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काशी शास्त्रार्थ का वृत्तान्त – राजेन्द्र जिज्ञासु

[विशेष टिप्पणीः-सम्वत् १९२६ (सन् १८६९) का महर्षि का काशी शास्त्रार्थ नवयुग की आहट था। श्रद्धेय लक्ष्मण जी लिखित ऋषि जीवन का अनुवाद तथा  सम्पादन करते हुए विनीत तत्कालीन कई पत्रों तथा पुराने स्रोतों के प्रमाणों से युक्त अनेक टिप्पणियाँ देकर गवेषकों, लेखकों व विद्वानों के लाभार्थ पर्याप्त नई जानकारी दी है। ऋषि के विरोधियों तथा अन्य मतावलम्बियों के शास्त्रार्थ विषयक विचार भी ग्रन्थ में उद्धृत किये गये हैं।

उस ग्रन्थ पर कार्य करते समय भरसक प्रयत्न व भागदौड़ करने पर भी तब हमें ‘आर्य दर्पण’ मासिक का वह अंक न मिल सका जिसमें यह शास्त्रार्थ छपा था। मेरठ के ऋषि भक्त धर्मपाल के हाथ आर्य दर्पण के कई महत्वपूर्ण  अंक लगे परन्तु  फरवरी सन् १८८० का वह अंक उन्हें न मिला जिसमें यह शास्त्रार्थ छपा था। सौभाग्य से परोपकारिणी सभा के पुरुषार्थी आर्यवीर श्री राहुल जी आर्य, अकोला ने यह ऐतिहासिक अंक भी खोजकर हमें तृप्त कर दिया है। ‘आर्य दर्पण’ में प्रकाशित ‘शास्त्रार्थ काशी’ आगे दिया जाता है। लक्ष्मण जी के ग्रन्थ के साथ मिलान करके पढ़ने से पाठकों को विशेष लाभ  होगा। मूल अंक अब सभा की सम्प्पति  है। लक्ष्मण जी के ग्रन्थ में अत्यधिक पूरक सामग्री दी गई है। पाठक उसे भी अवश्य देखें।]

शास्त्रार्थ काशी जो सम्वत् १९२६ में स्वामी दयानन्द सरस्वती और काशी के पण्डितों के बीच आनन्द बाग में हुआ था।

एक दयानन्द सरस्वती नाम संन्यासी दिगम्बर गंगा के तीर विचरते रहते हैं जो सत् पुरुष और सत्य शास्त्रों के वेत्ता  हैं। उन्होंने सम्पूर्ण ऋग्वेद आदि का विचार किया है सो ऐसा सत्य शास्त्रों को देख निश्चय करके कहते हैं कि पाषाणादि मूर्ति पूजन, शैवशाक्त, गणपत और वैष्णव आदि सम्प्रदायों और रुद्राक्ष, तुलसी माला, त्रिपुंड्रादि धारण का विधान कहीं भी वेदों में नहीं है। इससे ये सब मिथ्या ही हैं। कदापि इनका आचरण न करना चाहिये क्योंकि वेद विरुद्ध और वेदों में अप्रसिद्ध के आचरण से बड़ा पाप होता है। ऐसी मर्यादा वेदों में लिखी है।

इस हेतु से उक्त स्वामी जी हरिद्वार से लेकर सर्वत्र इसका खण्ड़न करते हुए काशी में आकर दुर्गाकुण्ड के समीप आनन्द बाग में स्थित हुए। उनके आने की धूम मची। बहुत से पण्डितों ने वेदों के पुस्तकों में विचार करना आरम्भ किया परन्तु पाषाणादि मूर्तिपूजा  का विधान कहीं भी किसी को न मिला। बहुधा करके इसके पूजन में आग्रह बहुतों को है। इससे काशीराज महाराजा ने बहुत से पण्डितों को बुलाकर पूछा कि इस विषय में क्या करना चाहिये। तब सब ने ऐसा निश्चय करके कहा कि किसी प्रकार से दयानन्द स्वामी के साथ शास्त्रार्थ करके बहुकाल से प्रवित्त  आचार को जैसे स्थापना हो सके करना चाहिये। निदान कार्तिक शुद्धि १२ सं. १९२६ मंगलवार को महाराजा काशी नरेश बहुत से पण्डितों को साथ लेकर जब स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के हेतु आए तब दयानन्द स्वामी जी ने महाराजा से पूछा कि आप वेदों की पुस्तक ले आए हैं वा नहीं?

तब महाराजा ने कहा कि वेद सम्पूर्ण पण्डितों को कण्ठस्थ हैं। पुस्तकों का क्या प्रयोजन है? तब दयानन्द सरस्वती ने कहा कि पुस्तकों के बिना पूर्वापर प्रकरण का विचार ठीक-ठीक नहीं हो सकता। भला पुस्तक तो नहीं लाए? तो नहीं सही परन्तु किस विषय पर विचार होगा?

तब पण्डितों ने कहा कि तुम मूर्तिपूजा का खण्डन करते हो, हम लोग उसका मण्डन करेंगे। पुनः स्वामी जी ने कहा कि जो कोई आप लोगों में मुख्य हो वही एक पण्डित मुझसे संवाद करे। पण्डित रघुनाथ प्रसाद कोतवाल ने भी यह नियम किया कि स्वामी जी से एक-एक पण्डित विचार करे।

सबसे पहिले ताराचरण नैयायिक स्वामी जी से विचार के हेतु सन्मुख प्रवृत्त हुए।

स्वामी जी ने उनसे  पूछा कि आप वेदों का प्रमाण मानते हैं वा नहीं?

उन्होंने उत्तर  दिया कि जो वर्णाश्रम में स्थित हैं उन सब को वेदों का प्रमाण ही है।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि कहीं वेदों में पाषाण आदि मूर्तियों के पूजन का प्रमाण है वा नहीं, यदि है तो दिखाइये और जो न हो तो कहिये कि नहीं है।

तब पं. ताराचरण ने कहा कि वेदों में प्रमाण है वा नहीं परन्तु जो एक वेदों का ही प्रमाण मानता है औरों का नहीं उसके प्रति क्या कहना चाहिये?

स्वामी जी ने कहा कि औरों का विचार पीछे होगा। वेदों का विचार मुख्य है। इस निमित्त  इसका विचार पहिले ही करना चाहिये क्योंकि वेदोक्त ही कर्म मुख्य है और मनुस्मृति आदि भी वेद मूलक हैं इससे इनका भी प्रमाण है क्योंकि जो वेद विरुद्ध और वेदों में अप्रसिद्ध है उनका प्रमाण नहीं होता।

पं. ताराचरण ने कहा कि मनुस्मृति का वेदों में कहाँ मूल है? स्वामी जी ने कहा कि जो-जो मनु जी ने कहा है सो-सो औषधियों का भी औषध है ऐसा सामवेद के ब्राह्मण में कहा है।

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि रचना की अनुपत्ति  होने से अनुमान प्रतिपाद्य प्रधान जगत् का कारण नहीं। व्यास जी के इस सूत्र का वेदों में क्या मूल है।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह प्रकरण से भिन्न बात है। इस पर विचार करना न चाहिये।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि यदि तुम जानते हो तो अवश्य कहो। इस पर स्वामी जी ने यह समझकर कि प्रकरणान्तर में वार्ता जारी  रहेगी इससे न कहा और कह दिया कि जो कदाचित् किसी को कण्ठ न हो तो पुस्तक देखकर कहा जा सकता है।

तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा जो कण्ठस्थ नहीं है तो काशी नगर में शास्त्रार्थ करने को क्यों उद्यत हुए।

इस पर स्वामी जी ने कहा क्या आपको सब कण्ठाग्र है?

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि हाँ हमको सब कण्ठस्थ है।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि कहिये धर्म का क्या स्वरूप है?

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि जो वेद प्रतिपाद्य फल सहित अर्थ है वहीं धर्म कहलाता है।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह आपकी संस्कृत है। इसका क्या प्रमाण है। श्रुति वा स्मृति से कहिये।

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा जो चोदना लक्षण अर्थ है सो धर्म कहलाता है। यह जैमिनि का सूत्र है।

स्वामी जी ने कहा कि यह तो सूत्र है, यहाँ श्रुति वा स्मृति को कण्ठ से क्यों नहीं कहते? और चोदना नाम प्रेरणा का है वहाँ भी श्रुति वा स्मृति कहना चाहिये जहाँ प्रेरणा होती है।

जब इसमें विशुद्धानन्द स्वामी ने कुछ भी न कहा तब स्वामी जी ने कहा कि अच्छा आपने जो धर्म का स्वरूप तो न कहा परन्तु धर्म के कितने लक्षण हैं कहिये।

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि धर्म का एक ही लक्षण है।

स्वामी जी ने कहा कि मनुस्मृति में तो धर्म के दस लक्षण हैं- धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध- फिर कैसे कहते हो कि एक ही लक्षण है।

तब बाल शास्त्री ने कहा कि हमने सब धर्मशास्त्र देखा है।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि आप अधर्म का लक्षण कहिये तब बाल शास्त्री जी ने कुछ उत्तर  न दिया फिर बहुत से पण्डितों ने इकट्ठे हल्ला करके पूछा कि वेद में प्रतिमा शब्द  है वा नहीं? इस पर स्वामी जी  ने कहा कि प्रतिमा शब्द तो है। उन लोगों ने कहा कि कहाँ पर है? स्वामी जी ने कहा कि सामवेद के ब्राह्मण में है।

फिर उन लोगों ने कहा कि वह कौनसा वचन है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि  यह है देवता के स्थान कंपायमान होते और प्रतिमा हंसती है इत्यादि।

फिर उन लोगों ने कहा कि प्रतिमा शब्द द तो वेदों में भी है फिर आप कैसे खण्डन करते हैं।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि प्रतिमा शब्द से पाषाणादि मूर्ति पूजनादि का प्रमाण नहीं हो सकता है१०। इसलिए प्रतिमा शब्द द का अर्थ करना चाहिये कि इसका क्या अर्थ है।

तब उन लोगों ने कहा कि जिस प्रकरण में यह मन्त्र है उस प्रकरण का क्या अर्थ है?

इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह अर्थ है अथ अद्भुत शान्ति की व्याख्या करते हैं ऐसा प्रारम्भ करके फिर रक्षा करने के लिए इन्द्र इत्यादि सब मूल मन्त्र वहीं सामवेद के ब्राह्मण में लिखे हैं। इनमें से प्रति मन्त्र करके तीन-तीन हजार आहुति करनी चाहिये इसके अनन्तर व्याहृति करके पाँच-पाँच आहुति करनी चाहिये । ऐसा करके सामगान भी करना लिखा है। इस क्रम करके अद्भुत शान्ति का विधान किया है। जिस मन्त्र में प्रतिमा शब्द है सो मन्त्र मृत्यु लोक विषयक नहीं है किन्तु ब्रह्म लोक विषयक है सो ऐसा है कि जब विघ्नकर्ता देवता पूर्व दिशा में वर्तमान  होवे इत्यादि मन्त्रों से अद्भुत दर्शन की शान्ति कहकर फिर दक्षिण दिशा पश्चिम दिशा और उत्तर  दिशा इसके अनन्तर भूमि की शान्ति कहकर मृत्युलोक का प्रकरण समाप्त कर अन्तरिक्ष की शान्ति कहके इसके अनन्तर स्वर्ग लोक फिर परम स्वर्ग अर्थात् ब्रह्म लोक की शान्ति कही है। इस पर सब चुप रहे।

फिर बालशास्त्री ने कहा कि जिस-जिस दिशा में जो-जो देवता है उस-उस की शान्ति करने से अद्भुत देखने वालों के विघ्नों की शान्ति होती है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह तो सत्य है परन्तु इस प्रकरण में विघ्न दिखाने वाला कौन है? तब बाल शास्त्री ने कहा कि इन्द्रियाँ देखने वाली हैं। इस पर स्वामी जी ने कहा कि इन्द्रियाँ तो देखने वाली हैं, दिखाने वाली नहीं  स प्राचीं दिशमन्ववर्तते ’ मन्त्र में ‘स’ शब्द का वाच्यार्थ क्या है? तब बाल शास्त्री जी ने कुछ न कहा, फिर पण्डित शिवसहाय जी ने कहा कि अन्तरिक्ष आदि गमन शान्ति करने का फल इस मन्त्र का अर्थ कहा जाता है।११

इस पर स्वामी जी ने कहा कि आपने वह प्रकरण देखा है तो किसी मन्त्र का अर्थ तो कहिये।

तब शिवसहाय जी चुप ही रहे। फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि वेद किससे उत्पन्न हुए हैं?

इस पर स्वामी जी ने कहा कि वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं।

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि किस ईश्वर से? क्या न्याय शास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से वा योग शास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से अथवा वेदान्त शास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से इत्यादि।१२

इस पर स्वामी जी ने कहा कि क्या ईश्वर बहुत से हैं?

तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि ईश्वर तो एक ही है परन्तु वेद कौन से लक्षण वाले ईश्वर से प्रकाशित भये हैं?

इस पर स्वामी जी ने कहा कि सच्चिदानन्द लक्षण वाले ईश्वर से प्रकाशित भये हैं।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा ईश्वर और वेदों में क्या सम्बन्ध है? क्या प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव वा जन्य जनक भाव अथवा समवाय भाव अथवा सेवक स्वामी भाव अथवा तादात्मय सम्बन्ध है इत्यादि।

इस पर स्वामी जी ने कहा कार्य्य कारण भाव सम्बन्ध है।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि जैसे मन में ब्रह्म बुद्धि और सूर्य्य में ब्रह्म बुद्धि करके प्रतीक उपासना कही है वैसे ही सालिग्राम का पूजन भी ग्रहण करना चाहिये।१३

इस पर स्वामी जी ने कहा जैसे ‘मनोब्रह्मेत्युपासीत’ आदित्य ब्रह्मेत्युपासीत इत्यादि वचन वेद में देखने में आते हैं वैसे ‘पाषाणादि ब्रह्मेत्युपासीत’ आदि वचन वेद में कहीं नहीं दीख पड़ते, फिर क्यों कर इसका ग्रहण हो सकता है?

तब पण्डित माधवाचार्य ने कहा-

‘उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजाग्रहि त्वमिष्टापूर्ते इति’

इस मन्त्र में ‘पूर्ते’ शब्द से किसका ग्रहण है?

इस पर स्वामी जी ने कहा वायी, कूप, तड़ाग और आराम का ही ग्रहण है।

माधवाचार्य ने कहा कि इससे पाषाणादि मूर्तिपूजन क्यों नहीं ग्रहण होता है?१४

इस पर स्वामी जी ने कहा कि पूर्ति शब्द पूर्ति का वाचक है। इससे कदाचित् पाषाणादि मूर्तिपूजन का ग्रहण नहीं हो सकता। यदि शंका हो तो इस मन्त्र का निरुक्त और ब्राह्मण देखिये।

तब माधवाचार्य ने कहा कि पुराण शब्द  वेदों में है वा नहीं? इस पर स्वामी जी ने कहा कि पुराण शब्द तो बहुत सी जगह वेदों में है पुराण शब्द से ब्रह्म वैवतादिक ग्रन्थों का कदाचित् ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि पुराण शब्द भूतकाल वाची है और सर्वत्र द्रव्य का विशेषण ही होता है।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि बृहदारण्यकोपनिषद् के इस मन्त्र में कि –

‘‘एतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं श्लोका व्याख्यानुव्याख्यानानीति’’

यह सब जो पठित है इसका प्रमाण है वा नहीं।१५

इस पर स्वामी जी ने कहा कि हाँ प्रमाण है फिर विशुद्धानन्द जी ने कहा कि जो श्लोक का भी प्रमाण है तो सबका प्रमाण आया।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि सत्य श्लोकों का प्रमाण होता है औरों का नहीं।

तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कियहाँ पुराण शब्द किस का विशेषण है?

इस पर स्वामी जी ने कहा कि पुस्तक लाइये तब इसका विचार हो। पं. माधवाचार्य ने वेदों के दो पत्रे निकाले१६ और कहा कि यहाँ पुराण शब्द  किसका विशेषण है?

स्वामी जी ने कहा कि कै सा वचन है, पढिये।

तब माधवाचार्य ने यह पढ़ा ‘ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानीति’।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि यहाँ पुराण शब्द ब्राह्मण का विशेषण है अर्थात् पुराने नाम सनातन ब्राह्मण हैं।

तब पण्डित बालशास्त्री जी आदि ने कहा कि क्या ब्राह्मण कोई नवीन भी होते हैं?१७

इस पर स्वामी जी ने कहा कि नवीन ब्राह्मण नहीं हैं परन्तु ऐसी शंका भी किसी को न हो इसलिये यहाँ यह विशेषण कहा है।

तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि यहाँ इतिहास शब्द के व्यवधान होने से कैसे विशेषण होगा।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि क्या ऐसा नियम है कि व्यवधान से विशेषण नहीं हो सकता और अव्यवधान ही में होता है क्योंकि

‘अजो नित्यश्शाश्वतोऽयम्पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे’

इस श्लोक में दूरस्थ देही का भी विशेषण नहीं है? और कहीं व्याकरणादि में भी यह नियम नहीं किया है कि समीपस्थ ही विशेषण होते हैं, दूरस्थ नहीं।१८

तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि यहाँ इतिहास का तो पुराण शब्द विशेषण नहीं है इससे क्या इतिहास नवीन ग्रहण करना चाहिये।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि और जगह पर इतिहास का विशेषण पुराण शब्द है। सुनिये! इतिहास पुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः इत्यादि में कहा है।

तब वामनाचार्य आदिकों ने कहा कि वेदों में यह पाठ ही कहीं भी नहीं है।१९

इस पर स्वामी जी ने कहा कि यदि वेदों में यह पाठ न होवे तो हमारा पराजय हो और जो हो तो तुम्हारा पराजय हो। यह प्रतिज्ञा लिखो, तब सब चुप ही रहे।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि व्याकरण जानने वाले इस पर कहें कि व्याकरण में कहीं कल्मसंज्ञा करी है वा नहीं।

तब बालशास्त्री ने कहा कि संज्ञा तो नहीं की है परन्तु एक सूत्र में भाष्यकार ने उपहास किया है।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि किस सूत्र के महाभाष्य में संज्ञा तो नहीं की और उपहास किया है, यदि जानते हो तो इसके उदाहरण पूर्वक समाधान कहो।

बाल शास्त्री और औरों ने कुछ भी न कहा।

माधवाचार्य ने दो पत्रे वेदों के२० निकालकर सब पण्डितों के बीच में रख दिये और कहा कि यहाँ यज्ञ के समाप्त होने पर यजमान दसवें दिन पुराणों का पाठ सुने ऐसा लिखा है। यहाँ पुराण शब्द किसका विशेषण है?

स्वामी जी ने कहा कि पढ़ो इसमें किस प्रकार का पाठ है। जब किसी ने पाठ न किया तब विशुद्धानन्द जी ने पत्रे उठा के स्वामी जी के ओर करके कहा कि तुम ही पढ़ो।

स्वामी जी- आप ही इसका पाठ कीजिये।

तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि मैं ऐनक के बिना पाठ नही कर सकता। ऐसा कहके वे पत्रे उठाकर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने दयानन्द स्वामी जी के हाथ में दिये।

इस पर स्वामी जी दोनों पत्रे लेकर विचार करने लगे। इसमें अनुमान है कि पांच पल व्यतीत हुए होंगे कि ज्यों ही स्वामी जी यह उत्तर  कहा चाहते थे कि ‘‘पुरानी जो विद्या है उसे पुराण विद्या कहते हैं और जो पुराण विद्या वेद है वहीं पुराण विद्या वेद कहाता है, इत्यादि से यहाँ ब्रह्मविद्या ही का ग्राह्य है क्योंकि पूर्व प्रकरण में ऋग्वेदादि चारों वेद आदि का तो श्रवण कहा है परन्तु उपनिषदों का नहीं कहा। इसलिये यहाँ उपनिषदों का ही ग्रहण है औरों का नहीं। पुरानी विद्या वेदों की ही ब्रह्म विद्या है इससे ब्रह्मवैवर्तादि नवीन ग्रन्थों का ग्रहण कभी नहीं कर सकते क्योंकि जो वहाँ ऐसा पाठ होता कि ब्रह्मवैवर्तादि १८ अन्य पुराण है सो तो वेद में२१ कही ऐसा पाठ नहीं है। इसलिये कदाचित् अठारहों का ग्रहण नहीं हो सकता’’ ज्यों ही यह उत्तर कहना चाहते थे कि विशुद्धानन्द स्वामी उठ खड़े हुए और कहा कि हमको विलम्ब होता है२२। हम जाते हैं।२३ तब सबके सब उठ खड़े हुए और कोलाहल करते हुए चले गए। इस अभिप्राय से कि लोगों पर विदित हो कि दयानन्द स्वामी का पराजय हुआ परन्तु जो दयानन्द स्वामी के चार पूर्वोक्त प्रश्न हैं उनका वेद में तो प्रमाण ही न निकला फिर क्यों कर उनका पराजय हुआ?२४

टिप्पणियाँ

. आर्य दर्पण में यह हिन्दी उर्दू दोनों भाषाओं में छपा है। दोनों का मिलान करके यहाँ दिया है। जहाँ आवश्यक जाना विराम चिह्न दे दिये हैं। इससे पाठकों को सुविधा होती है।

. काशी नरेश तथा उसके दक्षिणा भोगी पण्डितों ने शास्त्रार्थ में पहला अनर्थ यही तो किया ऋषि की मांँग कितनी न्याय संगत थी। यह पाठक देख लें।

. शास्त्रार्थ में दूसरा अनर्थ व अन्याय यह हुआ कि पण्डितों का कोई मुखिया नहीं था। पण्डितों का जमघट बोलता था। महाराजा का कोई अंकुश ही नहीं था।

. शास्त्रार्थ की तीसरी धांधली यह थी। वेद से प्रतिमा पूजन का प्रमाण ऋषि ने माँगा था। यह चुनौती दी थी। पण्डित मुख्य विषय से छूटते ही भाग निकले।

. एक पश्चात् दूसरा पण्डित शास्त्रार्थ के विषय से भागने लगा। यह चौथी धांधली थी।

. ऋषि ने प्रकरण से बाहर जाने से रोका पर कौन सुनता था? यह पाँचवी धांधली थी।

. काशी नरेश ने वेद सबको कण्ठाग्र होने की तथा स्वामी विशुद्धानन्द ने सब कुछ कण्ठस्थ होने की डींग मारी थी। इस प्रश्न से सारी काशी की विद्या की पोल खुल गई।

. ऋषि ने मनु जी का प्रमाण देकर प्रतिस्पर्धी का अहंकार चूर कर दिया। यहाँ उर्दू हिन्दी के पाठ में कुछ श    द घटे बढ़े हैं। हमने मिलान करके यहाँ लिखा है। भाव भेद कोई नहीं है।

.आर्य दर्पण की पाद टिप्पणी में ही लिखा है कि यह वेद वचन नहीं है। परन्तु जहाँ है वहाँ भी वेद विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त है।

१०. यह कितना अनर्थकारी तर्क है कि वेद में प्रतिमा शब्द  होने से प्रतिमा पूजन का विधान है। वेद में तो प्रमाद, पाप, निन्दा, अनृत, अकर्म, दस्यु, दुरित शब्द भी आये हैं तो क्या इससे प्रमादी, पापी, आलसी, दुष्कर्मी होना सिद्ध हो गया? शास्त्रार्थ के विषय से भागने की काशी में मनमानी की गई।

११. यहाँ उर्दू व हिन्दी के  वृत्तान्त में शब्द  भेद है। भाव भेद नहीं।

१२. स्वामी विशुद्धानन्द के कथन से सिद्ध है कि मूर्तिपूजा  के अनेक ईश्वर हैं। ये लोग दर्शनों में परस्पर विरोध मानते हैं। हिन्दुओं में फूट का बीज इन्होंने ही बोया। विधर्मियों ने इसी का लाभ उठाया।

१३. वेद तथा ईश्वर विषयक ये प्रश्न पाषाण पूजकों की कुटिल कुचाल थी। वेद से प्रतिमापूजन की पुष्टि करने का विषय तो उन्होंने जानबूझकर छोड़ दिया।

१४. श्री लक्ष्मण जी के ग्रन्थ के  प्रथम भाग पृष्ठ २५५ पर माधवाचार्य की बजाय ‘बालशास्त्री ने कहा’ छप गया है। यह मुद्रण दोष समझा जावे। देखते जायें अब तक कितने विद्वान् ऋषि के सामने खड़े किये गये।

१५. ध्यान दीजिये यह नया विषय उठाया गया। शास्त्रार्थ का विषय पुराण नहीं था। मूर्तिपूजन के लिए श्रुति का प्रमाण देना था।

१६. ‘‘यह सब तो पठित है’’ ऐसा कहकर ऋषि की विद्वता  पर व्यंग्य कसा गया।

१७. आर्य दर्पण में भी यह पाद टिप्पणी मिलती है कि यह पण्डितों का ही मत है। स्वामी जी का नहीं। ये पत्रे वेद के नहीं गृह्यसूत्र के थे। वेद के नहीं। यह बहुत बडा छल था।

१८. यहाँ देखिये फिर नया पण्डित ऋषि के सामने खड़ा किया गया।

१९. विशेषण विषयक ऋषि की आपत्ति  व प्रमाण का किसी से कुछ भी उत्तर  नहीं बन सका।

२०. यह देखिये एक और विद्वान् को खड़ा होना पड़ा। एक के सामने काशी के कितने महारथी चित्त  होते गये।

२१. ये पत्रे गृहृसूत्र के थे, वेदों के नहीं। यह एक सुनियोजित षड्यन्त्र था। किसी एक के मस्तिष्क की उपज नहीं था।

२२. यह भी पण्डितों के मतानुसार कहा। यह स्वामी जी का मत नहीं।

२३. अध्यक्ष काशी नरेश ने तो सभा समाप्ति की घोषणा नहीं की। स्वामी विशुद्धानन्द की पहल से शास्त्रार्थ समाप्त हुआ और हुड़दंग मचने लगा।

२४. ‘आर्यदर्पण’ के उर्दू पाठ का अन्तिम वाक्य यहाँ नहीं दिया तो फिर कैसे समझा जावे कि काशी के पण्डितों का पराजय हुआ और दयानन्द स्वामी का जय।’’ द्रष्टव्य आर्यदर्पण जनवरी सन् १८८० पृष्ठ २०

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-१५२११६

सारे संसार का उपकार करना- – सत्यदेव प्रसाद आर्य मरुत,

कविता

– सत्यदेव प्रसाद आर्य मरुत,

सारे संसार का उपकार करना

अपना भी उद्धार करना है।

शारीरिक-आत्मिक और सामाजिक

उन्नति करना ही परोपकार करना है।।

सारी सुख-सुविधा और विद्या हमारा कल्याण करती है,

छोड़ देना उन्हें तो अपने आप मरना है।।

हवा हमने सुवासित की,घरों में यज्ञ करने पर,

सुगन्धित घृत जड़ी-बूटी जलाई अग्नि जलने पर।

ऋचायें वेद की गाई हृदय में भावना भर ली।

जगत कल्याण करने की व्यवस्था सार्थक कर ली।

श्रुति की निःसृत वाणी कल्पतरु पुण्य झरना है।।

ज्यों सूरज तप्त करके जल सुखाता और उड़ाता है,

प्रकाशित कर धरा को प्रदूषण को भगाता है।

स्वयं छुप कर हमें विश्राम करने की दे छुट्टी,

अन्न फल फूल दे हम को, गरम कर देता है मुट्ठी।

हमें भी अपने जीवन में सूरज बन उभरना है।।

जगत के सारे पौधों को जो जीवन दे के सरसाता,

पनपता जल उसी में जा, करे पोषण बदल जाता।

मिर्च का स्वाद तीता आम है मीठा और चरपरी इमली,

चतुर्दिक रूप अपना तज कड़क कर बन रही बिजली।

डुबा डुबकी लगा कर जो, उबर कर तैर तरना है।।

– आर्य समाज, नेमदार गंज, नवादा- बिहार।

संस्कृत भाषा की उन्नति के अवसर प्रो धर्मवीर

आज भाषा मनुष्य के जीवन में काम चलाऊ साधन के रूप में उपयोग में आती है। भाषा के महत्व को आज के वैज्ञानिक और तकनीकी युग में गौण समझ लिया गया है, जबकि मनुष्य का जीवन विचारों पर ही निर्भर करता है। मनुष्य का शरीर जैसे भोजन से बनता है, उसी प्रकार मनुष्य का व्यक्तित्व विचारों से बनता है। विचारों की श्रेष्ठता, गम्भीरता, व्यापकता के लिए भाषा अनिवार्य है। भाषा के बिना चिन्तन, भाषण, लेखन, पठन कुछ भी सम्भव नहीं है।

संस्कृत पुरातन काल से विचार व व्यवहार की भाषा रही है, इसलिये उसके पास ज्ञान-विज्ञान का विशाल भण्डार है। इस ज्ञान-विज्ञान तक पहुँचने के लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान अनिवार्य है। आज विद्याध्ययन जीविकोपार्जन के लिए स्वीकार किया गया है। विषय का अध्ययन सामाजिक व्यवहार और आजीविका के लिये आवश्यक है, परन्तु पारिवारिक, सामाजिक और व्यक्तिगत निर्णयों के लिए तो विचार की आवश्यकता है, ये विचार हम को भाषा से ही मिलते हैं। संस्कृत मनुष्य के व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों को कैसे परिभाषित करते हैं, उनका आदर्श उदाहरण तैत्तरीयोंपनिषद् की शिक्षावल्ली में देखने में आता है। वहाँ वेद पढ़ के आजीविका कैसी एवं क्या करनी है यह नहीं बताया, परन्तु व्यक्तिगत उन्नति और पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्धों का सफलतापूर्वक निर्वहन करना, शिक्षा का उद्देश्य बताया गया है- जहाँ मातृदेवो भव, पितृदेवो भव आदि विचार व्यक्त किये गये हैं।

सामान्य रूप से इतिहास पढ़ा जाता है, संसार में बहुत सारी भाषायें उत्पन्न हुईं और व्यवहार में न आने के कारण उपयोगिता के अभाव में अतीत के गर्त में समा गईं, समाप्त हो गईं। हम संस्कृत को भी अनुपयोगी होने के कारण समाप्त हो गई है, ऐसा मानते हैं, परन्तु यह कथन सत्य नहीं है। संस्कृत उपयोगिता के अभाव में समाप्त नहीं हुई अपितु हमने संकीर्ण स्वार्थ के कारण उसे नष्ट किया है। महाभारत के पश्चात् हमने वेदों को और संस्कृत को केवल जन्मजात ब्राह्मण लोगों की भाषा बनाकर पूरे समाज को शिक्षा और वेदाध्ययन के अधिकार से वञ्चित कर दिया। मध्यकालीन समाज में और साहित्य में हम देखते हैं कि पुरुष पात्र संस्कृत में बात करते हैं, स्त्री या दास प्राकृत भाषा का उपयोग करते हैं। हजारों वर्षों तक वेदाध्ययन के अधिकार से समाज के बहुसंख्यक वर्ग को दूर करके हमने अपनी भाषा व वैचारिक सम्पत्ति  का अपने ही हाथों विनाश किया है।

वर्तमान इतिहास अंग्रेज शासकों द्वारा विकृत किया गया और इस्लामी पराधीनता में संस्कृत पठन-पाठन समाप्त कर दिया गया। संस्कृत भाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में समाप्त करने में अंग्रेजों के सहयोगी राजा राममोहन राय की महती भूमिका रही है। कोलकाता के विक्टोरिया संग्रहालय में राजा राममोहन राय के चित्र के नीचे लिखा गया– आपने बारह वर्ष तक संघर्ष करके अंग्रेज सरकार को शिक्षा का माध्यम संस्कृत से हटा कर अंग्रेजी करने में सहमत किया। वर्तमान  कांग्रेस और सोनिया सरकार तक संस्कृत को समाप्त करने का योजनाबद्ध प्रयास किया गया। विद्यालयों, महाविद्यालयों से संस्कृत पठन-पाठन की व्यवस्था समाप्त की गई। केन्द्रीय और प्रान्तीय शिक्षा परिषदों ने भी अपने पाठ्यक्रम को समाप्त कर दिया। पंजाब सरकार ने सदा ही हिन्दी-संस्कृत को अपने शिक्षा और प्रशासन व्यवस्था से बहिष्कृत करना उचित समझा। ईसाई और मुस्लिम विद्यालयों में इसे समाप्त कर दिया गया। राजनीति द्वारा इसे साम्प्रदायिक और सवर्णों की भाषा बताकर व्यवस्था से निकाल दिया गया। इस प्रकार पिछले पाँच हजार वर्षों से संस्कृत और वेद को नष्ट करने का प्रयास स्वयं द्वारा, देश के शत्रुओं द्वारा निरन्तर किया जा रहा है। जब भाषा आजीविका और प्रतिष्ठा से दूर हो गई तो उसका अध्ययन-अध्यापन समाज में स्वाभाविक रूप से न्यून हो जायेगा।

एक बार किसी संगोष्ठी में एक महाविद्यालय के प्राचार्य ने अपने भाषण में कहा- संस्कृत कठिन है, इसलिए लोग इसे नहीं पढ़ते। उन्होंने अपने बहुत सारे पाश्चात्य विचारों को प्रस्तुत करते हुए अपने उदार सुझाव भी दे दिये। संस्कृत में दो वचन होने चाहिए, सन्धि-समास कम कर देने चाहिए। व्याकरण की जटिलता समाप्त करनी चाहिए। जब वे नीचे आकर बैठे तो मैंने उनसे पूछा- क्या आपने अंग्रेजी इसलिए पढ़ी है कि यह एक सरल भाषा है? तो उनके पास कोई उत्तर  नहीं था। उसका उत्तर  है- भाषा सरलता या कठिनता के कारण नहीं पढ़ी जाती, भाषा पढ़ी जाती है आजीविका प्राप्ति या सम्मान के लिए। जिस भाषा से आजीविका और सम्मान न जुड़ा हो उस भाषा को कौन पढ़ेगा, वह चाहे कितनी सरल या कठिन हो।

आज मोदी सरकार के आने से सोच और व्यवस्था में परिवर्तन की आशा जगी है। प्रधानमन्त्री और भारत सरकार के मानव संसाधन मन्त्रालय ने संस्कृत की उन्नति का बीड़ा उठाया है, तो सरकार के लिए कुछ सुझाव हैं, जिनको ध्यान में रखने से संस्कृत  भाषा के प्रचार-प्रसार एवं उन्नयन में सहायता मिल सकती हैः-

. विद्यालय के पाठ्यक्रम में पहले संस्कृत थी, परन्तु संस्कृत विरोधी नीति के कारण संस्कृत को हटा दिया गया है। इस भूल को सुधार कर समस्त विद्यालयों के पाठ्यक्रम में कम से कम माध्यमिक (हाई स्कूल) से स्नातक तक संस्कृत भाषा के अध्ययन को अनिवार्य बनाया जाये।

. संस्कृत के पुराने पाठ्यक्रम परिवर्तित कर उसमें जीवन उपयोगी बातों का समावेश किया जाये।

. आगे के पाठ्यक्रम में संस्कृत को ऐच्छिक विषय के रूप में स्थान दिया जाये तथा संस्कृत विषय लेने वाले छात्रों के लिए विद्यालयों में अध्यापन की व्यवस्था की जाये।

. संस्कृत साहित्य में विज्ञान, वाणिज्य आदि जिन विषयों का विस्तार से प्रचुर उल्लेख मिलता है, उस सामग्री का स्नातक और स्नातको   ार पाठ्यक्रम में समावेश किया जाये।

मुझे एक बार महाराष्ट्र के एक महाविद्यालय में जाने का अवसर मिला। वहाँ विज्ञान के छात्रों को शुल्ब सूत्रों का अध्ययन करते देखा था। छात्रों ने बतलाया था कि ये सूत्र ग्रन्थ उनके पाठ्यक्रम में लगाये गये हैं और ये बहुत उपयोगी हैं।

. कला संकाय के महाविद्यालयों में संस्कृत विभाग खोले जाने चाहिए। जहाँ विभाग हैं, उनमें अधिकांश प्राध्यापकों के पद या तो रिक्त हैं या समाप्त कर दिये गये हैं। उनकी यथोचित पूर्ति की जानी चाहिए।

. भारत के सभी विश्वविद्यालयों में संस्कृत विभाग खोले जाने चाहिए। इन विभागों में अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ शोध कार्यों को भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

. संस्कृत भाषा के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान एवं मानविकी के विषयों के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था की जानी चाहिए।

. संस्कृत भाषा में जिन विषयों का विस्तार से उल्लेख एवं विवेचन हुआ है, जैसे- राजनीति, धर्म, समाज, न्याय, अर्थशास्त्र, आयुर्विज्ञान आदि ऐसे विषयों का अध्ययन-अध्यापन, अनुसन्धान-विवेचन संस्कृत माध्यम से किया जा सकता है।

. संस्कृत साहित्य की उपेक्षा के कारण ज्ञान-विज्ञान की बहुत सारी सम्पदा नष्ट हो चुकी है, जो शेष है वह विश्व साहित्य में अतुलनीय है। उसके संरक्षण, सम्पादन, प्रकाशन की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। ऐसे कार्य करने वाले संस्थानों और व्यक्तियों को विशेष सहयोग दिये जाने की आवश्यकता है।

१०. संस्कृत के नाम पर रूढ़िगत कर्मकाण्ड के रूप में पौरोहित्य, जीवन में अकर्मण्यता, निराशा और भय उत्पन्न करने वाला फलित ज्योतिष और अवतारवाद, जड़ पूजा जैसे कार्यों को ही संस्कृत मानकर संस्कृत का ह्रास न किया जाये।

इस देश में पठन-पाठन की एक सुदृढ़ परम्परा रही है जो गुरुकुलों, संस्कृत पाठशालाओं, मन्दिरों, मठों तथा पण्डितों के घरों पर चलती रही है, जिसे अंग्रेजों ने योजना पूर्वक नष्ट किया है। यह परम्परा किसी भी सरकारी प्रयास से अधिक शक्तिशाली और व्यापक थी और अब भी हो सकती है। इस परम्परा के संरक्षण और इसको बल देने की आवश्यकता है। गत सरकार में कपिल सिब्बल  द्वारा जब शिक्षा के अनिवार्य करने का बिल पास हुआ था, उस समय संस्कृत पाठशालाओं, विद्यालयों के लिए बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया था। जब अध्यापकों की संख्या, विद्यालय का भवन क्षेत्रफल, धन राशि के प्रतिबन्ध लगाये गये, तब संस्कृत विद्यालय के प्रबन्धकों द्वारा मिलकर माँग की गई तो सरकारी आदेश से मदरसों व संस्कृत पाठशालाओं से इस अनिवार्यता को हटा लिया गया था।

११. आज इन गुरुकुलों, संस्कृत पाठशालाओं और अनौपचारिक शिक्षा केन्द्रों को जीवित रखने व उन्नत करने के लिए इन संस्थाओं को संस्कृत आयोग, संस्कृत विश्वविद्यालय या केन्द्रीय संस्कृत शिक्षा बोर्ड के गठन करने की आवश्यकता है।

१२. इन संस्थानों में अध्यापन करने वाले अध्यापकों को समान वेतन व सुविधायें दी जानी चाहिये।

१३. संस्कृत पाठशाला, गुरुकुल आदि के लिये व्यापक और समस्त वेद एवं संस्कृत साहित्य के विषयों को अपने में  समेटने वाला पाठ्यक्रम बनाया जाना चाहिए तथा परीक्षा उपाधि की व्यवस्था सरकार द्वारा की जानी चाहिए।

१४. ऐसा करने से पठन-पाठन की परम्परा और संस्कृत साहित्य सम्पदा की रक्षा की जा सकती है। इन पाठशालाओं और गुरुकुलों के पाठ्यक्रम में संस्कृत माध्यम से नवीन विषयों का समावेश भी किया जाना चाहिए, जिससे वहाँ के पढ़े छात्रों का ज्ञान अन्य विद्यालयों में पढ़े छात्रों से किसी भी प्रकार कम न हो।

१५. भारत सरकार का संस्थान है सिडको। यदि इसके माध्यम से संस्कृत के विद्वानों को प्रकल्प या योजना का प्रारूप बनाकर दिया जाये तो संस्कृत का संगणक (कम्प्यूटर) प्रयोग करना आने से संस्कृत आजीविका और व्यवहार की भाषा बनाने में सहायता मिल सकती है।

सरकार ने संस्कृत के विकास के लिए सुझाव देने के लिए आयोग बनाया है। संस्कृत प्रेमियों को चाहिए कि वे अपने सुझाव आयोग को भेजे, आपकी सुविधा के लिए ये कुछ सुझाव हैं इनको अधिक विस्तृत और उपयोगी बनाया जा सकता है। इस अवसर का संस्कृत प्रेमियों को उपयोग करना चाहिए।

आयोग का पताः

डॉ. सत्यव्रत, द्वितीय संस्कृत आयोग,

राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय नामित, ५६-५७,

इन्स्टीट्यूशनल एरिया, पंखा रोड, जनकपुरी,

नई दिल्ली-११००५८

आज के लिए यह उक्ति सटीक बैठती है-

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति,

न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।।

– धर्मवीर

दक्षिण भारत में आर्यसमाज का योगदान – डॉ. ब्रह्ममुनि

पिछले अंक का शेष भाग……   http://www.aryamantavya.in/contribution-of-arya-samaj-in-south-india/

शैक्षिक संस्थाएँः निजाम के राज्य में शिक्षा का अभाव था। बड़े-बड़े शहरों में भी शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। अधिकांश जनता निरक्षर थी जिसके परिणामस्वरूप नवीन विचारों का स्पर्श तक न था। इतिहास, विज्ञान, गणित इत्यादि विषय उर्दू में पढ़ाएँ जाते थे। मातृभाषा में शिक्षा न दी जाने के कारण अनेक अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते थे। निजी विद्यालयों पर प्रतिबन्ध था, तथापि राष्ट्रीयता, नैतिकता, धार्मिक विचारों के लिए प्रतिबन्ध होते हुए भी १९१६ से १९३५ तक अनेक निजी संस्थाएँ शुरू की गई। जिसमें गुलबर्गा का नूतन विद्यालय, हिपरगा का राष्ट्रीय विद्यालय और हैदराबाद का केशव स्माारक आर्य विद्यालय प्रमुख हैं। इनके साथ-साथ आर्यसमाज ने भी अपने गुरुकुल तथा उपदेशक महाविद्यालयों की स्थापना की जिनमें वैदिक सिद्धान्त, वैदिक धर्म, नैतिकता की शिक्षा हिन्दी में दी गई। इनमें प्रमुख संस्थाओं में से कुछ निम्न हैं- विवेक वर्धिनी (हैदराबाद), नूतन विद्यालय (गुलबर्गा), गुरुकुल धारूर (धारूर), राष्ट्रीय पाठशाला (हिघरगा), श्री कृष्ण विद्यालय (गुंजोटी), श्यामलाल (उदगीर), नूतन विद्यालय (सेलू), गोदावरी कन्याशाला (लातूर), गुरुकुल घटकेश्वर कन्या गुरुकुल (बेगमपेठ), पुरानी कन्या पाठशाला (हैदराबाद), हिन्दी पाठशाला (हलीखेड़) इत्यादि। उपर्युक्त सभी संस्थाओं में सेवाभावी शिक्षक अर्वाचीन विषयों की मातृभाषा में शिक्षा देकर उनमें राष्ट्रीय-भावना जाग्रत करते थे। जिससे हजारों विद्यार्थियों ने स्वतन्त्रता-संग्राम तथा हैदराबाद मुक्ति-संग्राम में सक्रिय भाग लिया तथा स्वतन्त्रता-संग्राम में महत्वपूर्ण  भूमिका अदा की।

हुतात्माः आर्यसमाज के सामाजिक और धार्मिक सिद्धान्तों के प्रचार के कारण युवकों में राष्ट्रीयता के विचारों का जागरण हुआ, जिसके परिणाम स्वरूप विदेशी सत्ता  के सभी सुखों तथा प्रलोभनों को लात मार कर अनेक युवकों ने शासकों का खुलकर विरोध किया जिससे वे सरकार के कोपभाजन बने। निजाम ने तो उन्हें अनेक यातनाएँ दी हैं जिनसे अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों के स्वास्थ्य खराब हुआ, कुछ विकलांग हुए तो कुछ लोगों को अपने प्राणों की बलि भी देनी पड़ी। इसके साथ-साथ निजाम के अनुयायी एवं रजाकार भी इनके विरुद्ध हुए अतः वे इन देशप्रेमियों को छल-कपट से मारने की योजनाएँ बनाने लगे। गुंजोटी (महाराष्ट्र) का नौजवान वेदप्रकाश रजाकारों के अन्यायों के विरोध में आवाज उठाता था, इतना ही नहीं उनका प्रतिकार भी करता था जो रजाकारों की आँखों में खटकता था।

रजाकारों ने वेदप्रकाश को मारने का षड़यन्त्र रचा क्योंकि उस बहादुर के साथ सामना करने की रजाकारों में हिम्मत न थी। वह रणबांकुरा था। अतः रजाकारों ने छल-कपट से गाँव में ंउसकी निर्मम हत्या की। किन्तु जैसे ही राष्ट्रयज्ञ हुतात्मा वेदप्रकाश की आहुति पड़ी तो विद्रोह का ज्वालामुखी ऐसा फटा जिसे रोकना निजाम के लिए भी कठिन हो गया। इसी प्रकार यातना की शृंखला तथा छल-बल का सिलसिला निजाम का आगे बढ़ता रहा। जिसके परिणामस्वरूप उदगीर दंगे में दण्डित आर्यजगत् के उद्भट योद्धा, प्रखर सेनानी भाई श्यामलाल को भी विष देकर अमानवीय रूप से मारा गया। इसी प्रकार उपसा गाँव के रामचन्द्राराव पारीक का अत्यन्त क्रूरता पूर्वक वध किया। ईट गाँव के टेके दम्पति ने बड़ी हिम्मत तथा बहादुरी से रजाकारों का सामना किया। वे  न डगमगाए, न मौत से घबराए, और अन्त तक अनेक रजाकारों को अकेले ही सामना करते हुए दोनों पति-पत्नी राष्ट्र के लिए शहीद हुए। इसी प्रकार अन्य बसव कल्याण के धर्मप्रकाश को भी चौक में रजाकारों ने छल-कपट से मारा, किन्तु उसकी शहादत ने सम्पूर्ण कर्नाटक में निजाम के विरोध में आँधी सी आई।

उपदेशकों/पुरोहितों द्वारा प्रचारः- यद्यपि मुम्बई में सर्वप्रथम आर्यसमाज की स्थापना हुई, किन्तु उत्तर  भारत में इसका जन-सामान्य तक प्रचार-प्रसार हुआ। उसका प्रमुख कारण यह भी था कि वैदिक सिद्धान्तों की शिक्षा के लिए तथा उपदेशक बनाने के लिए उपदेशक महाविद्यालयों की स्थापना उत्तर  भारत में ही अधिकांश रूप में हुई। अतः दक्षिण भारत के इच्छुक आर्यसमाजियों ने लाहौर उपदेशक महाविद्यालय का अवलम्बन लिया। वहाँ से वैदिक सिद्धान्तों की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करके उन्होंने अपनी कर्मभूमि दक्षिण भारत को बनाया। हैदराबाद के सुल्तान बाजार आर्यसमाज ने भी अनेक उपदेशकों को मराठवाड़ा, कर्नाटक तथा आन्ध्रपदेश के गाँव-गाँव में भेजकर जन-जागरण का कार्य तो किया ही, साथ ही आर्यसमाज की सैद्धान्तिक भूमिका को भी विशद किया। वेदों के प्रकाण्ड पण्डित श्री धर्मदेव विद्यामार्तण्ड का नाम इसमें सर्वप्रमुख है। उन्होंने दक्षिण की अनेक भाषाओं को स्वयं सीखा और उन्हीं की भाषा में वैदिक सिद्धान्तों का समर्पण भाव से प्रचार किया। इनके साथ-साथ पं. कामना प्रसाद, पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ, पं. विश्वनाथ आर्य, पं. वामनराव येलनूरकर (बसवकल्याण), प्रेमचन्द प्रेम, पं. मदनमोहन विद्यासागर, पं. सुधाकर शास्त्री (बसवकल्याण), श्रीमती माहेश्वरी (मैसूर), राधाकिशन वर्मा (केरल) इत्यादि अनेक उपदेशक अपने उपदेशों से जनसामान्य एवं प्रबुद्ध दोनों ही वर्गों को वैदिक सिद्धान्तों का तथा वेद-मन्त्रों का भाष्य कर आर्यसमाज की दार्शनिक, सामाजिक एवं पारिवारिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करते रहे। निजाम के राज्य में जहाँ महिलाओं को शिक्षा से वंचित किया गया था, वहाँ आर्यसमाज ने उन्हें शिक्षित ही नहीं किया अपितु लोपामुद्रा, मैत्रेयी जैसी वैदिक ऋषिकाओं के पद-चिह्नों पर चलने के लिए प्रेरित किया।

गुरुकुलीय विद्यार्थियों का योगदानः महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वैदिक सिद्धान्त, वैदिक संस्कृति और वैदिक जीवन-पद्धति के प्रचार-प्रसार के लिए प्राचीन काल से चली आ रही गुरुकुलीय शिक्षा-पद्धति के प्रचलन पर जोर दिया तथा मैकाले द्वारा प्रचलित शिक्षा-पद्धति का विरोध किया, जिसमें केवल क्लर्क तैयार करने का लक्ष्य रखा था। उत्तर  भारत में गुरुकुल कांगड़ी, ज्वालापुर, वृन्दावन, कुरुक्षेत्र इत्यादि अनेक गुरुकुल खोले गए, जिनमें शिक्षा पद्धति वैदिक संस्कृति के अनुकूल थी, साथ ही उनकी जीवन-पद्धति अत्यन्त सादगी भरी थी। उनका सिद्धान्त था- विद्यार्थिनः कुतो सुखम्, सुखार्थिनः कुतो विद्या। इनमें कुछ-कुछ गुरुकुलों में आर्ष-पद्धति अपनाई गई थी तो कुछ गुरुकुलों में प्राचीन एवं अर्वाचीन विषयों का समन्वय था। किन्तु कुछ विषयों की शिक्षा का माध्यम हिन्दी एवं कुछ का संस्कृत था। इतना ही नहीं लड़कियों की शिक्षा के लिए स्वतन्त्र रूप से अलग गुरुकुल खोले गए। इसी गुरुकुल प्रणाली के आधार पर दक्षिण में धारूर (महाराष्ट्र) में गुरुकुल खोला गया तथा बाद में गुरुकुल घटकेश्वर, गुरुकुल अनन्तगिरि कन्या गुरुकुल (सभी हैदराबाद), गुरुकुल वार्शी, गुरुकुल येडशी, श्रद्धानन्द गुरुकुल परली इत्यादि अनेक गुरुकुलों की स्थापना की गई। इन गुरुकुलों से अधीत स्नातकों ने दक्षिण में वैदिक सिद्धान्तों तथा आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार में एवं साहित्य-निर्माण में मह     वपूर्ण योगदान दिया। जिनमें कुछ नाम उल्लेखनीय हैं- डॉ. भगतसिंह राजूरकर (पूर्व कुलपति, औरंगाबाद, वि.वि.), डॉ. चन्द्रभानु सोनवणे वेदालंकार, प्राचार्य वेदकुमार वेदालंकार, डॉ. कुशलदेव कापसे, डॉ. हरिश्चन्द्र धर्माधिकारी, डॉ. सियवीर विद्यालंकार, श्रीमती मीरा विद्यालंकृता, स्व. शकुन्तला जनार्दनराव वाघमारे, श्रीमती सत्यवती वाघमारे, श्रीमती प्रमिला वाघमारे, श्रीमती सुशीला देवी, निवृ िाराव होलीकर इत्यादि। आधुनिक काल में भी मराठवाड़ा विभाग में सैकड़ों गुरुकुलीय विद्यार्थी वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार अपने-अपने कार्यों में रत रहते हुए कर रहे हैं और साथ ही लेखन-कार्य भी करके आर्यसमाज के सिद्धान्तों का प्रसार कर रहे हैं।

संस्कृत और हिन्दी को योगदानःमहर्षि दयानन्द के द्वारा आर्ष ग्रन्थों को प्रामाणिक मानने तथा संस्कृत भाषा को सभी भारतीय भाषाओं की जननी मानने के कारण वैदिक सिद्धान्तों को जनसामान्य तक पहुँचाने के लिए राष्ट्रभाषा-हिन्दी को प्रस्थापित किया। अतः आर्यसमाज के विविध कार्यकलापों और साहित्य की भाषा हिन्दी के रूप में अभिव्यक्त हुई। जिसके परिणामस्वरूप दक्षिण भारत के लेखकों तथा चिन्तकों ने भी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम संस्कृत और हिन्दी को बनाया। सम्पूर्ण मराठवाड़ा के शिक्षा-क्षेत्र में संस्कृत का जो प्रचार है उसमें आर्यसमाज की संस्थाओं में शिक्षित विद्यार्थी आज जो अध्यापन-कार्य कर रहे हैं, उनकी मह     वपूर्ण भूमिका है। मराठवाड़ा के प्राचार्य हरिश्चन्द्र रेणापूरकर जैसे संस्कृत के उद्भट विद्वान् और कवि ने लगभग २५ संस्कृत ग्रन्थों का प्रणयन किया। जिन्होंने कर्नाटक और आन्ध्रप्रदेश में संस्कृत के प्रचार-प्रसार में महनीय कार्य किया। अभी कुछ मास पूर्व ही वे राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय स्तर के संस्कृत विद्वानों के लिए निर्धारित- बादरायण पुरस्कार से सम्मानित किए गए, जो वस्तुतः आर्यजगत् का ही गौरव है। इसके सिवाय अनेक विद्यालयों और महाविद्यालयों में गुरुकुलीय स्नातक संस्कृत के अध्यापन के साथ-साथ प्रचार का कार्य कर रहे हैं। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने (पूर्वाश्रमी स्वतन्त्रता सेनानी रामचन्द्रराव विदरकर) जो स्वयं संस्कृत से अछूते थे किन्तु आर्यसमाज लातूर में अनेक वर्षों तक संस्कृत के अध्ययन की सुविधा उपलब्ध  कराई जिसने इस क्षेत्र में संस्कृत प्रचार की आधारशिला रखी।

संस्कृत के साथ-साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार भी दक्षिण भारत में होने का कारण आर्यसमाज ही है। आर्यसमाज के परिवारों में लगभग हिन्दी का ही व्यवहार होता है। इसके साथ दक्षिण-भारत से सैंकड़ों गुरुकुलीय स्नातक अपने-अपने प्रान्तों में हिन्दी का अध्यापन कर रहे हैं। आर्यसमाज से सम्बन्धित सभी व्यक्ति सामान्य बोलचाल में, कार्यालयों में, बाजार इत्यादि में अन्य सार्वजनिक स्थानों पर हिन्दी का प्रयोग करते हैं। इसके साथ राष्ट्रभाषा प्रचार सभा के अनेक परीक्षा केन्द्रों द्वारा हिन्दी की अनेक परीक्षाएँ दिलवाई जाती हैं। जिसने दक्षिण-भारत में हिन्दी के प्रचार में महत्वपूर्ण  भूमिका निभाई है। हिन्दी के साथ-साथ संस्कृत परीक्षा के केन्द्रों में संस्कृत का अध्यापन किया जा रहा है। डॉ. भगतसिंह विद्यालंकार, डॉ. चन्द्रभानु सोनवणे (वेदालंकार), प्रो. भूदेव पाटील (विद्यालंकार), प्राचार्य दिगम्बरराव होलीकर, डॉ. चन्द्रदेव कवड़े जैसे गुरुकुलीय तथा आर्यसमाजी विद्वान् महाराष्ट्र सरकार के पाठ्यपुस्तक मण्डल के कार्यकारिणी सदस्य, विद्यापीठीय पदाधिकारी महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादमी इत्यादि संस्थानों के प्रमुख पदों पर रहने के कारण अनेक आर्यसमाजी लेखकों के पाठों का पाठ्यक्रमों में समावेश करा कर आर्यसमाज के कार्य एवं उसकी विचारधारा को नवीन पीढ़ी तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण  कार्य किया है। इसके सिवाय लातूर, परली-बैजनाथ, हैदराबाद, औरंगाबाद, सेलू, जालना, नान्देड़ इत्यादि स्थानों पर हिन्दी माध्यम के विद्यालयों से भी हिन्दी के प्रचार में सहयोग हुआ। दक्षिण भारत में स्थित परली-बैजनाथ, वाशी, धारूर, हैदराबाद इत्यादि स्थानों के गुरुकुलों में शिक्षा का माध्यम हिन्दी तथा संस्कृत भाषा एवं साहित्य का अध्यापन होता है। कर्नाटक में कावेरी नदी के किनारे पर विशाल भूमि में स्थित ‘शान्तिधाम’ गुरुकुल में संस्कृत एवं हिन्दी के प्रचार-प्रसार कार्य हो रहा है। केरल में कालीकट काश्यप आश्रम के संस्थापक डॉ. राजेश भी वैदिक मन्त्रों की शिक्षा जन-सामान्य तक तथा आदिवासियों को भी देकर संस्कृत प्रचार की मह     वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। १५ अगस्त को एम.डी.एच. के संस्थापक महाशय धर्मपाल से प्राप्त तीन करोड़ के सहयोग से ‘वैदिक रिसर्च फाउंडेशन’ की स्थापना की गई है। इसी प्रकार परली-वैजनाथ (महाराष्ट्र) के गुरुकुल में पूर्व सांसद तथा आर्यसमाज के विद्वान् शिक्षा शास्त्री डॉ. जनार्दन राव वाघमारे जी की सांसद निधि से निर्मित ‘पं. नरेन्द्र वैदिक अनुसन्धन केन्द्र’ की स्थापना की गई है। जिसका उत्तरदायित्व  प्रो. डॉ. कुशलदेव शास्त्री एवं प्रो. ओमप्रकाश होलीकर (विद्यालंकार) डॉ. ब्रह्ममुनि की अध्यक्षता में वहन किया जा रहा है।

समाज सुधारः दक्षिण-भारत के बड़े भू-भाग पर निजाम का तथा अन्य विदेशी शासकों का आधिपत्य होने के कारण यहाँ की सामाजिक स्थिति अत्यन्त खराब थी। परम्परा से चली आ रही अनेक कालबाह्य रुढ़ियों में समाज जकड़ा हुआ था और बँटा हुआ भी था। जाति प्रथा, धर्मान्तरण की समस्या, स्त्रियों की शिक्षा, विधवा विवाह की समस्या, परित्यक्ता स्त्री की समस्या इत्यादि समस्याओं से समाज ग्रस्त होने के कारण जड़ हो गया। इसे गतिशील बनाने का कार्य आर्यसमाज ने किया। आर्यसमाज मूलतः प्रगतिशील विचारधारा है। अतः इसमें जातिप्रथा को समाप्त करने के लिए और समाज में भाईचारा लाने तथा ऊँच-नीच को समाप्त करने के लिए अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया। ये अन्तर्जातीय विवाह आर्यसमाज की विचारधारा के अनुरूप ब्राह्मण तथा अन्य उच्च जातियों के लोगों ने स्वयं तथा अपने पुत्र-पुत्रियों के सामान्य जाति में तथा पिछड़ी जातियों में किए। वस्तुतः उस समय यह क्रान्तिकारी कदम था। उन परिवारों पर अघोषित बहिष्कार जैसी स्थिति थी तथापि वे अपने निर्णय पर दृढ़ रहे। आज के अन्तर्जातीय विवाहों की पृष्ठभूमि वस्तुतः आर्यसमाज ने निर्माण की। शेषराव वाघमारे, डॉ. डी.आर. दास, केशवराव नेत्रगांवकर, हरिश्चन्द्र पाटील, माणिकराव आर्य, डॉ. जनार्दनराव वाघमारे, वीरभद्र, पं. ऋभुदेव, नरदेव स्नेही, देवदत्त  तुंगार, धनंजय पाटील, शंकरराव सराफ, डॉ. धर्मवीर, दिगम्बरराव होलीकर, निवृत्तिराव  होलीकर, नरसिंगराव मदनसुरे, डॉ. ब्रह्ममुनि, सुग्रीव काले, लक्ष्मणराव गोजे, बसन्तराव जगताप, रामस्वरूप लोखण्डे, संग्रामसिंह चौहान, दिनकरराव मोरे, किशनराव सौताडेकर, नारायणराव पवार, डॉ. भगतसिंह राजूरकर, इत्यादि आर्यसमाजियों ने जातिभेद निर्मूलन में मह      वपूर्ण कार्य किया। जिसमें कुछ ब्राह्मणों ने अपनी पुत्रियों को दसिनों तथा पिछड़े वर्गों के लोगों में दी तथा अपने घर पिछड़े घर की बहुएँ लेकर आए। कुछ लोगों ने स्वयं भी अन्तर्जातीय विवाह किए और अपने पुत्र-पौत्रादि के विवाह भी अन्तर्जातीय, अन्तर्धर्मीय किए। वस्तुतः उपर्युक्त नामों के अतिरिक्त आज इस सूची में बहुत नाम जोड़ने आवश्यक हैं, किन्तु स्थानाभाव के कारण प्रारम्भिक एवं प्रतिनिधिक नाम ही परिगणित किए गए हैं।

इसके साथ-साथ समाज सुधार के कार्यों में व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, आदर्श गृहस्थ निर्माण का कार्य भी आर्यसमाज ने किया। इसके सिवाय स्त्री शिक्षा, स्त्रियों को वेदाध्ययन के अवसर भी प्रदान किए, तभी स्त्रियाँ कन्या गुरुकुलों में जाकर विद्यालंकार बनकर शिक्षा क्षेत्र में कार्य कर रही हैं। स्त्री-शिक्षा के साथ-साथ अज्ञान एवं अन्धविश्वास का निर्मूलन, वैदिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण, व्यसनमुक्ति, द्यूत-क्रीड़ा मुक्ति जैसे समाजोपयोगी एवं राष्ट्रोपयोगी कार्य आर्यसमाज ने प्रभूत मात्रा में किए। व्यक्ति एवं समाज की उन्नति तथा प्रगति के लिए शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, बौद्धिक प्रगति की दिशा दर्शन का कार्य किया। राष्ट्रप्रेम, त्याग, समर्पण, अन्याय का विरोध, जनजागृति, वैदिक धर्म के प्रति प्रेम, स्वाभिमान-निर्माण, सामाजिक एकता, बन्धुभाव, राष्ट्रीय एकात्मता, शान्ति इत्यादि सकारात्मक मूल्यों को संवर्धित करने के अहर्निश प्रयत्न किए।

राजनीतिः हैदराबाद स्टेट जो निजाम के आधिपत्य में था, उस समय वहाँ की प्रजा पर निजाम ने सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, शैक्षणिक, पत्रकारिता इत्यादि सभी दृष्टियों से अनेक प्रतिबन्ध लगाए थे और रजाकारों के माध्यम से प्रजा पर अन्याय और अत्याचार प्रारम्भ किए गए। उस समय आर्यसमाज के माध्यम से आर्यसमाजी नेताओं ने जनजागृति कर विद्रोह का स्वर अनुगुंजित किया तथा सत्याग्रह किया। देश की स्वतन्त्रता के समय भी आर्यसमाज के नेताओं ने स्वतन्त्रता-संग्राम में बढ़-चढ़ कर भाग लिया तथा उसका नेतृत्व किया। तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश आर्यसमाजी नेताओं ने विविध दलों में प्रवेश कर मन्त्री, विधायक, सांसद इत्यादि स्थानों पर चयनित होकर देशभक्ति तथा राष्ट्र-निर्माण का कार्य किया। यद्यपि इसकी नामावली प्रदीर्घ है तथापि प्रतिनिधि रूप से कुछ नाम निम्नलिखित हैंः- पं. नरेन्द्र, विनायक राव विद्यालंकार, शेषराव वाघमारे, तुलसीराम कांसले, कोरटकर, शिवाजीराव निसंगेकर, जनार्दनराव वाघमारे इत्यादि।

धार्मिक प्रचारः निजाम ने अपने राज्य में वैदिक धर्म के प्रचारकों, उपदेशकों तथा भजनोपदेशकों पर अनेक प्रकार के बन्धन लाद दिए थे। उनके प्रवचन, शास्त्रार्थ, उपदेश इत्यादि धार्मिक अधिकारों पर अनेक पाबन्दियाँ लगा दी गई थी। मध्य-दक्षिण आर्य प्रतिनिधि सभा, हैदराबाद ने उपदेशक और भजनोपदेशक नियुक्त कर देहातों में प्रचार किया। एक ईश्वर, एक धर्म, एक धर्मग्रन्थ, एक जाति का प्रचार कर राष्ट्रैक्य का निर्माण अपने प्रवचनों, भजनों तथा उपदेशों द्वारा किया। समय-समय पर उ    ार भारत के विद्वानों को आमन्त्रित कर श्रावण मास में श्रावणी सप्ताह के अवसर पर प्रचार करते रहे। स्वातन्त्र्यो      ार काल में वही काम महाराष्ट्र आर्य प्रतिनिधि सभा, कर्नाटक आ.प्र. सभा तथा आन्ध्र आर्य प्रतिनिधि सभा कर रही है। पं. नरदेव स्नेही, पं. विश्वनाथ (जहीराबाद), पं. कर्मवीर, पं. नरेन्द्र, श्यामलाल, बंसीलाल इत्यादि ने बहुत परिश्रम से रास्ते न रहने वाले गाँवों में जाकर प्रचार जमकर किया। उपर्युक्त विद्वानों के साथ-साथ आजकल डॉ. ब्रह्ममुनि जी के नेतृत्व में उतर भारत के अनेक विद्वान्- प्रो. रघुवीर वेदालंकार, डॉ. वेदपाल, प्रो. राजेन्द्र विद्यालंकार, डॉ. महावीर जी, आचार्य नन्दिता जी शास्त्री, प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु तथा महाराष्ट्र के भी अनेक गुरुकुलीय स्नातक, भजनोपदेशक, उपदेशक वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं जिनमें प्रमुख नाम निम्न हैं- प्राचार्य वेदकुमार वेदालंकार, पं. सुरेन्द्रदास जी, प्राचार्य देवदत तुंगार, डॉ. नयनकुमार आचार्य, पं. नारायणराव कुलकर्णी, ज्ञानकुमार आर्य इत्यादि। महाराष्ट्र आर्य प्रतिनिधि सभा (परली-वैजनाथ) द्वारा ‘वैदिक गर्जना’ नामक मुखपत्र भी पाक्षिक रूप में डॉ. ब्रह्ममुनि जी के मार्गदर्शन में तथा डॉ. कुशलदेव शास्त्री के निधन के बाद अत्यन्त कुशलता से डॉ. नयनकुमार आचार्य के सम्पादकत्व में तथा विद्वज्जनों के सम्पादक मण्डल के दिशा-निर्देश में प्रकाशित होता है, जो महाराष्ट्र के आर्यजगत् विद्वानों पर सामयिक रूप से विशेषांक निकालकर उनके कृतित्व को उजागर करता है।

उपर्युक्त सभी विद्वान् अपने व्याख्यानों तथा विविध शिविरों द्वारा धार्मिक प्रचार एवं वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं। साथ ही वार्षिकोत्सव संस्कारों तथा वैदिक साहित्य एवं लेखन से भी प्रचार करते हैं। लातूर से श्री स्वतन्त्रता सेनानी जड़े जी के सुपुत्र के सम्पादकत्व में लातूर समाचार साप्ताहिक तथा दैनिक आर्यजगत् के विद्वानों के लेखों को मराठी तथा हिन्दी में प्रकाशित कर रहे हैं।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-५

वेद कहता है हमारे अन्दर एक दूसरे के प्रति चाहना हो। परस्पर अभिलाषा होनी चाहिए। यह जो मानसिक परिस्थित है, इसका मन में विचार होने की भूमिका बन चुकी है, मनुष्य के मन में जब द्वेष नहीं होता, सहानुभूति का भाव किसी के प्रति अनुकूलता का लक्षण है। इस भाव की अधिकता ही अपनेपन को जन्म देती है। अपनापन स्वाभाविकता को बताता है। यदि हमारे मन में किसी के प्रति द्वेष नहीं है तो हम उसके कष्ट को देखकर उसे यह कष्ट क्यों मिल रहा है, इस प्रकार का दुःख उसको नहीं मिलना चाहिए इस प्रकार का विचार मन में आता है। अपनापन दूसरे के प्रति मन में निकटता का भाव उत्पन्न करता है। इस निकटता से उत्पन्न प्रसन्नता का विचार प्रेम को प्रकाशित करता है। समाज में जब कोई हमारे साथ सद्भाव दिखाता है तो हमें भी उसके प्रति सद्भाव प्रदर्शित करने की इच्छा होती है। सद्भाव की अधिकता होने पर दूसरे से उसकी अपेक्षा नहीं रहती, हमें वस्तु अच्छी लगती है। दूसरे व्यक्ति में सम्भव है जो भाव हमारे मन में है, वह न हो, या उतना न हो तब भी हम अपना सम्पूर्ण अपनापन देते हैं तो दूसरे पक्ष से कई बार उसप्रकार की अपेक्षा भी नहीं रहती। वेद कहता है प्रेम की आकांक्षा दोनों ओर से होनी चाहिए। इसलिए मन्त्र कहता है अन्योऽन्यमभिहर्यत परिवार के सदस्यों में एक दूसरे के हित की चिन्ता होनी चाहिए। हम समुदाय में रहते हुए यदि अपने लाभ या अपने हित की बात ही सोचते हैं, सदा अपनी ही चिन्ता करते हैं तो स्वाभाविक रूप से यह मान लिया जाता है अब आपकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। जब कोई असमर्थ होता है तो उसकी चिन्ता की जाती है, उसके चाहने वाले उसका ध्यान रखते हैं। जब हमें लगता है यह व्यक्ति स्वयं अपना भला कर सकता है, अपना हित साध सकता है तब किसी के लिए उसके विषय में सोचना प्राथमिकता नहीं रहती। और हाँ सब अपना अपना सोचेंगे तो फिर वहाँ कोई दूसरे के बारे में क्यों सोचेगा?

अपने बारे में सोचना अपना हित चाहना बुरी बात नहीं है। यहाँ अनुचित तब होता है जब मनुष्य अपने बारे में सोचता है तब उसे दूसरे की चिन्ता नहीं होती या वह दूसरे की उपेक्षा कर देता है। अपनी चिन्ता करते हुए केवल अपनी ही चिन्ता होती है, दूसरे की चिन्ता नितान्त नहीं होती हैं। जब हम अपने को मुख्य न मानकर दूसरे की चिन्ता करते हैं, ऐसा सभी करते हैं तो सब सब की चिन्ता कर सकते हैं। अपनी चिन्ता में सब सम्मिलित नहीं हो सकते परन्तु एक-एक औरों की चिन्ता करे तो सबको सबकी चिन्ता हो जाती है। यह लाभ सबमें प्रेम भाव होने पर होता है। परिवार में सबको अपने तुल्य हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि की चिन्ता करनी चाहिए। इसी से सबमें परस्पर प्रीति बढ़ती है।

वेद मन्त्र में एक उपमा दी है वत्सं जातमिवाघ्न्या जैसा एक गाय अपने सद्य जात बछड़े से करती है वेद में जो उपमायें दी गई वे स्वाभाविक हैं। संसार के पदार्थों में, व्यक्तियों के व्यवहार में सदा ही उन्हें देखा जा सकता है। सब उसे अनुभव कर सकते हैं। वेद कहता है हमें गति करनी चाहिए सूर्य और चन्द्र की भाँति। भगवान् ने सृष्टि कैसे बनाई, संसार की रचना कैसे की, वेद कहता है- यथापूर्वमकल्पयत् जैसे प्रत्येक सर्ग में ईश्वर सृष्टि की रचना करता है उसी प्रकार रचना करता रहेगा। यहाँ भी प्रेम कैसा करना चाहिए जैसे एक गाय अपने सद्य जात बछड़े से करती है। गाय बछड़े से प्रेम करती है परन्तु उसका प्रेम तभी तक रहता है जब तक उसका बछड़ा असमर्थ होता है, अपनी माँ पर निर्भर होता है। जैसे ही बछड़ा बड़ा हो जाता है, गाय में उसप्रकार का प्रेम नहीं रहता। यह उपमा सम्भवतः इस बात को स्पष्ट करने के लिए है जब कोई प्राणी, या मनुष्य समर्थ हो जाता है तब उसके साथ उसप्रकार का सहयोग अपेक्षित नहीं होता। इसलिए प्रेम में केवल भावना नहीं औचित्य भी अपेक्षित है।

इसप्रकार इस मन्त्र में अपने व्यवहार को सुधारने के लिए मनुष्य को, अपने परिवार को प्रसन्न व सुखी रखने के लिए परस्पर द्वेष का न होना, एक दूसरे के सुख-दुःख को स्वात्मवत् समझना। परस्पर प्रसन्नता के लिए यत्न करना और प्रत्येक सदस्य में परिवार के सदस्यों के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने वाला वार्तालाप और व्यवहार करते रहना चाहिए। इसलिए मन्त्र में-

अविद्वेषम् सहृदयम्, सामनस्यम् के साथ अभिहर्यत कहा है।

मृत्यु के बाद आत्मा दूसरा शरीर कितने दिनों के अन्दर धारण करता है? आचार्य सोमदेव जी परोपकारिणी सभा

प्रश्न हैमृत्यु के बाद आत्मा दूसरा शरीर कितने दिनों के अन्दर धारण करता है? किन-किन योनियों में प्रवेश करता है? क्या मनुष्य की आत्मा पशु-पक्षियों की योनियों में जन्म लेने के बाद फिर लौट के मनुष्य योनियों में बनने का कितना समय लगता है? आत्मा माता-पिता के द्वारा गर्भधारण करने से शरीर धारण करता है यह मालूम है लेकिन आधुनिक पद्धतियों के द्वारा टेस्ट ट्यूब बेबी, सरोगसि पद्धति, गर्भधारण पद्धति, स्पर्म बैंकिंग पद्धति आदि में आत्मा उतने दिनों तक स्टोर किया जाता है क्या? यह सारा विवरण परोपकारी में बताने का कष्ट करें।

– एन. रणवीर, नलगोंडा, तेलंगाना

समाधान १ मृत्यु के  बाद आत्मा कब शरीर धारण करता है, इसका ठीक-ठीक ज्ञान तो परमेश्वर को है। किन्तु जैसा कुछ ज्ञान हमें शास्त्रों से प्राप्त होता है वैसा यहाँ लिखते हैं। बृहदारण्यक-उपनिषद् में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय लगता है, इस विषय में उपनिषद् ने कहा-

तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानम्

उपसँ्हरत्येवमेवायमात्मेदं शरीरं निहत्याऽविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्य् आत्मानमुपसंहरति।।

– बृ. ४.४.३

जैसे तृण जलायुका (सुंडी=कोई कीड़ा विशेष) तिनके के अन्त पर पहुँच कर, दूसरे तिनके को सहारे के लिए पकड़ लेती है अथवा पकड़ कर अपने आपको खींच लेती है, इसी प्रकार यह आत्मा इस शरीररूपी तिनके को परे फेंक कर अविद्या को दूर कर, दूसरे शरीर रूपी तिनके का सहारा लेकर अपने आपको खींच लेता है। यहाँ उपनिषद् संकेत कर रहा है कि मृत्यु के बाद दूसरा शरीर प्राप्त होने में इतना ही समय लगता है, जितना कि एक कीड़ा एक तिनके से दूसरे तिनके पर जाता है अर्थात् दूसरा शरीर प्राप्त होने में कुछ ही क्षण लगते हैं, कुछ ही क्षणों में आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है। आपने पूछा है- आत्मा कितने दिनों में दूसरा शरीर धारण कर लेता है, यहाँ शास्त्र दिनों की बात नहीं कर रहा कुछ क्षण की ही बात कह रहा है।

मृत्यु के विषय में उपनिषद् ने कुछ विस्तार से बताया है, उसका भी हम यहाँ वर्णन करते हैं-

स यत्रायमात्माऽबल्यं न्येत्यसंमोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति स यत्रैष चाक्षुषः पुरुषः पराङ् पर्यावर्ततेऽथारूपज्ञो भवति।।

– बृ. उ.४.४.१

अर्थात् जब मनुष्य अन्त समय में निर्बलता से मूर्छित-सा हो जाता है, तब आत्मा की चेतना शक्ति जो समस्त बाहर और भीतर की इन्द्रियों में फैली हुई रहती है, उसे सिकोड़ती हुई हृदय में पहुँचती है, जहाँ वह उसकी समस्त शक्ति इकट्ठी हो जाती है। इन शक्तियों के सिकोड़ लेने का इन्द्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका वर्णन करते हैं कि जब आँख से वह चेतनामय शक्ति जिसे यहाँ पर चाक्षुष पुरुष कहा है, वह निकल जाती तब आँखें ज्योति रहित हो जाती है और मनुष्य उस मृत्यु समय किसी को देखने अथवा पहचानने में अयोग्य हो जाता है।

एकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकी भवति, न जिघ्रतीत्याहुरेकी भवति, न रसयत इत्याहुरेकी भवति, न वदतीत्याहुरेकी भवति, न शृणोतीत्याहुरेकी भवति, न मनुत इत्याहुरेकी भवति, न स्पृशतीत्याहुरेकी भवति, न विजानातीत्याहुस्तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो वाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति सविज्ञानो भवति, सविज्ञानमेवान्ववक्रामति तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च।।

– बृ.उ. ४.४.२

अर्थात् जब वह चेतनामय शक्ति आँख, नाक,जिह्वा, वाणी, श्रोत्र, मन और त्वचा आदि से निकलकर आत्मा में समाविष्ट हो जाती है, तो ऐसे मरने वाले व्यक्ति के पास बैठे हुए लोग कहते हैं कि अब वह यह नहीं देखता, नहीं सूँघता इत्यादि। इस प्रकार इन समस्त शक्तियों को लेकर यह जीव हृदय में पहुँचता है और जब हृदय को छोड़ना चाहता है तो आत्मा की ज्योति से हृदय का अग्रभाग प्रकाशित हो उठता है। तब हृदय से भी उस ज्योति चेतना की शक्ति को लेकर, उसके साथ हृदय से निकल जाता है। हृदय से निकलकर वह जीवन शरीर के किस भाग में से निकला करता है, इस सम्बन्ध में कहते है कि वह आँख, मूर्धा अथवा शरीर के अन्य भागों-कान, नाक और मुँह आदि किसी एक स्थान से निकला करता है। इस प्रकार शरीर से निकलने वाले जीव के साथ प्राण और समस्त इन्द्रियाँ भी निकल जाया करती हैं। जीव मरते समय ‘सविज्ञान’ हो जाता है अर्थात् जीवन का सारा खेल इसके सामने आ जाता है। इसप्रकार निकलने वाले जीव के साथ उसका उपार्जित ज्ञान, उसके किये कर्म और पिछले जन्मों के संस्कार, वासना और स्मृति जाया करती है।

इस प्रकार से उपनिषद् ने मृत्यु का वर्णन किया है। अर्थात् जिस शरीर में जीव रह रहा था उस शरीर से पृथक् होना मृत्यु है। उस मृत्यु समय में जीव के साथ उसका सूक्ष्म शरीर भी रहता, सूक्ष्म शरीर भी निकलता है।

आपने पूछा किन-किन योनियों में प्रवेश करता है, इसका उत्तर  है जिन-जिन योनियों के कर्म जीव के साथ होते हैं उन-उन योनियों में जीव जाता है। यह वैदिक सिद्धान्त है, यही सिद्धान्त युक्ति तर्क से भी सिद्ध है। इस वेद, शास्त्र, युक्ति, तर्क से सिद्ध सिद्धान्त को भारत में एक सम्प्रदाय रूप में उभर रहा समूह, जो दिखने में हिन्दू किन्तु आदतों से ईसाई, वेदशास्त्र, इतिहास का घोर शत्रु ब्रह्माकुमारी नाम का संगठन है। वह इस शास्त्र प्रतिपादित सिद्धान्त को न मान यह कहता है कि मनुष्य की आत्मा सदा मनुष्य का ही जन्म लेता है, इसी प्रकार अन्य का आत्मा अन्य शरीर में जन्म लेता है। ये ब्रह्माकुमारी समूह यह कहते हुए पूरे कर्म फल सिद्धान्त को ताक पर रख देता है। यह भूल जाता है कि जिसने घोर पाप कर्म किये हैं वह इन पाप कर्मों का फल इस मनुष्य शरीर में भोग ही नहीं सकता, इन पाप कर्मों को भोगने के लिए जीव को अन्य शरीरों में जाना पड़ता है। वेद कहता है-

असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।

ताँऽस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।

– यजु. ४०.३

इस मन्त्र का भाव यही है कि जो आत्मघाती=घोर पाप कर्म करने वाले जन है वे मरकर घोर अन्धकार युक्त=दुःखयुक्त तिर्यक योनियों को प्राप्त होते हैं। ऐसे-ऐसे वेद के अनेकों मन्त्र हैं जो इस प्रकार के कर्मफल को दर्शाते हैं। किन्तु इन ब्रह्माकुमारी वालों को वेद शास्त्र से कोई लेना-देना नहीं है। ये तो अपनी निराधार काल्पनिक वाग्जाल व भौतिक ऐश्वर्य के द्वारा भोले लोगों को अपने जाल में फँसा अपनी संख्या बढ़ाने में लगे हैं। अस्तु।

विश्व को ऋषी दयानन्द की देन – प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

महर्षि दयानन्द जी का प्रादुर्भाव विश्व इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। महर्षि का बोध पर्व उससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण  घटना है। आज पूरे विश्व में मानव के अधिकारों तथा मानव की गरिमा का मीड़िया में बहुत शोर मचाया जाता है। ऋषि के प्रादुर्भाव से पूर्व मानव के अस्तित्व का धर्म व दर्शन में महत्व ही क्या था?

बाइबिल की उत्पत्ति  की पुस्तक में आता है कि परमात्मा ने जीव, जन्तु, पक्षी, प्राणी पहले बनाये फिर उसने कहा, ‘‘Let us make man in our image’’ अब नये बाइबिल में श     द बदल गये हैं। अब हमें पढ़ने को मिलता है, ‘‘Let us make human beings in our image, in our likeness.’’ अर्थात् परमात्मा ने कहा हम ‘पुरुष को’ (अब मानवों को) अपनी आकृति जैसा और अपने सरीखा बनायें। यह कार्य छठे दिन किया गया। मानव की इसमें गरिमा क्या रही? वह जीव-जन्तुओं से पीछे बनाया गया और क्यों बनाया गया? इसका उत्तर  ही नहीं।

इस्लाम में मनुष्य को बन्दः कहा जाता है और भक्ति को उपासना को बन्दगी कहा जाता है। बन्दः का अर्थ है दास और बन्दगी का अर्थ दासता, सेवा करना आदि। तो यहाँ भी मानव की गरिमा क्या हुई? अबादत का अर्थ भी बन्दगी-दासता ही है। हिन्दू तो जगत् को मिथ्या व ब्रह्म को-केवल ब्रह्म की सत्ता  को स्वीकार करते थे। कुछ आत्मा को अनादि भी मानते थे। सब कुछ अस्पष्ट था।

महर्षि दयानन्द जी ने सिंह गर्जना करके कहा कि ईश्वर, जीव तथा प्रकृति तीनों अनादि हैं। तीनों की सत्ता है। जीव की कर्म करने की स्वतन्त्रता का घोष करके ऋषि मानव की गरिमा पहली बार इस युग में संसार को बताई।

जहाँ कर्ता  है, वहीं क्रिया होगी और जहाँ क्रिया है वहाँ कर्ता को मानना पड़ता है। सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह, उपग्रह सब गति करते हैं। गति देने वाले परमात्मा की सत्ता  तो स्वतः सिद्ध हो गई। उपादान कारण के बिना आज भी कुछ बनते नहीं देखा गया सो जगत् के उपादान कारण प्रकृति का अनादित्व भी सिद्ध हो गया। विज्ञान ऐसा ही मानता है। यह महर्षि दयानन्द की विश्व को बहुत बड़ी देन है।

मनुष्य की उत्पत्ति  की बात चली तो यह भी जान लें कि बाइबिल में आता है I give you every seed bearing plant on the face of the whole earch and every tree that has fruit with seed in it. They will be yours for fodd.  फिर लिखा है,  Trees that were pleasing to the eyes and good for food.

अर्थात् दो बार ईश्वर ने बाइबिल के अनुसार शाकाहार को मानव का पवित्र भोजन बताया व बनाया। यही वेदादेश है परन्तु ईसाई व मुसलमान ही मांसाहार व पशुहिंसा में अग्रणी हैं। ऋषि ने पेड़, पौधों, जलचर, नभचर व गाय आदि सब प्राणियों की मानव कल्याण व विश्व शान्ति के लिये सुरक्षा को आवश्यक बताया।

ऋषि बोध पर्व के दिन ऋषि के जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार जाग उठे। उन्हें पता चला कि ईश्वर वह नहीं जिसे हम बनाते हैं। ईश्वर वह है जो सृष्टि का कर्ता  है। ईश्वर खाता नहीं, वह खिलाता है। वह भोक्ता नहीं भोग देता है। वह द्रष्टा है। कर्म फल का भोग करने वाला जीव है। सर सैयद अहमद ने लिखा कि शिवरात्रि के दिन दयानन्द जी को जो ज्ञान हुआ क्या वह इलहाम (ईश्वरीय ज्ञान) नहीं था? आत्मा को प्रभु की आवाज सुनाई न दे तो दोष किसका? ऋषि ने स्वयं लिखा है कि आत्मा में नित्य गूञ्जने वाली आपकी आवाज को प्रभु हम सुनते रहें। मन में भय, लज्जा और शङ्का जो दुष्कर्म, पाप करते समय मनुष्य के मन में उत्पन्न होती है, ऋषि ने इसे ईश्वर की आवाज बताया है। पश्चिम के विद्वान् ने भी इसी बात को इन शब्दों  में कहा है, there is a candle of the lord within us अर्थात् हमारे भीतर प्रभु की एक बत्ती  प्रकाश करती रहती है।

महर्षि दयानन्द अपनी काया से बलवान् थे, वे अपने मन व मस्तिष्क से बलवान् थे और अपने आत्मा से भी महान् व बलवान् थे। कोलकाता विश्वविद्यालय के एक पूर्व दार्शनिक विद्वान् डॉ. महेन्द्रनाथ जी ने अत्यन्त मार्मिक शब्दों  में लिखा है-  Strong is the epithet that can be applied in truth to Dayanand, strong in intellect strong in adventures strong in heart and strong and organizing forces. And his teachings through life and writings cab summed up in one word STRENGTH  अर्थात् बलवान् एक ऐसी उपाधि है जो दयानन्द पर ठीक-ठीक चरितार्थ होती है, विचारों में- मस्तिष्क से बलवान्, साहसिक कार्य के कारण बलवान्, हृदय से बलवान् तथा शक्तियों के गठन करने में बलवान् और उसके जीवन एवं साहित्य द्वारा उसकी शिक्षाओं को एक शब्द  में बताना है तो वह है ‘शक्ति’

इससे अधिक हम ऋषि की महानता पर क्या कहें? ऋषि ने अपने सन्देश, उपदेश व जीवन द्वारा मानव समाज को प्रकाश दिया और मृतकों में नवजीवन का संचार किया। उनके बोध पर्व पर हम उन्हें शत बार नमन करते हैं।

 

महर्षि दयानन्द दर्शन का विश्वव्यापी प्रभाव पढ़ने के लिए नीचे दी हुयी लिंक पर क्लिक करें

http://www.aryamantavya.in/impact-of-rishi-dayanand-on-world-phylosophy/

जब जागे तभी सवेरा परन्तु…..:- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

हमने इन दिनों संघ प्रमुख श्रीयुत् मोहन भागवत तथा उनके साथियों के ‘घर वापसी’ पर टी.वी. में विचार सुने। उनके संघ परिवार के विचारकों स्वयं सेवकों को भी टी.वी. पर सुना। भागवत जी ने कहा, ‘‘हिन्दू अब जागा है, हमें कोई रोक नहीं सकता। लूटा गया माल हम वापस लेंगे इत्यादि।’’ अच्छी बात है हम तो पहले से ही कहते आये हैं कि सबको अपनाना चाहिये परन्तु हमारी सुनी किसने? चलो भाई! जब जागे तभी सवेरा। हमने कई वर्ष पूर्व एक गीत में लिखा था- ‘खुले धर्म के द्वार ऋषि जब अलख जगाई’ क्या संघ परिवार यह बतायेगा कि इनकी नींद कब खुली? कैसे खुली? अथवा यह कब जागे? किसने जगाया? जिसने जगाया उसका नाम तो बताने की कृपा करो। इन के चिन्तक श्री सिन्हा ने कहा, ‘‘संघ आज से नहीं बहुत लम्बे समय से यह कार्य कर रहा है।’’ दूसरे भाई ने कहा, ‘‘सन् १९२५ में संघ कार्यक्षेत्र में है।’’

सन् १९५३ में विनोबा जी काशी के विश्वनाथ मन्दिर में दलितों को लेकर प्रवेश करने लगे तो उनकी धुनाई, पिटाई कर दी गई। क्या संघ ने तब इस कुकृत्य की निन्दा की? जब हीरालाल को वापस लिया गया तब संघ ने कोई प्रतिक्रिया दी? आर्यसमाज और फिर मसूराश्रम घर वापसी-शुद्धि करता आया है। संघ ने कभी कहीं सहयोग दिया?

क्या अशोक सिंघल जी, भागवत जी ने कभी कहीं बताया कि वह पहला व्यक्ति कौन था जिसे इस युग में वापस लाया गया? लीजिये हम बताते हैं- वह था देहरादून का मोहम्मद उमर जिसे ऋषि दयानन्द ने अलखधारी नाम दिया। अ  दुल अज़ीज़ आदि मेधावी व्यक्तियों को पं. लेखराम जी परोपकारिणी सभा के सहयोग से घर वापस लाये। अजमेर में ही अब्दुल  रहमान को वीर सोमनाथ बताया गया। सनातन धर्म कॉलेज लाहौर का प्रिं. रामदास वापस लाया गया। तब संघ ने चुप्पी क्यों साध ली? देवबन्द का लाला जगदम्बा प्रसाद भी तो मौलाना बना था। उसे कौन वापस लाया? सरदार पटेल को अनेक ऐतिहासिक कार्य में सहयोग देने वाला भारत माता का दुलारा प्यारा मेधातिथि मौलाना दऊदूदी जी का शिष्य था। उसे आर्य मुसाफिर पं. शान्तिप्रकाश बटाला में घर वापस लाये थे। तब घर वापसी के समय वहाँ एक भी संघी भाई ने दर्शन न दिये। सिर हथेली पर धर कर दक्षिण में हुतात्मा श्याम भाई, क्रान्तिवीर पं. नरेन्द्र, पं. गोपाल देव कल्याणी, हुतात्मा शिवचन्द्र, आर्यवीर लालसिंह ने निजाम राज्य में हिन्दुओं का धर्मान्तरण रोका या नहीं? वेदप्रकाश ने प्राण तक दे दिये। इन्हीं दिनों उसकी स्मृति में गुंजोटी महाराष्ट्र के विशाल समारोह में आप लोग दिखाई ही न दिये।

महोदय समर्थ गुरु रामदास  जी को तिलाञ्जलि देकर आपने स्वामी विवेकानन्द जी को अपना सर्वस्व मान लिया। मुंशी इन्द्रमणि सरीखे हिन्दू रक्षक का पौत्र भगवत सहाय जब धर्मच्युत हुआ तब विवेकानन्द जी व उनके चेलों में से कोई आगे आया? मुंशी जी का एक और सम्बन्धी ईसाई बन गया। तब स्वामी विवेकानन्द जी अमेरिका में अंग्रेजी भाषण दे आये थे परन्तु वह कुछ न कर पाये। आगे ही न आये। ऋषि का शिष्य साहस का अंगारा पं. लेखराम तत्काल मुरादाबाद पहुँच गया। लाखों मलकानों की घर वापसी का इतिहास आप क्यों सुनाओगे। ऋषि दयानन्द का, पं. लेखराम का, स्वामी श्रद्धानन्द का आपकी विश्व हिन्दू परिषद् के कार्यालयों में चित्र तक नहीं। उनका नाम लेने से आप डरते हैं। यह कृतघ्नता नहीं तो क्या है?

बोलकर, शोर मचाकर धर्म प्रचार नहीं होता। आप लोगों की भाषा संयत नहीं, व्यवहार संयत नहीं। टी.वी. में दर्शन देने का, फोटो का आपको रोग लग गया है। डॉ. हैडगवार का मार्ग छोड़कर विवाद खड़े करने का, अपने निज का, प्रचार का रोग संघ को लग गया है। जाति की बहुत क्षति हो ली। हमारा सुझाव आप नहीं मानेंगे। चुपचाप रह नहीं सकते। अनुभव से कुछ तो सीखो। लाख यत्न कर लो अब शाखा युग नहीं लौट सकता।

सद्धर्मप्रचारक उर्दू हिन्दी का जन्म-भ्रान्ति निवारण- राजेन्द्र जिज्ञासु

किसी के लेख में यह छपा बताते हैं कि महात्मा मुंशीराम जी ने रात-रात में ‘सद्धर्मप्रचारक’ उर्दू साप्ताहिक को हिन्दी में कर दिया। एक प्रबुद्ध आर्य भाई ने चलभाष पर प्रश्न किया कि ‘सद्धर्मप्रचारक’ को हिन्दी में निकालने के महात्मा जी के साहसिक क्रान्तिकारी पग पर आप प्रामाणिक तथ्यपरक प्रकाश डालें। यह प्रश्न तो उन्हीं लेखक जी से पूछा जाता तो अच्छा होता तथापि मैं किसी आर्य भाई को निराश नहीं करता। कोई चार दिन पूर्व तड़प-झड़प लिखकर भेजी तो कुछ समाधान करते हुए लिखा कि स्मृति के आधार पर बहुत कुछ लिखा है। सद्धर्मप्रचारक की अन्तिम फाईल खोज कर कोई भूल मेरे लेख में होगी तो उसे फिर सुधार कर दूँगा।

अब चैन कहाँ? वह फाईल खोज निकाली। लीजिये! ‘सद्धर्मप्रचारक’ के जन्म-पुनर्जन्म का प्रामाणिक इतिहास। सुन-सुनाकर और कुछ कहानी को चटपटा बनाने वाले इतिहास को प्रदूषित करने का अवसर हाथ से जाने नहीं देते। अनजाने में भी इस पत्रिका के बारे में कई एक ने कई भ्रान्तियाँ फैला रखी हैं। आज यथासम्भव सब भ्रामक लेखों का निराकरण हो जायेगा।

महात्मा मुंशीराम जी ने रात-रात में अथवा एकदम ‘सद्धर्मप्रचारक’ उर्दू को हिन्दी में नहीं निकाला था। हाँ! जब निश्चय कर लिया तो फिर टले नहीं। घाटा, हानि का भय दिखाया गया परन्तु उन्होंने हानि लाभ की चिन्ता नहीं की, पग दृढ़ता से आगे धरते गये। ‘प्रचारक की काया पलट का दृढ़ निश्चय’ एक लम्बा लेख पाँच अक्टूबर सन् १९०६ के अंक में दिया था। यह मेरे सामने है। इसके बाद निरन्तर पाँच मास तक प्रायः प्रत्येक अंक में प्रचारक के हिन्दी संस्करण के बारे में विज्ञापन तथा लेख छपते रहे जो सब मेरे पास हैं। सद्धर्मप्रचारक के सम्पादकीय लेख एक ग्रन्थ के रूप में भी बाद में छपे थे जो इतिहास की धरोहर है और बहुत से तथ्यों पर जिससे प्रकाश पड़ता है। वह ग्रन्थ मेरे पास भी है और बन्धुवर सत्येन्द्रसिंह आर्य के पास भी है। विस्तारपूर्वक एतद्विषयक जानकारी इतिहास प्रेमी चाहेंगे तो फिर कभी यह सेवा भी की जा सकती है।

. डॉ. जे. जार्डन्स जी ने लिखा है कि उर्दू सद्धर्म-प्रचारक सन् १८८८-१९०७ तक निकलता रहा। यह सत्य नहीं है। लेखक से भूल हुई है। किसी ने कभी इस चूक पर दो शब्द  नहीं लिखे।

. स्वामी श्रद्धानन्द जी पर हिण्डौन से छपे ग्रन्थ में लिखा है कि उर्दू सद्धर्मप्रचारक का जन्म १९ फरवरी १८८९ में हुआ, यह भी सत्य नहीं। भ्रामक कथन है।

प्रबुद्ध पाठक नोट करें कि इस समय मेरे सामने सद्धर्म-प्रचारक का प्रथम अंक है। यह १३ अप्रैल सन् १८८९ को निकला था। तब इसके आठ ही पृष्ठ होते थे। एक ही वर्ष में पृष्ठ संख्या १६ और सन् १९०७ में १८ और कभी-कभी २२ पृष्ठ भी होते थे। मैंने सब अंक देखे हैं। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने भी सद्धर्मप्रचारक का जन्म वैशाखी (१३ अप्रैल) लिखा है।

. हिण्डौन वाले ग्रन्थ में इसके जन्म की एक और स्थान पर भी जन्म तिथि १९ फरवरी १८८९ छपी है जो ठीक नहीं है।

सेवा का एक अवसर मिला। भ्रम भञ्जन कर दिया। पूरी खोज करने में लगा तो पता चला कि अपने समय के प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् और पं. बाल शास्त्री काशी के शिष्य गोस्वामी घनश्याम मुलतान निवासी सद्धर्मप्रचारक उर्दू के नियमित लेखक थे। उनके कई लेख मिले हैं। इनको हिन्दी में अनूदित करके ‘परोपकारी’ में प्रकाशित करवा दिया जायेगा। वे ‘परोपकारी’ के भी तो लेखक रहे।

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण……….- स्वामी विष्वङ्

अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या-५

– स्वामी विष्वङ्

पिछले अंक का शेष भाग…..

इस सम्बन्ध में महर्षि मनु महाराज कहते हैं-

सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्।

योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः।।

-मनुस्मृति ५.१०६

अर्थात् संसार में बहुत प्रकार की शुद्धियाँ हैं परन्तु उन सभी प्रकार की शुद्धियों में से धन-संम्पति  की शुद्धि सबसे बड़ी शुद्धि है। जो-जो मनुष्य धन के विषय में शुद्ध हैं, वही-वही शुद्ध कहलाता है। बाकी मिट्टी से, जल से जो शुद्ध होने का दिखावा करते हैं, वह केवल दिखावा मात्र है। यथार्थता में अन्दर की पवित्रता से ही बाहर की वस्तुएँ पवित्र होती हैं, अन्यथा नहीं। यहाँ पर महर्षि मनु ने धनार्जन पर विशेष ध्यान दिया है। आजकल मनुष्य धनार्जन जिस किसी भी रीति से प्राप्त करने में जुटे हुए हैं अर्थात् धन पाने के लिए कैसी भी हिंसा कर सकते हैं। चाहे मनुष्य की चाहे पशु-पक्षियों की। धन के लालच से पूरे देश को डुबो सकते हैं। धन पाने के लिए किसी भी प्रकार का झूठ बोल सकते हैं। धनार्जन के लिए किसी भी प्रकार की चोरी कर सकते हैं। धन के लिए व्यभिचार कर सकते हैं। धन को बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के पदार्थों का संग्रह कर सकते हैं। धन प्राप्त करने के लिए मन को अत्यन्त मलिन कर सकते हैं। अधिक से अधिक धन बनाने के लिए जीवन को असन्तोष में ढ़केलते हैं। धन के लिए तप का त्याग कर देते हैं और स्वाध्याय करना बन्द कर देते हैं। केवल धन के पीछे चलने वाले व्यक्ति ईश्वर आज्ञा का पालन कभी नहीं कर सकते। इस प्रकार यम और नियम का उल्लंघन करते हुए धनार्जन किया जाता है, तो ऐसे धन को अशुद्ध कहते हैं। इसलिए महर्षि वेदव्यास ने अनर्थ को अर्थ मानने वालों को अविद्या ग्रस्त माना है। इसीप्रकार अर्थ शब्द  से और भी अभिप्राय ले सकते हैं- जैसे भोजन आदि पदार्थ, वेदाज्ञा से विरुद्ध भोजन अपने आप में शुद्ध होने पर भी अशुद्ध माना जाता है। इसप्रकार अनेक उदाहरण हो सकते हैं।

‘तथा दुःखे सुखव्यातिं वक्ष्यति- ‘‘परिणामताप-संस्कार दुःखैर्गुणवृ   वृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः’’ (योग. २.१५) इति। तत्र सुखख्यातिरविद्या

अर्थात् उसीप्रकार दुःख में सुख बुद्धि रखना अविद्या है, इस बात को लेकर स्वयं सूत्रकार महर्षि पतञ्जलि आगे इसी साधन पाद के पन्द्रहवें सूत्र में वर्णन करेंगे। मनुष्य के सुख में, शान्ति में, तृप्ति में, निर्भयता में और स्वतन्त्रता में दुःख अत्यन्त बाधक है। यदि जीवन में दुःख है तो न सुख, न शान्ति, न तृप्ति, न निर्भयता और न ही स्वतन्त्रता रहेगी। इसलिए महर्षि पतञ्जलि ने दुःख को अलग से परिभाषित करने के लिए अलग सूत्र बनाया और महर्षि वेदव्यास ने उस सूत्र की विस्तृत व्याख्या की है। उसकी व्याख्या उसी सूत्र पर देखलेंगे इसलिए यहाँ पर उसकी चर्चा नहीं करते हैं।

महर्षि वेदव्यास अविद्या के चौथे भाग की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-

तथानात्मन्यात्मख्यातिर्बाह्योपकरणेषु चेतनाचेतनेषु भोगाधिष्ठाने वा शरीरे, पुरुषोपकरणे वा मनस्यनात्मन्यात्मख्यातिरिति।

अर्थात् जो अनात्मा= जड़ पदार्थ में आत्म=चेतन बुद्धि रखना अविद्या है। मनुष्य जड़ वस्तु को चेतन वस्तु मानकर व्यवहार करता है। यह बहुत बड़ी अविद्या है। मनुष्य के प्रयोजन को पूर्ण करने के लिए बहुत कुछ साधनों की अपेक्षा रहती है। मनुष्य अपने से अलग बाहर के साधनों का प्रयोग करता है उन बाहर के साधनों को महर्षि ने बाह्य-उपकरण शब्द  से कथन किया है। बाह्य-उपकरण दो प्रकार के हैं- चेतन के रूप में और जड़ के रूप में। यहाँ जो साधन जड़ के रूप में हैं वे- धन, भूमि, मकान, गाड़ी आदि हैं और जो साधन चेतन के रूप में हैं वे- माता, पिता, पति, पत्नी, भाई, बहन, सम्बन्धी, समाजी, देशवासी, विश्ववासी मनुष्य और इनके अतिरिक्त मनुष्येतर प्राणी- पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि। ये सब (अर्थात् चेतन और अचेतन) मनुष्य के प्रयोजन को सिद्ध करने वाले हैं। उनके बिना मनुष्य का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए महर्षि ने उन्हें बाह्य-उपकरण कहा है। यहाँ पर बाह्य-उपकरण जड़ भी हैं और चेतन भी हैं। जड़ को चेतन माना जा रहा है अर्थात् धन, भूमि, मकान, गाड़ी आदि को मनुष्य चेतन मानकर दुःखी होता रहता है। यद्यपि शब्दों  से मनुष्य को समझ में नहीं आता कि ‘मैं धन को कैसे चेतन मानता हूँ, मैं तो धन को जड़ ही मानता हूँ इत्यादि।’ परन्तु व्यवहार करते समय व्यक्ति धन को चेतन ही मानता हुआ दुःखी होता है। इसका उदाहरण महर्षि स्वयं आगे की व्याख्या में करेंगे।

बाह्य-उपकरण में जड़ वस्तुओं को चेतन मानना तो अविद्या है परन्तु महर्षि ने चेतन को भी बाह्य-उपकरण माना है। फिर चेतन को चेतन मानने में अविद्या कैसे हो सकती है? इसका समाधान है कि यहाँ पर चेतन शब्द  का प्रयोग आत्मा के लिए नहीं आया बल्कि चेतन शब्द  शरीर के लिए आया है। इसलिए यहाँ पर शरीरों को ही लेना चाहिए। मनुष्य शरीर को भी चेतन मानता है। इस कारण यह अविद्या है न कि चेतन को चेतन मानना अविद्या है। मनुष्य जहाँ अन्य लोगों के शरीरों को चेतन मान लेता है वहाँ स्वयं के शरीर को भी चेतन मानता है। इसलिए महर्षि ने कहा- ‘भोगाधिष्ठाने वा शरीरे’ अर्थात् मनुष्य जो भी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श व शब्द  वाले पदार्थों का भोग (=सुख रूप में या दुःख रूप में) करता है, वह भोग जिस आश्रय से करता है उसे शरीर कहते हैं। ऐसे साधन रूप (स्वयं के) शरीर को चेतन मानता है। शरीर जड़ है फिर भी मनुष्य अपने शरीर को चेतन मानकर व्यवहार करता है। इसे अविद्या ही कहा जाता है। महर्षि ने जहाँ बाह्य-उपकरणों को लेकर कहा है वहाँ आन्तरिक उपकरण के सन्दर्भ में भी कहा है कि-

पुरुषोपकरणे वा मनस्यनात्मन्यात्मख्यातिरिति।

अर्थात् आत्मा का अत्यन्त निकट उपकरण=साधन मन को आत्मा समझना अविद्या है। मनुष्य मन को ही आत्मा समझ कर सम्पूर्ण व्यवहार करता है। यह बोलता हुआ देखा जाता है कि मेरा मन ऐसा करता है, मेरा मन नहीं मानता, मेरा मन चला गया इत्यादि। यद्यपि मनुष्य शब्दों  से मन को स्थूल बुद्धि से जड़ तो मानता है परन्तु आन्तरिक सूक्ष्म बुद्धि से मन को चेतन ही मानता है। मनुष्य जब तक समाधि लगा कर अनुभव नहीं करता तब तक सूक्ष्मता से मन को चेतन मानता है। हाँ, यह अलग बात है कि वाणी से नहीं बोलता, परन्तु उसका व्यवहार चेतन मान कर ही होता रहता है।

मनुष्य जड़ वस्तु (= धन, भूमि, मकान, गाड़ी आदि) को चेतन कैसे मानता है- कौन भला धन को या भूमि को या मकान को चेतन मानेगा? यह कैसे हो सकता है? हाँ, हो सकता है इसीकारण महर्षि ने कहा जड़ को चेतन मानता है। कैसे?

तथैतदत्रोक्तम् व्यक्तमव्यक्तं वा स वमात्मत्वेनाभिप्रतीत्य

तस्य सम्पदमनुनन्दत्यात्मसम्पदं मन्वानस्तस्य व्यापद-मनुशोचत्यात्मव्यापदं मन्वानः स सर्वोऽप्रतिबुद्ध इति।

अर्थात् इस अविद्या के चौथे प्रकार को जो कि जड़ को चेतन किसप्रकार माना जाता है इस सम्बन्ध में अन्य ऋषि कहते हैं कि व्यक्त (जिन में चेतन आत्मा रहता है वह शरीर) चेतन पदार्थ- जैसे- पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी आदि और पशु, पक्षी आदि अन्य प्राणि। अव्यक्त (धन, भूमि, मकान, गाड़ी आदि) पदार्थ को आत्मा मानकर उन चेतन अचेतन रूप जड़ पदार्थों की समृद्धि-उन्नति-बढ़ोत्तरी  को देखकर अपनी समृद्धि- बढ़ोत्तरी  मानता हुआ व्यक्ति अति प्रसन्न होता रहता है। उसीप्रकार उन जड़ चेतन पदार्थों की विपत्ति -हानि-ह्रास-न्यूनता-विनाश को देखकर अपनी  विपत्ति -हानि-ह्रास-विनाश मानता हुआ शोकग्रस्त होता है- दुःखी होता है। इसप्रकार मानने वाले वे सभी मनुष्य नितान्त अज्ञानी-मूर्ख हैं, ऐसा समझना चाहिए। यह अविद्या की पराकाष्ठा का उदाहरण है।

यहाँ पर धन, भूमि आदि की वृद्धि होने पर मनुष्य यह मानता और बोलता भी है कि ‘मैं बढ़ रहा हूँ, मैं उन्नत हो रहा हूँ, मेरी बढ़ोत्तरी  हो रही है इत्यादि।’ यहाँ मैं से आत्मा लिया जाता है। व्यक्ति आत्मा में वृद्धि मानता है। जबकि आत्मा नित्य पदार्थ है जिस रूप में है उसी रूप में सदा रहेगा। नित्य पदार्थ में न वृद्धि होती है, न न्यूनता आती है, फिर यह कैसे स्वीकार किया जा रहा है कि ‘मैं बढ़ रहा हूँ’ इत्यादि। इसीप्रकार पुत्र व पुत्री के शरीरों में वृद्धि होने पर माता-पिता यह मानते हैं कि ‘हम बढ़ रहे हैं, हमारे अंश बढ़ रहे हैं या हम ही बढ़ रहे हैं इत्यादि।’ जिसप्रकार जड़ व चेतन पदार्थों की वृद्धि से आत्मा की वृद्धि स्वीकार किया जा रहा है उसी प्रकार जड़ पदार्थों में न्यूनता-कमी या विनाश होने पर व्यक्ति अपनी न्यूनता-कमी या विनाश मानता है। उदाहरण के लिए धन कम हो जाये या डूब जाये अथवा कोई हड़प लेवें, तो मनुष्य यह कहता है कि ‘हाय! मैं डूब गया, मैं कम हो गया, मैं लुट-पिट गया, मेरा नाश हो गया इत्यादि।’ यदि पुत्र व पुत्री में न्यूनता आ जाये तो माता-पिता अपनी न्यूनता-कमी मानते हैं। अपना अंश कम हो गया, ऐसा मानते हैं और यदि कोई अपना मृत्यु को प्राप्त हो जाये, तो और अधिक अपना नाश-अपनी हानि समझ कर अत्यन्त दुःखी होते हैं। यहाँ पर वे आत्मा का नाश अनुभव करते हैं। यह इस बात का द्योतक है कि वे जड़ को चेतन मान कर व्यवहार में अत्यन्त दुःखी होते हैं। इसलिए यह अविद्या है।

महर्षि वेदव्यास उपसंहार करते हुए लिखते हैं-

एषा चतुष्पदा भवत्यविद्या मूलमस्य क्लेशसन्तानस्य कर्माशयस्य च सविपाकस्येति।

अर्थात् यह अविद्या चार विभागों वाली है, इसके साथ-साथ यह अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश नाम वाले क्लेशों का मूल कारण है। इतना ही नहीं आत्मा को सुख और दुःख रूप फलों को देने वाले कर्म समुदाय का भी कारण है। यहाँ पर मूल का अभिप्राय है बीज। बीज से ही उस जैसी सन्तान उत्पन्न होती है। इसकारण अस्मिता आदि उसकी सन्तान होने के कारण क्लेशों में अविद्यापन विद्यमान रहता है। कर्माशय भी तब बनता है जब क्लेश विद्यमान हो। इसलिए यहाँ महर्षि ने अविद्या को कर्मसमुदाय का कारण भी बताया है।

अभी तक जिस अविद्या को लेकर जो चर्चा की गई है क्या वह अविद्या स ाात्मक है या विद्या का अभाव मात्र है? कभी कोई ऐसा न समझ बैठे कि अविद्या का अभिप्राय विद्या का अभाव मात्र है। ऐसा बिल्कुल नहीं है फिर क्या है? यहाँ अविद्या का अभिप्राय सत्तात्मक  विरोधी ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) है जिसको अविद्या शब्द  से कथन किया जाता है। इसी बात को लेकर महर्षि वेदव्यास स्पष्ट करते हैं-

तस्याश्चामित्रागोष्पदवद्वस्तुसतवं विज्ञेयम्।

अर्थात् उस अविद्या को ‘अमित्र’ और ‘अगोष्पद’ शब्दों के अर्थों के समान वास्तविक-यथार्थ भावात्मक सत्ता है, ऐसा समझना चाहिए। अमित्र और अगोष्पद शब्दों  का अर्थ स्वयं ऋषि आगे लिखते हैं। परन्तु यहाँ पहले ‘अविद्या’ शब्दों में जो समास है उस पर विचार करते हैं। अविद्या शब्द में ‘नञ्’ त     पुरुष समास है न विद्या अविद्या इति। जो विद्या नहीं है अर्थात् विद्या से विरोधी अविद्या है जिसे मिथ्याज्ञान-विपरीतज्ञान-उल्टाज्ञान शब्दों से कहा जाता है। महर्षि अमित्र व अगोष्पद शब्दों के अर्थों को बताते हुए कहते हैं-

यथा नामित्रो मित्राभावः न मित्रमात्रं किन्तु तद्विरुद्धः सपत्नः।

अर्थात् जिसप्रकार से अमित्र श द का अर्थ मित्र का अभाव नहीं है और न तो मित्र ही है बल्कि उस मित्र का विरोधी भावात्मक-सत्तात्मक  शत्रु है।

यथा चागोष्पदं न गोष्पदाभावो न गोष्पदमात्रं किन्तु देश एव ताभ्यामन्यद्वस्त्वन्तरम्।

अर्थात् जिसप्रकार अगोष्पद श द का अर्थ गाय के पैर का अभाव नहीं है और न तो गाय का पैर ही है किन्तु भावात्मक- सत्तात्मक  एक देश विशेष है- स्थान विशेष है। गाय के पैर और उसके अभाव से भिन्न अलग वस्तु है। इसप्रकार अमित्र का अर्थ शत्रु और अगोष्पद का अर्थ स्थान विशेष है। यहाँ ‘नञ्’ समास से मित्र के विरोधी अर्थ और गाय के पैर से विरोधी अर्थ को बताना मुख्य था।

इसी प्रकार

एवमविद्या न प्रमाणं न प्रमाणाभावः किन्तु विद्याविपरीतं ज्ञानान्तरमविद्येति।

अर्थात् यह जो अविद्या नाम वाला क्लेश है वह न तो किसी भी प्रकार के प्रमाणों के अन्तर्गत आता है अर्थात् वह ज्ञान या विद्या है और न ही वह विज्ञान या विद्या का अभाव मात्र है। बल्कि वह विद्या का विरोधी भिन्न ज्ञान है जिसे मिथ्याज्ञान नाम से कथन किया जाता है। इसलिए कोई भी यहाँ अविद्या का अर्थ अभाव के रूप में न समझें। यहाँ पर एक और भी बात समझ लेना चाहिए कि जब अविद्या के चार भेदों का वर्णन किया जा रहा है और अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश का बीज बताया जा रहा है तब यह कैसे समझ सकते हैं कि अविद्या का अभिप्राय अभाव मात्र है। ऐसा बिल्कुल नहीं। फिर भी कोई समझ सकता हो, तो उसके लिए उपरोक्त समाधान है, ऐसा समझना चाहिए। ऋषियों का बहुत बड़ा उपकार हम सब पर रहता है कि वे अपनी ओर से किसी भी प्रकार की भ्रान्ति या संशय को अवसर नहीं देते हैं। फिर भी हम साधारण बुद्धि वाले भ्रम या संशय उत्पन्न करके ऋषियों पर दोष मड़ते हैं। यह हम सब की उन्नति में बाधक है, ऐसा हमें समझना चाहिए।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर