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नेपाल त्रासदी और हमारा कर्तव्य

दुर्घटनाएँ संसार में घटती रहती हैं। कभी ये मनुष्यकृत होती हैं तो कभी प्राकृतिक रूप में आती हैं। पिछले दिनों भारत में २७ मार्च को दोपहर के समय भूकम्प के झटकों का अनुभव किया गया। इसका केन्द्र नेपाल में था, अतः इसका प्रभाव नेपाल में अधिक हुआ। एक तो नेपाल में केन्द्र था, दूसरा भूकम्प की तीव्रता का नाप ७.८ था, जो बहुत अधिक था, इसी अनुपात से दुर्घटना का प्रभाव भी उतना ही तीव्र का हुआ। जहाँ हजारों मकान ध्वस्त हो गये, वहाँ अभी तक दस हजार से अधिक लोगों के मरने का अनुमान है। हताहत होने वालों की संख्या कई गुना अधिक है।

इस समय दुर्घटना तो प्राकृतिक थी, परन्तु मनुष्यों द्वारा की जाने वाली क्रिया भी आज चर्चा का विषय है। इस दुर्घटना को जिन्होंने भोगा, अनुभव किया, उनका दुःख अवर्णनीय है। उसे तो वे ही अनुभव कर सकते हैं परन्तु समाज में दूसरे लोग जो इस दुःख का अनुभव कर सकते हैं, वे ही इस कार्य में सहायता के लिये आगे बढ़ते हैं। यह प्रसन्नता और गर्व की बात है कि प्रधानमन्त्री मोदी और उनकी सरकार ने इस मानवीय संवेदना का परिचय दिया, उससे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है। इससे संवेदनशीलता, तत्परता एवं बुद्धिमत्ता का परिचय मिलता है। हमारे ऋषियों ने मनुष्य जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान किया है। समस्या के समाधान को धर्म कहा गया है। जहाँ कहीं समस्या है, वहाँ उसके समाधान के रूप में धर्म उपस्थित होता है। हमारी संस्कृति में सेवा कार्य को धर्म कहा गया है। इससे पता लगता है कि सेवा एक अनिवार्य कार्य है और समस्या का समाधान भी।

इस बात को हम ऐसे समझ सकते हैं। जब मनुष्य समर्थ होता है, युवा होता है, सम्पन्न होता है तो वह समझता है कि मुझे किसी से क्या लेना है, मैं अपने पुरुषार्थ से जो अर्थोपार्जन करता हूँ, वह मेरा है, मैं उसका अपने लिये उपयोग करता हूँ। जैसे मैं अपने उपार्जित धन से अपना काम करता हूँ, उसी प्रकार सबको अपने धन से अपना काम चलाना चाहिए। मैं किसी के लिये कैसे उत्तरदायी हूँ? यह एक बुद्धिमान् व्यक्ति का विचार नहीं हो सकता। मनुष्य जीवन में सदा समर्थ और सम्पन्न नहीं रहता। पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने अपनी आत्मकथा में एक प्रसंग लिखा है कि – मैं पचहत्तर वर्ष की आयु में रोगी हो गया। रोग का आक्रमण लम्बा रहा, शरीर अत्यन्त निर्बल हो गया, परिणामस्वरूप खाना-पीना भी मेरे लिए स्वयं करना सम्भव नहीं रहा। जब मेरे परिवार के लोगों ने मुझे चम्मच से खिलाया, तब मुझे लगा कि केवल बच्चों को ही चम्मच से नहीं खिलाया जाता, बुढ़ापे में भी चम्मच से खिलाना पड़ता है। मनुष्य स्वस्थ, समर्थ एवं सम्पन्न होता है तब उसे किसी की आवश्यकता नहीं लगती परन्तु प्रत्येक मनुष्य के जीवन में शैशवावस्था, रुग्णावस्था, रोग और वृद्धावस्था आती है। इन तीनों के अतिरिक्त दुर्घटना कब, किसके जीवन में आये? नहीं कहा जा सकता। समाज में इन परिस्थितियों में मनुष्य को दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है। शैशव में मनुष्य के बालक का उत्पन्न होने के पश्चात् अकेले जीवित रहना असम्भव है। उसको बचाने के लिए माता-पिता, पालक की आवश्यकता होती है।

हम बचपन से किन-किन की सहायता से जीवित बचे हैं, इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। खाना-पीना, उठना-बैठना, चलना-बोलना, वस्त्र पहनना आदि समस्त जीवन व्यापार दूसरों के आधीन ही होता है। दूसरों की सहायता के बिना हमारा जीवित रहना सम्भव नहीं है। इस प्रकार वृद्धावस्था में हम कितने भी सम्पन्न हों, अशक्त होने की दशा में हमें दूसरों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है। जब कभी रोग, शोक, भय आदि से आक्रान्त हो जाते हैं, तब हमारे जीवन में दुर्घटना कब, कहाँ घटित हो जाये, यह निश्चित नहीं। आज समुद्र में तूफान आते हैं, आँधियाँ आती हैं, बाढ़ आती है, सूखा पड़ता है, भूकम्प आता है, वायुयान, रेल, बस आदि की दुर्घटनाएँ होती हैं, आग लग जाती है। ये सब हमारे सामर्थ्य को एक क्षण में व्यर्थ कर देते हैं। हमारी संपत्ति हमारे लिए निरर्थक हो जाती है। हमारी संपत्ति से एक घूँट पानी हम नहीं प्राप्त कर सकते, जेब और बैंक में रखा हुआ धन हमारी असहाय स्थिति को दूर करने का सामर्थ्य खो देता है। इस परिस्थिति में हमारे बचने का क्या उपाय शेष रहता है- वह उपाय है दूसरों के द्वारा दी जाने वाली सहायता, जिसे हम सेवा के रूप में जानते हैं।

सेवा की अनिवार्यता तब समझ में आती है, जब व्यक्ति विवश होता है। मनुष्य किसी स्थान या व्यक्ति से परिचित न हो, भाषा भी न आती हो और जेब में पैसे भी न हों, तब व्यक्ति कैसे जीवित रहेगा? एक विकल्प तो यह है कि ऐसा व्यक्ति मर जाये तो हमारा क्या दोष है? इसके उत्तर में विचार करना चाहिए कि क्या यह परिस्थिति किसी के साथ ही आती है या यह परिस्थिति सबके साथ आ सकती है? तो इसका उत्तर है, यह परिस्थिति किसी के भी जीवन में कभी भी आ सकती है। तो इसका उपाय क्या है? इसका उपाय यह है कि जो भी व्यक्ति वहाँ उपस्थित है, वही हमारी सहायता करे, परन्तु कोई व्यक्ति आपकी सहायता क्यों करे? यहीं उत्तर है कि सेवा करना धर्म है, अतः उस व्यक्ति की सहायता की जानी चाहिए। सामान्य रूप में सभी व्यक्ति एक दूसरे की सहायता या आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। यह पूर्ति का प्रकार दो प्रकार का हो सकता है। हम रेल में यात्रा कर रहे हैं। हमें प्यास लगती है, हम जेब से पैसे निकालते हैं, पानी वाले को देते हैं, वह हमें पानी दे देता है। उसने भी हमारी आवश्यकता की पूर्ति की है। इस कार्य के बदल में कोई कह सकता है कि मैं सेवा कर रहा हूँ, परन्तु यह सेवा नहीं है। सेवा में धन होने की अनिवार्यता नहीं है।

जब हम किसी कार्य को धर्म समझकर करते हैं तो उसमें व्यक्ति की पात्रता, उसकी आवश्यकता पर निर्भर करती है, जबकि व्यवसाय में पात्रता उसकी आवश्यकता पर नहीं, अपितु उसकी आर्थिक सामर्थ्य पर टिकी है। सेवा करने वाला व्यक्ति केवल आवश्यकता को, उसकी पीड़ा को देखता है, जबकि व्यवसाय करने वाला व्यक्ति उसकी आर्थिक क्षमता को देखता है, उसका उसकी पीड़ा या आवश्यकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता। सेवा का उत्कृष्ट स्वरूप होता है जब हम प्राणि मात्र को उसकी पीड़ा से पहचानते हैं, न कि जाति, लिंग, आकृति या हानि-लाभ से। भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्यों को शिक्षा देकर प्रचार के लिए भेजा। एक शिष्य ने एक शराबी को देखकर उसे उपदेश देने का प्रयास किया, शराबी ने बोतल से उसका सिर तोड़ दिया। शिष्य ने गुरु जी के पास जाकर अपना हाल सुनाया, गुरु जी ने सुन लिया। उस समय कुछ न कहा फिर एक बार उसी शिष्य को लेकर उसी गाँव में गये, जहाँ वही शराबी रोग से दुःखी अकेला पड़ा था। भगवान् बुद्ध उसे उपेदश नहीं दिया, उसकी सेवा की, उसे साफ किया, उसको औषध दी, उसको भोजन-पानी दिया, वह शराबी भगवान् बुद्ध का शिष्य बन गया।

जिस क्षण हम सेवा के बदले में कुछ चाहते हैं, तो वह सौदा हो जाता है। नेपाल के प्रसंग में यह घटना याद करने योग्य है। चर्च ने भूकम्प के समय बाइबिल की एक लाख प्रतियाँ नेपाल में भेजी, यह किसी भी प्रकार से सेवा की श्रेणी में नहीं आता। यह तो मौके का फायदा उठाना है, यह व्यापार है, सौदा है। चर्च कहीं भी सेवा नहीं करता, इस प्रसंग में एक घटना का उल्लेख करना उचित होगा। ईसाई प्रचारक फादर लेसर अब स्वर्गीय हो गये, उन्होंने अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए कहा था- हमने भारत में चार सौ वर्षों से सेवा का कार्य किया, परन्तु भारतीय समाज अभी तक हम पर विश्वास नहीं करता। इसके उत्तर में मैंने निवेदन किया कि फादर, ईसाई चर्च कभी भी सेवा कार्य नहीं करता, वह सदा सौदा करता है, वह बदले में ईमान माँगता है। उसके हर सेवा कार्य के पीछे ईसाई बनने की शर्त रहती है। जब कभी हम अपने कार्य के बदले में दूसरे से कुछ चाहते हैं तो वह सेवा न होकर सौदा, व्यापार हो जाता है। हमारे ऋषियों ने सेवा को धर्म कहा है। धर्म स्थान एवं व्यक्ति की योग्यता नहीं देखता, उसकी पात्रता केवल उसकी पीड़ा है और उसका निराकरण का प्रयास सेवा है।

संसार दुःखमय है, इसमें जन्म के साथ ही दुःखों का प्रारम्भ हो जाता है। हमारे मित्र, सहयोगी, सम्बन्धी मिलकर एक-दूसरे के दुःख को दूर करने का प्रयास करते हैं, परन्तु जिनको जीवन में ये साधन नहीं मिले, उनका भी उपाय होना चाहिए, यह उनका अधिकार है। जब हम सेवा करते हैं, तब हम उस पर उपकार नहीं कर रहे होते। हमें उपकार का अवसर मिला है, हम आज पीड़ित नहीं, सेवक हैं। भारतीय संस्कृति में कोई भी कार्य निष्फल नहीं होता, सेवा कार्य भी नहीं। जैसे व्यापार का लाभ तत्काल होता है तो हम कर्म के लिए प्रेरित होते हैं, परन्तु हम भूल जाते हैं कि यदि व्यापार में किया गया कर्म निष्फल नहीं गया तो धर्म में किया गया कर्म कैसे निष्फल हो सकता है? धर्म कार्य में भी कार्य तो हुआ है, हमने इच्छा नहीं की कि हमें कोई पैसा मिले, कोई लाभ मिले, इस परिस्थिति में हमारे दो कार्य होते हैं और उसके दो फल मिलते हैं। एक फल हमारी बदले की इच्छा न होने से सन्तोष की प्राप्ति और अनासक्ति का सुख मिलता है तथा जो हमारे दूसरे की सहायता का कार्य किया है, उसका लाभ हमें तब सहज ही प्राप्त होता है, जब कभी हम किसी संकट या विपत्ति में फँस जाते हैं और कहीं से अज्ञात हाथ आकर हमारी रक्षा करते हैं, हमें बचा लेते हैं। व्यापार के फल को हम जानते हैं कि वह कब मिलेगा, कहाँ मिलेगा, कितना मिलेगा? परन्तु धर्म का फल कहाँ किसको कब मिलेगा हमें पता नहीं चलता। सबको धार्मिक होने की इसीलिये आवश्यकता है कि सभी धार्मिक होंगे, सेवा भावी होंगे तो कोई भी कहीं भी कष्ट में क्यों न हो, जो व्यक्ति जहाँ उपस्थित है, उसके मन में सेवा भाव होगा वह तत्काल सेवा कार्य में जुट जायेगा।

हमें स्मरण रखना चाहिए कि जब हम दुःख में होते हैं, तब परमेश्वर से सहायता की याचना करते हैं। हमें स्मरण रखना होगा कि हर प्राणी उस परमेश्वर की ही सन्तान है, किसी पीड़ित प्राणी की सेवा करना परमेश्वर को प्रसन्न करने का उपाय है। आज कोई व्यक्ति दुःखी को लूटता है, हिंसा करता है, उसकी उपेक्षा करता है तो वह पापी बन जाता है, लोग अपनी पापवृत्ति के कारण बेहोश, मरे, पीड़ित व्यक्ति की सम्पत्ति लूटते हैं, चुराते हैं तो वे किस प्रकार अपने लिए दूसरे की सहायता मिलने की अपेक्षा कर सकते हैं? बहुत सारे लोग इन आपदाओं के लिए परमेश्वर को उत्तरदायी मानते हैं। परमेश्वर उत्तरदायी इसलिये नहीं है कि संसार उसकी व्यवस्था में चल रहा है। जहाँ भी, जब भी व्यवस्था में व्यतिक्रम होता है तो संकट आता है, बहुत बार यह अव्यवस्था के कारण का हमें पता चलता है और बहुत बार हमें पता नहीं चलता। अधिकांश रूप में हम अपनी आवश्यकता और स्वार्थ की पूर्ति के लिए नियमों को तोड़ते हैं, व्यवस्था को भंग करते हैं।

हम वृक्षों को तोड़कर, जलधाराओं को मोड़कर पर्यावरण के सन्तुलन को बिगाड़ देते हैं। स्वार्थ के लिये बड़ी मात्रा में हिंसा करते हैं। जहाँ जड़ पदार्थों के उचित क्रम और व्यवस्था को बिगाड़ना हिंसा है, वहीं प्राणियों का निरन्तर वध करना हिंसा है। उसका हमारे जीवन और पर्यावरण पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। नेपाल में धर्म के नाम पर जितनी जीव हत्या होती है, क्या उसके दण्ड से आप बच सकते हैं? आप पीड़ा नहीं चाहते, आप पीड़ा देने वाले को अपराधी मानते हैं, उसे दण्डित करना चहाते हैं तो क्या निरीह पशुओं को अकारण धर्म के नाम से क्रूरता से संहार करके आप सुरक्षित रह सकते हैं? आज वैज्ञानिकों ने प्रमाणित किया कि प्राणियों की निरन्तर बढ़ती हुई हिंसा वातावरण में भारी उथल-पुथल का कारण है। इसी कारण भूकम्प और प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं। पशु प्राणी सृष्टि-संरचना में एक महत्वपूर्ण कड़ी है। उसके न रहने पर या क्षतिग्रस्त होने पर समस्त पर्यावरण प्रभावित होता है। हिंसा से मनुष्य में तमोगुण, बढ़कर क्रोध, तनाव, भय, आतंक आदि उत्पन्न करता है। इससे मनुष्य का मन-मस्तिष्क विकृत होकर उसे रोगी, अस्थिरचित्त एवं दुर्बल बना देती है।

केदारनाथ, नेपाल आदि की घटनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करके उनके कारणों का हमें पता लगाना चाहिए। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि के पालन से आत्मा में शान्ति, मन में स्थिरता व बुद्धि में सतोगुण बढ़ता है। हिंसा से स्वार्थ एवं परहानि की प्रवृत्ति बढ़ती है। नेपाल में पशुपतिनाथ के नाम पर हम भैसों-बकरों की बलि चढ़ा कर शान्ति से रहना चाहेंगे, यह सम्भव नहीं होगा। जीवन में से किसी भी प्रकार की हिंसा को दूर किये बिना मनुष्य का सुखी होना सम्भव नहीं है। परोपकार सेवा ही पुण्य है और हिंसा तथा स्वार्थ के लिए परहानि करना ही पाप है। प्रकृति की प्राणियों की हिंसा जबतक बढ़ती रहेगी, समाज का सन्ताप, कष्ट, आपत्तियां भी बढ़ती रहेंगी, अतः कहा गया है- पुण्य से सुख मिलता है और पाप से दुःख परोपकार पुण्य है और परपीड़न पाप है-

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।

– धर्मवीर

 

दुःखानुशयी द्वेषः-८ – स्वामी विष्वङ्

क्लेशों के पाँच विभागों में से तीन विभागों (अविद्या, अस्मिता, राग) की परिभाषाएँ बताकर महर्षि पतञ्जलि चौथे विभाग की चर्चा प्रस्तुत सूत्र में कर रहे हैं। महर्षि कहते हैं- दुःख के पीछे-पीछे चलने वाले क्लेश को द्वेष कहते हैं। अभिप्राय यह है कि मनुष्य जिस दुःख का अनुभव करता है, उस दुःख के अनुभव के पीछे मन में दुःख के प्रति प्रतिशोध बना रहता है, विरोध- आवेश बना रहता है। उस प्रतिशोध को, उस विरोध-आवेश को यहाँ द्वेष शब्द से कहा जा रहा है। मनुष्य को जहाँ कहीं भी दुःख का अनुभव होता है, वहाँ उसे द्वेष हो जाता है। मिथ्याज्ञान से युक्त मनुष्य को जहाँ-जहाँ दुःख की अनुभूति होती है, वहाँ-वहाँ द्वेष अवश्य होता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि मिथ्याज्ञान से युक्त होकर दुःख तो भोगे, पर द्वेष न हो, इसलिए महर्षि पतञ्जलि कहते हैं- दुःख अनुभव के पीछे-पीछे चलने वाला प्रतिशोध रूपी, विरोध-आवेशरूपी क्लेश ही द्वेष है।

महर्षि वेदव्यास प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-

दुःखाभिज्ञस्य दुःखानुस्मृतिपूर्वो दुःखे तत्साधने

वा यः प्रतिघो मन्युर्जिघांसा क्रोधः स द्वेष इति।

अर्थात् दुःख का अनुभव करने वाले मनुष्य को दुःख के साधनों को दूर करने की भावना होती है, उसे दुबारा न प्राप्त करने की मनसा होती है या यूँ कहें, उसे बार-बार न अपनाने का विरोध होता है। उस प्रतिघ रूपी प्रतिकार को, उस मन्यु रूपी विरोध को, उस जिघांसा रूपी मार-काट करने की भावना को या क्रोध रूपी आवेश को द्वेष नाम से कहा जाता है। यहाँ महर्षि वेदव्यास ने द्वेष को समझाने के लिए चार श  दों का प्रयोग (प्रतिघः, मन्युः, जिघांसा, क्रोधः) किया है। ये चारों शब्द  द्वेष को ही स्पष्ट कहते हैं। संसार में द्वेष के लिए क्रोध, गुस्सा, वैर, प्रतिशोध, आवेश आदि श       शब्दों  का प्रयोग होता रहता है।

मनुष्य को रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द वाली वस्तुओं से जो दुःख प्राप्त होता है, उसकी छाप मन में पड़ती है। दुःख की उस छाप को संस्कार कहते हैं। इस प्रकार दुःख अनुभव के जितने भी संस्कार मन में एकत्रित होते हैं, उनकी स्मृतियाँ मनुष्य को आती रहती हैं। उन स्मृतियों के अनुरूप मनुष्य उस-उस दुःख के प्रति या उस-उस दुःख के साधन के प्रति प्रतिशोध करता रहता है और उसे दूर करने का पुरुषार्थ करता रहता है। जब तक दुःख या दुःख के साधन दूर नहीं होते हैं, तब तक मनुष्य उद्यम करता ही रहता है। उस दुःख और दुःख के साधनों के पुरुषार्थ के पीछे द्वेष कारण बना हुआ होता है।

यहाँ व्यासभाष्य में महर्षि वेदव्यास ने मन्युः और क्रोधः इन दोनों शब्दों  को ग्रहण करके यह स्पष्ट किया है कि मन्यु और क्रोध दोनों द्वेष के पर्यायवाची शब्द हैं। केवल अन्तर इतना है कि मन्यु आन्तरिक द्वेष होता है और क्रोध बाह्य द्वेष होता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद के ३०वें अध्याय के १४वें मन्त्र में आये मन्यु शब्द का अर्थ आन्तरिक क्रोध किया है- मन्यवे= आन्तर्यक्रोधाय और क्रोध शब्द का अर्थ बाह्य कोप किया है- क्रोधाय= बाह्यकोपाय। इस प्रकार मन्यु और क्रोध एक अर्थ को कहने वाले होते हुए भी कुछ अन्तर रखते हैं और वह अन्तर बाह्य और आन्तरिक है। मनुष्य कभी-कभी अन्दर ही अन्दर द्वेष कर रहा होता है, उसे मन्यु कह सकते हैं। ऐसी स्थिति में वह अपने द्वेष को बाहर प्रकट होने नहीं देता है। उस आन्तरिक मन्यु के कारण अन्दर-ही-अन्दर दुःखी होता रहता है। जब मनुष्य बाह्य रूप से वाणी या शरीर द्वारा द्वेष कर रहा होता है, तब अन्य मनुष्यों को स्पष्ट पता चलता है कि यह व्यक्ति द्वेष कर रहा है। चाहे द्वेष अन्दर से करे या बाहर से करे, दोनों ही स्थितियों में हानिकारक है, क्योंकि द्वेष मनुष्य के प्रयोजन में बाधक है।

यद्यपि द्वेष की परिभाषा एक ही है, परन्तु मनुष्य अलग-अलग हैं, पशु-पक्षी आदि अलग-अलग हैं, इसलिए द्वेष भी अलग-अलग प्रकार से होता है। चेतन प्राणि-मनुष्य, पशु, पक्षी आदि का द्वेष अलग प्रकार का है और जड़ पदार्थ- विष, गहरा पानी, अग्नि आदि का द्वेष अलग प्रकार का है। व्यक्ति-व्यक्ति का द्वेष भी अलग-अलग होता है। रूप का द्वेष भी अलग-अलग होता है, कोई काले रूप से, कोई हरे रूप से तो कोई किसी रूप से द्वेष करता है। इसी प्रकार रसों का द्वेष अलग-अलग है, गन्धों का द्वेष अलग-अलग है, ऐसे ही स्पर्शों का और शब्दों  का द्वेष भी अलग-अलग है। इस प्रकार समस्त रूपों, रसों, गन्धों, स्पर्शों और शब्दों  के विभिन्न प्रकार के भेद हैं। असंख्य प्रकार की वस्तुएँ और असंख्य प्रकार के द्वेष और ऐसे ही असंख्य प्रकार के प्राणि तथा असंख्य प्रकार के द्वेष। इस प्रकार व्यक्ति भेद से द्वेष भेद असंख्य हो जाते हैं। व्यक्ति भेद से द्वेष भले ही असंख्य हो जाते हों, परन्तु द्वेषत्व सब में व्यापक होने से जाति के रूप में द्वेष को एक ही कहा जाता है।

मनुष्य जिन पर द्वेष करता है, वे दो प्रकार के पदार्थ हैं- एक जड़ और दूसरे चेतन। इन दोनों में द्वेष होता है। जड़ पदार्थ अनेक प्रकार के हैं। अलग-अलग जड़ पदार्थों के द्वेष एक-दूसरे से अलग-अलग होते हुए भी द्वेषत्व की दृष्टि से वे एक ही होते हैं। जब उन अलग-अलग जड़ पदार्थों से दुःख प्राप्त करता है, तब उन अलग-अलग दुःखों की छाप मन में पड़ती है। उस छाप रूपी संस्कारों से प्रेरित होकर उस व्यक्ति के मन में जो प्रतिकार की भावना, आवेश की भावना उत्पन्न होती है, उसे ही यहाँ द्वेष कहा जा रहा है। उसी प्रकार चेतन प्राणि भी अनेक प्रकार के हैं, अलग-अलग प्राणियों के द्वेष अलग-अलग होते हुए भी द्वेषत्व सब में एक ही है। इस प्रकार अनेक जड़ पदार्थों के अनेक द्वेष और अनेक चेतन पदार्थों के अनेक द्वेष मनुष्य को संतप्त करते हैं। इतने प्रकार के द्वेष मन में विद्यमान हों, तो मनुष्य कैसे परमेश्वर के प्रति आकर्षित होकर एकाग्र हो पायेगा?

मनुष्य ने जड़ और चेतन से सम्बन्धित जितने दुःख भोगे हैं, उन सबके प्रति पुनः दूर करने के लिए जो प्रतिकार की भावना होती है, वह तो द्वेष है ही, उसके साथ-साथ जिन जड़ और चेतनों से अब तक मनुष्य ने दुःख भोगा ही नहीं है, परन्तु उनके विषय में सुना है, पढ़ा है और उन पर प्रमाणों द्वारा विचार किया है, वह भी द्वेष है। सुनने से, पढ़ने से, विचार करने मात्र से भी मन में उनकी छाप पड़ती है। उस छाप रूपी संस्कार से स्मृति उत्पन्न होती है और उस स्मृति के अनुरूप प्रतिकार, आवेश उत्पन्न होता है, उसे भी द्वेष कहते हैं।

यह आवश्यक नहीं है कि जिस दुःख के या दुःख के साधनों के अनुभव से जो संस्कार मन में पड़ता है, उसकी स्मृति से पुनः उस दुःख को दूर करने की प्रतिशोध रूपी भावना को ही द्वेष कहा जाये, बल्कि दुःख प्राप्त नहीं हुआ या दुःख के साधनों को प्राप्त भी नहीं किया, फिर भी उस दुःख और दुःख के साधनों के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है। यदि बिना दुःख और दुःख के साधनों को प्राप्त किये भी द्वेष होता हो, तो क्या यह महर्षि पतञ्जलि और महर्षि वेदव्यास के विपरीत तो नहीं माना जायेगा? इसका समाधन यह है कि वह ऋषियों के विपरीत नहीं जायेगा, क्योंकि दुःखों व दुःख के साधनों को चाहे प्राप्त नहीं किया हो, परन्तु उनके विषय में सुनते, पढ़ते और विचार करते समय दुःख अनुभव होता है- भले ही वह दुःख अनुभव श्रवण से होने वाला दुःख हो, पढ़ने से होने वाला दुःख हो या विचार से होने वाला दुःख हो। दुःख अनुभव तो हुआ है, उसी दुःख अनुभव के पीछे-पीछे चलने वाला प्रतिशोध ही द्वेष कहलाता है, चाहे वह दुःख जड़ वस्तु या चेतन वस्तु से प्राप्त होने वाला हो अथवा श्रवण, पठित और विचारित दुःख हो। दुःख तो दुःख ही है, चाहे किसी से सम्बन्धित हो। इस प्रकार द्वेष मात्र, ऋषियों की परिभाषाओं के अनुरूप होना चाहिए।

असंख्य प्रकार के जड़ पदार्थों और असंख्य प्रकार के चेतन पदार्थों का द्वेष मनुष्य के जीवन में कार्य करता रहता है। वह द्वेष कभी वर्तमान (उदार अवस्था) में रहता है, कभी विच्छिन्न (दबा) रहता है, तो कभी-कभी तनू (कमजोर) होकर बहुत सूक्ष्मता से रहता है। यदि इन तीनों स्थितियों में नहीं है, तो प्रसुप्त (सोया हुआ) रहता है। इसलिए मनुष्य को यह नहीं समझना चाहिए कि मुझमें अमुक-अमुक जड़ व चेतन वस्तु के प्रति द्वेष नहीं है। हाँ, द्वेष तो है, परन्तु वर्तमान अवस्था में नहीं है, पर दबा हुआ है या बहुत सूक्ष्म होकर रह रहा है अथवा सोया हुआ है, इसलिए ऐसा लगता है कि द्वेष नहीं है, परन्तु द्वेष तो है। जो योगाभ्यासी ऐसी स्थिति को अनुभव कर लेता है, वही योगाभ्यासी द्वेष को दूर करने का उद्यम कर सकता है और जो व्यक्ति अविद्या के कारण यह समझ बैठता है कि मुझ में द्वेष नहीं है, वह व्यक्ति द्वेष को दूर करने का उद्यम कभी नहीं कर पाता है। मनुष्य को चाहिए कि वह प्रमाणों से युक्त होकर पूर्वापर का विचार करते हुए अपने जीवन के उद्देश्य को आत्म समक्ष रखते हुए देखे, तो निश्चित रूप में द्वेष समझ में आयेगा। जब मनुष्य ऋषियों के अुनरूप अपनी बुद्धि को बनाते हैं, तो निश्चित रूप से ऋषियों के समान अपने को भी कृतकृत्य कर सकते हैं और तभी ऋषियों का पुरुषार्थ सार्थक हो सकता है।

द्वेष का विवेक द्वेष को समाप्त करने वाला होता है,

द्वेष का अविवेक द्वेष को बढ़ाने वाला होता है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

वेद प्रतिपादित देवहित-आयु और उसका परिमाण – डॉ. प्रशस्यमित्र शास्त्री

ऋग्वेद का निम्नलिखित प्रसिद्ध मन्त्र है, जिसे हम स्वस्तिवाचन में पढ़ने के साथ ही यजमान आदि के दीर्घ आयुष्य, आशीर्वाद एवं शुभकामना प्रकट करने के लिए भी पढ़ते हैं-

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।।

(ऋ. वेद १.८९.८)

इस मन्त्र में ‘देवहित-आयु’ की प्रार्थना की गई है। अब प्रश्न होता है कि यह देवहित-आयु क्या है तथा इसका परिणाम कितना है? यही नहीं, अपितु अनेक वेदमन्त्रों में चक्षुरादि इन्द्रियों के सबल होने के साथ ही जीवन एवं स्वास्थ्य आदि की जब कामना की जाती है तो वहाँ भी विशेषण के रूप में ‘देवहित’ शब्द  प्रयुक्त होता है। जैसे-

तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ता…… पश्येम शरदः शतम्।

जीवेम शरदः शतं….. भूयश्च शरदः शतात्।

(माध्यन्दिन यजु. ३६.२४)

आचार्य सायण का अर्थः यज्ञमय जीवन :- चारों वेदों के सुप्रसिद्ध भाष्यकार आचार्य सायण ‘भद्रं कर्णेभिः’ आदि ऋग्वेदीय मन्त्र की व्याख्या में ‘देवहितं यदायुः’ इस पद का भाष्य करते हुए लिखते हैं-

‘यदायुः षोडशाधिकशत प्रमाणं विंशत्यधिकशत प्रमाणं वा’ अर्थात् ‘देवहित-आयु’ का तात्पर्य है- ११६ वर्ष की आयु अथवा १२० वर्ष की आयु।

अब प्रश्न होता है कि सायणाचार्य के इस अर्थ का आधार क्या है? ‘देवहित-आयु’ का प्रमाण ११६ या १२० वर्ष ही क्यों माना जाये? इसका उ ार हमें छान्दोग्य उपनिषद् के निम्न वाक्य से प्राप्त होता है-

पुरुषो वाव यज्ञस्तस्य यानि चतुर्विंशति

वर्षाणि तत्प्रातः सवनं चतुर्विशत्यक्षरा गायत्री

यानि चतुश्चत्वारिशद् वर्षाणि

तन्माध्यन्दिनं सवनं चतुश्चत्वारिशदक्षरस्त्रिष्टुप्

यान्यष्टाचत्वारिशद् वर्षाणि

तत् तृतीयं सवनम् इति।  (छान्दोग्योप. ३.१६.१.४)

अर्थात् मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ही एक यज्ञ है। इस यज्ञमय जीवन के प्रारम्भिक २४ वर्ष प्रातः सवन है, जबकि अगले ४४ वर्ष माध्यन्दिन सवन है तथा अग्रिम ४८ वर्ष तृतीय सवन के रूप में समझना चाहिए। इस प्रकार इस का कुल योग ११६ वर्ष होता है।

यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सोमयाग के प्रातः, माध्यन्दिन एवं तृतीय सवन क्रमशः गायत्र, त्रैष्टुभ एवं जागत कहे जाते हैं। ये छन्द क्रमशः २४, ४४ एवं ४८ अक्षरों वाले होते हैं।

जहाँ तक १२० वर्ष का प्रश्न है, सम्भव है छान्दोग्योपनिषद् के किसी संस्करण में माध्यन्दिन सवन को भी ४८ वर्ष का स्वीकार किया गया हो।

मनुष्य की औसत आयु एक सौ वर्षः वैदिक ग्रन्थों में मनुष्य की औसत आयु एक सौ वर्ष मानी गयी है। ऐतरेय आरण्यक में लिखा है-

शतं वर्षाणि पुरुषायुषो भवति। (ऐ.आर. २१२९)

अर्थात् पुरुष की सामान्य आयु एक सौ वर्ष होती है। अन्यत्र भी इसी प्रकार का भाव वैदिक ग्रन्थों में उपल      ध है-

शतायुर्वै पुरुषः शतवीर्यः (मैत्रायणी संहिता १६.४)

शतायुः पुरुषः शतेन्द्रियः (तै. संहिता २.३.११५)

माध्यन्दिन यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का द्वितीय मन्त्र है-

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।

अर्थात् मनुष्य कर्म करते हुए सक्रिय सबल स्वस्थ्य रहकर ही एक सौ वर्ष पर्यन्त जीवन की कामना करे। यहाँ एक सौ वर्ष से तात्पर्य औसत रूप में एक सौ वर्ष है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि एक सौ वर्ष से अधिक जीवन नहीं है, क्योंकि मन्त्रों में कहा भी है-

भूयश्च शरदः शतात्। (माध्यन्दिन यजु. ३६.४)

माध्यन्दिन शतपथ ब्राह्मण में भी लिखा है-

अपि हि भूयांसि शताद् वर्षेभ्यः पुरुषो जीवति

(मा. शतपथ १९.३.१९)

सम्प्रति भारतवर्ष में औसत आयु ६५ वर्षः भारतवर्ष में इस समय मनुष्यों की आयु औसत रूप में केवल ६५ वर्ष मानी गई है, जबकि संयुक्त राष्ट्र के विश्व स्वास्थ्य संगठन के १९९५ के आँकड़ों के हिसाब से अमेरिका, यूरोप तथा जापान प्रभृति विकसित देशों के मनुष्यों की औसत आयु ७५ वर्ष तक मानी गयी है। इन देशों में पौष्टिक भोजन एवं आम चिकित्सा सुविधाओं की अच्छी व्यवस्था होने से ऐसा है।

अफ्रीकी महाद्वीप के कई देशों जैसे- सोमालिया, इथियोपिया, युगाण्डा आदि में तो औसत आयु मात्र ४० वर्ष ही मानी गई है। इन देशों में अधिक गरीबी, कुपोषण के साथ ही चिकित्सा व्यवस्था की जर्जर स्थिति होने से मृत्यु दर भी अधिक है, अतः औसत आयु बहुत कम है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अभी विश्व में वेद प्रतिपादित एक सौ वर्ष की औसत आयु कहीं भी परिलक्षित नहीं हो पा रही है।

‘जरा’ ही देवहित-आयु हैः- वास्तव में पूर्ण आयुष्य अर्थात् कम-से-कम एक सौ वर्ष की आयु के साथ ही स्वस्थ निरोग रहते हुए वृद्धावस्था के द्वारा मृत्यु को प्राप्त करना ही ‘देवहित-आयु’ की प्राप्ति है। रोग द्वारा अल्प समय में मृत्यु या दुर्घटना आदि के द्वारा आकस्मिक-मृत्यु की प्राप्ति का अभाव तथा पूर्ण निरोग रहते हुए वृद्धावस्था को प्राप्त कर मृत्यु की प्राप्ति की स्थिति का नाम ही देवहित-आयु की प्राप्ति है। इस सम्बन्ध में वैदिक ग्रन्थों के निम्न प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

जरा वै देवहितम्-आयुः। (मैत्रायणी. १.७.५)

यही वाक्य काठक संहिता तथा कपिष्ठल कठसंहिता में भी प्राप्त होता है। जैसे-

जरा वै देवहितमायुः (काठक संहिता ९.२) तथा (कपिष्ठल कठ संहिता ८.५)

अभीष्ट आयु एवं आरोग्य प्राप्ति के लिए यज्ञः श्रीमद्भगवतगीता में लिखा है-

सह यज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्ट कामधुक्।।

(श्रीमद्भगवद्. ३.१०)

अर्थात् यज्ञ की रचना के साथ ही प्रजापति का यह निर्देश भी हुआ कि जो मनुष्य निरन्तर यज्ञ का अनुष्ठान करता है, वह अभीष्ट कामनाओं को निरन्तर प्राप्त करता रहता है। अभीष्ट एवं यथाकाम आयु की प्राप्ति में यज्ञ सहायक होता है। अथर्ववेद में इस सम्बन्ध में निम्नलिखित मन्त्र द्रष्टव्य है-

न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैनं शपथो अश्नुते।

यं भेषजस्य गुग्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते।।

(अथर्ववेद १९.३८.१)

अर्थात् जो अग्नि होम में गुग्गुल का प्रयोग करता है, उसे क्षय आदि रोग नहीं होता।

चिकित्साशास्त्रों में जहाँ विविध रोगों के निवारण के लिए विविध प्रकार की औषधियों एवं उनके द्वारा चिकित्सा करते हुए रोगों से मुक्ति का उल्लेख है, वहीं इष्टियों एवं यज्ञों के सम्पादन का भी सङ्केत करते हुए इनके माध्यम से मनुष्य को निरोग होने तथा उसकी आयु में वृद्धि का उल्लेख प्राप्त होता है। जैसे-

प्रयुक्तया यया चेष्ट्या राजयक्ष्मा पुरा जितः।

तां वेदविहिताम् इष्टिमारोग्यार्थी प्रयोजयेत्।।

(चरक चिकित्सा स्थान ८.१२१)

जो लोग यज्ञ नहीं करते, उनका चिन्तन, मनन याज्ञिकों के समान सा िवक नहीं हो पाता तथा वे सदाचार की ओर भी उन्मुख नहीं हो पाते। दुराचारी एवं अधर्मात्मा व्यक्ति की आयु भी अल्प सम्भावित है, अतः महाभारत में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा है-

अधर्मज्ञा दुराचारास्ते भवन्ति गतायुषः।

(अनुशासन पर्व….)

जबकि चरित्रवान् एवं धार्मिक याज्ञिक प्रकृति के लोगों के बारे में वे कहते हैं-

‘शतं वर्षाणि जीवति’ वे स्वस्थ, सबली एवं निरोग होकर पूर्ण एक सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर जरावस्था के द्वारा मृत्यु को प्राप्त करते हैं। यही वेद प्रतिपादित ‘देवहित-आयु’ भी है।

दीर्घ सन्ध्या से दीर्घ आयुः मनुस्मृति के चतुर्थ अध्याय में लिखा है कि ऋषियों ने दीर्घकाल तक दीर्घ सन्ध्या एवं गायत्री जप के द्वारा दीर्घायु प्राप्त किया-

ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुयुः।

प्रज्ञां यशश्च कीर्तिच ब्रह्मवर्चसमेव च।।

(मनु. ४.९४)

अथर्ववेद के एक अन्य मन्त्र (१९.७१.१) से भी सङ्केत मिलता है कि गायत्री-जप से आयु, प्राण, कीर्ति आदि की प्राप्ति में वृद्धि होती है।

पञ्चमहायज्ञों में नृयज्ञ अर्थात् अतिथियज्ञ या घर में आये हुए विद्वान् सदाचार सफल अतिथि की पूजा का विधान भी ‘यज्ञ’ श     द से बोध्य है। ‘यज्ञ’ का अर्थ बहुत व्यापक है। ‘यज्ञ’ श   द पञ्चमहायज्ञों का वाचक है। इसका अर्थ केवल देवयज्ञ या अग्निहोत्र ही नहीं है। ब्रह्मयज्ञ अर्थात् सन्ध्या तथा अतिथि यज्ञ आदि भी यज्ञ में अन्तर्भूत है। इसी कारण विद्वान् अतिथि के प्रति नमन या सत्कार मात्र से तथा उनके द्वारा प्रयुक्त आशीर्वचन मात्र से भी मनुष्य की आयु की वृद्धि सम्भावित है। इसी कारण मनुस्मृति में कहा है-

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।

-मनुस्मृति २.११२

अस्तु! कुछ भी हो, वास्तव में ‘देवहित-आयु’ अर्थात् यज्ञमय जीवन का निर्माण करते हुए समस्त इन्द्रियों से स्वस्थ, सबल सक्रिय रहते हुए कम-से-कम ११६ वर्ष जीवन बिताकर जरावस्था द्वारा मृत्यु की प्राप्ति हो- हम इस वैदिक भावना को हृदयङ्गम कर सकते हैं। वेद ने हमें सङ्केतों में ही इसका उपदेश कर दिया है। हम वेद के इन सन्देशों को ठीक तरह से समझें तथा जीवन में क्रियान्वित करें तो निश्चय ही सार्थकता को प्राप्त कर सकते हैं। वेदमन्त्रों के उपदेश हमें जीवन की सफलता एवं उसके उद्देश्य के प्रति निरन्तर प्रेरित करते हैं।

बी-२९, आनन्द नगर, जेल रोड, रायबरेली-२२९००१ (उ.प्र.)

चलभाष– ०९४५१०७४१२३

आर्यों को उद्बोधन क्या शौर्य दिखला सकते हो? – प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु

(१)

बिगड़ी बात बना सकते हो,

पाप की लङ्क जला सकते हो।

पदलोलुपता तज दो जो तुम,

झगड़े सभी मिटा सकते हो।।

लेखराम का पथ अपना कर,

लुटता देश बचा सकते हो।।

काज अधूरा दयानन्द का,

पूरा कर दिखला सकते हो।।

तुम चाहो तो आर्य वीरों,

दुर्दिन दूर भगा सकते हो।।

इसी डगर पर चलते-चलते,

मुर्दा कौम जिला सकते हो।।

(२)

मिशन ऋषि का पूछ रहा क्या,

जीवन भेंट चढ़ा सकते हो?

तुम सुधरोगे जग सुधरेगा,

जो कुछ बचा, बचा सकते हो।।

विजय मिलेगी लेखराम सी,

धूनी अगर रमा सकते हो।।

वही पुरातन मस्ती लाकर,

सत्य सनातन धर्म वेद की,

जय-जयकार गुञ्जा सकते हो।।

(३)

शोध करो कुछ निज जीवन का,

फिर तो युग पलटा सकते हो।।

दम्भ दर्प जो घूर रहा फिर,

इसकी जड़ें हिला सकते हो।।

स     ाा की गलियों में जाकर,

क्या कर्       ाव्य निभा सकते हो?

सीस तली पर धर कर ही तुम,

बस्ती नई बसा सकते हो।।

(४)

दक्षिण में जो दिखलाया था,

क्या शौर्य दिखला सकते हो?

राजपाल व श्यामलाल की,

क्या घटना दोहरा सकते हो?

लौह पुरुष के तुम वंशज हो,

भू पर शैल बिछा सकते हो।।

स्मरण करो नारायण का तुम,

तो खोया यश पा सकते हो।।

(५)

जिज्ञासु, अरमान जगाकर,

जीवन शंख बजा सकते हो।।

मन के शिव सङ्कल्पों से तुम,

जीवन दीप जला सकते हो।।

डूब रही मंझधार बीच जो,

नैय्या पार लगा सकते हो।।

मन में कुछ सद्भाव जगाकर,

फिर यह गाना गा सकते हो।।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब

स्तुता मया वरदा वेदमाता-९

सांमनस्य सूक्त के दूसरे मन्त्र में प्रथमशब्द  था-अनुव्रत, जिसका अभिप्राय सन्तान का पिता के अनुकूल आचरण वाला होना है। इस मन्त्र में घर की सुख-शान्ति के लिए परिवार के सभी सदस्यों का सहज होना आवश्यक है। जहाँ सन्तान का पिता के अनुकूल आचरण वाला होना कहा है, वहीं पर सन्तान के माता के साथ कैसा व्यवहार हो, इसके लिये कहा गया है- माता भवतु संमना अर्थात् सन्तान का मन भी माता के अनुसार होना चाहिए। सन्तान के व्यवहार होना कहा गया है। यहाँ शंका हो सकती है कि माता-पिता का व्यवहार क्यों नहीं सन्तान के अनुकूल होना चाहिए? इसका उत्तर  है- सामान्य रूप से माता-पिता का व्यवहार सन्तान के साथ प्रेमयुक्त और हितकारी होता ही है। व्यवहार के बनने-बिगड़ने की सम्भावना तो सन्तान के व्यवहार की है। घर में सन्तान के मन में यह भाव रहना आवश्यक है कि उनके माता-पिता, उनसे प्रेम करते हैं और उनका भला चाहते हैं। घर में बच्चों का मन अपने बड़े-छोटे भाई-बहनों के साथ होने वाले व्यवहार से प्रभावित होता रहता है। माता-पिता कभी छोटों को अधिक स्नेह करते दीखते हैं, तो कभी बड़ों को अधिक मह      व देते हैं। इससे साथ के बच्चों में प्रतिकूल प्रभाव होने की सम्भावना सदा ही बनी रहती है, यही अतः सन्तानों का माता-पिता से और परस्पर सम्बन्ध ठीक बना रहे, यही इस मन्त्र का विशेष भाव है।

बच्चों के व्यवहार के सामान्य बने रहने का एक मह     वपूर्ण बिन्दु है-पति-पत्नी के मध्य का व्यवहार। यही बच्चों के लिए आदर्श भी होता है और प्रेरक भी। माता-पिता जैसे परस्पर बोलते, व्यवहार करते हैं, वैसा ही बच्चे करते हैं, इसलिए मन्त्र में कहा गया है- जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु। अर्थात् पत्नी मधुर वाणी का व्यवहार करे। यदि परस्पर व्यवहार की भाषा कठोर होगी तो बच्चे भी वैसा ही सीखेंगे।

एक बार दिल्ली के बस अड्डे पर एक व्यक्ति अपना सामान एक बस से उतार कर दूसरी बस में ले जाना चाहता था। वह पहले कुछ सामान और अपनी तीन-चार साल की बच्ची को सामान के पास खड़ी कर पुनः शेष सामान व पत्नी को लेने बस की ओर बढ़ा, तो बच्ची ने अपनी बात कहते हुए पिता से कहा- पापा आपमें तो अक्ल ही नहीं है! यह बात इतने ऊँचे स्वर से कही गई थी कि पास खड़े यात्रियों का ध्यान उस पिता-पुत्री की ओर जाना स्वाभाविक था। बच्ची के पिता ने कुछ लज्जा का अनुभव करते हुए बच्ची को डाँटना चाहा तो मैंने उस व्यक्ति से कहा- भाई साहब, यह दोष बच्ची का नहीं है। आपकी पत्नी, आपको इतने मधुर सम्बोधन से पुकारती होगी, वही तो बच्ची कर रही है। आप उसे व्यर्थ ही डाँट रहे हैं। इसलिए बच्चों पर अच्छा प्रभाव डालने के लिए घर के वातावरण का अच्छा होना आवश्यक है।

मन्त्र में पत्नी को मधुमतीं वाचम्– मधुर वाणी बोलने के लिये कहा गया है, वहीं ऋषि दयानन्द संस्कार विधि के गृहाश्रम प्रकरण में इस मन्त्र का अर्थ करते हुए शान्तिवान् का अर्थ करते हैं- पति को भी पत्नी की बात शान्त भाव से सुननी चाहिए। सामान्य रूप से घर में एक ही बात बहुत बार कही-सुनी जाती है, इस कारण सुनने वाले को उससे आक्रोश आने लगता है। आक्रोश से सामने वाला भी आक्रोश में आ जाता है। जब कोई काम पत्नी या बच्चों के द्वारा बार-बार किया जाता है और घर के स्वामी को वह पसन्द नहीं है, तब आक्रोश, क्रोध, तनाव की स्थिति बनती जाती है।

घर में बच्चे भी अपने बारे में बार-बार टिप्पणियाँ सुनना पसन्द नहीं करते। माता-पिता इस बात पर ध्यान नहीं देते और बच्चों में प्रतिक्रिया होने लगती है। बच्चे या तो ऐसे माता-पिता से भयभीत होने लगते हैं, उनसे बचते हैं, उनसे संवाद स्थापित नहीं करना चाहते अथवा धृष्टता से उस कार्य को बार-बार करना चाहते हैं। ये दोनों ही परिस्थितियाँ घर के वातावरण को तनावपूर्ण बनाने के कारण बनती हैं। विशेष कर बच्चे अपने साथी या अतिथि के सामने डाँट या टिप्पणी सुनना नहीं चाहते। माता-पिता कि इस बात पर बच्चों के मन में कुण्ठा बनने लगती है, अतः घरेलू परिस्थितियों को सहज सामान्य रखने की नितान्त आवश्यकता है। वेद जहाँ पत्नी के लिए मधुर वाणी बोलने की बात करता है, वहीं पति को पत्नी की बात शान्तिपूर्वक सुनने का निर्देश करता है।

विवाह संस्कार में भी घर के वातावरण को अच्छा रखने के लिए सुनने का निर्देश दिया गया है- मम वाचं एकमना जुषस्व। यह मन्त्र दोनों द्वारा बोला जाता है। दोनों परस्पर कह रहे हैं- तुम मेरी बात को एकाग्र मन से सुनो। एकाग्रता से सुनने पर बात समझ में आती है, देर तक स्मरण रहती है और बात करने वाले के मन में सन्तुष्टि भी होती है, अतः मन्त्र में सन्तान को माता-पिता के अनुकूल आचरण वाला, पति-पत्नी को एक दूसरे की बात को शान्ति से सुनने वाला और मधुर वाणी बोलने वाला बनने के लिए कहा गया है।

तमाम मुसलमान इस्लाम छोड़ जायेंगे .- डॉ गुलाम जेलानी

जो लोग दूर दराज  मुल्कों में सफर करने के आदी हैं वो इस हकीकत से आगाज़ हैं कि  सूरज गुरूब  नहीं होता . जब पाकिस्तान में सूरज डूब  जाता है तो मिश्र में लोग शाम की चाय पी रहे होते हैं. वहीं इंगलिश्तान में दोपहर का खाना खा रहे होते हैं और अमरीका के बाज हिस्सों में सूरज निकल रहा होता है . अगर आप बीस काबिल एहातिमाद   घड़ियाँ  साथ रखकर एक तियारे में विलायत चले जाएँ तो वहां जा कर आप हैरान हो जायेंगे की जब यह तमाम घड़ियाँ  शाम के आठ बजा रही होंगी वहां दिन का डेढ़ बज रहा होगा अगर आप एक तेज रफ़्तार रोकेट में बैठ कर अमरीका चले जाएँ तो यह देख कर आपकी हैरत और बढ़ जायेगी कि इन घड़ियों के मुताबिक सूरज तुलुह  हो जाना चाहिए था लेकिन वहां डूब रहा होगा अगर इन्ही घड़ियों के साथ आप जापान की तरफ रवाना हो जाएँ तो पाकिस्तानी वकत के मुताबिक वहां एनितीन  दोपहर सूरज डूब रहा होगा . खुलासा यह की रात के ठीक बारह बजे इंगलिस्तान में शाम के शाम के साढ़े पांच बज रहे होंगे और  हवाई में सुबह के साढ़े पांच .

 

आज घर घर रेडियो मौजूद है रात के नौ बजे रडियो के पास बैठ के पहले इंगलिस्तान लगायें फिर टोकियो और इस के बाद अमरीका आपको मन में यकीन हो जाएगा की जमीन का साया (रात ) नसब (आधा )   दुनिया पर है और नसब (आधा )   पर आफताब पूरी आबोताब . के साथ चमक रहा है .

 

इस हकीकत की वजाहत के बाद आप ज़रा यह हदीस पढ़ें –

अबुदर फरमाते हैं की एक मर्तबा गुरूब आफताब  के बाद रसूल आलः ने मुझ से पूछा क्या तुम जानते हो कि ग़ुरबत के बाद आफताब कहाँ चला जाता है . मैने कहा अल्लाह और उसका रसूल बेहतर जानते हैं आपने फ़रमाया की सूरज खुदाई तख़्त ने नीचे सजदे में गिर जाता है और दुबारा तालोह होने की इजाजत मांगता  है और उसे मुशरफ से दोबारा निकलने की इजाजत मिल जाती है लेकिन एक वकत ऐसा भी आयेगा की उसे इजाजत नहीं मिलेगी . और हुकुम होगा की लौट जाओ जिस तरफ से आये हो ……… वह मगरब की तरफ से निकलना शुरू करेगा और.तफसीर यही है .

अगर हम रात के दस बचे पाकिस्तान रेडियो से दुनिया को या हदीस सुना दें और कहें की इस वकत सूरज अर्श   के नीचे सजदे में पड़ा हुआ है तो सारी मगरबी  दुनिया खिलखिला कर हंस देगी और वहाँ के तमाम मुसलमान इस्लाम छोड़ जायेंगे .

हनुमान जी बन्दर नहीं थे

भारतीय इतिहास में अनेक विद्वान् तथा बलवान् हुए हैं। हनुमान उनमें से एक                       व्यक्ति थे। उनकी सेवक के रूप में बहुत अच्छी      है। उनका जीवन आदर्श ब्रह्मचारी का भी रहा है परन्तु हमारे नादान पौराणिक भाइयों ने उन्हें बन्दर मानकर उनके साथ अन्याय किया हैः-
एक वे हैं जो दूसरों की छवि को देते हैं सुधार।
एक हम हैं लिया अपनी ही सूरत को बिगाड़।।
वे बन्दर न थे, अपितु पूर्णतः ऊपरोक्त गुणों से युक्त एक प्रेरक, आदर्श तथा कुलीन महापुरुष थे। कुछ प्रमाणों से हम इसे स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। मर्यादा                                           राम से उनकी प्रथम भेंट तब हुई थी, जब राम व लक्ष्मण भगवती सीता की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे। खोजते-खोजते वे दोनों ऋष्यमूक पर्वत पर- सुग्र्रीव की ओर गए तो सुग्रीव उन्हें दूर से देखकर भयभीत हो गया। उसने अपने मन्त्रियों से यह कहा कि ये दोनों वाली के ही भेजे हुए हैं ऐसा प्रतीत होता है। हे वानर शिरोमणी हनुमान! तुम जाकर पता लगाओ कि ये कोई दुर्भावना लेकर तो नहीं आये हैं।
सुग्रीव की इस बात को सुनकर हनुमान जहाँ अत्यन्त बलशाली श्री राम तथा लक्ष्मण थे, उस स्थान के लिए तत्काल चल दिये। वहाँ पहुँचने से पूर्व उन्होंने अपना रूप त्यागकर भिक्षु (=सामान्य तपस्वी) का रूप धारण किया तथा श्री राम व लक्ष्मण के पास जाकर अपना परिचय दिया तथा उनका परिचय लिया।
तत्पश्चात् श्री राम ने अनुज लक्ष्मण से कहा-
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।
नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्।।
वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक २८
जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का                           नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपश    िदतम्।।
-वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग श्लोक २९
अर्थः- निश्चय ही इन्होंने                                   व्याकरण का अनेक बार अध्ययन किया है। यही कारण है कि इनके इतने समय बोलने में इन्होंने कोई भी त्रुटि नहीं की है।
न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।
अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।।
-वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक ३०
अर्थः-                               के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ।
इससे स्पष्ट है कि हनुमान वेदों के विद्वान् तो थे ही, व्याकरण के उत्कृष्ट ज्ञाता भी थे तथा उनके शरीर के सभी अंग अपने-अपने करणीय कार्य उचित रूप में ही करते थे। शरीर के अंग जड़ पदार्थ हैं व मनुष्य का आत्मा ही अपने उच्च संस्कारों से उच्च कार्यों के लिए शरीर के अंगों का प्रयोग करता है।                   किसी बन्दर में यह योग्यता हो सकती है कि वह वेदों का विद्वान् बने? व्याकरण का विशेष ज्ञाता हो? अपने शरीर की उचित देखभाल भी करे?
रामायण का दूसरा प्रमाण इस विषय में प्रस्तुत करते हैं। यह प्रमाण तब का है, जब अंगद,                                   व हनुमान आदि समुद्रतट पर बैठकर समुद्र पार जाकर  सीता जी की खोज करने के लिए विचार कर रहे थे। तब                                  ने हनुमान जी को उनकी उ                                  कथा सुनाकर समुद्र लङ्घन के लिए उत्साहित किया। केवल एक ही श्लोक वहाँ से उद्धृत है-
सत्वं केसरिणः पुत्रःक्षेत्रजो भीमविक्रमः।
मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।।
-वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सप्तषष्टितम सर्ग, श्लोक २९
अर्थः- हे वीरवर! तुम केसरी  के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो। इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे परन्तु उनकी माता अंजनी ने पवन नामक पुरुष से नियोग द्वारा प्राप्त किया था। इस सत्य को स्वयं हनुमान जी ने भी स्वीकार किया, जब वे लंका में रावण के दरबार में प्रस्तुत किए गए थे-
अहं तु हनुमान्नाम मारुतस्यौरसः सुतः।
सीतायास्तु कृते तूर्णं शतयोजनमायतम्।।
– वा. रामायण, सुन्दरकाण्ड, त्रयस्त्रिंश सर्ग
अर्थः- मैं पवनदेव का औरस पुत्र हूँ। मेरा नाम हनुमान है। मैं सौ योजन पार कर सीता जी की खोज में आया हूँ।
हनुमान को मनुष्य न मानकर उन्हें बन्दर मानने वालों से हमारा निवेदन है कि इन दो प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि हनुमान जी बन्दर न थे, अपितु वे एक नियोगज पुत्र थे। नियोग प्रथा मनुष्य समाज में अतीत में प्रचलित थी। यह प्रथा बन्दरों में प्रचलित होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रामायण के इस प्रबल प्रमाण के होते हुए हनुमान जी को मनुष्य मानना ही पड़ेगा।
रामायण में से ही हम तीसरा प्रमाण भी प्रस्तुत करते हुए सिद्ध कते हैं कि हनुमान मनुष्य ही थे, न कि वे बन्दर थे। यह प्रमाण तब का है, जब हनुमान लंका में पहुँच तो गए थे किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी सीता जी का पता न कर पाए तो वे सोचने लगे थे कि बिना सीता जी का अता-पता पाए मैं यदि लौटूँगा तो राम जी तथा स्वामी सुग्रीव जी को                   सूचना दूँगा? वहाँ हा हाकार मचेगा। वाल्मीकि ऋषि के                शब्द्दों मेंः-
सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्कि न्धां नगरीमितः।
वानप्रस्थो भविष्यामि ह्यदृष्ट्वा जनकात्मजाम्।।
वा. रा., सुन्दरकाण्ड, सप्तम सर्ग
अर्थः- मैं यहाँ से लौटकर किष्किन्धा नहीं जाऊँगा। यदि मुझे सीता जी के दर्शन नहीं हुए तो मैं वानप्रस्थ धारण कर लूँगा। हनुमान जी को मनुष्य न मानकर बन्दर घोषित करने वाले अपने पौराणिक भाई-बहनों से निवेदन है कि वे अपना हठ त्याग कर यह तथ्य तुरन्त स्वीकार कर लें कि हनुमान सच्चे वैदिक धर्मी मनुष्य थे, न कि वे बन्दर थे क्योंकि वानप्रस्थी बनने की बात सोचना तो दूर क ी बात है, वानप्रस्थ                       होता है, बन्दरों को यह भी ज्ञात नहीं होता। हनुमान को बन्दर मानने वाले लोग तुलसीदास गोस्वामी द्वारा रचित ‘‘हनुमान चालीसा’’ का पाठ करते हैं परन्तु उसमें भी एक प्रमाण ऐसा है जो हमारी बात का समर्थन करता हैः-
हाथ वज्र औ ध्वजा विराजे।
कान्धे मूँज जनेऊ साजे।।
काश! ऐसे लोग इस चालीसा में                                   यह पाँचवा पद बोलते-पढ़ते समय इतना समझ पाते कि इसके अनुसार हनुमान जी अपने कन्धे पर जनेऊ धारण किए फिरते थे तथा बन्दर नहीं, अपितु जनेऊ (= यज्ञोपवीत) तो मनुष्य ही धारण करते हैं।
हनुमान दूरस्थ किसी पर्वत पर जाकर मूर्च्छित लक्ष्मण के उपचार के लिए संजीवनी बूटी लाए थे। यह कार्य भी कोई बन्दर नहीं कर सकता अपितु कोई मनुष्य ही कर सकता था जिसे जड़ी-बूटियों का पर्याप्त ज्ञान हो।
हनुमान से हटकर अब थोड़े विचार उनके समकालीन रामायण के कुछ अन्य पात्रों के विषय में भी प्रस्तुत हैं। इनमें एक प्रसंग वाली की पत्नी तारा से                               है। जब सुग्रीव दूसरी बार वाली को युद्ध के लिए ललकारने गया तो वाली की पत्नी तारा ने अपने पति को राम जी से मैत्री कर लेने की प्रार्थना की परन्तु वाली ने ऐसा न करके सुग्रीव का सामना करने, सुग्रीव का घमण्ड चूर-चूर करने, परन्तु सुग्रीव के प्राण हरण न करने का वचन देकर तारा को वापिस राजप्रसाद में चले जाने को कहा तो-
ततः स्वस्त्ययनं कृत्वा मन्त्रविद् विजयैषिणी।
अन्तःपुरं सह स्त्रीभिः प्रविष्टा शोकमोहिता।।
-वा.रा. किष्किन्धा काण्ड, षोडश सर्ग श्लोक १२
अर्थः- वह पति की विजय चाहती थी तथा उसे मन्त्र का भी ज्ञान था। इसलिए उसने वाली की मंङ्गल-कामना से स्वस्तिवाचन किया तथा शोक से मोहित होकर वह अन्य स्त्रियों के साथ अन्तःपुर को चली गई।
मन्त्र का ज्ञान बन्दरों को अथवा बन्दरियों को नहीं होता, न ही हो सकता है। अतः सिद्ध है कि हनुमान का जिन से मिलना-जुलनादि था, उनकी पत्नियाँ भी मनुष्य ही थीं। यही तारा जब अपने पति वाली को प्राण त्यागते देख रही थी तो अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी बोली-
यद्यप्रियं किंचिदसम्प्रधार्य कृतं मया स्यात् तव दीर्घबाहो।
क्षमस्व मे तद्धरिवंशनाथ व्रजामि मूर्धा तव वीरपादौ।।
– वा. रा. किष्किन्धाकाण्ड, एकविंश सर्ग, श्लोक २५
अर्थः- ‘‘महाबाहो! यदि नासमझी के कारण मैंने आपका कोई अपराध किया हो तो आप उसे क्षमा कर दें। वानरवंश के स्वामी वीर आर्यपुत्र! मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर यह प्रार्थना करती हूँ।’’ इस श्लोक से सिद्ध है कि वाली आर्यों के एक वंश वानर में जन्मा  मनुष्य ही था। इसी प्रकार तारा को भी महर्षि वाल्मीकि ने आर्य पुत्री ही घोषित कियाः-
तस्येन्द्रकल्पस्य दुरासदस्य महानुभावस्य समीपमार्या।
आर्तातितूर्णां व्यसनं प्रपन्ना जगाम तारा परिविह्वलन्ती।।
– वा. रा. किष्किंधा काण्ड, चतुर्विंश सर्ग श्लोक २९
अर्थः- ‘‘उस समय घोर संकट में पड़ी हुई शोक पीड़ित आर्या तारा अत्यन्त विह्वल हो गिरती-पड़ती तीव्र गति से महेन्द्र तुल्य दुर्जय वीर महानुभाव श्री राम के समीप गई।’’
वाली की मृत्यु के पश्चात् अङ्गद व सुग्रीव ने वाली के शव का अन्त्येष्टि-संस्कार शास्त्रीय विधि से कियाः-
ततोऽग्ंिन विधिवद् द    वा सोऽपसव्यं चकार ह।
पितरं दीर्घमध्वानं प्रस्थितं व्याकुलेन्द्रियः।।
संस्कृत्य वालिनं तं तु विधिवत् प्लवगर्षभाः।
आजग्मुरुदकं कर्तुं नदीं शुभजलां शिवाम्।।
– वा. रा. किष्किंधा काण्ड, षड्विंश सर्ग, श्लोक ५०-५१
अर्थः- ‘‘फिर शास्त्रीय विधि के अनुसार उसमें आग लगाकर उन्होंने उसकी प्रदक्षिणा की। इसके बाद यह सोचकर कि मेरे पिता लम्बी यात्रा के लिए प्रस्थित हुए हैं, अङ्गद की सारी इन्द्रियाँ शोक से व्याकुल हो उठीं। इस प्रकार विधिवत् वाली का दाह संस्कार करके सभी वानर जलाञ्जलि देने के लिए पवित्र जल से भरी हुई कल्याणमयी तुङ्गभद्रा नदी के तट पर आए।’’
इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि वाली, सुग्रीव, अङ्गद आदि वेद विहित शास्त्रीय कार्य करते थे। यह भी उनके मनुष्य होने का प्रमाण है।
उपर्युक्त तथ्यों के बाद हम अब सामान्य विश्लेषण करते हुए पौराणिकों से पूछते हैं कि वाली की पत्नी तारा, सुग्रीव की पत्नी रुमा हनुमान की माँ अंजनि मनुष्य योनि की स्त्रियाँ थीं तो उनके माताओं-पिताओं ने उन्हें बन्दरों अर्थात् वाली, सुग्रीव तथा केसरी के सङ्ग                                             दिया था? बन्दरों व स्त्रियों से बन्दरों का जन्म होना अव्यवहारिक व अवैज्ञानिक है। अतः यह सर्वथा अमान्य है कि उक्त पुरुष बन्दर थे। यह भी निवेदन है कि बन्दरों, उनकी पत्नियों, उनके पिताओं तथा उनकी माताओं के नाम नहीं होते, उनके जीवन का कोई इतिहास नहीं होता, खाने-पीने व सोने-जागने के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य वे करते नहीं। फिर ऊपरोक्त पात्रों के नामकरण                       हुए? उनके कार्य-व्यवहार मनुष्यों जैसे-कैसे                   हुए?
वास्तविकता यह है कि वानर एक जाति है। इसे आंग्ल भाषा में सरनेम भी कहते हैं। हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा व हमीरपुर जिलों में नाग जाति के कुछ मनुष्य आपको मिल सकते हैं। नाग                  का अर्थ सर्प है परन्तु वे इस                  को अपने नाम के साथ सहर्ष लिखते हैं। पिछले वर्ष के न्द्र सरकार में कार्यरत एक उच्चाधिकारी जब सेवानिवृ    ा हुए था तो किसी विशेष कारण वश उसका नाम भी दैनिक पत्रों में छपा था। तब पता चला कि वह भी ऊपरोक्त नाग जाति का ही सदस्य था। सन् १९६९ में भारत के राष्ट्रपति पद पर वी.वी. गिरि नामक एक दक्षिण भारतीय व्यक्ति आसीन हुआ था। गिरि                  का अर्थ पर्वत है परन्तु वह पर्वत न होकर मनुष्य ही था। गिरि उसका सरनेम था या उसकी जाति थी। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान, उ    ारप्रदेश तथा कुछ अन्य प्रदेशों में बहुत-से लोग (अधिकतर जन्मना क्षत्रिय) अपने नाम के साथ सिंह                  का प्रयोग करते हैं, जिसका अर्थ शेर है। हरियाणा में बहुत-से लोग मोर जाति से सम्बद्ध हैं और उनके नाम के पीछे मोर                  लिखा होता है। पंजाब के एक राज्यपाल जयसुख लाल हाथी हुए हैं। हरियाणा में सिंह मार नामक जाति के कई व्यक्ति आपको मिल सकते हैं।
इस वर्णन के आधार पर हमारा निवेदन है कि जिस प्रकार नाग, गिरि, मोर, सिंह, हाथी व सिंह मार नामक जातियाँ मनुष्यों की ही हैं, न कि सर्पों, पर्वतों, शेरों, हाथियों व शेरों के हत्यारों आदि की हैं, हालांकि इनके शा    िदक अर्थ ऊपरोक्त ही है। इसी प्रकार रामायण के हनुमान, सुग्रीव, बाली, तारा, रुमा, जाम्बवान व अङ्गद आदि वानर नामक मनुष्य जाति के सदस्य थे, न कि ये बन्दर थे। यह उनके कार्यों व इतिहास से प्रमाणित किया गया है।
– चूना भट्ठियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर (हरियाणा)

सत्पात्र बन सकूँ- रामनिवास गुणग्राहक

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्नासुव ।।
भावार्थ- हे सकल जगत् के उत्पत्ति कत्र्ता समग्र ऐश्वर्य युक्त, शुद्ध स्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिये और जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हंै, वह सब हमें प्राप्त कराइये । (ऋषि भाष्य)
यह मंत्र ऋषि दयानंद को बहुत प्रिय था, यजुर्वेद का भाष्य करते समय ऋषिवर ने इसे प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में आवश्यक रूप से लिखा है । स्तुति प्रार्थनोपासना के मंत्रों का प्रारम्भ भी इसी मंत्र के साथ किया है । स्तुति प्रार्थनोपासना के मंत्रों का शब्दार्थ करते समय महर्षि दयानन्द ने बहुत ही सरल भाषा का प्रयोग किया है । भाषा सरल होने के साथ-साथ बड़ी रोचक, प्रवाहपूर्ण एवं मंत्र के अर्थ को स्पष्ट कर देने वाली है । स्तुति प्रार्थनोपासना के इन आठ मंत्रों पर कई आर्य विद्वानों ने कलम उठाई है, उनमें से कुछ एक के विचारों को मैंने पढ़ा है । मैं जब दैनिक यज्ञ समाज में या कभी घर में करता हूँ तो सदैव ऋषिवर के अर्थ सहित मंत्र पाठ करता हूँ । पाठ करते समय औपचारिकता निभाना मुझे कभी ठीक नहीं लगा, मैं महर्षि पतंजलि के ‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्’ के पालन करने का प्रयास करता हूँ । ऐसा करते समय कई बार मेरे मन में आया कि महर्षि ने इन मंत्रों का जो अर्थ किया है, उस ऋषि के अर्थ को ऋषि की भावना के अनुरूप थोड़ा भाव-विस्तारपूर्वक लिखा जाए ताकि भक्त हृदय आर्य जन उसका पूरा आनन्द ले सकें । मैं अपनी इस सदिच्छा को लम्बे समय से टालता आ रहा था, लेकिन आज (4-1-2015) मेरे हृदय ने कहा कि किसी अच्छे विचार को कार्यरूप देने क¢ समय बहानेबाजी करना ऐसा दोष है जो अपराध की कोटि में रखा जाता है । यह हमारे स्वभाव का पतनशील अंग है, जनहित की भावना को निर्बल बनाता है। मनुष्य को पुण्यों की पूँजी से वंचित करता है । हृदय में उठने वाले हर प्रकार के सद्भावों का पल्लवन उनके क्रियान्वयन पर टिका होता है । सद्भाव-सद्विचार व सद्गुण को व्यवहार के रास्ते विस्तृत धरातल पर विचरने की स्वतन्त्रता नहीं मिलती, जब वो व्यवहार मंे प्रकट होने के लिए हृदय में प्रतीक्षा करते-करते थक जाते हैं, व्याकुल हो जाते हैं, उनका दम घुटता है तो वे निर्बल और निर्जीव होकर निढ़ाल हो जाते हैं । व्यवहार में व्यक्त होने क¢ लिए व्याकुल सद्भाव, सद्विचार व सद्गुण हमारी उपेक्षा व अनदेखी का शिकार होकर अन्दर ही दम तोड़ दें तो हमारा हृदय दुर्भावों, दुर्विचारों व दुर्गुणों क¢ फूलने-फलने का उपजाऊ खेत बनकर रह जाता है और हम न चाहते हुए भी पतन क¢ गर्त में गिरने लगते हंै । सुख-शान्ति, समृद्धि चाहने वालों का पहला कत्र्तव्य है कि वे अपने हृदय में उठने वाले सद्भाव, सद्विचार, सत्संकल्प एवं सद्गुण को व्यवहार का रूप देकर अपने स्वभाव का जीवन्त अंग बनाने में आलस्य प्रदान न करें । ध्यान रहे जो व्यक्ति अपने स्वयं क¢ हृदय में उठने वाले सद्विचारों, सद्भावों व सत्संकल्प का सम्मान नहीं कर सकता, वह जगत् व्यवहार में किसी दूसरे क¢ मानवीय सद्गुणों व सत्कर्माें क¢ साथ कभी भी न्याय नहीं कर सकेगा । मुझे मेरी अच्छाई नहीं सुहाती तो किसी दूसरे की अच्छाई क्यों सुहाएगी ?
लो क्या करने निकले थे, कहाँ जा निकले । चलो सीधे अपने विषय पर आते हैं- महर्षि दयानन्द ने मंत्रार्थ में जो कुछ कहा है हम स्तुति-प्रार्थना की शैली में ऋषि वाक्यों की अन्तर्यात्रा करने निकलंे और अपने मन-मस्तिष्क को इस पूरी यात्रा में साथ ही रखेंगे तो मन्त्रार्थ को आत्मसात करने में सुभीता रहेगा ।
‘हे सकल जगत् क¢ उत्पत्तिकत्र्ता ! ‘समग्र ऐश्वर्य युक्त’ – ऋषि दयानन्द जी ने सविता का अर्थ जगत् निर्माता व सब ऐश्वर्य से युक्त किया है। ‘सविता वै प्रसविता भवति’ के अनुसार सविता का अर्थ बनाने-उत्पन्न करने वाला होता है और जिसने जो बनाया है, वह उसका स्वामी तो हो ही गया। जगत् में जो भी कुछ ऐश्वर्य है, अनमोल दिखने वाला धन है, वह सब परमात्मा ने ही बनाया है, तो वही उस सबका स्वामी ठहरा । इसके साथ ही जान लें कि सविता शब्द ‘षु प्रेरणे’ धातु से बनता है। निर्माण और प्रेरणा दोनों अर्थ सविता शब्द से लिये जा सकते हंै । परमात्मा सबका निर्माण करने और सबको प्रेरित-संचालित करने वाला है । स्तुति प्रार्थनोपासना के छटे मंत्र में कहा है कि जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले होकर हम आपको पुकारें, आपका आश्रय लेवें, उस-उसकी कामना हमारी पूर्ण होवे । अर्थात् हमें जीवन में जो कुछ चाहिए उसे पाने के लिए हमें परमात्मा से ही पुरुषार्थपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए । इससे सिद्ध है कि परमात्मा इस संसार की हर वस्तु को बनाकर उसे अपनी अटल न्यायपूर्ण व्यवस्था के अनुरूप चलाता, प्रेरित करता है ।
‘शुद्ध स्वरूप सब सुखों क¢ दाता परमेश्वर’ । देव शब्द का यही अर्थ ऋषिवर ने यहाँ किया है । सामान्य भाषा में भी देने वाले को देव कहते हैं । क्या दुःख देने वाले को भी ? नहीं सुख या सुखद वस्तु देने वाले को ही देव कहा जाता है । परमात्मा भी सबके लिए सब सुखों का देने वाला है । यहाँ एक व्यावहारिक बात समझ लेनी चाहिए कि परमात्मा अपनी ओर से कभी किसी को सुख या सुखद वस्तुएँ नहीं देता । संसार में ज्ञान से बड़ा कोई दान नहीं, ऐसा महर्षि मनु-‘सर्वेषामेव दानानां ब्रह्म दानं विशिष्यते’ कहते हैं । योगिराज श्री कृष्ण ज्ञान के बारे में लिखते हैं -‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ । अर्थात हमारे जीवन को ज्ञान ही सबसे अधिक पवित्र करने वाला है । जीवन की पवित्रता मानो सब सुखों व सुखद वस्तुओं को प्राप्त करने की पात्रता है । वह परमात्मा अपनी ओर से मनुष्य मात्र को ज्ञान-प्रेरणा निरन्तर देता रहता है । यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम प्रभु प्रदत्त प्रेरणा (ज्ञान) के अनुसार कर्म-व्यवहार करते हुए सब सुखों व सुखद वस्तुओं को प्राप्त करें। परमात्मा द्वारा सुख देना दूसरे प्रकार से भी सिद्ध होता है । हमारी कमाई हुई धन-सम्पत्ति को कोई दुष्ट व्यक्ति छीन या चुराकर ले जाए तो उस चोर को जितना दोषी मानते हैं उससे कहीं अधिक दोषी शासक व शासक की व्यवस्था को भी मानते हंै । शासक की न्याय व्यवस्था अगर हमारी चुराई व खोई चीज को हमें दुबारा दिला दे तो हम उसका धन्यवाद अवश्य करते हैं। ठीक इसी प्रकार से अगर हमारे शुभ कर्माें का यथायोग्य फल ईश्वर की अटल, न्याय व्यवस्था से मिलता है तो उसका दाता ईश्वर को ही मानना चाहिए ।
मंत्र में सविता और देव के अर्थ स्पष्ट हो जाने के बाद दो बातें शेष रह जाती हंै और वे दोनों बातें अत्यन्त स्पष्ट हैं- ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ अर्थात् सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और ‘यद् भद्रं तन्नासुव’ जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कराइये । मंत्र को और सरलता से समझने के लिए ‘विश्वानि दुरितानि‘- सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को-‘परासुव’ दूर करने या परे धकेलने की प्रार्थना को भली भाँति समझना होगा । यहाँ दुर्गुण और दुव्र्यसन से पूर्व सम्पूर्ण शब्द बहुत ही ध्यान देने योग्य है । हमारे जीवन में जितने भी दुर्गुण हैं, जितने भी दुव्र्यसन हैं उन सब को दूर करने की प्रार्थना या पुकार यह सिद्ध करती है कि हमारा जीवन पूर्णतः निर्मल और पवित्र होना चाहिए । एक भी दुर्गुण व दुव्र्यसन मेरे जीवन में शेष न रहे । अगर हम थोडा सा भी दुःख नहीं चाहते तो अपने अन्दर के सब दुर्गुणों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर निकाल फैंकंे । हमारे आन्तरिक दुर्गुणों के कारण हमारे व्यावहारिक जीवन में दुव्र्यसन उत्पन्न होते हैं और दोषों दुव्र्यसनों के परिणाम स्वरूप हमें दुःख भोगने पड़ते हंै । दुःख दूर करने की इच्छा है जिनकी वे दुव्र्यसनों को दूर भगायें । जो दुव्र्यसनों से मुक्त होना चाहते हैं वे अपने दुर्गुणों को समाप्त करने का संकल्प लें । हमारे आन्तरिक दुर्गुण ही हमारे दुव्र्यसनों अर्थात् दुराचरणों, दुष्प्रवृत्तियांे और दुष्कर्मों के बीज हैं और इन्हीं दुव्र्यसनों का परिणाम दुःख है । यह मंत्र हमारे दुःखों को दूर करने का वैदिक उपाय बताता है । आज हम अपने दुःखों को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के मनमाने उपाय करते रहते हंै या किसी गुरु घण्टाल के मायाजाल में फँस कर विविध प्रकार के पाखण्ड पूर्ण कृत्य करते-कराते हैं । हमारे मनमाने उपायों या गुरु घण्टालों के तंत्र-मंत्र से दुःख दूर हो जाते तो संसार में एक भी दुःखी नहीं होता ।
मंत्र में दूसरी प्रार्थना है -‘यद्् भद्रं तन्न आसुव’- अर्थात् जो कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव हंै वह सब हमको प्राप्त कराइये । जब हम अपने जीवन के सब दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर करने का सशक्त संकल्प लेकर अपनी आन्तरिक बुराइयों के विरुद्ध सफल संघर्ष छेड़ देते हैं, दुर्गुणों, दोषों व दुष्कर्मों के पतनशील प्रवाह में निर्जीव तिनके की तरह बहते रहने से आत्मबल पूर्वक मना कर देते हैं और बुराइयों के चक्रव्यूह से बच निकलते हैं तो हमारे सामने अपने हृदय को अच्छाइयों से भरते रहने का प्रश्न खड़ा होता है । यह तो सब जानते हैं कि संसार में ऐसा कुछ नहीं जो किसी प्रकार के गुणों से शून्य हो । ऐसे में हमारा हृदय-मन, बु़िद्ध और चित्त आदि भी गुणहीन स्थिति में नहीं रह सकते । दुर्गुणों को दूर करने के आन्तरिक अभियान के साथ-साथ हमें कल्याण कारक गुणों का आह्वान करना होगा । दुर्गुणों को दूर करके उनके स्थान पर कल्याण कारक गुणों अर्थात् सद्गुणों को बसाना जीवन-निर्माण की आवश्यक प्रक्रिया है । किसी बर्तन में कोई अनावश्यक व अनुपयोगी चीज भरी हो तो जब तक उसमें किसी अच्छी व उपयोगी वस्तु को रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती तब तक हम उस अनुपयोगी चीज को निकाल फैंकने के बारे में प्रायः नहीं सोचते । जब हमें कोई मूल्यवान व उपयोगी वस्तु की आवश्यकता अनुभव होती है तो हम उसे पाने के प्रयास करते हैं । पाने के प्रयास करने से पूर्व बुद्धिमान व्यक्ति उसे सुरक्षित रखने के बारे में सोचता है तो उसे लगता है कि यह जो अनावश्यक चीज इस बर्तन में रखी है, उसे निकाल फैंको और इस बर्तन को स्वच्छ करके उपयोगी वस्तु को इसमें रख दो ।
यही स्थिति मानव के जीवन की है । सांसारिक विषय वासना व परस्पर के राग-द्वेष पूर्ण जीवन जीने वाले को जब किसी सद्ग्रन्थ के स्वाध्याय या सत्संग से यह पता चलता है कि मेरा हृदय जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्य का कबाड बनकर रह गया है, मेरे जीवन में आलस्य, प्रमाद, दीर्घसूत्रता आदि दोष निरन्तर बिगाड़ पैदा कर रहे हैं, ये मुझे सुख-शान्ति, समृ़िद्ध और सन्तुष्टि नहीं दे सकते । ये मेरे जीवन को सफल और सार्थक बनाने में उपयोगी नहीं । यह ज्ञान स्वाध्याय व सत्संग के बिना नहीं होता । अधिकांश लोगों को लम्बे समय तक सत्संग स्वाध्याय करते रहने पर भी यह ज्ञान नहीं होता, लेकिन जिन विवेकशील सज्जनों को यह ज्ञान हो जाता है तो उन्हें कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव की आवश्यकता अनुभव होने लगती है । जब उन्हें सद्गुणों की आवश्यकता अनुभव होती है तो उन्हें लगता है कि मेरे हृदय में तो दुर्गुण जडे़ं जमाये बैठे हैं । जीवन को अच्छा, सुखी और सन्तुष्ट बनाने की प्रबल इच्छा जब तक हृदय में उठ खडी नहीं होती, तब तक हर मनुष्य को अपने हृदय में भरा पड़ा काम-क्रोध आदि दुर्गुणों का कूड़ा-कबाड़ भी काम चलाऊ अच्छा लगता है । जैसे ही उसके मन-मस्तिष्क में कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थों की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है, और वह उन्हें पाने के लिए लालायित होने लगता है, वैसे ही उसे अपने अन्दर के काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि अनुपयोगी और अनावश्यक ही नहीं लगते, बल्कि काँटे की तरह चुभने लगते हैं । इस अवस्था में आकर वह ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ और ‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’ की पुकार करने लगता है । इस अवस्था में सच्चे हृदय से की गई ऐसी प्रार्थना, पुकार ही परमात्मा के निकट सफल होती है ।
‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ का जो अर्थ ऋषि दयानन्द ने किया है, वह बहुत ही चमत्कार पूर्ण एवं जीवन-निर्माण की अन्तःक्रिया को सन्तुलित-सम्यक् ढं़ग से प्रकट करता है । ऋषि लिखते हैं- ‘जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमें प्राप्त कराइये ।’ कल्याण करने वाले गुण, कर्म और स्वभाव की क्रमबद्धता पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है । सुखी, शान्त व आनन्दपूर्ण जीवन के तीन घटक आन्तरिक हैं और पदार्थ बाहरी हैं । कल्याणकारक घटकों में गुण, कर्म और स्वभाव एक पात्रता है और पदार्थ उसमें रखी जाने वाली सामग्री । जिसने तप-साधना से अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याण कारक बना लिया परमात्मा उसक¢ लिए कल्याणकारक पदार्थाें की प्राप्ति सरल और सहज बना देते हैं । जो अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारक बनाने के लिए तप नहीं करते, स्वयं को सद्गुण सम्पन्न सदाचारी एवं सुख का सत्पात्र बनाये बिना ही जो कल्याणकारक सुखद पदार्थाें को छल-बल या कल से हथिया लेते हंै, ऐसे अभिशप्त लोगों के हाथ लगे कल्याण कारक पदार्थ कभी उनको सच्चा सुख नहीं दे पाते । सीधे शब्दों में कहें तो गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारी बनाये बिना हम कल्याणकारी पदार्थाें का सच्चा सदुपयोग नहीं कर सकते । बुद्धिमान लोग काँटों का सदुपयोग बाड़ लगाकर फलों व फसलों की सुरक्षा के रूप में करते हैं दूसरी ओर कुछ मूर्ख लोगों ने पाकिस्तान में पंजाब के गवर्नर के हत्यारे आतंकियों पर गुलाब के फूलों की वर्षा करके भी विश्व के मानवतावादी जन समुदाय के बीच स्वयं को कलंकित कर लिया ।
‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ की अन्तिम लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय वस्तु को रखना चाहते हैं । जो सच्चे अर्थाें में सच्चे हृदय से अपना जीवन सुखी व श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं, उनके लिए ऋषि दयानन्द के शब्दों -‘कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव’ को समझ लेना बहुत ही आवश्यक है । जब हमारे कल्याणकारक गुण हमारे कर्माें के माध्यम से सजीव होकर हमारे स्वभाव का अंग बन जाते हंै, तब जाकर हमारा जीवन कल्याणकारक पदार्थाें को पाने का पात्र बन पाता है । आज के मानव की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने अन्दर की ढ़ेर सारी अच्छाइयों को अपने कर्मों-व्यवहार में उतारने से ड़रता है । जब तक यह डर हमारे जीवन में डेरा डाले रहेगा, तब तक हर सच्चाई और अच्छाई मानव के संकीर्ण स्वार्थ के भार तले दबकर दम तोड़ती रहेगी । पाठक ध्यान रखें कि परमात्मा ने हमारे कल्याण को सरल और सहज बनाने के लिए हमारे हृदय में सत्य के प्रति श्रद्धा और असत्य के प्रति अश्रद्धा स्वाभाविक रूप से प्रदान की है । प्रत्येक मानव का हृदय सदैव सत्य के प्रति श्रद्धालु रहता है, आकर्षित रहता है । असत्य मानव के हृदय को कभी अच्छा नहीं लगता । असत्य मानव के हृदय में सदैव काँटे की तरह खटकता रहता है । मानव-स्वभाव की विचित्रता भी बड़ी अनौखी है । यह सच है कि सरल चित्त के व्यक्ति के हृदय में असत्य काँटे की तरह ही खटकता है, लेकिन जब वो स्वार्थ के खूंटे से बँधकर सत्य को स्वीकार करने का साहस नहीं दिखा पाता और निरन्तर इस असत्य रूपी काँटे से हृदय को लहूलुहान करता रहता है तो कुछ काल ऐसा ही होते रहने के बाद स्वार्थपूर्ति से मिलने वाले क्षणिक सुख के नशे में असत्य रूपी काँटे की इस तीखी चुभन को भी वह भाग्यहीन व्यक्ति ऐसे ही सहन करता रहता है जैसे एक शराबीे मद के लिए उसकी कड़वाहट व तीखेपन को सहन करता रहता है।
कल्याण की कामना वाले व्यक्ति को सांसारिक स्वार्थ पूर्ति से ऊपर उठकर एक अक्षय सुख पर अपना ध्यान केन्द्रित करना होगा । सुधी जन जानते हंै कि झूठ की जितनी शक्ति है, जितनी आयु है, उससे मिलने वाले सुख की शक्ति और आयु भी उतनी ही होगी उससे अधिक नहीं । झूठ सदैव सत्य से भयभीत रहता है, सत्य की एक किरण झूठ को धराशायी कर देती है ठीक इसी प्रकार से असत्य के बल पर सुख शान्ति पाने वाले व्यक्ति सत्य से भयभीत होकर जीवन जीते हंै, उनका सुख सत्य की सम्भावना देखकर ही भाग खड़ा होता है । क्या लाभ उस टूटे-फूटे, डरे-सहमे सुख का ? सत्य से डरकर उल्लू की तरह अँधेरे में कब तक ऐसे सुख को भोगकर सन्तुष्ट होते रहोगे ? वह सुख ही क्या जो अपने इष्ट मित्रों व परिजनों के साथ मिल कर खुले में सार्वजनिक रूप से न भोगा जा सके ? इसीलिए ऋषि दयानन्द कल्याणकारक गुणों को कर्माें में सजीव और साकार करके अपने स्वभाव का अंग बनाने का सांकेतिक प्रेरणा कर रहे हैं । गीता में श्री कृष्ण जी भी शब्दान्तर से यही सन्देश दे रहे हैं कि संसार में सब प्राणी अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभाव के अनुसार ही अपनी समस्त चेष्टाएँ (कर्म) करते हैं इसलिए स्वभाव को ही अच्छा (श्रेष्ठ) बनाओ अपनी बुराइयों को छिपाकर अच्छा दिखने से क्या लाभ ? स्वभाव को श्रेष्ठ बनाने-सुधारने का सच्चा और सरल रास्ता ऋषि दयानन्द बता रहे हैं कि अपने हृदय में सोये पडे़ हुए अपने सद्गुणों को कर्माें में उतारिये । हम जब निरन्तर अपने सद्गुणों को कर्मों का सहारा देते रहेंगे तो एक दिन हमारे सद्गुण हमारे स्वभाव का अंग बना जाएँगें । जब हम अपने सद्गुणों को अपने कर्मों के द्वारा अपने स्वभाव का अंग बना लेंगे तब इस संसार के समस्त कल्याण कारक पदार्थों को प्राप्त करने के अधिकारी-पात्र बन जाएँगे । दुर्गुणों, दुव्र्यसनों और दुःखों से निकल कर कल्याणकारक गुण, कर्म स्वभाव और पदार्थों को प्राप्त करने की अन्तर्यात्रा को मंत्रानुसार ऋषिवर ने जिस रूप में रखी और वह जैसी मेरी समझ में आई वैसी मैंने सच्चे हृदय से, सुधी जन के कल्याण की कामना से प्रकट कर दी । आशा है अध्यात्म पथ के पथिक इससे लाभ उठाएँगे ।
रामनिवास गुणग्राहक
महर्षि दयानन्द सरस्वती स्मृति भवन न्यास
निकट जसवन्त काॅलेज पुराना परिसर
रातानाडा, जोधपुर (राजस्थान)
सम्पर्कः- 07597894991

जर्मन संस्कृत विवाद कितना उचित – डॉ धर्मवीर

गत दिनों मोदी सरकार के एक निर्णय को लेकर समाचार-पत्रों में पक्ष-विपक्ष पर बहुत लिखा गया। सामान्य रूप से इस विवाद से ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कोई बहुत बड़ा निर्णय मोदी ने किया है। जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है। बात केवल इतनी सीधी थी कि पिछली सरकार ने एक अवैधानिक और अनुचित निर्णय लिया था, उसको इस सरकार ने वापस कर लिया। हाँ, इतना सच है यदि सोनिया की सरकार सत्ता में आती तो यह निर्णय नहीं लिया जाता। यह निर्णय सोनिया सरकार ने अपनी सरकार की नीति के परिप्रेक्ष्य में लिया था। इस नीति को समझने के लिए गत वर्षों के क्रियाकलाप पर दृष्टि डालना उचित होगा। इस नीति का मूल कारण था चर्च, जिसे अपने काम करने में सबसे बड़ी बाधा लगती है संस्कृत। मैकाले का मानना था कि इस देश को अपने आधीन करने के लिए इसकी जड़ों को काटना आवश्यक है। भारतीय इतिहास और संस्कृति की जड़ संस्कृत में निहित है। इस देश की जीवन पद्धति संस्कृत में रच बस गई है। प्रातःकाल से सायं और जन्म से मृत्यु तक का यहाँ का सामाजिक जीवन संस्कृत से संचालित होता है। मैकाले ने यहाँ की समझ और समृद्धि को समाप्त करने के लिए सरकार का संरक्षण देकर चर्च का प्रचार-तन्त्र खड़ा किया था। सरकार ने ऐसी नीतियाँ बनाई जिससे यहाँ के लोगों को अपने आधार से पृथक् किया जाये और ईसायत के रूप में अपने प्रति निष्ठावान् बनाया जा सके। यह प्रयास नेहरू से सोनिया गाँधी तक निरन्तर चलता आ रहा है। इसी नीति के अनुसार संस्कृत को विभिन्न पाठ्यक्रमों से धीरे-धीरे बाहर कर दिया गया। सन् २००१ में दिल्ली में हुए मानव-अधिकार सम्मेलन में चर्च के सलाहकार और मानव अधिकारवादी शिक्षक कान्ता चैलय्या ने कहा था– इस देश में हमारे लिए सबसे बड़ी रुकावट संस्कृत भाषा है और इसे हम समाप्त करना चाहते हैं। चैलय्या का कहना था- ‘‘वी वाण्ट टू किल संस्कृत इन दिस कण्ट्री’’ इसी नीति का अनुसरण करते हुए और विभागों की तरह केन्द्रीय विद्यालय के पाठ्यक्रम से भी संस्कृत को हटाया गया। पहले बड़ी कक्षाओं से हटाया फिर पूरे विषय को ही पाठ्यक्रम से समाप्त कर दिया गया। यह समाप्त करने की प्रक्रिया ही वर्तमान सरकार के निर्णय का कारण है। समाचार पत्रों में अधिकांश चर्चा बिना वस्तुस्थिति जाने की गई है, अंग्रेजी समाचार-पत्रों ने और उनके समर्थकों द्वारा मोदी सरकार के निर्णय को गलत सिद्ध करने का धूर्तता पूर्ण प्रयास किया है।

राजीव गाँधी के समय भी संस्कृत को केन्द्रीय विद्यालयों के पाठ्यक्रम से हटाने का प्रयास किया गया था, उस समय संस्कृत-प्रेमियों ने इस निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई लड़ी और सरकार के प्रयास को विफल किया। सरकार ने दूसरी चाल चलकर संस्कृत विभाग से अध्यापकों को उन्नति दे कर विभाग ही समाप्त करा दिये। शिक्षकों के अभाव में छात्रों को संस्कृत पढ़ाता कौन? संस्कृत को समाप्त कर विदेशी भाषाओं को पढ़ाने का प्रावधान सोनिया गाँधी के समय किया गया। उस समय के मानव संसाधन मन्त्रालय के मन्त्री कपिल सि बल ने जर्मनी के साथ समझौता किया, जिसके क्रियान्वयन के लिए केन्द्रीय विद्यालय संगठन ने ५ जनवरी २०११ को एक परिपत्र जारी किया। जिसके चलते २०११-२०१२ के सत्र से कक्षा ६ से ८ तक तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत के स्थान पर जर्मन, फ्रेन्च, चीनी, स्पेनिश जैसी विदेशी भाषायें पढ़ाने के निर्देश दिये गये। जो शिक्षक संस्कृत अध्यापन का कार्य करते थे उन्हें इन भाषाओं का प्रशिक्षण लेने के लिए कहा गया जिससे इन अध्यापकों को इन भाषाओं को पढ़ाने की योग्यता प्राप्त हो सके। यह निर्देश अवैधानिक होने के साथ-साथ अनुचित भी था। जिस व्यक्ति ने जीवन का लम्बा समय जिस भाषा को सीखने और सिखाने में लगाया है उसके इस पुरुषार्थ और योग्यता को नष्ट करना व्यक्ति के साथ तो यह अन्याय है ही इसके साथ ही राष्ट्र की शैक्षणिक और भौतिक सम्पदा को नष्ट करने का अपराध भी है। परन्तु सरकार किसी बात को करने की ठान ले तो फिर उचित-अनुचित के विचार का प्रश्न ही कहाँ उठता है। इस प्रकार संस्कृत को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया और उसके स्थान पर जर्मन पढ़ाना प्रारम्भ हो गया।

यह निर्देश संस्कृत भाषा और संस्कृति के नाश का कारण तो था ही साथ ही साथ यह एक अवैध कदम भी था। असंवैधानिक होने के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध भी था। संविधान के अनुच्छेद ३४३(१) में कहा गया है कि आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में हिन्दी भाषा होगी। संविधान के अनुच्छेद ३५१ में कहा गया है- हिन्दी के विकास करने के लिए आवश्यकता होने पर प्राथमिक रूप से संस्कृत और बाद में अन्य भाषाओं से श द लिए जायें। संविधान में यह भी कहा गया है- भारत सरकार संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं के विकास के लिए प्रयास करेगी। इसमें किसी भी विदेशी भाषा का उल्लेख नहीं किया गया है अतः संस्कृत को हटाकर जर्मन पढ़ाने का निर्णय किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता। केन्द्रीय विद्यालयों की नियमावली के अनुसार भी यह निर्देश अनुचित है। नियमावली के अध्याय १३ के अनुच्छेद १०८ में कहा गया है कि केन्द्रीय विद्यालयों में जो तीन भाषायें पढ़ाई जायेंगी वे हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत होंगी। इसी प्रकार राष्ट्रीय विद्यालय शिक्षा नीति के प्रावधानों के भी यह विरुद्ध है- नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क फॉर स्कूल एजुकेशन में जो त्रिभाषा सूत्र २-८-५ में कहा गया है, इस त्रिभाषा सूत्र में किसी विदेशी भाषा का समायोजन नहीं किया जा सकेगा। इस प्रकार किसी रूप में सोनिया सरकार द्वारा जारी किये गये परिपत्र को उचित ठहराया नहीं जा सकता। ऐसे परिपत्र के निर्देश को मोदी सरकार हटाती है तो यह कार्य कैसे प्रतिगामी कदम कहा जा सकता है। सरकार के निर्णय द्वारा केवल पुरानी गलती को सुधारा गया है। जब सोनिया सरकार ने संस्कृत हटाने का परिपत्र प्रकाशित किया तब २८ अप्रैल २०१३ को दिल्ली उच्च न्यायालय में इसके विरोध में एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जब सरकार के निर्णय पर तथाकथित प्रगतिवादियों ने शोर मचाया तो सरकार ने न्यायालय में शपथ पत्र देकर अपने पुराने निर्णय को वापस ले लिया। नवम्बर २०१४ में शपथ पत्र दायर कर सोनिया सरकार द्वारा जारी पत्र को वापस ले लिया। साथ ही मोदी सरकार ने सितम्बर २०१४ में गोआ इंस्टीट्यूट, मैक्समूलर भवन के साथ संस्कृत के स्थान पर जर्मन पढ़ाने के समझौते की जाँच के आदेश भी दे दिये तथा समझौते का नवीनीकरण भी नहीं किया गया। जहाँ तक सत्र के मध्य में पाठ्यक्रम बदलने की बात है यह आपत्ति इसलिए निराधार है क्योंकि ८वीं कक्षा तक परीक्षा नहीं होती। छात्रों को बिना परीक्षा के उत्तीर्ण किया जाता है। अतः छात्र के परीक्षा परिणाम पर किसी प्रकार का प्रभाव पड़ने वाला नहीं है।

यह एक बहुत सामान्य बात थी कि एक असंवैधानिक निर्देश से संस्कृत को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया था, उस निर्देश को सरकार ने वापस ले लिया। इसमें कैसे जर्मन हटाई गई और किसने संस्कृत थोपी, सब कुछ केवल शोर मचाने के लिए है। अंग्रेजी समाचार-पत्रों ने संस्कृत थोपे जाने का जोर-शोर से विरोध किया। अंग्रेजी की महत्व में बड़े-बड़े लेख लिखे गये। पिछलग्गू हिन्दी समाचार पत्रों ने संस्कृत की महत्व पूजा-पाठ के लिए बताते हुए किसी पर भाषा थोपने का विरोध किया। जो तथ्यों से परिचित थे उन्होंने इन तथाकथित प्रगतिशील लोगों का मुँहतोड़ जवाब दिया। तथ्य व वास्तविकता को जनता के सामने रखा। ऐसे धर्मध्वजी लोगों का उत्तर देना आवश्यक भी है। जो लोग संस्कृत थोपने की बात करते हैं यदि उनमें यदि थोड़ी भी नैतिकता होती तो जिस दिन संस्कृत हटाने का परिपत्र प्रकाशित हुआ उन्हें उसका विरोध करना चाहिए था। इन लोगों ने उस दिन मनमोहन सिंह को बधाई दी, लम्बे-लम्बे सम्पादकीय लिखे थे जब एक असंवैधानिक निर्णय सरकार ने किया था जिसमें हिन्दी के विकास के लिए संस्कृत से शब्दों के ग्रहण करने का प्रावधान हटाकर हिन्दी में उर्दू और अंग्रेजी शब्दों की भरमार कर दी थी। जिस मूर्खता को सारे समाचार दिखाने वाले और छापने वाले समाचार पत्र बड़े गर्व से आज भी प्रस्तुत कर रहे हैं।

सोनिया सरकार की कार्य सूची में हिन्दू को समाप्त करने के लिए हिन्दी और संस्कृत को समाप्त करने का प्रस्ताव कार्य सूची में बहुत ऊपर था। आज ऐसे लोग हिन्दी में न केवल अंग्रेजी, उर्दू शब्द अनावश्यक रूप से भाषा में घुसाते हैं अपितु उन्हें रोमन में लिखकर हिन्दी भाषियों को अंग्रेजी सिखाने का भी काम कर रहे हैं। इस देश पर अंग्रेज शासक था उसका अंग्रेजी थोपना समझ में आता है परन्तु स्वतन्त्रता के बाद अंग्रेजी प्रशासन, विधान मण्डल, शिक्षा, न्याय की भाषा बनना यह सबसे बड़ा थोपना है। अंग्रेजी भाषा एक विषय के रूप में पढ़ाई जा सकती है परन्तु इस देश का दुर्भाग्य यह है कि यह हमारी शिक्षा का माध्यम बना दी गई है। हम आज स्वतन्त्र होकर भी अंग्रेजी के ही आधीन हैं। क्या पराधीनता से मुक्त करने का प्रयास करना थोपना कहा जायेगा, संस्कृत को मृत भाषा या संस्कृत को देवी-देवताओं की स्तुति भाषा बताकर उसके महत्व को कम करना नहीं है। जो भाषा इस देश पर दो सौ वर्षों से थोपी जा रही है उसका विरोध तो किया नहीं, संस्कृत के विरोध का बहाना कर लिया। वेद में भाषा के महत्व को रेखांकित करते हुए वेदवाणी को राष्ट्र में ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाली कहा है-

अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम्।

– धर्मवीर

 

ओ३म् वह सबका स्वामी है। रामनिवास गुणग्राहक

ओं हिरण्य गर्भः समवत्र्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकऽ आसीत्।
स्दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विद्येम।।
जो स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करने हारे सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि को धारण कर रहा है। हम लोग उस सुख स्वरूप, शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अति प्रेम से विशेष भक्ति किया करें। (ऋषि भाष्य)
परमात्मा स्वयं प्रकाश स्वरूप तो है ही साथ ही वह संसार के समस्त प्रकाश करने वाले सूर्य चन्द्रमा आदि लोकों को धारण भी कर रहा है। यजुर्वेद का बड़ा सर्वज्ञात मंत्र है- ‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्य वर्णं तमसः परस्तात्’। उपासक समाधि-अवस्था में परमात्मा को पाकर, उस न्यारे-प्यारे प्रभु का साक्षात्कार करके आनन्द विभोर होकर सहसा कह उठता है- अरे। मैंने पा लिया उसे, उस महान् पुरुष को, जो सारे ब्रह्माण्ड़ में सुखपूर्वक शयन करता हुआ सब भक्तजनों को सतत् सुख प्रदान कर रहा है। शरीर रूपी पुरी में शयन करने के कारण मुझ जीवात्मा को पुरुष कहा जाता है और वह परम् पुरुष इस अनन्त सी दिखने वाली ब्रह्माण्ड़ पुरी में शयन कर रहा है। आहा। कैसा है वह? आदित्य वर्ण है। चमक और प्रकाश के लिए हमारे सामने सूर्य से बढ़कर कोई उदाहरण है ही नहीं। वह प्रभु भी आदित्य वर्ण है, सूर्य के समान चमकीला है, प्रकाश स्वरूप है। सुना है कि सूर्य में भी कुछ स्थान प्रकाश रहित है तो क्या परमात्मा भी…….अरे नहीं रे। परमात्मा में तो जितने भी गुण हैं वे सब पूर्णता से हैं। वह परम् पुरुष होने के साथ ही पूर्ण पुरुष भी है। उसका स्वरूप कहीं भी किंचित् भी प्रकाश शून्य नहीं है, वह तमस् अर्थात् अज्ञान-अन्धकार से नितान्त परे है। वह तो पूर्ण प्रकाशस्वरूप है, उसके प्रकाश की तुलना या उपमा संसार के किसी प्रकाशमान पदार्थ से नहीं की जा सकती। ऋग्वेद में कहा है-‘इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिः आगात् चित्रः प्रकेतो’ (१‐११३‐१), ‘इदं ज्योतिषाम् श्रेष्ठं ज्योतिः’= संसार में प्रकाश करने वाले इन समस्त प्रकाशकों में वह परमात्मा अतीव प्रकाशस्वरूप है। उस परम् प्रकाश प्रभु को, चित्रः प्रकेतः आगात् = अद्भुत प्रज्ञा व पुरुषार्थसम्पन्न पुरुष ही प्राप्त कर सकता है। कठोपनिषद् का ऋषि भी उद्घोष कर रहा है कि सूर्य चन्द्रमा व विद्युत की चमक भी उसकी चमक, उसके प्रकाश के सामने कुछ नहीं, इस लोक-अग्नि की तो चर्चा ही क्या? वेद बता रहा है कि विलक्षण गुण, कर्म स्वभाव वाला, अद्भुत प्रज्ञा (बुद्धि) और पुरुषार्थ (कार्य-व्यवहार) वाला धर्मनिष्ठ विद्वान् ही उस परमप्रकाश स्वरूप प्रभु को प्राप्त कर सकता है। समाधि-प्राप्त साधक ही- ‘वेदाहमेतं पुरूषं महान्तं’ कह सकता है। उसी की आत्मज्योति तप-साधना के द्वारा इतनी सक्षम व समर्थ हो सकती है जो उस परम् ज्योति का साक्षात् कर सके।
निर्धन-अभावग्रस्त व्यक्ति को एकाएक अपार धनराशि मिल जाए तो वह उसे सम्भाल नहीं पाता हमारी आँखों को देखने के लिए प्रकाश चाहिए, वह प्रकाश कम होगा तो असुविधा होगी लेकिन बहुत अधिक हो तो आँखें चुँधिया जाती हैं। बिजली चमकती है तो हमारी आँखंे स्वतः बन्द हो जाती है। ज्येष्ठ मास में दोपहर एक बजे कड़क-तेज धूप हो तो प्रायः सभी को धूप के काले चश्मे का सहारा लेना पड़ता है। स्पष्ट है कि हमारी सामथ्र्य जितनी होगी हम उतने ही किसी गुण या वस्तु का लाभ उठा सकते हैं। इसीलिए वेद बताता है कि उस परम् प्रकाशस्वरूप प्रभु को अद्भुत गुण सम्पन्न साधक जो तप-साधना के द्वारा अपना सामथ्र्य उतना बढ़ा लेते हंै, वे ही प्राप्त कर सकते हैं। तप के बारे में ऋषि कहते हैं- ‘कायेन्द्रिय सिद्धिऽशुद्धि क्षयात् तपसः’ (यो.२‐५३) शरीर व इन्द्रियों की अशुद्धियों को नष्ट करके इन्हें साधना के योग्य बनाना ही तप है। ‘तपति दुःखी भवति, तप्यते समर्थो वा भवति येन तत् तपः’ अर्थात तप करने वाला प्रथम तप के कारण दुःखी होता है और आगे चलकर वह इस तप से प्रभु प्राप्ति का सामथ्र्य तक पा लेता है। प्रसंगवश अत्यन्त उपयोगी समझते हुए यहाँ तप का स्वरूप भी बतना उपयोगी रहेगा क्योंकि तप के बारे में हमारे देश में बहुत भ्रान्तियाँ पनप रही हैं। आज हम किसी भी जटाधारी, राख लपेटे हुए निरक्षर भट्टाचार्य पाखण्ड़ी को देखकर उसे तपस्वी समझ बैठते हैं और उसकी सेवा को धर्म मानते हैं। हमारे ऋषि लिखते हैं- ‘सत्यं तपो दमस्तपः स्वाध्याय स्तपः (तैत्तÛ)’ अर्थात् सत्य बोलना, सत्याचरण करना तप है। मन-इन्द्रियों का दमन करना तप है तथा वेद आदि सद्ग्रन्थों का श्रद्धापूर्वक नित्य पढ़ना तप है। महर्षि मनु के शब्दों में- ‘वेदाभ्यासहि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते’ (२‐१४१) अर्थात् वेद को स्वीकार करना, वेदमंत्रों पर चिन्तन-मनन और विचार करना, वेदपाठ करना, वेदमंत्रों का जाप करना तथा वेद का प्रचार-प्रसार करना, उपदेश करना- इन सब को मिलाकर वेदाभ्यास कहते हंै और इन पाँचों कर्मों में लगे रहने को महर्षि मनु परम् तप मानते हैं। योगदर्शन सूत्र २‐२३ के भाष्य में महर्षि व्यास लिखते हैं- ‘तपो द्वन्द्व सहनम्’- अर्थात् अपने कत्र्तव्य कर्म को करते हुए सर्दी-गर्मी, धूप-छाँव, सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-हानि, सफलता-असफलता, राग-द्वेष आदि से विचलित हुए बिना लगे रहना, कत्र्तव्य कर्म करते रहना ही तप कहलाता है। ऐसे तप करने वाले को ही परमात्मा के प्रकाश स्वरूप का साक्षात् होता है।
स्वप्रकाश स्वरूप परमात्मा ही प्रकाश करने हारे सूर्य-चन्द्रमा आदि को धारण कर रहा है। इसी मंत्र में आगे चल कर ‘सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां’ बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा है- ‘सो परमात्मा इस पृथ्वी और सूर्यादि को धारण कर रहा है। ऋषि ने स्तुति प्रार्थनोपासना के पाँचवे मंत्र में इस बात को दो बार कहा है। ऋषि ने स्तुति प्रार्थनोपासना के लिए जिन मंत्रों का चयन किया है, उनमें परमात्मा को इस सारे ब्रह्माण्ड़ का निर्माता, संचालक और स्वामी सिद्ध करने का भूरिशः प्रयास किया गया है। इन मंत्रों का अर्थ सहित नित्य पाठ करने से कम से कम मेरे मन-मस्तिष्क पर तो यह प्रभाव पड़ा है कि मैं स्वयं को सदैव परमात्मा की निगरानी और नियंत्रण में अनुभव करता हूँ और ऐसी अनुभूति मुझे निर्भय और निर्दोष बनाने में बहुत सहायक है। पाठक स्वस्थ चित्त से विचार करें कि संध्या में आये अघमर्षण मंत्रों में परमात्मा को इस विश्व ब्रह्माण्ड़ का रचयिता और नियन्ता ही सिद्ध किया है। परमात्मा ने अपने ऋत ज्ञान और सत्रूप प्रकृति से तप पूर्वक इस ब्रह्माण्ड़ को बनाया। उसी ने सूर्य को बनाया और उसी ने दिन रात आदि को बनाकर इस निर्मित ब्रह्माण्ड़ को स्वाभाविक रूप से अपने नियंत्रण में किया हुआ है। तीसरे मंत्र में केवल यही प्रकट किया है कि परमात्मा ने सूर्य चन्द्र आदि विश्व को जैसे अब बनाया है वैसे ही पूर्व कल्प में बनाया था और ऐसा ही आगामी कल्पों में बनाएगा। इन तीन मंत्रों को महर्षि ने अघमर्षण नाम दिया है। वेद कहता है- ‘ऋतस्य धीतिर्वृजनानि हन्ति’ (ऋ 4.23.8) अर्थात् ऋत के धारण करने, ध्यान करने और चिन्तन-मनन करने से हमारी पाप वासनाएँ नष्ट होती हैं। अर्थात् परमात्मा द्वारा इस सृष्टि के बनाने और चलाने का वर्णन जहाँ भी आया है, जिन मंत्रों में ऐसा वर्णन है, उनके ध्यान और चिन्तन से हमारे अन्दर की पाप वृत्ति नष्ट होती है।