जिनके हम ऋणी हैं

 जिनके हम ऋणी हैं

रघुनाथ प्रसाद कोतवाल

आर्य समाज के इतिहास में हम अपना परिचय ऋषि दयानन्द के साथ करते हैं। ऋषि के साथ परिचय करते हुए हम जिन लोगों से परिचित होते हैं, उनमें उनके गुरु दण्डी स्वामी विरजानन्द से परिचित होते हैं, जिनके बिना स्वामी दयानन्द ऋषि दयानन्द नहीं बन सकते थे। दण्डी स्वामी विरजानन्द ने ऋषि दयानन्द को वह दृष्टि दी, जिससे उन्होंने संसार को देखा और सत्य-असत्य का विवेक किया। जिस विवेक ने धर्म और पाखण्ड के अन्तर को स्पष्ट किया और ऋषि दयानन्द वैदिक धर्म का प्रचार करने में सफल हुए तथा पाखण्ड पर आक्रामक प्रहार कर सके। बौद्धिक दृष्टि से गुरुजी ने स्वामी दयानन्द को प्रखर बनाया, वहीं पर कुछ लोग हैं, जिन्होंने यदि सहयोग और सुरक्षा स्वामी दयानन्द को न दी होती तो समभव था, इतिहास न बन पाता या कुछ और प्रकार से बनता।

ऋषि दयानन्द के विद्याध्ययन में गुरुजी के अतिरिक्त अनेक सहयोगी हुए हैं। किसी ने दूध का प्रबन्ध किया, किसी ने दीपक के तेल का। मुखय सहयोग भोजन का था, जो मथुरा निवासी अमरलाल जोशी ने किया, जिनके पौत्र मथुरा शताबदी के समय थे। उसके बाद वे एक बार अजमेर भी पधारे थे। अब मथुरा के उस घर में सम्भवतः कोई नहीं रहता, सब इधर-उधर चले गये हैं।

प्रचार के समय में जिन्होंने सहयोग किया, वे अनेक महानुभाव है, परन्तु मंगलवार 16 नवबर 1869 में काशी शास्त्रार्थ के समय जिन्होंने ऋषि दयानन्द की प्राण रक्षा की, वे थे रघुनाथ प्रसाद कोतवाल। जो बनारस के गुण्डों से बचाकर स्वामी जी को आनन्दबाग के दूसरे सिरे पर जहाँ नगरपालिका भवन है, उसके एक कमरे में ले गये तथा राजा को भी कहा कि आपकी उपस्थिति में एक अकेले संन्यासी के और काशी के सैकड़ों गुण्डे ईंट-पत्थर फेंकें और जान से मारने की चेष्टा करें, यह उचित नहीं, तब राजा ने कोतवाल रघुनाथ प्रसाद से कहा था- धर्म रक्षा के लिये कभी-कभी अनुचित का भी आश्रय लेना पड़ता है। इससे अधिक हम रघुनाथ प्रसाद कोतवाल के विषय में नहीं जानते। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि जो परिवार ऋषि के समय से काशी में रह रहा है, जिनके पौत्र अभी जीवित हैं, उनकी चर्चा आर्य समाज के इतिहास में उस महत्त्व के साथ उल्लिखित नहीं हुई।

गत दिनों काशी के आर्य समाज के कार्यकर्त्ता श्री अशोक कुमार त्रिपाठी जी से भेंट हुई और उन्होंने मुझे बताया कि उनके पास रघुनाथ प्रसाद कोतवाल का चित्र और उनके जीवन पर लिखी सामग्री सुरक्षित है। मैंने माँगी तो उन्होंने सहर्ष स्वीकृति देते हुए कहा कि मैंने यह सामग्री परोपकारी के लिये ही रखी है, अतः किसी और को नहीं दी। मैं बनारस जाकर वह चित्र और सामग्री आपके पास भेज दूँगा। अपने वचन के अनुसार त्रिपाठी जी ने स्वनाम धन्य रघुनाथ प्रसाद कोतवाल जी तथा उनके पौत्र मेवालाल पाण्डे जो वर्तमान स्वामी ओमानन्द जी से संन्यास दीक्षा लेकर केवलानन्द बन गये हैं। इन दोनों का चित्र परोपकारी को भेजा, जो इस अंक में प्रकाशित किया जा रहा है। यह परोपकारी पत्र एवं परोपकारिणी सभा के लिये गौरव की बात है।

श्री अशोक कुमार त्रिपाठी जी ने जो रघुनाथ प्रसाद कोतवाल का परिचय भेजा है। वह परिचय आर्य हरीश कौशल पुरी द्वारा 18 जुलाई 2008 का लिखा है। संयोग से इस लेख पर उनका पता और दूरभाष संखया भी अंकित है। मैंने लेखन की प्रामाणिकता  के लिये उनसे सपर्क किया तो उन्होंने केवल इतना स्वीकार किया कि इसकी प्रामाणिकता बस इतनी है कि श्री रघुनाथ प्रसाद कोतवाल के पौत्र स्वामी केवलानन्दजी ने अपनी स्मृति और परिवार में चली आ रही बातों के आधार पर जो बोला, मैंने उसे लिख दिया, इससे अधिक मेरी कोई प्रामाणिकता नहीं है। मैंने स्वामी जी से समपर्क कर इसकी प्रामाणिकता को पुष्ट करने का प्रयास किया, परन्तु आयु अधिक होने के कारण वे प्रश्नों के उत्तर के स्थान पर अपनी बात को ही दोहराते रहे। यह बात कराने में इनके डॉ. पुत्र का योगदान रहा।

जो परिचय अशोक त्रिपाठी जी ने भेजा है। उसमें योगी का आत्मचरित वाली शैली है, जिसको प्रमाणित नहीं किया जा सकता। इस लेख में समय और स्थान में समन्वय नहीं है, अतः उस लेख को यथावत् प्रकाशित न करके उस सामग्री का उपयोग करते हुए ये पंक्तियाँ लिखी हैं। रघुनाथ प्रसाद कोतवाल का जन्म 28 जनवरी 1826 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के मेहनगर गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम श्रीमहावीर प्रसाद तथा माता का नाम श्रीमती वसुन्धरा पाण्डेय था। ये भारद्वाज गोत्रीय सरयू पारी ब्राह्मण थे। रघुनाथ पाण्डेय ने 12वीं की शिक्षा लखनऊ से पूरी की। इनको तत्काल ही पुलिस विभाग में नौकरी मिल गई। सर्व प्रथम इनकी नियुक्ति देहरादून में हुई फिर उनको सी.आई.डी. इंस्पेक्टर बना कर कानपुर भेजा गया। ये सरकार के विश्वासपात्र कर्मचारी थे। आगे चल कर इनका कार्य क्षेत्र कानपुर से लेकर बुन्देलखण्ड तक बढ़ा दिया गया। इनकी सेवा से प्रसन्न होकर अंग्रेज सरकार ने रघुनाथ प्रसाद कोतवाल को राय की उपाधि से सममानित किया, परन्तु रघुनाथ प्रसाद कोतवाल ने इस उपाधि का नाम के साथ कभी प्रयोग नहीं किया, क्योंकि ऐसा करने में उन्हें गर्व के स्थान पर अपमान का अनुभव होता था।

ऋषि दयानन्द रघुनाथ प्रसाद कोतवाल से बहुत प्रेम करते थे। एक दिन वे अपने धर्मपत्नी रामप्यारी पाण्डेय के साथ महर्षि से मिले, तब स्वामी जी ने दोनों को वेदोपदेश देकर वेदानुसार जीवन जीने की प्रेरणा दी। उसी के अनुसार उनके परिवार में आर्य परमपरा का निर्वाह किया जा रहा है, कोतवाल जी के पुत्र श्री मिश्रीलाल जी तथा उनके पुत्र मेवालाल जी आजतक श्रद्धापूर्वक परिवार में वैदिक धर्म का पालन कर रहे हैं।

कहा जाता है कि स्वतन्त्रता संग्राम के समय इनकी नियुक्ति झाँसी के कोतवाल के रूप में थी, उन्होंने परोक्ष रूप से रानी लक्ष्मीबाई को युद्ध में सहायता भी पहुँचाई थी। इसका कारण था, रघुनाथ प्रसाद के चाचा रघुवीर पाण्डेय झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के सलाहकार थे और रानी के विधवा होने पर रानी को ओजपूर्ण कवितायें और कहानियाँ सुनाकर प्रोत्साहित किया करते थे। महिला सेना के निर्माण में भी इनका योगदान था। इसी प्रकार परिवार के अन्य सदस्य भी स्वतन्त्रता संग्राम में भाग ले रहे थे। रघुनाथ प्रसाद कोतवाल के छोटे चाचा शिवनन्दन, श्रवण कुमार, कुँवर सिंह के साथ लड़ाई में शामिल हुये और कंधरापुर के पास तमसा के किनारे वीरगति को प्राप्त हुए। कुँवर सिंह युद्ध करते हुए आगे बढ़ते रहे, वे आजमगढ़ के सिधारी पुल पर तमसा नदी के किनारे पहुँचे थे कि उनके हाथ में एक अंग्रेज सिपाही की बन्दूक की गोली लगी, कुँवर सिंह ने तत्काल तलवार से गोली लगा अपना हाथ काट दिया और नदी में प्रवाहित कर दिया। एक हाथ से युद्ध करते हुए बक्सर होते हुये, अपने गाँव जगदीशपुर पहुँचे। 85 वर्ष की अवस्था में उनका स्वर्गवास हुआ। बाद में उनके सुपुत्र जगदीश सिंह ने मोर्चा समभाला और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करते रहे।

इस प्रकार रघुनाथ प्रसाद कोतवाल एवं उनके परिवार का जीवन देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिये अर्पित हुआ।

रघुनाथ प्रसाद कोतवाल को उनके चाचा ने ही प्रेरणा देकर पुलिस विभाग में भर्ती कराया था और निर्देश दिया था कि तुमहें अंग्रेजों को प्रसन्न रखते हुए, भारत माता की दासता की जंजीरों को काटना है, जिससे साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। रघुनाथ प्रसाद कोतवाल ने और कितने भी कार्य देशहित में किये होंगे, परन्तु काशी में उस दिन काशी के गुण्डों से महर्षि के प्राणों की रक्षा करके जो महान् कार्य किया, उससे बड़ा और कोई कार्य नहीं हो सकता। यह उनकी देश और समाज की सबसे बड़ी सेवा है।

इसके लिये यह देश और समाज उनका सदा ऋणी रहेगा।

– धर्मवीर

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *