Category Archives: भजन

पुनरोदय: – देवनारायण भारद्वाज ‘देवातिथि’

सुन्दर नर तन मन मधुवन को।

प्रभुवर! पुन: पुन: दो हम को।।

सुखकर दीर्घ आयु फिर पायें,

फिर प्राणों का ओज जगायें।

फिर से आत्मबोध अपनायें।

मंगल दृष्टिकोण के धन को।

प्रभुवर! पुन: पुन: दो हम को।।१।।

होवें सक्षम श्रोत्र हमारें,

तज कर जग को प्रेय पुकारें।

फिर से साधन श्रेय सुधारें।।

विज्ञान विमल के दर्पण को।

प्रभुवर! पुन: पुन: दो हम को।।२।।

दु:ख दुरित दूर उर करो मधुर,

हो हृदय अहिंसक सर्व सुखर।

हे जठर अनल हे वैश्वानर।।

कर्मठ ललाम नव परपन को।

प्रभुवर! पुन: पुन: दो हम को।।१।।

स्रोत- पुनर्मन: पुनरायुर्मऽआगन्पुन: प्राण:,

पुनरात्मामऽआगन्पुनश्चक्षु: पुन:

श्रोत्रंमऽआगन्। वैश्वानरोऽअदब्ध

स्तनूपाऽअग्निर्न: पातु दुरितादवद्यात्।।

– (यजु. ४.१५)

जीने की हकीकत:-सोमेश पाठक

जो सोच भी सोच सकी न कभी

वो सोच ही आज ये सोचती है,

कि जीने के लिये तो दुनिया में मरने की जरूरत होती है।

जो जीकर न जी पाये वो मरकर भी क्या जी पायेंगे,

मरकर के जी पाना ही तो जीने की हकीकत होती है।।

जीवन-जीवन रटते हैं सब ये तो बस बहता पानी है,

जो रुके एक पल भी न कभी इसकी बस यही कहानी है।

जीवन को जीवन कहने का गर मोल है कुछ तो इतना ही,

मृत्यु जो इक सच्चाई है…जीवन की बदौलत होती है।।

मरकर के जी……..

क्या मिला और क्या छूट गया? क्या जुड़ा और क्या टूट गया?

बुलबुला एक पानी का था बन ना पाया और फूट गया।

हँसना-रोना, जगना-सोना ये खेल रंगमंचों के हैं,

क्या मृत्यु से बढक़र भी दुनिया में कोई दौलत होती है।।

मरकर के जी……..

जिस मौत के बाद जिन्दगी हो उस मौत को क्यूँ हम मौत कहें?

जिस मौत के बाद ही मुक्ति हो उस मौत को क्यँू हम मौत कहें?

दु:खों से छुड़ाती है मृत्यु, ईश्वर से मिलाती है मृत्यु,

मरकर के जी………

हे धर्मवीर! हे आर्यपुत्र! हे कु लभूषण निर्-अभिमानी!

हे वेदविज्ञ! हे जगत् रत्न! हे दयानन्द के सेनानी!

सिखलाकर जो तुम चले गये, बतलाकर जो तुम चले गये,

जनजीवन के नवजीवन की ये ही तो जरूरत होती है।।

मरकर के जी पाना ही तो….

बोधगीत: – देवनारायण भारद्वाज ‘देवातिथि’

शिव शोध बोध प्रति पल पागो।

जागो रे व्रतधारक जागो।।

जब जाग गये तो सोना क्या,

बैठे रहने से होना क्या।

कत्र्तव्य पथ पर बढ़ जाओ,

तो दुर्लभ चाँदी सोना क्या।।

मत तिमिर ताक श्रुति पथ त्यागो।

जागो रे व्रतधारक जागो।।१।।

बन्द नयन के स्वप्न अधूरे,

खुले नयन के होते पूरे।

यही स्वप्न संकल्प जगायें,

करें ध्येय के सिद्ध कँगूरे।।

संकल्प बोध उठ अनुरागो।

जागो रे व्रतधारक जागो।।२।।

शिव निशा जहाँ मुस्काती है,

जागरण ज्योति जग जाती है।

संकल्पहीन सो जाते हैं,

धावक को राह दिखाती है।।

श्रुति दिशा छोडक़र मत भागो,

जागो रे व्रतधारक जागो।।३।।

बोध मोद का लगता फेरा,

मिटता पाखण्डों का घेरा।

शिक्षा और सुरक्षा सधती,

हटता आडम्बर का डेरा।।

बोध गोद प्रिय प्रभु से माँगो।

जागो रे व्रतधारक जागो।।४।।

कुल फूल मूल शिव सौगन्धी,

शंकर कर्षण सुत सम्बन्धी।

रक्षा, संचेत अमरता से,

हों जन्म उन्हीं के यश गन्धी।।

योग-क्षेम के क्षितिज छलाँगो।

जागो रे व्रतधारक जागो।।५।।

– अलीगढ़, उ.प्र.

वो बात ही क्या?- – सोमेश पाठक

‘धीरत्व’ कर्म का आभूषण जिस क्षण बनने को आतुर हो,

वह कर्म सफलता की चोटी को तत्क्षण ही पा जाता है।

‘वीरत्व’ धर्म की वेदी पर जिस क्षण बढऩे को आतुर हो,

फिर धर्म-कर्म बन जाता है और कर्म-धर्म बन जाता है।।

संसार समरभूमि है और है युद्धक्षेत्र रणवीरों का,

है कुछ रण के रणधीरों का और कुछ है धर्म के वीरों का।

यहाँ कुरुक्षेत्र है धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र भी धर्मक्षेत्र,

————————

है कर्मक्षेत्र यहाँ धीरों का और धर्मक्षेत्र यहाँ वीरों का।।

वो बात ही क्या जिस बात में कोई बात न हो और बात हो वो,

हर बात महज एक बात ही है गर बात में कोई बात हो तो।

इन धर्म-कर्म की बातों में एक बात छिपी है ऐसी भी,

कुछ बात हो फिर उस बात की भी

इस बात की गर कुछ बात हो तो

– सोमेश पाठक

बुतपरस्ती: पं. नारायण प्रसाद ‘बेताब

पं. नारायण प्रसाद ‘बेताब’ उच्च कोटि के कवि, व्यंग्य लेखक, नाटककार थे, आर्यसमाज के प्रति निष्ठा इनके आत्मचरित में स्पष्ट झलकती है। मूर्तिपूजा पर लिखी गई आपकी यह कविता ‘परोपकारी’ में ही १९८३ में प्रकाशित हुई थी। इसकी उपयोगिता को देखते हुए, यह पुन: प्रकाशित की जा रही है।   -सम्पादक

बुरा हाल तेरा है अय बुतपरस्ती।

कि मिलने को है खाक में तेरी हस्ती।

बुलन्दी से रुख हो गया है पस्ती।

नहूसत है जो तेरे मुँह पर बरस्ती।

नहीं काबिले कद्र फर्मान तेरा।

मगर मानता हँू मैं अहसान तेरा।। १।।

बहुत दिन से अहकाम तेरे हंै रद्दी।

न कब्जे में बाकी है जागीर जद्दी।

तहत्तुक ने कर दी तेरी शान भद्दी।

गया हाथ से राज और राजगद्दी।

न सच्ची तौकीर रहती वह कब तक।

यह शहना जो उतरा हुआ नाम मरदक।। २।।

कहाँ है अब वह रौबे फर्मागुजारी।

कि महकूम भारत की भूमि थी सारी।

बस अब रह गई इतनी जागीरदारी।

कहीं एक खेत और कहीं एक क्यारी।

निशाने परस्तिश फ$कत इस कदर है।

सफैदी सी कुछ दानए-माश पर है।। ३।।

मुसाफिर के रास्ते में एक ख़ार थी तू।

इबादत की गर्दन पै तलवार थी तू।

हमेशा न$काबे-रुखे-यार थी तू।

तो दर्शन में पर्दे की दीवार थी तू।

तेरे लाख ऐबों से अब दूर हँू मैं।

फ$कत एक खूबी का मशकूर हँू मैं।। ४।।

सुन अय बुतपरस्ती अगर तू न होती।

तो मिलता न हमको वह अनमोल मोती।

चमक जिसकी थी जैसे सूरज की ज्योति।

न यूँ मादरे-शिर्क भी जान खोती।

शिवालय में जाता न फिर मूलशंकर।

ठहरते न यूँ संगे-माजूल शंकर।। ५।।

जो उपवास होता न शिवरात्रि का।

न होती जो मन्दिर में शिवलिंग पूजा।

न पूजा में फल-फूल चढ़ता चढ़ावा।

निकलता न वह चाट चखने को चूहा।

किया जिसने साबित सरे लिंग चढक़र।

खुदा को खुदा और पत्थर को पत्थर।। ६।।

किया उसने झूँठा चढ़ावा वह सारा।

दिया ताव मूंछों पे और यह पुकारा।

करे तो कोई बाल बांका हमारा।

महादेव सुनते रहे दम न मारा।

यकीं था मगर मूलशंकर के दिल में।

कि जिन्दा न जायेगा चूहा यह बिल में।। ७।।

अभी लेके तिरशूल निकलेंगे शंकर।

फटा चाहती है यह पिण्डी मुकर्रर।

जटा गंगधारी पिशाचों के अ$फसर।

इसे आज रख देंगे निश्चय कुचलकर।

सजा देंगे गुस्ताख को बात क्या है।

यह चूहा है चूहे की औकात क्या है।। ८।।

मगर देर तक जब निकला न कोई।

महादेव ने कुछ न की चाराजोई।

खामोशी ने अफसोस सब बात खोई।

$कसीदे सरासर हुए याम्वा गोई।

उठी मूलशंकर के दिल में यह शंका।

बनी कैसे मिट्टी यह सोने की लंका।। ९।।

जो भू: भुव: स्व: तप: नाम वाला।

‘तप:’ शब्द का भी निकाला दिवाला।

गज़ब है कि यूँ कान में तेल डाला।

कहाँ खो दिया दण्ड देने का आला।

महादेव पर पड़ गई ओस क्यंूकर।

ये बुत बनके बैठे हैं अफसोस क्यँूकर।। १०।।

डरा एक चूहा भी जिससे न घर में।

बिठायेगा क्या रौब वह विश्वभर में।

मैं सुनता था शक्ति महा ईश्वर में।

मगर शून्य है यह तो मेरी नजर में।

$फ$कत एक पत्थर तराशा हुआ है।

जो अज्ञानियों का तमाशा हुआ है।। ११।।

महादेव देवों में भी जो महा है।

यह हर्गिज नहीं है कोई दूसरा है।

कोई उस पे गालिब हो ताकत ही क्या है।

जो परमात्मा है वह सबसे बड़ा है।

वह क्या एक चूहे से म$गलूब होता।

उसी को जो मैं पूजता खूब होता।। १२।।

मुबारक हुआ इन ख्यालों का आना।

मुबारक वह शब थी मुबारक जमाना।

मुबारक हुआ यह चढ़ावा चढ़ाना।

मुबारक हुआ उस चूहे का खाना।

हुआ मुर्गे दिल नवासंजे वहदत।

खुला उस घड़ी से दरेगंजे वहदत।। १३।।

तबीअत वहीं मूलशंकर की बदली।

मिटे कुफ्र बस दिल से यह शर्त बदली।

कुल्हाड़ी पये नक्ले अतबारे-बदली।

हुई सर बसर शिर्क की दूर बदली।

जो सूरज ने सूरत निकाली घटा से।

बढ़ा मेहरे-तौहीद काली घटा से।। १४।।

पड़ा था जो एक कोयलों का जखीरा।

निकल आया उसमें से अनमोल हीरा।

समय ने पहाड़ों के टुकड़ों को चीरा।

तो हाथ आ गया बेश$कीमत मुमीरा।

मिला हमको जुल्मात से आबें हैवां।

मिला उसकी हर बात से आबे हैवां।। १५।।

न मंज़ूर की जब बुतों की गुलामी।

रही फिर न कुछ मूलशंकर में खामी।

बने वो महर्षि दयानन्द स्वामी।

तरफदार हक से सिदाकत के हामी।

किया चश्मए फैज जारी जिन्होंने।

मुसीबत में सुन ली हमारी जिन्होंने।। १६।।

नये सर से भारत में हलचल मचा दी।

अविद्या की विद्या ने हस्ती मिटा दी।

जहाँ सामने आये वादी विवादी।

वहीं मुँह पे मुहरे-खामोशी लगा दी।

गज़ब धाक बैठी सरे अन्जूमन थी।

न कुछ मुशरिकों को मजाले सुखन थी।। १७।।

जो गिरते थे उनको ऋषि ने सम्भाला।

पड़े थे जो $गारों में उनको निकाला।

‘यथेमां वाचम्’ का देकर हवाला।

किया शूद्रों को भी अदना से आला।

मसावात का हक दिया मर्दों जन को।

निकम्मा न समझा किसी अज्वे तन को।। १८।।

मज़ाहिब हैं जितने भी हिन्दोस्तां में।

पड़ें बेखबर थे ये खाबें गरां में।

मगर था यह जादू ऋषि के बयां में।

खड़े हो गये कान सबके जहाँ में।

उड़ी भाप से जबकि हाँडी की चपनी।

तो हर एक को पड़ गई अपनी-अपनी।। १९।।

लगे कहने तौहीद के थे जो दुश्मन।

करो वेद से बुतपरस्ती का खण्डन।

किया ‘तस्य प्रतिमा न अस्ति’ का वर्णन।

किसी को रही फिर न कुछ ताबे गु$फतन।

$िखज़ालत से सर दर गरीबां थे सारे।

न आँखें मिलाते थे $गैरत के मारे।। २०।।

बिलखती थी आ$फतजदा बाल विधवा।

न था दर्दे खामोश का कोई चारा।

सितम है सितम उम्रभर का रंडापा।

न हो तो कहाँ तक न हो ‘भ्रूण’ हत्या।

न माँ कोई बन सकती थी मारे डर के।

कि जंगल में फिंकते थे टुकड़े जिगर के।। २१।।

वह औलाद थी या कि जंजाल जी का।

नदामत से चेहरे का था रंग फीका।

जिन आँखों में पिनहां था रोना किसी का।

उन आँखों में पहुँचा न दामन ऋषि का।

दुआगो है अब $गम $फरामोश बेवा।

बची सौ गुनाहों से निर्दोष बेवा।। २२।।

किया तय अहम से अहम मरहलों को।

सिखाया यह ‘बेताब’ से पागलों को।

न बचपन की शादी है जेबां भलों को।

निचोड़ो कुचलकर न कच्चे फलों को।

जो है बीज कच्चा उगेगा न पौदा।

यह सौदा है पूरे खिसारे का सौदा।। २३।।

हुई थी यह एक वहशते खाम हमको।

सबब क्या कि हो खौफे अन्जाम हमको।

विरहमन समझते हैं जब आम हमको।

तो फिर नेक कर्मों से क्या काम हमको।

बड़ा नाज था बाप दादा के कुल पर।

जमाना है गिर्दाब में हम हैं पुल पर।। २४।।

मगर यह दयानन्द ने भेद खोला।

नहीं जन्म से कुछ बिरहमन का चोला।

सुख न यह है वेदों के कांटे में तोला।

अमल से है छोटा बड़ा या मंझोला।

जनेऊ बवक्ते बिलादत कहाँ था।

न बच्चों में कुछ शूद्रता का निशां था।। २५।।

यहाँ तक थे हम होशियारे जमाना।

कि भिजवाते रहते थे मुर्दो का खाना।

बड़े पेट थे या बड़ा डाकखाना।

किये पार्सल अक्सर उनसे रवाना।

जरा देखिये डाकियों का कलेजा।

जमीं का पुलन्दा फलक पर भी भेजा।। २६।।

रसीद आज तक भी किसी की न आई।

वह शय पाने वालों ने पाई न पाई।

बहुत खो चुके जब कि अपनी कमाई।

ऋषि ने बताया कि है यह ठगाई।

गया पार्सल यह तसल्ली है झूठी।

लुटेरों ने यह डाक रस्ते में लूटी।। २७।।

न था खौफ हमको गुनाह के अमल में।

समझते थे यह मैल सा है ब$गल में।

लगा लेंगे गोता जो गंगा के जल में।

तो हो जायेंगे दूर सब पाप पल में।

ऋषि ने कहा वक्तो जर यों न खोना।

कि मुमकिन नहीं जीव को जल से धोना।। २८।।

हजारों किये ऐसे उपदेश हमको।

सताये न जिससे कोई क्लेश हमको।

नई जिन्दगी दी कमो-बेश हमको।

कहा यह बनाकर निकोकेश हमको।

निराकार निर्लेप परमात्मा है।

खुदा को मुजस्सम समझना खता है।। २९।।

बनाए जो तस्वीर बे सूद है वह।

यह महदूद और $गैर महदूद है वह

कहे बुत को बेताब माजूद है वह।

तो काफिर है मुशरिक है मरदूदू है वह।

जो मूरत बनाई हुई है हमारी।

उसे कब सजावार है किर्दगारी ।। ३०।।

न बेताब था बुतपरस्ती पे माइल।

न थी बात मशकूर होने के $काबिल।

मगर इक अदा पर फिदा हो गया दिल।

हुआ जिससे मिन्नत कशे रम्जे-वातिल।

मुनासिब न था आज खामोश होना।

बुराई है अहसां-फरामोश होना।। ३१।।

” ओ३म् -वन्दना “

” ओ३म् -वन्दना ”
हे ओ३म् दीजिये शक्ति, यथोचित काम सभी के आयेंI
दीनों पर करें दया और, जीवों को न कहीं सतायें II
सौरजगत निर्माता स्वयं हैं, पृथ्वी जिसका हिस्सा I
उसे पलक झपकते विलय कराते, यह वेदों का किस्सा II
सब घूमें जीव स्वतन्त्र यहाँ, कोई परतंत्र ना हो जायें I
हे ओ३म् दीजिये शक्ति, यथोचित काम सभी के आयें II
हो भेदभाव से रहित जगत यह, ईश हमारा सपना I
सब जियें यहाँ उस प्रेमभाव से, “मत” हो अपना-अपना II
दो भक्तिभाव हे परमब्रह्म, ना “वेद” विहीन हो जायें I
हे ओ३म् दीजिये शक्ति, यथोचित काम सभी के आयें II
वह तीस करोड़ और सरसठ लाख, वर्ष बीस हजार की गिनती I
फिर होगी कथित “प्रलय” द्वापर सम, मिलजुल करते विनती II
ब्रह्माण्ड रचयिता हैं आप, हम सूक्ष्मात्मा कहलायें I
हे ओ३म् दीजिये शक्ति, यथोचित काम सभी के आयें II
पुनः “आदिमनु” पैदा करते, मानवान्तर के स्वामी I
तदोपरान्त सृष्टि चलती, वे अग्रज हम अनुगामी II
परमपिता वह सद्बुद्धि दो, गीत आपके गायें I
हे ओ३म् दीजिये शक्ति, यथोचित काम सभी के आयें II
अग्नि वायु आदित्य अंगिरा,”वेदों” के अधिकारी I
गले उतारे ओउम ने उनके, सबको दी जानकारी II
विघ्न निवारक और सुखदायक, जो ध्यावें सो पायें I
हे ओ३म् दीजिये शक्ति, यथोचित काम सभी के आयें II
चौदह “मनु” निर्मित करते नित्य, “कल्प” जो कहलावे I
दिन तीनसौ साठ ‘शतक’ में, महाकल्प बन जावे II
वर्ष इकत्तिस्सौदस बिन्दु चार खरब, की दीर्घायु वे पायें I
हे ओ३म् दीजिये शक्ति, यथोचित काम सभी के आयें II
तदोपरान्त उस ब्रह्माण्ड के संग, स्वयं विलीन हो जावें I
यह क्रम प्रभु का चले निरंतर, कभी रुकावटें न आवें II
दो श्रेष्ट आत्मा वह साहस, दुष्टों से ना झुक जायें I
हे ओ३म् दीजिये शक्ति, यथोचित काम सभी के आयें II
किम कर्तव्य विमूढ़ किये, धर्मज्ञों ने अन्तर्यामी I
क्षमा करें “गज” त्रुटि हमारी,ओ३मम शरणम गच्छामी II
हे ओ३म् दीजिये शक्ति, यथोचित काम सभी के आयें I
दीनों पर करें दया और, जीवों को न कहीं सतायें II
—————-Rachayita Gajraj Singh—————-

AUM: Vatsala D. Radhakeesoon

AUM (OM)

A (अ )*,U (उ )*,M (म् )* –
Three Devanagri* letters shine in AUM*.

The Vedas* with a brush refined
paint it as the golden name for God.

Each Letter with maturity unmatched
branches further to names all- profound.

From A, Virat* flows
From A, Agni* flows,
From A, Vishwa* flows.

God illuminates the universe immense,
God is all- knowledge, omniscient,
God is in all, omnipresent.

From U, Hiranyagarbha* smiles,
From U, Vaayu* smiles,
From U, Taijas* smiles.

God is the source of light all-bright;
God creates, then destroys with all might.

From M, Ishwar*emerges,
From M, Aaditya* emerges,
From M, Praajna* emerges.

God has knowledge infinite, perfect;
God is immortal, free from damage effects.

Thus, in AUM dwell God’s attributes,
AUM is wholesome, unfailingly absolute.

Vatsala Radhakeesoon

*(अ ), *(उ ), *(म् ): Main letters used in Sanskrit and Hindi forming the word AUM

*Devanagri : The alphabet used to write Sanskrit ,Hindi and other Indian languages

*AUM: According to the Vedas, the main name of God

*Vedas: The main sacred books of Hinduism

*Virat : God who illuminates this multiform universe

*Agni: God who is all-knowledge, omniscient and worthy of adoration

*Vishwa: refers to the fact that all the world and worldly objects dwell in God and he resides in all of them

*Hiranyagarbha: God as the source of light

*Vaayu: God as being the life and support of the universe and the cause of dissolution

*Taijas: God who gives light to the sun and other luminous bodies

*Ishwar: God, whose knowledge and power are infinite

*Aaditya: God as being immortal

*Praajna: God whose knowledge is perfect and He is omniscient

जागरण की बात कर लें। – रामनिवास गुणग्राहक

 

आ तनिक उठ बैठ अब कुछ जागरण की बात कर लें।

अथक रहकर लक्ष्य पा ले, उस चरण की बात कर लें।।

जगत् में जीने की चाहत, मृत्यु से डरती रही है।

जिन्दगी की बेल यूँ, पल-पल यहाँ मरती रही है।।

प्राण पाता जगत् जिससे, उस मरण की बात करे लें-

अथक रह कर लक्ष्य पा ले.-

सत्य से भटका मनुज, पथा्रष्ट होकर रह गया है।

उद्दण्डता का आक्रमण, मन मौन होकर सह गया है।।

उद्दण्डता के सामने सत्याचरण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा ले.-

परिश्रम से जी चुराना साहसी को कब सुहाता?

उच्च आदर्शों से युत्र्, जीवन जगत् में क्या न पाता??

साहसी बन आदर्शों के, अनुकरण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा ले.-

दोष, दुर्गुण, दुर्ष्यसन का, फल सदा दुःख दुर्गति है।

सुख सुफल है सद्गुणों का, सज्जनों की समति है।।

संसार के सब सद्गुणों के संवरण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा ले. –

हैं करोड़ों पेट भूखे, ठण्ड से ठिठुरे बदन हैं।

और कुछ के नियंत्रण में, अपरिमित भूषण-वसन हैं।।

भूख से व्याकुल उदरगण के भरण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा ले.-

अन्न जल से त्रस्त मानव का हृदय जब क्रुद्ध होगा।

सूाी आंतो का शोषण से, तब भयानक युद्ध होगा।।

निरन्तर नजदीक आते, न्याय-रण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा लें

आर्यसमाज शक्तिनगर

Bhajan

बैठकर-निज मन से घंटों तक झगड़िए: आर्य संजीव ‘रूप’,

गीत

बैठकर-निज मन से घंटों तक झगड़िए

(तर्ज – राम का गुणगान करिए)

ईश का गुणगान करिए,

प्रातः सायम्् बैठ ढंग से ध्यान धरिए।।

ध्यान धरिए वह प्रभो ही इस जगत का भूप है,

यह जगत ही सच्चिदानन्द उस प्रभो का रूप है।

देख सूरज चाँद उसका भान करिए।।

हाथ में गाजर टमाटर या कोई फल लीजिए,

वाह क्या कारीगरी तेरी प्राो कह दीजिए,

ये भजन हर वक्त हर एक स्थान करिए।।

मित्रता करनी हो तो मन से भला कोई नहीं,

शत्रुता करनी हो तो मन से बुरा कोई नहीं

बैठकर निज मन से घंटों तक झगड़िए।।

– आर्य संजीव ‘रूप’, गुधनी (बदायूँ)

वह ऐतिहासिक गीत : – प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु

‘‘सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं’’

श्री यतीन्द्र आर्य की उत्कट इच्छा से मैं कई मास से इस पूरे गीत की खोज में लगा रहा। जब कुँवर सुखलालजी पर विरोधियों ने प्राणघातक आक्रमण किया था, तब पता करने वालों के प्रश्न के उत्तर में इसका प्रथम पद्य बोला था। यह गीत कुँवर जी की रचना नहीं है- जैसा कि प्रायः हम सब समझे बैठे थे। यह किसी पंजाबी आर्य लिखित गीत है। इसके अन्त में ‘धरम’ शब्द  से लगता है कि यह लोकप्रिय पंजाबी आर्य गीतकार पं. धर्मवीर की रचना है। कुछ पंक्तियाँ छोड़कर इसे परोपकारी की भेंट किया जाता है। यह लेखराम जी के बलिदान के काल में रचा गया था।

– जिज्ञासु

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं।

झण्ड दुनिया में उनके गड़े हैं।।

एक लड़का हकीकत नामी,

सार जिसने धरम की थी जानी,

जग में अब तक है जिसकी निशानी,

सीस कटवाने को खुश खड़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं……………………

बादशाह ने कहा सब तुहारे,

राज दौलत खजाने हमारे

सुन हकीकत यह बोले विचारे,

हम तो इनसे किनारे खड़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं……………………

यह हकीकत को दौलत न भाई,

बल्कि आािर को है दुःखदायी

कारुँ जैसे ने प्रीत बढ़ाई,

आ नरक में वे आखिर पड़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं……………………

गुरु गोविन्द के थे दो प्यारे,

गये रणभूमि में वे भी मारे

और जो छोटे थे जो न्यारे,

जिन्दा दीवार में वे गड़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं…………………..

महर्षि दयानन्द प्यारे,

धरम कारण खा विष सिधारे

सुनके हिल जाते थे दिल हमारे,

ओ3म् जपते वे आगे बढ़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं………………….

लेखराम धरम का प्यारा,

जिसने धरम पर तन मन वारा

खाया जिस्म पर तेग कटारा,

उठ ‘‘धरम’’ तू याँ क्या करे है?

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं

झण्डे दुनिया में उनके गड़े हैं।।