स्तुता मया वरदा वेदमाता-

स्तुता मया वरदा वेदमाता-31

समजैषमिमाहं सपत्नीरभि भूवरीऋक्. 10/159/6

घर को सफलतापूर्वक चलाने के लिये मनुष्य में आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। आत्मविश्वास योग्यता और सामर्थ्य से उत्पन्न होता है। आचार्य चाणक्य कहते हैं- मनुष्य को अपने अन्दर आत्मविश्वास उत्पन्न करने के लिये ज्ञानवान बनना चाहिए। ज्ञान का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, परन्तु ज्ञान का प्रारमभिक भाग सब प्राप्त कर सकते हैं और वह सबके लिये उपयोगी है। सामान्य ज्ञान को चार भागों में शास्त्रकारों ने विभक्त किया, जिसे आन्विक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति कहा गया है। ये चारों विशेषज्ञता के कारण चार वर्णों की योग्यता का आधार बनती हैं। प्रत्येक व्यक्ति को कम या अधिक रूप में इनकी आवश्यकता होती ही है।

ये योग्यताएँ सबके लिये क्यों और कैसे आवश्यक होती हैं, इसको समझने के लिये शास्त्र के वचनों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। छोटी-से-छोटी इकाई में जो गुण होते हैं, बड़ी-से-बड़ी इकाई में भी वे ही गुण होते हैं, अन्तर उनकी मात्रा का होता है। सभी गुण सभी में होने पर उनकी मात्रा की भिन्नता से व्यक्ति के व्यक्तित्व का भेद होता है। एक व्यक्ति का बुद्धि पक्ष ब्राह्मण कहलाता है, सामर्थ्य पक्ष को क्षत्रिय कहते हैं, साधनों के संग्रह एवं वितरण पक्ष को, उपयोग को वैश्य नाम दिया गया है। वहीं इन सबको करने के लिये सहज प्राप्त सामर्थ्य को शूद्र कहा गया है। इनमें कोई भी अनावश्यक नहीं है, परन्तु उपार्जन की क्षमता के कारण इनके क्रम में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रत्व की कल्पना की गई है। प्रत्येक व्यक्ति चारों सामर्थ्य से युक्त होने पर ही पूर्णता को प्राप्त होता है। इनमें से कोई भी सामर्थ्य कम होने पर व्यक्ति अपूर्ण और असमर्थ हो जाता है।

इसी आधार पर मनुष्य शरीर को चार भागों में बाँटकर सिर को ब्राह्मण, भुजाओं को क्षत्रिय, मध्य भाग को वैश्य तथा पैरों को शूद्र कहा गया है। शरीर की इकाई के चार भाग किये गये हैं, उसी प्रकार समाज के चार भागों को मिलाकर एक शरीर बनता है। व्यक्ति, समाज एवं देश सभी एक व्यक्ति हैं और सभी के चार भाग हैं। इन्हीं को आन्विक्षिकी, त्रयी, वार्ता एवं दण्डनीति से सीखा जाता है। त्रयी से ज्ञानवान धर्माधर्म को जानता है, उसे ब्राह्मण कहा गया। दण्डनीति से न्याय-अन्याय को देखा जाता है, उसे क्षत्रिय कहते हैं। जहाँ हानि-लाभ को समझा जाता है, उसे वार्ता कहा गया है। इन तीनों का सामञ्जस्य आन्विक्षिकी के द्वारा आता है।

आन्विक्षिकी क्या है? इसके लिये कहा गया है- सांयं योगो लोकायतनं चेत्यान्विक्षिकी- सांय योग लोकायतन को समझना तीनों के लिये आवश्यक है। इस ज्ञान से ही व्यक्ति के अन्दर कार्य करने का सामर्थ्य उत्पन्न होता है। जब विषम परिस्थिति और समस्या सामने आती है, तो मनुष्य निर्णय करने में असमर्थ होता है। मनुष्य स्वस्थ सहज होने पर ही ठीक निर्णय लेने में समर्थ होता है। जो मनुष्य धार्मिक होता है, आस्तिक होता है, वह समस्या के आने पर विचलित नहीं होता। विवेक करके निर्णय करना उसके लिये कठिन नहीं होता। मनुष्य केवल दुःख में ही विचलित होता हो, ऐसी बात नहीं। वह अधिक प्रसन्नता, प्राप्ति एवं उत्साह की दशा में उचित समय पर निर्णय नहीं ले पाता और भूल कर बैठता है। जो घोषणा मन्त्र में एक गृहिणी कर रही है, उसके पीछे उसकी योग्यता ही कारण है। निर्णय करने की योग्यता में जो बाधा आ सकती है, उनको जान कर दूर करने का सामर्थ्य नेता में होना चाहिए। गृहिणी घर की नेतृ है, उसने सभी शत्रुओं को जीत लिया है। यहाँ शत्रु मनुष्य या व्यक्ति हो, यह अनिवार्य नहीं। कार्य में आने वाली सारी बाधायें भी शत्रु ही हैं। किसी भी प्रकार की बाधा को समझ सकना और बिना विचलित हुए उसे दूर करने के उत्साह को इस मन्त्र में बताया गया है।

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