थ लिखे । मुन्शी जी का समग्र साहित्य ” कुलियात अलखधारी ” शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित हुआ । इसके अतिरिक्त चिराग – ए – हकीकत ,शमा -= ए मारिफ़ल, उपनिषद , भगवद्गीता एवं योगवाशिष्ट क उर्दू अनुवाद , स्वामी दयानन्द का हाल ( उनके नीति प्र्काश मेंप्रकाशित लेखों का संग्रह) {इस का हिन्दी अनुवाद “महर्षि दयानन्द का सर्वप्रथम जीवन व्रत द्वारा प्रा. राजेन्द्र जिग्यासु }आदि

मौन्शी जी ने समाज के उत्थान के लिए भरपूर कार्य करते हुए अन्त में १ मई सन १८८२ इस्वी में , स्वामी जी से एक वर्ष पूर्व जीवन लीला समाप्त की ।

अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा- वीर नाथूराम गोडसे…

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अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा- वीर नाथूराम गोडसे…

प्रस्‍तुति: डॉ0 संतोष राय

 

19 मई 1910 को मुम्बई – पुणे के बीच ‘ बारामती ‘ में संस्कारित राष्ट्रवादी हिन्दु परिवार मेँ जन्मेँ वीर नाथूराम गोडसे एक ऐसा नाम है जिसके सुनते ही लोगोँ के मन-मस्तिष्क मेँ एक ही विचार आता है कि गांधी का हत्यारा।

इतिहास मेँ भी गोडसे जैसे परम राष्ट्रभक्त बलिदानी का इतिहास एक ही पंक्ति मेँ समाप्त हो जाता है…

गांधी का सम्मान करने वाले गोडसे को गांधी का वध आखिर क्योँ करना पडा, इसके पीछे क्या कारण रहे, इन कारणोँ की कभी भी व्याख्या नही की जाती।

नाथूराम गोडसे एक विचारक, समाज सुधारक, पत्रकार एवं सच्चा राष्ट्रभक्त था और गांधी का सम्मान करने वालोँ मेँ भी अग्रिम पंक्ति मेँ था। किन्तु सत्ता परिवर्तन के पश्चात गांधीवाद मेँ जो परिवर्तन देखने को मिला, उससे नाथूराम ही नहीँ करीब-करीब सम्पूर्ण राष्ट्रवादी युवा वर्ग आहत था। गांधीजी इस देश के विभाजन के पक्ष मेँ नहीँ थे। उनके लिए ऐसे देश की कल्पना भी असम्भव थी, जो किसी एक धर्म के अनुयायियोँ का बसेरा हो। उन्होँने प्रतिज्ञापूर्ण घोषणा की थी कि भारत का विभाजन उनकी लाश पर होगा। परन्तु न तो वे विभाजन रोक सके, न नरसंहार का वह घिनौना ताण्डव, जिसने न जाने कितनोँ की अस्मत लूट ली, कितनोँ को बेघर किया और कितने सदा – सदा के लिए अपनोँ से बिछड गये।

खण्डित भारत का निर्माण गांधीजी की लाश पर नहीँ, अपितु 25 लाख हिन्दू, सिक्खोँ और मुसलमानोँ की लाशोँ तथा असंख्य माताओँ और बहनोँ के शीलहरण पर हुआ।

किसी भी महापुरुष के जीवन मेँ उसके सिद्धांतोँ और आदर्शो की मौत ही वास्तविक मौत होती है। जब लाखोँ माताओँ, बहनोँ के शीलहरण तथा रक्तपात और विश्व की सबसे बडी त्रासदी द्विराष्ट्रवाद के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ। उस समय गांधी के लिए हिन्दुस्थान की जनता मेँ जबर्दस्त आक्रोश फैल चुका था। प्रायः प्रत्येक की जुबान पर एक ही बात थी कि गांधी मुसलमानोँ के सामने घुटने चुके है। रही – सही कसर पाकिस्तान को 55 करोड रुपये देने के लिए गांधी के अनशन ने पूरी कर दी। उस समय सारा देश गांधी का घोर विरोध कर रहा था और परमात्मा से उनकी मृत्यु की कामना कर रहा था।

जहाँ एक और गांधीजी पाकिस्तान को 55 करोड रुपया देने के लिए हठ कर अनशन पर बैठ गये थे, वही दूसरी और पाकिस्तानी सेना हिन्दू निर्वासितोँ को अनेक प्रकार की प्रताडना से शोषण कर रही थी, हिन्दुओँ का जगह – जगह कत्लेआम कर रही थी, माँ और बहनोँ की अस्मतेँ लूटी जा रही थी, बच्चोँ को जीवित भूमि मेँ दबाया जा रहा था। जिस समय भारतीय सेना उस जगह पहुँचती, उसे मिलती जगह – जगह अस्मत लुटा चुकी माँ – बहनेँ, टूटी पडी चुडियाँ, चप्पले और बच्चोँ के दबे होने की आवाजेँ।

ऐसे मेँ जब गांधीजी से अपनी जिद छोडने और अनशन तोडने का अनुरोध किया जाता तो गांधी का केवल एक ही जबाब होता- “चाहे मेरी जान ही क्योँ न चली जाए, लेकिन मैँ न तो अपने कदम पीछे करुँगा और न ही अनशन समाप्त करुगा।”

आखिर मेँ नाथूराम गोडसे का मन जब पाकिस्तानी अत्याचारोँ से ज्यादा ही व्यथित हो उठा तो मजबूरन उन्हेँ हथियार उठाना पडा। नाथूराम गोडसे ने इससे पहले कभी हथियार को हाथ नही लगाया था। 30 जनवरी 1948 को गोडसे ने जब गांधी पर गोली चलायी तो गांधी गिर गये। उनके इर्द-गिर्द उपस्थित लोगोँ ने गांधी को बाहोँ मेँ ले लिया। कुछ लोग नाथूराम गोडसे के पास पहुँचे। गोडसे ने उन्हेँ प्रेमपूर्वक अपना हथियार सौप दिया और अपने हाथ खडे कर दिये। गोडसे ने कोई प्रतिरोध नहीँ किया। गांधीवध के पश्चात उस समय समूची भीड मेँ एक ही स्थिर मस्तिष्क वाला व्यक्ति था, नाथूराम गोडसे। गिरफ्तार होने के बाद गोडसे ने डाँक्टर से शांत मस्तिष्क होने का सर्टिफिकेट मांगा, जो उन्हेँ मिला भी।

नाथूराम गोडसे ने न्यायालय के सम्मुख अपना पक्ष रखते हुए गांधी का वध करने के 150 कारण बताये थे। उन्होँने जज से आज्ञा प्राप्त कर ली थी कि वह अपने बयानोँ को पढकर सुनाना चाहते है। अतः उन्होँने वो बयान माइक पर पढकर सुनाए। लेकिन नेहरु सरकार ने (डर से) गोडसे के गांधी वध के कारणोँ पर रोक लगा दी जिससे वे बयान भारत की जनता के समक्ष न पहुँच पाये। गोडसे के उन क्रमबद्ध बयानोँ मेँ से कुछ बयान आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा जिससे आप जान सके कि गोडसे के बयानोँ पर नेहरु ने रोक क्योँ लगाई.?

तथा गांधी वध उचित था या अनुचित.??

दक्षिण अफ्रिका मेँ गांधीजी ने भारतियोँ के हितोँ की रक्षा के लिए बहुत अच्छे काम किये थे। लेकिन जब वे भारत लोटे तो उनकी मानसिकता व्यक्तिवादी हो चुकी थी। वे सही और गलत के स्वयंभू निर्णायक बन बैठे थे। यदि देश को उनका नेतृत्व चाहिये था तो उनकी अनमनीयता को स्वीकार करना भी उनकी बाध्यता थी। ऐसा न होने पर गांधी कांग्रेस की नीतियोँ से हटकर स्वयं अकेले खडे हो जाते थे। वे हर किसी निर्णय के खुद ही निर्णायक थे। सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहते हुए गांधी की नीति पर नहीँ चलेँ। फिर भी वे इतने लोकप्रिय हुए कि गांधीजी की इच्छा के विपरीत पट्टाभी सीतारमैया के विरोध मेँ प्रबल बहुमत से चुने गये। गांधी को दुःख हुआ, उन्होँने कहा की सुभाष की जीत गांधी की हार है। जिस समय तक सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस की गद्दी से नहीँ उतारा गया तब तक गांधी का क्रोध शांत नहीँ हुआ ।

मुस्लिम लीग देश की शान्ति को भंग कर रही थी और हिन्दुओँ पर अत्याचार कर रही थी । कांग्रेस इन अत्याचारोँ को रोकने के लिए कुछ भी नहीँ करना चाहती थी, क्योकि वह मुसलमानोँ को खुश रखना चाहती थी।गांधी जिस बात को अनुकूल नहीँ पाते थे उसे दबा देते थे । इसलिए मुझे यह सुनकर आश्चर्य होता है की आजादी गांधी ने प्राप्त की । मेरा विचार है की मुसलमानोँ के आगे झुकना आजादी के लिए लडाई नहीँ थी। गांधी व उसके साथी सुभाष को नष्ट करना चाहते थे ।

 

श्री नाथूराम गोडसे व अन्य राष्ट्रवादी युवा गांधीजी की हठधर्मिता और मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति से क्षुब्ध थे, हिन्दुस्थान की जनता के दिलोँ मेँ गांधीजी के झूठे अहिँसावाद और नेतृत्व के प्रति घृणा पैदा हो चुकी थी।उस समय गांधीजी के चरित्र पर भी अंगुली उठ रही थी जिसके चलते वरिष्ठ नेता जे. बी. कृपलानी और वल्लभ भाई पटेल आदि नेताओँ ने उनसे दूरी बना ली। यहा तक की कई लोगोँ ने उनका आश्रम छोड दिया था। अब उससे आगे के बयान….

इस बात को तो मैँ सदा से बिना छिपाए कहता रहा हूँ कि मैँ गांधीजी के सिद्धांतोँ के विरोधी सिद्धांतोँ का प्रचार  कर रहा हूँ। यह मेरा पूर्ण विश्वास रहा है कि अहिँसा का अत्याधिक प्रचार हिन्दू जाति को अत्यन्त निर्बल बना देगा और अंत मेँ यह जाति ऐसी भी नहीँ रहेगी कि वह दूसरी जातियोँ से, विशेषकर मुसलमानोँ के अत्याचारोँ का प्रतिरोध कर सके ।

हम लोग गांधीजी की अहिँसा के विरोधी ही नहीँ थे, प्रत्युत इस बात के अधिक विरोधी थे कि गांधीजी अपने कार्यो और विचारोँ मेँ मुस्लिमोँ का अनुचित पक्ष लेते थे और उनके सिद्धांतोँ व कार्यो से हिन्दू जाति की अधिकाधिक हानि हो रही थी।

मालाबार, नोआख्याली, पंजाब, बंगाल, सीमाप्रांत मेँ हिन्दुओँ पर अत्याधिक अत्याचार हुयेँ । जिसको मोपला विद्रोह के नाम से जाना जाता है । उसमेँ हिन्दुओँ की संपत्ति, धन व जीवन पर सबसे बडा हमला हुआ।हिन्दुओँ को बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया, स्त्रियोँ के अपमान हुये । गांधीजी अपनी नीतियोँ के कारण इसके उत्तरदायी थे, मौन रहे । प्रत्युत यह कहना शुरु कर दिया कि मालाबार मेँ हिन्दुओँ को मुसलमान नहीँ बनाया गया ।यद्यपि उनके मुस्लिम मित्रोँ ने यह स्वीकार किया कि सैकडोँ घटनाऐँ हुई है। और उल्टे मोपला मुसलमानोँ के लिए फंड शुरु कर दिया ।

कांग्रेस ने गांधीजी को सम्मान देने के लिए चरखे वाले ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज बनाया। प्रत्येक अधिवेशन मेँ प्रचुर मात्रा मेँ ये ध्वज लगाये जाते थे । इस ध्वज के साथ कांग्रेस का अति घनिष्ट सम्बन्ध था। नोआख्याली के 1946 के दंगोँ के बाद वह ध्वज गांधीजी की कुटिया पर भी लहरा रहा था, परन्तु जब एक मुसलमान को ध्वज के लहराने पर आपत्ति हुई तो गांधी ने तत्काल उसे उतरवा दिया। इस प्रकार लाखोँ – करोडोँ देशवासियोँ की इस ध्वज के प्रति श्रद्धा को गांधी ने अपमानित किया। केवल इसलिए की ध्वज को उतारने से एक मुसलमान खुश होता था।

कश्मीर के विषय मेँ गांधी हमेशा यह कहते रहे की सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौप दी जाये, केवल इसलिए की कश्मीर मेँ मुस्लिम है। इसलिए गांधीजी का मत था कि महाराजा हरिसिँह को संन्यास लेकर काशी चले जाना चाहिए, परन्तु हैदराबाद के विषय मेँ गांधी की नीति भिन्न थी । यद्यपि वहाँ हिन्दूओँ की जनसंख्या अधिक थी, परन्तु गांधीजी ने कभी नहीँ कहा की निजाम फकीरी लेकर मक्का चला जायेँ ।

जब खिलापत आंदोलन असफल हो गया तो मुसलमानोँ को बहुत निराशा हुई और अपना क्रोध हिन्दुओँ पर  उतारा । गांधीजी ने गुप्त रुप से अफगानिस्तान के अमीर को भारत पर आक्रमण करने का निमन्त्रण दिया, जो गांधीजी के लेख के इस अंश से सिद्ध हो जाता है – “मैँ नही समझता कि जैसे खबर फैली है, अली भाईयोँ को क्योँ जेल मेँ डाला जायेगा और मैँ क्योँ आजाद रहूँगा? उन्होँने ऐसा कोई कार्य नही किया है जो मैँ न करु।यदि उन्होँने अमीर अफगानिस्तान को आक्रमण के लिए संदेश भेजा है, तो मैँ भी उनके पास संदेश भेज दूँगा कि जब वो भारत आयेँगे तो जहाँ तक मेरा बस चलेगा एक भी भारतवासी उनको हिन्द से निकालने मेँ सरकार की सहायता नहीँ करेगा।”

मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए गांधी ने एक मुसलमान के द्वारा भूषण कवि के विरुद्ध पत्र लिखने पर उनकी अमर रचना शिवबवनी पर रोक लगवा दी, जबकि गांधी ने कभी भी भूषण का काव्य या शिवाजी की जीवनी नहीँ पढी। शिवबवनी 52 छंदोँ का एक संग्रह है जिसमेँ शिवाजी महाराज की प्रशंसा की गयी है । इसके एक छंद मेँ कहा गया है कि अगर शिवाजी न होते तो सारा देश मुसलमान हो जाता । गांधीजी को ज्ञात हुआ कि मुसलमान वन्देमातरम् पसंद नही करते तो जहाँ तक सम्भव हो सका गांधीजी ने उसे बंद करा दिया ।

राष्ट्रभाषा के विषय पर जिस तरह से गांधी ने मुसलमानोँ का अनुचित पक्ष लिया उससे उनकी मुस्लिम समर्थक नीति का भ्रष्ट रुप प्रगट होता था । किसी भी दृष्टि से देखा जाए तो यह स्पष्ट है कि इस देश की राष्ट्रभाषा बनने का अधिकार हिन्दी को है । गांधीजी ने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत मेँ हिन्दी को बहुत प्रोत्साहन दिया। लेकिन जैसे ही उन्हेँ पता चला कि मुसलमान इसे पसन्द नही करते, तो वे उन्हेँ खुश करने के लिए हिन्दुस्तानी का प्रचार करने लगे । बादशाह राम, बेगम सीता और मौलवी वशिष्ठ जैसे नामोँ का प्रयोग होने लगा। मुसलमानोँ को खुश करने के लिए हिन्दुस्तानी (हिन्दी और उर्दु का वर्ण संकर रुप) स्कूलोँ मेँ पढाई जाने लगी। इसी अवधारणा से मुस्लिम तुष्टिकरण का जन्म हुआ जिसके मूल से ही पाकिस्तान का निर्माण हुआ है ।

गांधीजी का हिन्दू मुस्लिम एकता का सिद्धांत तो उसी समय नष्ट हो गया जिस समय पाकिस्तान बना। प्रारम्भ से ही मुस्लिम लीग का मत था कि भारत एक देश नही है। हिन्दू तो गांधी के परामर्श पर चलते रहे किन्तु मुसलमानोँ ने गांधी की तरफ ध्यान नही दिया और अपने व्यवहार से वे सदा हिन्दुओँ का अपमान तथा अहित करते रहे। अंत मेँ देश का दो टुकडोँ मेँ विभाजन हो गया और भारत का एक तिहाई हिस्सा विदेशियोँ की भूमि बन गया।

32 वर्षो से गांधीजी मुसलमानोँ के पक्ष मेँ कार्य कर रहे थे और अंत मेँ उन्होँने जो पाकिस्तान को 55 करोड रुपये दिलाने के लिए धूर्ततापूर्ण अनशन करने का निश्चय किया, इन बातोँ ने मुझे गांधी वध करने का निर्णय लेने के लिए विवश कर दिया। 30 जनवरी 1948 को बिडला भवन की प्रार्थना सभा मेँ देश की रक्षा के लिए मैने गांधी को गोली मार दी।

वास्तव मेँ मेरे जीवन का उसी समय अन्त हो गया था जब मैने गांधी वध का निर्णय लिया था। गांधी और मेरे  जीवन के सिद्धांत एक है, हम दोनोँ ही इस देश के लिए जीये,गांधीजी ने उन सिद्धांतोँ पर चलकर अपने जीवन का रास्ता बनाया और मैने अपनी मौत का। गांधी वध के पश्चात मैँ समाधि मेँ हूँ और अनासक्त जीवन बिता रहा हूँ।

मैँ मानता हूँ कि गांधीजी एक सोच है, एक संत है, एक मान्यता है और उन्होँने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए। जिसके कारण मैँ उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूँ, लेकिन इस देश के सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नही था। किसी का वध करना हमारे धर्म मेँ पाप है, मै जानता हूँ कि इतिहास मेँ मुझे अपराधी समझा जायेगा लेकिन हिन्दुस्थान को संगठित करने के लिए गांधी वध आवश्यक था । मैँ किसी प्रकार की दया नही चाहता हँ । मैँ यह भी नही चाहता कि मेरी ओर से कोई और दया की याचना करेँ ।

यदि देशभक्ति पाप है तो मैँ स्वीकार करता हूँ कि यह पाप मैने किया है ।यदि पुण्य है तो उससे उत्पन्न  पुण्य पर मेरा नम्र अधिकार है। मुझे विश्वास है कि मनुष्योँ के द्वारा स्थापित न्यायालय के ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमेँ मेरे काम को अपराध नही माना जायेगा । मैने देश और जाति की भलाई के लिए यह काम किया! मैने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीतियोँ के कारण हिन्दुओँ पर घोर संकट आये और हिन्दू नष्ट हुए!!

मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य ‘नीति की दृष्टि’ से पूर्णतया उचित है। मुझे इस बात मेँ लेश मात्र भी सन्देह नही की भविष्य मेँ किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेँगे तो वे मेरे कार्य को उचित आंकेगे।

मोहनदास गांधीजी की हत्या करने के कारण नाथूराम गोडसेजी एवँ उनके मित्र नारायण आपटेजी को फाँसी की सजा सुनाई गई थी। न्यायालय मेँ जब गोडसे को फाँसी की सजा सुनाई गई तो पुरुषोँ के बाजू फडक रहे थे, और स्त्रियोँ की आँखोँ मेँ आँसू थे। नाथूराम गोडसे व नारायण आपटे को 15 नवम्बर 1949 को अम्बाला (हरियाणा) मेँ फासी दी गई। फाँसी दिये जाने से कुछ ही समय पहले नाथूराम गोडसे ने अपने भाई दत्तात्रेय को हिदायत देते हुए कहा था, कि

“मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धू नदी मेँ ही उस समय प्रवाहित करना जब सिन्धू नदी एक स्वतन्त्र नदी के रुप मेँ भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमेँ कितने भी वर्ष लग जायेँ, कितनी ही पीढियाँ जन्म लेँ, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना ।”

श्रीनाथूराम गोडसे ने तो न्यायालय से भी अपनी अन्तिम इच्छा मेँ सिर्फ यही माँगा था – ” हिन्दुस्थान की सभी नदियाँ अपवित्र हो चुकी है, अतः मेरी अस्थियोँ को पवित्र सिन्धू नदी मेँ प्रवाहित कराया जाए ।”

वीर नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे ने वन्दे मातरम् का उद्घोष करते हुये फाँसी के फंदे को अखण्ड भारत का स्वप्न देखते हुये चूमा और देश के लिए आत्म बलिदान दे दिया ।

नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे के अन्तिम संस्कार के बाद उनकी अंतिम इच्छा को पूर्ण करना तो दूर उनकी राख भी उनके परिवार वालोँ को नहीँ सौँपी गई थी । जेल अधिकारियोँ ने अस्थियोँ और राख से भरा मटका रेलवे पुल के ऊपर से घग्गर मेँ फेँक दिया था । दोपहर बाद मेँ उन्ही जेल कर्मचारियोँ मेँ से किसी ने बाजार मेँ जाकर यह बात एक दुकानदार को बताई, उस दुकानदार ने तत्काल यह सूचना स्थानीय हिन्दू महासभा कार्यकर्ता इन्द्रसेन शर्मा तक पहुँचाई ।इन्द्रसेन उस समय ‘ द ट्रिब्यून ‘ के कर्मचारी भी थे। इन्द्रसेन तत्काल अपने दो मित्रोँ को साथ लेकर दुकानदार द्वारा बताये गये स्थान पर पहुँचेँ । उन दिनोँ घग्गर नदी मेँउस स्थान पर बहुत ही कम पानी था । उन्होँने वह मटका वहाँ से सुरक्षित निकालकर प्रोफेसर ओमप्रकाश कोहल को सौप दिया,जिन्होँने आगे उसे डाँ. एल वी परांजये को नासिक मेँ ले जाकर सुपुर्द किया। उसके पश्चात वह अस्थिकलश 1965 मेँ नाथूराम गोडसे के छोटे भाई गोपाल गोडसे तक पहुँचाया गया, जब वे जेल से रिहा हुए । वर्तमान मेँ यह अस्थिकलश पूना मेँ उनके निवास पर उनकी अंतिम इच्छा पूरी होने की प्रतिक्षा मेँ रखा हुआ है।

15 नवम्बर 1950 से अभी तक प्रत्येक 15 नवम्बर को महात्मा गोडसे का “शहीद दिवस” मनाया जाता है। सबसे पहले नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे के चित्रोँ को अखण्ड भारत के चित्र के साथ रखकर फूलमाला पहनाई जाती है ।उसके पश्चात जितने वर्ष उनके आत्मबलिदान को हुए है उतने दीपक जलाये जाते है और आरती होती है। अन्त मेँ उपस्थित सभी लोग यह प्रतिज्ञा लेते है कि वे महात्मा गोडसेजी के “अखण्ड हिन्दुस्थान” के स्वप्न को पूरा करने के लिये काम करते रहेँगे। हमे पूर्ण विश्वास है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश एक दिन टुकडे- टुकडे होकर बिखर जायेगे और अन्ततः उनका भारत मेँ विलय होगा और तब गोडसेजी का अस्थि विर्सजन किया जायेगा।

हमेँ स्मरण रखना होगा कि यहूदियोँ को अपना राष्ट्र पाने के लिये 1600 वर्ष लगे,प्रत्येक वर्ष वे प्रतिज्ञा लेते थे कि अगले वर्ष यरुशलम हमारा होगा। इसी प्रकार हमेँ भी प्रत्येक 15 नवम्बर को अखण्ड भारत बनाने की प्रतिज्ञा लेनी चाहिये।

मेरा यह लेख लिखने का उद्देश्य किसी की भावनाओँ को ठेस पहुँचाना नहीँ, बल्कि उस सच को उजागर करना है, जिसे अभी तक इतिहासकार और भारत सरकार अनदेखा करती रही है।

गांधीजी के बलिदान को नही भूला जा सकता है तो गोडसेजी के बलिदान को भी नही।

 

पण्डित नरदेव शास्त्री

आर्य समाज के त्यागी व तपस्वी कार्यकर्ताओं में एसे अनेक महापुरुष हुए जिनका नाम शिक्शा, साहित्य तथा यहां तक कि रजनीति के क्षेत्र में भी समान रुप से रुचि लेते हुए देश की स्वाधीनता के लिए भर पूर योगदान किया । एसे आर्य समाजियों में पण्डित नरदेव शास्त्री भी एक थे । मात्र पं. नरदेव के नाम से एक भ्रम भी पैदा होता है क्योंकि आर्य समाज के विद्वानों में तीन व्यक्ति एसे हुए जो नरदेव के नाम से जाने गए । इन तीन में एक पं नरदेव वेदलंकार, दूसरे डा. नरदेव शास्त्री तथा त्रतीय हमारी इस कथा के कथानक पं. नरदेव शास्त्री, वेद तीर्थ । इस प्रकार एक के नाम के साथ वेदालंकार , दूसरे के नाम के साथ शास्त्री व तीसरे के नाम के साथ वेदतीर्थ होने से तीनों की पहचान अलग अलग हो पायी ।

pandit-nardev
पण्डित नरदेव जी का जन्म शैडम गाव , जो उस समय हैदराबाद की रियासत में था , मे दिनांक २१ अक्टूबर सन १८८० को हुआ । आप के पिता का नाम पं. निवास राव तथा माता का नाम श्री मती क्रष्णा बाई था , जो कि ब्राह्मण कुल से थे । जन्म के समय आप का नामकरण नरसिंहाराव के नाम से दिया गया किन्तु जब आप आर्य समाज के सम्पर्क में आये तो आप ने स्वयं ही अपना नाम बदल कर नरदेव कर लिया किन्तु मित्र मण्डली में आप राव जी के नाम से ही जाने जाते थे ।
इस राव जी की आरम्भिक शिक्शा पूणा में हुई । आरम्भिक शिक्शा पूर्ण कर आपके मन में संस्क्रत की उच्च शिक्शा प्राप्ति की इच्छा शक्ति उदय हुई , जिसकी पूर्ति के लिए आप लाहौर के लिए रवाना हो गये । लाहौर रहते हुए आपने सन १९०३ में शास्त्री परीक्शा उतीर्ण की । इस शास्त्री शिक्शा काल में ही आपका सम्पर्क आर्य समाज से हुआ । लाहौर उस काल में आर्य समाज का मुख्य केन्द्र था तथा यहां आर्य समाज के बडे बडे विद्वान आते ही रहते थे । इस विद्वानों से आपका सम्पर्क होता ही रहता था , उनसे चर्चा के अवसर मिलते ही रह्ते थे अत; आप जल्दी ही आर्य समाज की गतिविधियों में बडी रुचि के साथ भाग लेने लगे ।
एक संस्क्रत का विद्वान ओर वह भी आर्य समाजी , अत: उसके मन में वेदाध्ययन की इच्छा का होना स्वाभाविक ही है । इस कारण ही आप के मन में भी वेद का विस्तार से अधययन करने की इच्छा उत्पन्न हुई । इस कारण इस इच्छा की पूर्ति के लिए कलकता जा कर वहां के वेद के उच्च कोटि के विद्वान सामश्रमी जी से आप ने रिग्वेद की शिक्शा का मार्गदर्शन प्राप्त किया । इसी रिग्वेद की ही वेदतीर्थ परीक्शा आपने कलकता विश्व विद्यालय से उतीर्ण की तथा वेदतीर्थ नाम से प्रसिद्ध हुए । इन्हीं दिनों में ही आपने व्याकरण , दर्शन तथा साहित्य का भी भली प्रकार से अध्ययन कर इन पर भी पाण्डित्य प्राप्त किया ।
कलकता की शिक्शा पूर्ण कर आपकी नियुक्ति गुरुकुल कांगडी में निरुक्त के प्राध्यापक स्वरुप हुई किन्तु १९०६ – १९०७ तक की मात्र थोडी सी अवधि ही यहां टिक पाये तथा अगले वर्ष आपने फ़र्रुखाबाद के आचार्य स्वरुप कार्य किया । यह गुरुकुल आर्य प्रतिनिधि सभा संयुक्त प्रान्त द्वारा संचालित होता था । यहां भी आप अधिक समय न रुक सके तथा इस १९०८ के वर्ष में ही आप ज्वालापुर आ गये तथा यहां के गुरुकुल महाविद्यालय में नियुक्त हुए । यह स्थान आप को सुहा गया तथा लम्बे समय तक अर्थात सन १९५७ तक आप ने विभिन्न पदों पर इस गुरुकुल को अपनी सेवाएं दीं । इस गुरुकुल में आप मुख्याध्यापक, आचार्य , मुख्याधिष्टाता, मन्त्री , उप प्रधान ओर कुलपति आदि प्राय: विभिन्न पदों पर कार्य करते रहे ।
आप राजनीति के भी अच्छे खिलाडी थे । इस कारण देश के स्वाधीनता अन्दोलन में निरन्तर भाग लेते रहते थे । इस कारण अनेक बार कारावास भी हुआ किन्तु कभी घबराये नहीं । १९४७ में देश के स्वाधीन होने पर उतर प्रदेश में जो विधान सभा बनाई गयी आप १९५२ से १९५७ तक इस के सद्स्य रहे । संस्क्रत प्रेमी का हिन्दी प्रेम तो होना ही था । अत: हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्यों में अत्यधिक रुचि रही तथा इसका जो १९२४ में देहरादून में सम्मेलन हुआ , इसके आप स्वागताध्यक्श थे । इसके भरत पुर अधिवेशन में जिस पत्रकार सम्मेलन का आयोजन किया गया , उसके भी आप अध्यक्श बनाए गये तथा जब सन १९३६ में नागपुर में सम्मेलन हुआ तो आप को दर्शन सम्मेलन का सभापति बनाया गया ।

कुशल पत्रकार होने के नाते गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर के मासिक मुख पत्र भारतोदय के सम्पादक पं. पद्म सिंह शर्मा थे तो आप १९६६ वि. में इसके सह सम्पादक रहे । मुरादाबाद से शंकर नाम से जो मासिक निकलता था , उसके भी आप सम्पादक थे ।
आप ने अपने जीवन काल मेम अनेक पुस्तके लिख्ह कर भि देश व आर्य समाज का मार्ग दर्शन किया । इन पुस्तकों एम रिग्वेदालोचन, गीता विमर्श, आर्य समाज्का इतिहास , पत्र पुष्प , यग्ये पशुवधो वेद्विरुध:, सचित्र शुद्बोबोध (जीवन चरित), गुरुकुल महाविद्यालय का इतिहास, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती स्म्क्शिप्त जीवन, याग्य्वल्क्य चरित, कारावास की राम कहानी , अछूत मीमाम्सा तथा कालगति आदि |
इस प्रकार पण्डित जी ने समय समय पर विभिन्न प्रकार से आर्य समाज की सेवा की । अन्त में २४ सितम्बर १९६२ इस्वी को आप इस संसार को त्याग गये , सदा सदा के लिए छोड गये ।