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‘होली और उसके पूर्व महाभारतकालीन स्वरुप पर विचार’

ओ३म्

होली और उसके पूर्व महाभारतकालीन स्वरुप पर विचार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारत और भारत से इतर देशों में जहां भारतीय मूल के लोग रहते हैं, प्रत्येक वर्ष फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन रंगों का पर्व होली हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता है। होली के अगले दिन लोग नाना रंगों को एक दूसरे के चेहरे पर लगाते हैं, मिठाई व पकवानों का वितरण आदि करते हैं और कुछ हुड़दंग भी करते हैं। क्या होली का प्राचीन स्वरुप भी वर्तमान जैसा था? इससे कुछ भिन्न था वा यह वर्तमान स्वरूप पूर्व की विकृति वा रूपान्तर है?

 

विचार करने पर ज्ञात होता है कि भारत की धर्म व संस्कृति 1.96 अरब पुरानी है। महाभारत काल, आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व, तक वैदिक संस्कृति अपने मूल स्वरूप में देश देशान्तर में विद्यमान रही। इसका प्रमाण है कि भारत में वेदों के साक्षात ज्ञानी, ऋषि, मुनि व योगी महाभारत काल तक बहुतायत में रहे हैं। दूसरा प्रमाण यह है कि न भारत में और न हि विश्व के किसी अन्य देश में आज से पांच हजार वर्ष पूर्व की किसी अन्य धर्म, संस्कृति का कोई प्रमाण मिलता है। महाभारत ग्रन्थ में ऐसे अनेक प्रमाण है कि प्राचीन काल में भारत के लोग विश्व वा यूरोप के प्रायः सभी देशों में आते जाते थे। मनुस्मृति ग्रन्थ सृष्टि के आदि में रचा गया जिसमें वर्णन है कि यह आर्यावर्त्त देश ही संसार का अग्रजन्मा देश है। संसार के सभी देशों के लोग यहां विद्यार्जन करने आते थे और अपने योग्य चरित्र आदि की शिक्षा लेते थे। यहां से वेदों आदि व सभी विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर अपने देश में उसका प्रचार व उपयोग करते कराते थे।

 

वेद मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाने के लिए ईश्वरोपासना सहित पंचमहायज्ञों का विधान करते हैं। इन पंच महायज्ञों में मनुष्यों के अनेक व अधिकांश कर्तव्य आ जाते हैं। वैदिक धर्म व संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को मानने वाली संस्कृति है। यहां सभी लोग सृष्टि के आदि काल से सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।। की प्रार्थना करते आ रहे हैं। अतः आज जैसी होली महाभारतकाल तक भारत व विश्व में कहीं होने की कोई सम्भावना नहीं है। अनुमान है कि वर्तमान जैसी होली का प्रचलन मध्यकाल में पुराणों की रचना से कुछ समय पूर्व व रचना होने से प्रचलित हुआ। प्राचीन काल में तो प्रत्येक माह पूर्णमास पर बड़े-बड़े यज्ञों का प्रचलन होने का अनुमान होता है। वृहत यज्ञों के उस प्राचीन स्वरूप का अनुसरण ही मध्यकाल से प्रचलित होकर वर्तमान काल तक फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन रात्रि को होली जलाकर किया जा रहा है। यज्ञ से वायुमण्डल शुद्ध, पवित्र, सुगन्धित व स्वास्थ्यवर्धक होता है। यज्ञ से बादल बनते हैं, समय पर आवश्यकतानुसार वर्षा होती है, अतिवृष्टि वा अनावृष्टि नहीं होती, शुद्ध, पवित्र व स्वास्थ्यवर्धक अन्न उत्पन्न होता है व यज्ञ में देवपूजा, संगतिकरण व दान करने से ऐसे अनेक लाभों सहित हमारे अन्दर पाप की प्रवृत्ति का भी शमन होता है। इसके साथ अदृष्ट धर्म लाभ भी होता है जिससे हमारा वर्तमान, भविष्य, परजन्म सुधरता है व अच्छे कर्मों के सग्रंह से मोक्ष की प्राप्ति की ओर जीवात्मा प्रवृत्त होता है।

 

फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाये जाने का एक कारण यह भी है कि भारत में सृष्टि के आदि काल से प्रचलित चैत्र, बैसाख, ज्येष्ठ, आषाण आदि बारह हिन्दी महीने जो चैत्र से आरम्भ होकर फाल्गुन की पूर्णिमा को समाप्त होते हैं, उनमें फाल्गुन पूर्णिमा वर्ष का अन्तिम दिन होता है। आज हिन्दी के बारह महीनों का अन्तिम महिना फाल्गुन का अन्तिम दिन है। एक प्रकार से वर्ष का अन्त हो रहा है। कल से चैत्र का महीना आरम्भ होगा। यह वर्ष का पहला महीना होता है। अतः वर्ष के अन्त पर वृहत्त यज्ञ का आयोजन कर उसे विदाई दी जाती थी और हो सकता है कि नये वर्ष के प्रथम महीने चैत्र के प्रथम दिन को नये वर्ष के रूप में हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता रहा हो। इसका इतना अभिप्राय हो सकता है कि यदि किसी का किसी के प्रति कोई द्वेष भाव होता रहा होगा तो इस दिन उसे छोड़ने का संकल्प लिया जाता होगा व ऐसे लोग परस्पर मिलकर आपस में प्रेम व मैत्री पूर्ण संबंध पुनः स्थापित करने की प्रतिज्ञा करते होंगे। उसी का कुछ विकृत रूप आज एक दूसरे पर रंग लगाकर, गले मिलकर, स्वादिष्ट पदार्थों का परस्पर वितरण करके व रंग डालकर मनाने की परम्परा मध्यकाल व उसके बाद से चल पड़ी है।  ऐसा देखा जाता है कि इस दिन लोग हुड़दंग करते हैं, कुछ नशा करके गलत उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं तथा कहीं कहीं परस्पर लड़ाई झगड़े आदि भी हो जाते हैं। वर्तमान का समय शिक्षा व आधुनिकता का युग है अतः सभी को सभ्यता का अच्छा उदाहरण इस दिन प्रस्तुत करना चाहिये।

 

यह भी विचारणीय है कि होली से पूर्व शीत के महीने होते हैं। शीत ऋतु वृद्ध लोगों के लिए तो कष्टकर होती ही है परन्तु साथ हि युवा व बच्चों सहित निर्धन लोगों के लिए भी अति कष्टदायक होती है। अतः ऋतु परिवर्तन से शीत की निवृत्ति व सबके लिए सुखद ऋतु वसन्त के होने पर सबका हर्षित व प्रसन्न होना स्वाभाविक ही है। देश के कृषक लोग भी इस अवसर पर प्रसन्नता व सुख का अनुभव करते हैं क्योंकि उनकी गेहूं व अन्य फसलें पक कर तैयार होती हैं। सारा वातावरण नये नये फूलों की सुगन्ध से सुवासित होता है। सभी वृक्ष अपने पुराने पत्ते-पत्तियों का त्याग कर नये हरे पत्ते धारण करते हैं जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है। इससे सारा वातावरण व उसका परिदृश्य मनमोहक व लुभावना बन जाता है। ऐसे में सामान्य मनुष्य का मन कुछ आमोद प्रमोद की बातों में लगना स्वाभाविक होता है जिसकी अभिव्यक्ति होली के चैत्र कृष्ण प्रथमा के पर्व से होती है। इतना ही निवेदन है कि मनुष्य को जोश के साथ होश भी रखना चाहिये। कहीं किसी के द्वारा इस पर्व पर कोई अमर्यादित बात व कार्य नहीं होना चाहिये। वैदिक साहित्य का अध्ययन कर हमें लगता है कि सभी परिवारों में पूर्णिमा व अगले दिन प्रथमा को अनिवार्य रूप से अग्निहोत्र व हवन का प्रचलन होना चाहिये जिसमें किसान अपनी नई फसल वा गेहूं की बालियों की आहुतियां भी दे सकते हैं जिससे यह पर्व मनाना सार्थक होता है। इस प्रकार यज्ञ पूर्वक होली को मनाना होली का मुख्य प्रतीक बनना चाहिये। इससे लाभ ही लाभ होगा। समाज, पर्यावरण व देश सभी उन्नत होंगे और ईश्वर प्रदत्त प्राचीन वैदिक धर्म व संस्कृति उन्नति को प्राप्त होगी।

 

होली के दिन प्रायः सभी घरों में स्वादिष्ट भोजन व नाना प्रकार के पकवान बनते हैं और लोग परस्पर अपने पड़ेसियों व मित्रों में इसका वितरण व सेवन आदि करते हैं। यह अच्छी प्रथा है। लेख को विराम देने से पूर्व इतना और निवेदन है कि इस दिन सभी समर्थ व सम्पन्न लोगों को समाज क निर्धन व साधनहीन लोगों तक अपनी ओर से उनके उपयोग की कुछ वस्तुयें वितरित करने का प्रयास करना चाहिये और उनको आगे बढ़ाने का कुछ सहयोग किया जा सके तो इसका विचार करना चाहिए। आज होली के दिन हमने कुछ क्षण जो चिन्तन किया है, उसे आपको सादर भेंट करते हैं और सभी बन्धुओं व मित्रों को हमारी होली के पर्व की बहुत बहुत शुभकामनायें हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

जिनके हम ऋणी हैं

 जिनके हम ऋणी हैं

रघुनाथ प्रसाद कोतवाल

आर्य समाज के इतिहास में हम अपना परिचय ऋषि दयानन्द के साथ करते हैं। ऋषि के साथ परिचय करते हुए हम जिन लोगों से परिचित होते हैं, उनमें उनके गुरु दण्डी स्वामी विरजानन्द से परिचित होते हैं, जिनके बिना स्वामी दयानन्द ऋषि दयानन्द नहीं बन सकते थे। दण्डी स्वामी विरजानन्द ने ऋषि दयानन्द को वह दृष्टि दी, जिससे उन्होंने संसार को देखा और सत्य-असत्य का विवेक किया। जिस विवेक ने धर्म और पाखण्ड के अन्तर को स्पष्ट किया और ऋषि दयानन्द वैदिक धर्म का प्रचार करने में सफल हुए तथा पाखण्ड पर आक्रामक प्रहार कर सके। बौद्धिक दृष्टि से गुरुजी ने स्वामी दयानन्द को प्रखर बनाया, वहीं पर कुछ लोग हैं, जिन्होंने यदि सहयोग और सुरक्षा स्वामी दयानन्द को न दी होती तो समभव था, इतिहास न बन पाता या कुछ और प्रकार से बनता।

ऋषि दयानन्द के विद्याध्ययन में गुरुजी के अतिरिक्त अनेक सहयोगी हुए हैं। किसी ने दूध का प्रबन्ध किया, किसी ने दीपक के तेल का। मुखय सहयोग भोजन का था, जो मथुरा निवासी अमरलाल जोशी ने किया, जिनके पौत्र मथुरा शताबदी के समय थे। उसके बाद वे एक बार अजमेर भी पधारे थे। अब मथुरा के उस घर में सम्भवतः कोई नहीं रहता, सब इधर-उधर चले गये हैं।

प्रचार के समय में जिन्होंने सहयोग किया, वे अनेक महानुभाव है, परन्तु मंगलवार 16 नवबर 1869 में काशी शास्त्रार्थ के समय जिन्होंने ऋषि दयानन्द की प्राण रक्षा की, वे थे रघुनाथ प्रसाद कोतवाल। जो बनारस के गुण्डों से बचाकर स्वामी जी को आनन्दबाग के दूसरे सिरे पर जहाँ नगरपालिका भवन है, उसके एक कमरे में ले गये तथा राजा को भी कहा कि आपकी उपस्थिति में एक अकेले संन्यासी के और काशी के सैकड़ों गुण्डे ईंट-पत्थर फेंकें और जान से मारने की चेष्टा करें, यह उचित नहीं, तब राजा ने कोतवाल रघुनाथ प्रसाद से कहा था- धर्म रक्षा के लिये कभी-कभी अनुचित का भी आश्रय लेना पड़ता है। इससे अधिक हम रघुनाथ प्रसाद कोतवाल के विषय में नहीं जानते। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि जो परिवार ऋषि के समय से काशी में रह रहा है, जिनके पौत्र अभी जीवित हैं, उनकी चर्चा आर्य समाज के इतिहास में उस महत्त्व के साथ उल्लिखित नहीं हुई।

गत दिनों काशी के आर्य समाज के कार्यकर्त्ता श्री अशोक कुमार त्रिपाठी जी से भेंट हुई और उन्होंने मुझे बताया कि उनके पास रघुनाथ प्रसाद कोतवाल का चित्र और उनके जीवन पर लिखी सामग्री सुरक्षित है। मैंने माँगी तो उन्होंने सहर्ष स्वीकृति देते हुए कहा कि मैंने यह सामग्री परोपकारी के लिये ही रखी है, अतः किसी और को नहीं दी। मैं बनारस जाकर वह चित्र और सामग्री आपके पास भेज दूँगा। अपने वचन के अनुसार त्रिपाठी जी ने स्वनाम धन्य रघुनाथ प्रसाद कोतवाल जी तथा उनके पौत्र मेवालाल पाण्डे जो वर्तमान स्वामी ओमानन्द जी से संन्यास दीक्षा लेकर केवलानन्द बन गये हैं। इन दोनों का चित्र परोपकारी को भेजा, जो इस अंक में प्रकाशित किया जा रहा है। यह परोपकारी पत्र एवं परोपकारिणी सभा के लिये गौरव की बात है।

श्री अशोक कुमार त्रिपाठी जी ने जो रघुनाथ प्रसाद कोतवाल का परिचय भेजा है। वह परिचय आर्य हरीश कौशल पुरी द्वारा 18 जुलाई 2008 का लिखा है। संयोग से इस लेख पर उनका पता और दूरभाष संखया भी अंकित है। मैंने लेखन की प्रामाणिकता  के लिये उनसे सपर्क किया तो उन्होंने केवल इतना स्वीकार किया कि इसकी प्रामाणिकता बस इतनी है कि श्री रघुनाथ प्रसाद कोतवाल के पौत्र स्वामी केवलानन्दजी ने अपनी स्मृति और परिवार में चली आ रही बातों के आधार पर जो बोला, मैंने उसे लिख दिया, इससे अधिक मेरी कोई प्रामाणिकता नहीं है। मैंने स्वामी जी से समपर्क कर इसकी प्रामाणिकता को पुष्ट करने का प्रयास किया, परन्तु आयु अधिक होने के कारण वे प्रश्नों के उत्तर के स्थान पर अपनी बात को ही दोहराते रहे। यह बात कराने में इनके डॉ. पुत्र का योगदान रहा।

जो परिचय अशोक त्रिपाठी जी ने भेजा है। उसमें योगी का आत्मचरित वाली शैली है, जिसको प्रमाणित नहीं किया जा सकता। इस लेख में समय और स्थान में समन्वय नहीं है, अतः उस लेख को यथावत् प्रकाशित न करके उस सामग्री का उपयोग करते हुए ये पंक्तियाँ लिखी हैं। रघुनाथ प्रसाद कोतवाल का जन्म 28 जनवरी 1826 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के मेहनगर गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम श्रीमहावीर प्रसाद तथा माता का नाम श्रीमती वसुन्धरा पाण्डेय था। ये भारद्वाज गोत्रीय सरयू पारी ब्राह्मण थे। रघुनाथ पाण्डेय ने 12वीं की शिक्षा लखनऊ से पूरी की। इनको तत्काल ही पुलिस विभाग में नौकरी मिल गई। सर्व प्रथम इनकी नियुक्ति देहरादून में हुई फिर उनको सी.आई.डी. इंस्पेक्टर बना कर कानपुर भेजा गया। ये सरकार के विश्वासपात्र कर्मचारी थे। आगे चल कर इनका कार्य क्षेत्र कानपुर से लेकर बुन्देलखण्ड तक बढ़ा दिया गया। इनकी सेवा से प्रसन्न होकर अंग्रेज सरकार ने रघुनाथ प्रसाद कोतवाल को राय की उपाधि से सममानित किया, परन्तु रघुनाथ प्रसाद कोतवाल ने इस उपाधि का नाम के साथ कभी प्रयोग नहीं किया, क्योंकि ऐसा करने में उन्हें गर्व के स्थान पर अपमान का अनुभव होता था।

ऋषि दयानन्द रघुनाथ प्रसाद कोतवाल से बहुत प्रेम करते थे। एक दिन वे अपने धर्मपत्नी रामप्यारी पाण्डेय के साथ महर्षि से मिले, तब स्वामी जी ने दोनों को वेदोपदेश देकर वेदानुसार जीवन जीने की प्रेरणा दी। उसी के अनुसार उनके परिवार में आर्य परमपरा का निर्वाह किया जा रहा है, कोतवाल जी के पुत्र श्री मिश्रीलाल जी तथा उनके पुत्र मेवालाल जी आजतक श्रद्धापूर्वक परिवार में वैदिक धर्म का पालन कर रहे हैं।

कहा जाता है कि स्वतन्त्रता संग्राम के समय इनकी नियुक्ति झाँसी के कोतवाल के रूप में थी, उन्होंने परोक्ष रूप से रानी लक्ष्मीबाई को युद्ध में सहायता भी पहुँचाई थी। इसका कारण था, रघुनाथ प्रसाद के चाचा रघुवीर पाण्डेय झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के सलाहकार थे और रानी के विधवा होने पर रानी को ओजपूर्ण कवितायें और कहानियाँ सुनाकर प्रोत्साहित किया करते थे। महिला सेना के निर्माण में भी इनका योगदान था। इसी प्रकार परिवार के अन्य सदस्य भी स्वतन्त्रता संग्राम में भाग ले रहे थे। रघुनाथ प्रसाद कोतवाल के छोटे चाचा शिवनन्दन, श्रवण कुमार, कुँवर सिंह के साथ लड़ाई में शामिल हुये और कंधरापुर के पास तमसा के किनारे वीरगति को प्राप्त हुए। कुँवर सिंह युद्ध करते हुए आगे बढ़ते रहे, वे आजमगढ़ के सिधारी पुल पर तमसा नदी के किनारे पहुँचे थे कि उनके हाथ में एक अंग्रेज सिपाही की बन्दूक की गोली लगी, कुँवर सिंह ने तत्काल तलवार से गोली लगा अपना हाथ काट दिया और नदी में प्रवाहित कर दिया। एक हाथ से युद्ध करते हुए बक्सर होते हुये, अपने गाँव जगदीशपुर पहुँचे। 85 वर्ष की अवस्था में उनका स्वर्गवास हुआ। बाद में उनके सुपुत्र जगदीश सिंह ने मोर्चा समभाला और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करते रहे।

इस प्रकार रघुनाथ प्रसाद कोतवाल एवं उनके परिवार का जीवन देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिये अर्पित हुआ।

रघुनाथ प्रसाद कोतवाल को उनके चाचा ने ही प्रेरणा देकर पुलिस विभाग में भर्ती कराया था और निर्देश दिया था कि तुमहें अंग्रेजों को प्रसन्न रखते हुए, भारत माता की दासता की जंजीरों को काटना है, जिससे साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। रघुनाथ प्रसाद कोतवाल ने और कितने भी कार्य देशहित में किये होंगे, परन्तु काशी में उस दिन काशी के गुण्डों से महर्षि के प्राणों की रक्षा करके जो महान् कार्य किया, उससे बड़ा और कोई कार्य नहीं हो सकता। यह उनकी देश और समाज की सबसे बड़ी सेवा है।

इसके लिये यह देश और समाज उनका सदा ऋणी रहेगा।

– धर्मवीर

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा-4

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा

– स्व. डॉ. रघुवंश

कीर्तिशेष डॉ. रघुवंश हिन्दी-जगत् के जाने-माने विद्वान् थे। वे हिन्दी-संस्कृत-अंग्रेजी के परिपक्व ज्ञाता तो थे ही, भारत की शास्त्रीयता और उसके इतिहास के अनुशीलन में भी उनकी विपुल रुचि और गति थी। उन्होंने साहित्य के विभिन्न पक्षों पर साहित्य-सर्जन कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और समर्थ लेखक के रूप में वे सर्वमान्य रहे। अपने अग्रज श्रीमान् यदुवंश सहाय द्वारा रचित ‘महर्षि दयानन्द’ नामक ग्रन्थ की भूमिका-रूप में लिखे गए उनके इस लेख से हमारे ऋषि भक्त पाठक लाभान्वित हों, अतः इसे हम उक्त ग्रन्थ से साभार उद्धृत कर रहे हैं।    – समपादक

पिछले अंक का शेषभाग…..

वस्तुतः वैदिक संस्कृति में स्वस्थ और स्वच्छन्द जीवन के ऐसे मूल्यों की प्रतिष्ठा रही है, जो व्यक्ति और समाज, व्यक्ति और परिवार, परिवार और समाज, व्यक्ति और राष्ट्र, व्यवहार और अध्यात्म, आत्मा और ब्रह्म के उचित सन्तुलन पर प्रतिष्ठित हैं। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की पूरी संभावनाएँ समाज की व्यवस्था में समाहित रही हैं और समाज की गति तथा सर्जन शीलता को सुरक्षित रखने के लिए व्यक्ति दायित्व-बोध तथा आत्मानुशासन की प्रक्रिया से अपनी रचनात्मक क्षमता को समृद्ध बनाता रहा है। निश्चय ही संस्कृति की यह परिकल्पना भारतीय जीवन की नये स्तर पर संघटना तथा संरचना के लिए आकर्षक थी और इस भूमि पर भारतीय व्यक्तित्व को नये सन्दर्र्भों से जोड़ पाना अधिक उचित था। स्वामी दयानन्द के सामने यही संकल्प था कि भारतीय समाज अपनी तत्कालीन अधोगति से मुक्त होकर किसी प्रकार स्वस्थ होकर नई रचनात्मक क्षमता से गतिशील हो सके। उन्होंने स्पष्टतः इस समाज के पतन तथा ह्रास के कारणों को समझा और विवेचन किया। जैसा कहा गया कि मध्ययुगीन ब्राह्मणवाद, पुरोहितों-महन्तों का निहित स्वार्थ, पुराण-पंथ, धर्म और दर्शन की एकांगिता तथा आध्यात्मिक साधनाओं की व्यक्तिनिष्ठा आदि कारणों का विवेचन करके दयानन्द ने इनका घोर विरोध किया। परन्तु भारतीय समाज के प्रचलित अन्ध्विश्वासों, अन्यायों, रूढ़ियों, कुरीतियों तथा जड़ताओं के कारण पश्चिमी संस्कृति से आकर्षित नेताओं के समान उन्होंने समस्त भारतीयता अथवा भारतीय संस्कृति को उपेक्षणीय तथा अविकसित नहीं मान लिया। उन्होंने भारतीय संस्कृति के आदिस्रोत तक जाकर उसकी आन्तरिक शक्ति और ऊर्जा का अन्वेषण किया और फिर उन तत्त्वों के संयोजन के आधार पर भारतीय व्यक्तित्व को पुनः प्रतिष्ठित करने का अथक प्रयत्न किया। वस्तुतः दयानन्द आधुनिक भारत की समस्त अपेक्षाओं से भली भाँति परिचित थे और उनमें से प्रत्येक को सामने रखकर भारतीय समाज के पुनर्गठन का कार्य उन्होंने शुरू किया था।

भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के नेताओं ने, मुखयतः गाँधी ने देश का आह्वान करते समय अपने समाज की जिन समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है और समाज के जिन क्षेत्रों में रचनात्मक कार्य के द्वारा गति प्रदान करने की चेष्टा की है, उन सभी समस्याओं को स्वामी दयानन्द ने बहुत बल देकर सामने रखा था और सभी क्षेत्रों में कार्य करना शुरू किया था। एक भी ऐसी समस्या नहीं है, जिसकी ओर उन्होंने संकेत न किया हो और कोई ऐसा क्षेत्र नहीं, जिसे उन्होंने छोड़ा हो। समाज के वर्ण-भेद, उनकी असमानता, उनमें छुआछूत, जन्म से वर्णों के विभाजन आदि के बारे में दयानन्द ने अपने प्रखर विचार रखे थे। उन्होंने इस प्रकार की असमानता को, छुआछूत को, जन्म से वर्ण के निर्धारण को धर्म-विरुद्ध और असत्य प्रतिपादित किया, परन्तु उन्होंने कर्म पर आश्रित वैदिक वर्ण-व्यवस्था की स्वीकृति दी है। हम आधुनिकता के समर्थक यह कह सकते हैं कि कर्म पर आश्रित वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार कर लेना एक प्रकार का समझौता है, क्योंकि इस प्रकार हम दूसरे मार्ग से पर परम्परित वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते हैं, परन्तु स्थिति का यथार्थ-विवेचन करने से पता चलता है कि जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह अस्वीकार करने की घोषणा की है, उन्होंने अपने जीवन में अभी तक जातिवाद को बहुत महत्त्व दे रखा है। भारतीय राजनीति के विभिन्न स्तरों पर जातिवाद का कितना प्रभाव है, इससे यह प्रमाणित होता है। गाँधी ने सन्त भाव से निम्न जातियों को ‘हरिजन’ कहा, पर ‘हरिजन’ शबद ‘अछूत’ के समान एक पर्याय मात्र बन कर रह गया। इसकी तुलना में दयानन्द की दृष्टि अधिक स्पष्ट थी। पहले तो उन्होंनें कहा कि समाज के विविध अंग रूप उसके वर्णों में ऊँच-नीच का भाव ही अधर्म है, क्योंकि अंगों का ऊँचा-नीचा स्थान उनकी श्रेष्ठता का निर्धारक नहीं हो सकता। यह कहना नितान्त मूर्खता है कि पैरों से हाथ इसलिए श्रेष्ठ हैं, क्योंकि प्राणी के खड़े होने पर वे ऊपर स्थित होते हैं। समाज की व्यवस्था और सन्तुलन के लिए कार्यों का विभाजन किसी न किसी रूप में अनिवार्य है, पर कार्य के समपादन की क्षमता जन्मतः सिद्ध नहीं हो सकती, अतः वर्ण का जन्म से कोई समबन्ध नहीं है। इस प्रकार के तर्क और व्यवस्था में कितना बल है, यह स्पष्ट है। साथ ही दयानन्द ने वर्ण-व्यवस्था के नाम पर जो सामाजिक अन्याय हो रहा था, उसका बड़ा विरोध किया था और इस विद्रोह भाव को समाज की नई रचना में समाहित करने का प्रयत्न भी किया था। बाद के समन्वयवादियों के दृष्टिकोण से उनका विचार कहीं अधिक क्रान्तिकारी रहा है। यह अलग बात है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के प्रयोग से जिस प्रकार की औद्योगिक और यांत्रिक प्रगति हो रही है, उसमें समाज-रचना का स्वरूप ऐसा बदल रहा है, जिसमें पिछली कर्माश्रित वर्ण-व्यवस्था असंगत हो गई है।

स्वामी दयानन्द ने सत्य धर्म एक ही माना है और उनकी दृष्टि में वह धर्म वही हो सकता है जो श्रेष्ठ मानव मूल्यों की रचनात्मक प्रक्रिया को गतिशील रखने में सक्षम हो सके। बाद  के समन्वयवादियों और अन्तर्राष्ट्रीयतावादियों ने दयानन्द को कट्टर पंथी और खण्डन-मण्डन करने वाले सुधारक के रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की है, परन्तु वस्तु स्थिति यह है कि उनके जैसा उदार मानवतावादी नेता दूसरा नहीं रहा है। उन्होंने धर्म की सदा भारतीय व्यापक परिकल्पना सामने रखी है। वे धार्मिक समप्रदायों को अस्वीकार कर शुद्ध मानव मूल्यों पर प्रतिष्ठित धर्म को स्वीकार करने के पक्ष में रहे हैं। सन्तों का दृष्टिकोण मुखयतः आध्यात्मिक जीवन तक सीमित था, जब कि दयानन्द के सामने भारतीय जन-समाज के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य था।उन्होंने धर्म के निरर्थक कर्मकाण्डों के नाम पर चलाई गई कुरीतियों, अन्धविश्वासों, जड़-पूजाओं और मान्यताओं का घोर विरोध किया है। उन्होंने वस्तुतः जब कभी हिन्दू, मुसलमान या ईसाई धर्म का खण्डन किया है तो स्पष्टतः उन्होंने असत्य, अन्धविश्वास और जड़मान्यताओं का उल्लेख किया है और यह भी उन्होंने बार-बार घोषित किया है कि सभी धर्मों के मूल में शुद्ध मानव धर्म के तत्त्व विद्यमान हैं। यहाँ तक कि उन्होंने कई अन्य धर्म के नेताओं से प्रस्ताव भी किया कि सममिलित रूप से धर्म के मूलतत्त्वों पर विचार करके उन्हें निर्धारित कर लिया जाय और फिर सभी धर्म के नेता उन्हें स्वीकार करके उनका प्रचार-प्रसार करें। उनके मन में धर्म को लेकर कभी कोई दुराग्रह या पक्षपात नहीं रहा, उन्होंने सदा धर्म के श्रेष्ठ तत्त्वों पर ही बल दिया है। एक तथ्य की ओर ध्यान देना आवश्यक है। दयानन्द की प्रमुख चिन्ता भारतीय समाज के पुनरुद्धार की थी। उनके मन में उस समाज की अवस्था से अत्यन्त व्यथा थी। वे उसमें प्रचलित अन्धविश्वास, अन्याय, शोषण तथा नृशंसताओं से मर्माहत हो गये थे। क्रमशः उनको बोध हुआ था कि इस समाज की सदा से ऐसी अवस्था नहीं रही है। एक समय यह समाज मानव मूल्यों का वाहक रहा है, अतः उनका पहला संकल्प भारतीय व्यापक हिन्दू जन-समाज के उद्धार का था और उसके लिए उन्होंने हिन्दू धर्म की जड़ताओं पर सर्वाधिक प्रहार किया है। उनका विश्वास था कि इस आघात के बिना असत्य के मार्ग पर चलने वाले हिन्दू समाज के उद्धार का कोई उपायन हीं है। उनका सबसे बड़ा विरोध पौराणिकों, ब्राह्मण-पुरोहितों और आडमबर फैलाकर जनता को गुमराह करने वाले संन्यासियों से था और दयानन्द के विरुद्ध यह निहित स्वार्थों का वर्ग ही सदा रहा। वस्तुतः इस्लाम और ईसाई धर्म की आलोचना उन्होंने प्रासंगिक रूप में की है, क्योंकि हिन्दू धर्म के अन्धविश्वास आदि की आलोचना करके ये धर्मावलबी हिन्दुओं को मत-परिवर्तन के लिए प्रेरित करते थे, इस कारण दयानन्द ने यह प्रतिपादित किया है कि इन सभी धर्मों में हिन्दू-धर्म के समान अन्धविश्वास और जड़ताएँ प्रचलित हैं।

उनका धार्मिक उद्देश्य बहुत ऊँचा था। वस्तुतः उन्होंने संसार के सामने दो महत्त्वपूर्ण बातें रखी थीं। एक तो उन्होंने प्रतिपादित किया कि मूल सत्य तथा मानवीय मूल्यों की सर्जनशीलता से प्रेरित एक ही धर्म है। यह धर्म तत्त्व (अथवा ये तत्त्व) संसार के सभी श्रेष्ठ धर्मों के मूल में निहित है। यह धर्मों की सामप्रदायिकता है जो उन्हें अलग रूपों में प्रकट करती है। इसके साथ अनेक निहित स्वार्थ जुट जाते हैं और धर्म में अन्धविश्वासों तथा जड़ताओं का आश्रय लेकर असत्य का प्रवेश होता है। उन्होंने इसीलिए बार-बार प्रस्ताव किया कि सभी धर्म के लोग शुद्ध मानवीय धर्म का पालन कर सकते हैं, क्योंकि किसी धर्म का इससे विरोध नहीं हो सकता है और स्थान-स्थान पर यह स्वीकार किया है कि कोई भी धर्मावलमबी आर्य-धर्म अर्थात् श्रेष्ठ मानव धर्म का पालन कर सकता है। वस्तुतः उनके लिए ‘आर्य’ शबद किसी सामप्रदायिक धर्म का पर्याय कभी नहीं बना, यह उनके द्वारा ‘आर्य समाज’ की स्थापना से भी सिद्ध है। ‘आर्य समाज’ कभी किसी धर्म का रूप नहीं ले सका, यह उनकी इच्छा और विश्वास का ही परिणाम था। आज कल भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता की चर्चा काफी होती है, परन्तु उसकी विडमबना भी स्पष्ट है। स्वामी दयानन्द ने मानव मूल्यों पर प्रतिष्ठित धर्म की जो व्यापक तथा सर्जनशील व्याखया की थी, वह आज के भारत में अनेक धर्मो के स्वस्थ, सहज और रचनात्मक समन्वय की उचित भूमिका है।

स्वामी दयानन्द ने समाज में स्त्री के स्थान पर विशेष ध्यान दिया था। वे पुरुष के साथ नारी की समानता का पूर्ण समर्थन करते हैं। भारतीय समाज की हीनावस्था का एक महत्त्वपूर्ण कारण उनके अनुसार यह भी है कि इस समाज में नारी का सममानपूर्ण स्थान नहीं रह गया है। वे नारी और पुरुष के अधिकारों की पूर्ण समानता स्वीकार करते हैं, पर दोनों के कार्य-क्षेत्र का विभाजन मानते हैं। आज के बदलते हुए समाज में स्त्री-पुरुष के कार्य-क्षेत्रों का अलगाव संभव नहीं रह गया है, परन्तु इससे दयानन्द के विचारों को संकुचित नहीं माना जा सकता और न उनकी क्रान्तिकारिता पर प्रश्न किया जा सकता है, क्योंकि इस प्रकार जो समाज आज बनता जा रहा है, वह अपने आप में परिस्थिति की उपज है, उसे आदर्श समाज कहना विवादास्पद है। स्त्री-शिक्षा, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, वेश्या-उद्धार आदि अनेक समस्याओं को दयानन्द ने अपने युग के सर्न्दभ में उठाया था और उनका उचित समाधान प्रस्तुत किया था। आज ये प्रश्न हमारे लिए अमहत्त्वपूर्ण हो गये हैं, परन्तु जिस साहस और दृढ़ता के साथ उन्होंने इन समस्याओं का समाधान समाज के सामने रखा था, उससे उनके व्यक्तित्व की क्रान्तिकारिता लक्षित होती है और उनका द्रष्टा रूप भी सामने आता है।

एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष है जो स्वामी दयानन्द के व्यक्तित्व को सूक्ष्मता से उद्घाटित करता है। उन्होंने धर्म को मूल्य के स्तर पर ग्रहण किया है, उससे सामप्रदायिक व्यवस्था और कर्मकाण्डी पक्ष को बिल्कुल अलग कर दिया है, अतः धर्म संस्कृति के उच्चतम मूल्यों के स्तर को स्थापित करता है। जिस प्रकार संस्कृति के अन्तर्गत सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्तरों के मूल्यों का संचरण होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म स्तर पर धार्मिक, कलात्मक तथा आध्यात्मिक मूल्यों की उपलबधि का क्षेत्र भी संस्कृति है। इस प्रकार संस्कृति मानवीय मूल्यों की सर्जनशीलता की दृष्टि से अधिक व्यापक है। दयानन्द का सारा प्रयत्न इस प्रकार सांस्कृतिक पुनरुत्थान से सबन्धित है। उनके लिए धर्म उसी सीमा तक महत्त्वपूर्ण है, जहाँ तक वह सांस्कृतिक मूल्यों के क्षेत्र में एक भूमिका प्रस्तुत करता है। यही कारण हे कि उनके दृष्टिकोण में संस्कृति के सभी स्तरों का समाहार है और उन्होंने भारतीय जीवन के सभी पक्षों तथा स्तरों के मूल्यों का इस प्रकार निरूपण किया है, जिससे उसका एक व्यापक तथा संश्लिष्ट सांस्कृतिक स्वरूप लक्षित होता है। इसके अन्तर्गत सामाजिक आचार, नैतिक आदर्श, व्यक्तित्व की स्वाधीनता और प्रतिष्ठा, लोकजीवन में समत्व, राजनीतिक आदर्श व्यवस्था, राजतंत्र की लोकसत्तात्मक तथा समत्वमूलक परिभाषा, लोकोन्मुखी तथा सामयवादी अर्थतंत्र आदि के समस्त मूल्यों का प्रतिष्ठान वेदों को अवश्य माना तथा प्रमाणित किया है, परन्तु इनकी व्याखया आधुनिक जीवन के अनुरूप की गई है। साथ ही द्रष्टा के रूप में दयानन्द ने इन समस्त मूल्यों को संस्कृति के मर्म तथा अध्यात्म समबन्धी उच्च भूमियों पर प्रतिष्ठित कर तत्समबन्धी उच्च मूल्यों में उनका संक्रमण किया है। गाँधी ने अपने सत्य और अहिंसा जैसे मूल्यों में व्यावहारिक तथा पारमार्थिक मूल्य-दृष्टियों का समाहार किया है और भौतिकतावादी तथा अध्यात्मवादी एकांगी संस्कृतियों की तुलना में गाँधी के सांस्कृतिक संतुलन को बहुत महत्त्व मिला है, पर यहाँ ध्यान देने की बात है कि दयानन्द ने लौकिक तथा आध्यात्मिक जीवन के मूल्यों के पारस्परिक अन्तःसमबन्ध को जितनी स्पष्टता के साथ प्रतिपादित और विवेचित किया है, वह अन्यत्र नहीं मिलता। वस्तुतः जीवन्त, सप्राण, गतिशील तथा सर्जनात्मक संस्कृति में इन दोनों पक्षों का समाहार और उनके मूल्यों का अन्तः संक्रमण अनिवार्य है। स्वामी दयानन्द ने संस्कृति के इसी रूप की परिकल्पना की है और उनकी दृष्टि में यही भारतीय संस्कृति का सच्चा स्वरूप है। उनकी संस्कृति समबन्धी अवधारणा के आधार पर समाज के भारतीयकरण के प्रश्न का समुचित उत्तर दिया जा सकता है।

स्वामी दयानन्द आधुनिक युग में ऋषि और द्रष्टा माने जायँगे। उनमें जितनी गहरी यथार्थ की पकड़ थी, उतनी ही व्यापक इतिहास और परमपरा को ग्रहण करने की क्षमता भी। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने समाज की प्रक्रिया को तथा उसके भविष्य की संभावनाओें को पहचाना और फिर उसको एक स्वस्थ और सर्जनशील समाज-रचना की ओर उन्मुख करने का प्रयत्न किया। कोई भी परिकल्पना युग के साथ, परिस्थितियों के सन्दर्भ में परिवर्तित होती है। इस दृष्टि से स्वामी दयानन्द की भारतीय समाज की नयी रचना की परिकल्पना में भी आज अन्तर पड़ जाना स्वाभाविक है, पर उनका भारतीय समाज की वर्तमान स्थिति का निदान आज भी उतना ही सटीक है। उनकी समाज-रचना की परिकल्पना भी बहुत कुछ आज स्वीकार की जा सकती है, क्योंकि उनकी सांस्कृतिक मूल्यों की अवधारणा मानव धर्म की व्यापक प्रतिष्ठा तथा सर्जन शीलता से समबन्धित है। परन्तु इन से भी अधिक महत्त्व की बात है उनके व्यक्तित्व की क्रान्तिकारिता, जो असत्य और अन्याय के सममुख अडिग खड़े होने की क्षमता प्रदान करती है और जिसके कारण उन्होंने कभी विश्व में समझौता नहीं किया। आज यह स्पष्ट हो गया है कि समस्त देशी-विदेशी पुराण-पंथ के विरुद्ध सतत विद्रोह करने के लिए ऐसे क्रान्तिकारी व्यक्तित्व की देश को सर्वाधिक आवश्यकता है। इसके बिना देश का कोई भविष्य नहीं है।

-इलाहाबाद विश्वविद्यालय

महान् आचार्य बलदेव जी महाराज

  महान् आचार्य बलदेव जी महाराज

-पं. नन्दलाल निर्भय सिद्धान्ताचार्य

आचार्य बलदेवजी, सार्वदेशिक प्रधान।

ईश भक्त धर्मात्मा, थे सच्चे इंसान।।

थे सच्चे इंसान, वेद मर्यादा पालक।

स्वामी ओमानन्द रहे, गुरु उनके लायक।।

देशभक्त, गुणवान, धर्म के थे अनुरागी।

पर उपकारी सन्त, सत्यवादी थे त्यागी।।1।।

 

खोला गुरुकुल कालवा, किया धर्म का काम।

देव पुरुष ने कर दिया, सकल विश्व में नाम।।

सकल विश्व में नाम, हजारों बाल पढ़ाए।

देशभक्त विद्वान्, सैकड़ों शिष्य बनाए।।

राजसिंह अरु धर्मवीर को, ज्ञान सिखाया।

रामदेव को सकल विश्व में है चमकाया।।2।।

 

दर्शनाचार्य थे बड़े, थे गोभक्त महान्।

आर्य जगत में सब जगह, उनका था सममान।।

उनका था सममान, कर्म अच्छे करते थे।

मानवता के पुंज, पराया दुःख हरते थे।।

हिन्दी रक्षा सत्याग्रह में, काम किया था।

तारा सिंह, प्रताप सिंह को, हरा दिया था।।3।।

हाँ, आचार्य प्रवर गए, छोड़ सकल संसार।

मौत अचमभा है बड़ा, मित्रो! करो विचार।।

मित्रो! करो विचार, जगत में जो जन आता।

राजा हो या रंक, काल सबको खा जाता।।

राम, कृष्ण, चाणक्य, न यम से बचने पाए।

अर्जुन, पृथ्वीराज, काल ने ग्रास बनाए।।4।।

 

सुनो आर्यो! ध्यान से, एक काम की बात।

आपस में तुम मत करो, अब विवाद की बात।।

अब विवाद की बात करोगे, पछताओगे।

कहता हूँ मैं साफ, एक दिन मिट जाओगे।।

जगत्गुरु ऋषि दयानन्द की शिक्षा मानो।

अहंकार दो त्याग, धर्म अपना अब जानो।।5।।

आर्य सदन बहीन जनपद पलवल (हरियाणा)

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-28

ममेदनुक्रतुंपतिः सेहानाया उपाचरेत्।

मन्त्र के प्रथम भाग में नारी की घोषणा थी- परिवार में मैं केतु हूँ, मैं मूर्धा हूँ, मैं विवाचनी अर्थात् विवेक पूर्वक बात कहने वाली हूँ। इस प्रकार परिवार के प्रति योग्यता और सामर्थ्य दोनों बातों का उल्लेख आ गया। योग्यता से मनुष्य में सामर्थ्य आता है। मनुष्य ज्ञान से आत्मशक्ति समपन्न बनता है। इसलिये शास्त्र में कहा है- आत्मवत्तेति- आत्मवान तभी बन पाता है, जब उस अन्दर ज्ञान की उपस्थिति होती है।  आगे कहा गया है कि केवल ज्ञान और योग्यता ही नहीं, मेरे अन्दर कर्मनिष्ठा भी है।

मनुष्य का जीवन चाहे व्यक्तिगत हो, पारिवारिक अथवा सामाजिक, वह जितना कर्मशील होगा, उतना ही लोगों को प्रिय होगा। हम समाज में ऐसे लोगों को बहुशः देखते हैं, जिनके पास ज्ञान है, कर्म करने का सामर्थ्य भी है, परन्तु आलस्य और प्रमाद से जीवन में कुछ भी नहीं कर पाते। जो उत्पन्न हुआ, वह बड़ा भी होगा, वृद्ध भी होगा। उसकी मृत्यु भी होगी, यह किसी मनुष्य के चाहने से न होता है, न हो सकता है। इसी समय को आप सोकर, मनोरञ्जन करके व्यतीत कर सकते हैं, यदि इसी अवधि में मनुष्य कोई सार्थक कार्य करता है, तो वह सफलता को प्राप्त कर लेता है। मनुष्य के पास सफलता अकस्मात, एक बार में नहीं आती, उसे परिश्रम पूर्वक उपार्जित करना पड़ता है। मनुष्य को क्रतु बनना चाहिए, कर्मशील होना चाहिए। वैदिक साहित्य में क्रतु कर्म और बुद्धि दोनों का नाम है। जो कर्म नहीं करते, उन्हें वेद दस्यु कहता है। दस्यु का अर्थ होता है- डाकू। डाकू कहने से हमें लगता है जो शारीरिक बल से दूसरे का धन हरण करता है, वही डाकू है, परन्तु इसका केवल इतना ही अर्थ नहीं, जो व्यक्ति बुद्धि-बल से भी दूसरे के अधिकार का, स्वत्व का हनन करते हैं, अपहरण करते हैं, वे भी डाकू ही हैं।अकर्मण्य बुद्धिमान् लोग दूसरों का धन छल से, ठगी से हर लेते हैं, ऐसे कर्म क्रतु नहीं हैं।

क्रतु यज्ञ को भी कहा गया है। यज्ञ कर्म है परन्तु किसी के धन अथवा स्वत्व के अपहरण के लिये नहीं किया जाता। यज्ञ परोपकार का ही दूसरा नाम है। बुद्धि का उपयोग परोपकार और उन्नति की भावना से किया जाय तो ऐसा कर्म क्रतु है, यज्ञ है। परिवार का संचालन यज्ञ है। यज्ञ कर्त्ता अपने कर्म नहीं करता, वह सबके लिये यज्ञ करता है। सबका कल्याण करने की भावना से यज्ञ किया जाता है। वैसे तो परिवार में सभी सदस्यों को परस्पर एक-दूसरे के हित की कामना करनी चाहिये, परन्तु वहाँ सब समान रूप से शिक्षित या ज्ञानवान नहीं होते हैं और न ही अनुभवी। अतः मुखय व्यक्ति को ही सबके हित व कल्याण की चिन्ता करनी होती है। परिवार में दो ही व्यक्ति धुरा का वहन करते हैं, जिन्हें हम पति-पत्नि कहते हैं। इन दोनों की योग्यता व विचार समान होने के साथ-साथ गति भी समान होनी चाहिए। सभी परिवार के सदस्यों की चिन्तन की दिशा एक हो तो समायोजन में कोई असुविधा नहीं आती। कठिनाई तब होती है, जब विचारों की भिन्नता के साथ हम परिवार को अपनी-अपनी इच्छानुसार चलाना चाहते हैं।

वेद कह रहा है- पति केवल सहनशीलन हीं है, वह पत्नी के कार्यों का समर्थन भी करता है, परिवार में उन विचारों को क्रियान्वित करने में प्रयास पूर्वक लगा रहता है। इस सन्दर्भ में दो बातों की ओर संकेत किया गया है, पत्नी के विचार श्रेष्ठ हैं और कार्य उत्तम हैं। इतना पर्याप्त नहीं है, पत्नी के कार्यों के लिये पति का समर्थन भी चाहिए और सहयोग भी। मन्त्र इन्हीं बातों को बता रहा है। मनुष्य का स्वभाव है कि यदि वह कुछ अनुचित करता है, तो वह उसे सबसे अज्ञात रखना चाहता है, परन्तु उससे कुछ अच्छा हुआ है, तो उसकी इच्छा रहती है, सभी लोगों को उसके श्रेष्ठ कार्य का ज्ञान हो। स्वाभाविक है किसी बात का ज्ञान होगा तो उसकी चर्चा भी होगी। यह चर्चा उस कार्य की प्रशंसा है, कार्य करने वाले व्यक्ति की प्रशंसा है। प्रशंसा से व्यक्ति उत्साहित होकर, उस कार्य में अधिक परिश्रम करता है। निन्दा-प्रशंसा का मनुष्य ही नहीं, प्राणियों के जीवन पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। अनुचित कार्य की निन्दा नहीं होती अथवा प्रशंसा की जाती है तो अनुचित कार्यों को करने में मनुष्य की अधिकाधिक प्रवृत्ति होती है। अतः उचित की प्रशंसा उचित कार्य की वृद्धि का हेतु होता है।

शास्त्र कहता है- यदि कोई दुष्ट मनुष्य भी यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म कर रहा है, तो उस समय उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए, ऐसा कार्य करते हुए मनुष्य की निन्दा करने से श्रेष्ठ कार्य की भी निन्दा हो जाती है। यह मनोविज्ञान की ही बात है।मनुष्य के मन पर आलोचना और प्रशंसा का परोक्ष-प्रत्यक्ष बहुत प्रभाव पड़ता है। हम परिवार में अच्छे कामों के लिये जब बच्चों की प्रशंसा करते हैं, तो उनमें अच्छा कार्य करने का उत्साह बढ़ता है, यह बात बड़ों के लिये भी उतनी ही स्वाभाविक है। हम बड़ों के द्वारा किये कार्यों को पाप-पुण्य से जोड़कर देखते हैं। बच्चों के कार्य का प्रभाव बहुत नहीं होता, परन्तु बड़े व्यक्ति के द्वारा किया गया कार्य परिवार और समाज को गहरा प्रभावित करता है। अतः कहा गया है- पति को प्रशंसक और सहयेागी होना चाहिए।

एक असंगत लेख की शव-परीक्षा

एक असंगत लेख की शव-परीक्षा

-सत्येन्द्र सिंह आर्य

आर्य जगत् की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘परोपकारी’ पाक्षिक के वर्ष 2015 के दिसबर (प्रथम) अंक में ‘‘ईश्वर की सिद्धि में प्रमाण है’ ’शीर्षक के अन्तर्गत किन्हीं श्री राजेन्द्र प्रसाद शर्मा का एक लेख प्रकाशित हुआ है। लेख का शीर्षक तो ऐसा आकर्षक है, जैसे लेखक कोई वेदज्ञ विद्वान् हो और साधना-पथ का पथिक हो, परन्तु जब लेख पढ़ा तो पाया कि यहाँ-वहाँ थोथे शबद जाल के अतिरिक्त असंगत बातें ही अधिक हैं। खोदा पहाड़ निकला चूहा!

प्रथम पैराग्राफ में लिखा है- ‘‘पूर्व में जो तपस्वी/ संन्यासी /महात्मा हुए उन्होंने ईश साक्षात्कार किया है- जैसे गोस्वामी तुलसीदास ने‘ तिलक देत रघुवीर’ लिखा है। एक सन्त को गधे में भगवान् के दर्शन हुए। ये घटित घटनाएँ हैं।’’ रामचरित मानस में लिखी बात‘ तिलक देत रघुवीर’ का ईश्वर साक्षात्कार से क्या लेना-देना? यदि तिलक लगाने से ईश साक्षात्कार होता तो भज-भज मण्डली वाले करोड़ों तिलकधारियों को अब तक ईश्वर साक्षात्कार हो गया होता। ‘‘सन्त को गधे में भगवान के दर्शन हुए’’-यह तो बुद्धि के दिवालियेपन की बात है। ईश्वर तो आत्मा की भी आत्मा है, अतः ईश्वर की अनुभूति तो अन्दर ही हो सकती है। गधे में भगवान के दर्शन करने का दावा करनेवाला कोई भांग-चरस आदि का नशैड़ी (मद्यप) होगा।

लेखक आगे लिखता है कि ‘‘रामेश्वरम् में गंगा जल चढ़ाने वाला हृदय में गंगा जल की धार’’ जैसा अनुभव करता है। यह कपोल कल्पना है। गंगा की धार हृदय में कहाँ से पहुँच गयी। ‘‘वेद के सूक्तों के जितने मन्त्र दृष्टा ऋषि हुए हैं।’’ इस विषय में तथ्य यह है कि वेद मन्त्रों के साथ जिन ऋषियों का नाम लिखा मिलता है, वे वेद –मन्त्रार्थ दृष्टा ऋषि हैं, वेद मन्त्र दृष्टा नहीं। वेद-मन्त्र दृष्टा तो चार ऋषि सृष्टि के आदि में हुए हैं- अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा, जिन्हें ईश्वर से वेद का ज्ञान प्राप्त हुआ।

लेखक ने आगे योग के सिलसिले में अँधेरे में तीर चलाये हैं। लिखा है- ‘‘साधना आगे बढ़ने पर रीढ़ में कष्ट होना, कुण्डलिनी जागरण-ये सब स्थितियाँ होती हैं।’’ अच्छा होता यदि लेखक इस विषय में योग, वेदान्त, सांयदर्शन का कोई सूत्र उद्धृत करते। अनर्गल बात लिखने का क्या लाभ?

लेखक इतना लिख कर ही नहीं रुका। आगे लिखा है – ‘‘इसी समय आत्म साक्षात्कार होता है, हृदय से स्पष्ट आवाज आती है- मैं यहाँ हूँ। फिर कुण्डलिनी जागरण ऊपर की ओर होता है, तब मस्तिष्क में घण्टियों जैसी आवाज होती है। इसे वेदों में अनाहत नाद कहा गया है। जब कुण्डलिनी जागरण सहस्राधार चक्र तक होता है तथा मस्तिष्क में पानी झरने जैसा अनुभव होता है। मस्तिष्क में ढक्कन खुलने, बन्द होने जैसा अनुभव होता है। इस दौरान एकाएक नींद खुलना, रीढ़ की हड्डी में भयंकर कष्ट होना, ये सब बातें होती हैं। तब ध्यान करने पर शिवजी, ब्रह्माजी अथवा विष्णु भगवान स्पष्ट दिखाई देते हैं। आँखें बन्द होते ही उनसे मानसिक बातचीत भी होती है। यही ईश-साक्षात्कार है।’’ ये सब बेसिर-पैर की बेतुकी बातें हैं।न यम, नियमों का पालन, न तप, न ज्ञान-प्राप्ति और हो गया सीधे ईश -साक्षात्कार। यह तो ऐसा ही है जैसा कादियां के मियाँ (मिर्जा गुलाम अहमद) की खुदा से भेंट होती रहती थी। ऐसी बेसिर-पैर की बेतुकी बातों का ईश्वर-साक्षात्कार से कुछ भी लेना-देना नहीं है।

जो ईश्वर के स्वरूप को, गुण,कर्म, स्वभाव को नहीं जानता वह उसे कैसे प्राप्त कर सकता है? वेद तो स्पष्ट कहता है- ‘‘यस्तन्नवेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते। ’’ब्रह्मा, विष्णु, महेश की काल्पनिक आकृतियों को देखने वाला और उन से बातचीत करने का दमभ करने वाले का ईश्वर-साक्षात्कार से क्या लेना-देना? परमात्मा से मिलना तो बहुत दूर की बात है, पहले उसे जानना आवश्यक है। तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। वेद के अनुसार तो जिस ऋग्वेदादि वेद मात्र से प्रतिपादित नाश रहित उत्तम आकाश के बीच व्यापक परमेश्वर में समस्त पृथिवी सूर्यादि देव आधेय रूप से स्थित होते हैं, जो उस परब्रह्म परमेश्वर को नहीं जानता, वह चार वेद से क्या कर सकता है और जो उस परमब्रह्म को जानते हैं, वे ही अच्छे प्रकार ब्रह्म में स्थित होते हैं। बिना उसे जाने ईश-साक्षात्कार तो दिवा-स्वप्न ही रहेगा।

प्रसंगाधीन लेख की इस प्रकार की सभी बातें असंगत हैं, सिद्धान्त-विरुद्ध हैं और भ्रामक हैं।

-जागृति विहार, मेरठ

स्वामी विद्यानन्द सरस्वती – संक्षिप्त परिचय

स्वामी विद्यानन्द सरस्वती – संक्षिप्त परिचय

स्वामी जी का जन्म उत्तर प्रदेश में समवत् 1977 में हरियाली तृतीया को हुआ। बाल्य काल से ही स्वामी जी का जीवन सदाचार एवं धार्मिक विचारों से ओतप्रोत था। वैराग्य की भावना प्रारमभ से ही थी। उसी के आधार पर स्वामी जी ने किशोर अवस्था में ही सन्त स्वामी जी श्री मंगलानन्द सरस्वती से तपोवन देहरादून में संन्यास दीक्षा ग्रहण की। जीवन में परिवर्तन लाने वाली एक अद्भुत घटना हुई कि एक धार्मिक व्यक्ति ने स्वामी जी को सत्यार्थ प्रकाश भेंट किया और स्वामी जी से प्रार्थना की कि आप इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें। भक्त की प्रार्थना स्वीकार कर, स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा और पढ़ने के पश्चात् वैदिक धर्म के प्रचार का व्रत लिया। उसी शृंखला में अनेक धार्मिक स्थलों का भ्रमण किया और कठिन तपस्या करते रहे। सन् 1967 से गुरुकुल विद्यापीठ गदपुरी (बल्लभगढ़) फरीदाबाद में गुरुकुल की सेवा का कार्य किया। कुछ समय के बाद श्रीदयानन्द आश्रम खेड़ाखुर्द दिल्ली में व्यवस्थापक के रूप में कई वर्षों तक सेवा करते रहे। उसी अवधि में गो रक्षा आन्दोलन में बड़े उत्साह से भाग लिया और अपने भक्तों के साथ जेल यात्रा की। बाद में पुनः गुरुकुल की चहुंमुखी प्रगति के लिए प्रयत्न में लग गए। कुछ वर्षों तक स्वामी जी ने पूज्यपाद श्री स्व. योगेश्वरानन्द (ऋषिकेश) के चरणों में बैठकर योग साधना की। वर्तमान में स्वामी जी गुरुकुल विद्यापीठ गदपुरी के मुखयाधिष्ठाता पद पर प्रतिष्ठित हैं। भक्तों द्वारा प्रार्थना करने पर समाज में सामाजिक तथा नैतिक विचारों की स्थापना के लिये गुरुकुलों व महाविद्यालयों में संस्कृत पढ़ने वाले गरीब बच्चों की सहायता के लिए स्वामी जी ने स्वयं अपनी पवित्र एकत्रित धनराशि से ट्रस्ट की स्थापना की।

समप्रति कुछ वर्षों से स्वामी जी का स्नेह एवं सहयोग परोपकारिणी सभा को प्राप्त हो रहा है । सभा  उनके उत्तम स्वास्थ्य एवं दीर्घ आयुष्य की कामना करती है।

(3) मेरी तीसरी शंका है कि वेद, ऋषि-मुनि, विद्वान् तथा वैज्ञानिक आदि सभी यही मानते हैं कि पेड़-पौधों में आत्मा होती है, परन्तु कुछ पौधे जैसे- साग-सजी, मेथी-बथुवा, पालक आदि हम सब दैनिक प्रयोग करते हैं तो हम क्या इन आत्माओं का हनन करके पाप करते हैं? क्या हम पाप के भागी नहीं हुए? कृपया बताएँ।

(3) मेरी तीसरी शंका है कि वेद, ऋषि-मुनि, विद्वान् तथा वैज्ञानिक आदि सभी यही मानते हैं कि पेड़-पौधों में आत्मा होती है, परन्तु कुछ पौधे जैसे- साग-सजी, मेथी-बथुवा, पालक आदि हम सब दैनिक प्रयोग करते हैं तो हम क्या इन आत्माओं का हनन करके पाप करते हैं? क्या हम पाप के भागी नहीं हुए? कृपया बताएँ।

– सुमित्रा आर्या, 261/8, आदर्शनगर, सोनीपत, हरियाणा

समाधान-

(ग) पेड़-पौधों में आत्मा है, इसको प्रमाण पूर्वक अनेक विद्वान् स्वीकार करते हैं। अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है, आज विज्ञान भी इसको स्वीकार करता है, किन्तु कुछ विद्वान् वृक्षादि में आत्मा नहीं मानते। जो नहीं मानते, उनके लिए तो यह प्रश्न बनेगा ही नहीं। हाँ, जो आत्मा को वृक्षों में स्वीकारते हैं, उनके लिए यह प्रश्न बनता है। इस विषय में पहले भी अनेक वाद-विवाद हो चुके हैं, शास्त्रार्थ हो चुके हैं।

हमारी समझ से जिन पौधों का नाम आपने लिया है, उनका प्रयोग करने में हमें पाप नहीं लगेगा, ये पौधे परमेश्वर द्वारा हमारी जीवन रक्षा के लिए बनाए हैं। इनका प्रयोग करने का आदेश परमेश्वर द्वारा वेद के माध्यम से किया गया है। खेती करने का विधान परमात्मा की ओर से ही है। शाक-सबजी में जो पौधे प्रयोग में आते हैं, उनको लेने में पाप नहीं होता और उन आत्माओं का हनन भी नहीं होता, क्योंकि पेड़-पौधों में जो आत्माएँ होती हैं, वे मूर्छा अवस्था में होती हैं, उनकी इन्द्रियों का व्यवहार बाह्य जगत् से नहीं होता, इसलिए उनको अन्य प्राणियों की भाँति सुख-दुःख भी नहीं होता। हाँ, इसमें इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि जो वृक्षादि जगत् के लिए अधिक उपयोगी हैं, अनेक प्राणियों के लिए आश्रयरूप हैं, उन वृक्षों को काटने से अवश्य पाप लगेगा। मनुष्य की शरीर रक्षा के लिए परमात्मा ने जिन पौधों का निर्माण किया है, उनका प्रयोग करने में पाप नहीं लगेगा। अस्तु ।

– ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर

उपदेश प्रारमभ होने से पूर्व आप एक वेदमन्त्र (ओं यतो यतः समीहसे ततो नोऽभयम् कूरू…..) का उच्चारण करते हैं। मैं भी दैनिक यज्ञ में प्रतिदिन आहुति इस मन्त्र से डालती हूँ, परन्तु इसका मुझे भावार्थ पूर्ण रूप से समझ नहीं आ रहा है। कृपया, इसका भावार्थ समझाएँ।

जिज्ञासा- उपदेश प्रारमभ होने से पूर्व आप एक वेदमन्त्र (ओं यतो यतः समीहसे ततो नोऽभयम् कूरू…..) का उच्चारण करते हैं। मैं भी दैनिक यज्ञ में प्रतिदिन आहुति इस मन्त्र से डालती हूँ, परन्तु इसका मुझे भावार्थ पूर्ण रूप से समझ नहीं आ रहा है। कृपया, इसका भावार्थ समझाएँ।

– सुमित्रा आर्या, 261/8, आदर्शनगर, सोनीपत, हरियाणा

समाधान- 

यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरू।

   शं नः कुरू प्रजायोऽभयं नः पशुभयः।।

-यजु. 36.22

इस मन्त्र का पदार्थ सहित भावार्थ ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में महर्षि लिखते हैं पदार्थ आर्याभिविनय पुस्तक से लिया है। (यतः+यतः) जिस-जिस देश से (समीहसे) समयक् चेष्टा करते हो (ततः) उस-उस देश से (नः) हम को (अभयम्) भय रहित (कुरू) करो (शम्) सुख (नः) हमको (कुरू) करो (प्रजायः) प्रजा से (अभयम्) भय रहित (नः) हमको (पशुयः) पशुओं से।

भावार्थ विस्तार से यह है- हे परमेश्वर! आप जिस-जिस देश से जगत् के रचना और पालन के अर्थ चेष्टा करते हैं, उस-उस देश से हमको भय से रहित करिए, अर्थात् किसी देश (स्थान) से हमको किञ्चित् भी भय न हो, वैसे ही सब दिशाओं में जो आपकी प्रजा और पशु हैं, उनसे भी हमको भयरहित करें तथा हमसे उनको सुख हो, और उनको भी हम से भय न हो तथा आपकी प्रजा में जो मनुष्य और पशुआदि हैं, उन सबसे जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पदार्थ हैं, उनको आपके अनुग्रह से हमलोग शीघ्र प्राप्त हों, जिससे मनुष्य जन्म के धर्मादि जो फल हैं, वे सुख से सिद्ध हों।। – ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका ई.प्रा.वि.

(1) मेरी शंका है कि जब जीवात्मा श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना अथवा योग बल से मोक्ष प्राप्त करके ईश्वर के साथ आनन्द भोगता है। फिर अवधि पूर्ण होने पर वापिस संसार में आकर एक सामान्य परिवार में जन्म लेता है, जबकि उसने तो श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना की है। उसे तो श्रेष्ठ तथा धार्मिक उच्च कुल में जन्म मिलना चाहिए। कृपया मेरी शंका दूर कीजिए।

(1) मेरी शंका है कि जब जीवात्मा श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना अथवा योग बल से मोक्ष प्राप्त करके ईश्वर के साथ आनन्द भोगता है। फिर अवधि पूर्ण होने पर वापिस संसार में आकर एक सामान्य परिवार में जन्म लेता है, जबकि उसने तो श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना की है। उसे तो श्रेष्ठ तथा धार्मिक उच्च कुल में जन्म मिलना चाहिए। कृपया मेरी शंका दूर कीजिए।

– सुमित्रा आर्या, 261/8, आदर्शनगर, सोनीपत, हरियाणा

समाधान- (1) मुक्ति निष्काम कर्म करते हुए विशुद्ध ज्ञान से होती है। जब जीवात्मा संसार से विरक्त होकर निष्काम कर्म करते ज्ञान, अर्थात् ईश्वर, जीव, प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को पृथक्-पृथक् समझ लेता है और अपने विवेक से अन्दर के क्लेशों को दग्ध कर शुद्ध हो जाता है, तब मुक्ति होती है। इस मुक्ति की एक निश्चित अवधि ऋषि ने कही है, जो 36 हजार बार सृष्टि प्रलय होवे, तब तक मोक्ष अवस्था का समय है। इस मुक्त अवस्था में जीवात्मा सर्वथा अविद्या से निर्लिप्त रहता है, अर्थात् विवेकी-ज्ञानी बना रहता है। जब मुक्ति की अवधि पूरी हो जाती है, तब जीव को परमेश्वर संसार में जन्म देता है। जन्म, अर्थात् शरीर धारण कराता है। इस शरीर के मिलने पर आत्मा मुक्ति की अवस्था जैसा ज्ञानी नहीं रहता। उसे जन्म भी सामान्य मनुष्य का मिलता है, अर्थात् सामान्य परिवार, सामान्य शरीर, सामान्य बुद्धि, सामान्य इन्द्रियाँ आदि। इसमें आपका कहना है कि आत्मा ने तो श्रेष्ठज्ञान, कर्म, उपासना की थी, उस ज्ञान, कर्म, उपासना के बल से अब सामान्य मनुष्य न बनाकर परमेश्वर श्रेष्ठ मनुष्य क्यों नहीं बनाता? इसमें सिद्धान्त यह है कि जीवात्मा ने जिन श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना आदि को किया था, उनका श्रेष्ठ फल मुक्ति के रूप में भोग चुका है। मुक्ति की अवधि पूरी होने के बाद उसके पास अब श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना नहीं रहे, अब वह अपनी सामान्य स्थिति में आ गया है, इसलिए उसको सामान्य मनुष्य का जन्म मिलता है।

इसको लौकिक उदाहरण से भी समझ सकते हैं, जैसे संसार में हमें कोई वस्तु शुल्क देकर प्राप्त है, शुल्क न होने पर वस्तु भी प्राप्त नहीं होती। किसी के पास एक हजार रुपये हैं, उन्हें खर्च करने पर उसको एक हजार की वस्तु मिल जाती है, अर्थात् उसने एक हजार का फल प्राप्त कर लिया। यह खर्च होने पर उसको फिर से एक हजार का फल नहीं मिलेगा। उसके लिए फिर एक-एक हजार रु. कमाने पड़ेंगे। ऐसे मुक्ति श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना का फल है, उस फल को भोगने के बाद वह फिर से श्रेष्ठ को प्राप्त नहीं कर सकता। उसको प्राप्त करने के लिए पुनःश्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना को करना होगा।

इसलिए आपने जो पूछा कि उसको श्रेष्ठ जन्म क्यों नहीं मिलता, उसका कारण हमने यहाँ रख दिया है, इतने में ही समझ लें।