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शैक्षणिक यात्रा – एक यात्री

 शैक्षणिक यात्रा – एक यात्री

– दिलीप अधिकारी

भ्रमण मनुष्य जीवन का एक अभिन्न अंग है। एक ही स्थान पर बहुत समय तक रहने से हम ऊब जाते हैं,  नए-नए स्थानों पर जाने की इच्छा होती है। जब हम नए-नए स्थानों पर जाते हैं, तो वहाँ विविध वस्तुओं से परिचय होता है। हमारा ज्ञानवर्धन होता है। मन भी प्रसन्न होता है। हम जीवन में केवल पुस्तकों से ही नहीं, अपितु अन्य भी बहुत से माध्यम हैं, जिनसे सीखते हैं। उन्हीं माध्यमों में भ्रमण भी शिक्षा का एक अच्छा माध्यम है। जिन-जिन जगहों पर हम जाते हैं, वहाँ-वहाँ के लोगों की संस्कृति, परमपराएँ, खानपान, वेशभूषा, रहन-सहन आदि का पता चलता है। अलग-अलग प्रकार के शिष्टाचारों का ज्ञान होता है। भ्रमण में विभिन्न स्वभाव वाले मनुष्यों से मिलन होता है, उनके व्यवहारों को देख कर हम बहुत कुछ सीखते हैं। भ्रमण से सृष्टि की विविधता का बोध होता है। विविध वनस्पतियाँ, नदी, पर्वत, झील, मन्दिर, महल इत्यादि वस्तुओं को देखकर मन नवीनता का अनुभव करता है।भ्रमण से वर्तमान की सामाजिक परिस्थितियों का ही नहीं, किन्तु विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों को देखकर हम पुरानी सभयता, कला, संस्कृति एवं परमपराओं के बारे में भी ज्ञान प्राप्त करते हैं। भ्रमण में हमें विभिन्न परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं। उन सब में सामञ्जस्य करना होता है। संग में यात्रा हो तो उसका भी अलग ही अनुभव होता हैं।

हमलोगों का गुरुकुल ऋषि उद्यान की तरफ से 21 से 27 सितमबर तक राजस्थान के कुछ जिलों का शैक्षणिक भ्रमण हुआ। भ्रमण में गुरुकुल के ब्रह्मचारी एवं आचार्यगण सममिलित थे। कुल यात्रियों की संखया 37 थी । उस यात्रा से सबन्धित कुछ जानकारियाँ और अनुभव आप के समक्ष प्रस्तुत हैं।

उद्योगशालाएँहमारे भ्रमण में उद्योगशालाओं को देखने का कार्यक्रम भी रखा हुआ था। सर्वप्रथम किशनगढ़ में आर.के. मार्बल्स उद्योगशाला में हम लोगों ने पत्थरों को काटने वाले बड़े-बड़े यन्त्रों को देखा। वहाँ सारा कार्य यन्त्रों से ही हो रहा था। पहले सोचता था कि इतने बड़े-बड़े पत्थरों को एक समान आकार में कैसे काटा जाता होगा, परन्तु वहाँ जाकर इसका उत्तर मिला। मुझे यन्त्रों को देखने व समझने में बहुत अच्छा लगता है। उनके बारे में जानने की इच्छा होती है। यह इच्छा वहाँ जाकर कुछ अंशों में पूर्ण हुई।

मेरे मन में उद्योगशालाओं के विषय में यह धारणा थी कि वहाँ बहुत गन्दगी रहती होगी। जब हमें आचार्य जी ने बताया था कि हम लोग उद्योगशालाओं को देखने जायेंगे तो नए-नए यन्त्रादि देखने को मिलेंगे, ऐसा सोच कर मन में उत्साह था, पर साथ ही साथ यह भी था कि वहाँ गन्दगी होगी, धूल होगी, परन्तु जब हम वहाँ गये तो वातावरण बिल्कुल विपरीत था। सारा परिसर अत्यन्त स्वच्छ था। सब वस्तुएँ व्यवस्थित थीं। वहीं के एक अधिकारी ने हमलोगों को वहाँ के बारे में सब कुछ विस्तार से बताया- कहाँ से पत्थर आते हैं, कैसे उन्हें काटा जाता है इत्यादि। इसी प्रकार किशनगढ़ में ही वस्त्र-उद्योगशालाएँ थीं। वहाँ कपड़े तैयार होते थे। बहुत बड़े-बड़े यन्त्र लगे हुए थे। कार्य बड़ी तीव्रता से हो रहा था। इसके कारण वहाँ धूल उड़ रही थी। हममें से बहुतों ने अपने नाक पर कपड़ा रखा और वह उचित भी था, पर मैंने सोचा कि यहाँ इतनी धूल है, फिर भी लोग कार्य करते हैं। मैं देखूँ बिना नाक पर कपड़ा रखे रह सकता हूँ कि नहीं। अन्दर गया। रह तो लिया, पर कुछ बाधा भी हुई। इतनी धूल में कार्य करते हुए कर्मचारियों को देखकर मन में दया का भाव भी आया। उनकी मेहनत को देख विषम स्थिति में भी अपने पुरुषार्थ को न छोड़ने की प्रेरणा मिली। उद्योगशालाओं को देखने हम लोग खेतड़ी में ‘हिन्दुस्तान कॉपर लिमिटेड’ में भी भ्रमणार्थ गये । वहाँ पर बहुत बड़ी ताँबें की खान व उद्योगशाला थी। वहीं के एक अधिकारी ने हमलोगों को बताया कि पहले यहीं पर कच्चे माल से ताँबा, सोना और चाँदी अलग किया जाता था, परन्तु राजनैतिक कारणों से अब वह सब बन्द हो गया। अब तो कच्चा माल ही बेच दिया जाता है, कमपनियाँ उसे खरीदती हैं। वहीं के कार्यकर्त्ता एक युवक हमारा मार्गदर्शन कर रहे थे। उनकी बताने की शैली मुझे अच्छी लगी, क्योंकि वे कारण सहित प्रत्येक बात को समझा रहे थे। कारण सहित किसी बात को बताने से समझने में सुविधा होती है। इन तीनों प्रकार की उद्योगशालाओं को मैंने प्रथम बार देखा। वहाँ बहुत कुछ देखने व जानने को मिला। बहुत-सी उत्सुकताएँ शान्त हुईं।

ज्योतिष ज्योतिष मैंने अभी नहीं पढ़ा है, परन्तु यह विषय मुझे बहुत प्रिय है। हाँ, पहले कुछ कुण्डली आदि बनाने की विधि सीखी थी। उस समय ग्रहों की स्थिति व गति के बारे में पढ़ा था, परन्तु वह केवल गणितीय विधि से ही था। सिद्धान्त पता नहीं था, अतः इसके विषय में जिज्ञासा थी। जयपुर में जन्तर-मन्तर में जाकर कुछ सीमा तक वह जिज्ञासा भी शान्त हुई। वहाँ हम लोगों ने विविध ज्योतिषीय यन्त्रों- जैसे धूप घड़ी, ध्रुव दर्शक, अयन बोधक, लग्न बोधक, राशि बोधक को देखा। मार्ग दर्शक ने हमें उनके प्रयोग की विधियाँ भी समझाईं। बहुत कुछ समझ में आया, परन्तु आंग्ल भाषा न जानने के कारण बहुत-सी बातें समझ में नहीं भी आयीं। फिर भी उन सबको देखकर, समझ कर ज्योतिष-विद्या के प्रति और भी रुचि पैदा हुई।

उसी प्रकार जयपुर में ही बिड़ला नक्षत्र शाला में मंगल-मिशन से समबन्धित बहुत-सी जानकारियाँ प्राप्त हुईं ।

इन दोनों को देखकर सबको बहुत अच्छा लगा। सबने ज्योतिषीय यन्त्रों की कारीगरी की भी खूब प्रशंसा की।

किलाजयपुर में ही जयगढ़ एवं आमेर किले को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जयगढ़ किले में अष्टधातुओं से निर्मित विश्व की सबसे बड़ी तोप रखी हुई थी। उसे भी हम लोगों ने देखा। मार्गदर्शक ने हमें बताया कि वह तोप चार हाथियों से खींची जाती थी। जब वह बनकर तैयार हुई तो उसमें एक क्विण्टल बारूद डाला गया और गोला अन्दर भर के आग लगाई गई। उसके विस्फोट से इतनी तीव्र ध्वनि उत्पन्न हुई कि उसके पास में विद्यमान सभी लोग मर गये और वह गोला 35 किलोमीटर दूर जाकर किसी गाँव में गिरा। जहाँ पर वह गोला गिरा, वहाँ एक बहुत बड़ा गड्ढा हुआ, जिसमें आज एक नहर बनी हुई है। दूसरी बार फिर उसका कभी प्रयोग नहीं हुआ। मुझे वहाँ एक बात विशेष लगी। किले की दीवारों के अग्रभाग में कुछ तिरछे छिद्र बने हुए थे, जहाँ से सैनिक लोग नीचे की स्थिति की निगरानी करते थे। उन छिद्रों से ऊपर वाला आदमी नीचे वाले को देख सकता है, परन्तु नीचे वाला ऊपर वाले को नहीं देख पाता है। प्रायः हर दीवार में इस प्रकार के छिद्र थे। जयगढ़ किला पहाड़ की चोटी पर है, अतः वहाँ पानी की व्यवस्था न होने से वृष्टि के पानी का भण्डारण किया जाता था। पूरे परिसर में बरसा हुआ पानी नालियों के माध्यम से टंकी में एकत्र होता और फिर वहीं से उपयोग में लिया जाता था। यह वृष्टि के जल का बहुत अच्छा उपयोग है। इस विधि से भी हम पेयजल के अभाव को दूर कर सकते हैं।

राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थानहम लोग इसी यात्रा के दौरान राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान, जयपुर में भी गये। वहाँ पर हमारे आचार्य जी के एक परिचित व्यक्ति थे। उन्होंने पूरे परिसर को दिखाया। हर विभाग में ले जाकर वहाँ की विशेषताएँ, कार्य आदि के बारे में उन-उन विभागों के विशेषज्ञों के माध्यम से बहुत जानकारियाँ प्रदान कीं। वहाँ पर हमलोगों को विविध-प्रकार की औषधीय वनस्पतियाँ देखने को मिलीं। अष्टधातुओं के बारे में सुना था, पर वहाँ देखने का भी अवसर मिला। संस्थान वालों ने लगभग 700 प्रकार की अलग-अलग आयुर्वैदिक जड़ी-बूटी, धातु एवं वनस्पतियों को नामांकन सहित प्रदर्शनी के रूप में रखा हुआ था। वहाँ पर भी बहुत-सी अदृष्टपूर्व वस्तुएँ देखने को मिलीं। शरीर-विभाग में शरीर के विभिन्न अंग, भ्रूण, मृतशरीर, अस्थि, कंकाल इत्यादि को देखकर उनकी रचना के विषय में और अधिक जानने की इच्छा हुई। उन्हें देखकर थोड़ा-सा श्मशान- वैराग्य भी हुआ। वहाँ सभी विभागों के विशेषज्ञों ने हमारा सहयोग किया। सबने अपने-अपने विभाग की विशेषताएँ बताईं। वहाँ हमें बहुत अधिक नई बातें जानने व समझने को मिलीं। सब कुछ ठीक होते हुए भी वहाँ एक बात मुझे ठीक नहीं लगी। वहाँ का चिकित्सालय अस्त-व्यस्त-सा प्रतीत हुआ। साफ-सफाई इतनी अच्छी नहीं थी। शौचालय आदि से दुर्गन्ध भी आ रही थी। चिकित्सालय में तो अच्छी साफ-सफाई होनी ही चाहिए।

आर्यसमाजकुछ आर्यसमाजों में भी जाने का मौका मिला। वहाँ की गतिविधियाँ जानने को मिलीं। दैनिक या साप्ताहिक अग्निहोत्र, भजन, सत्संग इत्यादि तो सब में समान था, किन्तु आर्यसमाज सरदार शहर में एक विशेष बात मुझे काफी अच्छी लगी। वहाँ प्रतिदिनि आधा या पौन घण्टा सब लोग मिलकर स्वाध्याय करते हैं। स्वाध्याय की प्रवृत्ति का होना एक अच्छी बात है। इसके अभाव में बहुत-सी मिथ्या मान्यताएँ प्रसारित हो जाती हैं। किसी बात को दूसरे से सुनकर जानने के बजाय स्वयं पढ़कर जाना जाए तो उसमें अधिक विश्वास हो सकता है, अन्यथा सुनी-सुनाई बातों में बहुत-सी मिथ्या अवधारणाएँ सममिलित हो जाती हैं। स्वाध्याय की वृत्ति प्रायः सभी आर्यजनों में होती है, स्वयं यदि स्वाध्याय नहीं भी करते हों तो भी दूसरे को प्रेरणा अवश्य देते हैं। यह भी अच्छी बात है, पर यदि सब आर्य लोग स्वयं स्वाध्याय शील हों, उद्यमी हों, विचारशील हों तो कितनी अच्छी बात होगी!

आर्य प्रतिनिधि सभा, जयपुर में हम लोगों ने दो दिन-रात को भोजन एवं विश्राम किया। वहाँ के युवा कार्यकर्त्ताओं की सेवा भावना प्रशंसनीय है, उन्होंने उत्साह पूर्वक अपने ही हाथों से भोजन बनाकर हमलोगों को खिलाया। जिस दिन हम वहाँ पहुँचे, उस दिन रात को भोजन के बाद वहीं के एक कार्यकर्त्ता ने वहाँ की गतिविधियों को बताते हुए आर्य समाज में नेतृत्व के अभाव से अधिकारियों की स्वच्छन्द प्रवृत्ति पर दुःख व्यक्त किया। अगले दिन रात को एक छोटा-सा कार्यक्रम रखा हुआ था, जिसमें तीस-चालीस लोग आए हुए थे। आचार्य जी ने वहाँ लोगों की शंकाओं का समाधान किया।

आर्य समाज, मण्डावा में भी हम लोग गये। वहाँ का अतीत प्रेरणास्पद था, परन्तु वर्तमान की स्थिति आशाजनक नहीं थी। पूरा भवन सूना पड़ा हुआ था। केवल अतीत की गाथाओं से किसी समाज की गतिशीलता एवं उन्नति की कल्पना नहीं की जा सकती। वर्तमान का उद्यम ही हमें प्रगत एवं उन्नत करेगा- इसमें कोई शंका नहीं है।

श्रीगंगानगर गंगानगर में मूकबधिर विद्यालय को देखते हुए हम लोग हिन्दूमल कोट (भारत-पाक सीमा) पर गये। वहाँ सीमा सुरक्षा बल के जवानों का शिविर (कैमप) था। हमारे वहाँ पहुँचने पर वहीं के एक अधिकारी ने सबका स्वागत किया। तत्पश्चात् उन्होंने हमें वहाँ की परिस्थितियों से अवगत कराया। सीमा के शून्य-बिन्दु से 150 फीट अन्दर भारत की तरफ कांटेदार तारों की बाड़ बनी हुई थी। उसके अन्दर की तरफ सैनिक चौकियाँ थीं। लगभग 100-100 मीटर की दूरी पर तीव्र प्रकाश करने वाली लाइटें लगी हुई थीं। पाकिस्तान की तरफ वाली जमीन खाली पड़ी हुई थी। वहाँ के अधिकारी ने बताया कि रात को कोई भी व्यक्ति सीमा के अंत्यबिन्दु से अन्दर दीखता है तो उस पर तुरन्त बिना विचारे गोली चलाने की छूट सैनिकों को होती है। उन्होंने यह भी बताया कि सीमा पर पहरा देनेवाले प्रत्येक जवान को बहुत अधिक जागरूक रहना पड़ता है। उसे पहरा देने के समय क्षण भर बैठने की भी अनुमति नहीं होती है। सैनिक के अन्दर यह भावना जगाई जाती है कि वह इस देश का सबसे जिममेदार आदमी है। वह सोचता है, यदि मुझसे कोई चूक हुई तो पूरा देश खतरे में पड़ जायगा, ऐसा सोचकर वह बड़ी जागरूकता से अपने कर्त्तव्य को निभाता है। मैं बचपन में पुलिस और सेनाओं के जवानों से बहुत डरता था। मुझे लगता था- ये कहीं गोली न चला दें। गाँव में कभी पुलिस आती तो घर के अन्दर घुस जाता था, परन्तु जब से सैनिकों की वीरगाथाओं को सुना, उनकी आवश्यकता को महसूस किया तो अब उनसे डर नहीं लगता। भला अपने रक्षक से भी कोई डरता है? फिर हम लोग हिन्दूमल कोट से वैदिक कन्या गुरुकुल फतही पहुँचे। इस गुरुकुल के संस्थापक व संचालक स्वामी सुखानन्द महाराज जी हैं। गुरुकुल में ज्यादातर पूर्वोत्तर राज्यों की बहनें अध्ययन करती हैं। रात्रि को भोजन एवं विश्राम की व्यवस्था हमारी वहीं पर हुई। स्वामी जी ने विशेष रूप से हमलोगों के लिए गूलर एवं घृतकुमारी की अलग-अलग सबजियाँ बनवाई थीं। भोजन हुआ। भोजन के बाद एक छोटी-सी सभा रखी गई, उसमें स्वामी जी ने गुरुकुल का परिचय प्रदान किया। तत्पश्चात् आचार्य जी ने शंका-समाधान किया। फिर रात को विश्राम कर, प्रातः जल्दी उठ, सन्ध्याग्निहोत्र करके सुजानगढ़ की ओर प्रस्थान किया।

सुजानगढ़  की ओर आते हुए रास्ते में तालछापर पड़ता है। वहाँ एक विशाल आभयारण्य है, जहाँ हिरण रहते हैं। उसे हम लोगों ने देखा। वहाँ हिरणों के झुण्ड-के-झुण्ड विहार करते हुए दृष्टिगोचर हुए। हमारी बस रुकी, सबने बस से उतर कर उन्हें अच्छी प्रकार निहारा। फिर वहाँ से सुजानगढ़ की ओर चल दिए। सुजान गढ़ में ब्रह्मप्रकाश लाहोटी जी के परिवार में जाना हुआ। वह परिवार वैदिक विचार धारा से जुड़ा हुआ था। वहाँ एक वृद्धा माता का वात्सल्यपूर्ण व्यवहार देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा। हम लोग उनके घर लगभग दिन में तीन बजे के आस पास पहुँचे थे। हमारा मध्याह्न भोजन नहीं हुआ था। परिवार के कोई सज्जन आचार्य जी से कुछ चर्चा कर रहे थे, तभी वह माता उन सज्जन से कहती हैं- ‘ये अभी भूखे हैं, इन्होंने भोजन नहीं किया है, इन्हें पहले भोजन करने दो, फिर बाद में चर्चा कर लेना।’ तत्पश्चात् वहीं पास में किसी सज्जन के घर में हमारी भोजन की व्यवस्था थी। बड़ी श्रद्धा से उन्होंने हमें भोजन आदि कराया।

उपसंहार इस यात्रा में हम और भी बहुत से स्थानों पर गये, जिनमें खाटू श्याम मन्दिर, जीणमाता मन्दिर, सालासर बालाजी मन्दिर, राणीसती मन्दिर, लोहार्गल सूर्य मन्दिर, शेखावटी में पोद्दार हवेली, पिलानी में बिड़ला मयूजियम इत्यादि प्रमुख हैं। लोहार्गल में पर्वतारोहण का भी आनन्द लिया और फिर लौटते हुए लाडनूँ में ‘जैन विश्व भारती’ भी गये। वहाँ पर प्रेक्षाध्यान के बारे में कुछ बातें जानने को मिली। श्वेतामबरों को निकटता से देखने का अवसर मिला। वहाँ हमें प्राचीन एवं विशाल पुस्तकालय भी देखने को मिला, जिसमें बहुत-सी पुरानी पुस्तकें रखी हुई थीं। फिर वहाँ से हमारी वापसी हुई।

इस पूरी यात्रा में आचार्य श्रीसत्यजित् जी, उपाचार्य श्रीसत्येन्द्रजी, उपाध्याय श्री सोमदेव जी एवं अध्यापक श्री ज्ञानचन्द्र जी हम लोगों के साथ में रहे। आचार्य जी की पूरी व्यवस्था में हमें कोई कष्ट नहीं हुआ। समपूर्ण यात्रा सुव्यस्थित रही। आचार्य जी का प्रबन्धन कौशल बड़ा अद्भुत है। उससे हमें बहुत अधिक शिक्षा प्राप्त हुई। यात्रा के बाद सब खुश व प्रसन्न हैं। अन्त में मैं परोपकारिणी सभा, गुरुकुल, आचार्य जी एवं अन्य महानुभावों का हृदय से धन्यवाद करता हूँ, जिनकी कृपा से हम लोग यात्रा करने में समर्थ हुए। यात्रा के दौरान भी अलग-अलग स्थानों पर बहुत-से सज्जनों से अलग-अलग प्रकार का सहयोग प्राप्त हुआ। उनके प्रति भी हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।

– ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर

क्या हम अपने ही देश में रहते हैं?

 क्या हम अपने ही देश में रहते हैं?

– एम. वी. आर. शास्त्री

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में जो हुआ, वही सब कुछ हैदराबाद विश्वविद्यालय में घटित हुआ था। वहाँ देशद्रोह की घटना को दलित उत्पीड़न बना दिया गया। दिल्ली में उसका वास्तविक रूप सामने आ गया। हैदराबाद विश्वविद्यालय की घटना की वास्तविकता। पढ़िये ‘आन्ध्रभूमि’ के समपादक की लेखनी से।             – समपादक

 

भावनाओं की तीव्रता ने सच्चाई को छुपा दिया

पाकिस्तान के समर्थन को प्राप्त उग्रवादियों द्वारा मुंबई में किये गए बम विस्फोट में तीन सौ बेकसूर लोगों की जानें चली गयीं। याकूब मेनन इन षड्यंत्रों का सूत्रधार रहा, जिसे  दो दशकों के बाद पिछले साल फाँसी की सजा दी गई। भारत के नागरिकों ने इस बात को लेकर खुशी प्रकट की कि देर से ही क्यों न सही, इंसाफ हुआ, लेकिन भारत में रहने वाले पाकिस्तान के समर्थकों, उन बुद्धिजीवियों, जिनके दिमाग में घुन लग गया और कुटिल राजनीतिज्ञों ने याकूब को फाँसी की सजा देने पर अपनी प्रतिक्रिया जोर-शोर से व्यक्त की है।

इस अवसर पर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में याकूब मेमन के समर्थकों ने जो हंगामा किया, उसे देख कर देशभर के लोग अवाक रह गये। विडंबना की बात यह है कि तीन सो लोगों की जानें लेने का जिममेदार खूँखार आतंकवादी याकूब को फाँसी की सजा देने के फैसले का विरोध करते हुए एक ख्यातिप्राप्त विश्वविद्यालय के परिसर में छाती पीट-पीट कर रोना और दिवंगत याकूब की आत्मा को शांति दिलाने की कामना करते हुए प्रार्थनाओं का आयोजन होना- हमें यह सोचने को मजबूर करने लगे हैं कि हम क्या अपने ही देश में रहते हैं? जुलूस निकाले गए। कई लोगों के हाथों में प्लेकार्ड पर लिखे गए इस नारे को देख कर लोग चकित रह गए कि ‘‘एक याकूब को फाँसी की सजा देने पर हर घर में एक-एक याकूब का जन्म होगा।’’

इसी विश्वविद्यालय के एक छात्र ने उस विश्वविद्यालय में होने वाली घटनाओं का जोरदार खण्डन किया, लेकिन उसने याकूब मेमन के समर्थकों के कार्य-कलापों को रोकने का प्रयत्न नहीं किया। किसी पर हमला नहीं किया। किसी के नाम को लेकर उसने किसी की निंदा नहीं की, लेकिन अपने ‘फेसबुक’ की ‘दीवार’ पर अपनी भाषा में उसने तो यह लिख दिया कि याकूब मेनन के समर्थकों ने विश्वविद्यालय में जो कुछ किया, वह गलत है। उसके विचारों में आपत्तिजनक कोई बात थी ही नहीं। एक देशद्रोही आतंकवादी का खुलेआम समर्थन करते हुए एक ‘अमरवीर’ के रूप में उसकी प्रशंसा करने का अधिकार जब दूसरों को मिला है, तो इस घटना की निन्दा करने की आजादी उस छात्र को क्यों नहीं मिलनी चाहिए?

लेकिन याकृब मेमन के समर्थकों ने ऐसा नहीं सोचा। ‘क्या तुम हम पर उँगली उठाने लायक बन गए हो’ कहकर आधी रात के समय में, लगभग तीस लोगों ने छात्रावास में घुसकर कमरे में उस पर हमला किया। उस छात्र को कितनी बुरी तरह से पीटा गया, इसका अब विशेष महत्त्व नहीं है।उस छात्र का विरोध करने वाले छात्र-नेताओं ने भी इसे स्वीकार किया कि वे लोग उस छात्र को बाहर के गेट तक खींच कर ले गए और सिक्योरिटी के कमरे में उस छात्र से अपने किये हुए पर क्षमा याचना करते हुए लेख लिखवाया। ‘फेसबुक’ में उस छात्र ने जो लिखा, उसे उसी छात्र से निकलवा दिया गया।

तो क्या यह अत्याचार नहीं है? यदि केन्द्रीय विश्वविद्यालय भारत की अपेक्षा पाकिस्तान के हैदराबाद में हुआ होता… यदि एक पाकिस्तानी को फाँसी की सजा दिये जाने की घटना का एक हिन्दुस्तानी छात्र ने समर्थन किया होता, तब हम स्थिति को समझ सकते हैं कि जोश में आकर छात्रों ने उसे क्यों पीटा। प्रश्न यह उठता है कि भारत के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अपनी राष्ट्रीय भावनाओं को प्रकटकर जिस भारतीय छात्र ने राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियों को खण्डन किया तो क्या उसे कोई सुरक्षा नहीं मिलनी चाहिए? मानव-अधिकार और कानून द्वारा प्रदत्त अधिकार इस देश में केवल राष्ट्र-विरोधी ताकतों को ही क्यों मिलते हैं, राष्ट्र के समर्थकों को क्यों नहीं?

जिस छात्र पर हमला हुआ, वह तेलंगाना के एक पिछड़े वर्ग के एक सामान्य परिवार का सदस्य है। हमारे बुद्धिजीवियों द्वारा आठों पहर जिस ‘‘सामाजिक न्याय’’ की चर्चा की जाती है, उसी न्याय की मुखापेक्षिता को लेकर जीवन बिताने वाला एक सामान्य परिवार का सदस्य है। विश्वविद्यालय से उसे सामाजिक न्याय दिलाने की माँग उसकी माँ ने की है। अत्याचारी ताकतों ने उसकी माँ को रोक लिया। अंतिम विकल्प के रूप में उसने अदालत के दरवाजे खटखटाए। अदालत ने विश्वविद्यालय से इस घटना के बारे में विवरण देने को कहा। विश्वविद्यालय ने पाँच छात्रों को निलंबित कर दिया। इस निर्णय का खंडन करते हुए छात्र आंदोलन करने लगे। दुर्भाग्यवश एक छात्र ने आत्महत्या कर ली।

इस घटना के बाद देश भर के लोगों का ध्यान इस विश्वविद्यालय की तरफ गया। इन बातों की चर्चा सभी करने लगे कि क्या हुआ और उस छात्र ने क्यों खुदकुशी कर ली? तरह-तरह के विचार सामने आने लगे। यह कह कर हम किसी की बात को टाल नहीं सकते कि यह तर्कसंगत या सत्य-सममत नहीं है। किसी वर्ग की भावनाओं को नीचा दिखाने की आवश्यकता भी नहीं है। जो वाद-विवाद हो रहा है, उसकी चर्चा करना भी अपेक्षित नहीं है।

दिवंगत छात्र रोहित के माँ-बाप ने स्वयं कहा कि हम ‘‘वड्डेरा’’ जाति के हैं। ‘वड्डेरा’ जाति ‘ओ.बी.सी’ में आती है। उस छात्र का पिता भी यही कहने लगा कि हम वड्डेरा जाति के हैं। यदि यह सच है तो रोहित दलित वर्ग का नहीं था। समाचार साधनों द्वारा जो प्रचार हो रहा है कि रोहित अनुसूचित जाति का है, वह गलत है।

यदि रोहित दलित वर्ग का नहीं था, तो केन्द्रीय विश्वविद्यालय में दलितों पर अत्याचार होने के संर्दभो में जो आन्दोलन चल रहा है, उसे भी सरासर झूठ कहना नितांत उचित होगा। यह सत्य है कि देश में दलित समाज में शोषण, अपमान और उपेक्षा के कारण असंतोष रहा, वही इस विश्वविद्यालय के दलितछात्रों और अध्यापकों में भी मौजूद है। यह निर्विवाद है कि समाज के समष्टि के कल्याण की कामना रखने वालों का यह प्रथम कर्त्तव्य होना चाहिए कि दलित वर्ग के लोगों के मानसिक तनाव को दूर करने के लिए उनकी समस्याओं का अध्ययन करें और उन्हें दूर कर उनके प्रति सहानुभूति प्रकट कर उनके विकास में सहयोग दें। दलित वर्ग के लोगों में असहिष्णुता और असंतुष्टि के कई कारण हैं। विश्वविद्यालय के प्रशासकों की नीति और उनके निर्णय भी इसके कारण हो सकते हैं। दलित वर्ग के शोध-छात्रों को निलंबित करने के बारे में भी सोच-विचार करना आवश्यक है। इनकी जाँच करनी होगी। दोषियों को, चाहे कोई भी क्यों न हो, सजा देनी चाहिए । कई वर्षों से इस विश्वविद्यालय में जो अशांतिपूर्ण वातावरण मौजूद है उसमें बदलाव लाने की आवश्यकता है।

यह निर्विवाद है विश्वविद्यालय को मंच बनाकर जो राजनीतिक चालबाजी नेता लोग दिखाने लगे, उसे देखकर आम आदमी एक ही बात सोच रहा है कि याकूब मेनन के समर्थकों ने जो हंगामा किया, वही इन सारी घटनाओं के मूल में हैं, इसके बारे में कोई नहीं बोलता है। विश्वविद्यालय की पवित्रता को भंग करनेवाले लोगों को सजा देना आवश्यक है या नहीं? दुनिया भर में इस्लामी आतंकवाद का प्रकोप बढ़ रहा है। आई.एस.एस.  के समर्थक हैदराबाद और देश के कई प्रांतों में पकड़े जा रहे हैं। पठानकोट पर पाकिस्तान ने परोक्ष रूप से हमला किया। इस नेपथ्य में विश्वविद्यालयों में आतंकवादियों के समर्थन में जुलूस निकाल कर उनकी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों को राष्ट्र-विरोधी मुद्दे के रूप में स्वीकार करना आवश्यक है या नहीं?

यदि विश्वविद्यालय के प्रशासकों के गलत निर्णयों के कारण छात्रों को नुकसान होता है, तो विश्वविद्यालय की एक समस्या के रूप में इसपर प्रशासन के साथ छात्र-चर्चा कर न्याय की माँग कर सकते हैं। जिन अधिकारियों के निर्णयों के कारण उन्हें नुकसान हुआ, उन अधिकारियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने की माँग करते हुए छात्र आन्दोलन चला सकते हैं। इस मामले में केन्द्रीय मंत्रियों को खींचने की क्या आवश्यकता है? वे क्या कर सकते हैं? यदि एक छात्र-संघ केन्द्रीय मंत्री दत्तात्रेयजी को याकूब मेनन के समर्थकों के कुकृत्यों का विवरण देकर न्याय की माँग करता है तो संबंधित मंत्रालय को उस पत्र को भेजकर आवश्यक जाँच करवाने का अनुरोध वे करें, तो इसमें क्या गलती है? स्थानीय नेता के रूप में राष्ट्रविरोधी ताकतों के विरुद्ध कार्यवाही करने की माँग करना क्या उनका कर्त्तव्य नहीं है? एक राष्ट्र-विरोधी घटना से दलित छात्रों और दलित अध्यापकों का क्या सबन्ध है? क्या तीन सौ लोगों की जान लेने वाले आतंकवादी याकूब मेनन को श्रद्धांजलि देने के लिये समारोहों का आयोजन करना और उसकी मृत्यु पर चिंता प्रकट करना देश-द्रोह नहीं है? सह-केन्द्रीय मंत्री द्वारा माँग किये जाने पर सबन्धित विश्वविद्यालय को इस सबन्ध में जाँच करने और उचित कार्यवाही लेने का आदेश देना, क्या केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री का कर्त्तव्य नहीं होता? इस विषय की महत्ता को दृष्टि में रख कर कुछ महीने की कालावधि के बाद स्थिति की समीक्षा करना न्याय संगत नहीं है? इसका मतलब यह कैसे होता है कि मंत्री महोदय ने विश्वविद्यालय पर इस मामले को लेकर कार्यवाही करने का अनुचित दबाव डाला? किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई निर्णय लेने के पक्ष में मंत्री ने सुझाव दिया, इसका क्या सबूत है? यदि ऐसा नहीं तो केन्द्रीय मंत्रियों को दोषी ठहराना क्या उचित है? इस मामले को दलितों के विरुद्ध किये गए कारनामे के रूप में चित्रित किया गयाहै ।यदि मंत्री महोदय ने कहा कि यह दलितों और दलितेतरों की बीच के संघर्ष का मामला नहीं, तो इसमें क्या गलती है?

जिस छात्र ने खुदकुशी की, उसने स्वयं लिखा कि मेरी मृत्यु का कोई जिमेदार नहीं है और इस घटना का लेकर किसी को परेशान करने की जरूरत नहीं है। यह समझ में नहीं आता कि केन्द्रीय मंत्री रोहित की मृत्यु के जिमेदार कैसे होते हैं? एफ.आई.आर. में मंत्रियों के नाम लिखने की माँग करना कहाँ तक न्यायसंगत है?

जिस छात्र ने आत्महत्या कर ली, वह कायर नहीं था। वह साहसी युवक था, जिसने यह घोषणा की कि ‘‘मैं केसरिया रंग के ध्वज को फाड़ दूँगा और ए.बी.वी.पी., आर.एस.एस. और हिन्दूवाद से मुझे सखत नफरत है।’’ स्वामी विवेकानंद को मिथ्या बुद्धिजीवी मानने वाले ये छात्र क्या बुद्धिमान हैं? क्यों ऐसा छात्र विश्वविद्यालय के निर्णयों से डरेगा और खुदकुशी कर लेगा? ऐसा मानना युक्तियुक्त नहीं होगा कि यह छात्र आंदोलन को बीच में ही छोड़कर अपने जीवन का अंत कर लेगा? क्या स्मृति ईरानी जी या दत्तात्रेय जी ने अदृश्य रूप में उसके गले में फंदा डाल दिया? यह संभव नहीं। तो रोहित की मृत्यु का कोई अन्य प्रबल कारण हो सकता है। वह क्या है?

अंबेडकर छात्रसंघ और एस.एफ.आई. हर मुददे  को अपने पक्ष में मोड़ने की क्षमता रखते हैं। इसी कारण से रोहित ने अपने अंतिम बयान में इसका जिमेदार कोई नहीं लिख कर उन्हें दूर रखा ।यदि छात्रसंघ दो केन्द्रीय मंत्रियों के नाम एफ.आई.आर. में लिखने की माँग करता, तो रोहित के अंतिम बयान के अनुसार छात्र-संघ की इस धारणा में भूमिका की माँग आवश्यक नहीं है? (द हिन्दू पत्रिका से उद्धृत) क्या माननीय स्मृति ईरानी जी गगन बिहारी बनकर आई और ‘सिम’ निकाल लिया? आत्महत्या से जुड़ी कई शंकाओं की जाँच करवाने के आवश्यकता नहीं है? क्या छात्र-संघों की माँग की अनुरूप जाँच के पूर्व ही उन लोगों को सजा देना आवश्यक नहीं है?

दिल्ली की राजनीति में कई मुद्दों को लेकर स्मृति ईरानी से केजरीवाल के कई मतभेद हो सकते हैं। केन्द्रीय विश्वविद्यालय में हुई घटना को एक मौ के के रूप में पाकर केजरीवाल ने स्मृति ईरानी और मोदी सरकार पर आरोप लगाए। अंशकालिक राजनीतिज्ञ राहुल गाँधी जी नेशनल हेराल्ड के मामले में कारावास की सजा भुगतने के पूर्व मोदी सरकार पर आरोप लगाकर उसे गद्दी से हटाकर सरकार में आने का प्रयत्न करने लगे है। बिहार राज्य के चुनावों के पूर्व भाजपा के प्रति असहिष्णु रहने वाले राजनीतिक दल अब कुछ राज्यों में आने वाले चुनावों में भाजपा को परास्त करने इस मौके का फायदा उठाने लगे। एक छात्र की मौत से ये सभी फायदा उठाने का प्रयत्न करने लगे। मोदी सरकार को सत्ता से हटाने की ताक में लगे रहे राजनीतिक दल एक विश्वविद्यालय में दलित छात्रों और छात्र-संघों को अपनी क्रीड़ा में मोहरे बनाकर चाल चलने लगे हैं। क्या छात्रों के निलंबन को रद्द करने और केन्द्रीय मंत्रियों को इस्तीफा देने की माँग, जाँच के बिना न्यायसंगत है? क्या विश्वविद्यालय के छात्र इसका निर्णय कर सकते हैं कि केन्द्रीय सरकार में मंत्री कौन होगा?

पता नहीं, केन्द्रीय विश्वविद्यालय का मामला किस हद तक जाएगा और इसका अंत क्या होगा। एक केन्द्रीय मंत्री द्वारा दूसरे केन्द्रीय मंत्री को, राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों को रोकने और अपेक्षित जाँच करवाने की माँग करते हुए लेख लिखना अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लोगों पर अत्याचार विरोधी कानून के अन्तर्गत विचाराधीन होगा? एक पाकिस्तानी आतंकवादी की प्रशंसा करना कानूनी होगा? राष्ट्र-विरोधी ताकतों के विरुद्ध आवाज उठाना क्या बहुत बड़ी गलती होगी? इस प्रकार की विचार धारा हमें कहाँ ले जा रही है? इस नेपथ्य में यह प्रश्न उठ रहा है कि – क्या हम अपने ही देश में रहते हैं?

– समपादक ‘आन्ध्रभूमि’, हैदराबाद, तेलंगाना

अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम्

अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम्

– शिवनारायण उपाध्याय

वैदिक वाङ्मय में इस विषय पर कई स्थानों पर विचार किया गया है। ऋग्वेद, मुण्डकउपनिषद्, तैत्तिरीयउपनिषद्, प्रश्नोपनिषद्, छान्दोग्यउपनिषद् तथा बृहदारण्यकउपनिषद् में इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर मैं भी इस विषय पर पूर्व में छः लेख लिख चुका हूँ। एक बार पुनः इसी विषय को लिखने का उपक्रम इसलिए करना पड़ रहा है कि आर्य समाज के ही प्रसिद्ध संन्यासी स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती आन्ध्रप्रदेश ने माह जून 2015 में ‘वैदिकपथ’ पत्रिका में एक लेख प्रकाशित करवाया है, जिसमें सृष्टि की आयु के स्वामी दयानन्द सरस्वती के निर्णय का विरोध किया है।

सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विज्ञान का मानना तो यह है कि सृष्टि की उत्पत्ति Big Bang (भयंकर विस्फोट) के साथ ही प्रारमभ हुई और परिवर्तन के कई चरणों से गुजरती हुई वर्तमान स्थिति में पहुँची है। Big Bang के साथ ही आकाश और समय का कार्य प्रारमभ हुआ। सृष्टि उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार रहा- आकाश, ज्वलनशील वायु, अग्नि, जल और निहारिका का मण्डल। निहारिका मण्डल में ही सौर मण्डलों ने स्थान पाया। पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से छिटक कर अलग होने के बाद धीरे-धीरे परिवर्तित होकर वर्तमान रूप में हुई। श्वास लेने योग्य वायु के बनने, पानी के पीने योग्य होने पर पानी के अन्दर सर्वप्रथम जलचरों को जीवन मिला। फिर क्रमशः जल-स्थलचर, स्थलचर और आकाशचर प्राणियों की उत्पत्ति हुई। सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व क्या था? इस विषय में विज्ञान का कहना है कि Big Bang के बाद ही सृष्टि नियम विकसित हुए हैं और उनके आधार पर हम घोषित कर सकते हैं कि भविष्य में कब क्या होगा और वे घोषणाएँ सब सत्य सिद्ध हो रही हैं, अतः हमें Big Bang के पूर्व की स्थिति को जानने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके अज्ञान से हमारे वैज्ञानिक कार्य पर कोई भी प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। अस्तु।

वैज्ञानिक विचार धारा पर संक्षेप में वर्णन कर देने के उपरान्त अब हम इस विषय पर वैदिक वाङ्मय के विचार पाठकों के सामने रखने का प्रयास कर रहे हैं। वैदिक वाङ्मय में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति का वर्णन भी किया गया है। पाठकों के लिए नासदीय सूक्त के मन्त्र दिये जा रहे हैं-

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमाऽपरोयत्।

किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नभः किमासीद्गहनं गभीरम्।।

-ऋग्वेद 10.129.1

अर्थ- (नासदासीत्) जब यह कार्य सृष्टि उत्पन्न नहीं हुई थी, तब एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और दूसरा जगत् का कारण विद्यमान था। असत् शून्य नाम आकाश भी उस समय नहीं था क्योंकि उस समय उसका व्यवहार नहीं था। (ना सदासीत्तदानीम्) उस काल में सत् अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मिलाकर जो प्रधान कहाता है, वह भी नहीं था। (नासीद्रजः) उस समय परमाणु भी नहीं थे तथा (नो व्योमाऽपरोयत्) विराट अर्थात् जो सब स्थूल जगत् के निवास का स्थान है, वह (आकाश) भी नहीं था। (किमावरीव…….गभीरम्) जो यह वर्तमान जगत् है, वह भी अत्यन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढँक सकता है और उससे अधिक वा अथाह भी नहीं हो सकता है, जैसे कोहरे का जल पृथ्वी को नहीं ढँक सकता है तथा उस जल से नदी में प्रवाह नहीं आ सकता है और न वह कभी गहरा अथवा उथला हो सकता है।

                        तम आसीत्तमसा गुलमग्रेऽप्रकेतं सलितं सर्वमा इदम्।

                        तुच्छ्येनावपिहितं यवासीत्तपसस्तन्माहिना जायतैकम्।।

– ऋ. 10.129.3

अर्थ- उस समय यह जगत् अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सममुख एकदेशी आच्छादित तथा पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से कारण रूप से कार्य रूप में कर दिया।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।

                       आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास।।

– ऋ. 10.129.2

सृष्टि के पूर्व प्रलयकाल में मृत्यु नहीं थी, मृत्यु के अभाव में अमरता भी नहीं थी। न मारक शक्ति के विपरीत अमृत अथवा सब जीव मुक्तावस्था में थे, ऐसा भी नहीं कह सकते। रात्रि एवं दिन का प्रज्ञान भी नहीं था। उस समय केवल वायु की अपेक्षा न रखने वाला सदा जाग्रत ब्रह्म ही था। उस समय उससे भिन्न, उसके समान अथवा उससे अधिक कुछ भी नहीं था। प्रकृति ऊर्जारूप में परिवर्तित होकर अव्यक्त थी।

फिर सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई, इस पर तैत्तिरीय उपनिषद् का कहना है-

‘सो कामयत। बहुस्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत। यदिद किञ्च। तत सृष्टावा तदेवानु प्राविशत्। तदनुप्रविश्य। सच्चत्यच्यामवत्। निरुक्तं चानिरुक्तं च। निलयन चानिलयन च। विज्ञानं चापिज्ञानं च। सत्यं चानृतं च। सत्यमभवत। यदिद किञ्च। तत्सत्यमित्या चक्षते।

-तै.उप. ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक 6

अर्थ- उसने कामना की कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ, तब उसने तप किया। क्रिया का प्रारमभ हो गया। जब यह क्रिया बढ़ते-बढ़ते उग्र रूप में पहुँची, तब उसे तप कहा गया। तप के प्रभाव से यह सब विश्व सृजा गया। सबकी सृष्टि करके वह ब्रह्म सृष्टि में अनुप्रविष्ट हो गया। आगे विपरीत कणों का वर्णन भी किया गया है-

सत्व रजस्तमसा सामयावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारोऽहंकारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेयः स्थूल भूतानि पुरुष इति पञ्च विंशतिर्गण।।

अर्थ- सत्व, रज और तम रूप शक्तियाँ हैं। इन शक्ति रूपों की समावस्था, निश्चेष्ठावस्था प्रकट रूपावस्था को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ तथा पञ्चतन्मात्राओं से पाँच स्थूलभूत, स्थूलभूतों से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन उत्पन्न होता है। पुरुष (चेतन सत्ता) इनसे भिन्न हैं। इन 25 पदार्थों को जानना, समझना विवेक में आवश्यक है।

ऋग्वेद में सृष्टि उत्पत्ति परमेश्वर ने इस प्रकार की है-

ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मारइवाधमत्।

देवानां पूर्व्ये युगेऽसतः सद जायत।।

– ऋ. 10.72.2

प्रकृति और ब्रह्माण्ड के स्वामी परमेश्वर ने दिव्य पदार्थों के परमाणुओं को लोहार के समान धोंका, अर्थात ताप से तप्त किया है। वास्तव में इसी को वैज्ञानिकों ने भयंकर विस्फोट Big Bang कहा है। इन दिव्य पदार्थों के पूर्व युग, अर्थात् सृष्टि के प्रारमभ में अव्यक्त (असत्) प्रकृति से (सत्) व्यक्त जगत् उत्पन्न किया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली के प्रथम अनुवाक में सृष्टि उत्पत्ति का क्रम भी बताया गया है-

तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः समभूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी।      पृथिव्या ओषधय। ओषधीयोऽन्नम् अन्नाद् रेतः। रेतसः पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः।।

अर्थात् परम पुरुष परमात्मा से पहले आकाश, फिर वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी उत्पन्न हुई है। पृथ्वी से ओषधियाँ, (अन्न व फल फूल) ओषधियों से वीर्य और वीर्य से पुरुष उत्पन्न हुए, इसलिए पुरुष अन्न रसमय है।

पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य में से छिटक कर हुई है, इस पर कहा गया है-

                           भूर्जज्ञ उत्तानपदो भूव आशा अजायन्त |

अदितेर्दक्षो अजायत दक्षाद्वदितिः परि।।

– ऋ. 10.72.4

अर्थ- पृथ्वी सूर्य से उत्पन्न होती है। पृथ्वी से पृथ्वी की दशा को बताने वाले भेद उत्पन्न होते हैं। प्रातःकालीन उषा से आदित्य उत्पन्न होता है, अर्थात् दृष्टि गोचर होता है और सांय कालीन उषा आदित्य से उत्पन्न होती है।

सृष्टि उत्पत्ति पर विचार कर लेने पर अब सृष्टि की वर्तमान आयु पर विचार करते हैं। वर्तमान में सृष्टि का वर्णन Friedmann Model के अनुसार किया जाता है। इसमें Big Bang के साथ ही आकाश-समय निरन्तरता का जन्म हो जाता है, अर्थात् समय की गणना Big Bang के प्रारमभ होने के साथ ही शुरू हो जाती है। एक अमेरिकन वैज्ञानिक Edwin Hubble ने 9 विभिन्न आकाश गंगाओं (Galaxies) की दूरी जानने का प्रयत्न किया। उसने बताया कि हमारी आकाश गंगा तो अत्यन्त छोटी है, ऐसी तो करोड़ों आकाश गंगाएँ हैं। साथ ही उसने यह भी बताया कि जो (Galaxy) हमसे जितना अधिक दूर है, उतनी ही अधिक तेजी से वह हम से दूर भागती जा रही है। उसने उनकी हमसे दूर होने की चाल की गति भी ज्ञात कर ली। फिर इस सिद्धान्त पर भी Big Bang के समय तो सब एक ही स्थान पर थे। उन्हें इतना दूर जाने में कितना समय लगा, उसका एक नियम भी खोज लिया।

नियम है- V=HR. यहाँ V आकाश गंगा की हमसे दूर भागने की गति है,  R आकाश गंगा की हमसे दूरी है और H Constant है। Edwin Hubble ने यह भी ज्ञात किया कि कोई भी आकाश गंगा जो हमसे d दश लाख प्रकाश वर्ष की दूरी पर है, उसकी दूर हटने की गति 19d मील प्रति सैकण्ड है। अतः अब समय R=106 d प्रकाश वर्ष, T =106×365×24×3600×186000d वर्ष

19d×3600×24×365

=186×109=9.7×109वर्ष

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Saint Augustine ने अपनी पुस्तक The City of God में बताया कि उत्पत्ति की पुस्तक के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 500 वर्ष पूर्व हुई है।

बिशप उशर का मानना है कि सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 4004 वर्ष पूर्व हुई है और केब्रीज विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. लाइटफुट ने सृष्टि उत्पत्ति का समय 23 अक्टूबर 4004 ईसा पूर्व प्रातः 9 बजे बताया है जो हास्यास्पद है। अब हम वैदिक वाङ्मय के आधार पर सृष्टि की आयु पर विचार करते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के दूसरे अध्याय अथ वेदोत्पत्ति विषय में इस पर विचार किया है कि वेद की उत्पत्ति कब हुई? इससे यह मानना चाहिए कि सृष्टि में मानव की उत्पत्ति कब हुई, क्योंकि मानव के उत्पन्न होने पर ही तो वेद का ज्ञान उसे प्राप्त हुआ है। इससे पूर्व की स्थिति अर्थात् सृष्टि उत्पन्न होने के प्रारमभ से मानव के उत्पन्न होने के समय पर उन्होंने अपने विचार देना उचित नहीं समझा। वास्तव में मनुष्य ने तो अपने उत्पन्न होने के बाद ही समय की गणना प्रारमभ की है। सृष्टि के उस समय की गणना वह कैसे करता, जब बन ही रही थी? वह कैसे जानता कि सृष्टि उत्पन्न होने की क्रिया के प्रारमभ होने से उसके पूर्ण होने तक सृष्टि निर्माण में कितना समय व्यतीत हुआ है? इस पर फिर चर्चा करेंगे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी गणना में मनुस्मृति के श्लोकों को ही मुखय रूप से काम में लिया है-

अत्वार्याहुः सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।

तस्य यावच्छतो सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथा विधः।।

-मनु. 1.69

उन दैवीयुग में (जिनमें दिन-रात का वर्णन है) चार हजार दिव्य वर्ष का एक सतयुग कहा है। इस सतयुग की जितने दिव्य वर्ष की अर्थात् 400 वर्ष की सन्ध्या होती है और उतने ही वर्षों की अर्थात् 400 वर्षों का सन्ध्यांश का समय होता है।

इतंरेषु ससन्ध्येषु ससध्यांशेषु च त्रिषु।

एकापायेन वर्त्तन्ते सहस्त्राणि शतानि च।।

-मनु. 1.70

और अन्य तीन-त्रेता, द्वापर और कलियुग में सन्ध्या नामक कालों में तथा सन्ध्यांश नामक कालों में क्रमशः एक-एक हजार और एक-एक सौ कम कर ले तो उनका अपना-अपना काल परिणाम आ जाता है।

इस गणना के आधार पर सतयुग 4800 देव वर्ष, त्रेतायुग 3600 देव वर्ष, द्वापर 2400 वर्ष तथा कलियुग 1200 देव वर्ष के होते हैं। इस चारों का योग अर्थात् एक चतुर्युगी 12000 देव वर्ष का होता है।

दैविकानाम युगानां तु सहस्त्रं परि संखयया।

ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च।। – मनु. 1.72

देव युगों को 1000 से गुण करने पर जो काल परिणाम निकलता है, वह ब्रह्म का एक दिन और उतने ही वर्षों की एक रात समझना चाहिए। यह ध्यान रहे कि एक देव वर्ष 360 मानव वर्षों के बराबर होता है।

तद्वै युग सहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः।

रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदोजनाः।।मनु. 1.73

जो लोग उस एक हजार दिव्य युगों के परमात्मा के पवित्र दिन को और उतने की युगों की परमात्मा की रात्रि समझते हैं, वे ही वास्तव में दिन-रात = सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय काल के विज्ञान के वेत्ता लोग  हैं।

इस आधार की सृष्टि की आयु = 12000×1000 देव वर्ष = 12000000 देव वर्ष

12000000×360 = 4320000000 देव वर्ष

12000000 देव वर्ष = 4320000000 मानव वर्ष

यत् प्राग्द्वादशसाहस्त्रमुदितं दैविक युगम्।

तदेक सप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते।।   -मनु. 1.79

पहले श्लोकों में जो बारह हजार दिव्य वर्षों का एक दैव युग कहा है, इससे 71 (इकहत्तर) गुना समय अर्थात् 12000×71 = 852000 दिव्य वर्षों का अथवा 852000×360= 306720000 वर्षों का एक मन्वन्तर का काल परिणाम गिना गया है।

फिर अगले श्लोक में कहा गया है कि वह महान् परमात्मा असंखय मन्वन्तरों को, सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय को बार-बार करता रहता है, अर्थात् सृष्टी  प्रवाह से अनादि है।

फिर स्वामी दयानन्द सरस्वती संकल्प मन्त्र के आधार पर वेद का उत्पत्ति काल बताते हैं।

3म् तत्सत् श्री  ब्रह्मणः द्वितीये प्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वते मन्वन्तरेऽअष्टाविंशतितमे कलियुगे कलियुग प्रथम चरणेऽमुकसंवत्सरायमनर्तु मास पक्ष दिन नक्षत्र लग्न मुहूर्तेऽवेदं कृतं क्रियते च।

यह जो वर्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें वैवस्वत मनु का वर्तमान है। इससे पूर्व छः मन्वन्तर हो चुके हैं और सात मन्वन्तर आगे होवेंगे। ये सब मिलकर चौदह मन्वन्तर होते हैं।

इस आधार पर वेदोत्पत्ति की काल गणना इस प्रकार होगी-

छः मन्वन्तरों का समय = 4320000×71×6= 1840320000 वर्ष

वर्तमान मन्वन्तर की 27 चतुर्युगी का काल= 4320000×27= 116640000 वर्ष

अट्ठाइसवीं चतुर्युगी के गत तीन युगों का काल= 3888000 वर्ष

कलियुग के प्रारभ से विक्रम सं. 2072 तक का काल= 3043 + 2072 वर्ष

= 5115 वर्ष

कुल योग = 1840320000 +116640000 + 3888000 +5115 वर्ष

= 1960853115 वर्ष। चूंकि विक्रम संवत् के प्रारमभ तक कलियुग के 3043 वर्ष व्यतीत हो चुके थे और 3044 वाँ वर्ष चल रहा था, इसलिए वर्तमान में 1960853116वाँ वर्ष चल रहा है।

अब कुछ विद्वान् कहते हैं कि सृष्टि की आयु जब मनु 1000 चतुर्युगी मानते हैं और दूसरी तरफ इसी आयु को 14 मन्वन्तर अर्थात् 994 चतुर्युगी कहा जाता है, तो दोनों के अन्तर 6 चतुर्युगों का समन्वय कैसे होगा? इसका उत्तर यह है कि 994 चतुर्युग तो मानव भोग काल है और 6 चतुर्युगों का समय सृष्टि उत्पत्ति के प्रारमभ से लेकर मानव अथवा वेदों की उत्पत्ति तक का है। सृष्टि उत्पत्ति में जो समय लगा है, वह सृष्टि की आयु में माना जावेगा। इसी प्रकार भोग काल 994 चतुर्युगों के अन्त में प्रलय काल प्रारमभ होगा और वह प्रलय की आयु में जोड़ा जायेगा।

ऋग्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि काल लगे बिना कोई कार्य नहीं होता-

त्वेषं रूपं कृणुत उत्तरं यत्संपृञ्चानः सदने गोभिरद्भि।

                        कविबुध्नं परि मर्मृज्यते धीः सा देवताता समिति र्बभूवः।।

– ऋ. 1.95.8

अर्थ- मनुष्य को चाहिए कि (यत्) जो (संपृञ्चानः) अच्छा परिचय करता कराता हुआ (कविः) जिसका क्रम से दर्शन होता है, वह समय (सादने) सदन में (गोभिः) सूर्य की किरणों वा (अद्भिः) प्राण आदि पवनों से (उत्तरम्) उत्पन्न होने वाले (त्वेषम्) मनोहर (बुध्नम्) प्राण और बल सबन्धी विज्ञान और (रूपम्) स्वरूप को (कृणुते) करता है तथा जो (धीः) उत्पन्न बुद्धि वा क्रिया (परि) (मर्मृज्यते) सब प्रकार से शुद्ध होती है (सा) वह (देवताता) ईश्वर और विद्वानों के साथ (समितिः) विशेष ज्ञान की मर्यादा (बभूव) होती है, इस समस्त उक्त व्यवहार को जानकर बुद्धि को उत्पन्न करें।

भावार्थ- मनुष्यों को जानना चाहिये कि काल के बिना कार्य स्वरूप उत्पन्न होकर और नष्ट हो जाये- यह होता ही नहीं है और न ब्रह्मचर्य आदि उत्तम समय के सेवन के बिना शास्त्र बोध कराने वाली बुद्धि होती है, इस कारण काल के परम सूक्ष्म स्वरूप को जानकर थोड़ा-सा भी समय व्यर्थ न खोवें, किन्तु आलस्य छोड़कर समय के अनुसार व्यवहार और परमार्थ के कामों का सदा अनुष्ठान करें।

यह भी ध्यान रखें कि जिस क्रिया में जो समय लगे, वह उसी का होगा। स्वामी जी ने इस प्रकरण में वेद का उत्पत्ति काल बताया है, सृष्टि की आयु नहीं बताई है। यदि सृष्टि की आयु जानना चाहें तो इसमें सृष्टि का उत्पत्ति काल जोड़ दें, तब सृष्टि की आयु होगी-

= 1960853116+25920000= 1986773116 वर्ष

साथ ही सृष्टि की शेष आयु होगी= 4320000000-1986773116= 2333226884 वर्ष सन्धि और सन्ध्यांश काल तो युगों की आयु में पहिले ही जोड़ लिए हैं, फिर मन्वन्तर के प्रारमभ और अन्त में एक सतयुग का जोड़ना व्यर्थ है। स्वामी जी ने ही नहीं, मनु ने भी इसका उल्लेख नहीं किया है। ज्ञान के अभाव में सृष्टि उत्पत्ति काल को न समझ कर 25920000 वर्षों को 15 भागों में व्यर्थ विभाजित कर क्षति पूर्ति करने का प्रयत्न किया गया है। इससे तो यहूदी ही अच्छे हैं, जो सृष्टि की उत्पत्ति 6 दिनों में स्वीकार करते हैं। यदि उनके दिन का मान एक चतुर्युगी मान लें तो उनकी सृष्टि उत्पत्ति की गणना ठीक वेदों के अनुरूप हो जाती है। इति।

 

– 73, शास्त्रीनगर, दादाबाड़ी, कोटा-324009 (राजस्थान)

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा- 3

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा

– स्व. डॉ. रघुवंश

कीर्तिशेष डॉ. रघुवंश हिन्दी-जगत् के जाने-माने विद्वान् थे। वे हिन्दी-संस्कृत-अंग्रेजी के परिपक्व ज्ञाता तो थे ही, भारत की शास्त्रीयता और उसके इतिहास के अनुशीलन में भी उनकी विपुल रुचि और गति थी। उन्होंने साहित्य के विभिन्न पक्षों पर साहित्य-सर्जन कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और समर्थ लेखक के रूप में वे सर्वमान्य रहे। अपने अग्रज श्रीमान् यदुवंश सहाय द्वारा रचित ‘महर्षिदयानन्द’ नामक ग्रन्थ की भूमिका-रूप में लिखे गए उनके इस लेख से हमारे ऋषिभक्त पाठक लाभान्वित हों, अतः इसे हम उक्त ग्रन्थ से साभार उद्धृत कर रहे हैं।     – सपादक

पिछले  अंक का शेषभाग…..

दयानन्द ने वेदों के प्रामाण्य पर ही यह घोषित किया कि जो हमारे विवेक को स्वीकार्य नहीं, उसके त्याग में हमको एक क्षण का विलमब नहीं करना चाहिए। यदि वेदों में ज्ञान के बदले अज्ञान है, मानवीय उच्च मूल्यों के बजाय घोर हिंसा-वृत्ति, भोगवाद और स्वार्थ की उपासना है, तो उनको अस्वीकार कर देना चाहिए। उनके प्रामाण्य से क्या प्रयोजन? पर उन्होंने गुरु के द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलकर वेदों की व्याखया के लिए आर्ष व्याकरण ग्रन्थों का मन्थन किया। उन्होंने निघण्टु, निरुक्त, अष्टाध्यायी और महाभाष्य जैसे व्याकरण ग्रन्थों के आश्रय से वेद-मन्त्रों की सुसंगत और व्यवस्थित व्याखया प्रस्तुत की। इस दृष्टि से गहन अध्ययन करने के बाद उन्होंने घोषित किया कि वेद, वैदिक साहित्य और अन्य आर्ष ग्रन्थ ही प्रामाण्य हैं, उनमें सत्य-ज्ञान सुरक्षित है, उनमें भारतीय संस्कृति के उच्चतम मूल्य सुरक्षित हैं और ये मूल्य भारतीय समाज और व्यक्ति के जीवन के सभी पक्षों को मौलिक सर्जनशीलता से गतिशील करने में सक्षम रहे हैं। इन ग्रन्थों में कहीं कोई विरोधाभास नहीं है, असंगतियाँ नहीं हैं। आवश्यकता है कि वेदों का अर्थ साधारण लौकिक व्याकरणों की पद्धति से न लगाकर, निघण्टु तथा निरुक्त आदि की यौगिक पद्धति से लगाया जाय। दयानन्द ने स्वयं इस पद्धति का स्वरूप प्रतिपादित किया और अपने समय के समस्त विद्वानों का आह्वान किया कि वे उन से इस सबन्ध में विचार-विनिमय करें। उनके तर्कों में बड़ा बल था, वे अकाट्य थे, उनकी पद्धति शास्त्रों के गहन-मन्थन पर आश्रित थी, उन्होंने अपना आधार शुद्ध विवेक माना था। यद्यपि उनकी बात को कोई काट नहीं सका और महर्षि अरविन्द के अनुसार उन्होंने वेदों के मूल अर्थ तक पहुँचने की एक सही पद्धति निरूपित की है, किन्तु पश्चिमी प्रभाव से आधुनिक शिक्षितों ने और अपने स्वार्थ वश परमपरावादियों ने उनकी व्याखया-पद्धति को अधिक गमभीरता से लेने का वातावरण नहीं बनने दिया। परन्तु आज भी उनके उठाये हुए प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है और वेदों के सत्य को उद्घाटित करने और ज्ञान को प्रकाशित करने की कोई अन्य एवं इतनी उपयुक्त पद्धति नहीं है।

स्वामी दयानन्द ने भारतीय समाज में व्याप्त निष्क्रियता, अन्धविश्वास और स्वार्थपरता के मूल में मध्ययुग के पुराण पंथ को माना है। यह धर्म पलायनवादी है। पलायनवादी मनोवृत्ति मनुष्य को आत्मकेन्द्रित, असामाजिक और स्वार्थपरायण बनाती है। दयानन्द के अनुसार वैदिक धर्म परम ब्रह्म परमेश्वर की उपासना का विधान है, परन्तु पुराण पंथियों ने उसके स्थान पर अनेकेश्वरवाद, अवतारवाद, मूर्तिपूजा, देवी-देवताओं की पूजा और यहाँ तक कि अपदेवताओं तक की पूजा प्रचलित करके अपना स्वार्थसिद्ध किया। वेद-समर्थित समाज में चार वर्णों की व्याखया है, और यह व्यवस्था कर्म के आधार पर थी। इन वर्णों में ऊँच-नीच तथा छुआछूत का अन्तर नहीं था। ब्राह्मण को सममान उसकी त्याग और सेवावृत्ति के कारण प्राप्त था। क्योंकि वह निःस्वार्थ भाव से ज्ञान-साधना में लगा रहता था, समाज के नैतिक जीवन का संरक्षक था और समाज के अन्य अंगों में अपने विवेक से सन्तुलन बनाये रखता था, अतः उसे अन्यों का आदर भाव प्राप्त था। पौराणिकों ने वर्ण व्यवस्था को जन्मना स्वीकार करके घोर अनर्थ किया और समाज की सारी गत्यात्मक क्षमता को कुंठित कर दिया। उनमें ऊँच-नीच और छुआछूत का भाव भरकर मनुष्य मात्र की बराबरी की वैदिक भावना को नष्ट कर दिया। वेदों में तो प्राणी मात्र को नश्वर तथा सममाननीय माना है। इस ऊँच-नीच के चक्र ने सारे समाज को सहस्रों जाति-पाँतियों में विभक्त कर छिन्न-भिन्न कर दिया।

वेदों में व्यक्ति और समाज के सबन्धों की सुन्दरतम कल्पना है। व्यक्ति का विकास सामाजिक दायित्व को पूरा करने की प्रक्रिया में माना गया है। व्यक्ति के जीवन को चार आश्रमों में इसी दृष्टि से विभक्त किया गया है। प्रथम आश्रम की कल्पना में व्यक्ति के विकास की पूरी समभावना है। शारीरिक, मानसिक और नैतिक शक्ति संगृहीत करने के लिये इस आश्रम में व्यक्ति समाज की पूरी सहायता और संरक्षण प्राप्त करता है। गृहस्थाश्रम में व्यक्ति पारिवारिक जीवन का दायित्व ग्रहण करता और इस सीमा में वह समाज के प्रति अपना दायित्व पारिवारिक दायित्वों को निभाते हुए ही पूरा कर सकता है। वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति पारिवारिक बन्धनों से मुक्त होकर पूर्ण सामाजिक दायित्व का वहन करता है। समाज के विकास के लिए वह हर सेवा के लिए प्रस्तुत रहता है। अन्त में संन्यास आश्रम में व्यक्ति अपनी निजी आध्यात्मिक उपलबधियों की ओर प्रवृत्त होता है और समाज के आध्यात्मिक जीवन के उन्नयन का दायित्व वहन करता है। इस प्रकार वैदिक आश्रमों की कल्पना व्यक्ति और समाज के आन्तरिक सबन्धों की ऐसी व्यवस्था है, जिसमें व्यक्ति की उन्नति और समाज के विकास की पूरी संभावना रक्षित है। इसी प्रकार विभिन्न ऋणों की कल्पना में भी व्यक्ति और समाज के सन्तुलन का दृष्टिकोण सुरक्षित है। व्यक्ति अपने विकास में समाज से पाता है, अतः उसे समाज को चुकाना भी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति पर स्वस्थ वंश-परमपरा चलाने, ज्ञान की परमपरा को आगे बढ़ाने, प्राणिमात्र की सेवा और सहायता करने तथा आध्यात्मिक जीवन को अग्रसर करने का दायित्व है। इन दायित्वों को पूरा किए बिना कोई व्यक्ति मुक्त हो नहीं सकता।

वेदों में समत्व की भावना प्राणिमात्र की बराबरी में विकसित हुई है। नारियों को नरक का द्वार, माया, ज्ञान की अनधिकारिणी और ताड़ना की अधिकारिणी आदि पौराणिकों ने माना है। यह ह्रासोन्मुखी मध्ययुगीन समाज का लक्षण है, व्यक्तिपरक वैराग्यमूलक साधनाओं की दृष्टि से कहा गया है। वेदों में नारी को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है, पुरुष के समकक्ष तो वे हैं ही। उनको वेदादि के ज्ञान प्राप्त करने का पुरुषों के समान ही अधिकार है। ज्ञानस्वरूप वेदज्ञान प्राप्त करने का अधिकार सबको प्रदान करते हैं। वेद में समाज और समत्व की परिव्याप्ति है। वहाँ व्यक्तिगत उन्नति, यहाँ तक कि आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग भी सामाजिक और नैतिक मूल्यों की उपलबधि से होकर जाता है। व्यक्ति सामाजिक दायित्वों को पूरा करते हुए ही अपनी आत्मा के विकास में प्रवृत्त हो सकता है। इसी प्रकार वैदिक कर्मवाद शुद्धकर्म की प्रेरणा और कर्म के सत् और असत् विचार पर प्रतिष्ठित है। मनुष्य की मुक्ति सत्कर्मों पर निर्भर है। कर्मों का परिणाम भोगना ही है, जन्मान्तर तक कर्म के इस बन्धन में जीव को रहना पड़ता है। आगे चलकर कर्म-फल का भावी-भवितव्यता आदि में पर्यवसान पुराणपंथियों के कारण हुआ। मध्ययुग में कर्म का बन्धन ढीला पड़ गया। ईश्वर के कृपालु, भक्तवत्सल होने का अर्थ लगाया गया कि पापी से पापी व्यक्ति ईश्वर की शरण में चले जाने पर अपने कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह समाज की व्यवस्था और ईश्वरीय विधान की दृष्टि से घातक परिकल्पना है।

दयानन्द ने मध्ययुग के व्यक्तिपरक धर्म, दर्शन, साधना तथा अध्यात्म को पुनः वैदिक समाजपरक आधार पर प्रतिष्ठित किया। मध्ययुगीन अद्वैत तथा अद्वैत आधारित दर्शनों को अस्वीकार कर उन्होंने वैदिक द्वैतवाद की स्थापना की। एक परम ब्रह्म परमेश्वर सर्वत्र व्याप्त, शाश्वत, अनादि, अनन्त सत्यस्वरूप है। वह समस्त मानवीय गुणों का, परम मूल्यों का चरमस्थल है- दया, न्याय और करुणा आदि का । वह हम जीवों का परमपिता है और पालन-पोषण-संरक्षण करने वाला है। वस्तुतः इस प्रकार की अवधारणा में व्यक्ति और समाज के सबन्धों का सुन्दर स्वरूप सुरक्षित है। इसी कारण दयानन्द ने ज्ञान और भक्ति के सूक्ष्म चिन्तन और अनुभव के स्तर पर विकसित होने वाले आत्मा तथा ब्रह्म के अद्वैतपरक भेदाभेद को महत्त्व नहीं दिया, वरन् उसे अस्वीकार किया है, क्योंकि इस प्रकार का दार्शनिक चिन्तन जिस प्रकार की आध्यात्मिक साधना को प्रेरित करता है, वह व्यक्ति सापेक्ष और समाज निरपेक्ष है। जैसा उल्लेख किया गया है, दयानन्द का दृष्टिकोण भारतीय समाज को स्वस्थ और सन्तुलित आधार प्रदान करना था। उनके मन में ऐसे समाज की परिकल्पना थी जो शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक क्षमता, बौद्धिक विवेक, नैतिक दायित्व भावना व सामाजिक समत्व भाव से समपन्न हो, इसीलिए उन्होंने मध्ययुगीन धर्म, साधना, दर्शन, समाजनीति, राजनीति तथा अर्थनीति का डटकर विरोध किया है। वे हर प्रकार की सामाजिक, धार्मिक तथा वैयक्तिक एकांगिता के विरोधी थे। पौराणिकों ने आध्यात्मिकता के नाम पर समस्त भारतीय समाज में भावावेश पूर्णभक्ति, रहस्यमयी साधनाओं और जड़ मूर्ति पूजा का प्रचार किया था। समाज, जाति तथा राष्ट्र के राम तथा कृष्ण जैसे महान् नेताओं को अवतार मान कर उनके चारों ओर भक्ति और लीला का ऐसा वातावरण बनाया गया था, जो व्यक्ति को व्यापक सामाजिक मूल्यों तथा दायित्वों के प्रति निरपेक्ष बनाता है। दयानन्द ने इस मध्ययुगीन वातावरण को छिन्न-भिन्न करके भारतीय जीवन को नयी प्राण-शक्ति और प्रेरणा प्रदान करने का अथक प्रयत्न किया।

स्वामी दयानन्द क्रान्तिकारी द्रष्टा थे। वे समन्वयवादी समाज-सुधारक नहीं थे। पुनरुत्थान काल के अन्य सभी नेताओं ने समन्वय का सहारा लिया है। उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशेषता मानी है कि वह समन्वयशील है। इस दृष्टि से उन्होंने समपूर्ण भारतीय परमपरा को स्वीकार कर अपना समर्थन दिया है। ज्ञान से भक्ति का समन्वय, इनसे कर्मका समन्वय, वेदों से पुराणों तक का समन्वय, सभी विचार-धाराओं का समन्वय, सभी धर्मों का समन्वय, सभी सांस्कृतिक परमपराओं का समन्वय, और अन्ततः पूर्व से पश्चिम का समन्वय…. इस अध्यवसाय में उनका अधिकांश श्रम लगा। उनका विचार था कि इस प्रकार हम भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रख सकेंगे और पश्चिमी संस्कृति के आधार पर आधुनिक युग में विकास करने का मौका भी पा सकेंगे। परन्तु दयानन्द की क्रान्तिकारी दृष्टि में यह समन्वय सत्य को लेकर समझौता करने की मनोवृत्ति का परिचायक है और इस मनोवृत्ति से कोई भी समाज न गतिशील हो सकता है और न सर्जनात्मक ही। समन्वय यदि समझौता है, दो विचारों, मूल्यों अथवा परमपराओं की मिलावट है, तो वह हेय ही नहीं, किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र की व्यक्तित्वहीनता का परिचायक भी है। दो विचार, दो मत अथवा दो संस्कृतियाँ एक-दूसरे के लिए चुनौती रूप में उपस्थित होती हैं और इन चुनौतियों को स्वीकार करने की प्रक्रिया में उनमें नया संस्कार आता है, नई गति आती है और अन्ततः उनका नया सर्जनात्मक रूप व्यक्त होता है। यह एक स्वस्थ प्रक्रिया है। दयानन्द ने इसी स्तर पर और इसी रूप में चुनौतियों को स्वीकार किया है। निश्चय ही वेद उनके लिए आश्रय-स्थल रहे हैं, पर वेद के सत्य-ज्ञान की समस्त परिकल्पना उन्होंने भारतीय समाज की पुनर्रचना और गत्यात्मक क्षमता की दृष्टि से ही स्वीकार की।

उन्होंने स्पष्टतः अनुभव किया कि जब तक मध्ययुगीन मूल्यों, स्थापनाओं, मान्यताओं, जीवन-पद्धतियों और परमपराओं का खुला विरोध नहीं किया जायगा और भारतीय समाज को इनकी कुंठाओं, जड़ताओं और स्वार्थपरताओं से पूर्णतःमुक्त नहीं किया जायगा, इस समाज के पुनर्जीवित होने और फिर से मौलिक सर्जनशीलता से गतिशील होने का कोई अवसर नहीं है। इसी कारण उन्होंने इन सब पर कसकर प्रहार किया है और इसमें उन्होंने कभी किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया। इस क्रान्तिकारी व्यक्तित्व ने अपने सत्य को लेकर किसी बड़ी से बड़ी शक्ति से भय, लोभ, आतंक वश कभी समझौता नहीं किया। उनका एक ही उत्तर था- असत्य से समझौता करके सत्य का प्रकाश करना कभी संभव नहीं है। वस्तुतः अपनी गहरी अन्तर्दृष्टि से उन्होंने समझ लिया था कि विजड़ित और कुंठित परमपरा से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है उसको तोड़कर फेंक देना। स्वामी दयानन्द यह भी समझते थे कि कोई भी प्राचीन संस्कृति की परमपरा से जुड़ा हुआ समाज अपने अन्तर्वर्ती ऐतिहासिक-सांस्कृतिक व्यक्तित्व से नितान्त विच्छिन्न होकर गतिशील नहीं हो सकता, वह नये मूल्यों की उपबलधि में सक्षम नहीं हो सकता। इस दृष्टि से उन्होंने नई समाज-रचना के लिए, नये मानस के संघटन के लिए और नई सर्जन-क्षमता से सक्रिय होने के लिए भारतीय व्यक्तित्व को वैदिक संस्कृति के आधार पर प्रतिष्ठित किया है। कुछ आधुनिकतावादी इसको प्राचीन के प्रति उन्मुखता मानते हैं, अथवा पीछे वापस जाना कहते हैं, परन्तु दयानन्द की क्रान्तिकारिता को देखते हुए यह कहना गलत है। उन्होंने वेदों के प्रामाण्य का आधार विवेक संगत ही ग्रहण किया है। वेद उनके लिए अपौरुषेय तथा परमसत्य-ज्ञान के स्रोत इसलिए नहीं है कि यह मात्र आस्था का विषय है, वरन् परम सत्य को विवेक ज्ञान तथा आत्मसाक्षात्कार के स्तर पर ग्रहण किया जा सकता है। वेदों के स्वतःप्रमाण होने का भी यही अर्थ माना गया है कि उनमें जिस सत्य ज्ञान की अभिव्यक्ति है, वह सहज ही सबके लिए समान रूप से ग्राह्य है, वह सार्वभौम और सार्वकालिक है, उसके बारे में युग की मर्यादा के महत्त्व अथवा समाज की सापेक्षता के बन्धन की चर्चा नहीं की जा सकती।

ध्यान देने की बात है कि वैदिक संस्कृति की व्याखया के माध्यम से स्वामी दयानन्द ने जिन मानव मूल्यों की स्थापना की है, वे भारतीय समाज की आधुनिक प्रगति तथा रचना दृष्टि के अनुकूल हैं। ऐसा लग सकता है कि आधुनिक समाज-रचना और उसकी प्रगति की समस्त दिशाओं तथा समभावनाओं को निरूपित, व्याखयायित तथा प्रतिष्ठित करने वाले मूल्यों को वेदों में ढूँढ़ने का प्रयत्न अतिवाद है। फैशनपरस्त आधुनिकतावादी दयानन्द पर इस प्रकार का आक्षेप लगाते रहे हैं कि उन्होंने वेदों में आज के वैज्ञानिक आविष्कारों को खोज निकालने की चेष्टा की है। यह इसी प्रकार का आक्षेप है, जैसे तथाकथित विज्ञानवादी गाँधी पर आरोप लगाते हैं कि वे बेलगाड़ी के पक्षधर थे। वस्तुतः दयानन्द ने सदा इस बात पर बल दिया है कि वेदों का दृष्टिकोण सत्य के वैज्ञानिक अन्वेषण का रहा है। वेद-काल के मनीषियों ने भौतिक जीवन की उपेक्षा करके आध्यात्मिक जीवन के विकास पर कभी बल नहीं दिया था। उन्होंने भौतिक जीवन के सत्यों के अनुसन्धान में वैसी ही प्रवृत्ति दिखाई है, जैसी आत्मिक सत्यों के आत्मानुभव के स्तरों की खोज की। सत्य का यह समस्त अनुसन्धान ज्ञान के प्रत्यक्ष अनुभव, विवेकशील चिन्तन और आत्म साक्षात्कार के आधार पर हुआ है, अतः वे इसे वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं। प्रत्यक्ष जीवन के अनुभवों के आधार पर ज्ञान की खोज में प्रवृत्त होने के कारण इन मनीषियों ने अनेक भौतिक सत्यों की खोज भी की थी। परन्तु जहाँ तक आधुनिक विज्ञान का प्रश्न है, स्वामी दयानन्द का ध्यान उसकी ओर गया था और वे बहुत चाहते थे कि जर्मनी जाकर हमारे विद्यार्थी इस आधुनिक विज्ञान का समुचित अध्ययन करें और वापस आकर उसका प्रचार अपने देश में करें। उनके अनुसार इस आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में बिना अधिकार प्राप्त किये कोई देश या समाज आज उन्नति नहीं कर सकता।

शेष भाग अगले अंक में…..

यह देशद्रोह है

यह देशद्रोह है

‘पाकिस्तान जिन्दाबाद, भारत के सौ टुकड़े करेंगे, किस में रहोगे? कितने अफजल मारोगे ? घर-घर से अफजल निकलेगा। भारत की बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी। कश्मीर की आजादी लेकर रहेंगे, केरल की आजादी लेकर रहेंगे, बंगाल की आजादी लेकर रहेंगे! अफजल, हम शर्मिन्दा हैं तेरे कातिल जिन्दा हैं।’ ये शबद पाकिस्तान के किसी नगर से सुनाई पड़ते तो भी हमें उत्तेजित करने के लिये पर्याप्त होते। पाकिस्तान को कोसते, शत्रु को दण्ड देने की घोषणा करते, परन्तु ये शबद 9 फरवरी 2016 को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में गूँजे। विश्वविद्यालय के छात्रों ने ये नारे लगाये। एक बार नहीं, अनेक बार, इसी बात को दूरदर्शन पर कहा गया। अफजल गुरु की सजा को न्यायिक हत्या बताया गया। सर्वोच्च न्यायालय तथा संविधान की निन्दा की गई। कोई देश अपने नागरिकों द्वारा इस प्रकार के कार्य करने की कल्पना कर सकता है? यह है भारत की सहिष्णुता। इस सबको देख कर लगता है कि इन लोगों को इस देश में रहना बड़ा दुःखद लग रहा है।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली, प्रारमभ से ही अराष्ट्रीय गतिविधियों का गढ़ रहा है। उसके अन्दर देशद्रोह से लेकर नंगेपन तक सब प्रगतिशीलता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अन्दर आ जाता है। इस विश्वविद्यालय की नींव भारत विरोध पर रखी गई है। जब यह विश्वविद्यालय बना, तब सब विभाग खुले, परन्तु संस्कृत विभाग नहीं खोला गया। भाजपा के शिक्षा मन्त्री मुरली-मनोहर जोशी ने जब इस विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग खोला, तो यहाँ के लोगों ने हड़ताल, धरने कर आन्दोलन चलाया और उसको रोकने का प्रयास किया, परन्तु केन्द्र सरकार ने विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग खोल दिया।

पिछले दिनों गोमांस के भोज का भी इस विश्वविद्यालय में आयोजन किया गया था, जिसे विद्यार्थी परिषद् और हिन्दू संगठनों के विरोध के चलते नहीं होने दिया गया। जितने देश व समाज विरोधी कार्य इस विश्वविद्यालय में होते हैं, वे सब प्रगति और स्वतन्त्रता के नाम पर किये जाते हैं। अभी तक इन गतिविधियों को प्रकाश में नहीं लाया गया, इसी कारण इस पर कार्यवाही नहीं हो पाई । सरकार भी इनकी समर्थक थी। विश्वविद्यालय के अधिकारी, असामाजिक और अराष्ट्रीय विचारों को प्रश्रय देनेवाले रहे हैं। आज भी विश्वविद्यालय के अध्यापकों की ओर से जो वक्तव्य प्रसारित हुआ, यह उसी परमपरा का उदाहरण है। संदीप पात्रा ने जी न्यूज पर कहा था कि वहाँ इन अराष्ट्रीय और असामाजिक गतिविधियों का विरोध करने पर ऐसे छात्रों और अध्यापकों को दण्डित किया जाता था, उनको अपमानित करके विश्वविद्यालय से निकाल दिया जाता था।

आज जी न्यूज ने जब इस घटना को देश के सामने उजागर किया तो सारे देश में आक्रोश फैल गया। कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो अपने ही देश में अपने लोगों द्वारा शत्रुता से भी अधिक घृणित व्यवहार करे और अपने कार्य को अपना अधिकार बताये? जो लोग इस देश के पैसे से पढ़ रहे हैं, वे इस देश से द्रोह करने को अपनी अभिव्यक्ति का अधिकार बता रहे हैं। किसी भी देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है? यदि चीन में इस प्रकार की घटना घटी होती तो यह ख्येनआङ्मन चौक बन गया होता। इस घटना का दूसरा पक्ष इससे भी निन्दनीय है- सामयवादी, कांग्रेस और दूसरे राजनैतिक दल निर्लज्जता पूर्वक इन छात्रों का समर्थन कर रहे हैं। ऐसा करने वाले लोग बाहर के थे, ऐसा बहाना बना रहे हैं। इस घटना को एक सामान्य घटना कह कर अनदेखी करना चाहते हैं, तो ये लोग अभिव्यक्ति के नाम पर इसको ठीक सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं।

छात्रों द्वारा किया गया यह कार्य देशद्रोह के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जो इनके समर्थक हैं, वे भी सब देशद्रोही हैं। जो किसी भी प्रकार से देशद्रोह का समर्थन करता है, वह भी निश्चित रूप से देशद्रोही है। इस घटना का देश के सामने आना इसलिये संभव हो सका, क्योंकि वह सब कैमरों में कैद है। जब न्यायालय में छात्राध्यक्ष से उसके कृत्य के बारे में स्पष्टीकरण माँगा गया तो वह कहने लगा कि मैंने ऐसा कुछ नहीं किया, बाहर के लोगों ने किया होगा। जब उसे कैमरे में नारे लगाते हुए दिखाया गया तो उसका उत्तर था कि विद्यार्थी परिषद् के लोगों ने विरोध करके वातावरण को बिगाड़ा है। क्या तर्क है! चोर को चोरी करते रोकना वातावरण बिगाड़ना होता है। इस घटना को कैमरे में देखकर भी बेशर्म नेता कह रहे हैं कि अभी पता नहीं है कि किसने ये नारे लगाये हैं, तब तक कार्यवाही करना उचित नहीं। राजनेता आज भी कह रहे हैं कि परिसर में पुलिस को नहीं जाना चाहिये। वहाँ पाकिस्तान समर्थक रह सकते हैं या पाकिस्तानी जासूस रह सकते हैं और इस देश की रक्षा में लगी पुलिस विश्वविद्यालय परिसर में नहीं जा सकती। क्या देशभक्ति है इन लोगों की!

इस अवसर पर हम एक बात भूल रहे हैं। यह घटना पहली नहीं, यह कार्य शृंखलाबद्ध रूप से किया जा रहा है। यही कार्य हैदराबाद विश्वविद्यालय में इसी प्रकार हुआ था, परन्तु उसकी कैमरा प्रति नहीं थी, इस कारण उस घटना को दलितवर्ग से जोड़कर शोर मचाया गया। वहाँ भी यही सबकुछ हुआ था, जो दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हो रहा है। हैदराबाद विश्वविद्यालय में इसी प्रकार तीन सौ से अधिक लोगों ने इकट्ठे होकर  याकूब मेमन की फाँसी की सजा का विरोध किया था। वहाँ छाती पीटकर रोया गया। याकूब मेमन की आत्मा की शान्ति की प्रार्थना की गई। वहाँ पर भी एक याकूब की जगह घर-घर याकूब पैदा होने की बात की गई थी। जब विद्यार्थी परिषद् के एक छात्र ने इन कार्यक्रमों का विरोध किया, उसने फेसबुक पर इस कार्य की निन्दा की, इसे गलत बताया, तब याकूब समर्थकों ने तीस से अधिक संखया में इकट्ठे होकर आधी रात को उस युवक के कमरे पर जाकर उसे पीटा और इतना पीटा कि अधमरा कर दिया। उस छात्र को दरवाजे पर लाकर उससे बलपूर्वक क्षमा याचना लिखवाई और जो उसने लिखा था, उसी से उस लेख को हटवाया गया। क्या यह सहिष्णुता है? क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है? क्या यह सामाजिक न्याय है? आप गलत भी करें तो वह अभिव्यक्ति की आजादी है और दूसरा विरोध करे तो आप उसे जान से मार देंगे? विश्वविद्यालय की इस घटना से दुःखी होकर छात्र की माँ ने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया तो हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने हड़ताल कर दी, इसी बीच रोहित ने आत्महत्या कर ली। बस, राजनेताओें और देशद्रोही लोगों ने उसे मोदी सरकार के विरुद्ध दलितों पर अत्याचार का मुद्दा बना दिया। राहुल गाँधी और केजरीवाल जैसे लोग सहानुभूति दिखाने दौड़े चले गये, आज तक चीख-चिल्ला रहे हैं। वास्तविक घटना पर ध्यान नहीं देना चाहते और कोई राहुल-केजरीवाल विश्वविद्यालय में छात्रों को समझाने नहीं गया। उनके कार्यों की किसी ने निन्दा नहीं की।

दिल्ली की घटना हैदराबाद की घटना की अगली कड़ी है। वहाँ की घटनाओं को रोकने के लिये ही छात्र ने केन्द्र सरकार को लिखा था। केन्द्र सरकार का कार्य नितान्त उचित व देश और समाज के हित में था, परन्तु भारत तो जयचन्दों का देश है। आज कांग्रेस और पूरा विपक्ष केवल एक कार्य में लगा है। वह हर कार्य को, घटना को मोदी-विरोध के रूप में काम में लाना चाहता है। दिल्ली में ही दूसरी घटना घटी। अफजल गुरु और मेमन के चित्र के पत्रक छाप कर उनकी फाँसी की निन्दा की गई। इस कार्य को बुद्धिजीवियों के प्रमुख स्थान प्रेस क्लब ऑफ इण्डिया में किया गया । इस सममेलन के आयोजन में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक भी समिलित हैं। क्या सरकारी स्थानों पर देशद्रोह के कार्यों को सार्वजनिक रूप से किसी देश में करने की कोई कल्पना कर सकता है?

यहाँ ऐसा क्यों हो सकता है? क्योंकि हमारी सरकार में शत्रु देश के समर्थक लोग रहते रहे हैं। नेहरू से सोनिया तक की सरकारों का इस देश की संस्कृति का विरोध और नाश करना ही उद्देश्य रहा, इस कारण इस देश की जनता में देश और संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जन्म नहीं ले सका। हमारी नई पीढ़ी में हमारी बातों को पुराना, पिछड़ा और दकियानूसी मानने की परमपरा बन गई है। यहाँ की संस्कृति, भाषा और सभयता को नष्ट करने के लिये विदेशी आचार-विचार को आदर्श बनाकर प्रस्तुत किया गया, जिसका जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय उदाहरण है। इसी कारण देश में देश-विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा मिला। राजनीति में सत्ता के लालच में तुष्टीकरण का उपयोग इतना हुआ कि देश-विरोधी कार्यों को अनदेखा किया गया। आज की घटना उसी का परिणाम है। आज जो कुछ हुआ और उसकी प्रतिक्रिया में जो हो रहा है, वह केवल जागरूकता के कारण हो रहा है। विश्वविद्यालय में छात्र परिषद के द्वारा विरोध किया जाना तथा जी न्यूज द्वारा इसको दृढ़ता पूर्वक उजागर करना, जिसके चलते समाज में चेतना आ गई और देशद्रोहियों पर न्यायालय की कार्यवाही संभव  हो पाई । देशद्रोह में लिप्त लोग कोई बलवान नहीं हैं। वे तो कार्यवाही प्रारमभ होते ही छिपने के लिये भाग गये, अभी तक तो केवल एक ही पकड़ में आया है, जैसे ही दस-बीस पर न्यायालय की कार्यवाही होगी, ये सब छिपते दिखाई देंगे।

जनता में कोई पाकिस्तान जिन्दाबाद कहे, अफजल गुरु जिन्दाबाद कहे, इनके चित्र लगाये, इनका गुणगान करे, वह देशद्रोही है। कोई पाकिस्तान जिन्दाबाद कहता है या खालिस्तान जिन्दाबाद का नारा लगाता है, भिण्डराँवाले का चित्र लगाता है, भिण्डराँवाला जिन्दाबाद का नारा लगाता है, ये सब देशद्रोही हैं। इनकी सहायता करने वाले, इनका समर्थन करने वाले, सभी देशद्रोही हैं- चाहे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी हो या आप पार्टी के अरविन्द केजरीवाल हो, अथवा कयूनिस्ट नेता सीताराम येचूरी व डी. राजा। देशद्रोह का अपराध किसी भी परिस्थिति में क्षमय नहीं है। इनको योग्य दण्ड दिया गया तो आगे इस प्रकार की गतिविधियों पर अंकुश लग सकता है। सरकार के साथ-साथ समाज को भी आज की तरह जागरूक होना चाहिए। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली के वे छात्र जिन्होंने देशद्रोहियों का विरोध किया तथा जी न्यूज बधाई के पात्र हैं।

शास्त्र देशद्रोहियों को कठोर दण्ड देने का आदेश देता है-

यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहाः।

प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत् साधुपश्यति।।

– धर्मवीर

वैदिक धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वाले अन्य मतों के अनुयायी

ओ३म्

वैदिक धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वाले अन्य मतों के अनुयायी

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द पौराणिक माता-पिता की सन्तान थे जिन्होंने सत्य की खोज की और जो सत्य उन्हें प्राप्त हुआ उसे अपनाकर उन्होंने  अपनी पूर्व मिथ्या आस्थाओं व सिद्धान्तों का त्याग किया। सत्य ही एकमात्र मनुष्य जाति की उन्नति का कारण होता है, अतः उन्होंने सत्य को न केवल अपने जीवन में स्थान दिया अपितु अपने गुरू विरजानन्द सरस्वती व ईश्वर की प्ररेणा से उसका दिग-दिगन्त प्रचार भी किया। महर्षि दयानन्द ने चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की जिसका उद्देश्य सत्य सनातन वैदिक धर्म का प्रचार व प्रसार करना था। इस सत्य सनातन वैदिक धर्म की प्रमुख विशेषता यह है कि यह सत्य को स्वीकार करता था और असत्य का खण्डन करता था जिसकी प्रेरणा ईश्वरीय ज्ञान वेद व प्राकृतिक नियमों सहित मनुष्यों को अपनी आत्मा से मिलती है। महर्षि दयानन्द के ज्ञान से पूर्ण विचारों, उपदेशों व सत्य सिद्धान्तों को अनेक लोगों ने सुना, समझा, जाना व पढ़ा और शुद्ध व पवित्र ज्ञानयुक्त बुद्धिवाले लोग आर्यसमाज के अनुयायी बनने लगे। एक बहुत बड़ी संख्या उनके जीवनकाल में उनके अनुयायिययों की हो गई थी। यह संख्या निरन्तर बढ़ती रही। आर्यसमाज द्वारा प्रचारित वैदिक धर्म को अपनाने वाले न केवल पौराणिक हिन्दू ही होते थे अपितु अन्य मतों के अनुयायी भी होते थे जो आर्यसमाज के सत्य सिद्धान्तों और उनके मानवजाति के लिए कल्याणप्रद होने के कारण उसे अपनाते थे। आज के लेख में हम एक सिख बन्धु सरदार सुचेतसिंह जी का परिचय दे रहे हैं जिन्होंने मनवचनकर्म से आर्यसमाज को अपनाया। एक अन्य श्री हाजी अल्लाह रखीया रहमतुल्ला जी, मुम्बई मुस्लिम बन्धु हैं जिन्होंने अपने मत में रहकर भी आर्यसमाज के सत्य सिद्धान्तों के प्रति सच्ची श्रद्धा निष्ठा का प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत किया, उनका परिचय भी लेख में प्रस्तुत है। यह दोनों सत्य घटनायें वा जीवन-परिचय सिख मत में जन्में और आर्यसमाज के निष्ठावान अनुयायी बने स्वामी स्वतन्त्रानन्द द्वारा लिखित हैं जिनका संकलन इतिहासदर्पण नामक पुस्तक में आर्यसमाज के विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने प्रकाशित किया है।

 

सरदार सुचेतसिंह जी का यह परिचय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने सन् 1942 ई. में लिखा था। सरदार सुचेतसिंह जी जिला गुरदासपुर में छीना ग्राम के निवासी थे। इस ग्राम में प्रधानता जाटों की है और उनका गोत्र छीना है। इसी कारण ग्राम का नाम भी छीना है। आप नम्बरदार, जैलदार, डिस्ट्रक्ट बोर्ड के सदस्य व आनरेरी मजिस्ट्रेट के पद पर रहे, अतः जिले में प्रख्यात थे। इस जिले में सरदार विशनसिंहजी रईस भागोवाल आरम्भ समय के आर्यसमाजियों में से थे। उनके संग से ही आप आर्यसमाजी बने थे। आप गुरदासपुर जिले के वेद प्रचार मण्डल के अध्यक्ष थे। आपकी रूचि वेदप्रचार में अधिक थी। आप प्रायः आर्यसमाज के उत्सवों में सम्मिलित हुआ करते थे। आप आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के भी सदस्य थे। आपके सन्तान नहीं थी। पत्नी का देहान्त होने पर आपने दूसरा विवाह भी नहीं किया था। आपके एक भ्राता थे, जिनका स्वर्गवास हो गया था। गृहकृत्य उनकी भावज ही संभालती थी। उसके भी कोई सन्तान न थी।

 

सम्बन्धियों ने श्री सुचेतसिंहजी की सम्पत्ति के लोभ से उनको मार दिया, परन्तु पुलिस ने परिश्रम करके पूरा-पूरा पता लगा किया। उनके मारे जाने पर उनकी भावज भी अपने भाई के पास चली गई, वहां जाते समय वह सम्पत्ति भी अपने साथ ले-गई। उस सम्पत्ति में श्री सुचेतसिंहजी के कागज पत्रादि भी थे। उनके पत्रों में एक पत्र उनके हाथ का लिखा मिला जो उनकी इच्छा को प्रकट करता था। उनकी भावज और भावज के भाई अनपढ़ थे। उन्होंने वे कागज एक व्यक्ति को दिखाये ताकि पता हो उनमें क्या लिखा है? उस व्यक्ति ने जब कागज पढ़े, उसे वह कागज भी मिला जिसमें उनकी इच्छा लिखी थी। उसने आकर आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब में सूचना दी। सभा ने वह पत्र प्राप्त कर लिया और जब देखा तो उसमें लिखा था कि मेरी सब चल तथा अचल सम्मत्ति आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब को मिले और वह उसकी आय से जिले में वेदप्रचार करे और दो व्यक्तियों को जो उसकी सेवा किया करते थे पांच पांच रूपये प्रमिास उनके जीवनपर्यन्त दिये जाएं।

 

सरदार सुचेतसिंह जी की भूमि का श्री सरफजल हुसैन जी 80 सहस्र देते थे। श्री सरफजल हुसैन पंजाब के एक प्रख्यात राजनेता थे और मन्त्री भी रहे। वह छीना के पास बटाला के निवासी थे। उस समय के हिसाब से वर्तमान में यह घनराशि 1 व 2 करोड़ रूपये लगभग सकती है। सरदार सुचेतसिह जी उस समय उनसे 1 लाख रूपये मांगते थे। इस प्रकार एक लाख या 80 हजार की सम्पत्ति सरदार सुचेतसिंह जी आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब को वेदप्रचार के लिए लिखकर दे गये। तब उस भूमि आदि सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए सभा ने न्यायालय की शरण ली थी। सरदारजी का एक बाग छीना-स्टेशन के साथ ही है जो जिले में अच्छे बागों में समझा जाता था। छीना अमृतसर से पठानकोट को जाते समय बटाला और धारीवाल के बीच का स्टेशन है। इस पर टिप्पणी करते हुए आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि गुरदासपुर जिला आमों के बागों के लिए विख्यात रहा है। यह बाग उन्होंने भी देखा है। वह वहां सरदारजी की स्मृति में बसन्त मेले पर प्रचारार्थ जाया करते थे। उनके अनुसार सभा ने वहां की भूमि वा बाग, सब कुछ, बेच दिया है। उनके अनुसार प्रचार में सभाओं की रुचि नहीं है। ऐसी ही स्थिति हमने अपने नगर में भी देखी है। पुराने समय में लोग आर्यसमाजों को अपनी बड़ी-बड़ी सम्पत्तियां दान देते थे। सामान्य सदस्य इन कार्यों में रूचि नहीं लेते और चतुर अधिकारी इसका विवरण वार्षिक आयव्यय में भी प्रकाशित नहीं करते। यह सम्पत्तियां कब किसको किस मूल्य पर बेच दी जाती है, सदस्यों को पता ही नहीं चलता। इनकी सूचना सम्पत्तियों की स्वामिनी प्रादेशिक सभा को भी नहीं दी जाती। इससे प्राप्त धन का भी किसी को पता नहीं होता। ऐसी अनेक आशंकायें स्थानीय स्तर पर हमें भी हैं।

 

इस प्रकार सुचेतसिंह जी अपनी सारी सम्पत्ति आर्यप्रतिनिधिसभा को दे गये और जीवनभर आर्यसमाज के प्रचार में भाग लेते रहे। साधारण रीति से पंजाब में ग्रामों में प्रचार अम्बाला कमिश्नरी में ही अधिक है। शेष पंजाब के ग्रामों में प्रचार की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है और यदि प्रचार किया जाए तो प्रत्येक जिले में सफलता प्राप्त हो सकती है। परन्तु सफलता उसी समय होगी जब दयानन्द के प्रचारक दयानन्द के चरणचिन्हों पर चलकर काम करें अथवा सरदार सुचेतसिंहजी जैसे वेदप्रचार के प्रेमी हों जो अपना समय और सम्पत्ति वेदप्रचार पर निछावर करनेवाले हों। इन पंक्तियों का लेखक सरदार सुचेतसिंह जी की ईश्वर-वेद-दयानन्द जी की भक्ति पर मुग्ध है और उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

 

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी द्वारा लिखित श्री हाजी अल्लाह रखीया रहमतुल्लाजी मुम्बई का परिचय भी प्रस्तुत है। श्री हाजी साहिब कच्छ (गुजरात) के रहनेवाले थे और मुम्बई में सोने का व्यापार किया करते थे। आप धार्मिक दृष्टि से आर्यसमाजी थे और सर्वदा कहा करते थे कि संसार में धर्म तो वैदिक धर्म ही है। वे आर्यसमाज के सत्संग में नियमपूर्वक आया करते थे। वे आर्यसमाज के सिद्धान्तों से पूर्णतया परिचित थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को श्री नन्दकिशोर चैबे ने बतलाया था कि एक बार एक स्नातक ने कहा ‘‘किसी को कुछ पूछना हो तो पूछ ले। तब हाजी जी ने एक प्रश्न किया। स्नातकजी ने उसका उत्तर दिया। तब आपने कहा कि यह उत्तर ठीक नहीं है। स्नातकजी ने कहा, ‘‘ठीक है। हाजीजी ने सत्यार्थप्रकाश मंगवाया और दिखाया कि जो कुछ वह कहते है, वही ठीक है। पुस्तक में उनका मत देखकर आर्यसमाजी लज्जित हुए। हाजीजी ने कहा, ‘‘आपने तप किया है। जंगल में रहे हैं और गुरुओं के पास रहे हैं, परन्तु आपने ऋषि दयानन्द लिखित वैदिक सिद्धान्तों का परिचय प्राप्त नहीं किया।

 

आप सर्वदा विद्यार्थियों को पुस्तकें और छात्रवृत्ति दिया करते थे। निर्धनों की सहायता किया करते थे। कोई कहता था कि आप शुद्ध क्यों नहीं होते तो आप उत्तर दिया करते थे, ‘‘मैं अशुद्ध नहीं हूं। आप आर्यसमाज में कई बार अपने पुत्रों को भी साथ लाया करते थे। आपने मरते समय पुत्रों को धन देकर लाखों का ट्रस्ट बनाया जिससे छात्रों की सहायता और रोगियों की चिकित्सा की जाये। आर्यसमाज ने जब मन्दिर के पिछले भाग में मकान बनवाया और वह बनकर तैयार हो गया तब श्री विजयशंकरजी, प्रधान ने साप्ताहिक सत्संग में कहा कि इस मकान के बनवाने में आर्यसमाज पर ऋण हो गया है। अब अन्य कार्यों के साथसाथ आर्यसमाज को यह ऋण भी उतारना होगा। आपने उठकर पूछा कि आर्यसमाज पर कितना ऋण है तो प्रधानजी ने कहा पांच सहस्र रूपये (रूपये 5,000.00) है।  आपने कहा, ‘‘मेरी दुकान से आकर लेलो। वे गये। आपने प्रधानजी को 5,000.00 का चैक दे दिया। उस मकान पर जो शिला लगाई गई है, जिस पर दानियों के नाम हैं, उनमें सबसे प्रथम हाजी जी का ही नाम है। आपके नाम से प्रत्येक व्यक्ति उनको वैदिक धर्मी नहीं समझेगा, परन्तु हाजी अल्लाह रखिया रहमतुल्ला जी उतने ही वैदिक धर्मी थे जितना कि कोई वैदिक धर्मी हो सकता है।

 

हमने इतिहासदर्पण पुस्तक से मात्र दो परिचय प्रस्तुत किये हैं। पुस्तक में ऐसे 56 प्रेरणादायक परिचय दिये गये हैं। हम इतना ही कह सकते हैं कि यह पुस्तक पठनीय एवं अति उपयोगी है। इसका अध्ययन कर हमें भी जीवन में किसी अच्छे कार्य को करने की प्रेरणा मिल सकती है। यदि इसे पढ़कर कोई व्यक्ति जीवन में बुरा काम न करने का भी व्रत ले ले, तो भी उसका कल्याण ही होगा। इन्हीं शब्दों के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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स्वामी स्वतन्त्रानन्द महर्षि दयानन्द के एक प्रमुख योग्यतम शिष्य

ओ३म्

स्वामी स्वतन्त्रानन्द महर्षि दयानन्द के एक प्रमुख योग्यतम शिष्य

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज आर्यसमाज के अनूठे संन्यासी थे। आपने अमृतसर के निकट सन् 1937 में दयानन्द मठ दीनानगर की स्थापना की और वेदों का दिगदिगन्त प्रचार कर स्वयं को इतिहास में अमर कर दिया। आपके बाद आपके प्रमुख शिष्य स्वामी सर्वानन्द सरस्वती इसी मठ के संचालक व प्रेरक रहे। आपके जीवन पर स्वामी सर्वानन्द जी ने एक लेख के माध्यम से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी दी है। उसी को हमने आज के इस लेख की विषय वस्तु बनाया है। स्वामी सर्वानन्द जी लिखते हैं कि पूज्यपाद सन्त शिरोमणि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज इतिहास के एक जानेमाने विद्वान् थे। प्रो. राजेंद्र जिज्ञासु ने पूज्य स्वामी जी महाराज का जीवन-चरित लिखा है और इतिहास दर्पण नाम से स्वामी जी महाराज के प्रेरणाप्रद लेखों की खोज, संकलन व सम्पादन किया है। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज प्रतिवर्ष तीन बार दीनानगर मठ में कथा किया करते थे। सदा नई-नई घटनाएं और नये-नये उदहरण दिया करते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों में स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने हरियाणा का भ्रमण किया। हरियाणा सैनिक भरती का बहुत बड़ा क्षेत्र है। श्री स्वामीजी ने हरियाणा के जवानों को देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा दी थी। उनके देश-प्रम को उबारा। तब देश के अन्दर भारत छोड़ो आन्दोलन चल रहा था और देश से बाहर आजाद हिन्द सेना देश को गुलामी के बन्धन से मुक्त करने के लिए लड़ रही थी। श्री महाराज की इस ऐतिहासिक यात्रा में श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती व आचार्य भगवान्देव जी, परवर्ती नाम स्वामी ओमानन्दसरस्वती उनके साथ रहे। इनका कहना था कि स्वामी जी महाराज प्रतिदिन नया-नया इतिहास और नई-नई घटनाएं सुनाते थे।

 

विख्यात शिक्षाविद् विद्यामार्तण्ड आचार्य प्रियव्रतजी कहा करते थे कि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को आर्यसमाज के इतिहास की छोटी-बड़ी घटनाओं का जितना ज्ञान था उतना और किसी को नहीं। आश्चर्य इस बात पर होता था कि यह सारा ज्ञान उन्हें स्मरण वा कंठस्थ था। डायरी या नोट बुक देखने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ती थी। भारत के प्राचीन इतिहास की बातें भी स्वामीजी महाराज यदा-कदा सुनाया करते थे। एक बार प्रसिद्ध इतिहासकार श्री जयचन्द्र विद्यालंकार दीनानगर मठ, निकट अमृतसर में आये। आपने स्वामीजी महाराज से प्राचीन भारत के नगरों प्रदेशों के नाम पूंछें। स्वामीजी ने उनकी सारी समस्या का समाधान कर दिया और एतद्विषयक एक लेख भी पत्रों में प्रकाशित करवाया। पं. चमूपति जी आर्यजगत् के एक अद्भुत लेखक, कवि व विचारक थे। आपकी स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज के प्रति असीम श्रद्धा थी। आप लाहौर में स्वामीजी महाराज से इतिहास-विषय पर घण्टों चर्चा किया करते थे। आपने लिखा है कि स्वामीजी को इतिहास की खोज का चस्का है। स्वामीजी महाराज को विभिन्न प्रदेशों, वर्गों व जातियों के इतिहास व रीति-नीति का सूक्ष्म ज्ञान था।

 

किस मत की कौन-सी बात कैसे आरम्भ हुई, कौन-सा मत कैसे पैदा हुआ, उसने संसार का क्या व कितना हित-अहित किया, विश्व पर कितना प्रभाव छोड़ा, इन सब बातों की विस्तृत विवेचना स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी किया करते थे। श्रोता व पाठक स्वामी जी महाराज के गम्भीर ज्ञान को देख, सुन व पढ़कर आश्चर्य करते थे। सिख इतिहास के भी स्वामीजी मर्मज्ञ थे। सिखमत किन परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ, क्या कारण थे, सिखपंथ कैसे बढ़ा, इसने देश के लिए क्या किया, कहां भूल की–सिख गुरुओं का वास्तविक मन्तव्य क्या था, लोगों ने इसे कितना समझा और देश पर इसका क्या प्रभाव पड़ा, इन सब बातों का उन्हें गहरा व प्रामाणिक ज्ञान था। जानेमाने सिख विद्वान् प्रिंसिपल गंगासिंहजी की प्रार्थना पर आपने सिख मिशनरी कालेज में सिख इतिहास पर एक सप्ताह तक व्याख्यान दिये। व्याख्यानमाला की समाप्ति पर जब प्रिंसिपल गगासिंह जी ने प्रश्न पूछने को कहा तो सबने यह कहा कि हमें कोई शंका नहीं है। हमें स्वामीजी ने तृप्त कर दिया है। प्राचार्य जोधासिंह जी तो दयानन्द मठ, दीनानगर में आकर आपसे बहुत विषयों पर चर्चा किया करते थे। 

 

इतिहास की घटनाओं के कारणों व परिणामों को स्वामीजी महाराज बहुत अच्छे ढंग से समझाया करते थे। एक बार उदार विचार के एक मौलाना ने जो आर्य विद्वानों के सम्पर्क में थे, स्वामी जी के सामने कुछ शंकाएं रखीं। आपने मौलवीजी के सब प्रश्नों के उत्तर दिये। आपके विचार सुनकर उस मौलाना ने कहा इस्लाम-विषयक आपके गहरे ज्ञान से मैं बहुत प्रभावित हूं। मैंने ऐसी युक्तियुक्त प्रमाणिक बातें कभी नहीं सुनी। हमारे मौलवी इतनी गहराई में जाते ही नहीं।

 

स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी के इतिहास विषयक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इतिहास विषयक लेखों का एक संलकन इतिहास दर्पण नाम से सन् 1997 में प्रकाशित हुआ जिसका सम्पादन प्रसिद्ध विद्वान, लेखक, विचारक और इतिहासकार प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने किया है। स्वामी सर्वानन्द जी ने इस पुस्तक और प्रा. जिज्ञासु जी के परिचय में लिखा है कि आपने इस इतिहासदर्पण ग्रन्थ के लिए बहुत परिश्रम किया है। इस अद्भुत पुस्तक में विभिन्न समयों में लिखे गये स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के लेखों का संग्रह किया गया है। इस पुस्तक का पाठ करने से आर्यसमाज के इतिहास के सम्बन्ध में ऐसी-ऐसी बातों का ज्ञान होगा जो बातें लोगों ने कभी न सुनी हों और धर्म-कर्म के बारे में बहुत-सी शंकाओं का भी इतिहासदर्पण पुस्तक से समाधान होगा। श्री जिज्ञासु जी ने इन लेखों के लिए बहुत दूर-दूर के विद्वानों से सम्पर्क करने के साथ अनेक संस्थाओं एवं समाजों में जाकर खोज की है। स्वामी सर्वानन्द जी बताते हैं कि उन्हें बड़ा आश्चर्य होता है कि जो बातें धर्म और इतिहास के बारे में हमने कभी सुनी ही नहीं थी, वे बातें जिज्ञासु जी ने खोज निकाली हैं जो इतिहासदर्पण पुस्तक में संग्रहीत हैं।

 

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का संक्षिप्त परिचय भी जान लेते हैं। स्वामी जी का जन्म लुधियाना के मोही ग्राम में एक प्रतिष्ठित सिख जाट परिवार में पौष मास की पूर्णिमा को सन् 1877 में हुआ था। स्वामीजी के माता-पिता ने आपको केहर सिंह नाम दिया था। आपके पिता सेना में सूबेदार मेजर थे। माता समयकौर जब दिवंगत हुई तब केहरसिंह बहुत छोटी अवस्था के बालक थे। आपका पालन आपकी नानी माता महाकौर जी ने आपके ननिहाल लताला में बड़े लाड़-प्यार से किया। आपने स्कूली शिक्षा मिडल तक प्राप्त की। आपके ननिहाल में उदासीन साधुओं के डेरे से आपका सम्पर्क हुआ। उसके महन्त पं. विशनदास जी की प्रेरणा से आपने संस्कृत पढ़ी। फरीदकोट, ऋषिकेश अमृसर आदि नगरों में भी कई विद्वानों के पास अध्ययन किया। यूनानी व आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का भी आपने गहन अध्ययन किया था। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि कई बड़े-बड़े हकीमों ने दयानन्द मठ, दीनानगर में आपके चरणों में बैठकर आपसे यूनानी व आयुर्वेदिक चिकित्सा की शिक्षा प्राप्त की। सन् 1898 में आपने अपनी लाखों की सम्पत्ति पर लात मार कर महर्षि दयानन्द के वेद प्रचार मार्ग को अपनाया।  सन् 1901 में आपने परवरनड़ ग्राम में स्वामी पूर्णानन्द जी से संन्यासदीक्षा लेकर प्राणपुरी नाम पाया और कालान्तर में आप स्वामी स्वतन्त्रानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए। सन् 1901 में ही आपने दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों की धर्म प्रचारार्थ यात्रा की और इसका आरम्भ कलकत्ता के बन्दरगाह से जलपोत से किया। इस यात्रा में आपने मलयेशिया, फिलिपीन्स द्वीपसमूह, हिन्देशिया व चीन आदि कई देशों का भ्रमण कर वहां वेदों के अमृतमय ज्ञान की वर्षा की और सन् 1904 में स्वदेश लौटे। प्रा. जिज्ञासु जी ने स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के पूर्णरूपेण आर्यसमाज के प्रचार से जुड़ने पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि स्वामी जी भ्रमण करते हुए वैदिक धर्म का ही प्रचार करते थे, परन्तु भारत-भ्रमण से जब पंजाब लैटे तो पं. विशनदास जी ने आपको लताला बुलाकर आर्यसमाज के साथ जुड़कर धर्मप्रचार करने की आज्ञा दी। आपने इसे प्रवृत्ति का बखेड़ा कहकर ऐसा करने में संकोच दिखाया परन्तु पं. विशनदास जी का आदेश मानते हुए आर्यसमाज के साहित्य के विशेष अध्ययन में लग गए। आपकी स्मरण शक्ति बहुत अच्छी थी। पन्द्रह दिनों में ही आपने गीता के सात सौ श्लोक कण्ठस्थ कर लिये। अब थोड़े से समय में आपने आर्यसमाज के सब महत्वपूर्ण छोटेबड़े ग्रन्थों का स्वाध्याय करके आर्यसमाज की सेवा के लिए समर्पित हो गये। आपने पं. विशनदास जी के साथ पहली बार आर्यसमाज मोगा के वार्षिकोत्सव में भी भाग लिया। अपनी दूसरी वेद प्रचार यात्रा में आपने मारीशस में तीन वर्षों तक वेदों का प्रचार किया। वहां से लौटने के समय तक मारीशस में 58 आर्य समाजें स्थापित हो चुकी थीं। आपके जाने से पूर्व यह संख्या 13 थी और वर्तमान में यह संख्या एक सौ से अधिक है। स्वामीजी ने देश की आजादी के आन्दोलन में भी सक्रिय भाग लिया था। पराधीनता के काल में हैदराबाद में हिन्दुओं को धार्मिक आजादी नहीं थी। पाकिस्तान व बंगलादेश में हिन्दुओं पर जो प्रतिबन्ध व दमघोटू वातावरण है, वैसा ही वातावरण तब हैदराबाद के हिन्दुजगत में था। कांग्रेस व इसके प्रमुख नेताओं को हिन्दुओं के धार्मिक अधिकारों के इस हनन पर कोई सहानुभूति नहीं थी। अतः आर्यसमाज को सन् 1939 में वहां एक अभूतपूर्व व्यापक सत्याग्रह करना पड़ा जिसके फील्ड मार्शल स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी थे। यह आन्दोलन पूर्ण सफल रहा। देश की आजादी के बाद भारत के प्रथम उपप्रधानमंत्री और गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने हैदराबाद का भारत में विलय कराया और यह स्वीकार किया कि इस हैदराबाद रियासत के भारत गणराज्य में विलय की भूमिका आर्यसमाज के सत्याग्रह ने तैयार की थी। स्वामी जी ने विश्व के अनेक देशों में प्रचार करने के साथ भारत में राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार, दलितोद्धार कार्य व गोहत्या निवारण के अनेक प्रशंसनीय कार्य किये। आपका जीवन अनेक पे्ररणाप्रद घटनाओं से पूर्ण है। धर्म प्रचार में आपने अपने धर्म पिता महर्षि दयानन्द के जीवन के अनुसार ही अपने जीवन व चरित्र को ढ़ाला था। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आपका जीवनचरित लिखकर एक अभूतपूर्व कार्य किया है। 3 अप्रैल, 1955 को 78 वर्ष की आयु में आपने नश्वर शरीर छोडा। जिज्ञासु जी ने लिखा है कि स्वामीजी गोधन की रक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुए अर्थात् शहीद हुए।

 

स्वामी स्वतन्त्रानन्द महर्षि दयानन्द की परम्परा के उनके योग्यतम शिष्यों में से एक थे। उनका यशस्वी जीवन देशवासियों की एक आध्यात्मिक एवं सामाजिक धरोहर व पूंजी है। उनसे मार्गदर्शन लेकर देश और समाज को उन्नत किया जा सकता है। हम इस महापुरुष को उनके यशस्वी कार्यों के लिए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-27

अहं केतुरहं मूर्धा अहमुग्राविवाचनी।।

इस सूक्त का यह दूसरा मन्त्र है। यह एक महिला की घोषणा है, जिसमें आत्मविश्वास और योग्यता का समन्वय है। विवेचन की योग्यता बिना ज्ञान के नहीं आती। आजकल का ज्ञान हमें अर्थोपार्जन की क्षमता देता है, परन्तु अपने आप पर नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं उत्पन्न करता। आजकल की शिक्षा उसे स्वार्थी बनाती है, उसका मूल कारण है- मनुष्य का सुविधाजीवी होना, दुःख सहने की इच्छा और सामर्थ्य का अभाव होना। हमारे छोटे-छोटे बच्चों को लगता है, हम साधनों के बिना कैसे जी सकते हैं? समाचार पत्र में पढ़ा- एक सातवीं कक्षा की बच्ची ने आत्महत्या कर ली। कारण ? उसने माता से चल दूरभाष (मोबाइल) माँगा। माँ ने कहा- बेटा, अभी तुम छोटी हो, तुम दसवीं उत्तीर्ण कर लो, तब ले देंगे। बस, लड़की को सहन नहीं हुआ, वह फाँसी लगा के मर गई। विचार करने की बात है, क्या मृत्यु के लिये यह कारण पर्याप्त है? मनुष्य क्या, कोई भी प्राणि मरने की इच्छा नहीं करता, मरने के नाम से भी डरता है, मृत्यु का अवसर आ जाये तो प्राणपण से संघर्ष करता है, संघर्ष में हराकर ही मृत्यु उसे जीतती है। यहाँ बिना लड़े ही हार मान ली है। मृत्यु की कामना वही करता है, जो जीवन में हार जाता है। छोटे-छोटे साधनों के बिना, सुविधाओं के बिना कैसे जीवित रहूँगा- यह भय ही मनुष्य को मारने के लिये आज पर्याप्त हो गया है।

मनुष्य को साधनों की अधिकता ने उतावला, असहिष्णु और भीरु बना दिया है। पुराने समय में छात्र को असुविधा में रहना सिखाया जाता था। ऐसा नहीं था कि छात्रों को सुविधायें दी नहीं जा सकती थीं, जब घर में, नगर में लोगों के पास सुविधाएँ हों, तो उन्हें क्यों नहीं दी जा सकतीं?  मनुष्य को सुविधा में जीने की शिक्षा नहीं देनी पड़ती। धन-सपत्ति साथ आते ही उनका सुख उठाना आ जाता है। सुविधा में जीना सिखाने से असुविधा में जीना नहीं आता, परन्तु असुविधा में जीना सिखाने से सुविधा न मिलने पर, सुविधा समाप्त होने पर भी वह सरलता से सहज ही जीवन यापन कर सकता है।

आज कल बड़ी कपनियाँ बहुत सारा वेतन, साधन एवं अनेक सुविधायें दे कर मनुष्य को भीरु बना देती हैं। उनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं करता। दुर्भाग्य से कभी साधन न मिले, नौकरी छूट जाये तो ऐसा व्यक्ति अनुचित-अनैतिक माध्यमों से धन कमाने में लग जाता है या आत्महत्या कर लेता है। इसी कारण ऋषि लोग तपस्या और कठिन जीवन की बात करते हैं। सुविधा-भोगी अपने साधनों का बँटवारा नहीं कर पाता, दूसरे को सहयोग करने में उसका विश्वास नहीं होता। सुविधा-भोगी मनुष्य को कभी साधनों से तृप्ति नहीं होती, वह सदा और अधिक के चक्र में उलझ जाता है। उसकी योग्यता उसे अधिक कमाने के लिये प्रेरित करती है। इस दुश्चक्र में वह पराजित हो जाता है, बीमार हो जाता है, अन्ततः मर जाता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं- शास्त्र मनुष्य को अपने पर नियन्त्रण करने की शिक्षा देता है। शास्त्र का अध्ययन करने से मनुष्य के अन्दर धैर्य उत्पन्न होता है। उसके अन्दर सहन शीलता बढ़ती है। चाहे जय मिले या पराजय, वे उसे विचलित नहीं करते। उसके अन्दर उचित-अनुचित, अच्छे-बुरे, न्याय-अन्याय को समझने का सामर्थ्य आता है। ऐसे व्यक्ति को विचारों की स्पष्टता, निर्णय की क्षमता और कार्य को सपन्न करने की योग्यता प्राप्त होती है। ऐसा व्यक्ति आत्मविश्वास से भरा होता है। उसके अन्दर भय नहीं रहता है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है- जिसके अन्दर भय नहीं रहता, उसके अन्दर उदारता, सहिष्णुता, परोपकार आदि गुण सहज ही आ जाते हैं। ऐसा मनुष्य दूसरों के कष्टों को देखकर अपना सुख छोड़ देता है। उसके अन्दर नेतृत्व का गुण पूर्णरूप से विकसित होता है, जो सब उत्तरदायित्व को स्वीकार करने के लिये तैयार रहता है वही घोषणा कर सकता है- मैं सबसे ऊँचा हूँ, मैं सबके लिये उत्तरदायी हूँ।

मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह किसी भी गलती, भूल या अपराध की जिमेदारी दूसरे पर डालने का यत्न करता है। ऐसा व्यक्ति कह नहीं सकता कि मैं सर्वोपरि हूँ। मैं सबका नेता हूँ। उत्तरदायित्व के गुण के बिना नेतृत्व का गुण नहीं आ सकता। स्वार्थी और असहिष्णु व्यक्ति कभी नेता नहीं बन सकता। आजकल की शिक्षा से इन गुणों की आशा नहीं की जा सकती। आज मनुष्य योग्यता के बिना ही अधिकार की आशा करता है। आशा तो की जा सकती है, परन्तु उसका निर्वाहन हीं हो सकता। ज्ञान के बिना योग्यता नहीं आती, परिश्रम के बिना ज्ञान नहीं आता। यही कारण है कि आजकल के युवाओं में सामान्य रूप से इन गुणों की कमी देखी जाती है। योग्यता के बिना विचार में,  वचन में एवं प्रामाणिकता का आभाव रहता है। जब आप किसी को कुछ कहते, बोलते, सुनते हैं, तो जब उससे उलट कर पूछा जाता है- क्या वास्तव में ऐसा है, आपके ऐसा कहने का आधार क्या है? सौ में नबे से अधिक व्यक्ति इधर-उधर झाँकने लगते हैं।

पुरानी शिक्षा जिसे अनुपयोगी समझते हैं, उसकी विशेषता है- वह शिक्षा मनुष्य को सहनशील, प्रामाणिक और उत्तरदायी बनाती है। आज किसी को कोई काम देकर आप निश्चिंत नहीं हो सकते, न तो कार्य होने का विश्वास है और न कार्य न हो पाने की सूचना। और यह कहा जाता है- तो क्या हो गया? हुआ तो कुछ नहीं, परन्तु उत्तरदायित्व का गुण समाप्त हो जाता है। इस मन्त्र के शबद घोषणा करके कह रहे हैं- घर की गृहिणी योग्य है, समर्थ है, उत्तरदायी है और आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। ऐसी नारी की कल्पना करना आज कठिन है, परन्तु वेदों का आदर्श तो यही कहता है।

जिज्ञासा समाधान – 104

जिज्ञासा समाधान – 104

– आचार्य सोमदेव

  1. जिज्ञासा –मनुष्य योनि, कर्म योनि व भोग योनि दोनों है, जबकि अन्य योनियाँ केवल भोग योनि हैं। मनुष्य जो भी शुभ अथवा अशुभ /मिश्रित कर्म करता है, उसके सुख/दुःखरूपी फल व कर्मों एवं फलों की वासनायें (संस्कार) कर्माशय में एकत्र होते रहते हैं। ईश्वर की न्याय प्रक्रिया से उनके तीन रूपों में जाति, आयु व भोग रूपी फल अवश्य भोगने पड़ेंगे चाहे सैकड़ों वर्ष समाप्त हो जावें। यहाँ मुझे शंका है। वेदों व वैदिक पुस्तकों में पढ़ने को मिलता है कि ईश्वर भक्ति से कर्म नष्ट हो जाते हैं।

उदाहरणार्थः- त्वं हि विश्वतोमुखः…………… शोशुचदधम्। – ऋ. अष्टक अध्याय 1-7-5-6

स्थिरा वः सन्त्वायुधा………..मर्त्यस्य मायिनः।

– ऋ. 1-3-18-2 वर्ग मन्त्र

उपरोक्त उदाहरणों के अतिरिक्त भी अन्य कई स्थानों पर ईश्वर भक्ति (विवेक खयाति अपर वैराग्य समप्रज्ञात समाधि, पर वैराग्य व असमप्रज्ञात समाधि) द्वारा पापों का नाश होना बताया गया है। कृपया, स्पष्ट करें कि अशुभ कर्मों/पाप कर्मों के फलों से क्या बचा जा सकता है? मोक्ष प्राप्ति की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों के बाद पुनःजन्म लेने पर क्या पुराने कर्म-फल-संस्कार बचे रहतेहैं? यदि मोक्ष प्राप्ति के पूर्व के कर्मफल-संस्कार बचे रहते हैं तो क्या मोक्ष प्राप्ति के बाद पुनःजन्म लेने पर उन पुराने संस्कारों को भोगना पड़ेगा?

  1. योग के आठ अंगों में प्रथम ‘यम’ के पाँच भागों में अहिंसा व सत्य बोलना भी शामिल है- सत्य बोलना स्वयं में ही हिंसा का पर्याय है। कहा जाता है कि सच बोलने में शहद मिलाकर बोले- यह संभव नहीं लगता, सच तो कड़वा ही होता है। मैं प्रतिदिन पौराणिकों से अन्धविश्वासों के वेदानुकुल सच बोलकर मेरे मित्रों को भी फटकारता रहता हूँ। कृपया, सत्य व अहिंसा का कैसे पालन किया जावे- स्पष्ट करे। मैं महर्षि के पद-चिह्नों पर चलते हुए कड़वा सच ही बोलता हूँ।

– एम.एल. गोयल, वरिष्ठ उपाध्यक्ष आर्यसमाज केसरगंज, अजमेर।

समाधान– (क) जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह चाहे मनुष्य योनि में हो या किसी और योनि में। मनुष्य योनि में यह विशेषता है कि इस योनि में मनुष्य पाप-पुण्य रूप कर्म कर सकता है, जबकि अन्य योनि में यह नहीं है। इसमें कारण है मनुष्य योनि का भोग और कर्म योनि होना और मनुष्य से इतर योनियों का भोग योनि होना। इन भोग योनियों में भोगना होते हुए भी स्वतन्त्रता है, वह स्वतन्त्रता भले ही सीमित हो, किन्तु स्वतन्त्रता तो है। एक जानवर के सामने तीन मार्ग आ जाएँ तो ऐसी स्थिति में वह जानवर किसी भी रास्ते से जा सकता है, यह उसकी अपनी स्वतन्त्रता है। ऐसे ही अन्य स्थलों पर देखा जा सकता है।

अब आपकी बात पर विचार करते हैं कि किये हुए पाप क्षमा होते हैं या नहीं? इस विषय में महर्षि दयानन्द ने प्रश्न उठाकर उत्तर दिया है- ‘‘प्रश्न ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है वा नहीं? उत्तर – नहीं क्योंकि जो पाप क्षमा करे, तो उसका न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जाएँ, क्योंकि क्षमा की बात सुन के ही उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साह पूर्वक अधिक से अधिक बड़े-बड़े पाप करें, क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जाएँगे। इसलिए सबकर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं।’’ स.प्र. 7 यहाँ महर्षि की दृढ़ मान्यता है कि किए हुए पाप कर्म क्षमा नहीं होते। उनका तो फल भोगना ही पड़ता है।

महाभारत में कहा है-

येषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रपेदिरे।

तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः।।

अर्थात पूर्व सृष्टि में जिस-जिस प्राणी ने जो-जो कर्म किये होंगे, फिर वे ही कर्म उसे यथा पूर्व प्राप्त होते रहते हैं। जब अयुक्त कर्म इतनी दूर तक पीछा करते हैं तो इसी जन्म में किये पापों से बिना भोगे निवृत्ति पा लेना कैसे समभव हो सकता है? कृतकर्म का भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता- यह परमेश्वर का नियम है। अपने इस नियम को परमेश्वर स्तुति करने वाले भक्तों के लिए शिथिल नहीं कर सकता। यदि वह पापों को क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाए और सब मनुष्य पापी हो जाएँ । हाथ-पैर जोड़ने से परमात्मा अपराधियों को छोड़ देता है, यह जानने पर लोग निःशंक होकर पाप में प्रवृत्त होंगे। ऐसी अवस्था में ईश्वर लौकिक शासकों के समान हो जायेगा। जो उसकी स्तुति (चमचागिरी) करेंगे, वे उनके अपने होंगे। उनके प्रति उसका व्यवहार दया और सहानुभूति का होगा। इसके विपरीत जो उसकी स्तुति आदि नहीं करेंगे, उनके प्रति वैर भाव नहीं तो उपेक्षा का भाव तो रखेगा ही। तब वह सब प्राणियों के लिए एक जैसा नहीं रहेगा। अपनों का उपकार करना परोक्ष रूप से अपने पर उपकार करना ही है। इसमें स्वार्थ निहित है। इस स्वार्थ के कारण परमात्मा खुशामदियों से घिरे हुए शासक के समान होगा, जिसमें राग-द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सब शेष होंगे।इस प्रकार के जगन्नियन्ता परमेश्वर से न्याय की आशा कैसे की जा सकती है? वास्तव में तो परमेश्वर तटस्थ भाव से सब जीवों के कर्मों का साक्षी रहते हुए ही न्याय परायण हो सकता है और है। उसके व्यवहार में दया और न्याय का विलक्षण सममिश्रण अथवा समन्वय है।

सामान्यतः मनुष्य दण्ड के भय से अपराध करने से डरते हैं। यदि यह विश्वास हो जाये कि अपराध करने पर पकड़े नहीं जायेंगे और पकड़े भी गये तो बिना दण्ड पाये छूट जाएँगे तो असंखय मनुष्य दुष्कर्मों-अपराधों के अभयस्त हो जायेंगे। किसी पीर पैगबर पर ईमान लाने मात्र से किये हुए कर्मों का दण्ड पाये बिना इससे कोई छूट नहीं सकता है। किये हुए पाप का फल तो भोगना ही पड़ेगा।

आपने जो प्रमाण दिये हैं, अब उस पर विचार कर लेते हैं। ‘‘स्थिरा वः सन्त्वायुधा ………मा मर्त्यस्य मायिनः।।’ ’इस मन्त्र में से पाप क्षमा वाली बात आपने कहाँ से ली, ज्ञात नहीं हो पाया। इसमें परमेश्वर की ओर से मनुष्यों को उपदेश है अथवा आशीर्वाद है कि तुमहारे आयुध शक्ति सामर्थ्य से रहें, जिससे शत्रुओं को पराजित किया जा सके और शत्रुओं का राज्यादि ऐश्वर्य कभी न बढ़े। दूसरा जो मन्त्र आपने उद्धृत किया है, उसमें जो ‘‘अप नः शोशुचदधम्’’ ये शबद आये हैं। इनके द्वारा प्रार्थना की गई है कि हमारे पाप दूर कराइये। परमेश्वर से प्रार्थना की गई है पाप दूर करने की। अब विचारणीय यह है कि यहाँ प्रार्थना किये गये (जो हो चुके ) उन पापों को दूर करने की है या पाप भावना को दूर करने की?

पाप दो स्थितियों में नष्ट होते हैं, हो सकते हैं अथवा परमात्मा पाप नष्ट करता है, कर सकता है। एक जो पाप किये हैं, उनके फल भोगने पर वे पाप नष्ट हो जाते हैं। दूसरा जो हमारे मन में पाप भावना है, उसको परमेश्वर शुद्ध भावना से उपासना करने पर नष्ट करता है। ऐसा मानने पर कोई सिद्धान्त हानि नहीं है। और यदि पाप किये जाने के बाद उनका फल न देकर परमात्मा क्षमा कर देता है। ऐसा मानते हैं तो सिद्धान्त की हानि होती है। ऐसी मान्यता किसी शास्त्र वा ऋषि ने नहीं मानी है। यह तो अवश्य है कि दयालु परमेश्वर हमारे पाप नष्ट करता है। वह हमें हमारे पापों का फल भुगाकर नष्ट करता है इसमें परमेश्वर की न्याय व दया निहित है। परमात्मा शुद्ध अन्तःकरण से की गई प्रार्थना से भी पाप अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक आदि की भावना को नष्ट करता है। ऐसी मान्यता को मानने में कोई हानि नहीं है। हानि तो पाप क्षमा करने में है।

(ख) समाधि से पापों का नाश होता है, इसका तात्पर्य है अविद्या आदिक्लेशों का नाश होता है। अब अविद्या आदिक्लेश क्षीण होते हैं तो काम, क्रोध आदि पाप भी क्षीण होते हैं। दूसरा, इसमें विद्वानों की दो मान्यताएँ हैं- एक जो समाधि से अविद्या आदिक्लेशों के साथ-साथ कर्माशय को भी नष्ट होना मानते हैं, जो कि शास्त्र इनकी बात को अधिक पुष्ट करता है। इस स्थिति में अर्थात्क्लेशों के नष्ट होने की स्थिति में जो भी योगी आयेगा, उसके समस्त कर्म परमेश्वर नष्ट कर देता है। (पाप-पुण्य रूप दोनों कर्म) इसमें परमेश्वर के न्याय में भी कोई दोष नहीं आयेगा, क्योंकि जो भी इस स्थिति को प्राप्त करेगा, उसी के कर्माशय को नष्ट करेगा अन्य के नहीं। दूसरी मान्यता विद्वानों की है कि मुक्ति से पहले सब कर्म नष्ट नहीं होते केवल अविद्या आदिक्लेश ही नष्ट होते हैं, इस बात को मानने वाले के पास कोई विशेष प्रमाण नहीं है। इनकी मान्यता है कि जो मोक्ष होने से पहले कर्म शेष थे, उनके आधार पर मुक्ति से लौटकर जीवात्मा उनको भोगता है। जिनकी मान्यता ये है कि समस्त क्लेशों के साथ कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। वे मुक्ति से लौटने में परमात्मा की दया को देखते हैं कि मुक्ति की अवधि पूरी होने के बाद परमेश्वर जन्म देकर मुक्ति का प्रयास करने का पुनःअवसर दे रहे हैं।

(ग) आप सत्य को हिंसा की कोटि में रख रहे हैं, हिंसा ही मान रहे हैं, जबकि ऐसा है नहीं। सत्य और अहिंसा की परिभाषा को ठीक-ठीक जानने पर ऐसा प्रतीत नहीं होगा।महर्षि पतञ्जलि ने तो सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि को अहिंसा के पोषक माना है, ये सब अहिंसा को ही सिद्ध करने वाले हैं। आपने जो यह कहा कि पौराणिकों और अन्धविश्वासियों को सत्य बोलकर फटकारता हूँ तो उनको दुःख होता है। इस दुःख होने में सत्य दोषी नहीं है, अपितु वह व्यक्ति दोषी है जो सत्य को स्वीकार नहीं कर रहा और ऊपर से दुःखी हो रहा है।

अहिंसा की परिभाषा ऋषि ने लिखी- ‘‘सब प्रकार से, सब काल में, सब प्राणियों के साथ वैर छोड़ के प्रेम-प्रीति से वर्तना। इस परिभाषा के अनुसार यदि व्यक्ति सत्य बोलता है तो सत्य हिंसक हो ही नहीं सकता । यदि व्यक्ति वैर भाव रखते हुए किसी को दुखी करने के लिए सत्य बोलता है तो निश्चित ही वह हिंसक होगा। देखना यह है सत्य किस प्रयोजन से बोला जा रहा है। सत्य का ध्येय अहिंसा है, धर्म है, परोपकार है, ईश्वर है ऐसी स्थिति में सत्य को हिंसा कहना सर्वथा असंगत ही तो है।

कोई व्यक्ति हमसे दुःखी न हो, ऐसा करने के लिए यदि हम सत्य को छोड़ असत्य बोलते हैं तो भले ही उस व्यक्ति को तात्कालिक दुःख न हो, किन्तु उस असत्य से कालान्तर में वह अवश्य पीड़ित होगा और इसके विपरीत सत्य बोलने से तात्कालिक रूप से भले ही थोड़ी देर के लिए दुःखी हो, किन्तु कालान्तर में उसको सत्य से अपार सुख मिलेगा। ऐसा होने से सत्य को हिंसा नहीं कहा जा सकता।

आपने कहा- सत्य कड़वा ही होता है सो ठीक नहीं है।सत्य को तो शास्त्र ने अमृत कहा है। हाँ, कड़वाहट तब होती है, जब कोई सत्य को सुनना और समझना न चाहता हो। यदि व्यक्ति यथार्थ में सत्य को जानना समझना चाहता है तो उसको कभी भी सत्य कड़वा नहीं लगेगा, वरन वह सत्य उसको अमृत रूप लगेगा। यदि सत्य अहिंसा न होकर हिंसा होता तो ऋषि कभी इसको योग का अंग न बनाते। वेद व शास्त्र सत्य की महिमा न कहते। वेद तो असत्य को छोड़ सत्य के प्राप्त होने को कहता है- इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि मैं असत्य से छूट सत्य को प्राप्त होऊँ। उपनिषद्में कहा है-

सत्यमेव जयति नाऽनृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।

येना क्रमन्त्पृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्।।

सर्वदा सत्य की ही विजय और झूठ की पराजय होती है, इसलिए जिस सत्य से चल के धार्मिक ऋषि लोग जहाँ सत्य की निधि – परमात्मा है, उसको प्राप्त होकर आनन्दित हुए थे और अब भी होते हैं, उसका सेवन मनुष्य लोग क्यों न करें? और भी- न हि सत्यात्परमो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।।

यह निश्चित है कि न सत्य से परे कोई धर्म और न असत्य से परे कोई अधर्म है। इससे धन्य मनुष्य वे हैं जो सब व्यवहारों को सत्य ही से करते हैं और झूठ से युक्त कर्म किञ्चित मात्र भी नहीं करते हैं। ये सत्य की महिमा है, इसलिए सत्य को निंदित रूप से न देखें। जैसे अहिंसा सुख देने वाली है, वैसे ही सत्य भी सुख देने वाला है। अस्तु।             – ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर।

मनुष्य व उसके कुछ प्रमुख कर्तव्य

ओ३म्

मनुष्य उसके कुछ प्रमुख कर्तव्य

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य किसे कहते हैं? इसका उत्तर है कि मननशील व्यक्ति को मनुष्य कहते हैं। मननशाल क्यों होना है, इसलिये कि हम सत्य को जान सके। सत्य को जानकर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमें जो दुःख प्राप्त होता है वह दूसरों के हमारे प्रति अनुचित व्यवहार के कारण ही प्रायः होता है। दुःख कोई भी मननशील व्यक्ति तो क्या कोई भी मनुष्य वा प्राणी पसन्द नहीं करते। अतः दुःखों की निवृत्ति के लिए मनुष्य को दूसरों के प्रति वह व्यवहार नहीं करना है जिस व्यवहार को दूसरे जब उसके प्रति करते हैं तो उसे दुःख होता है। इसका अर्थ मनुष्य को वही व्यवहार दूसरों के प्रति करना चाहिये जिस व्यवहार की वह दूसरों से अपने प्रति अपेक्षा करता है। ऐसा करके वह सभी मनुष्यों के सम्मुख यथायोग्य व्यवहार का उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है और इससे दुःखों की मात्रा कम व समाप्त होकर सुख की मात्रा में वृद्धि हो सकती है। संसार में अच्छे व बुरे दो प्रकार के मनुष्य होते हैं। अच्छे मनुष्यों की श्रेणी में धर्मात्मा आते हैं और दूसरी बुरे श्रेणी के मनुष्यों में ऐसे व्यक्ति जो धर्म का पालन न कर उसका हनन करते हैं। यदि समाज में धर्मात्मा अधिक होंगे तो सामूहिक सुख अधिक होगा। इसके लिए यह आवश्यक है कि मननशील मनुष्य धर्मात्माओं की अपनी पूरी सामथ्र्य से रक्षा, उनकी उन्नति तथा उनके प्रति प्रिय आचरण करें, चाहे वह धर्मात्मा लोग अनाथ, निर्बल और गुणरहित ही क्यों न हों। इसके साथ ही अधर्मात्माओं के प्रति उस मननशील मनुष्य का आचरण भी यथायोग्य होना चाहिये। इसके अन्तर्गत अधर्मात्माओं का नाश, उनकी अवनति और उनके प्रति अप्रिय आचरण करना उचित व धर्मसम्मत कार्य है। अधर्मात्माओं के प्रति अपना आचरण व व्यवहार करते समय इस बात की उपेक्षा कर देनी चाहिये कि वह चक्रवर्ती सम्राट है, सनाथ है, महाबलवान् और गुणवान भी है। जहां तक हो सके मननशील मनुष्यों को अन्यायकारियों के बल की हानि करनी चाहिये और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा करनी चाहिये। मननशील मनुष्य को इस धर्मसम्मत कार्य करने में चाहे कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे उसके प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होना चाहिये। मनुष्य का ऐसा आदर्श स्वरूप महर्षि दयानन्द ने अपनी मान्यताओं के लघुग्रन्थ स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में प्रस्तुत किया है। इस मनुष्य के स्वभाव व स्वरूप का आधार वेदों के ज्ञान का निष्कर्ष है और यह मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति में स्वीकार्य परिभाषा है। मनुष्यों द्वारा इस परिभाषा के अनुसार व्यवहार न करने के कारण ही संसार में आज अनेकानेक जटिल समस्याओं का भण्डार लग गया है।

 

मनुष्य इस स्वरूप को कब प्राप्त होता है? इसके लिए मनुष्य का सद्ज्ञान से युक्त होना भी आवश्यक है। सद्ज्ञान के लिए वेदों का ज्ञान अपरिहार्य है। वेदों के ज्ञान से ही मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का स्वरूप एवं अपने कर्तव्यों व अकर्तव्यों का बोध होता है। वेदाध्ययन करने पर मनुष्य के सम्मुख ईश्वर का जो स्वरूप उपस्थित होता है उसके अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है। ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणों से युक्त है। इस सत्ता को ही ईश्वर वा परमेश्वर कहते हैं। हम मनुष्य जीवात्मा है। हमारा जीवात्मा हमारे प्रकृतिजन्य शरीर से पृथक है। शरीर नाशवान है और जीवात्मा अविनाशी। हमारा यह जीवात्मा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त, अल्पज्ञ तथा नित्य है। यह जन्म-जन्मान्तरों में जो शुभ व अशुभ कर्म करता है, उनके फलों के भोग के लिए इसका मनुष्य व अन्य अनेक योनियों में कर्मानुसार जन्म होता है। कर्मानुसार ही इसके अगले जन्म की योनि वा जाति, आयु व सुख-दुःख परमात्मा निर्धारित करता है। प्रकृति अति सूक्ष्म जड़़ व ज्ञानशून्य पदार्थ है जो मूल व कारण अवस्था में सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था होती है। इस परमाणुरूप रूप प्रकृति से ही ईश्वर इस सृष्टि अर्थात् पृथिवी, चन्द्र, सूर्य व समस्त लोक-लोकान्तरों का निर्माण करता है। ईश्वर, जीव व प्रकृति का सत्य ज्ञान प्राप्त कर व ईश्वर की वैदिक विधि से स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर मनुष्य विवेक को प्राप्त होता है। यह विवेक व ज्ञान ही मनुष्य को वास्तविक मनुष्य बनाता है अन्यथा यह सामान्य मनुष्य या दुष्ट, राक्षस, अनार्य व मनुष्यता का शत्रु बन जाता है। अतः अच्छे व आदर्श मनुष्य के निर्माण में वैदिक संस्कारों की आवश्यकता अपरिहार्य है।

 

वेदों के अध्ययन अथवा महर्षि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर मनुष्य सद्ज्ञान व विवेक को प्राप्त हो सकता है जो कर्तव्य-अकर्तव्यों के बोध व निर्धारण में परम सहायक है। ऐसा मनुष्य योगाभ्यास की रीति से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करेगा, यज्ञ-अग्निहोत्र करेगा, माता-पिता-आचार्यों आदि की सेवा करेगा, परोपकार व दान आदि करते हुए अपने जीवन को अहिंसक मार्ग पर चलायेगा और ऐसा करके जीवन के चार पुरुषार्थों व लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। मनुष्यों के कर्तव्यों का उल्लेख आरम्भ में ही मनुष्य की परिभाषा पर विचार करते हुए कर दिया है। मनुष्य के कर्तव्यों में ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि उसके अनेक कर्तव्य सम्मिलित हैं। देश-प्रेम, देशभक्ति, समाजोत्थान व देशोन्नति के कार्य व सबके प्रति सम्मानजनक यथायोग्य व्यवहार भी मनुष्य के कर्तव्यों में सम्मिलित है। जो लोग ऐसा व्यवहार नहीं करते वह मनुष्य कहलाने के अधिकारी नहीं हैं और न ही वह धार्मिक कहे जा सकते हैं। मनुष्य के लिए कुछ जानने योग्य प्रमुख बातें व नियमों को लिखकर इस लेख को विराम देंगे।

 

मनुष्यों को यह जानना चाहिये कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेश्वर है। ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़़ना-पढा़ना और सुनाना-सुनना सभी श्रेष्ठ गुण वाले मनुष्यों का परम धर्म है। सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सभी मनुष्यों को सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। सभी मनुष्यों को अपने सब काम धर्मानुससार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहियें। सब मनुष्यों को अपनी शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति के प्रति जागरूक रहना चाहिये और इस कार्य के लिए महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन कर सहायता लेनी चाहिये। सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये। अवद्यिा का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिये, किन्तु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये। सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम पालन करने में सब स्वतन्त्र रहें। यह भी कहना उचित है वेदों से ही मनुष्यों के समस्त कर्तव्यों का निश्चय होता है। अतः सभी मनुष्यों को प्रतिदिन वेदों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये इससे उनका जीवन आदर्श, उत्कृष्ट सफल होगा और वह सच्चे मनुष्य बन सकेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121