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‘महर्षि दयानन्द के योग शिष्य लक्ष्मणानन्द’

ओ३म्

विस्मृत व्यक्तित्व

महर्षि दयानन्द के योग शिष्य लक्ष्मणानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

स्वामी लक्ष्मणानन्द जी ने स्वामी दयानन्द की अमृतसर यात्रा में उनसे योग सीखा था और उसके बाद उन्होंने योगाभ्यास व इसकी शिक्षा को ही अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया प्रतीत होता है। आप आर्यजगत के विख्यात विद्वान पं. भगवद्दत्त रिसर्चस्कालर के भी गुरू रहे। ध्यान योग प्रकाश आपकी योग पर महत्वपूर्ण कृति है जिसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। अन्तिम संस्करण रामलाल कपूर टस्ट्र, रेवली-सोनीपत-हरयाणा से कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ है जो वहां बिक्री के लिए उपलब्ध है। सम्प्रति हमारे पास भी इस ग्रन्थ के दो-तीन संस्करण विद्यमान हैं। अध्यात्म व योग का गहरा सम्बन्ध है। हमारा मानना है कि स्वामी दयानन्द ने समाज सुधार सहित समग्र सामाजिक क्रान्ति का जो महान कार्य किया उसके मूल में भी उनकी योग एवं वेद विद्या ही कारण है। अतः स्वामी लक्ष्मणानन्द जी पर उपलब्ध जानकारी से पाठकों को अवगत कराने का विचार हुआ, जिसका परिणाम यह पंक्तियां हैं।

 

स्वामी लक्ष्मणानन्द जी का जन्म अमृतसर के एक खत्री परिवार में विक्रमी संवत् 1887 (सन् 1831) में हुआ था। दो वर्ष की आयु होने पर ही लक्ष्मणानन्द जी के पिता का देहान्त हो गया। अनुमान कर सकते हैं कि माता ने कितनी कठिनाईयों से अपने पुत्र लक्ष्मणानन्द का पालन किया होगा। वह समय ऐसा था जब लोगों में धर्म-कर्म की बातों को आज की तुलना में कहीं अधिक महत्व दिया जाता था। सम्भवतः इसी कारण आपकी साधु-संन्यासियों की संगति में विशेष रूचि हो गई थी और धर्म-कर्म विषयक अनेक उचित अनुचित बातों का आपकों ज्ञान हो गया था। आपकी माता को आपकी यह रूचि पसन्द नहीं थी। कुछ बड़े होकर आपने धनोपार्जन करना आरम्भ किया और आपको अच्छी सफलता मिली जिससे आपकी माता की अप्रसन्नता दूर हो गई। आप विवाह के प्रति उदासीन रहे। कालान्तर में जब स्वामी दयानन्द जी अमृतसर में आये तो आपने न केवल वहां उनके प्रवचन ही सुने अपितु उनके पास जाकर योगाभ्यास सीखने की भी इच्छा की जिसका परिणाम यह हुआ कि स्वामी दयानन्द जी ने आपको योगाभ्यास की समस्त आवश्यक क्रियाओं का क्रियात्मक अभ्यास कराया। इस प्रकार स्वामी दयानन्द ही आपके योगगुरु हुए। आपने ब्रह्मचर्य से सीधे ही संन्यास की दीक्षा ली। डा. भवानीलाल भारतीय जी ने आपके संन्यास के विषय में लिखा है कि आपने सम्वत् 1943 अर्थात् सन् 1887 में संस्कार विधि की पद्धति से ही संन्यास की दीक्षा ली। आपके संन्यास गुरु कौन रहे होंगे, इसका उल्लेख हमें नहीं मिल सका। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, एकादशी व्रत आदि पौराणिक कर्मकाण्डों के प्रति आपमें आरम्भ से ही अरूचि थी। ऐसा भी उल्लेख है कि स्वामी दयानन्द से योग की दीक्षा लेने से पूर्व आपने पहले दो योगियों से योग का कुछ प्रशिक्षण प्राप्त किया था तथा स्वामी दयानन्द जी ने आपको अष्टांग योग की पूर्ण विधि सिखाई थी।

 

आर्य सिद्धान्तों का स्वामी लक्ष्मणानन्द जी पूरी तरह से पालन करते थे। उन दिनों आर्य पद्धति से परिवार के किसी सदस्य की अन्त्येष्टि करने पर जातिबन्धु विरोध करते थे और जाति बाह्य भी कर देते थे। हम देखते हैं कि जब पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी जी के पिता का देहान्त हुआ तो आर्य पद्धति से उनकी अन्त्येष्टि का उनके प्रायः सभी जाति बन्धुओं ने विरोध किया था। पं. गुरुदत्त जी की आर्य सिद्धान्तों व पद्धति में गहरी निष्ठा होने के कारण उन्होंने उसकी कोई परवाह नहीं की थी, अतः वह संस्कार वैदिक पद्धति से ही सम्पन्न हुआ था। कालान्तर में जब स्वामी लक्ष्मणानन्द जी की माता की मृत्यु हुई तो आपने संस्कारविधि वर्णित आर्य पद्धति से ही अपनी माता की अंत्येष्टि कर वैदिक सिद्धान्तों में अपनी गहरी निष्ठा व विश्वास का परिचय दिया।

 

स्वामी लक्ष्मणानन्द जी ने योग पर ध्यान योग प्रकाश नाम से अपने अनुभवों पर आधारित पुस्तक लिखी है जिसका पहला संस्करण सन् 1902 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद सन् 1914, 1938, 1964 तथा 1976 में इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। इसका नया संस्करण रामलाल कपूर ट्रस्ट से कुछ वर्ष पूर्व ही प्रकाशित हुआ है और अब यही संस्करण पाठकों को बिक्री हेतु सुलभ है। हमारी दृष्टि में आपकी यह पुस्तक ही आपका स्मारक है। जो भी व्यक्ति इसे पढ़ेगा वह अवश्य इससे लाभान्वित होगा।

 

स्वामी लक्ष्मणानन्द जी का महर्षि दयानन्द का शिष्य होने व उनसे परिपूर्ण योग विद्या सीखने के कारण अपना ऐतिहासिक महत्व है। इसके साथ हमें इस बात ने भी प्रभावित किया है कि स्वामी लक्ष्मणानन्द जी आर्यजगत के प्रख्यात विद्वान पं. भगवद्दत्त जी के गुरु रहे हैं और इनकी शिक्षाओं का आपके जीवन पर गहरा प्रभाव हुआ। स्वामी लक्ष्मणानन्द जी के जीवन पर इससे अधिक जानकारी हमें प्राप्त न हो सकी। जितनी प्राप्त हुई, उसी से सन्तोष कर वह सामग्री हम पाठकों को इस भावना से भेंट कर रहे हैं कि स्यात् यह किसी को पसन्द आये।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

पुस्तक – परिचय पुस्तक का नाम- सत्यार्थ प्रकाश दर्शन

पुस्तक – परिचय

पुस्तक का नामसत्यार्थ प्रकाश दर्शन

सपादक प्रदीप कुमार शास्त्री

प्रकाशक शतादी स्मृति ग्रन्थमाला प्रकाशन समिति

आर्य समाज शहर, बड़ा बाजार, सोनीपत, हरियाणा

मूल्य – 60=00        पृष्ठ संखया – 192

प्रस्तुत पुस्तक विक्रम सवत् 2020 के सत्यार्थ प्रकाश-विशेषांक से चयनित कुछ विशिष्ट लेखों पर आधारित है।

महर्षि ने आर्यावर्त्त वासियों के लिए एक अमूल्य भण्डार प्रदान किया है। संसार में पोंगा पंथियों का बोल बाला है। वे भोली-भाली जनता को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। वे स्वयं भी अथाह गर्त में गिर रहे हैं तथा जन मानस को ऊपरी प्रलोभन देकर अपना उल्लू सिद्ध करने के लिए आडमबरों के  जाल में ग्रसित कर रहे हैं। स्वामी जी ने सत्य को सर्वोपरि रखा और आज एवं पूर्व में अर्थात् महाभारत काल के बाद में आये परिवर्तन को वास्तविकता का पाठ पढ़ाया। आज अंधविश्वासों एवं ढोंगियों का जाल फैला हुआ है, इसीलिए वेद-वेदांग और शास्त्रों को पढ़ने एवं सत्य को अपनी बुद्धि की कसौटी पर खरा उतरने के लिए सत्यार्थ प्रकाश पढ़ना-पढ़ाना अत्यन्त आवश्यक है।

स्वस्थ शरीर के लिए चरक संहिता के आधार पर उपचार किया जा सकता है, उसी प्रकार सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से सही ज्ञानार्जन एवं जन कल्याण संभव है। सत्याचरण से मन की, तप से आत्मा की तथा ज्ञान से बुद्धि की शुद्धि होती है। इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश सार के पढ़ने से कायाकल्प होजाता है। इस पुस्तिका में 16 लेख हैं, जिनमें सत्यार्थ प्रकाश क्यों, गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय, सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे, क्या विदेश यात्रा पाप है? मूर्ति पूजा विवेचन आदि लेख प्रमुख हैं। पाठक सपूर्ण पुस्तक का स्वाध्याय करेंगे तो पूर्ण आत्मसन्तोष होगा और भावी पीढ़ी का भी कल्याण होगा।

ईश्वर का निज नाम ओ3म् है। ऋषि ने ईश्वर के एक सौ नाम गिनाएँ हैं। धर्म आचार प्रधान है। विदेश यात्रा पाप नहीं, इतिहास की शिक्षा, मांस भक्षण निषेध, भारतीयों की विशेषता, गौरक्षा, मण्डन-खण्डन क्यों- पर आदि विषयों सरल सटीक भाषा में सार तत्त्व के आधार पर समपूर्ण सामग्री है। पाठकों को जीवन में उतारकर अवश्य लाभ उठाना चाहिए। सभी के लिए अनुपम सामग्री है।

– देवमुनि, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-

स्तुता मया वरदा वेदमाता-31

समजैषमिमाहं सपत्नीरभि भूवरीऋक्. 10/159/6

घर को सफलतापूर्वक चलाने के लिये मनुष्य में आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। आत्मविश्वास योग्यता और सामर्थ्य से उत्पन्न होता है। आचार्य चाणक्य कहते हैं- मनुष्य को अपने अन्दर आत्मविश्वास उत्पन्न करने के लिये ज्ञानवान बनना चाहिए। ज्ञान का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, परन्तु ज्ञान का प्रारमभिक भाग सब प्राप्त कर सकते हैं और वह सबके लिये उपयोगी है। सामान्य ज्ञान को चार भागों में शास्त्रकारों ने विभक्त किया, जिसे आन्विक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति कहा गया है। ये चारों विशेषज्ञता के कारण चार वर्णों की योग्यता का आधार बनती हैं। प्रत्येक व्यक्ति को कम या अधिक रूप में इनकी आवश्यकता होती ही है।

ये योग्यताएँ सबके लिये क्यों और कैसे आवश्यक होती हैं, इसको समझने के लिये शास्त्र के वचनों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। छोटी-से-छोटी इकाई में जो गुण होते हैं, बड़ी-से-बड़ी इकाई में भी वे ही गुण होते हैं, अन्तर उनकी मात्रा का होता है। सभी गुण सभी में होने पर उनकी मात्रा की भिन्नता से व्यक्ति के व्यक्तित्व का भेद होता है। एक व्यक्ति का बुद्धि पक्ष ब्राह्मण कहलाता है, सामर्थ्य पक्ष को क्षत्रिय कहते हैं, साधनों के संग्रह एवं वितरण पक्ष को, उपयोग को वैश्य नाम दिया गया है। वहीं इन सबको करने के लिये सहज प्राप्त सामर्थ्य को शूद्र कहा गया है। इनमें कोई भी अनावश्यक नहीं है, परन्तु उपार्जन की क्षमता के कारण इनके क्रम में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रत्व की कल्पना की गई है। प्रत्येक व्यक्ति चारों सामर्थ्य से युक्त होने पर ही पूर्णता को प्राप्त होता है। इनमें से कोई भी सामर्थ्य कम होने पर व्यक्ति अपूर्ण और असमर्थ हो जाता है।

इसी आधार पर मनुष्य शरीर को चार भागों में बाँटकर सिर को ब्राह्मण, भुजाओं को क्षत्रिय, मध्य भाग को वैश्य तथा पैरों को शूद्र कहा गया है। शरीर की इकाई के चार भाग किये गये हैं, उसी प्रकार समाज के चार भागों को मिलाकर एक शरीर बनता है। व्यक्ति, समाज एवं देश सभी एक व्यक्ति हैं और सभी के चार भाग हैं। इन्हीं को आन्विक्षिकी, त्रयी, वार्ता एवं दण्डनीति से सीखा जाता है। त्रयी से ज्ञानवान धर्माधर्म को जानता है, उसे ब्राह्मण कहा गया। दण्डनीति से न्याय-अन्याय को देखा जाता है, उसे क्षत्रिय कहते हैं। जहाँ हानि-लाभ को समझा जाता है, उसे वार्ता कहा गया है। इन तीनों का सामञ्जस्य आन्विक्षिकी के द्वारा आता है।

आन्विक्षिकी क्या है? इसके लिये कहा गया है- सांयं योगो लोकायतनं चेत्यान्विक्षिकी- सांय योग लोकायतन को समझना तीनों के लिये आवश्यक है। इस ज्ञान से ही व्यक्ति के अन्दर कार्य करने का सामर्थ्य उत्पन्न होता है। जब विषम परिस्थिति और समस्या सामने आती है, तो मनुष्य निर्णय करने में असमर्थ होता है। मनुष्य स्वस्थ सहज होने पर ही ठीक निर्णय लेने में समर्थ होता है। जो मनुष्य धार्मिक होता है, आस्तिक होता है, वह समस्या के आने पर विचलित नहीं होता। विवेक करके निर्णय करना उसके लिये कठिन नहीं होता। मनुष्य केवल दुःख में ही विचलित होता हो, ऐसी बात नहीं। वह अधिक प्रसन्नता, प्राप्ति एवं उत्साह की दशा में उचित समय पर निर्णय नहीं ले पाता और भूल कर बैठता है। जो घोषणा मन्त्र में एक गृहिणी कर रही है, उसके पीछे उसकी योग्यता ही कारण है। निर्णय करने की योग्यता में जो बाधा आ सकती है, उनको जान कर दूर करने का सामर्थ्य नेता में होना चाहिए। गृहिणी घर की नेतृ है, उसने सभी शत्रुओं को जीत लिया है। यहाँ शत्रु मनुष्य या व्यक्ति हो, यह अनिवार्य नहीं। कार्य में आने वाली सारी बाधायें भी शत्रु ही हैं। किसी भी प्रकार की बाधा को समझ सकना और बिना विचलित हुए उसे दूर करने के उत्साह को इस मन्त्र में बताया गया है।

‘ईश्वर की पूजा उपासना में भेदभाव एवं हिंसा अनुचित’

ओ३म्

ईश्वर की पूजा उपासना में भेदभाव एवं हिंसा अनुचित

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

देहरादून से लगभग 70 किमी. की दूरी पर चकराता नाम का एक सुन्दर व प्रसिद्ध पर्वतीय स्थान है। इसके अन्तर्गत जौनसार बाबर क्षेत्र के एक स्थान पुनाह पोखरी स्थित शिलगुर मन्दिर में हमारे पुराने मित्र राज्यसभा सांसद श्री तरुण विजय के नेतृत्व में दलितों ने मन्दिर में सामूहिक रूप से प्रवेश करने हेतु  कल 21 मई, 2016 को निकटवर्ती ग्रामवासियों ने अपने नेता श्री दौलत कुंवर सहित एक यात्रा निकाली और मन्दिर पहुंच कर पौराणिक रीति से पूरी श्रद्धा से पूजा अर्चना की। उसके बाद मन्दिर से वापिसी में वहां तथाकथित उच्च वर्ण के लोगों की भीड़ ने सांसद महोदय, दलित नेता श्री दौलत कुंवर सहित उनके साथियों पर पत्थरों की वर्षा कर जानलेवा हमला किया जिससे सांसद महोदय व उनके अनेक साथी गम्भीर रूप से घायल हो गये। यह हिंसा पूर्णतः अप्रत्याशित व अनावश्यक होने के साथ अनुचित व धर्म के सिद्धान्तों के विरुद्ध हुई। इस घटना में प्रशासन की ओर से भी कुछ कमियों का उल्लेख देहरादून के आज के समाचार पत्रों में हुआ है। यह भी कहा गया है कि यह क्षेत्र उत्तराखण्ड राज्य के गृहमंत्री जी का है। सांसद जी की कार भी गहरी खाई में ढकेल दी गई और सम्पत्ति में तोड़फोड़ की गई। उनको अस्पताल पहुंचाने और सेना अस्पताल में चिकित्सा में भी अनेक बाधायें आईं जो कि गहरी चिन्ता का विषय है। बताते हैं कि सैनिक अस्पताल में दो घंटे से अधिक समय तक चिकित्सा देने में आनाकानी की गई।

 

हिंसा की यह घटना हिन्दू धर्म के इतिहास व सत्य वैदिक सिद्धान्तों के पूर्णतः विरुद्ध है। ऐसा लगता है कि हिंसा करने वालां लोगों को किन्ही ज्ञात व अज्ञात असामाजिक तत्वों ने भड़काया हो अन्यथा संगठित हिंसा का होना संदिग्ध व असम्भव होता है। हम अपने मन्दिरों के पुजारियों को भी इस विषय में किंकर्तव्यविमूढ़ वा विवेक शून्य पाते हैं। उन्हें इसका कड़ा विरोध ही नहीं करना चाहिये अपितु उनका यह उत्तरदायित्व होता है कि वह समाज में दलित-सवर्ण द्वारा पूजा को लेकर जन-जन की समानता का प्रचार करें। हिंसा की इस घटना से हिन्दू समाज कमजोर होने के साथ उनमें परस्पर विद्वेष उत्पन्न हुआ है जो पूरी तरह से सबके लिए अहितकर व हानिकारक है। इसके दूरगामी प्रतिकूल परिणाम होंगे। यह ऐसा ही है जैसा कि एक घर में भाई भाई आपस में लड़ रहे हों और एक दूसरे को मार रहे हों। हिंसा करने वाले सोचते होंगे की उन्होंने धर्म की सेवा की है परन्तु हमारे 45 वर्षों के अध्ययन के अनुसार यह घोर अधार्मिक कार्य हुआ है। मन्दिर एक सार्वजनिक स्थान होता है जहां लोग बड़ी ही पवित्र भावनायें लेकर मन को एकाग्र कर ईश्वर व उसकी किसी देवता नामी शक्ति की स्तुति कर उससे प्रार्थनायें करने आते हैं। हमारी दृष्टि से हमारे दलित भाईयों को भारत के किसी भी मन्दिर में जाकर पूजा करने का उतना ही अधिकार है जितना कि एक पुजारी व गैर दलित सवर्ण कहलाने वाले लोगों को है। वेदों में तो स्वयं ईश्वर ने अपने निराकार सत्य-चित्त-आनन्द स्वरूप की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का विधान किया है। ईश्वर की किसी मन्दिर व अन्य स्थान में स्तुति-प्रार्थना-उपासना में यदि कोई व्यक्ति भले ही वह पुजारी ही क्यों न हो, बाधा उत्पन्न करता है तो यह धर्म नहीं अपितु घोर अधर्म का काम है। ऐसा इसलिए कि संसार की समस्त मानव जाति ईश्वर की सन्तानें हैं। जिस प्रकार एक बच्चा अपने माता-पिता से बिना किसी रोक-टोक मिल सकता  है, उसी प्रकार एक भक्त व मानव, भले ही वह किसी भी धर्म-जाति-सम्प्रदाय का क्यों न हो, वह ईश्वर के उपासना घर, मन्दिर व किसी भी सार्वजनिक धार्मिक स्थान पर जाकर कर सकता है। आर्यसमाज इसका साक्षात स्वरूप उपस्थित करता है। किसी भक्त को ईश्वर वा अपने इष्ट देवता की भक्ति व उपासना के कार्य से रोकना ईश्वर का व सत्य सनातन वैदिक धर्म का विरोध करना है जो धर्म कदापि नहीं अपितु अधर्म है। ऐसा ही कार्य देहरादून के चकरौता स्थान पर 20 मई की सायं को घटित काली घटना में हुआ है। यह घटना जनता के मौलिक अधिकारों के विरुद्ध तो है ही साथ हि इसमें अनेक लोगों का पक्षपात व अन्याय सम्मिलित है जिसकी जड़ में अज्ञान व स्वार्थ ही सम्भावित हैं। सुरक्षा व्यवस्था में कमी भी इस घटना को न रोक पाने में कारण रही है।

 

इस घटना का एक कारण हिन्दू समाज में प्रचलित जन्मना जातिवाद की व्यवस्था है। कुछ लोग जन्म के आधार पर अपने को बड़ा मानते हैं और दूसरों को मुख्यतः दलितों को छोटा। इसमें हमारे र्धार्मक नेता भी काफी हद तक उत्तरदायी हैं। हमने अपने जीवन काल में किसी धार्मिक पौराणिक नेता को जन्मना जातिवाद की आलोचना व खण्डन करते हुए नही सुना। महर्षि दयानन्द के वैदिक साहित्य, वेद, मनुस्मृति, गीता आदि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करने पर यह तथ्य सामने आता है कि जन्मना जातिवाद व समाज के विभिन्न वर्ग में ऊंच नीच की भावना प्राचीनतम वैदिक धर्म के सिद्धान्त व मान्यताओं के विरुद्ध है। हमें महर्षि दयानन्द का काशी में अकेले लगभग 30 दिग्गज पौराणिक पण्डितों से 16 नवमब्र, 1869 को वेदों से मूर्तिपूजा को सिद्ध करने के लिए आहूत शास्त्रार्थ की स्मृति भी मानस पटल पर उपस्थित हो रही है। न तब और न अब तक कोई मूर्तिपूजक विद्वान वेदों से मूर्तिपूजा के पक्ष में एक भी प्रमाण व मन्त्र के साथ सर्वमान्य युक्ति व तर्क ही उपस्थित कर सका है। महर्षि दयानन्द ने तो यहां तक कहा है, जो कि सत्य ही है, कि देश की गुलामी, निर्धनता, पराभव, दीनता, अज्ञानता व अन्धविश्वासों सहित अतीत व वर्तमान के देशवासियों के सभी प्रकार के कष्टों व दुःखों का कारण मुख्यतः मूर्तिपूजा, फलित ज्येतिष और मृतक श्राद्ध सहित बाल विवाह, बेमेल विवाह, अधिक खर्चीले विवाह, यथार्थ ईश्वर की उपासना का अभाव व सामाजिक सगठन की कमी आदि ही हैं। यदि स्त्री व दलितों सहित समाज के सभी वर्गों को हमारे पण्डितों ने वेदाध्ययन कराया होता तो न तो हम असंगठित होते और न गुलामी व अन्य मुसीबतें व आफते इस हिन्दू जाति पर आतीं। इतना पराभव होने व पतन के कागार पर पहुंच कर भी हम आज भी हिन्दू समाज को संगठित व मजबूत करने के स्थान पर उसे कमजोर ही किए जा रहें हैं जिसका परिणाम भविष्य में बुरा ही होना है। भविष्य की अन्धकारपूर्ण स्थिति के निराकरण एवं वर्तमान की सर्वोत्तम सामाजिक उन्नति के लिए हमें गुण, कर्म एवं स्वभाव पर आधारित एक मत, एक विचार, एक ईश्वर व एक धर्म पुस्तक वेद के नाम पर संगठिन नहीं हाना है। ऐसा न होने के कारण हम व सारा आर्यसमाज व्यथित है।

 

अब हमें ऐसा लगता है कि हिन्दू समाज व इसके धार्मिक नेता शायद सच्चे मन से इस सामाजिक भेदभाव की समस्या को हल करना ही नही चाहते। ऐसी स्थिति में एक ही उपाय है कि हमारे देश के सभी दलित भाई आर्यसमाज के अन्तर्गत संगठित हों। अपने अपने क्षेत्र में आर्यसमाज के सहयोग से आर्यसमाज मन्दिर बनायें। वहां श्री राम, श्री कृष्ण, श्री हनुमान, स्वामी दयानन्द आदि की तरह ईश्वर की वैदिक विधि से सामूहिक व एकल स्तुति प्रार्थना उपासना करें, सामूहिक व पारिवारिक यज्ञ करें, साप्ताहिक व दैनिक सत्संग करें, बच्चों को गुरुकुलों में प्रविष्ट कर उन्हें वेदों व शास्त्रों का पण्डित बनायें जिससे हमारे सभी दलित भाई हिन्दू समाज में अग्रणीय स्थान प्राप्त कर अन्यों के लिए भी आदर्श बन सकें। यह सम्भव है और इसी में पूरी मानव जाति का हित और कल्याण है। यदि ऐसा होता है तो फिर किसी को मन्दिर में प्रवेश की आवश्यकता ही नहीं होगी। न किसी तीर्थ पर जाना होगा और न कोई हमें और हमारे इन भाईयों को प्रताड़ित ही कर सकेगा। विद्या प्राप्त कर हमारे सभी भाई न केवल वैदिक विद्वान व पण्डित ही बनेंगे अपितु बड़े बड़े शासकीय पद भी प्राप्त करेंगे जैसे कि चोटीपुरा, मुरादाबाद के गुरुकुल की एक कन्या आईएएस बनी है। हमारे गुरुकंल पौंधा के अनेक बच्चे नैट परीक्षा पास कर पीएचडी कर रहे हैं व कुछ महाविद्यालयों में प्रोसेफर बन कर सफल पारिवारिक व सामाजिक जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

 

हमें आश्चर्य होता है कि लोग कानून से बेखौफ होकर अपराध व अनुचित कार्यों में लिप्त रहते हैं और यह स्थिति कम होने के बजाए बढ़ रही है। समाज के प्रायः सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार व्याप्त है। शिक्षा में नैतिक मूल्यों की कमी व सबके लिए अनिवार्य, समान व निःशुल्क शिक्षा न होने के कारण भी ऐसा हो रहा है। इसका समाधान केवल महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा है। हम आशा करते हैं कि देश व समाज के विशेषज्ञ लोग अपराधों के उन्मूलन पर यदि सच्ची भावना से विचार करेंगे तो उन्हें इसका समाधान वेद व ऋषि दयानन्द की विचारधारा में ही प्राप्त होगा। चकराता में घटी उपर्युक्त घटना चिन्ताजनक व दुःखद है। हमारे मन्दिर के पण्डित व पुजारियों को वेद आदि शास्त्रों का आलोचन व आलोडन कर सत्य को स्वीकार करना चाहिये। इस लेख को लिखने की प्रेरणा हमें देहरादून के यशस्वी आर्यनेता श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी ने की है। उनका धन्यवाद है। उन्होंने बताया कि देहरादून की आर्यसमाजों ने इस घटना पर दुःख क्षोभ व्यक्त किया है। आवश्यकता पड़ने पर निकट भविष्य में आर्यसमाज दलितों के अधिकारों के लिए आन्दोलन करेगा। उन्होंने राज्य सरकार से सभी दोषियों को कड़ा दण्ड देने की मांग की है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

डॉ0 धर्मवीर आचार्य का योगशास्त्रीय परमपरा के संवर्द्धन में योगदान

डॉ0 धर्मवीर आचार्य का योगशास्त्रीय परमपरा के संवर्द्धन में योगदान

राजवीर सिंह

महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त, वैदिक विद्वान्, गमभीर अनुसन्धाता, ओजस्वी वक्ता, उपदेशक, लेखक, बहुमुखी प्रतिभा के धनी तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती की स्थानापन्न परोपकारिणी सभा (अजमेर) के यशस्वी प्रधान तथा मन्त्री पदों के निर्वहन कर्त्ता पं0 धर्मवीर का जन्म महाराष्ट्र प्रदेश के उद्गीर क्षेत्र में आर्य परिवार से समबद्ध पिता श्री भीमसेन आर्य और माता श्रीमती ‘श्री’ के गृह में दिनाङ्क 20 अगस्त 1946 ईसवी को हुआ। आपने प्रारमभिक शिक्षा अपने जन्म क्षेत्र में प्राप्त की। तत्पश्चात् आर्यसमाज के तपोनिष्ठ एवं कर्मठ संन्यासी स्वामी ओमानन्द सरस्वती (पूर्वनाम आचार्य भगवान देव) के श्रीचरणों में अध्ययनार्थ गुरुकुल महाविद्यालय झज्जर में ईसवी सन् 1956 में प्रविष्ट हुए। आप एक मेधावी कुशाग्र बुद्धि छात्र होने के कारण अध्ययन में अग्रणी रहे। आपने गुरुकुल झज्जर, गुरुकुल काँगड़ी (हरिद्वार) आदि से आचार्य, एम.ए. तथा आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की। आपने पंजाब विश्वविद्यालय की दयानन्द शोधपीठ से ‘ऋषि दयानन्द के जीवनपरक महाकाव्यों का समीक्षात्मक अध्ययन’ विषय पर शोध करते हुए पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। आपने ईसवी सन् 1974 में दयानन्द कॉलेज अजमेर के संस्कृत विभाग में प्राध्यापक और अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। आप प्रभावशाली वक्ता, प्रचारक, चिन्तक, दार्शनिक तथा तार्किक हैं। आपकी सहधर्मिणी श्रीमती ज्योत्स्ना आर्या तथा आपकी पुत्रियाँ आपके सामाजिक कार्यों में पूर्णरूप से सहयोगी हैं और आपका पूरा परिवार पारस्परिक व्यवहार में संस्कृत भाषा का प्रयोग करता है।

आपने वैदिक धर्म, अध्यात्म आदि के प्रचारार्थ भारत वर्ष के प्रायः सभी प्रान्तों में यात्रा की है और विदेशों में हॉलैण्ड, सिंगापुर, नेपाल आदि स्थानों पर वैदिक धर्म का प्रचार किया है। प्रचार के साथ-साथ आप जिज्ञासु छात्रों को वैदिक साहित्य का अध्यापन भी पूरी निष्ठा से कराते रहते हैं। आप महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित परोपकारिणी सभा से ईसवी सन् 1984 में जुड़े और प्रधान तथा मन्त्री आदि पदों का निर्वहन करके सभा के उद्देश्यों तथा कार्यों को आपने एक सच्चे ऋषिभक्त के रूप में पूरा किया है। आपने परोपकारिणी सभा के अधीन अनेक प्रकल्प और योजनाएँ संचालित की हैं, जिनमें गुरुकुल स्थापना, साधना आश्रम की स्थापना, गोशाला की स्थापना आदि प्रमुख हैं।

आपने लेखन के माध्यम से महनीय कार्य किया है। आप परोपकारिणी सभा के मुखपत्र ‘परोपकारी’ पाक्षिक के अनेक वर्षों से अवैतनिक समपादक हैं। परोपकारी पत्रिका आर्यसमाज की विशिष्ट एवं मानक पत्रिका है। इसके गमभीर तथा समसामयिक समपादकीय आपकी अद्भुत प्रतिभा के प्रमाण हैं। आपकी लेखनी से समाज को ऊर्जा मिलती है।

आपके समपादकत्व में परोपकारी में ‘योगविद्या विषयक’ अनेक लेख प्रकाशित होते रहते हैं। आपने ‘सत्यार्थप्रकाश क्या है’ नामक पुस्तक के साथ-साथ अन्य लेखन भी किया है। आपके मार्गदर्शन में ऋषि उद्यान में साधना आश्रम का संचालन हो रहा है, जिसमें साधकगण साधनारत हैं। वर्ष में कई बार यहाँ योग शिविरों का आयोजन होता है, जिनमें आर्यसमाज के उच्चकोटि के योगविशेषज्ञ/योगगुरु/योगप्रशिक्षक जिज्ञासु साधकों को योग का क्रियात्मक प्रशिक्षण देते हैं और आप स्वयं भी योगविषय पर व्याखयान देने के साथ-साथ ‘योगदर्शन’ का अध्यापन करते हैं। आपकी प्रेरणा से आर्ययुवकों तथा युवतियों ने योगसाधना के मार्ग का अनुकरण किया है।

आप द्वारा वैदिक तथा दार्शनिक विषयों पर दूरदर्शन पर भी व्याखयान प्रस्तुत किये जाते हैं, जिनमें योग अध्यात्म भी एक अंग है। आपके व्यक्तिगत जीवन में योगाभयास के रूप में आसन, प्राणायाम और ध्यान अनिवार्य रूप से समाहित है। आपने विद्यार्थी काल में स्वामी ओमानन्द सरस्वती से प्राणायाम आदि का ज्ञान प्राप्त किया था। यहाँ ध्यातव्य है कि स्वामी ओमानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज के महान् योगी स्वामी आत्मानन्द सरस्वती (पं0 मुक्तिराम उपाध्याय) से योग साधना का ज्ञान प्राप्त किया था और योगदर्शन के प्रकाण्ड शास्त्रीय विद्वान् तथा साधक स्वामी आर्यमुनि से योगदर्शन का विशेष अध्ययन किया है। डॉ0 धर्मवीर आचार्य को ऐसे महान् योगसाधक (स्वामी ओमानन्द सरस्वती) से प्राणायाम आदि का विशेष ज्ञान मिला है।

डॉ0 धर्मवीर जी को अपने जीवन में अनेक योगसाधकों का सानिध्य मिला, जिनमें स्वामी सत्यपति परिव्राजक (रोजड़), स्वामी दिव्यानन्द सरस्वती (हरिद्वार), स्वामी आत्मानन्द सरस्वती, स्वामी ब्रह्ममुनि आदि प्रमुख हैं। इनके साथ ही आपको पौराणिक संन्यासी महात्मा आनन्द चैतन्य (बिजनौर) की योगसाधना को भी निकट से देखने व जानने का विशेष अवसर प्राप्त हुआ है।

डॉ0 धर्मवीर ने परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित अनेक ग्रन्थों का समपादन, निरीक्षण और प्रबन्धन किया, अतः इस प्रक्रिया में जितना भी योगविषयक साहित्य प्रकाशित हुआ है, उसमें आपका अनुभवी योगदान रहा है। इसके साथ ही स्वामी दयानन्द का समस्त साहित्य परोपकारिणी सभा के द्वारा प्रकाशित हुआ है। उसमें आपकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा अपने ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर योगविषयक बिन्दुओं की व्याखया प्रस्तुत की गई है, जिसे आपको अनेक बार पढ़ने और समपादित करने का विशेष अवसर प्राप्त हुआ है। इसके अतिरिक्त ऋषिमेले के अवसर पर अजमेर में आयोजित वेदगोष्ठियों में विद्वानों द्वारा प्रस्तुत शोधनिबन्धों को आपके समपादकत्व में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया गया है।

आर्यसमाज के प्रसिद्ध योगसाधक तथा लेखक स्वामी विश्वङ्ग द्वारा लिखित योगविषयक पुस्तकों में प्रकाशकीय का लेखन आप द्वारा किया गया है, जिनका प्रकाशन वैदिक पुस्तकालय दयानन्द आश्रम केसरगंज अजमेर द्वारा हुआ है।

उपरोक्त विवरण के आधार पर प्रमाणित है कि डॉ0 धर्मवीर आचार्य व्यक्तिगत जीवन में तथा लेखन और प्रचार के माध्यम से योगविद्या के विस्तार में संलग्न हैं और आप द्वारा सपादित परोपकारी पत्रिका तथा आपके नेतृत्व में संचालित दयानन्द साधक आश्रम और परोपकारी प्रकाशन विभाग आदि भी योगशास्त्रीय परमपरा के संवर्द्धन में विशेषरूप से सक्रिय हैं।

– शोधछात्र, संस्कृत, पालि एवं प्राकृत विभाग, म.द.वि.वि. रोहतक, हरियाणा

हैदराबाद पुस्तक मेले में इस्लामिक बुकस्थल पर धर्म चर्चा मैं

हैदराबाद पुस्तक मेले में इस्लामिक बुकस्थल पर धर्म चर्चा

मैं (रणवीर) और राहुल जी (अकोला) पुस्तक मेले में संदर्शनार्थ गये थे। हम प्रवेश पत्र लेकर जैसे ही अन्दर गये, वहाँ पर एक अच्छा-सा मंच लगाया हुआ था, उस मंच पर प्रतिदिन नये-नये पुस्तकों का उद्घाटन होता रहता था और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते रहते थे। उस मंच के चारों तरफ भव्य सुन्दर पुस्तक बिक्री की दुकानें लगी हुई थीं। हम एक-एक बिक्री विभाग देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। एक पुस्तक बिक्री विभाग पर हमारे सहिष्णु मित्रों द्वारा खुल्लम-खुल्ला धर्म प्रचार हो रहा था, उस बिक्री विभाग में भेड़ जैसे मूर्ख, बुद्धू हिन्दुओं को भेड़ की खाल में भेड़िये दीन की ओर आकर्षित कर रहे थे। वहाँ पर जाकर हमने भी धर्म चर्चा में भाग लिया। एक मौलवी एक धर्म निरपेक्ष (सेक्यूलर) हिन्दू बाप-बेटी को कुरान हाथ में थमा कर कुरान में विज्ञान है, कुरान में विज्ञान है, कुरान में भाईचारा है, कुरान में सृष्टि विद्या है, कुरान ईश्वरीय ज्ञान है….. ऐसी-ऐसी बातें बता रहे थे। तो हमने झट से प्रश्न किया- आपके कहे अनुसार कुरान मनुष्य मात्र के लिए है, भाईचारा है, तो कुरान में काफिरों के लिए भाईचारा क्यों नहीं? उन्होंने इसका कोई उत्तर नहीं दिया, फिर हमने दूसरा प्रश्न किया- हजरत मोहमद कहाँ तक पढ़े-लिखे थे? तो उन्होंने कहा- कुछ भी पढ़े-लिखे नहीं थे, हमने कहाँ- जो स्वयं पढ़े-लिखे नहीं, वो दुनिया को क्या पढ़ा सकता है? बीच में बुजुर्ग हिन्दू कूद पड़े और कहने लगे- यह समभव है कि एक अनपढ़ भी पढ़ा सकता है। तो हमने कहा- आप तो पढ़े-लिखे लग रहे हैं श्रीमान् जी! क्या आपने अपनी पुत्री को किसी बिना पढ़े के पास पढ़ने के लिए भेजा था क्या? तो वे निरुत्तर हो गये। हमने उदाहरण के रूप में समझाया- वनवासी जो नग्न होके घूमते रहते हैं, बिना पढ़ाये हुए, वो शिक्षित हो रहे हैं क्या? आप तो पैगमबर बनने की बात कर रहे हैं। फिर हमने तीसरा प्रश्न किया कि आप तो पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को मानते ही नहीं। तो मौलवी ने प्रश्न किया- आप यह मानते हैं कि जो इस जन्म में अच्छे कर्म करते हैं, उनको परमात्मा अगला जन्म प्रमोशन के तौर पर और अच्छा जन्म देता है? तो हमने कहा- हाँ स्वाभाविक है। फिर मौलवी ने प्रश्न किया- उनका अगला जन्म झोपड़पट्टी में क्यों होता है? तो हमने जवाब दिया- उनके कर्मों के अनुसार। मौलवी ने प्रश्न किया- पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को सिद्ध करो। तो हमने कहा- आप हमारे सामने सात-आठ मौलवी खड़े हैं, आप सारे के सारे एक जैसे क्यों नहीं है? कोई काला, कोई मोटा, कोई पतला, कोई टेड़ा…..? इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हर एक का शरीर एक जैसा नहीं है और मन, बुद्धि, इन्द्रियों की शक्ति सामर्थ्य भी अलग-अलग है। तो इससे यदि आपको मालूम पड़ता है कि यह भेदभाव अल्लाताला ने जानबूझ कर अपनी मर्जी से किया है, तो अल्लाताला अन्यायकारी सिद्ध होगा, लेकिन यह पूर्वजन्म के अपने-अपने कर्मानुसार हमें मिले हैं। एक मौलवी ने प्रश्न किया- जो पिछले जन्म में अच्छे कर्म किये हैं, उनको ज्वर आदि की पीड़ा बिल्कुल भी नहीं होनी चाहिए। तो हमने उत्तर दिया- जनाब, ज्वर की बात छोड़िये, यदि जीवात्मा ने पिछले जन्म में कुछ बुरे कर्म किये होंगे तो परमात्मा उनके शुभ कर्मानुसार उनको अच्छा शरीर देकर फिर उनके बुरे कर्म फलस्वरूप उनके शरीर के अंगों को छीन लेते हैं, जैसे दुर्घटना में हाथ या पाँव कट जाना आदि। और एक उदाहरण- बच्चे बहुत मासूम होते हैं, वे तो मन से भी पाप नहीं करते हैं, तो उनका भी अपने पिछले जन्मों के कर्मानुसार किसी दुर्घटना में हाथ या पाँव आदि टूटना आदि होता रहता है, और तो और मासूम बच्चों की बात छोड़िये, जब एक माँ गर्भवती होती है तो आप उस गर्भवती माँ से पूछिये कि क्या अपने पेट के अन्दर अपने बच्चे का हाथ, पाँव, मुख, हृदय आदि इन्द्रियाँ वह स्वयं तैयार कर रही हैं क्या? तो आप जवाब पाओगे कि नहीं, दुनिया कि कोई भी माँ अपने पेट के अन्दर के बच्चे के शरीर का निर्माण स्वयं नहीं कर सकती, वह परमात्मा का कार्य है। यदि उस माँ को वह कार्य सौंप दिया होता तो कोई भी अपंग बच्चा पैदा नहीं होता। इससे साबित हो रहा है कि उन बच्चों ने माँ के गर्भ में कोई कर्म ही नहीं किये, फिर भी उनके पिछले जन्मों के अशुभ कर्मों के दण्ड के तौर पर वे बच्चे अपंग पैदा हो रहे हैं और माँ के गर्भ में बच्चे के दिल के अन्दर छेद कौन कर रहा है? स्वयं माँ तो नहीं कर सकती है न? उस बच्चे ने अभी जन्म भी नहीं लिया, कोई कर्म भी नहीं किया, नौ महीने भी पूरे नहीं हुए, फिर भी उसके दिल में छेद क्यों हो गया है? ये उनका पूर्व जन्मों का अशुभ कर्मों का फल है, वह परमात्मा दे रहा है, वह न्यायकारी है। इस विषय पर वे चुप हो गये। दूसरे मौलवी ने हम दोनों से कहाँ- भैया, आप यहाँ से चले जाइए। वे सोच रहे थे कि भीड़ ज्यादा इकट्ठा हो रही है, बात नहीं जम रही है। तो और एक मौलवी ने हम से प्रश्न किया- आप मूर्ति में भगवान को मानते हैं क्या? आप अवतार आदि को भी मानते हैं और आप वराह अवतार को भी मानते हैं कि नहीं? तो हम ने कहाँ- मूर्ति जड़ है, प्रकृति है, परमात्मा नहीं, हम अवतार आदि को भी नहीं मानते, परमात्मा जीवात्मा नहीं हो सकता, जीवात्मा परमात्मा नहीं हो सकता, तो वे चुप हो गये। हमने मौलवियों से प्रश्न किया- कुरान में भाईचारा है, शान्ति का सन्देश है, तो क्यों अल्लाताला ने गाय को काट के खाने को कहा है, सूअर को नहीं? तो उन्होंने हमसे कहा- आपके सामने एक तरफ अमृत है, एक तरफ जहर है, तो आप किसे स्वीकार करेंगे? हमने कहा- अमृत को, तो उन्होंने कहा- सूअर जहर है, इसीलिए कुरान में उसको खाने के लिए मना किया गया है और सूअर किसी दूसरे काम के लिए बनाया गया है, तो हमने कहा- गाय के गोबर से खेत पुष्ट होते हैं, उस अन्न को खाने से हम मनुष्य पुष्ट होते हैं, गौ मूत्र से कैंसर आदि रोग ठीक हो रहे हैं, दवाइयों में उपयोग होता है, दूध से घी बनता है, उसे खाने से बुद्धि पवित्र होती है, यदि अल्लाताला न्यायकारी है, गाय और सूअर दोनों को खाने के लिए कहता या दोनों को नहीं खाने के लिए कहता। एक के साथ न्याय, एक के साथ अन्याय? इससे सिद्ध हो रहा है कि यह कुरान अल्लाताला का नहीं, किसी अल्पज्ञ के द्वारा लिखी हुई पुस्तक है। सूअर को किसने बनाया? अल्लाताला ने या किसी और ने? पूछने से वे निरुत्तर हो गये। हमने मौलवियों से प्रश्न किया- आपका अल्लाताला सातवें आसमान पर कहाँ है? आसमान कितने होते हैं? अल्लाताला का सिंहासन कहाँ है? उनके आठ चेले बकरे के जैसे मुँह वाले सिंहासन को उठाने वाले कहाँ हैं? तो हमारे प्रश्नों की झड़ी सुनकर वे कहने लगे- भैया, आप दोनों यहाँ से चले जाइये। तो हमने कहा- आपके अल्लाताला का सिंहासन यहाँ लाओ, हम बैठना चाहते हैं। दो-तीन मौलवी हमारे पास आकर हमारी कमर पकड़ कर बोले- भैया, कृपया आप यहाँ से चले जाइये। एक ओर मौलवी ने कहा- तुहारे वेदों में पैगमबर मोहमद का नाम सामवेद के अध्याय के एक श्लोक में आता है। हम पूज्य जिज्ञासु जी द्वारा लिखित ‘कुरान सत्यार्थ प्रकाश के आलोक में’ पढ़ चुके थे, झट से बोले- कुरान में हर सूरत से पहले ऋषि दयानन्द जी का नाम आता है, तो वे मौलवी आग-बबूला होते हुए कुरान हमारे हाथ में थमा कर ‘दिखाओ’ कहने लगे, तो हमने कहाँ- अभी दिखाते हैं, यह कहकर हमने रहमान-उल-रहीम का तो सीधा-सा अर्थ दयालु दयानन्द या दयावान दयानन्द है, यह कहा। हमसे यह उत्तर सुनकर उनके पैरों तले धरती खिसक गई। फिर हमने कहा- चारों  वेदों में मन्त्र होते हैं, श्लोक नहीं, सामवेद में अध्याय नहीं होते हैं, पूर्वार्चिक उत्तरार्चिक होते हैं। फिर हमने एक ओर प्रश्न किया- कुरान में लिखा हुआ है कि चाँद के दो टुकड़े हुए हैं, तो मौलवी ने कहा- जाओ जाके देखो, दिखेगा….। वहाँ जितने भी लोग खड़े थे, वे हँसने लगे और हम भी खूब हँसे एवं हँसते हुए बोले- आप महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का सत्यार्थ प्रकाश पढ़िये, हम आर्यसमाजी हैं और कुल्लियाते आर्य मुसाफिर पढ़िये, अमर शहीद पं. लेखराम जी की है। उसमें तो पं. लेखराम जी ने कुरान की धज्जियाँ उड़ा रखी हैं। कहते हुए हम खूब हँसते रहे। दो-तीन मौलवी हमारे कमर पर हाथ रखकर- जाओ भाई, यहाँ से जाओ, कहने लगे तो हमने उनसे यह अन्तिम वाक्य कहते हुए विदा ली- आपसे धर्मचर्चा करके हमें बहुत प्रसन्नता हो रही है, इस तरह की धर्मचर्चा हर गली में, हर मौहल्ले में, हर मस्जिद में होनी चाहिए। ये शबद कहते हुए, न चाहते हुए भी वहाँ से हमें घर लौटना पड़ा। अस्तु। धन्यवाद।

– रणवीर

ओ3म् जय जगदीश हरे… यह भजन पौराणिक जगत् में आरती के नाम से प्रचलित है। इसके रचनाकार महर्षि के घोरविरोधी पं. श्रद्धाराम फिलौरी हैं, किन्तु आर्य समाज की पुस्तकों में भी यह विद्यमान है। क्या भजन के रूप में इसे आर्य परिवारों में भी बोला जा सकता है? कृपया, समाधान करें।

आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआदरणीय सपादक जी,

सादर नमस्ते।

ओ3म् जय जगदीश हरे… यह भजन पौराणिक जगत् में आरती के नाम से प्रचलित है। इसके रचनाकार महर्षि के घोरविरोधी पं. श्रद्धाराम फिलौरी हैं, किन्तु आर्य समाज की पुस्तकों में भी यह विद्यमान है। क्या भजन के रूप में इसे आर्य परिवारों में भी बोला जा सकता है? कृपया, समाधान करें।

– विश्वेन्द्रार्य, आगरा

समाधान – (क) महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में वेद की मान्यता के प्रचार को सर्वोपरि रखा। जो भी महर्षि को वेद विरुद्ध दिखता था, उसका प्रतिकार अवश्य करते थे। कभी महर्षि ने अपने जीवन में वेद विरुद्ध मत के साथ समझौता नहीं किया। जब कभी उनको लगता कि कुछ उनसे गलत हुआ है तो तत्काल अपनी गलती स्वीकार कर तथा उसे छोड़कर आगे बढ़ जाते थे।

जिस समय जयपुर में महर्षि पधारे तो उस समय वैष्णवों का मत अधिक प्रचलित था, उस मत को दबाने के लिए महर्षि दयानन्द ने शैव मत का प्रचार किया और इतना प्रचार किया कि वहाँ के मनुष्यों के गले में रुद्राक्ष तो आये ही आये, ऊँट-घोड़े-हाथी तक को भी रुद्राक्ष पहनाए जाने लगे थे। कालान्तर में महर्षि से किसी ने इस विषय में पूछा तो ऋषिवर ने बड़ी विनम्रता से कहा कि वह हमारी भूल थी, हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था। महर्षि दयानन्द तो इस समाज की भूलों को दूर करने में लगे रहे और हम हैं कि इस महर्षि के  भूल रहित आर्य समाज में भूल डालते जा रहे हैं। आर्य समाज के वे तथा कथित उदारवादी सिद्धान्तों से समझौता करने में आगे बढ़-चढ़ कर भाग लेते दिखाई देते हैं। यज्ञ में गणेश पूजा हो रही है कोई बात नहीं, होने देते हैं। किसी की श्रद्धा है तो हम क्यों किसी की श्रद्धा को ठेस पहुँचावे? ये सोच उदारवादियों की है और तिलक लगाना, हाथ पर धागा बाँधना, यज्ञ के बाद प्रसाद के बहाने धन हरण करना आदि। इनके साथ पूर्णाहुति से पहले इस मन्त्र का पाठ किया जाता है-

पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

इसका भाव तो बहुत अच्छा है कि- वह भी पूर्ण है, यह भी पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण निकलता है। पूर्ण में से समपूर्ण निकाल लें तब भी पूरा रहे, पूरे में पूरा जोड़ दें तब भी पूरा रहे। यह विलक्षण बात परमेश्वर को पूर्ण दिखाने के लिए कहीं गई है, किन्तु यज्ञ की पूर्ण आहुति के समय इसको बोलना, पुरोहितों की स्वच्छन्दता है। वहाँ तो महर्षि दयानन्द ने ‘‘सर्वं वै पूर्णं स्वाहा’’ इस वाक्य से तीन बार पूर्ण आहुति का विधान किया है।

इसी प्रकार पूर्णाहुति के बाद बचे हुए घी को शतधार रूप बनाकर डालने के लिए भी मन्त्र खोज लिया है-

वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम्।

देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः।।

– य. 1.3

इस मन्त्र में ‘‘शतधारम्’’ और ‘‘सहस्रधारम्’’ शबदों को देखकर यज्ञ की समाप्ति पर यज्ञ कुण्ड के ऊपर छेदों वाली छलनी बाँध देते हैं और उसमें घी डालकर शत सहस्र धार बनाते हैं, जो कि इस प्रकार का विधान यज्ञ कर्म में कर्मकाण्ड से जुड़ें ग्रन्थों में नहीं लिखा हुआ है। यहाँ इस मन्त्र में आये ‘शतधारम्’ और ‘सहस्रधारम्’ का अर्थ धारा न होकर दूसरा ही है। इन दोनों का महर्षि दयानन्द अर्थ करते हैं- (धारम्) असंखयात संसार का धारण करने वाला (परमेश्वर)। (सहस्रधारम्) अनेक प्रकार के ब्रह्माण्ड को धारण करने वाला (ईश्वर)। इन दोनों शबदों का अर्थ महर्षि ने इस ब्रह्माण्ड व समस्त चराचर जगत् को धारण करने वाला परमात्मा किया है और ये यज्ञ में घी की धारा लगाने वाले सौ धारा, हजार धारा को लेकर करते हैं जो कि उचित नहीं है।

उपरोक्त यज्ञ में महर्षि की बात को छोड़ स्वेच्छा से किये कर्मों के साथ यह ‘आरती ’ भी ऐसा ही कर्म है। इस ‘आरती’  गाने का निषेध हम इसलिए नहीं कर रहे कि यह ‘आरती’ महर्षि दयानन्द के विरोधी श्रद्धाराम फिलौरी ने लिखी है, निषेध तो इसलिए कर रहे हैं कि इसमें अयुक्त बातें लिखी हुई हैं।

‘जो ध्यावे फल पावे’- इस वाक्य को यदि वैदिक दृष्टि से देखेंगे तो युक्त नहीं हो पायेगा, क्योंकि वैदिक सिद्धान्त में ध्यान मात्र से फल नहीं मिलता, फल के लिए पुरुषार्थ (कर्म) करना पड़ता है। हाँ, यदि ध्यान सत्य परमेश्वर का विधिवत् किया गया है तो मन के शान्ति रूपी फल अवश्य मिलेगा, किन्तु यहाँ तो मूर्ति के सामने आरती गाई जा रही है, उसका फल क्या होगा, आप स्वयं निर्णय करें। आरती में आता है- ‘‘मैं मूरख खल कामी।’’ अब इस वाक्य को बोलने वाले क्या सब कोई मुर्ख, खल और कामी हैं? यहाँ तो इसको बड़े-बड़े सन्त गाते हैं। या तो संत इस बात पर ध्यान नहीं देते अथवा अपने को खल, कामी मानते होंगे। और भी ‘‘ठाकुर तुम मेरे’’ में ठाकुर शबद विष्णु के लिए प्रयोग में आता है, इसका एक अर्थ प्रतिमा भी है। विष्णु जो पौराणिक परमपरा में ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से एक हैं। अब यदि ऐसा है तो यज्ञ के बाद वैदिक मान्यता वाले को यह आरती नहीं गानी चाहिए।

यज्ञ के बाद संस्कारों में महर्षि दयानन्द ने वामदेव गान करने को कहा है। यदि हम ऐसा करते हैं तो अति उत्तम है और यदि नहीं कर पा रहे तो उसके स्थान पर वैदिक सिद्धान्त युक्त यज्ञ प्रार्थना आदि भजन गा लेते हैं तो भी ठीक ही है। ‘यज्ञ प्रार्थना’ जैसे उत्तम गीत को छोड़ या उसके साथ-साथ यह अवैदिक आरती गाना युक्त नहीं है, इसलिए आर्य लोग इसको यज्ञ के बाद न अपनावें और न ही अपनी दैनिक नित्य कर्म आदि पुस्तकों में छापें।

पं. श्रद्धाराम फिलौरी जो कि इस आरती के लेखक हैं, के विषय में आर्य जगत् के इतिहास के मर्मज्ञ प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने ‘इतिहास की साक्षी’ पुस्तक में विस्तार से बताया है। इनके पत्रों को भी उस पुस्तक में दिया हुआ है, जिससे कि पाठकों को इनकी स्वाभाविक मनोवृत्ति का पता लगे।

वेद उपनिषदों के विषय में इनकी क्या मान्यता रही है, उसे हम यहाँ लिखते हैं- ‘‘संवत् 1932 में मुझे चारों वेदों को पढ़ने और विचारने का संयोग मिला तो यह बात निश्चित हुई कि ऋग्वेदादि चारों वेद भी यथार्थ सत्य विद्या का उपदेश नहीं करते, किन्तु अपरा विद्या को ही लोगों के मन में भरते हैं। हाँ, वेद के उपनिषद् भाग में कुछ-कुछ सत्यविद्या अर्थात् पराविद्या अवश्य चमकती है, परन्तु ऐसी नहीं कि जिसको सब स्पष्ट समझ लेवें। चारों वेद और उपनिषद् का लिखने वाला सत्यविद्या को जानता तो अवश्य था, परन्तु उसने सत्य विद्या को वेद में न लिखना व छिपा के लिखना इस हेतु से योग्य समझा दिखाई देता है कि उस समय के लोगों के लिए वही उपदेश लिखना श्रेष्ठ था।’’ (पुस्तक ‘इतिहास की साक्षी’ से उद्धृत)। इसमें स्पष्ट रूप से फिलौरी जी का वेद के प्रति मन्तव्य आ गया। उनकी मान्यता रही कि वेद सत्य उपदेश नहीं करता। जिसका वेद पर विश्वास नहीं, उसका ईश्वर पर कैसे हो सकता है और वह सिद्धान्त को कैसे ठीक-ठीक प्रतिपादित कर सकता है, जैसा कि उनकी आरती से ज्ञात हो रहा है। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर रोड, अजमेर।   

वीरो! अपना देश बचाओ

वीरो! अपना देश बचाओ

-पं. नन्दलाल निर्भय भजनोपदेशक पत्रकार

आर्यवर्त्त के वीर सपूतो, मिलजुल करके कदम बढ़ाओ।

महानाश की ज्वालाओं से, अपना प्यारा देश बचाओ।।

 

ऋषियों-मुनियों के भारत में, पापाचार गया बढ़ भारी।

डाकू , गुण्डे, चोर सुखी हैं, मस्ती में हैं मांसाहारी।।

शासक दल बन गया शराबी, आज दुःखी हैं वेदाचारी।

रक्षक हैं भारत में भक्षक, जागो! भारत के बलधारी।।

मानवता का पाठ पढ़ाओ, पावन वैदिक धर्म निभाओ।

महानाश की ज्वालाओं से, अपना प्यारा देश बचाओ।।

 

काट-काट बिरवे गुलाब के, यहाँ नागफन सींचा जाता।

डाल-डाल पर बैठे उल्लू, देख-देख माली हर्षाता।।

खाओ-पीओ, मौज उड़ाओ, युवा वर्ग है निश-दिन गाता।

अपमानित हैं यहाँ देवियाँ, सिसक रही है भारत माता।।

राम, भरत के वीर सपूतो! दुःखी जनों के कष्ट मिटाओ।

महानाश की ज्वालाओं से, अपना प्यारा देश बचाओ।।

 

उग्रवाद, आतंकवाद ने, देश हमारा घेर लिया है।

नेता हैं कुर्सी केाूखे, पाप जिन्होंने बढ़ा दिया है।।

देश-धर्म का ध्यान नहीं है, जिनका पत्थर बना हिया है।

वैदिक पथ तज दिया खलों ने, भारत को बर्बाद किया है।।

स्वामी दयानन्द बन जाओ, जग में नाम अमर कर जाओ।

महानाश की ज्वालाओं से, अपना प्यारा देश बचाओ।।

 

गो ब्राह्मण की सेवा करना, ऋषियों ने है धर्म बताया।

गो माता है खान गुणों की, वेद शास्त्रों में दर्शाया।।

लेकिन उनकी शिक्षाओं को, दभी लोगों ने बिसराया।

नकल विदेशों की कर-करके, अपना जीवन नरक बनाया।।

गो हत्या को बन्द कराओ, वीरो! कृष्ण स्वयं बन जाओ।

महानाश की ज्वालाओं से, अपना प्यारा देश बचाओ।।

 

याद रखो! जो देश-धर्म की, श्रद्धा से करते हैं सेवा।

वही भाग्यशाली पाते हैं, कीर्ति सुयश की पावन मेवा।।

डूब रही है नाव धर्म की, पार लगाओ बनकर खेवा।

अगर न जागे नहीं मिलेगा, नाम तुमहारा जग में लेवा।।

‘‘नन्दलाल’’ है भला इसी में, जितना हो शुभ कर्म कमाओ।

महानाश की ज्वालाओं से, अपना प्यारा देश बचाओ।।

– ग्राम व पो. वहीन जनपद पलवल (हरियाणा)  चलभाष – 9813845774

ईश्वर अवतार नहीं लेता

ईश्वर अवतार नहीं लेता

– डॉ. ब्रजेन्द्रपाल सिंह

ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, अनादि व अनन्त अजन्मा आदि गुणों वाला है, ऐसा वेद में वर्णन है, परन्तु पौराणिक भाई मानते हैं कि ईश्वर जन्म लेता है, जिसे अवतारवाद कहते हैं। राम को ईश्वर का अवतार मानते हैं, कृष्ण को भी ईश्वर का अवतार मानते हैं। यह भी मानते हैं कि किसी भी रूप में ईश्वर धरती पर जन्म लेकर आता जाता है।

अवतारवाद पूर्णतः वेद विरुद्ध है। वेद में ईश्वर के जन्म लेने व अवतार का कहीं वर्णन नहीं, अपितु वह अजन्मा है, जन्म नहीं लेता, अनादि है। उसका न आदि है, न अन्त है। वह एक स्थान पर नहीं रहता, सर्वव्यापक है, कण-कण में समाया है। हमारे अन्दर बाहर है, आकाश- जल- थल- पृथ्वी- चन्द्रमा- सूर्य और उससे आगे तक भी है, जहाँ हमारा मन नही पहुँचता, वहाँ भी है। पहले से है, सृष्टि की उत्पत्ति से पहले भी रहता है, प्रलय के बाद भी रहता है, सर्वशक्तिमान् है, अपनी शक्ति से ग्रह, तारों को घुमा रहा है। यह सब जगत् उसी का है, उसने ही तो बनाया है, नियम से चला रहा है-

ईशावास्यमिदं सर्वयत्किञ्च जगत्यां जगत्।

तेन व्यक्तेन भुञ्जीथा मा ग्रधः कस्यस्विद्धनम्।।

ईशोपनिषद्

अर्थात् इस संसार में जो भी यह जगत् है, सब ईश्वर से आच्छादित है, अर्थात् ईश्वर सृष्टि के कण-कण में बसा है, सर्वव्यापक है। यह सब धनादि जिसका हम उपयोग कर रहे हैं, सब उसका ही है। हम यह सोच कर प्रयोग करें कि यह हमारा नहीं है। जो कुछ हमें उस प्रभु ने दिया है, उस सबका त्याग के भाव से प्रयोग करें।

सृष्टि में जो कुछ भी है, उसी का है। ग्रह, उपग्रह, पृथ्वी व चन्द्रमा आदि निश्चित वेग से घूम रहे हैं, एक नियम से चक्कर काट रहे हैं, गति कर रहे हैं। समय पर ऋतुएँ आती है, जाती हैं। वह जगत् को नियम में चला रहा है।

वह बिना जन्म लिए ही सब काम कर रहा है। उसे जन्म लेने की क्या आवश्यकता है? कहते हैं, रावण को मारने के लिए राम के रूप में ईश्वर ने अवतार लिया या जन्म लिया- ये सब बातें काल्पनिक हैं, मन गढ़न्त हैं। पूरी सृष्टि को चलाने वाला बिना जन्म लिये ही सब कार्य कर रहा है, सब पर उसकी दृष्टि है, सब देख रहा है। ब्रह्माण्ड में ग्रह तारे सब गति कर रहे हैं, कभी किसी से टकराते नहीं, जैसे कि चौराहे पर ट्रैफिक कण्ट्रोलर यातायात को कण्ट्रोल करता रहता है। यदि यातायात को नियन्त्रण न किया जाय तो यातायात अवरुद्ध हो जाएगा, गाड़ियाँ आपस में टकराएँगी, परन्तु यातायात नियंत्रक के कारण सब ओर की गाड़ियाँ बिना अवरोध के ही आती-जाती रहती हैं। यही प्रक्रिया सृष्टि को चलाने वाले उस परमात्मा की है, वह सबको देखने वाला है, कर्मों के अनुसार फल देने वाला है, जो हम सोचते हैं वह सब जानता है, परन्तु वह भोक्ता नहीं, वह सत्य चेतन आनन्द स्वरूप है। यहाँ जन्म तो वही लेगा, जिसे कर्मों का फल भोगना है। जीव बार-बार जन्म लेता है, मोह माया में बँधा हुआ है। ईश्वर मोह माया में बँधा नहीं, वह तो जगत् नियन्ता है, जगत् को चला रहा है, सबको देख रहा है, अनादि है, अनन्त है। तीन तत्त्व अनादि अनन्त है- परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति –

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नवन्यो अभिचाक शीतिः।

– ऋग्वेद 1/164/20

यहाँ यही बताया है कि एक वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं, उनमें एक उस वृक्ष के खट्टे-मीठे फलों का स्वाद चख रहा है, दूसरा उस पक्षी को देख रहा है, स्वाद नहीं चख रहा। आलंकारिक भाषा में यहाँ त्रिविध अनादि तत्त्व ईश्वर, जीव व प्रकृति का वर्णन है। वृक्ष प्रकृति के रूप में दर्शाया है, देखने वाले पक्षी का संकेत ईश्वर के लिए तथा फल खाने वाला पक्षी का जीव की ओर संकेत है। ईश्वर इस प्रकृति में जीव के कर्मों को देख रहा है। वह कर्मों का भोक्ता नहीं है। जब भोक्ता नहीं तो जन्म किसलिए? वह तो सर्वव्यापक विभु है, सर्व शक्तिमान् है, अपनी शक्ति से सृष्टि को चला रहा है। रावण हो या दुर्योधन, सबने अपने कर्मों को भोगा। ईश्वर के अवतार से राम का कोई समबन्ध नहीं। वे कौशल्या के गर्भ से पैदा हुए, संसार में आए और उन्होंने अपने कर्म किए। उनका कर्म उनके साथ था। वे दशरथ के पुत्र थे। ईश्वर किसी का पुत्र नहीं, अपितु सबका पिता है। कर्मफल भोक्ता तो गर्भ में भी रहेगा, जन्म भी लेगा, दुःख भी सहेगा, क्लेश भी सहेगा, माया-मोह के बन्धन में भी रहेगा, मृत्यु भी होगी। यह गुण कर्मफल भोक्ता जीव के तो हैं, ईश्वर के नहीं, अतः राम को ईश्वर बताना न तर्कसंगत है, न युक्ति युक्त। राम दशरथ नन्दन थे, राजा मर्यादा पुरुषोत्तम थे। वेदानुसार चलने वाले थे। उनका जीवन हमारे लिए प्रेरणा प्रदान करता है।

एक ओर हम महापुरुषों को अवतार बताते हैं, दूसरी ओर उनके चरित्र पर लांछन लगाते हैं। जिन राम का हम सुबह-शाम, उठते-बैठते जागते-सोते समय नाम लेते हैं, उनके आचरणों का पालन नहीं करते, उनके जीवन से शिक्षा नहीं लेते। मुँह में पान, तबाकू, बीड़ी, सिगरेट, हुक्का लगा रहता है और राम का नाम लेते हैं। उससे क्या लाभ? राम तो धूम्रपान नहीं करते थे, मद्य नहीं पीते थे, हुक्का, तमबाकृ नहीं लेते थे, फिर हम क्यों करते हैं? हमें इन मादक द्रव्यों को त्याग कर जैसा आचरण राम का भाइयों के साथ माताओं के साथ प्रजा के साथ था, वैसा करना चाहिए। राम मनुष्य थे, राजा थे, कर्त्तव्य परायण थे, माता पिता के आज्ञाकारी थे, धर्म व मर्यादा पालक थे, निराभीमानी थे, प्रजा वत्सल थे, जन-जन के प्यारे थे, वह ईश्वर नहीं थे, अवतार नहीं थे।

हमें सत्यासत्य का विवेकपूर्ण निर्णय लेना चाहिए और अपने सत्याचारी वेदानुयायी महापुरुषों को जैसे थे वैसा ही मानकर उनके सद्गुणों को जीवन में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए।

– चन्द्रलोक कॉलोनी खुर्जा (बुलन्दशहर)

मो. 8979794715

सरमा पणि संवाद – एक विवेचन

सरमा पणि संवाद – एक विवेचन

– उदयन आर्य

विश्व के पुस्तकालय में उपलबध प्राचीनतम ग्रन्थ वेद है। प्राचीन भारतीय ऋषियों का मन्तव्य है कि सृष्टि के आदि में परमपिता परमात्मा ने ऋषियों के माध्यम से यह ज्ञान मनुष्यों को प्रदान  किया। ये वेद परम पिता के निःश्वास के समान हैं। इन ऋचाओं का मुखय विषय स्तुति है और इस स्तुति के माध्यम से ऋषि परमात्मा के गुणों को अपने अन्दर धारण करने का प्रयास करते हैं। मंगलेच्छुक मनुष्य परम पवित्र इन ऋचाओं का अध्ययन करता है और स्वयं परमात्मा से ऋचाओं में स्थापित रस का आनन्द लेता है।1

कालान्तर में जब वेदों का साक्षात् दर्शन कठिन हो गया तो अन्य ग्रन्थ लिखे गये2। ब्रह्मा का (वेद) व्याखयान ही ब्राह्मण कहलाता है। इन ब्राह्मणों में वेदों के भावों को योगों में विनियोग के साथ-साथ मन्त्रों की व्याखया को रोचक बनाने के लिए नाटक का रूप दिया गया और इन नाटकों को जन तक पहुँचाने के लिए आखयान के रूप में व्याखयायें की गईं।

सरमा तथा पणि संवादसरमा शबद निर्वचन प्रसंग में उद्धृत ऋग्वेद 10/108/01 के व्याखयान में प्राप्त होता है। आचार्य यास्क का कथन है कि इन्द्र द्वारा प्रहित देवशुनी सरमा ने पणियों से संवाद किया।3पणियों ने देवों की गाय चुरा ली थी। इन्द्र ने सरमा को गवान्वेषण के लिए भेजा था। यह एक प्रसिद्ध आखयान है।

आचार्य यास्क द्वारा सरमा माध्यमिक देवताओं में पठित है। वे उसे शीघ्रगामिनी होने से सरमा मानते हैं। वस्तुतः मैत्रायणी संहिता के अनुसार भी सरमा वाक् ही है।4 गाय रश्मियाँ हैं।5 इस प्रकार यह आखयान सूर्य रश्मियों के अन्वेषण का आलंकारिक वर्णन है। निरुक्त शास्त्र के अनुसार ‘‘ऋषेः दृष्टार्थस्य प्रीतिर्भवत्यायानसंयुक्ता’’6अर्थात् सब जगत् के प्रेरक परमात्मा अद्रष्ट अर्थों को आखयान के माध्यम से उपदिष्ट करते हैं। वेदार्थ परमपरा के अनुसार मन्त्रों के तीन प्रकार के अर्थ होते हैं- आधिभौतिक, आदिदैविक, आध्यात्मिक। तीनों दृष्टियों से इस सूक्त के पर्यालोचन से सिद्ध होता है कि यह सूक्त किन्हीं विशेष अर्थों को कहता है। विश्लेषण के लिए इस समवाद में प्रयुक्त शबदों के अर्थों को व्याकरण और निरुक्त के अनुसार समझने की आवश्यकता है।

क्रमशः एक-एक शबद पर विचार करते हैं।

  1. पणयः- ऋग्वेद में 16 बार प्रयुक्त बहुवचनान्त पणयः शबद तथा चार बार एकवचनान्त पणि शबद का प्रयोग है। पणि शबद पण् व्यवहारे स्तुतौ च धातु से अच् प्रत्यय करके पुनः मतुबर्थ में अत इनिठनौ से इति प्रत्यय करके सिद्ध होता है। यः पणते व्यवहरति स्तौति स पणिः अथवा कर्मवाच्य में पण्यते व्यवहियते सा पणिः’’। अर्थात् जिसके साथ हमारा व्यवहार होता है और जिसके बिना हमारा जीवन व्यवहार नहीं चल सकता है, उसे पणि कहते हैं । इस प्रकार यह पणि शबद मेघ का वाचक है अथवा वायु का वाचक है। इस पणि को वृत्र अथवा ‘असुर’ कहा गया है। आचार्य यास्क के वृत्रं वृणोतेः कहकर जो आवरण करता है, ढक लेता है, उसे वृत्र कहते हैं। वही वृत्र वरण कर लेने वाला मेघ जब वारिदान करता है, तब देव कहलाता है, किन्तु जब जल को सुरक्षित कर लेता है बरसने नहीं देता, तब वह असुर कहलाता है। इसकी व्याखया इस प्रकार कर सकते हैं- राति ददाति इति रः सु शोभनं रति ददाति इति सुरः नु सुरः असुरः अर्थात् इस यौगिक अर्थ के अनुसार असुर शबद पणि के प्रसंग में अवरोधक मेघ है। (2) इन्द्र, निरुक्तकार यास्क के अनुसार इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति इति इन्द्रः इराम् जलानां आनेता इन्द्रः= सूर्य। इसी तरह आदि दैविक अर्थ में इन्द्र सूर्य का वाचक है, आध्यात्मिक अर्थ में इन्द्र जीवात्मा और परमात्मा को कहते हैं। इन्द्र सूर्य की गावः = रश्मयः गावः इति रश्मि नामसु पठितम् (निरुक्त)। अब इस कथा का भाव हुआ कि इन्द्र= सूर्य की गावः, रश्मियों को जल न देने वाले असुरों= मेघों ने आच्छन्न कर लिया है। इन्द्र के बार-बार सूचना देने पर भी पणियों ने इन्द्र की गायों को नहीं छोड़ा और जिससे प्रजा व्याकुल होने लगी, जब इन्द्र ने दूती भेजी। दूती को यहाँ पर देवशुनी सरमा कहा गया है। सरति गच्छति सर्वत्र इति सरमा, देवानां सुनी सूचिका दूती वा देवसूनी सरमा कही गई है। इस प्रकार देवशुनी बादल की गड़गड़ाहट रूपी ध्वनि के साथ पणियों से संवाद करती है और कहती है कि हमारे राजा की गौओं को छोड़ दो, नहीं तो हमारा बलवान राजा दण्ड देगा। पणियों ने देवशुनी की बात नहीं मानी, तब इन्द्र ने वज्र प्रहार कर अर्थात् वायु के प्रहार के माध्यम से पणियों को मारकर धरती पर सुला दिया और अपनी गायों को मुक्त करा लिया। सारा संसार वृष्टि से सुखी हुआ और सूर्य की किरणें चारों ओर फैल गईं। वैदिक आखयानों को सामान्य अर्थों में ग्रहण न करके विशिष्ट एवं यौगिक अर्थों में ही ग्रहण करना चाहिए। शबदों के यौगिक अर्थों के आलोक में इन आखयानों को देखने पर वेदार्थ की उत्तम, आदर्श, नव्य और दिव्य प्रक्रिया का ज्ञान होता है।

अन्त में प्रश्न आता है कि वैदिक आखयानों की वास्तविकता स्वीकरणीय है अथवा अस्वीकरणीय? तो इसका संक्षेप में उत्तर यह है कि यदि रूपकालंकार की दृष्टि से वे आखयान मन्त्रार्थ से संगत होते हैं तो वे आलंकारिक रूप से अथवा शाश्वत घटित होने वाली घटनाओं के ऐतिहासिक शैली के चित्रण के रूप में ग्राह्य एवं स्वीकरणीय हैं, परन्तु यदि मन्त्र सूक्त गत संवादादि का समबन्ध किसी अवरकालिक पुराण महाभारतादि ग्रन्थों में वर्णित अनित्य इतिहास से बलात् जोड़ा गया है और वह गठजोड़ असंगत और अटपटा लग रहा है तो उसे वास्तविक रूप में स्वीकार न करके  सर्वथा अवास्तविक ही मानना चाहिए। तत्र नामान्यायातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च7 तथा नाम च धातुजमाह निरक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकम्8 के धातुज वैयाकरणों में विशेषः शाकटायनाचार्य तथा सपूर्ण नैरुक्त समुदाय वेद के शबदों को धातुज अर्थात् यौगिक मानते हैं। इस दृष्टि से वेद मन्त्रों से कोई रुढ़ि अर्थ या मानवीय अनित्य इतिहास के वर्णन की समभावना वहाँ नहीं हो सकती है, अतः सारमेयाश्वानी, यम-यमी, अश्विनी, देवापि, सरमा, पणि, विश्वामित्र, गृस्तमद इन्द्र आदि पदों से किसी लौकिक कथानक की कल्पना वेदों में करना अन्धाधुन्ध है। ऐसे शबदों और उनसे अभिव्यक्त होने वाले कथोपकथन से किसी अन्य प्राकृतिक व वैज्ञानिक तथ्य का अनुसन्धान करना ही युक्ति संगत होगा। यदि कोई आखयान मन्त्रार्थ को स्पष्ट करने के लिए कल्पित किये गये हैं तो उनको आलंकारिक दृष्टि से संगत मानना चाहिए। मन्त्रों में उपमा, रूपक, श्लेषादि अलंकारों का प्रयोग प्राचीन और अर्वाचीन प्रायः सभी भाष्यकारों ने स्वीकार किया। वैदिक आखयानों में प्राकृतिकता, अलोकिकता आदि का वर्णन मिलता है। उर्वशी आखयान में मेघों का और विद्युत और मेघ के युद्ध का वर्णन है। वैदिक ग्रन्थों ने इनका प्राकृतिक अर्थ किया है।

उपरिगत विवेचन से यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि मन्त्रगत इतिहास अथवा आखयान तत्त्वतः औपचारिक, अर्थवादात्मक, उपमार्थक अथवा आलंकारिक हैं, आधुनिक अर्थ में ऐतिहासिक नहीं, अतः उनके समयक् अवगम एवं विश्लेषण में अतीव सावधानी तथा चिन्तन की अपेक्षा है।

पाद टिप्पणी

  1. यः पावमानीरध्येतृषिभिः सभतं रसम्-ऋग्वेद 9.67.31
  2. साक्षात्कृतधर्माण ऋ षयो बभूवुः तेऽवरेयोऽसाक्षात् कृत धर्मय उपदेशेन मंत्रान् सप्रादुः।

उपदेशाय ग्लायन्तोऽवरे बिल्म ग्रहणाय ग्रन्थं समाम्नासिषु वेदं च वेदांगानि च। निरुक्त। 1.21

  1. निरुक्त 11.25 देवशुनीन्द्रेण प्रहिता पणिभिरसुरैः समूढ इत्यायानम्।
  2. वाग् वै सरमा।
  3. निरक्त 2.7 सर्वेऽपि रश्मयो गाव उच्यते।
  4. निरुक्त 10.46
  5. निरुक्त 1/12
  6. पातंजल महाभाष्य 3.31

– दयानन्द वैदिक अध्ययन पीठ, पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़।