स्तुता मया वरदा वेदमाता-९

सांमनस्य सूक्त के दूसरे मन्त्र में प्रथमशब्द  था-अनुव्रत, जिसका अभिप्राय सन्तान का पिता के अनुकूल आचरण वाला होना है। इस मन्त्र में घर की सुख-शान्ति के लिए परिवार के सभी सदस्यों का सहज होना आवश्यक है। जहाँ सन्तान का पिता के अनुकूल आचरण वाला होना कहा है, वहीं पर सन्तान के माता के साथ कैसा व्यवहार हो, इसके लिये कहा गया है- माता भवतु संमना अर्थात् सन्तान का मन भी माता के अनुसार होना चाहिए। सन्तान के व्यवहार होना कहा गया है। यहाँ शंका हो सकती है कि माता-पिता का व्यवहार क्यों नहीं सन्तान के अनुकूल होना चाहिए? इसका उत्तर  है- सामान्य रूप से माता-पिता का व्यवहार सन्तान के साथ प्रेमयुक्त और हितकारी होता ही है। व्यवहार के बनने-बिगड़ने की सम्भावना तो सन्तान के व्यवहार की है। घर में सन्तान के मन में यह भाव रहना आवश्यक है कि उनके माता-पिता, उनसे प्रेम करते हैं और उनका भला चाहते हैं। घर में बच्चों का मन अपने बड़े-छोटे भाई-बहनों के साथ होने वाले व्यवहार से प्रभावित होता रहता है। माता-पिता कभी छोटों को अधिक स्नेह करते दीखते हैं, तो कभी बड़ों को अधिक मह      व देते हैं। इससे साथ के बच्चों में प्रतिकूल प्रभाव होने की सम्भावना सदा ही बनी रहती है, यही अतः सन्तानों का माता-पिता से और परस्पर सम्बन्ध ठीक बना रहे, यही इस मन्त्र का विशेष भाव है।

बच्चों के व्यवहार के सामान्य बने रहने का एक मह     वपूर्ण बिन्दु है-पति-पत्नी के मध्य का व्यवहार। यही बच्चों के लिए आदर्श भी होता है और प्रेरक भी। माता-पिता जैसे परस्पर बोलते, व्यवहार करते हैं, वैसा ही बच्चे करते हैं, इसलिए मन्त्र में कहा गया है- जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु। अर्थात् पत्नी मधुर वाणी का व्यवहार करे। यदि परस्पर व्यवहार की भाषा कठोर होगी तो बच्चे भी वैसा ही सीखेंगे।

एक बार दिल्ली के बस अड्डे पर एक व्यक्ति अपना सामान एक बस से उतार कर दूसरी बस में ले जाना चाहता था। वह पहले कुछ सामान और अपनी तीन-चार साल की बच्ची को सामान के पास खड़ी कर पुनः शेष सामान व पत्नी को लेने बस की ओर बढ़ा, तो बच्ची ने अपनी बात कहते हुए पिता से कहा- पापा आपमें तो अक्ल ही नहीं है! यह बात इतने ऊँचे स्वर से कही गई थी कि पास खड़े यात्रियों का ध्यान उस पिता-पुत्री की ओर जाना स्वाभाविक था। बच्ची के पिता ने कुछ लज्जा का अनुभव करते हुए बच्ची को डाँटना चाहा तो मैंने उस व्यक्ति से कहा- भाई साहब, यह दोष बच्ची का नहीं है। आपकी पत्नी, आपको इतने मधुर सम्बोधन से पुकारती होगी, वही तो बच्ची कर रही है। आप उसे व्यर्थ ही डाँट रहे हैं। इसलिए बच्चों पर अच्छा प्रभाव डालने के लिए घर के वातावरण का अच्छा होना आवश्यक है।

मन्त्र में पत्नी को मधुमतीं वाचम्– मधुर वाणी बोलने के लिये कहा गया है, वहीं ऋषि दयानन्द संस्कार विधि के गृहाश्रम प्रकरण में इस मन्त्र का अर्थ करते हुए शान्तिवान् का अर्थ करते हैं- पति को भी पत्नी की बात शान्त भाव से सुननी चाहिए। सामान्य रूप से घर में एक ही बात बहुत बार कही-सुनी जाती है, इस कारण सुनने वाले को उससे आक्रोश आने लगता है। आक्रोश से सामने वाला भी आक्रोश में आ जाता है। जब कोई काम पत्नी या बच्चों के द्वारा बार-बार किया जाता है और घर के स्वामी को वह पसन्द नहीं है, तब आक्रोश, क्रोध, तनाव की स्थिति बनती जाती है।

घर में बच्चे भी अपने बारे में बार-बार टिप्पणियाँ सुनना पसन्द नहीं करते। माता-पिता इस बात पर ध्यान नहीं देते और बच्चों में प्रतिक्रिया होने लगती है। बच्चे या तो ऐसे माता-पिता से भयभीत होने लगते हैं, उनसे बचते हैं, उनसे संवाद स्थापित नहीं करना चाहते अथवा धृष्टता से उस कार्य को बार-बार करना चाहते हैं। ये दोनों ही परिस्थितियाँ घर के वातावरण को तनावपूर्ण बनाने के कारण बनती हैं। विशेष कर बच्चे अपने साथी या अतिथि के सामने डाँट या टिप्पणी सुनना नहीं चाहते। माता-पिता कि इस बात पर बच्चों के मन में कुण्ठा बनने लगती है, अतः घरेलू परिस्थितियों को सहज सामान्य रखने की नितान्त आवश्यकता है। वेद जहाँ पत्नी के लिए मधुर वाणी बोलने की बात करता है, वहीं पति को पत्नी की बात शान्तिपूर्वक सुनने का निर्देश करता है।

विवाह संस्कार में भी घर के वातावरण को अच्छा रखने के लिए सुनने का निर्देश दिया गया है- मम वाचं एकमना जुषस्व। यह मन्त्र दोनों द्वारा बोला जाता है। दोनों परस्पर कह रहे हैं- तुम मेरी बात को एकाग्र मन से सुनो। एकाग्रता से सुनने पर बात समझ में आती है, देर तक स्मरण रहती है और बात करने वाले के मन में सन्तुष्टि भी होती है, अतः मन्त्र में सन्तान को माता-पिता के अनुकूल आचरण वाला, पति-पत्नी को एक दूसरे की बात को शान्ति से सुनने वाला और मधुर वाणी बोलने वाला बनने के लिए कहा गया है।

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