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गौ हत्या अभिशाप देश का

गौ हत्या अभिशाप देश का

रचयिता राम आर्य ‘‘व्यथित’’

गौ की हत्या करने वाला मानवता का दुश्मन है।

सुख शांति का विध्वंसक है, हत्यारा पापी जन है।

कोई मत हो या मनुष्य हो या सरकार देश की हो।

कोई राज्य प्रजा कोई भी या सत्ता प्रदेश की हो।।

गौ वध को प्रोत्साहन देता और समर्थन करता जो।

गौ वध को करवाने वाला धूर्त्त देश का दुश्मन है।।१।।

इस मनुष्य का अंग न कोई काम किसी के आता है।

गौ माता का सारा जीवन परमारथ में जाता है।।

जीते जी वह दुग्ध पिलाती जो अमृत सम होता है।

मरणोपरांत चाम दे जाती मानव तन को अर्पण है।।२।।

उसका दूध एक औषध है हर आयु का पोषक है।

मेधा बुद्धि प्रदाता है शक्ति पाता आराधक है।।

गौ हत्या अभिशाप देश का उन्नति में अवरोधक है।

गौ न केवल पशु साधारण धरती का अमूल्य धन है।।

गो मूत्र अनेकों रोगों में उपयोगी होता है।

बूढ़े बच्चे जीवन पाते मनुज निरोगी होता है।।

उसका गोबर मूत्र खेत फसलों को जीवन देता है।

रोगरहित अन्न उपजाता कृषक जगत का जीवन है।।

गोबर और गौमूत्र पूर्णतः कृमिनाशक होता है।

मिट्टी की उर्वरा शक्ति में परम सहायक होता है।

आज चले जो खाद रसायन मिट्टी को विष देते हैं।

अन्न विषैला बनता जाता धीमा विष है, यह धुन है।।

उसका दूध, दही, घी बनकर परम पोष्टिक होता है।

उसका ही यह पंचगव्य जीवन उपयोगी होता है

उसका गोबर मूत्र न दूषित घर को शोधक होता है।

रोगों का क्षय होता है, धरती को पूर्ण समर्पण है।।

किन्तु आज बूचड़खानों का जाल देश में फैला है।

गौ मांस निर्यात कराते यह तो धंधा मैला है।।

गौ धन की बर्बादी यह षडयंत्र घिनौनी हरकत है।

जिससे मिले बर्बादी मुद्रा यह दुष्कृत्य पापी धन है।।

अपनी जननी पहली माता दूजी धरती माता है।

और तीसरी इस धरती की केवल यह गौ माता है।।

इसकी रक्षा करनी होगी देश धर्म का नाता है।

भारत माता तुम्हें पुकारे यह मेरा आवाहन है।।

– १८६, आर्य निकुंज, शिक्षक कॉलोनी, विदिशा, म.प्र.। ८९६२११८९०८

वर्णाश्रमधर्म-स्वतन्त्र-चिन्तन का परिणाम

वर्णाश्रमधर्म-स्वतन्त्र-चिन्तन का परिणाम

डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली…..

भारतीय परम्परा स्वतंत्रता में विश्वास करती है जिसका अर्थ है – साध्य चुनने और उसके लिए साधन अपनाने की स्वतन्त्रता। स्वातंञयं परमं सुखम् का अर्थ है स्वतन्त्रता ही परम सुख है।गोस्वामी तुलसीदास ने कहा – पराधीन सपनेहुँ सुख नाही

इस स्वतन्त्रताप्रियता का ही सुफल है – वर्णाश्रमधर्म। यह मनुप्रवर्तित मानव धर्म है जिसका परिणाम होता है – मनुष्य को मनुष्य के रूप में ढालना। वेद मानवता का संविधान है। विचार और विश्वास सभी परम्पराओं का जन्म वेद से हुआ है – वेदात् सर्वं प्रसिद्धयति। मनुआदि की स्मृतियाँ श्रुति की अनुगामिनी होती है। कहीं मतभेद लगे तो श्रुति को प्रामाणिक माना जाय।

वर्ण का अर्थ है – वरण करना। अपने गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में से किसी एक को चुनना पड़ता है – वरण करना पड़ता है। वेद ने कहा – ऋणं ह वै जायमानः अर्थात् माता के गर्भ से पैदा होने वाला ऋणस्वरूप होता है।ब्राहमणी माता का जाया ऋण ब्राहमण, क्षत्रिय जननी का बेटा ऋण क्षत्रिय, वैश्य माता का बेटा ऋण वैश्य और शूद्रा माता का बेटा ऋण शूद्र होता है। उन सबका लक्ष्य है स्वयं को ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बनाना।चारों वर्ण इसी प्रक्रीया से निर्धारित होते हैं। ऋण ब्राहमण धन शूद्र या ऋण वैश्य का पुत्र क्षत्रिय बन सकता है।

स्पष्ट है कि वर्ण जन्मना नहीं कर्मणा निर्धारित होता है। श्रम के आधार पर निर्भर होता है। ब्रहम श्रम करे

वह ब्राहमण, क्षत्र श्रम करें वह क्षत्रिय, विट्श्रम करे वह वैश्य और केवल सेवाधर्म अपनाए वह शूद्र होता है।

जिसमें पूरी तरह से श्रम व्याप्त हो उसे आश्रम कहा जाता है – आ समन्तात् श्रमः व्याप्यते यम्

पिछले दिनों देश में परिवर्तन आया तो अभियान चला श्रम एव जयति। अभियान भारतीय परम्परा के अनुसार था – इसलिए लोगों ने इसे स्वीकार किया और इसकी प्रशंसा की। श्रम करके देश को बदलने का संकल्प लिया जाने लगा। श्रम का यथेच्छ रूप चुनने और तदनुकूल जीवन जीने की स्वतंन्त्रता भारत में सबको प्राप्त है –

परम्परा से भी और वेद से भी।

वर्ण धर्म और आश्रम धर्म का निर्धारण स्मृतिकारों ने किया है, पर उनका पालन होता है परिवार में। परिवार

भारत का सबसे बड़ा अविष्कार है। परिवार का अर्थ है जिसमें व्यक्ति को अपने दोषों को निवारित करने का

अवसर प्राप्त हो – परितः वारयति स्वदोषान् यस्मिन् इति। परिवार संसार का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय होता है, सबसे बड़ा चिकित्सालय है, सबसे बड़ी प्रशिक्षणशाला है, सबसे बड़ी कार्यशाला है।

परिवार का निर्माण कुलवधू करती है। वेद के अनुसार जायेदस्तम्-जाया इत् अस्तम्-जाया ही घर है। इसी को आधार मान कर मनु ने कहा – गृहिणी  गृहम्उच्यते। परिवार अनुशासित हो तो समाज अनुशासित होता है। परिवार में कुलधर्म सुरक्षित रहता है। उसी कुलधर्म का पालन करने से अपने-पराये के भेद को छोड़कर व्यक्ति को उदार चरित होने का अवसर मिलता है, जिसके लिए वसुधा ही कुटुम्ब हो जाती है-

अयं निजः परोवेति गणनालघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

जिस परिवार में विश्व समा सकता है उस पर आजादी के बाद सबसे अधिक आक्रमण हुए। सरकार में बैठे हुए सिरफिरों ने छोटे परिवार के नाम पर योजनाबद्ध ढंग से आक्रमण किया है। यह भारतीय संस्कृति पर सीधा आक्रमण है। परिवार संस्था नष्ट हो गई तो भारतीय समाज-परम्परा ही नष्ट हो जायगी।

श्रम का सम्बन्ध शरीर से होता है। महात्मा गाँधी कहा करते थे कि अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए श्रम करो। वेद का कथन है –

न ऋतेश्रान्तस्य सख्याय देवाः।

परिश्रम करके थके नहीं तब तक देवों को सखा नहीं बनाया जा सकता। मनुष्य तो कामना करता है कि

उसे देवता सखा भाव से प्राप्त हों। शरीर का श्रम भोजन को पचाता है। इससे शरीर सुपुष्ट होता है। भारत में

बालकों को पौष्टिक आहार नहीं मिलता – इसकी चिन्ता की जाती है, पर सच यह है कि बालकों को जो भी खाने को मिलता है वह उनको पचता ही नहीं है। उपयुक्त आहार और तदनुकूल व्यवहार को तो श्रीमद्भगवद्गीता में दुःखहा योग माना गया है –

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्यकर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।

वेद के अनुसार वर्तमान सृष्टि पूर्व कल्प के अनुसार ही चल रही है – यथापूर्वमकल्पयत्। गुण कर्म स्वभाव से लोग अपने वर्ण का वरण करने लगे। गुरु प्रत्येक विद्यार्थी को उसके वर्ण के अनुसार ही शिक्षा देने लगे। माता भी संस्कार के साथ ऐसी शिक्षा देती है।

मदालसा ने अपने तीन पुत्रों को ‘शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि’ की लोरियाँ सुना कर निवृत्ति मार्ग की शिक्षा प्रदान की। वे बचपन में ही संन्यासी हो गए। चौथे पुत्र को उसने प्रवृत्ति मार्ग की शिक्षा दी और वह चक्रवर्ती सम्राट् बना। माता-पिता घर में तो बालक की प्रवृत्तियों के विकास पर ध्यान देते ही थे, गुरुकुल में उपयुक्त गुरु के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी भेजते थे। राम के लिए कहा गया है – गुरुगृह गये बहुरि रघुराई– अल्पकाल शिक्षा सब पाई। श्रीकृष्ण को सान्दीपनि आश्रम में शिक्षा के लिए भेजा गया। श्रीकृष्ण

और सुदामा ने एक साथ शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा से बालकों का व्यक्तित्व निखरता है।

वर्ण की दृष्टि से श्रम के ब्रहम, क्षत्र, विट् और सेवा चार रूप हैं उसी तरह आश्रम की दृष्टि से भी श्रम के चार रूप हैं। श्रमाधारित जीवन पद्धति को ब्रहमचर्य (विकासमानचर्या, प्रगतिशील जीवनचर्या) नाम दियागया।

ब्रहम का अर्थ है – ज्ञान, प्रथम आश्रम में ब्रहमचर्य का पालन ज्ञानार्जन के लिए किया जाता है। दूसरे आश्रम में गृहस्थ धर्म निभाते हुए कर्म ब्रहम की उपासना की जाती है। तीसरे वानप्रस्थ आश्रम में ईश्वर (ब्रहम) की उपासना की जाती है और चौथे आश्रम में सत्य-संज्ञक ब्रहम की उपासना की जाती है। स्वामी दयानन्द ने सत्य की खोज के लिए पूरा जीवन लगा दिया।

आश्रम धर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय का मार्ग है। इसके समानान्तर श्रमण-मार्ग का विकास हुआ।

उसका आधार भी श्रम ही है, पर लोगों ने न जाने कैसे आश्रम और श्रमणमार्ग को एक दूसरे का विरोधी मान लिया। ‘ब्राहमणश्रमणौ’ का समास विग्रह करते हुए कहा गया कि एक-दूसरे के विरोधियों का भी द्वन्द्व समास होता है। सर्पनकुलौ इसका दूसरा उदाहरण है।

स्वतन्त्रता की प्रवृत्ति के कारण प्रत्येक व्यक्ति का एक अभीष्ट देवता हो – यह विचार भी पनपा। वेद में तो ‘एक ही सत् (तत्व) को अनेक प्रकार से कहने’ की प्रवृत्ति थी – एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति। पौराणिककाल में अनेक देवता बन गए। ‘यथा पिण्डे तथा ब्रहमाण्डे’ और ‘वेदे लोके च’ सूत्र सदैव चिन्तन के आधार बने।

यजुर्वेद के राष्टगीत में एक सम्पूर्ण रूप से विकसित, श्रेष्ठ समाज का चित्र मिलता है –

आ ब्रहमन ब्रह्मणो ब्रहमवर्चसी जायताम्। आ राष्टे राजन्यः शूरइषव्योतिव्याधीमहारथो जायताम्।

दोग्ध्रीर्धेनुर्वोढानड्वान् आशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठा सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम्।

निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नः ओषधयः पच्यन्ताम्। योगक्षेमो नः कल्पताम्।।

;यजु.-२२/२२

ऐसा समाज श्रम के बिना नहीं बन सकता। भारतीय चिन्तन परम्परा में भारत के सप्तकुलपर्वत, सप्तकुलनदी और सप्तकुलपुरियाँ हैं। श्रमण-परम्परा में २४ तिर्थंकर होते हैं। तीर्थ का अर्थ है – तैरने योग्य स्थान। उसको बनाये वह तीर्थकर। वेद के अनुसार जीवन पथरीली नदी है। उसे अकेले तैर कर पार करना असंभव है। पर ऐसी कठिन चुनौती है तो समारम्भ करो और सब सखा मिलकर पारकर जाओ-

अश्मन्वती रीयते सं रमध्वम् उत्तिष्ठत प्रतरत सखायः।

श्रमण चिन्तन में श्रम का पर्यवसान शम में माना गया है। रामायण में राम ने शबरी को महाश्रमणा कहा है। श्रम के दिव्यस्वरूप के व्याख्याता होने के कारण ही गोस्वामी तुलसीदास ने कवीश्वर वाल्मीकि और कपीश्वर हनुमान् को विशुद्ध विज्ञान स्वरूप कहा है –

सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।

वन्देविशुह्विज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ।।

(रामचरितमानस)

महामात्य चाणक्य ने कहा है – वृद्धोपसेवायाः मूलं विज्ञानं विज्ञानेन पुरुषः जितात्मा भवति।

वेद में कहा गया है –

अग्ने! व्रतपते! व्रतम् चरिष्यामि।

यह अग्नि की साक्षी में लिया गया संकल्प श्रम करने के लिए प्रतिबद्धता प्रकट करता है। ऐसा श्रम करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करे –कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।(यजुर्वेद-४०/२)

वेदविहित कर्म ही कर्म होता है और वेदविहित श्रम ही श्रम। श्रम से कन्नी काटने वालों ने शारीरिक श्रम के साथ मानसिक श्रम की कल्पना की है। वस्तुतः श्रम शरीर से ही किया जाता है। मानसिक श्रम कुछ होता ही नहीं। श्रम को व्रत के रूप में अपना कर मनुष्य अनृत से सत्य की ओर जाता है। कर्मवीर – श्रमवीर युद्धवीर से श्रेष्ठ होता है।

देश की परम्परा के अनुसार विद्या नहीं बेची जाती उसी तरह श्रम नहीं बेचा जाता। श्रम का मूल्य श्रम करके ही दिया जाता है। तनखैया (तनख्वाह लेकर काम करने वाला ) गाली मानी जाती है। ‘कृषिमित् कृषस्व’

कृषि ही करो इस वेदोक्त के अनुसार लोक में कहावत है- उत्तमखेती, मध्यम वणिज, अधम चाकरी। जो कृषि नहीं करता वह जीवन को जुआँ बना कर जीता है। सारे मानवीय सम्बन्धों का विकास कृषि अर्थात् उत्पादक श्रम से ही होता है । परिवार और समाज का विकास भी उत्पादक श्रम से ही होता है। ‘चरैवेति’ की सार्थकता भी निरन्तर श्रम करते रहने से मिलती है।

-बी ६ दातानगर, अजमेर- ३०२००१

 

वैदिकी वर्णश्रमव्यवस्था

वैदिकी वर्णश्रमव्यवस्था

आचार्य यज्ञवीर

समस्त विश्व की विभिन्न प्राचीन एवं अर्वाचीन-संस्कृतियों में समाज को वर्गों में विभाजित किया जाना समुपलब्ध होता है। परन्तु ‘‘सा प्रथमा संस्कृतिः विश्ववारा’’ के रूप में प्रसिद्ध एवं समृद्ध वैदिक संस्कृति में जो वर्णाश्रमव्यवस्था का सुन्दर स्वरुप समुपलब्ध है वैसा किसी भी अन्य संस्कृति में दृष्टि-गोचर नहीं होता। वैदिकी वर्णाश्रमव्यवस्था के प्रारम्भिक संगठित रुप में समाज में प्रत्येक व्यक्ति की इकाई को महत्वपूर्ण समझते हुए, कार्य श्रम तथा योग्यता को मुख्य आधार स्वीकार किया है तथा व्यक्तियों को विभिन्न वर्णों में विभाजित कर व्यष्टि एवं समष्टिका अति सुन्दर समन्वय समुपस्थित किया है जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में उपलब्ध नहीं है। इसीलिए कहा भी गया है कि

यूनान मिश्र रोमां सब मिट गये जहाँ से

कुछ बात है कि हस्ति मिटती नहीं हमारी

सदियों रहा है दुश्मन दोरे जहां यहाँ पर

तब भी बचा है बाकी नामों निशां हमारा

सर्गादि से लेकर परवर्ती समस्त भारतीय साहित्य में वर्ण शब्द का प्रयोग समुपलब्ध है। वर्ण शब्द वृज वरणे धातु से सम्पन्न होता है अथवा वर्ण धातु से घञ प्रत्यय से सम्पन्न किया जा सकता है वर्ण के अन्य अर्थ भी कोशकारों ने संकलित किये है परन्तु इस प्रकरण में ब्राहमण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र का बोध हो रहा है उनके इस वर्गीकरण को वर्ण व्यवस्था कहेंगे और वेद के अनुसार होने से उसे वैदिकी से अभिहित किया जा रहा है। इस प्रकार इस समस्त पद में वर्ण साथ आश्रम व्यवस्था भी जुड़ा है आश्रम शब्द भी आत्र पुर्वक श्रमु धातु से निष्पन्न होता है। जो कि ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास इन चार वयोवर्गों में विभक्त और प्रत्येक अवस्था में विद्या, बल, धन, ब्रहम धर्मार्थकाममोक्षादि प्राप्त्यर्थ आ समन्तात श्रम क्रियते इति आश्रम वर्णाश्चाश्रमाश्च ते वर्णाश्रमास्तेषां व्यवस्था वर्णाश्रमव्यवस्था। वैदिक साहित्य में इस विषय में बहुत ही गहन एवं विस्तृत चिन्तना प्रस्तुत की है परन्तु संक्षेप में इस लघु निबन्ध में निबद्ध करने का प्रयास रहेगा।

ब्राह्मण

वैदिक मान्यता अनुसार गुण कर्म के आधार पर वर्णों का निर्धारण रहा है। देव दयानन्द ने वेदों का भाष्य और ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में स्पष्ट निर्देश दिया कि वेद के अनुसार वर्ण व्यवस्था करने पर समाज की सम्यक् समुन्नति सम्भव है। वेद ही सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है तथा ईश्वर ही सब सत्य विद्याओं का मूल है। अतः वैदिक मन्त्र के आधार पर देखें तो मिलता है

‘‘ब्राहमणोऽस्य मुखमासीत् ’’   यहाँ वेद ने प्रश्नोत्तर विधि द्वारा समझाया है। जब हम इस मन्त्र का अर्थ जानने का प्रयास करते हैं, तो इससे पूर्व का मन्त्रार्थ भी देखना चाहिए जो इस प्रकार है ‘‘मुखं किमस्यासीत् कीं बाहू किमुरू पादा उच्यते’’ अब इसके अर्थ बोध के लिए पाणिनीय सूत्र अनुसार धात्वर्थानां सम्बन्धे सर्वकालेष्वेते वा स्युः ‘‘छन्दसि लुङ्लिङ्लिटः’’ को ध्यान में रखते हुए अर्थ हुआ -अस्य -इसका, मुखम्- मुख किम्- कौन आसीत्- है, था, और रहेगा?  किम् बाहू? दोनों बाहु कौन है? किम् उरू? उरू कौन है, पादौ उच्यते! इसके दो पैर कौन है? ये चार प्रश्न किये गये है? इनके उत्तर वेद मन्त्र ने दिये है?

‘‘ब्रा२णोऽस्य मुखमासीत् बाहू राजन्य कृत :।

ऊरू तदस्य यद् वेश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत।।

इसका मुख ब्राहमण है। इसके दोनों बाहु क्षत्रिय हैं। जो वैश्य है वह इसके दोनों उरु हैं अर्थात् सरीर का मध्य भाग दोनों पैर शूद्र हैं। पूर्व लिखित प्रश्नों में चार उत्तर इस मन्त्र में उपस्थित कर दिये हैं। कुछ विद्वान् इसके विपरीत अर्थ प्रस्तुत करते हुए कहते हैं इस परम पुरुष के मुख से ब्राहमण उत्पन्न हुआ इत्यादि यह चिन्त्य एवं अनर्गल प्रलाप मात्र हैं। ब्राहमण ग्रन्थों में कहीं भी मुखादिक से वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन नहीं मिलता है क्योंकि यह सृष्टि विरुद्ध एवं अवैज्ञानिक है। काव्य शास्त्र मर्मज्ञ जानते हैं कि अलंकार काव्य के शोभा वर्द्धक होते हैं। वेदों में भी अलंकारिक वर्णन बहुत आता है। यहा भी वेद भगवान् का अभिप्राय है कि सर्वप्रथम संसार में जीवनोपाय निमित्त मनुष्यों को चार भागों में विभक्त करना चाहिए- जो मुख का कार्य करे वह ब्राहमण, जो बाहु का काम करे वह राजन्य, जो शरीर के मध्य भाग का काम करे वह वैश्य और जो पैर का काम करे वह शूद्र नाम से अभिहित किया जाए। तो आइये अब मुखादि के कार्यो पर दृष्टिपात करें-

मुख का कार्य

यहा गीता से उपरि भाग शिर का नाम मुख अभिप्रेत है। इस भाग में ज्ञान प्राप्ति करने वाली सभी इन्द्रिया विद्यमान हैं इन्हें सप्त ऋषि कहते हैं जैसे ऋषि सत्यासत्य के निर्णायक हैं तद्वत – ये भी सत्यासत्य भले बुरे आदि का निर्णय करके क्षत्रियादि को आज्ञाएं प्रेषित करते हैं। श्रवण मनन निदिध्यासन विवेक आदि जो भी कुछ विचार करते है सब शिर में ही करते हैं। जैसे शरीर में शिर शरीर का मुख्य भाग उहनीय कार्य करता है वैसे ही विवेकपूर्वक निःस्वार्थ और परोपकारी बनकर जो मस्तिष्क से समाज का काम करता है उसे ब्राहमण कहते हैं। वह मानों इस विराट विश्व का मानवसमूह का मुख सदृश है अतः वह मुख्य है।

बाहु का कार्य

सम्पूर्ण शरीर की रक्षा का दायित्व दानों बाहुओं पर आश्रित है। एड़ी से चोटी तक शरीर में कहीं भी आपदा आने पर बाहु झटिति कृत्वा तन्निवारणार्थ उद्यत हो जाते हैं। युद्ध क्षेत्र में शत्रुओं से दो दो हाथ बाहु ही करते हैं इसी तरह इस समाजरूपी पुरुष शरीर पर संकटापन्न स्थिति में अपने बाहुबल से क्षत्रिय उसका त्राण करते हैं ‘‘क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रक्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रुढः’’ अतः इस मन्त्र में राजन्य कहकर बाहु रूप में देश विकास की और अग्रसर होता है क्योंकि कहा है ‘‘शस्त्रेण रक्षिते रास्त्रे शास्त्र चिन्ता प्रवर्तते’’

ऊरु के कार्य

इस मन्त्र में उरु का तात्पर्य शरीर के मध्य भाग से है। इसीलिए अथर्ववेद में उरु के स्थान पर मध्य शब्द का प्रयोग किया है।

‘‘ मध्यं तदस्य यद् वैश्य:’’

गर्दन से नीचे ऊरू ;जंघा से उपर के इस मध्य भाग को वैश्य कहा गया है। अब सोचिए इस शरीर में उदर का क्या काम है? जो भी मानव द्वारा पीत भुक्त वस्तु उदर में जाती है उसको सुन्दर पुष्ट रस निर्मित कर शरीर के अन्य सभी अवयवों को यथा योग्य वितरित कर देता है। तथा अन्य मलिन अपशिष्ट पदार्थ को बाहर कर देता है। इसी प्रकार जगत् पुरुष को व्यष्टि रुप वैश्य वर्ण का व्यक्ति उदर के समान नाना प्रकार के भोज्य चोष्य पेय लेहवदि पदार्थ अपने यहा एकत्रित करके उन पर उचित लाभ लेते हुए अखिल विश्व को उपलब्ध कराया करता है वह वैश्य है। मध्य भाग में रक्तादिशोधन प्रकिया होती है यह भी वैश्य का कार्य है ।

पैर का कार्य

पैर के अभाव में हमारा शरीर पत्र्गु हो जाता हैं। गमनागमन की सारी प्रकिया बाधित हो जायेगी तब लोग संग्राम में भुज बल क्या बिन पैरों के दिखा पायेंगे? कदापि नहीं इसी भाति समाज रूपी पुरुष सेवक बिना पत्र्गु हो जायेगा और ऐसी अवस्था में समाज का समग्र विकास कदापि संभाव्य नहीं हो पायेगा। पैर की तरह कार्य करने वाला शूद्र कहलायेगा आचार्य ने तो उसे अध्यापन द्वारा ब्राहमणदि बनाने का प्रयास किया परन्तु वह कुछ पढ नहीं पाया अतः अन्त में उसे सेवा का कार्य सौपा गया उसका निर्वचन करते हुए मनीषी लिखते है- ‘‘शूचा द्रवति इति शूद्रः’’ एक तथ्य यह भी इसके साथ समझना चाहिए कि अजायत क्रिया का अपादान उससे पैदा हुआ इस अर्थ में नहीं है अपितु इस मन्त्र में पंचमी विभक्ति यहाँ निमित्त अर्थ में जाननी चाहिए- पैरों के निमित्त अर्थात् पैरो के कार्य के निमित्त ऐसे अर्थ करने पर अन्यत्र भी कहीं दोष नहीं आयेगा इसी सूक्त में आगे निमित्तार्थ में पंचमी प्रयोग देखा जा सकता है-

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः  सूर्यो अजायत।

श्रोत्राद् वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत।।

अर्थात् मनोविनोद निमित्त चन्द्रमा को, चक्षु से देखने निमित्त सूर्य को, कान में शब्द पहुँचाने निमित्त वायु को और प्राण को, मुख में बल पहुँचाने के निमित्त अग्नि को जठराग्नि रूप में, इन सभी वस्तुओं को तत् तत् कार्य निमित्त ईश्वर ने प्रकट किया। इसी प्रकार ‘‘पद्भ्यां शूद्रो अजायत’’ में भी निमित्त पंचमी है अर्थात् पैरो के निमित्त, पैरों के कार्य निमित्त शूद्र होता है। यह वेद में मूल रूप में वर्ण धर्म का वर्णन उपलब्ध है। इसीलिए स्वामी दयानन्द लिखते हैं कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इसके उपरान्त वेदों में आश्रम धर्म पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है। वर्णवत् आश्रम भी चार ही हाते है – ब्रहमचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ तथा संन्यास।

ब्रहमचर्य

ब्रहमचर्य आश्रम प्रथम आश्रम है यही सब आश्रमों का आधार भूत आश्रम है इसी आद्य आश्रम में विद्याभ्यास आचार्य चरणों में करके विद्या बल का अर्जन किया जाता है। नीतिकार लिखते हैं-

आद्ये वयसि नाधीतम्, द्वितीये नार्जितं धनम्।

तृतीये न तपस्तप्तं चतुर्थे किं करिष्यति

चतुराश्रम योजना का प्रयोजन यही था कि मानव जीवन में सतत सौख्य भी बना रहे और जीवन के समस्त प्रयोजन भी पूर्ण हो जाए। इन चार आश्रमरूपी पड़ावों पर मनुष्य अपनी लोकयात्रा पूर्ण कर लेता था यह वर्णा श्रमव्यवस्था ही उसे पूर्ण बनाकर धर्मार्थ काम मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति कराती थी।

कवि कुल गुरु कालिदास रघुवंशीय नायकों के चतुराश्रम पालन का वर्णन प्रस्तुत करते है।

शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयेषिणाम्।

वार्ह्क्ये मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्

महाभारते चापि-

चतुष्पदी हि निःश्रेणी, ब्रहमण्येषा प्रतिष्ठिता।

एतामारूह्य निःश्रेणीं ब्र२लोके महीयते`

आश्रम व्यवस्था एक चार पैर वाली सीढी है जो मनुष्य को ब्रहम की ओर ले जाती है। एक एक पद पहुँचाता हुआ व्यक्ति अगली अवस्था के लिए तत्पर हो जाता है। सत्य विद्याओं के पुस्तक वेद में भी ब्रहमचारी का वर्णन करते हुए लिखा है-

‘‘ ब्रहमचारी चरति वै विषद् विषः स देवानां भवत्येकमम्’’

ब्रहमचारी विचरण करता हुआ प्रजा जनों में जाता हुआ देवों विद्वानों का एक अंग बन जाता हैं

अन्यत्र चापि-

युवां सुवासा परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः।

तं धीरसः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो३मनसा देवयन्तः| १|

आधेनव धुनयन्तामशिश्वीः सबर्दुघा शशय अप्रदुग्घाः।

नव्यानव् युवतयो भवन्तीर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् |२|


 

इन मन्त्रों का अर्थ स्वामी दयानन्द कृत प्रस्तुत है

‘‘ जो पुरुष (परिवीतः) सब ओर से यज्ञोपवीत, ब्रहमचर्य सेवन से उत्तम शिक्षा और विद्या से युक्त, (सुवासा) सुन्दर वस्त्र धारण किया हुआ ब्रहमचर्य युक्त (युवा) सम्पूर्ण जवान हो के विद्या ग्रहण कर गृहाश्रम में (आगात्) आया है (सः) वही दूसरे विद्या जन्म में (जायमान) प्रसिद्ध होकर (श्रेयान्) अतिशय शोभायुक्त विज्ञान से मंगलकारी (भवति) होता है, (स्वाध्य) अच्छी प्रकार से ध्यान युक्त (मनसा) विज्ञान से (देवयन्तः) विद्या वृद्धि की कामना युक्त, (धीरास) धैर्ययुक्त (कवयः) विद्वान् लोग (तम्) उसी पुरुष को (उन्नयन्ति) उन्नतिशील करके प्रतिष्ठित करते हैं। और जो ब्रहमचर्य धारण, विद्या, उत्तम शिक्षा का ग्रहण किये बिना अथवा बाल्यावस्था में विवाह करते हैं, वे स्त्री पुरुष नष्ट भ्रष्ट हो कर, विद्वानों में अप्रतिष्ठा को प्राप्त होते हैं

जो (अप्रदुग्धा) किसी दुही न हो, उन (धेनवः) गोओं के समान, (अशिश्वी) बाल्यावस्था से रहित सब (सबर्दुघा) गोंओं सब प्रकार के उत्तमव्यवहारो की पूर्ण करनेहारी (शशयाः) कुमारावस्था को उल्लंघन करनेहारी, (नव्यानव्यां) नवीन नवीन शिक्षा और अवस्था से पूर्ण (भवन्तीः) वर्तमान (युवतयः) पूर्ण युवावस्थास्थ स्त्रियां (देवानां) ब्रहमचचर्य सु नियमों से पूर्ण विद्वानों के (एकम्) अद्वितीय (महत्) बड़े (असुरत्व) प्रज्ञा शास्त्र शिक्षायुक्त प्रज्ञा में रमण के भावार्थ को प्राप्त होती हुई जवान पतियों को प्राप्त हो के (आघुनयन्ताम) गर्भ धारण करें। कभी भूल के भी बाल्यावस्था में पुरुष का मन से भी ध्यान न करें क्योंकि यही कर्म इस लोक और परलोक के सुख का साधन है। बाल्यावस्था में विवाह से जितना पुरुष का नाश, उससे अधिक स्त्री का नाश होता है ||२|| सत्यार्थप्रकाश

इस प्रकार इन मन्त्रों का अर्थ बोध करने के बाद यह तो सिद्ध हो ही गया की ब्रह्मच्चर्य एवं गृहस्थ आश्रमों के आदेश मूलतः वैदिक मन्त्रों में है। वानप्रस्थ संन्यास के लिए अन्य शब्द वेदों में हैं। ये शब्द उपनिषद्काल तक आते-आते प्रचलित हुए है? परन्तु आश्रम व्यवस्था का आधार वैदिक है क्योंकि वेदों में ब्राहमण ग्रन्थों में ब्रह्म्च्चर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ से सम्बद्ध ब्रहमचारी, गृहपति वैखानश आदि शब्द समुपलब्ध होते हैं अतः स्पष्ट है कि उपनिषत काल तक आते आते जो आश्रम व्यवस्था अत्यन्त रुचिरा एवं सर्वागीण जीवन योजना रूप में स्थापित हुई उसका प्रारम्भ वैदिक काल से अवश्य हो चुका था। ब्राहमण ग्रन्थ में प्राप्त प्रसंग से विद्वान् स्पष्टरुप में आश्रम संकेत स्वीकारते हैं- ‘‘ मलसे, मृगचर्म से दाढ़ी एवं तप से क्या लाभ? हे ब्राहमण पुत्र की इच्छा करो वह लोक है जो अति प्रशस्य है।’’

किं नु मलं किमजिनं किमु श्मश्रूणि किं तपः।

पुत्रं ब्राहमण इच्छध्वं स वै लोको वदावदः||

इस श्लोक में आए अजिन शब्द से ब्रह्मच्चर्य, मल शब्द से गृहस्थ, शूश्रूणि से वानप्रस्थ तथा तप से संन्यास का अर्थ ग्रहण किया जाना चाहिए। इसी प्रकार गत शताब्दि में भी स्वामी दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि में वानप्रस्थ संस्कार की विधि में इसको अनेक प्रमाणों से पुष्ट किया है। स्थालीपुलाक न्याय से एक प्रमाण प्रस्तुति ही पर्याप्त होगी।

‘‘ब्र२चर्य्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेत् वनी भूत्वा प्रव्रजेत् ||

शतपथ ब्राहमण अर्थ- मनुष्य को चाहिए कि ब्रह्म्च्चार्याश्रम की समाप्ति करके गृहस्थ होवे |

तुरीयाश्रम सेवी- संन्यासी को कहते है। चतुर्थ आश्रम के विषय में भी ऋषिवर देवदयानन्द ने संस्कार विधि में संन्यास संस्कारविधि में वैदिक प्रमाणों से विस्तृत प्रकाश डाला है। संन्यासी का निर्वचन करते हुए लिखा है

‘‘सम्यङ् न्यस्यन्त्यधर्माचरणानि येन वा सम्यङ् नित्यं सत्यकर्मस्वास्त उपविशति येन स संन्यासः संन्यासो

विद्यते यस्य सः सन्यासी’’

अर्थात् जिसके द्वारा अधर्माचरण अच्छी प्रकार छोड़ दिये जाए, अथवा सत्य कमरें में स्थित रहता है, बैठता है जिससे अस्थिरता को छोड स्थिर हो जाए वह संन्यास है और संन्यास है जिसका वह संन्यासी कहलाता है।

इसी संस्कार प्रकरण में वैदिक प्रमाण स्वामी जी ने प्रस्तुत किए हैं। वे संस्कारविधि में देखे जा सकते हैं किमधिकेन विस्तरेण। अन्ततः निष्कर्ष यह कि मानव की औसत आयु १०० वर्ष मान कर २५ वर्ष प्रति आश्रम विभक्त की है। इसके आगे संन्यास का क्रम कहा है। परन्तु द्वितीय प्रकार भी ब्राहमण ग्रन्थ में उपलब्ध है

‘‘यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रवृजेत् वनाद् वा गृहाद् वा’’ जिस दिन दृढ वैराग्य हो जाए उसी दिन संन्यास ले लें गृहस्थ से या वानप्रस्थ से।

तृतीय प्रकार है – ‘‘ ब्रहमचर्य्यादेव प्रव्रजेत्’’ यह भी ब्राहमण वचन है।इनके आधार पर तीनों प्रकार के संन्यासी भारत में हुए है। तृतीय प्रकार के आचार्य शंकर और आचार्य दयानन्द हुए हैं। इस आश्रम व्यवस्था से प्राचीन भारत सुव्यवस्थित रहा है, शिक्षा विद्या ज्ञान विज्ञान का भी प्रचार प्रसार जीवन के अनुभव पूर्ण काल वानप्रस्थ में सभी करते रहे हैं इस प्रकार ज्ञान का अजस्र स्रोत सर्वदा प्रवाहित रहा है। इस प्रकार सभी वैदिक विद्वान् वेद शास्त्र वेदागों का अपना ज्ञान वनी बनकर निःस्वार्थ भाव से वितरित करते रहे है। इसी भाँति सभी प्रकार की साहित्य सगीतकलाओं को प्रचारित करते रहे हैं। जिससे प्राचीन भारत ज्ञान-विज्ञान एवं सर्वविधकलाओं का समृद्धतम संसार रहा है तथा वर्ण व्यवस्था पूर्णतः गुण कर्म पर आश्रित रही है। कोई वर्ण उच्च या निम्न नहीं माना। सभी की समान प्रार्थना रहीं है।

रुचं नो धेहि ब्राहमणेषु रुचं राजसु नस्कृधि।

रुचं वैश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रुचा रुचम्।।

अर्थात् परमेश्वर हमारे ब्राहमणों में प्रकाश स्थापित कीजिए, हमारे राजाओं में तेज स्थापित कीजिए। वैश्यों और शूद्रों में तेज स्थापित कीजिए, मुझमें प्रकाश के साथ प्रकाश अर्थात् अविच्छिन्न प्रकाश प्रवाह स्थापित कीजिए।

रुचं का अर्थ ऋषि दयानन्द ने प्रेम प्रीति किया है तथा महीधर ने दीप्ति अर्थ किया है। इसी प्रकार वेद पढ़ने का अधिकार सभी वर्णों को प्रदान किया है –

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।

ब्रहमराजन्याभ्यां शूद्राय चार्य्याय च चारणाय च।।

अर्थ – ईश्वर मानवमात्र से कहता है – जैसे दया के वशीभूत होकर जनोपकार हेतु इस कल्याणी चतुर्वेदमयी वाणी का इस जगत् में सबके लिए मैं उपदेश करता हूँ इसी भाँति आप सब भी इस कल्याणी वेदवाणी का उपदेश किया कीजिए। मैं ब्राहमण और राजाओं के लिए शूद्र और वैश्यों के लिए और अपने प्रिय अरण-दस्यु दासादि के लिए मैं उपदेश देता हूँ। इसमें आये अर्घ्याय का अर्थ पाणिनि ने भी वैश्य स्वामी किया है।

सभी वर्णों का खान-पान बराबर कहा है-

‘समानी प्र पा सहवोऽन्नभागाः’

अर्थात् तूम्हारा प्याऊ बावड़ी कुंआ आदि समान हो तथा खाद्य अन्न भोज्य चोष्य लेह्य सब समान हों।

    निष्कर्ष– इन सबका निष्कर्ष यह है कि वर्णाश्रम व्यवस्था जो वैदिक थी उसके अनुसार वह गुण कर्म पर आधारित थी। ब्राहमण क्षत्रिय भी बन जाता था। द्रोणाचार्य, परशुरामवत् क्षत्रिय विश्वामित्र ब्रहमर्षि गुरु वशिष्ठ ने स्वीकृत किये वैवश्वत मनु पुत्र नभग राज्य त्यागकर ब्राहमण बना एवं स्वगुरुकुल स्थापित कर विद्याध्यापन किया। एक ही ऋषि के चारों पुत्र ब्राहमण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र भी रहे। मनुस्मृति अनुसार –

ब्राहमणो शूद्रतामैति…..जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते…..वेदपाठी भवेद विप्रः….

इत्यादि भी यही सिद्ध करते हैं। अलमतिविस्तरेण बुविमद्वर्येषु।

-गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ0ख0)

 

वर्णव्यवस्था की आर्थिक नीति

वर्णव्यवस्था की आर्थिक नीति

स्वामी विवेकानन्द सरस्वती…..

नुष्य जीवन को पूर्ण सुखमय बनाने के लिए आर्थिक सम्पन्नता ही पर्याप्त नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि अर्थ का सुख-शान्ति प्रदान करने में कोई स्थान ही नहीं है। बड़े से बड़े नीति शास्त्रावेत्ता, विज्ञानवेत्ता, संगीतज्ञ, वेदज्ञ एवं शास्त्राविशारदों को भोजन न मिले, तो उनकी सारी विद्याएँ एक ओर ही रखी रह जायेंगी। भूखे भजन न होई गोपाला के अनुसार उनकी सारी प्रतिभा को क्षुधा रूपी पिशाचिनी ग्रस लेगी। अन्त में विवश होकर उन्हें रोटी के लिए प्रयत्न करना पड़ेगा, क्योंकि बुभुक्षितैः व्याकरणं न भुज्यते,  पिपासितैः काव्यरसो न पीयते उक्ति पूर्ण रूपेण चरितार्थ होगी। यह भी सम्भव है कि वे अपने धर्म के कार्यों को त्याग कर रोटी के  लिए पाप कर्म में प्रवृत्त हो जावें। बुभुक्षितः किं न करोति पापम्, भूखा मनुष्य कौन-सा पाप नहीं करता ? अर्थात् सब पाप करने को उद्यत हो जाता है। इसलिए यह जान पड़ता है कि यद्यपि अर्थ मनुष्य जीवन को पूर्ण सुखमय बनाने में एकमात्र साधन नहीं, तथापि यह वह साधन है, जिसके अभाव में कोई भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र अपना सर्वागिन विकास नहीं कर सकता। अतः आज हम उसी विषय पर विचार करते हैं कि वर्ण-व्यवस्था में आर्थिक नीति क्या होनी चाहिए, जिसके आधर पर अवलम्बित मनुष्य-जाति सुखमय जीवन बिता सकें।

वर्ण-व्यवस्था की अर्थनीति को समझने से पूर्व हम एक वाक्य में यह बतलाना आवश्यक समझते हैं कि आखिर यह वर्ण-व्यवस्था है क्या बला? जिसके लिए महर्षि दयानन्द जी महाराज तथा उनके अनन्य भक्त, सुयोग्य विद्वान् स्वामी समर्पणानन्दजी महाराज अपने जीवन की आहुति दे गये। वर्ण-व्यवस्था वह व्यवस्था है, जो किसी व्यक्ति का जन्म के आधार पर धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक अधिकार न मान कर  व्यक्ति के चुने हुए गुण, कर्म, स्वभाव पर मानती है। जिस प्रकार किसी भी वकील या अध्यापक का लड़का इसलिए वकील या अध्यापक नहीं बनाया जाता है कि वह वकील या अध्यापक का पुत्र है। पुत्र को उस पद को प्राप्त करने के लिए उन पदों की योग्यता और प्रमाण पत्र प्राप्त करने होंगे, बिना उसकी योग्यता के वकील के  पुत्र को वकील बनाना या अध्यापक के पुत्र को अध्यापक बनाना समाज के साथ अन्याय करना होगा। ठीक इसी प्रकार किसी भी पूँजीपति का पुत्र इसलिए पूँजी का स्वामी नहीं बनेगा कि वह पूँजीपति का पुत्र है, बल्कि पूँजी का स्वामी वह तब बन सकता है, जब वह उसके योग्य हो। यही अवस्था धर्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक क्षेत्र में भी है।

वैदिक वर्ण व्यवस्था की अर्थनीति के अनुसार सम्पत्ति पर अधिकार वैश्य का होगा परन्तु वह होगा पूर्ण सदुपयोग की मर्यादा से बँधा हुआ। यदि उस निश्चित की हुई मर्यादा का कोई भी वैश्य उल्लघन करता है, तो सम्पत्ति पर उसका अधिकार नहीं रहेगा। जिस प्रकार अच्छी शासन व्यवस्था में कोई पुलिस या अध्यापक या अन्य कोई अधिकारी अपने अधिकार या कर्त्तव्य का ठीक-ठीक पालन नहीं करता है, तो वह अधिकार उससे छीन लिया जाता है एवं वह अधिकारी उस पद से च्युत कर दिया जाता है, ठीक इसी प्रकार का नियम वैश्य वर्ग के साथ भी होगा। अब यह एक दूसरा प्रश्न पूछा जा सकता है कि इस अर्थनीति में अधिक् से अधिक् एक व्यक्ति कितनी सम्पत्ति रख सकता है या उसका स्वामी बन सकता है? इसका उत्तर यह है कि इसकी कोई मात्रा निश्चित नहीं, जो जितना योग्य होगा, वह उतनी ही अधिक सम्पत्ति का स्वामी बन सकता है। इस व्यवस्था के उपर तीसरा आक्षेप यह किया जा सकता है कि तब तो यह व्यवस्था नाम भेद मात्रा से पूँजीवाद को बढ़ावा देने वाली हुई क्योंकि इससे भी अधिक सम्पत्ति एक स्थान पर इकट्ठी होगी और इसमें भी वही दोष आयेंगे, जो पूँजीवाद में पहले आ चुके हैं। सच तो यह है कि वह है ही पूँजीवाद का प्रच्छनन रूप किन्तु हम इसके उत्तर में यह कह सकते हैं कि यदि अर्थ की मात्रा निश्चित कर दी जायेगी कि अधिक से अधिक इतने धन का एक व्यक्ति स्वामी हो सकता, तो यह विशुध वर्ण-व्यवस्था रह ही नहीं जायेगी क्योंकि इसमें अपने चुने हुए वर्ण के अनुसार पूर्ण विकास का स्थान नहीं है। जिस प्रकार ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के सम्बन्ध में यह निश्चित कर दिया जाये कि ब्राह्मण अमुक सीमा तक अपना ज्ञान क्षेत्रा बढ़ा सकता है, क्षत्रिय इस सीमा तक अपना बल, पौरुष बढ़ा सकता है, इससे अधिक नहीं, तो ऐसी व्यवस्था से समाज या राष्ट्र की क्षति होगी, समाज के विकास की जड़ कट जायेगी। यह तो रही विकास सम्बन्धी क्षति।

दूसरी ओर मान लीजिए कि निश्चित मात्रा कर दी गई और उस मात्रा के अन्दर रहने वाला ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य अपने ज्ञान, बल और धन से प्रजा के अज्ञान, अन्याय, अभाव को दूर न कर के विपरीत रूप में इनका प्रसार करने लगे तो क्या उसने राज्य की निश्चित मात्रा का उल्लंघन किया है? इसके लिए उनको इतना अत्याचार करते हुए भी छोड़ दिया जावेगा? नहीं, कदापि नहीं। हाँ, इसके विपरीत यह तो अवश्य ही निश्चित किया  जायेगा कि न्यून से न्यून इतनी योग्यता, त्याग और सदाचार से युक्त व्यक्ति ही ब्राह्मण माना जायेगा, अन्य नहीं। इसी प्रकार क्षत्रिाय, वैश्य बनने की भी मर्यादा निश्चित होगी। अपने-अपने क्षेत्र में उन्नति करने पर ब्राह्मण, ब्राह्मणतर, ब्राह्मणतम क्षत्रिय, क्षत्रियतर, क्षत्रियतम और वैश्य, वैश्यतर, वैश्यतम होंगे।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के उत्तराधिकारी का निर्णय सरकार द्वारा नियुक्त धर्मार्य सभा या अन्य कोई सभा विद्यार्थी के स्नातक बनने के पश्चात् उनकी योग्यता के अनुसार करेगी। सम्पत्ति कमाने का अधिकार केवल वैश्य वर्ग को ही होगा। ब्राह्मण, क्षत्रिय को तो नहीं, किन्तु वैश्य वर्ग पर यह आपत्ति उठाई जा सकती है कि जब वैश्य के पास अधिक सम्पत्ति का सचय होगा, तो पूँजीवादियों के दोष से बचना कठिन होगा। इसका उत्तर यह है कि सम्पत्ति का सचय स्वयं में कोई बुरी वस्तु नहीं है। बुरा तो तब है, जब वैश्य उस सम्पत्ति से अपनी भोग तृष्णा को सन्तृप्त करता है और अपने कार्यकर्त्ताओं को अपना सहयोगी न समझकर, उनके साथ आत्मीयता का व्यवहार न करके उनके पेट की रोटी काट कर अपनी सुरा की बोतल और तेल-फुलेलों पर व्यय करता है, अपनी नाक ऊँची करने में दूसरों का रक्त चूसता है। यदि सम्पत्ति का सचय अपने आप में बुरा है, तब तो सरकारी कोष में रखा हुआ रुपया भी बुरा है, मालगोदाम में रखे हुए अन्नादि बुरे हैं। यदि इन्हेंपूँजीवाद कहा जायेगा तो क्या पूँजीवाद के भ्रम से उन कोषों या मालगोदामों को जला या नष्ट कर दिया जायेगा? ऐसा कहना या करना अपनी बुद्धि के दिवालियेपन का परिचय देने के सिवाय और कुछ नहीं होगा। क्योंकि देश में कोष या मालगोदाम इसलिए सुरक्षित रखे जाते हैं कि संकटकालीन समय में काम आ सकें सेना-सचय, सुरक्षित सेना भी इसी लिए रखी जाती है। यदि अपने पास सचित कोष, सेना न होगी तो आपत्ति काल में किससे कार्य चलायेंगे? उस समय परमुखापेक्षी होकर दूसरे राष्ट्रों का मुख देखना पड़ेगा। यदि उनके यहाँ भी यही व्यवस्था रही या अन्य किसी कारण वश वे सहायता नहीं कर सकें तो राष्ट्र की प्रजा भूखों मरेगी। इससे यह सिद्ध होता है कि सचय अपने आप में कोई बुरी वस्तु नहीं किन्तु अच्छी वस्तु है। हर राष्ट्र, हर समाज, हर सघटन को सचय करना चाहिए। हाँ, उसका उद्देश्य भोग-विलासिता की सामग्री बढ़ाना न होकर देश व समाज के प्रत्येक व्यक्ति को आलम्बन- पदार्थ भोजन, वस्त्र, निवास स्थान का प्रदान तथा यथाशक्ति अनुबन्ध प्रदार्थ; शिक्षा-दीक्षा का प्रत्येक व्यक्ति के लिए उचित प्रबन्ध करना होगा। यदि सेठ भामाशाह की समस्त सम्पत्ति देश-सुरक्षा के कार्य में आ सकती है, तो यह क्यों आवश्यक है कि उसकी सम्पत्ति छीन कर दूसरे-जो इसके योग्य नहीं है, केवल झूठे कोरे समाजवाद या साम्यवाद का नारा लगाकर उनमें बाँट दी जाये।

यदि वैश्य अपने कार्यकर्त्ताओं को उनके परिश्रम के अनुसार पारिश्रमिक देता है, उन्हें पुत्रवत् या सहयोगी बन्धु के तुल्य समझता है, इसके अतिरिक्त जो कुछ सम्पत्ति शेष है, उससे देश में विद्यालय खोल कर शिक्षा का प्रचार-प्रसार या देश में सड़क, विज्ञान शाला, धर्मशाला, पुस्तकालय का निर्माण करवाता है, तो उसकी सम्पत्ति किसी को भी नहीं अखरेगी। इसका अर्थ यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि वह किसी भी प्रकार से अपनी आय बढ़ा ले, दिखाने के लिए एकाध रुपया उधार भी फेंक देवे। सदुपयोगवाद का इतना लचीला अर्थ नहीं है। सदुपयोगवाद तो यह कहता है कि जिस मील, कारखाने, भूमि या गोपालन विभाग का वह स्वामी नियुक्त किया गया है, उस विभाग में कार्य करने वाले श्रमिकों को उनके परिश्रमानुकुल पारिश्रमिक देकर उस मील, कारखाने या अन्य विभागों में जो व्यय हुआ है, उसे निकाल कर जितने से उसका अच्छी तरह निर्वाह हो सके ; निर्वाह करने योग्य ही, नाक ऊँची करने योग्य नहीं, उतने धन को छोड़कर समस्त धन देश या प्रजा की सेवा में सहर्ष प्रदान करे। उसकी सम्पत्ति परोपकाराय सतां विभूतयः के अनुसार प्रजा मात्र के हित के लिए हो। सदुपयोगवाद तथा पूँजीवाद का क्या यही सच्चा चित्र किसी कवि ने इस श्लोक में किया है-

विद्या विवादाय धनम मदाय शक्तिः परेषां परपीडनाय।

खलस्य साधेर्विपरीतमेतद ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।

(गुणरत्नम)

दुष्ट व पूँजीवादी की विद्या, धन, शक्ति, विवाद, अहंकार दूसरे को दुःख देने के लिए होते हैं। सज्जन; (सदुपयोगवादी) की विद्या, धन, शक्ति, ज्ञान, दान दूसरे की रक्षा के लिए होते हैं।

इस समय संसार में चारों ओर अशान्ति की लहर चल पड़ी है। चतुर्दिक हा! हन्त, त्रायध्वम की पुकार हो रही है। इसको दूर करने के लिए अनेक वाद प्रचलित हैं- पूँजीवाद, श्रमाधिकारवाद, साम्यवाद और समाजवाद। पूँजीवाद के द्वारा यह अशान्ति दूर हो, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है क्योंकि यह तो अशान्ति की जननी ही है। अब रहे श्रमाधिकारवाद, साम्यवाद एवं समाजवाद, इनकी भी हम थोड़ी परीक्षा करते हैं। किसी व्यक्ति का सम्पत्ति पर इसलिए अधिकार हो कि उसने उसे अपने श्रम से उपार्जित किया है। यदि वह उस सम्पत्ति को जलाने या पानी में डालने लगे, तो समाज या राष्ट्र उसे ऐसा करने देगा?  कदापि नहीं। अब यदि वह उस सम्पत्ति का सदुपयोग करता है, तो उसे ऐसा करने से कोई भी शिष्ट समाज या राष्ट्र नहीं रोकेगा। इसलिए श्रम के नाम पर किसी का सम्पत्ति पर अधिकार ठीक नहीं रहा। समाजवाद तो केवल एक कोरी कल्पना और आडम्बर मात्र है। साम्यवाद तो न कभी विश्व में हुआ है, न होगा। इनकी विस्तृत आलोचना के लिए पूज्य स्वामी समर्पणानन्द जी द्वारा लिखित ग्रन्थ ‘कायाकल्प’ का परिशीलन करें।

१. सम्पत्ति रखने की कोई निश्चित मात्रा न होगी।

२. वैश्य अपने व्यापार को कितना ही बढ़ाये जाये, सदुपयोगवाद के अनुसार उसकी समस्त सम्पत्ति, प्रजा और राष्ट्र की सेवा के लिए होगी, न कि अपनी भोग विलास की तृष्णा की तृप्ति और नाक ऊँची करने के लिए।

३. धन कमाने का अधिकार केवल वैश्य वर्ग को होगा। वह भी केवल गृहस्थाश्रम में ही २५ वर्ष तक,ब्रह्मचर्य या वानप्रस्थ में नहीं।

४. स्नातक बनने पर जिसको धर्मार्य सभा या राजार्य सभा निश्चित करेगी, वही वैश्य वर्ग में जाकर धनोपार्जन करेगा।

५. सम्पत्ति पर अधिकार व्यक्ति का होगा किन्तु वह तब तक ही होगा, जब तक वह उसका सदुपयोग कर रहा हो। अन्यथा उससे सम्पत्ति छीन कर जो उसके योग्य होगा, उसको दी जायेगी।

ये हैं वर्ण-व्यवस्था की अर्थ-नीति के पाँच मूल सूत्र, जिन पर चलायी गई अर्थ-नीति से राष्ट्र का सर्वागीण विकास होगा। इस अर्थनीति के द्वारा चलायी गई अर्थव्यवस्था में न कभी पूँजीवाद का भय होगा, न कभी साम्यवाद की अकर्मण्यता और आलस्य का। सबको अपने विकास का सुयोग्य अवसर प्राप्त होगा।

प्रभु हमें शक्ति प्रदान करे, जिससे हम ऐसी स्वर्णिम व्यवस्था की स्थापना करके भारत ही नहीं, विश्व को

सुख और शान्तिमय वातावरण में विचरण करा सके ।

– कुलाधिपति

गुरुकुल प्रभात आश्रम,

टीकरी; (भोलाझाल), मेरठ

मन में बार-बार एक प्रश्न आता है कि क्या हम वेद मन्त्रों के अलावा श्लोक, सूत्र आदि से भी आहुति दे सकते हैं? यदि नहीं तो स्वामी जी ने गृहसूत्रों से भी आहुतियाँ दिलायी हैं, जैसे-अयं त इध्म (आश्व.गृ.) अग्नये स्वाहा, सोमाय स्वाहा (गो.गृ.) भूर्भुवः स्वरग्नि.. (तैत्तिरीय आ.) आपोज्योतिः…(तैत्तिरीय आ.) यदस्य कर्मणो…(आश्व.गृ.) ये तो शतं वरुण.. (कात्या.श्रो.) अयाश्चाग्ने….(कात्या.श्रो.)। तो क्या इसी प्रकार अन्य गृह सूत्रों के मन्त्रों से भी आहुतियाँ दे सकते हैं? जैसे वैदिक छन्दों को मन्त्र कहा जाता है, वैसे ही गृह सूत्रों स्मृतियों के श्लोकादि को भी मन्त्र कहा जा सकता है। यदि मन्त्र नाम विचार का है तो श्लोकादि में भी विचार हैं।

– आचार्य सोमदेव

आदरणीय सम्पादक जी, सादर नमस्ते!

मन में बार-बार एक प्रश्न आता है कि क्या हम वेद मन्त्रों के अलावा श्लोक, सूत्र आदि से भी आहुति दे सकते हैं? यदि नहीं तो स्वामी जी ने गृहसूत्रों से भी आहुतियाँ दिलायी हैं, जैसे-अयं त इध्म (आश्व.गृ.) अग्नये स्वाहा, सोमाय स्वाहा (गो.गृ.) भूर्भुवः स्वरग्नि.. (तैत्तिरीय आ.) आपोज्योतिः…(तैत्तिरीय आ.) यदस्य कर्मणो…(आश्व.गृ.) ये तो शतं वरुण.. (कात्या.श्रो.) अयाश्चाग्ने….(कात्या.श्रो.)। तो क्या इसी प्रकार अन्य गृह सूत्रों के मन्त्रों से भी आहुतियाँ दे सकते हैं? जैसे वैदिक छन्दों को मन्त्र कहा जाता है, वैसे ही गृह सूत्रों स्मृतियों के श्लोकादि को भी मन्त्र कहा जा सकता है। यदि मन्त्र नाम विचार का है तो श्लोकादि में भी विचार हैं। – विश्वेन्द्रार्य

समाधानः- यज्ञकर्म कर्मकाण्ड है। इस कर्मकाण्ड को ऋषियों ने धर्म के साथ जोड़ दिया है और इसको मनुष्य के कर्त्तव्य कर्मों में अनिवार्य कर दिया। वैदिक युग अर्थात् आज के मत-मतान्तरों से पूर्व के काल में यह कर्म ऋषियों की विशुद्ध परिपाटी से होता था। प्रायः प्रत्येक गृहस्थ पञ्च यज्ञों का अनुष्ठान किया करता था। महाभारत के बाद ऋषि-महर्षियों के अभाव में ब्राह्मण वर्ग ने अपनी मनमर्जी चलाकर कर्मकाण्ड का रूप ही बदल डाला। जो कर्मकाण्ड पवित्र था, जिसके प्रति श्रद्धा थी, उस कर्मकाण्ड को तथाकथित पण्डितों ने अपवित्र कर दिया, अर्थात् ऐसे कर्म उसके साथ युक्त कर दिये जो  मनुष्य के लिए निन्दित थे। इसी कारण जिस कर्म के प्रति श्रद्धा थी, उसके प्रति अश्रद्धा व घृणा पैदा हो गई। परिणाम यह हुआ कि इस पवित्र यज्ञ कर्म से विमुख हो अनेक मत-सम्प्रदाय बनते चले गये और देश समाज का पतन होता चला गया। मनुष्य के नैतिक मूल्य गिर गये, मनुष्य या तो धर्म-कर्म से इतना स्वच्छन्द हुआ कि अपनी मर्यादा को तोड़ बैठा अथवा धर्म-कर्म में इतना बँध गया कि कोई भी कार्य पण्डित से पूछे बिना कर नहीं सकता। वेद, शास्त्र की बात गौण हो गई, तथाकथित पण्डित की बात सर्वोपरि होती चली गई। ऐसा होने से या तो लोग नास्तिक होते चले गये या फिर धर्मभीरु होते गये।

इस नास्तिकता ने और धर्मभीरुता ने मनुष्य समाज को पतन की ओर उन्मुख कर दिया। परमेश्वर की दया हम लोगों पर हुई कि महर्षि दयानन्द का इन सब बातों पर ध्यान गया और इस दूषित वातावरण को उन्होंने दूर किया। महर्षि ने अपने जीवन में ईश्वर और वेद को सर्वोपरि आदर्श माना है। वेद के आधार पर जो भी सुधार हो सकता था, वह महर्षि ने किया और अपने जीवन काल में सुधार करते रहे।

यज्ञ को महर्षि ने जगत् के उपकार के लिए महान् कर्म माना है। यज्ञ कर्म हम ठीक से करें-इसके लिए महर्षि दयानन्द ने पंचमहायज्ञविधि व संस्कार विधि नामक दो पुस्तकें लिखी हैं। इनमें भी संस्कार विधि पुस्तक बाद की है। इसमें महर्षि ने यज्ञ की ठीक-ठीक विधि को दे दिया है। आपने पूछा है कि वेद के मन्त्र के अतिरिक्त किसी श्लोक-सूत्र आदि की आहुति भी दे सकते हैं? इसमें हमारा कहना है कि यदि किसी श्लोक, सूत्र का विनियोग महर्षि अथवा किसी प्रामाणिक विद्वान् ने कर रखा है तो दे सकते हैं, अपनी मनमर्जी से नहीं देना चाहिए। यदि ऐसे ही अपनी मनमर्जी से देने लग गये तो पूर्व की भाँति अर्थात् महाभारत के बाद और महर्षि दयानन्द से पहले जो कर्मकाण्ड का विकृत रूप था, वह होता चला जायेगा, इसलिए जिनका विनियोग महर्षि दयानन्द ने किया है, उन मन्त्र-सूत्रों से आहुति देते रहें। इसमें महर्षि का भी मत है कि जो और अधिक  आहुति देना हो तो – विश्वानि देव सवितर्दुरितानि……इस मन्त्र और पूर्वोक्त गायत्री मन्त्र से आहुति देवें। स.प्र.३

‘‘अधिक होम करने की जहाँ तक इच्छा हो, वहाँ तक स्वाहा अन्त में पढ़कर गायत्री मन्त्र से होम करें।’’ पञ्च महायज्ञविधि। यह विधान महर्षि दयानन्द ने किया है।

आपने कहा कि महर्षि ने गृह सूत्रों आदि से आहुति का विधान किया है, इसमें हमारा कथन है कि वह आर्ष=ऋषिकृत विधि होने से ठीक है। जहाँ जिस प्रसंग के मन्त्र-सूत्रों का विनियोग जिस संस्कार आदि में आवश्यक था, महर्षि ने वह किया है। उनका वह विनियोग उचित है। महर्षि के इस विनियोग को देखकर भी जो कोई किसी अन्य सूत्र, श्लोक से आहुति दिलावे वा देवे सो ठीक नहीं। ऐसी मनमर्जी करने से यज्ञ का विशुद्ध स्वरूप ही बिगड़ जायेगा। मन्त्र मुख्य रूप से मूल वेद संहिताओं का नाम है, वेद में आये कथन को मन्त्र कहते हैं। इसमें यह रूढ़-सा हो गया है। ऐसा होने पर भी ऋषियों के व्यवहार से ज्ञात हो रहा है कि वेद से इतर शास्त्र वचनों को भी मन्त्र नाम से कहा है। जैसे कि आपने भी ‘‘अयं त इध्म……’’ को उद्धृत किया है।

महर्षि ने मन्त्र विचार को कहा है, सो ठीक है। मन्त्र शब्द मन्त्र गुप्त परिभाषणे धातु से सम्पन्न है, जिसका अर्थ ही गुप्त कथन = रहस्य रूप कथन है। इस मन्त्र शब्द से मन्त्री शब्द बना है, मन्त्री अर्थात् मन्त्रणा करने वाला, विचार करने वाला, राजा को विशेष विचार देने वाला अथवा राजा से विशेष मन्त्रणा करने वाला।

मन्त्र नाम विचार का है, इस हेतु को लेकर हम किसी भी श्लोक सूत्र को बोलकर आहुति देने लग जायें सो ठीक नहीं है, क्योंकि विचार केवल सूत्र श्लोक ही नहीं है, विचार तो कुरान की आयतें भी हैं, बाइबल की आयतें भी हैं। उपन्यास और नावेल में लिखी हुई बातें भी विचार ही हैं। चलचित्रों में कहे गये संवाद विचार हैं, तो क्या इनको बोलकर भी यज्ञ में आहुति देने लग जायें? इसको आप भी स्वीकार नहीं करेंगे और न ही कोई अन्य यज्ञप्रेमी स्वीकार करेगा।

इसलिए श्लोक सूत्रादि विचार होते हुए भी हर किसी श्लोक सूत्रादि से आहुति इसलिए नहीं देनी चाहिए, क्योंकि ऋषियों अथवा अन्य प्रामाणिक विद्वानों द्वारा उनका विनियोग हमें प्राप्त नहीं है। हाँ, यदि ऋषियों या किसी प्रामाणिक विद्वान् ने किसी मन्त्र श्लोक सूत्र का यज्ञ में प्रसंग के अनुसार विनियोग कर रखा हो तो उससे आहुति दे सकते हैं, दी जा सकती है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

पुस्तक – परिचय पुस्तक का नाम- व्याख्यान शतक

पुस्तक – परिचय

पुस्तक का नाम व्याख्यान शतक

लेखक स्वामी देवव्रत सरस्वती

प्रकाशकआर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली, १५, हनुमान रोड़, नई दिल्ली-१

पृष्ठ ५५८      मूल्य- ३५० रु. मात्र

मानव का ज्ञानवर्धन देखकर, सुनकर और पढ़कर होता है। जो व्यक्ति जितना वैदिक विचार धारा को सुनता और पढ़ता है उसका ज्ञान अधिक परिमार्जित होता है। ऐसा परिमार्जित ज्ञान वाला यदि उपदेशक बन जाता है, तो वह समाज का अधिक भला करता है। आज वर्तमान में हजारों उपदेशक हैं, उन उपदेशकों में से वैदिक ज्ञान परम्परा वालों को छोड़कर जितने उपदेशक हैं, वे समाज के अविद्या अन्धकार दूर करने की अपेक्षा बढ़ा रहे हैं। हजारों की संख्या में कथाकार कथाएँ कर रहे हैं, इन कथाकारों का सिद्धान्त निष्ठ न होने से समाज में अन्धविश्वास और पाखण्ड बढ़ रहा है। हाँ, जो वैदिक सिद्धान्त को ठीक से जानते हैं, वे समाज की अविद्या पाखण्ड को दूर कर पुण्य के भागी बन रहे हैं।

समाज में यदि उपदेशक ठीक है और उपदेश सुनने वाले ठीक हैं तो समाज की व्यवस्था भी ठीक होती है और यदि उपदेशक ठीक नहीं व उपदेश सुनने वाले ठीक नहीं तो सामाजिक व्यवस्था भी बिगड़ जाती है।

आजकल का उपदेशक वर्ग प्रायः स्वाध्याय कम करता है, कर रहा है। वह किसी अन्य उपदेशक द्वारा सुनी हुई बात को इधर से उधर करता है या वही अपनी पुरानी बातें दोहरा देता है, जिससे उसके उपदेशों में रोचकता का अभाव होता जाता है। हाँ, जो उपदेशक निरन्तर स्वाध्यायशील रहते हैं, उनके उपदेश भी नवीन व रोचक होते हैं।

जो उपदेशक विभिन्न प्रकार के व्याख्यान देने में निपुण होते हैं, वे अधिक लोकप्रिय होते हैं। विभिन्न विषयों पर उपदेशक व्याख्यान दे सके, उनकी सरलता के लिए आर्य जगत् के मूर्धन्य संन्यासी, शस्त्र व शास्त्र के ज्ञाता, विद्या के धनी स्वामी देवव्रत जी ने ‘‘व्याख्यान शतक’’ नामक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में वेद, योग, धर्म, सिद्धान्त, आर्यसमाज, आर्यवीर, युवक, महापुरुष आदि विषयों पर एक सौ एक व्याख्यान लिपिबद्ध किये हैं। वेद विषय पर १५, योग विषय पर १५, धर्म विषय पर १२, सिद्धान्त विषय पर ११, आर्यसमाज विषय पर १७, आर्यवीर विषय पर ७, युवक विषय पर ११, महापुरुष विषय पर ५ और विविध विषयों पर ८ व्याख्यान लिखे हैं। प्रत्येक व्याख्यान प्रमाणों, युक्ति तर्कों से युक्त अपने आपमें पूर्णता लिए हुए हैं। व्याख्यानों में वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, गीता, महाभारत, बाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, कौटिल्य अर्थशास्त्र, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, योगदर्शन, सांख्य दर्शन, सत्यार्थ प्रकाश, नीतिशतक, योगवाशिष्ठ, विदुर नीति, हठयोग प्रदीपिका, धेरण्ड संहिता, गोरक्ष संहिता, चाणक्य नीति, नारद भक्ति सूत्र व हरिहर चतुंग आदि ग्रन्थों के प्रमाण दिये गये हैं। यदि उपदेशक वर्ग इस पुस्तक के व्याख्यानों को पढ़कर व्याख्यान देगा तो उसका व्याख्यान विद्वत्तापूर्ण तो होगा ही, साथ में लोगों का ज्ञानवर्धन करने वाला व रोचकता युक्त भी होगा।

पुस्तक में विद्वान् लेखक ने अपने मनोभाव प्रकट किये हैं-‘‘अज्ञान मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निर्णय नहीं कर पाता, जिसके कारण ‘‘अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः’’ जैसे एक अन्धे के पीछे जाने वाले दूसरे अन्धे व्यक्तियों की गड्ढ़े में गिरने की पूरी सम्भावना रहती है, वैसी ही अवस्था अविद्याग्रस्त लोगों की होती है। अविद्या की पृष्ठभूमि में ही अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश के बीज पनपते हैं। सीधे, भोले और अज्ञानी लोगों को कोई भी अपने वाग्जाल में फँसाकर दिग्भ्रमित बहुत सरलता से कर सकता है, इसलिए विद्याध्ययन की समाप्ति पर समावर्तन संस्कार के समय आचार्य स्नातकों को प्रेरणा देते हुए कहता था, ‘‘स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्’’ स्वाध्याय और प्रवचन में कभी प्रमाद नहीं करना। स्वाध्याय और प्रवचन सबसे बड़ा तप है, जो प्रतिदिन एक वेदमन्त्र या उसका आधा अथवा चतुर्थ भाग का स्वाध्याय करता है, मानो उसने नख से शिख तक तप कर लिया।’’

इस ‘‘व्याख्यान शतक’’ पुस्तक लिखने की प्रेरणा के विषय में लेखक लिखते हैं-‘‘व्याख्यान शतक’’ लिखने की प्रेरणा आर्यसमाज की दो विभूतियों से मिली। पं. लेखराम जी की अन्तिम इच्छा थी कि आर्यसमाज से तकरीर (व्याख्यान) और तहरीर (लेखन) कभी बंद नहीं होने चाहिए। एक दिन शास्त्रार्थ महारथी पं. गणपति शर्मा चूरु (राजस्थान) का लेख किसी आर्यसमाज के पुस्तकालय में देखने को मिला। आदरणीय पण्डित जी ने उस जैसे एक सौ लेखों की व्याख्यान शतक पुस्तक लिखने की इच्छा प्रकट की थी। इन दोनों दिग्गज पण्डितों ने पौराणिकों व अन्य मतानुयायियों के साथ शास्त्रार्थ कर आर्य समाज की विजय दुन्दुभी बजाई थी।……………मैं श्रद्धा से उनको नमन करता हूँ।

विशेष महापुरुषों से प्रेरित होकर लिखी गई यह पुस्तक आर्य जगत् के उपदेशक वर्ग व अन्यों के लिए महत्त्वपूर्ण है। गुरुकुलों के छात्र यदि इन व्याख्यानों को पढ़ समझकर व्याख्यान देने का अभ्यास करेंगे तो वे आगे चलकर उच्चकोटि के वक्ता बन जायेंगे।

दृढ़ जिल्द, सुन्दर आवरण, कागज व छपाई से युक्त यह पुस्तक स्वाध्याय प्रेमी व उपदेशक वर्ग को हर्ष देने वाली होगी। स्वाध्यायशील व वक्ता लोग इस पुस्तक को प्राप्त कर लेखक व प्रकाशक के श्रम को सफल करेंगे, इस आशा के साथ –आचार्य सोमदेव ऋषि उद्यान, अजमेर

पं. नरेन्द्र जी (हैदराबाद)

पं. नरेन्द्र जी (हैदराबाद)

– रामनिवास गुणग्राहक

नर-नाहर नरेन्द्र का जीवन आर्यो, भूल न जाना।

प्राण-वीर अनुपम बलिदानी, वैदिक धर्म दिवाना।।

जब निजाम की दानवता ने मानवता को कुचला।

सबसे पहले आगे आया, वह साहस का पुतला।।

वाणी और लेखनी उसकी अंगारे बरसाती।

दूल्हा बना नरेन्द्र, साथ थे आर्य वीर बाराती।।

शुरू कर दिया उसने पाप-वृक्ष की जड़ें हिलाना-प्राणवीर…..

पहले फूँका शंख युद्ध का, पहले जेल गया था।

प्राणों का निर्मोही, प्राणों पर ही खेल गया था।।

जीवन के छह बरस जेल में अत्याचार सहे थे।

काला पानी तक भोगा, पर प्रण पर अटल रहे थे।।

लेखराम-श्रद्धानन्द से सीखा था धर्म निभाना- प्राणवीर…..

था ‘वैदिक आदर्श’ आपका पाञ्चजन्य उस रण का।

उसमें तव आदर्श गूँजता जीवन और मरण का।।

‘मसावात’ और ‘झण्डा’ में हुंकार तेरी सुनते थे।

आर्यवीर उत्साह उमंगों के सपने बुनते थे।।

अनुपम काम तेरा आर्यों में धर्म-आग सुलगाना-प्राणवीर……

दलितोद्धार हेतु तू पहले-पहल जेल में धाया।

शासक और सजातीयों ने जी भर तुझे सताया।।

तेरे गर्जन-तर्जन में कोई अन्तर नहीं आया।

शायद तुझको कौशल्या कुन्ती ने दूध पिलाया।।

सब ‘गुणग्राहक’ आर्य सदा गायेंगे सुयश तराना- प्राणवीर…..

होली – क्या, क्यों, कैसे?

होली – क्या, क्यों, कैसे?

– डॉ. रूपचन्द्र ‘दीपक’

होली आजकल असभ्यता का त्योहार माना जाने लगा है। यहाँ तक कि सभ्य एवं शिष्ट व्यक्ति इससे बचने लगे हैं। ऐसा इस कारण हुआ, क्योंकि इसका रूप विकृत हो गया है, अन्यथा यह भी चार प्रमुख त्योहारों में से एक है। अन्य तीन त्योहार हैं- रक्षाबन्धन, विजयदशमी एवं दीपावली। वास्तव में होली आरोग्य, सौहार्द एवं उल्लास का उत्सव है। यह फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है और आर्यों के वर्ष का अन्तिम त्योहार है। यह नई ऋतु एवं नई फसल का उत्सव है। इसका प्रह्लाद एवं उसकी बुआ होलिका से कोई सम्बन्ध नहीं है। होलिका की कथा प्रसिद्ध अवश्य है, किन्तु वह कथा इस उत्सव का कारण नहीं है। यह उत्सव तो प्रह्लाद एवं होलिका के पहले से मनाया जा रहा है।

होली क्या है? होली नवसस्येष्टि है (नव= नई, सस्य= फसल, इष्टि= यज्ञ) अर्थात् नई फसल के आगमन पर किया जाने वाला यज्ञ है। इस समय आषाढ़ी की फसल में गेहूँ, जौ, चना आदि का आगमन होता है। इनके अधभुने दाने को संस्कृत में ‘होलक’ और हिन्दी में ‘होला’ कहते हैं। शब्दकल्पद्रुमकोश के अनुसार-

तृणाग्निभ्रष्टार्द्धपक्वशमीधान्यं होलकः।

होला इति हिन्दी भाषा।

भावप्रकाश के अनुसार-

अर्द्धपक्वशमीधान्यैस्तृणभ्रष्टैश्च होलकः होलकोऽल्पानिलो मेदकफदोषश्रमापहः।

अर्थात् तिनकों की अग्नि में भुने हुए अधपके शमीधान्य (फली वाले अन्न) को होलक या होला कहते हैं। होला अल्पवात है और चर्बी, कफ एवं थकान के दोषों का शमन करता है। ‘होली’ और ‘होलक’ से ‘होलिकोत्सव’ शब्द तो अवश्य बनता है, किन्तु यह नामकरण वैदिक उत्सव का वाचक नहीं है।

होली नई ऋतु का भी उत्सव है। इसके पन्द्रह दिन पश्चात् नववर्ष, चैत्र मास एवं वसन्त ऋतु प्रारम्भ होती है। कुछ विद्वानों के अनुसार नववर्ष का प्रथम दिवस वसन्त ऋतु का मध्य-बिन्दु है। दोनों ही अर्थों में होली का समय स्वाभाविक हर्षोल्लास का है। इस समय ऊनी वस्त्रों का स्थान सूती एवं रेशमी वस्त्र ले लेते हैं। शीत के कारण जो व्यक्ति बाहर निकलने में संकोच करते हैं, वे निःसंकोच बाहर घूमने लगते हैं। वृक्षों पर नये पत्ते उगते हैं। पशुओं की रोमावलि नई होने लगती है। पक्षियों के नये ‘पर’ निकलते हैं। कोयल की कूक एवं मलय पर्वत की वायु इस नवीनता को आनन्द से भर देती है। इतनी नवीनताओं के साथ आने वाला नया वर्ष ही तो वास्तविक नव वर्ष है, जो होली के दो सप्ताह बाद आता है। इस प्रकार होलकोत्सव या होली नई फसल, नई ऋतु एवं नव वर्षागमन का उत्सव है।

होली के नाम पर लकड़ी के ढेर जलाना, कीचड़ या रंग फेंकना, गुलाल मलना, स्वाँग रचाना, हुल्लड़ मचाना, शराब पीना, भाँग खाना आदि विकृत बातें हैं। सामूहिक रूप से नवसव्येष्टि अर्थात् नई फसल के अन्न से बृहद् यज्ञ करना पूर्णतः वैज्ञानिक था। इसी का विकृत रूप लकड़ी के ढेर जलाना है। गुलाब जल अथवा इत्र का आदान-प्रदान करना मधुर सामाजिकता का परिचायक था। इसी का विकृत रूप गुलाल मलना है। ऋतु-परिवर्तन पर रोगों एवं मौसमी बुखार से बचने के लिए टेसू के फूलों का जल छिड़कना औषधिरूप था। इसी का विकृत रूप रंग फेंकना है। प्रसन्न होकर आलिंगन करना एवं संगीत-सम्मेलन करना प्रेम एवं मनोरंजन के लिए था। इसी का विकृत रूप हुल्लड़ करना एवं स्वाँग भरना है। कीचड़ फेंकना, वस्त्र फाड़ना, मद्य एवं भाँग का सेवन करना तो असभ्यता के स्पष्ट लक्षण हैं। इस महत्त्वपूर्ण उत्सव को इसके वास्तविक अर्थ में ही देखना एवं मनाना श्रेयस्कर है। विकृतियों से बचना एवं इनका निराकरण करना भी भद्रपुरुषों एवं विद्वानों का आवश्यक कर्त्तव्य है।

होली क्यों मनायें? भारत एक कृषि-प्रधान देश है, इसलिए आषाढ़ी की नई फसल के आगमन पर मुदित मन एवं उल्लास से उत्सव मनाना उचित है। अन्य देशों में भी महत्त्वपूर्ण फसलों के आगमन पर उत्सव का समान औचित्य है। नव वर्ष के आगमन पर एक पखवाड़े पूर्व से ही बधाई एवं शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करना स्वस्थ मानसिकता एवं सामाजिक समरसता के लिए हितकारी है। साथ-साथ रहने पर मनोमालिन्य होना सम्भव है, जिसे मिटाने के  लिए वर्ष में एक बार क्षमा याचना एवं प्रेम-निवेदन करना स्वस्थ सामाजिकता का साधन है। नई ऋतु के आगमन पर रोगों से बचने के लिए बृहद् होम करना वैज्ञानिक आवश्यकता है, इसलिए इस उत्सव को अवश्य एवं सोत्साह मनाना चाहिए।

होली कैसे मनायें? होली भी दीपावली की भाँति नई फसल एवं नई ऋतु का उत्सव है, अतः इसे भी स्वच्छता एवं सौम्यतापूर्वक मनाना चाहिए। फाल्गुन सुदी चतुर्दशी तक सुविधानुसार घर की सफाई-पुताई कर लें। फाल्गुन पूर्णिमा को प्रातःकाल बृहद् यज्ञ करें। रात्रि को होली न जलायें। अपराह्न में प्रीति-सम्मेलन करें। घर-घर जाकर मनोमालिन्य दूर करें। संगीत -कला के आयोजन भी करें। रंग, गुलाल, कीचड़, स्वाँग, भाँग आदि का प्रयोग न करें। इनकी कुप्रथा प्रचलित हो गई है, जिसे दूर करना आवश्यक है। स्वस्थ विधिपूर्वक उत्सव मनाने पर मानसिकता, सामाजिकता एवं वैदिक परम्परा स्वस्थ रहती है। ऐसा ही करना एवं कराना सभ्य, शिष्ट एवं श्रेष्ठ व्यक्तियों का कर्त्तव्य है।

-आर्य समाज, शृंगार नगर, लखनऊ-२२६००५

हम शाकाहारी क्यों बनें?

हम शाकाहारी क्यों बनें?

– डॉ. गोपालचन्द्र दाश

गर्मी का महीना है। गर्मी की छुट्टी के कारण सभी स्कूल बन्द हैं। एक लड़का अपने मामाजी के घर घूमने आया। उसके मामा ने उससे कहा कि एक कबूतर को पकड़कर लाओ। उसके मामा मांसाहारी थे। वे कबूतर की हत्या करके उसके मांस को पकाकर खाना चाहते थे। इसी शंका से लड़के ने कबूतर को पकड़ने के लिए पहले मना कर दिया था। उसके मामा ने भरोसा दिलाया कि वे कबूतर की हत्या नहीं करेंगे। आखिर मासूम लड़के ने कबूतर को पकड़ कर मामाजी को सौंप दिया। मामा अपने आश्वासन से मुकर गए और उसी रात कबूतर की हत्या करके उसके मांस से व्यंजन बनाए। यह घटना जानकर उस लड़के को बहुत मानसिक कष्ट हुआ। इसने उसके मन को उद्वेलित किया। रात में खाने के लिए बुलाने पर उसने सीधा मना कर दिया। रात भर बिना भोजन किए सोया। परिवार के सभी लोग लड़के से प्यार करते थे। उसका समर्थन करते हुए परिवार के दूसरे लोगों ने भी रात में भोजन नहीं किया। अगले दिन मामाजी को ज्ञात हुआ कि परिवार के सभी लोग उपवास पर हैं। मामाजी ने अपनी गलती को महसूस किया। लड़के के सामने उन्होंने कसम खायी कि भविष्य में कभी जीवहत्या नहीं करेंगे। वे पूर्ण शाकाहारी बन गए। अपने परिवार के बुजुर्ग लोगों के हृदय में संपूर्ण परिवर्तन लाने के कारण उक्त शाकाहारी बालक स्वाधीन भारत का प्रधानमंत्री बना। भारत के उस महान् सपूत का नाम है लाल बहादुर शास्त्री।

कुछ दिन पहले किसी एक दैनिक समाचार पत्र में रंगीन विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। उक्त विज्ञापन की विषयवस्तु पढ़ने से मन दुःख से खिन्न हो गया। अँग्रेजी में लिखित विज्ञापन की विषयवस्तु इस प्रकार थीः- Dear meat lovers, we bring to you best desi khassi kids between the age of 6 to 8 months only rich your plate. Please contact…………विज्ञापन में एक सुन्दर मेमने की तस्वीर बनी थी। इसका आशय यह है कि ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए यह एक व्यवसायिक चाल थी। अपनी जीभ की लालसा को तृप्त करने के लिए मांसाहार करने के कारण ग्राहकों को समाज में उस तरह का विज्ञापन दृष्टिगत होता है। भुवनेश्वर की सड़क की पगडंडी के अधिकांश स्थान पर विज्ञापन पट्ट पर लिखा हुआ है- ‘‘मिट्टी के बर्तन में पकाया गया मांस और भात (बिरयानी)’’। इस तरह का विज्ञापन मांसाहार को प्रोत्साहित करता है। मानव शरीर के लिए मांसाहार अनुकूल है या नहीं, यह बात जानने से पहले यह जानना चाहिए कि आदमी जीभ के स्वाद के लिए खाता है। मांसाहारी व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से जीव हत्या नहीं करने के बावजूद वह निश्चित रूप से महापाप में मुख्य भूमिका निभाता है।

बच्चा प्रसव के पश्चात् माँ का दूध पीता है। माँ का दूध उपलब्ध न होने से माँ के घरवाले गाय के दूध की व्यवस्था करते हैं। इसलिए मनुष्य जन्म से शाकाहारी है। आयु के बढ़ने के बाद परिवार और समाज के प्रभाव से व्यक्ति मांसाहारी बन जाता है। समाज में विद्यमान कुशिक्षा उस की जड़ है। शरीर की संरचना की दृष्टि से मानव शरीर शाकाहारी भोजन के लायक है। उदाहरण के तौर पर-

१. मांसाहार करनेवाले प्राणी की लार में अम्ल की मात्रा अधिक होती है।

२. मांसाहारी प्राणी के रक्त की रासायनिक स्थिति (पी.एच.) कम है अर्थात् अम्लयुक्त है। शाकाहारी प्राणी के रक्त का पी.एच. ज्यादा है अर्थात् क्षारयुक्त है।

३. मांसाहारी प्राणी के रक्त में स्थित लिपोप्रोटीन शाकाहारी प्राणी से अलग होता है। शाकाहारी प्राणी का लिपोप्रोटीन मनुष्य जैसा होता है।

४. मांस की पाचन क्रिया में मांसाहारी प्राणी के आमाशय में उत्पन्न हाइड्रोक्लोरिक एसिड की मात्रा मनुष्य की तुलना में दस गुणा होती है। मनुष्य और अन्य प्राणियों के आमाश्य में उत्पन्न अम्ल (एसिड) की मात्रा कम होने के कारण मांस की पाचन क्रिया में बाधा उत्पन्न होती है।

५. मांसाहारी प्राणी की आंत्रनली की लम्बाई छोटी और शरीर की लम्बाई के बराबर होती है। आंत्रनलिका छोटी होने के कारण मांस शरीर में विषैला होने से पहले बाहर निकल जाता है, परन्तु मनुष्य और अन्य शाकाहारी प्राणियों की आंत्रनली की लम्बाई शरीर की लम्बाई से चार गुणा अधिक होती है, इसलिए मांसाहार से उत्पन्न विषैला तत्त्व शरीर से सहज ढंग से निकल नहीं सकता है, इसलिए शरीर रोगाक्रान्त हो जाता है। मांसाहार से उत्पन्न प्रमुख रोग हैं-उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हृदयरोग, गुर्दे का रोग, गठिया, अर्श, एक्जीमा, अलसर, गुदा और स्तन कर्कट आदि।

६. शिकार को सहज ढंग से पकड़ने के लिए मांसाहारी प्राणी की जीभ कंटीली, दाँत पैने और ऊँगलियों में पैने नाखून होते हैं। लेकिन शाकाहारी प्राणी की जीभ चिकनाईयुक्त, चौड़े दाँत और नाखून आयताकार जैसे होते हैं। शाकाहारी प्राणी होंठ के सहारे पानी पीता है, परन्तु मांसाहारी प्राणी जीभ से पानी पीता है।

७. मांसाहारी प्राणी की जीभ ऊपर और नीचे की और गतिशील होती है। इसलिए वे बिना चबाकर भोजन को निगल लेते हैं, इसके विपरीत शाकाहारी प्राणियों की जीभ चारों दिशाओं में गतिशील होती है। इसलिए वे भोजन को चबाकर खाते हैं।

८. मांसाहारी भोजन से शरीर में उत्पन्न अधिक वसा आदि के निर्गत के लिए उनके यकृत और गुर्दे का आकार बड़ा होता है। शाकाहारी प्राणियों के ऐसे अंग-प्रत्यंग छोटे होने की वजह से धमनी में एथेरोक्लेरोसिम जैसे रोग उत्पन्न होते हैं।

९. शाकाहारी की तुलना में मांसाहारी जीव की घ्राणशक्ति तेज तथा आवाज कठोर और भयानक होती हैं। ऐसे गुण उन्हें शिकार के लिए मदद करते हैं।

१०. मांसाहारी प्राणी की संतान जन्म के बाद एक सप्ताह तक दृष्टिहीन होती हैं। मनुष्य की तरह अन्य शाकाहारी पशु की संतान जन्म के बाद देख सकती हैं। ऐसे सभी विश्लेषण से ज्ञात होता है कि मानव शरीर की संरचना अन्य मांसाहारी प्राणियों से भिन्न होती हैं और शाकाहारी प्राणियों के अनुरूप होती हैं। इसलिए मनुष्य हमेशा एक शाकाहारी प्राणी है।

मनुष्य से भिन्न दुनिया का अन्य कोई भी प्राणी अपनी शारीरिक संरचना एवं स्वभाव के विपरीत आचरण नहीं करता है। उदाहरण के रूप में बाघ भूखा रहने पर भी शाकाहारी नहीं बनता है अथवा गाय भूख के कारण मांसाहार नहीं करती है। कारण यह कि ऐसा उनके स्वभाव के अनुकूल नहीं है, परन्तु मनुष्य जैसे विवेकशील एवं बुद्धिमान् प्राणी में इस तरह के प्रतिकूल स्वभाव पाए जाते हैं। मनुष्य का भोजन केवल पेट भरने तथा स्वाद तक सीमित नहीं है। यह मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, चरित्रगत तथा बौद्धिक स्वास्थ्य के विकास में मुख्य भूमिका निभाता है। इसके लिए कहा गया है- ‘‘जैसा अन्न, वैसा मन’’। भोजन में रोग उत्पन्न करनेवाला, स्वास्थ्य को बिगाड़नेवाला और उत्तेजक पदार्थ रहने से वह शरीर के लिए हानिकारक होता है तथा शरीर के लिए विजातीय तत्त्वों को बाहर निकालने में रुकावट पैदा करता है। भोजन ऐसा होना चाहिए जिससे कि शरीर से अनावश्यक तत्त्व शीघ्र बाहर निकलने के साथ-साथ रोगनिरोध शक्ति उत्पन्न हो। पेड़ पौधों से बनाए जाने वाले शाकाहारी भोजन में पर्याप्त रेशा (फाइबर) होने के कारण यह कब्ज को दूर करने के साथ-साथ अनावश्यक पदार्थ जैसेः- अत्यधिक वसा (फैट) और सुगर आदि मल के रूप में निर्गत करवाता हैं। इसी वजह से व्यक्ति को मधुमेह और उच्च रक्तचापआदि रोगों से मुक्ति मिलती है। मांसाहारी खाद्य की तुलना में शाकाहारी खाद्य में स्वास्थ्यवर्धक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है। यह व्यक्ति को स्वस्थ, दीर्घायु, निरोग और हृष्टपुष्ट बनाता है। शाकाहारी व्यक्ति हमेशा ठंडे दिमागवाले, सहनशील, सशक्त, बहादुर, परिश्रमी, शान्तिप्रिय आनन्दप्रिय और प्रत्युत्पन्नमति होते हैं। वे अधिक समय बिना भोजन के रहने की क्षमता रखते हैं। इसलिए उनके पास दीर्घ समय तक उपवास करने की क्षमता है। उदाहरण स्वरूप भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने इस वर्ष नवरात्रि पर्व के दौरान अपनी अमेरीका यात्रा के दौरान लगातार पाँच दिनों तक उपवास करके केवल गर्म पानी पी कर धाराप्रवाह भाषण के माध्यम से दिन-रात अनेक सभाओं को बिना अवसाद सम्बोधित किया था। यह घटना विश्ववासियों को आश्चर्यचकित करती थी।

शाकाहारी भोजन न केवल शक्ति प्रदायक होता है, यह आर्थिक दृष्टि से किफायती भी है। शाकाहारी भोजन द्वारा पशुधन सुरक्षित होने के साथ-साथ इसका सही उपयोग होता है। गौ पशुधन से प्राप्त दूध, दूध-सम्बन्धी उत्पाद, गोबर खाद, ईंधन गैस और विद्युत ऊर्जा उत्पन्न होती हैं। मुर्गी वातावरण की संरक्षा और मछली जल का शोधन करती है। इसके विपरीत यदि शाकाहारी प्राणी प्रतिदिन मांसाहार करता है तो इतनी मात्रा में अम्ल और जहरीला पदार्थ उत्पन्न होंगे तो शारीरिक क्रिया को क्रमशः ठप करा देंगे। उससे व्यक्ति अल्पायु होता है। उदाहरण के तौर पर भौगोलिक परिवेश के अनुरूप मांसाहार से जीवनयापन करने के कारण एस्किमों की औसत आयु सिर्फ ३० वर्ष होती है। कसाईखाने में मासूम जानवर अपनी आत्मरक्षा का प्रयास करते हुए छटपटाता है। भय और आवेग से पशु के शरीर से अत्यधिक मात्रा में आड्रेनलीन उत्पन्न होता है। यह एक उत्तेजक हारमोन है। इससे पशु का मांस विषैला बन जाता है। उक्त मांस को खानेवाला व्यक्ति हमेशा सामान्य उत्तेजक स्थिति में उत्तेजित होता हैं एवं क्रुद्ध बन जाता है। मांसाहार से सम्बद्ध अन्य बुरी आदतें हैं जैसे- मदिरा पान, धूमपान। मांस और मदिरा के चपेट में आकर मनुष्य अज्ञात रूप से बहुत कुकर्म करता है।

विगत दिनों की घटनाओं पर चिंतन करने पर यह पाया गया है कि वाइरसजन्य बर्ड फ्लू और स्वाइन फ्लू समग्र विश्व में बारबार महामारी का रूप लेते हैं। ये रोग मुर्गियों और सूअरों के माध्यम से मनुष्य को संक्रमित करते हैं। उपर्युक्त पक्षी और जानवर का मांसाहार इसका प्रमुख कारण है। शाकाहारी जीवन शैली से इन रोगों का संपूर्ण निराकरण किया जा सकता है। मछलियों, मांस और अण्डों को सुरक्षित रखने के लिए व्यवहृत विभिन्न किस्म के रसायन मनुष्य शरीर के लिए हानिकारक हैं। परीक्षा से इस बात की पुष्टि की गई हैकि यदि अण्ड़े को आठ डिग्री सेंटिग्रेड से अधिक तापमान में बारह घंटे से अधिक समय के लिए रखा जाता है तो अन्दर से अण्डे की सड़न प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भारत जैसे ग्रीष्म मंडलीय जलवायु में अण्डे को निरन्तर वातानुकूलित व्यवस्था में रखा जाना संभव नहीं हो पाता है। ये वाइरस, टाइफाइड और खाद्य सामग्री को विषैला बना देते हैं। लिस्टेरिया वाइरस गर्भवती महिलाओं में गर्भपात की समस्या तथा गर्भस्थ शिशु में रोग उत्पन्न करता है।

मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है। अहिंसा मानव का परम धर्म है। सभी धर्मों में जीवहत्या का विरोध किया गया है। जीवहत्या के बिना मांसाहार असंभव है। दया और विनम्रता गुण मनुष्य के भूषण होते हैं। निर्दयता मनुष्य को जीवहत्या के लिए प्रेरित करती है। यह मनुष्य का गुण नहीं है, अवगुण है। महात्मा बुद्ध, वर्धमान महावीर, महर्षि दयानन्द, संत कबीर और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषगण जीवहत्या का विरोध करते थे और कहते थे कि मांस की खरीद करने वाला आदमी मांसाहार करने वाले आदमी की तरह दोषी हैं।

वर्तमान समाज में परिवर्तन की लहर आई है। पाश्चात्य देश के लोग हमारी संस्कृति से प्रभावित होकर धीरे-धीरे शाकाहारी बन रहे हैं, परन्तु हम लोग विपरीत आचरण कर रहे हैं। जन जागरण के लिए वर्तमान केबिनेट मंत्री श्रीमती मेनका गाँधी समाचार पत्रों और दूरदर्शन के माध्यम से मांसाहार के कुपरिणाम और शाकाहार के लाभ के बारे में निरन्तर अपने विचार व्यक्त करती आ रही हैं। कनाडा के अनुसंधानकर्त्ताओं की एक टीम ने ५ सालों के परीक्षण के बाद ‘अम्बलीडमा अमेरिकनस’ नाम से एक कीड़े का आविष्कार किया है। ठंडे परिवेश में अपने वंश का विस्तार करने वाला कीड़ा यदि आदमी को काट देता है तो उसके शरीर में एक अस्वाभाविक परिवर्तन होता है।

मनुष्य की भावना उसके कर्म को प्रभावित करती है। जिस व्यक्ति में अहिंसा, दया, क्षमा और उपकार करने की भावना है, वह अन्य किसी प्राणी को दर्द देनेवाला निर्दय कर्म नहीं करेगा। प्राणी के कष्ट को हृदय में महसूस करने वाला व्यक्ति मांसाहार करेगा, इसकी कल्पना कभी भी नहीं की जा सकती है, तो आइए, हम सब शाकाहारी बनें।    – अपर स्वास्थ्य निदेशक, पूर्व तट रेल्वे, भुवनेश्वर।

बोली खंजर की धार

बोली खंजर की धार

– राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

तेरी जय जय जयकार, गावे सारा संसार।

जागा सारा संसार तेरी सुनकर हुँकार।।

निर्भय योद्धा संग्रामी, वैदिक पथ के अनुगामी।

दुःखड़े जाति के टारे, प्यारे ज्ञानी नरनामी।।

सच्चे ईश्वर विश्वासी, झेले सङ्कट हजार……

तेरे साहस पे वारी, तुझ पर प्यारे बलिहारी।

तू था ऋषियों की तान, दुनिया जाने यह सारी।।

तजकर सारे सुखसाज, कीन्हा जीवन सञ्चार…..

युग ने करवट जो बदली, काँपे सारे अन्यायी।

रोते देखे मिर्जाई, तर गई तेरी तरुणाई।।

आई बनकर वरदान, तीखी छुरियों की धार…..

तेरा सुनकर सिंहनाद, जागे जो ये अरमान।

शत्रु हो गये हैरान, आई जाति में जान।।

परहित जीना मरना, तेरे जीवन का सार……..

तेरा ऋण कितना भारी, जग के सच्चे हितकारी।

करते याद नर-नारी, चावापायल१ की गाड़ी।।

चलती गाड़ी से कूदे, लेकर उर में अंगार……

पथिक! निराली देखी, तेरी वीरों में शान।

करते मिलकर गुणगान, करते हम सब अभिमान।।

देता जन-जन को जीवन, तेरा निर्मल आचार…..

रहना सेवा में तत्पर, चाहे दिन हो या रात।

हम हैं मस्तक झुकाते, सुन-सुन तेरी हर बात।।

भूलें कैसे? प्यारे! तेरा दलितों से प्यार…….

स्वामी श्रद्धानन्द शूर, जिनके मुखड़े पे नूर।

‘नाथू’२ ‘तुलसी’३ खोजें तेरे चरणों की धूर।।

बोले खंजर की धार, तेरा फूले परिवार…….

कर दो जाति के वीरो, उसके सपने साकार।

करके तन, मन, बलिदान, करिये सबका उद्धार।।

आओ गायें ‘जिज्ञासु’, गूँजे सारा संसार……..।