पं. नारायण प्रसाद ‘बेताब’ उच्च कोटि के कवि, व्यंग्य लेखक, नाटककार थे, आर्यसमाज के प्रति निष्ठा इनके आत्मचरित में स्पष्ट झलकती है। मूर्तिपूजा पर लिखी गई आपकी यह कविता ‘परोपकारी’ में ही १९८३ में प्रकाशित हुई थी। इसकी उपयोगिता को देखते हुए, यह पुन: प्रकाशित की जा रही है। -सम्पादक
बुरा हाल तेरा है अय बुतपरस्ती।
कि मिलने को है खाक में तेरी हस्ती।
बुलन्दी से रुख हो गया है पस्ती।
नहूसत है जो तेरे मुँह पर बरस्ती।
नहीं काबिले कद्र फर्मान तेरा।
मगर मानता हँू मैं अहसान तेरा।। १।।
बहुत दिन से अहकाम तेरे हंै रद्दी।
न कब्जे में बाकी है जागीर जद्दी।
तहत्तुक ने कर दी तेरी शान भद्दी।
गया हाथ से राज और राजगद्दी।
न सच्ची तौकीर रहती वह कब तक।
यह शहना जो उतरा हुआ नाम मरदक।। २।।
कहाँ है अब वह रौबे फर्मागुजारी।
कि महकूम भारत की भूमि थी सारी।
बस अब रह गई इतनी जागीरदारी।
कहीं एक खेत और कहीं एक क्यारी।
निशाने परस्तिश फ$कत इस कदर है।
सफैदी सी कुछ दानए-माश पर है।। ३।।
मुसाफिर के रास्ते में एक ख़ार थी तू।
इबादत की गर्दन पै तलवार थी तू।
हमेशा न$काबे-रुखे-यार थी तू।
तो दर्शन में पर्दे की दीवार थी तू।
तेरे लाख ऐबों से अब दूर हँू मैं।
फ$कत एक खूबी का मशकूर हँू मैं।। ४।।
सुन अय बुतपरस्ती अगर तू न होती।
तो मिलता न हमको वह अनमोल मोती।
चमक जिसकी थी जैसे सूरज की ज्योति।
न यूँ मादरे-शिर्क भी जान खोती।
शिवालय में जाता न फिर मूलशंकर।
ठहरते न यूँ संगे-माजूल शंकर।। ५।।
जो उपवास होता न शिवरात्रि का।
न होती जो मन्दिर में शिवलिंग पूजा।
न पूजा में फल-फूल चढ़ता चढ़ावा।
निकलता न वह चाट चखने को चूहा।
किया जिसने साबित सरे लिंग चढक़र।
खुदा को खुदा और पत्थर को पत्थर।। ६।।
किया उसने झूँठा चढ़ावा वह सारा।
दिया ताव मूंछों पे और यह पुकारा।
करे तो कोई बाल बांका हमारा।
महादेव सुनते रहे दम न मारा।
यकीं था मगर मूलशंकर के दिल में।
कि जिन्दा न जायेगा चूहा यह बिल में।। ७।।
अभी लेके तिरशूल निकलेंगे शंकर।
फटा चाहती है यह पिण्डी मुकर्रर।
जटा गंगधारी पिशाचों के अ$फसर।
इसे आज रख देंगे निश्चय कुचलकर।
सजा देंगे गुस्ताख को बात क्या है।
यह चूहा है चूहे की औकात क्या है।। ८।।
मगर देर तक जब निकला न कोई।
महादेव ने कुछ न की चाराजोई।
खामोशी ने अफसोस सब बात खोई।
$कसीदे सरासर हुए याम्वा गोई।
उठी मूलशंकर के दिल में यह शंका।
बनी कैसे मिट्टी यह सोने की लंका।। ९।।
जो भू: भुव: स्व: तप: नाम वाला।
‘तप:’ शब्द का भी निकाला दिवाला।
गज़ब है कि यूँ कान में तेल डाला।
कहाँ खो दिया दण्ड देने का आला।
महादेव पर पड़ गई ओस क्यंूकर।
ये बुत बनके बैठे हैं अफसोस क्यँूकर।। १०।।
डरा एक चूहा भी जिससे न घर में।
बिठायेगा क्या रौब वह विश्वभर में।
मैं सुनता था शक्ति महा ईश्वर में।
मगर शून्य है यह तो मेरी नजर में।
$फ$कत एक पत्थर तराशा हुआ है।
जो अज्ञानियों का तमाशा हुआ है।। ११।।
महादेव देवों में भी जो महा है।
यह हर्गिज नहीं है कोई दूसरा है।
कोई उस पे गालिब हो ताकत ही क्या है।
जो परमात्मा है वह सबसे बड़ा है।
वह क्या एक चूहे से म$गलूब होता।
उसी को जो मैं पूजता खूब होता।। १२।।
मुबारक हुआ इन ख्यालों का आना।
मुबारक वह शब थी मुबारक जमाना।
मुबारक हुआ यह चढ़ावा चढ़ाना।
मुबारक हुआ उस चूहे का खाना।
हुआ मुर्गे दिल नवासंजे वहदत।
खुला उस घड़ी से दरेगंजे वहदत।। १३।।
तबीअत वहीं मूलशंकर की बदली।
मिटे कुफ्र बस दिल से यह शर्त बदली।
कुल्हाड़ी पये नक्ले अतबारे-बदली।
हुई सर बसर शिर्क की दूर बदली।
जो सूरज ने सूरत निकाली घटा से।
बढ़ा मेहरे-तौहीद काली घटा से।। १४।।
पड़ा था जो एक कोयलों का जखीरा।
निकल आया उसमें से अनमोल हीरा।
समय ने पहाड़ों के टुकड़ों को चीरा।
तो हाथ आ गया बेश$कीमत मुमीरा।
मिला हमको जुल्मात से आबें हैवां।
मिला उसकी हर बात से आबे हैवां।। १५।।
न मंज़ूर की जब बुतों की गुलामी।
रही फिर न कुछ मूलशंकर में खामी।
बने वो महर्षि दयानन्द स्वामी।
तरफदार हक से सिदाकत के हामी।
किया चश्मए फैज जारी जिन्होंने।
मुसीबत में सुन ली हमारी जिन्होंने।। १६।।
नये सर से भारत में हलचल मचा दी।
अविद्या की विद्या ने हस्ती मिटा दी।
जहाँ सामने आये वादी विवादी।
वहीं मुँह पे मुहरे-खामोशी लगा दी।
गज़ब धाक बैठी सरे अन्जूमन थी।
न कुछ मुशरिकों को मजाले सुखन थी।। १७।।
जो गिरते थे उनको ऋषि ने सम्भाला।
पड़े थे जो $गारों में उनको निकाला।
‘यथेमां वाचम्’ का देकर हवाला।
किया शूद्रों को भी अदना से आला।
मसावात का हक दिया मर्दों जन को।
निकम्मा न समझा किसी अज्वे तन को।। १८।।
मज़ाहिब हैं जितने भी हिन्दोस्तां में।
पड़ें बेखबर थे ये खाबें गरां में।
मगर था यह जादू ऋषि के बयां में।
खड़े हो गये कान सबके जहाँ में।
उड़ी भाप से जबकि हाँडी की चपनी।
तो हर एक को पड़ गई अपनी-अपनी।। १९।।
लगे कहने तौहीद के थे जो दुश्मन।
करो वेद से बुतपरस्ती का खण्डन।
किया ‘तस्य प्रतिमा न अस्ति’ का वर्णन।
किसी को रही फिर न कुछ ताबे गु$फतन।
$िखज़ालत से सर दर गरीबां थे सारे।
न आँखें मिलाते थे $गैरत के मारे।। २०।।
बिलखती थी आ$फतजदा बाल विधवा।
न था दर्दे खामोश का कोई चारा।
सितम है सितम उम्रभर का रंडापा।
न हो तो कहाँ तक न हो ‘भ्रूण’ हत्या।
न माँ कोई बन सकती थी मारे डर के।
कि जंगल में फिंकते थे टुकड़े जिगर के।। २१।।
वह औलाद थी या कि जंजाल जी का।
नदामत से चेहरे का था रंग फीका।
जिन आँखों में पिनहां था रोना किसी का।
उन आँखों में पहुँचा न दामन ऋषि का।
दुआगो है अब $गम $फरामोश बेवा।
बची सौ गुनाहों से निर्दोष बेवा।। २२।।
किया तय अहम से अहम मरहलों को।
सिखाया यह ‘बेताब’ से पागलों को।
न बचपन की शादी है जेबां भलों को।
निचोड़ो कुचलकर न कच्चे फलों को।
जो है बीज कच्चा उगेगा न पौदा।
यह सौदा है पूरे खिसारे का सौदा।। २३।।
हुई थी यह एक वहशते खाम हमको।
सबब क्या कि हो खौफे अन्जाम हमको।
विरहमन समझते हैं जब आम हमको।
तो फिर नेक कर्मों से क्या काम हमको।
बड़ा नाज था बाप दादा के कुल पर।
जमाना है गिर्दाब में हम हैं पुल पर।। २४।।
मगर यह दयानन्द ने भेद खोला।
नहीं जन्म से कुछ बिरहमन का चोला।
सुख न यह है वेदों के कांटे में तोला।
अमल से है छोटा बड़ा या मंझोला।
जनेऊ बवक्ते बिलादत कहाँ था।
न बच्चों में कुछ शूद्रता का निशां था।। २५।।
यहाँ तक थे हम होशियारे जमाना।
कि भिजवाते रहते थे मुर्दो का खाना।
बड़े पेट थे या बड़ा डाकखाना।
किये पार्सल अक्सर उनसे रवाना।
जरा देखिये डाकियों का कलेजा।
जमीं का पुलन्दा फलक पर भी भेजा।। २६।।
रसीद आज तक भी किसी की न आई।
वह शय पाने वालों ने पाई न पाई।
बहुत खो चुके जब कि अपनी कमाई।
ऋषि ने बताया कि है यह ठगाई।
गया पार्सल यह तसल्ली है झूठी।
लुटेरों ने यह डाक रस्ते में लूटी।। २७।।
न था खौफ हमको गुनाह के अमल में।
समझते थे यह मैल सा है ब$गल में।
लगा लेंगे गोता जो गंगा के जल में।
तो हो जायेंगे दूर सब पाप पल में।
ऋषि ने कहा वक्तो जर यों न खोना।
कि मुमकिन नहीं जीव को जल से धोना।। २८।।
हजारों किये ऐसे उपदेश हमको।
सताये न जिससे कोई क्लेश हमको।
नई जिन्दगी दी कमो-बेश हमको।
कहा यह बनाकर निकोकेश हमको।
निराकार निर्लेप परमात्मा है।
खुदा को मुजस्सम समझना खता है।। २९।।
बनाए जो तस्वीर बे सूद है वह।
यह महदूद और $गैर महदूद है वह
कहे बुत को बेताब माजूद है वह।
तो काफिर है मुशरिक है मरदूदू है वह।
जो मूरत बनाई हुई है हमारी।
उसे कब सजावार है किर्दगारी ।। ३०।।
न बेताब था बुतपरस्ती पे माइल।
न थी बात मशकूर होने के $काबिल।
मगर इक अदा पर फिदा हो गया दिल।
हुआ जिससे मिन्नत कशे रम्जे-वातिल।
मुनासिब न था आज खामोश होना।
बुराई है अहसां-फरामोश होना।। ३१।।