स्तुता मया वरदा वेदमाता-११

येन देवा न वियन्ति नो च विद्वषते मिथः।

तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः।।

अथर्व. ३.३०.४

मन्त्र में घर के बढ़ाने की बात है। यहाँ इसके लिए ब्रह्म शब्द  कर प्रयोग किया गया है। ब्रह्म शब्द ईश्वर का भी वाचक है, क्योंकि वह सबसे बड़ा है। इसी प्रकार ज्ञान को भी ब्रह्म कहा जाता है। जो ज्ञान में सबसे बढ़कर है, उसे ब्रह्मा कहा गया है। इसी कारण संसार के प्रारम्भ में जो सबसे ज्ञानी पुरुष हुआ, उसका भी नाम ब्रह्मा है। इसके लिए उपनिषद् में कहा गया है, ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव। देवताओं में प्रथम ब्रह्मा हुआ। आज भी यज्ञ आदि कर्मों में जो अधिक जानकार होता है, उसे ही हम अपना मार्गदर्शक चुनते हैं। उसे ब्रह्मा बनाते हैं।

मन्त्र में घर को भी बड़ा बनाने की बात की गई है। मन्त्र कहता है- मैं तुम्हारे घर को बड़ा बनाना चाहता हूँ। घर बड़ा होता है, समृद्धि से। घर को समृद्ध करने का उपाय इस मन्त्र में बताया गया है। उपाय क्या हो सकता है? उपाय है संज्ञानम्। संज्ञान का शास्त्रीय अर्थ ज्ञान है, चेतना है। हम इसे सामान्य भाषा में कहें तो समझ कह सकते हैं। घर को बड़ा बनाने के लिए, सम्पन्न या समृद्ध बनाने के लिए घर में रहने वाले सदस्यों को समझदार बनना होगा। सभी सदस्य समझदार होंगे, तभी घर परिवार समृद्ध होगा। घर में सबका समझदार होना आवश्यक है। एक भी नासमझ व्यक्ति घर की व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करके रख देता है। घर में सबकी समझदारी से ही व्यवस्था बनी रह सकती है। आजकल समझदार का अर्थ चालाक या स्वार्थी भी हो जाता है। लोग कहते हैं- यह व्यक्ति बड़ा समझदार है, उसे अपना काम बनाना आता है। ऐसे शब्द श्रेष्ठ अर्थ को नहीं देते, इसलिये दुनियादार, समझदार, व्यावहारिक आदि शब्द सदा उचित और श्रेष्ठ अर्थ में ही प्रयोग में नहीं आते, परन्तु वेद में इस समझदारी की कसौटी भी दी है। वेद कहता है- समझदार देव होते हैं। मनुष्यों को समझदार बनने के लिए देवों के गुण अपने में धारण करने होंगे। देवों का देवत्व जिन गुणों से आता है, उसे देवों के कर्म से समझा जा सकता है। देवों का एक पर्यायवाची शब्द है- अनिमेष। ऐसा माना जाता है कि देवता लोग कभी पलक नहीं झपकाते। क्यों नहीं झपकाते, इसे समझाने के लिये पुराण में कथा आती है। देवताओं ने और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया। जो पहले मिला वह असुरों ने लिया, जो बाद में मिला वह देवताओं ने लिया। पहले मिलने वाली वस्तुओं में विष था, जिसे बाँटने के लिए कोई तैयार ही नहीं था, जो शिव के कण्ठ का अलंकरण बन गया। अन्त में अमृत का कलश निकला, जिस पर देवताओं ने अधिकार कर लिया। इसी अमृत के कारण देवता अमरता को प्राप्त हुए। असुर इस अमृत को पाने के लिए सतत संघर्षरत हैं, इस कारण देवताओं को अमृत की रक्षा के लिए सतत् जागना पड़ता है। वे इतने सावधान हैं कि पलक भी नहीं झपकाते। पलक झपकने की असावधानी भी उनसे अमृत कलश के छीने जाने का कारण बन सकती है। देवताओं के पास अमृत ही नहीं रहा तो देवत्व कैसे रहेगा? संस्कार विधि में बालक की दीर्घायु की कामना करते हुए जो मन्त्र पढ़े गये हैं, उनमें एक मन्त्र में कहा गया है- देवताओं की दीर्घायु का कारण अमृत है। उनके पास अमृत है, इसलिए वे दीर्घजीवी हैं- देवा आयुष्मन्तः ते अमृतेनायुष्मन्तः। अतः देव दीर्घजीवी अमृत से हैं। इसका अभिप्राय है कि जो मनुष्य समृद्ध होना चाहता है, उसे सावधान रहना होगा। सावधानी हटते ही दुर्घटना घटती है।

विवाह संस्कार में सप्तपदी कराते हुए चौथे कदम को मयोभवाय चतुष्पदी भव कहा है। यहाँ यह तो कह दिया, परन्तु कोई वस्तु नहीं बताई। अन्न के लिये पहला कदम, बल के लिये दूसरा, समृद्धि के लिये तीसरा, वैसे ही सुख के लिए चौथा। अब समझने की बात है कि समृद्धि के लिये जब तीसरा कदम कह दिया था तो चौथा कदम सुख के लिये कहने की क्या आवश्यकता थी? इससे पहले अन्न, बल और धन प्राप्त करने की बात कह चुका है, फिर पृथक् से सुख के लिये प्रयास करने की आवश्यकता कहाँ पड़ती है? परन्तु पृथक् कहने का अभिप्राय है, इन सब साधनों के होने के बाद भी घर-परिवार में सुख हो, यह आवश्यक नहीं है। भौतिक साधनों का अभाव कष्ट देता है, परन्तु वे मुख्य रूप से शरीर तक ही सीमित रहते हैं। उन कष्टों के रहते हुए भी मनुष्य सुखी रह सकता है, परन्तु साधनों के रहते सुख का होना आवश्यक नहीं। सुख मानसिक परिस्थिति है, जबकि सुविधा शारीरिक वस्तु के अभाव में शारीरिक श्रम बढ़ जाता है, इतना ही है। सुख पाने के लिए मनुष्य के मन में देवत्व के भाव जगाना आवश्यक है, अतः मन्त्र में देवत्व के बाधक भावों को दूर करने के लिए कहा गया है।

 

ऋग्वेद का दसवा मंडल क्या बाद में जोड़ा गया – मिथक से सत्यता की ओर

पश्चिम में कोई एक तथाकथित विद्वान हुए थे – नाम था मैकडोनाल्ड – इन महाज्ञानी व्यक्ति ने अपने साहित्य में लिखा था की ऋग्वेद का दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया – अनेको भारतीयों ने भी इस किताब को उस समय पढ़ा था – और बिना जाने सोचे समझे – तथ्य की जांच किये मान लिया की हाँ ऋग्वेद का दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया – भाई दिक्कत ये है की मेकाले की अघोषित भारतीय संताने ही इस देश की जड़ खोदने में लग गयी – क्योंकि मेकाले की शिक्षा पद्धति ही यही थी – और ईसाइयो को विश्वास था की यदि वो आर्यो को उनकी ही धार्मिक पुस्तको से नीचे दिखा दे तो ईसाई आसानी से इस देश का इसाईकरण कर सकते हैं।

मगर भारतीय मानव समाज में आर्यो का “ज्ञान सूर्य” उदय हुआ था – जिसका नाम था ऋषि दयानंद – उसने इन ईसाइयो की ऐसी पोल खोली थी – और वैदिक सिद्धांतो का ऐसा डंका बजाया की आज तक और आने वाले भविष्य में भी वेदो का मंडन होता रहेगा – हर आक्षेप का जवाब ऋषि ने दिया – बस जरुरत है उस पुस्तक को सही से पढ़ने की – पुस्तक का नाम –

“सत्यार्थ प्रकाश”

खैर ये बात हुई ईसाइयो की धूर्तता की जिसका खंडन ऋषि ने किया।

अब हम आते हैं मैकडोनाल्ड के आक्षेप पर – वो कहते हैं – ऋग्वेद का दशम मंडल बाद में जोड़ा गया है – जिसके लिए वो दो तर्क देते हैं :

1. भाषा की साक्षी अनुसार ऋग्वेद में पहले ९ मंडल थे बाद में दसवा जोड़ा गया।

2. पद की साक्षी अनुसार ऋग्वेद में पहले ९ मंडल थे बाद में दसवा जोड़ा गया।

अब इनके आक्षेपों पर एक पुस्तक “वैदिक ऐज” जो एक भारतीय स्वघोषित विद्वान ने ही लिखी थी – इनके तर्कों का बिना खोजबीन किये समर्थन किया –

लेकिन ये भूल गए की ऋषि दयानंद, सत्यार्थ प्रकाश और उसके अनुयायी सभी आक्षेपों का जवाब देने में सक्षम हैं। लिहाजा एक पुस्तक वैद्यनाथ शास्त्री जी ने लिखी थी जो ऐसे अनेक पाश्चात्य लोगो के अनैतिक विचारो को खंड खंड कर देती है – ऐसे मूर्खता पूर्ण विचारो का शास्त्री जी ने बहुत ही उत्तम रीति से जवाब दिया था देखिये :

दशम मंडल और अन्य मंडल में कोई भी ऐसा भाषा – पद नहीं पाया जाता है जो यह सिद्ध करे की दशम मंडल पश्चात में जोड़ा गया। जबकि वैदिकी परंपरा में ऋग्वेद का दूसरा नाम दाश्तयी है। यास्क मुनि ने 12.80 “दाश्तयीषु” शब्द का प्रयोग किया है। यह साक्षात प्रमाण है की ऋग्वेद में १० मंडल सर्वदा ही रहे। अन्यथा दाश्तयी नाम का अन्य कोई कारण नहीं।

त्वाय से अंत होने वाला पद केवल दशम मंडल में ही पाया जाता है यह भी वैदिक एज के कर्ताका कथन मात्र है। ऋग्वेद 8.100.8 में ‘गत्वाय’ पद आया है जो त्वाय से अंत हुआ है। ‘कृणु’ और ‘कृधि’ प्रयोग भी पहले मंडलों में पाये जाते हैं। ‘कुरु’ का प्रयोग पाया जाना यह नहीं सिद्ध करता की यह प्राकृतिक क्रिया भाग हिअ। प्राकृत का यह प्रयोग है – इसका कोई प्रमाण नहीं। कृञ धातु का ही वेद कृणु, कृधि प्रयोग भी है और उसी का कुरु भी प्रयोग है। ‘प्रत्सु’ पद का प्रयोग न होने से कुछ बिगड़ना नहीं। ‘पृतना’ पद को भी व्याकरण के नियमनुसार अष्टाध्यायी 6.1.162 सूत्र पर पढ़े गए वार्तिक के अनुसार ‘पृत’ आदेश हो जाता है। ‘पृत्सु’ भी निघन्टु में संग्राम नाम में है और ‘पृतना’ भी (निघन्टु 2.17) । ‘पृतना’ निघण्टु 2.3 में मनुष्य नाम से भी पठित है। ‘पृतना’ पद ऋग्वेद 10.29.8, 10.104.10 और 10.128.1 में आया है। ‘पृतनासु’ 10.29.8, 10.83.4 और 10.87.19 में पठित है। ऐसी स्थिति में यदि ‘पृत्सु’ पद का प्रयोग न भी आया तो कोई हानि नहीं। निघण्टु 2.3 में में ‘चर्षणय’ मनुष्य नाम में पठित है। ऋग्वेद 10.9.5, 10.93.9, 10.103.1,10.126.6, 10.134.1 और 10.180.3 में ‘चर्षणीनाम’ पद आया है। 10.89.1 में चपणीधृत पद भी आया है। यदि ‘विचपणी, प्रयोग नहीं है तो इससे कोई परिणामांतर निकालने का अवकाश नहीं रह जाता है।

लेखक ने आक्षेप लगाये अनेक पदो पर विस्तृत जानकारी देते हुए सिद्ध किया है की ऋग्वेद का दशम मंडल अथवा अन्य भी कोई मंडल बाद में नहीं जोड़ा गया।

लेखक ने एक जगह पाश्चात्य विद्वानो और भारत में मौजूद मेकाले की बढ़ाई करने वाली अवैध संतानो को ताडन करते हुए स्पष्ट बात लिखी है :

पाश्चात्य विचारको ने पूर्व से ही एक निश्चित अवधारणा बना ली है अतः उस लकीर को बराबर पीटते रहते हैं। यही बात वैदिक ऐज के लेखक ने भी की है। वेद के आंतरिक रहस्य का ज्ञान तो किसी को है नहीं – अपनी तुक मार रहे हैं।

बहुत ही सैद्धांतिक बात करते हुए लेखक ने सभी आक्षेपों का बहुत सुन्दर और तार्किक जवाब दिया है।

महाभारत की १८ अक्षोहिणी सेना और कुरुक्षेत्र का क्षेत्रफल

भारतीय इतिहास और महाभारत युद्ध को झूठा कहने वालो के मुह पर जोरदार तमाचा लगाता ज्ञान वर्धक लेख :

युद्ध के लिए आवश्यक सैनिक, रथादि वाहन, घुड़सवार आदि का वर्गीकरण और सेना की संरचना।

अक्षौहिणी प्राचीन भारत में सेना का माप हुआ करता था। ये संस्कृत का शब्द है। विभिन्न स्रोतों से इसकी संख्या में कुछ कुछ अंतर मिलते हैं। महाभारत के अनुसार इसमें २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, ६५, ६१० घुड़सवार एवं १,०९,३५० पैदल सैनिक होते थे। महाभारत, (आदि पर्व – २. १५-२३)

इसके अनुसार इनका अनुपात १ रथ:१ गज:३ घुड़सवार:५ पैदल सैनिक होता था। इसके प्रत्येक भाग की संख्या के अंकों का कुल जमा १८ आता है। एक घोडे पर एक सवार बैठा होगा, हाथी पर कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है, एक पीलवान और दूसरा लडने वाला योद्धा, इसी प्रकार एक रथ में दो मनुष्य और चार घोडे रहे होंगें, इस प्रकार महाभारत की सेना के मनुष्यों की संख्या कम से कम ४६,८१,९२० और घोडों की संख्या, रथ में जुते हुओं को लगा कर २७,१५,६२० हुई इस संख्या में दोनों ओर के मुख्य योद्धा कुरूक्षेत्र के मैदान में एकत्र ही नहीं हुई वहीं मारी भी गई।

अक्षौहिणी हि सेना सा तदा यौधिष्ठिरं बलम्।
प्रविश्यान्तर्दधे राजन्सागरं कुनदी यथा ॥
(5.49.19.0.6 उद्योगपर्व, एकोनविंशोऽध्यायः (19) श्लोक 6)
महाभारत के युद्घ में अठारह अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई थी।

महाभारत के आदिपर्व और सभापर्व अनुसार
अक्षौहिण्या: परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम्।
अक्षौहिणी सेना में कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते है? इसका हमें यथार्थ वर्णन सुनाइये, क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है।

यथावच्चैव नो ब्रूहि सर्व हि विदितं तव॥ सौतिरूवाच
उग्रश्रवाजी ने कहा- एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े-बस, इन्हीं को सेना के मर्मज्ञ विद्वानों ने ‘पत्ति’ कहा है॥

एको रथो गजश्चैको नरा: पञ्च पदातय:।
त्रयश्च तुरगास्तज्झै: पत्तिरित्यभिधीयते॥

इस पत्ति की तिगुनी संख्या को विद्वान पुरुष ‘सेनामुख’ कहते हैं। तीन ‘सेनामुखो’ को एक ‘गुल्म’ कहा जाता है॥

एको रथो गजश्चैको नरा: पञ्च पदातय:।
पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहु: सेनामुखं बुधा:।
त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते॥

तीन गुल्म का एक ‘गण’ होता है, तीन गण की एक ‘वाहिनी’ होती है और तीन वाहिनियों को सेना का रहस्य जानने वाले विद्वानों ने ‘पृतना’ कहा है।

त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रय:।
स्मृतास्तिस्त्रस्तु वाहिन्य: पृतनेति विचक्षणै:॥

तीन पृतना की एक ‘चमू’ तीन चमू की एक ‘अनीकिनी’ और दस अनीकिनी की एक ‘अक्षौहिणी’ होती है। यह विद्वानों का कथन है।

चमूस्तु पृतनास्तिस्त्रस्तिस्त्रश्चम्वस्त्वनीकिनी।
अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधा:॥

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! गणित के तत्त्वज्ञ विद्वानों ने एक अक्षौहिणी सेना में रथों की संख्या इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (21870) बतलायी है। हाथियों की संख्या भी इतनी ही कहनी चाहिये।

अक्षौहिण्या: प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमा:।
संख्या गणिततत्त्वज्ञै: सहस्त्राण्येकविंशति:॥
शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्तति:।
गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत्॥

निष्पाप ब्राह्मणो! एक अक्षौहिणी में पैदल मनुष्यों की संख्या एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास (109350) जाननी चाहिये।

ज्ञेयं शतसहस्त्रं तु सहस्त्राणि नवैव तु।
नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघा:॥

एक अक्षौहिणी सेना में घोड़ों की ठीक-ठीक संख्या पैंसठ हजार छ: सौ दस (65610) कही गयी है।

पञ्चषष्टिसहस्त्राणि तथाश्वानां शतानि च।
दशोत्तराणि षट् प्राहुर्यथावदिह संख्यया॥

तपोधनो! संख्या का तत्त्व जानने वाले विद्वानों ने इसी को अक्षौहिणी कहा है, जिसे मैंने आप लोगों को विस्तारपूर्वक बताया है।

एतामक्षौहिणीं प्राहु: संख्यातत्त्वविदो जना:।
यां व: कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधना:॥

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इसी गणना के अनुसार कौरवों-पाण्डवों दोनों सेनाओं की संख्या अठारह अक्षौहिणी थी।

एतया संख्यया ह्यासन् कुरुपाण्डवसेनयो:।
अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठा: पिण्डिताष्टादशैव तु॥

अद्भुत कर्म करने वाले काल की प्रेरणा से समन्तपञ्चक क्षेत्र में कौरवों को निमित्त बनाकर इतनी सेनाएँ इकट्ठी हुई और वहीं नाश को प्राप्त हो गयीं।
समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गता:।
कौरवान् कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा॥

अल बरूनी के अनुसार –
अल बरूनी ने अक्षौहिणी की परिमाण-संबंधी व्याख्या इस प्रकार की है-

एक अक्षौहिणी में १० अंतकिनियां होती हैं।

एक अंतकिनी में ३ चमू होते हैं।

एक चमू में ३ पृतना होते हैं।

एक पृतना में ३ वाहिनियां होती हैं।

एक वाहिनी में ३ गण होते हैं।

एक गण में ३ गुल्म होते हैं।

एक गुल्म में ३ सेनामुख होते हैं।

एक सेनामुख में ३ पंक्ति होती हैं।

एक पंक्ति में १ रथ होता है।

शतरंज के हाथी को ‘रूख’ कहते हैं जबकि यूनानी इसे ‘युद्ध-रथ’ कहते हैं। इसका आविष्कार एथेंस में ‘मनकालुस'(मिर्तिलोस) ने किया था और एथेंसवासियों का कहना है कि सबसे पहले युद्ध के रथों पर वे ही सवार हुए थे। लेकिन उस समय के पहले उनका आविष्कार एफ्रोडिसियास (एवमेव) हिन्दू कर चुका था, जब महाप्रलय के लगभग ९०० वर्ष बाद मिस्त्र पर उसका राज्य था। उन रथों को दो घोड़े खींचते थे।

रथ में एक हाथी, तीन सवार और पांच प्यादे होते हैं।

युद्ध की तैयारी, तंबू तानने और तंबू उखाड़ने के लिए उपर्युक्त सभी की आवश्यकता होती है।

एक अक्षौहिणी में २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, ६५,६१० सवार और १,०९,३५० पैदल सैनिक होते हैं।

हर रथ में चार घोड़े और उनका सारथी होता है जो बाणों से सुसज्जित होता है, उसके दो साथियों के पास भाले होते हैं और एक रक्षक होता है जो पीछे से सारथी की रक्षा करता है और एक गाड़ीवान होता है।

हर हाथी पर उसका हाथीवान बैठता है और उसके पीछे उसका सहायक जो कुर्सी के पीछे से हाथी को अंकुश लगाता है; कुर्सी में उसका मालिक धनुष-बाण से सज्जित होता है और उसके साथ उसके दो साथी होते हैं जो भाले फेंकते हैं और उसका विदूषक हो होता है जो युद्ध से इतर अवसरों पर उसके आगे चलता है।
तदनुसार जो लोग रथों और हाथियों पर सवार होते हैं उनकी संख्या २,८४,३२३ होती है (एवमेव के अनुसार)। जो लोग घुड़सवार होते हैं उनकी संख्या ८७,४८० होती है। एक अक्षौहिणी में हाथियों की संख्या २१,८७० होती है, रथों की संख्या भी २१,८७० होती है, घोड़ों की संख्या १,५३,०९० और मनुष्यों की संख्या ४,५९,२८३ होती है।

एक अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या ६,३४,२४३ होती है। अठारह अक्षौहिणीयों के लिए यही संख्या ११,४१६,३७४ हो जाती है अर्थात ३,९३,६६० हाथी, २७,५५,६२० घोड़े, ८२,६७,०९४ मनुष्य।

इतनी बड़ी सेना का विस्तार और वर्गीकरण – कितना गणितज्ञ और वैज्ञानिक स्तर पर होगा – ये आप लोग आंकलन कर लेवे – धनुर्वेद में जो उपवेद है के आधार पर सेना की संरचना – गठन – सञ्चालन – व्यूह रचना – युद्ध कौशल – रणनीति आदि भली भाँती वर्णित है।

कुछ अति ज्ञानी हिन्दू और वामपंथी विचारधारा के इतिहास को पढ़ने वाले सेक्युलर जमात के लोग कहते हैं – कुरुक्षेत्र तो इतना सा राज्य है – उसमे इतनी सेना का होना और युद्ध होना – सेनिको के मरने पर अन्तेय्ष्टि आदि और भी बहुत से कार्य कैसे संभव होंगे ?

उन अति विशिष्ट ज्ञानी लोगो को केवल हिन्दू समाज और भारतीय इतिहास आदि को झूठा साबित करने का ही कार्य है इसलिए मनगढ़ंत रचना करते हैं – ऐसे लोगो से पूछना चाहिए क्या “कुरुक्षेत्र” जो आज की स्तिथि में दीखता है – उसका क्षेत्रफल महाभारत काल में भी इतना ही था क्या ??? तब कोई जवाब नहीं बन पायेगा –

आइये देखते हैं कुरुक्षेत्र कितना बड़ा था –

कुरु-जनपद

प्राचीन भारत का प्रसिद्ध जनपद जिसकी स्थितिं वर्तमान दिल्ली-मेरठ प्रदेश में थी। महाभारतकाल में हस्तिनापुर कुरु-जनपद की राजधानी थी। महाभारत से ज्ञात होता है कि कुरु की प्राचीन राजधानी खांडवप्रस्थ थी।

महाभारत के अनेक वर्णनों से विदित होता है कि कुरुजांगल, कुरु और कुरुक्षेत्र इस विशाल जनपद के तीन मुख्य भाग थे। कुरुजांगल इस प्रदेश के वन्यभाग का नाम था जिसका विस्तार सरस्वती तट पर स्थित काम्यकवन तक था। खांडव वन भी जिसे पांडवों ने जला कर उसके स्थान पर इन्द्रप्रस्थ नगर बसाया था इसी जंगली भाग में सम्मिलित था और यह वर्तमान नई दिल्ली के पुराने किले और कुतुब के आसपास रहा होगा।

मुख्य कुरु जनपद हस्तिनापुर (ज़िला मेरठ, उ0प्र0) के निकट था। कुरुक्षेत्र की सीमा तैत्तरीय आरण्यक में इस प्रकार है- इसके दक्षिण में खांडव, उत्तर में तूर्ध्न और पश्चिम में परिणाह स्थित था। संभव है ये सब विभिन्न वनों के नाम थे। कुरु जनपद में वर्तमान थानेसर, दिल्ली और उत्तरी गंगा द्वाबा (मेरठ-बिजनौर ज़िलों के भाग) शामिल थे।

महाभारत में भारतीय कुरु-जनपदों को दक्षिण कुरु कहा गया है और उत्तर-कुरुओं के साथ ही उनका उल्लेख भी है।

अंगुत्तर-निकाय में ‘सोलह महाजनपदों की सूची में कुरु का भी नाम है जिससे इस जनपद की महत्ता का काल बुद्ध तथा उसके पूर्ववर्ती समय तक प्रमाणित होता है।

महासुत-सोम-जातक के अनुसार कुरु जनपद का विस्तार तीन सौ कोस था। जातकों में कुरु की राजधानी इन्द्रप्रस्थ में बताई गई है। हत्थिनापुर या हस्तिनापुर का उल्लेख भी जातकों में है। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल के पश्चात और मगध की बढ़ती हुई शक्ति के फलस्वरूप जिसका पूर्ण विकास मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ हुआ, कुरु, जिसकी राजधानी इस्तिनापुर राजा निचक्षु के समय में गंगा में बह गई थी और जिसे छोड़ कर इस राजा ने वत्स जनपद में जाकर अपनी राजधानी कौशांबी में बनाई थी, धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में विलीन हो गया। इस तथ्य का ज्ञान हमें जैन उत्तराध्यायन सूत्र से होता है जिससे बुद्धकाल में कुरुप्रदेश में कई छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व ज्ञात होता है।

अब बताओ विशिष्ट ज्ञानियो – जब कुरुक्षेत्र ही इतना बड़ा था उस समय – तो इतनी बड़ी सेना और युद्ध कैसे नहीं हो सकता ???

अब बुद्धिमान लोग स्वयं विचार लेवे –MBRT

Where stones run- Science & Quran

Where stones run- amazing facts of Quran

Muslim proclaims that Islam is full of science. Various attempts are made to link various scientific theories to various verses of Quran and the Hadiths. But when we read the Quran and Hadith, actuality is quite different. Let’s have a look on one verse of Quran.

O Believers, be not as those who hurt Moses, then God showed him quit of what they said, and he was high honored with God.

Sura Ahzab, 33:69, Tafseer E Usmani Vol -3 Page no 1865

This verse is related to the following hadiths  in Sahih Bukhari:

Narrated by Abu Huraira
The Prophet said, ‘The (people of) Bani Israel used to take bath naked (all together) looking at each other. The Prophet Moses used to take a bath alone. They said, ‘By Allah! Nothing prevents Moses from taking a bath with us except that he has a scrotal hernia.’So once Moses went out to take a bath and put his clothes over a stone and then that stone ran away with his clothes.

Moses followed that stone saying, “My clothes, O stone! My clothes, O stone! till the people of Bani Israel saw him and said, ‘By Allah, Moses has got no defect in his body.

Moses took his clothes and began to beat the stone.”

Abu Huraira added, “By Allah! There are still six or seven marks present on the stone from that excessive beating.” Narrated Abu Huraira: The Prophet said, “When the Prophet Job (Aiyub) was taking a bath naked, golden locusts began to fall on him. Job started collecting them in his clothes. His Lord addressed him, ‘O Job! Haven’t I given you enough so that you are not in need of them.’ Job replied, ‘Yes!’ By Your Honor (power)! But I cannot dispense with Your Blessings.’ “

Sahih Al-Bukhari

Volume 1, Book 5, Number 277:Page no 169-170

Narrated Abu Huraira:

Allah’s Apostle said, “(The Prophet) Moses was a shy person and used to cover his body completely because of his extensive shyness. One of the children of Israel hurt him by saying, ‘He covers his body in this way only because of some defect in his skin, either leprosy or scrotal hernia, or he has some other defect.’

Allah wished to clear Moses of what they said about him, so one day while Moses was in seclusion, he took off his clothes and put them on a stone and started taking a bath. When he had finished the bath, he moved towards his clothes so as to take them, but

the stone took his clothes and fled; Moses picked up his stick and ran after the stone saying, ‘O stone! Give me my garment!’ Till he reached a group of Bani Israel who saw him naked then, and found him the best of what Allah had created, and Allah cleared him of what they had accused him of.

The stone stopped there and Moses took and put his garment on and started hitting the stone with his stick. By Allah, the stone still has some traces of the hitting, three, four or five marks. THIS IS WAS WHAT ALLAH REFERS TO IN HIS SAYING:– “O you who believe! Be you not like those Who annoyed Moses, But Allah proved his innocence of that which they alleged, And he was honorable In Allah’s Sight.” (33.69)

Sahih Al-Bukhari

Volume 4, Book 55, Number 616:page-407

Allama Shabbir Ahmad Usami writes in “Tafseer E Usmani” that “The pursit of the stone in a naked state was due to intense helplessness, and perhaps Hazrat Moosa would have not thought that the stone would halt in a crowded place. As for the movement of the stone , it was just an extra ordinary action against the natural laws. However this story tells us that what a great management is done by God ………….”

By going thru the views of Tafseer E Usmani it is clear that Muslim scholars believe that these hadiths are authentic.

Following comments highlighted above are to be noted:

  1. Stone ran away with his clothes.
  2. Moses followed that stone saying, “My clothes, O stone! My clothes, O stone!
  3. The stone stopped there and Moses took and put his garment on and started hitting the stone with his stick
  4. The stone still has some traces of the hitting, three, four or five marks.

 

What to say on these stories….. Readers can themselves decide what type of science is there in running of Stone, conversation of Moses with stone, Punishing of Stone by Moses and the amazing way of Allah to clear the doubt of people of Israel.

नमाज पढना नाजायज है : डॉ. गुलाम जिलानी बर्क , पाकिस्तान

कहते हैं की पेशानी तोल जिस्म का सोलहवाँ हिस्सा होती है . इन्सान का कद औसतन ४६ इंच होता है  और इसकी पेशानी चार इंच बाकी हैवानत  में भी तकरीबन यही  पाई जाती है .

महरीन  सालासाल तहकीकात व तलाश के बाद ये यह  ऐलान किया है कि जमीन का महीत ५२ हजार मील है यानी अगर हम ५२ हजार मील लम्बा धागा तैयार कर के जमीन के और गरु    लपेट दें तो वह बिलकुल पूरा आ जायेगा . सूरज जमीन से १२ लाख अस्सी हजार गुना बड़ा है और इसका महीत बत्तीस अरब पचास करोड़ मील है .

 

इब्ने अम्र हजूर से रिवायत करते हैं  कि  “सूरज निकलते और डूबते वकत नमाज नहीं पढ़ा करो इसलिए कि सूरज बवक्त  शैतान के दो सींगों में होता है “

बुखारी जिल्द २ १४४

सूरज की मोटाई साढ़े बत्तीस  अरब मील है . अगर इतनी बड़ी चीज शैतान दो सींगों में समा जाती है और हम अरज कर चुके हैं पेशानी तोल जिस्म का सोलहवाँ हिस्सा होती है . तो शैतान के जिस्म की लम्बाई पांच ख़रब बीस अरब मील होनी चाहिए और चौड़ाई भी इसी नस्बत से इतना बड़ा शैतान खड़ा कहाँ होता होगा ? जमीन से सूरज नौ करोड़ पैंतीस लाख मील दूर है और शैतान की लम्बाई सवा पांच ख़रब मील.  अगर शैतान को जमीन पर खड़ा किया जाए तो सूरज इसके टखनों से भी नीचे रह जाता है . इसे शैतान के सींगों तक पहुँचने का क्या इंतजाम  किया जाता है और इतना बड़ा शैतान जमीन में समाता कैसे है.

यह साबित हो चूका है कि जमीन तकरीबन गोल है जमीन के किसी न किसी हिस्से पर हर वकत सूरज  तलुह होता रहता है यानी औकात मसल्सल  महोसफ़र रहते हैं कलकत्ता की सुबह चन्द लम्हों के बाद बनारस पहुँचती है फिर दिल्ली फिर वही लाहोर फिर पेशावर फिर काबुल.. जिसका मतलब यह हुआ कि सूरज हर वकत शैतान के सींगों के दरमयान रहता है

चोंकिये इसी हालत में नमाज नाजायज है इसलिए मुसलमानों को नमाज बिलकुल तरक कर देनी चाहिए.

 

 

डॉ. गुलाम जिलानी बर्क , पाकिस्तान

मानवोन्नति की अनन्या साधिका वर्णव्यवस्था शिवदेव आर्य -कार्यकारी सम्पादक,      गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)

वर्णाश्रम व्यवस्था वैदिक समाज को संगठित करने का अमूल्य रत्न है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने समाज को सुसंगठित, सुव्यवस्थित बनाने तथा व्यक्ति के जीवन को संयमित, नियमित एवं गतिशील बनाने के लिए चार वर्णों एवं चार आश्रमों का निर्माण किया। वर्णाश्रम विभाग मनुष्य मात्र के लिए है, और कोई भी वर्णी अनाश्रमी नहीं रह सकता। यह वर्णाश्रम का अटल नियम है।

भारतीय शास्त्रों में व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याणपरक कर्मों का अपूर्व समन्वय दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक वर्ण के सामाजिक कर्तव्य अलग-अलग रूप में निर्धारित किए हुए हैं। वर्णाश्रम धर्म है। प्रत्येक वर्ण के प्रत्येक आश्रम में भिन्न-भिन्न कर्तव्याकर्तव्य वर्णित किये हुए हैं।

भारतीय संस्कृति का मूलाधार है अध्यात्मवाद। अध्यात्मवाद के परिपे्रक्ष्य में जीवन का चरम लक्ष्य है मोक्ष। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार लक्ष्य भारतीय जीवन की धरोहर रूप होते हैं । हिन्दू धर्म के अन्तर्गत आने वाले सभी धर्मों ने उपदेश रूप में अपना लक्ष्य मोक्ष को ही रखा है। यद्यपि उसे अलग-अलग नाम दिये गये हैं। जैसे बौध्द, जैन इसे निर्वाण कहते हैं। शैव तथा वैष्णव को मोक्ष कहते हैं। उद्देश्य और आदर्श सभी के एक हैं। सभी धर्मों ने मोक्ष की प्राप्ति के लिए समाज की क्रियाओं को एक मार्ग प्रदान किया है। इस हेतु व्यवस्था की गई वर्ण धर्म और आश्रम धर्म की। दोनों का अत्यन्त गूढ़ संबंध होने से इन दोनों को समाज-शास्त्रियों ने एकनाम दिया-वर्णाश्रमधर्म।

प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है। जिस प्रकार से सिर, हाथ, पैर, उदर आदि विभिन्न अंगों से शरीर बना है और ये सब अंग पूरे शरीर की रक्षा के लिए निरन्तर सचेष्ट रहते हैं उसी प्रकार आर्यों ने पूरी सृष्टि को, सब प्रकार के जड़-चेतन पदार्थों को उनके गुण१ कर्म और स्वभाव के अनुसार उन्हें चार भाग या चार वर्णों में विभक्त कर दिया गया।

संसार संरचना के बाद इस प्रकार की व्यवस्था से गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार मानव समाज की चार मुख्य आवश्यकताएॅं मान ली गईं- बौध्दिक, शारीरिक, आर्थिक और सेवात्मक। आरम्भ में अवश्य ही मानव जाति असभ्य रही होगी जिससे कुछ में आवश्यकतानुसार स्वतः बौध्दिक चेतना जागृत हुई होगी। उन्होंने बौध्दिकता परक कार्य पढ़ना-पढ़ाना आदि अपनाया होगा, जिससे उन्हें  ब्राह्मण कहा गया। फिर धीरे-धीरे सभ्यता का विस्तार होने से सुरक्षा, भोजन, धन सेवा आदि की आवश्यकता अनुभव होने पर तदनुसार अपने गुण-स्वभाव के अनुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उसी मानवजाति से बने होगें।

मनोवैज्ञानिक सिध्दान्त के अन्तर्गत यह मान्यता स्वीकार की गई है कि मन के मुख्य तीन कार्य हैं, जिसमें से कोई एक प्रत्येक जाति के अन्दर मुख्य भूमिका का निर्वाह करता है। द्विजत्व तीन वर्गों में आते हैं ज्ञान प्रधान व्यक्ति, क्रिया प्रधान व्यक्ति, और इच्छा प्रधान व्यक्ति। इन तीनों से अतिरिक्त एक चैथे प्रकार का व्यक्तित्व भी होता है जो अकुशल या अल्पकुशल श्रमिक कहा जा सकता है।

वैदिककाल से ही समाज में चार वर्गों का उत्पन्न होना स्पष्ट है। इसका संकेत पुरुष सूक्त के प्रसिध्द मन्त्र से मिलता है।

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत।।२

पदार्थः- हे जिज्ञासु लोगो! तुम (अस्य) इस ईश्वर की सृष्टि में (ब्राह्मणः) वेद ईश्वर का ज्ञाता इनका सेवक वा उपासक (मुखम्) मुख के तुल्य उत्तम ब्राह्मण (आसीत्) है (बाहू) भुजाओं के तुल्य बल पराक्रमयुक्त (राजन्यः) राजपूत (कृतः) किया (यत्) जो (ऊरू) जांघों के तुल्य वेगादि काम करनेवाला (तत्) वह (अस्य) इसका (वैश्यः) सर्वत्र प्रवेश करनेहारा वैश्य है (पद्भ्याम्) सेवा और अभिमान रहित होने से (शूद्रः) मूर्खपन आदि गुणों से युक्त शूद्र (अजायत्) उत्पन्न हुआ, ये उत्तर क्रम से जानो।३

भावार्थः-जो मनुष्य विद्या और शमदमादि उत्तम गुणों में मुख के तुल्य उत्तम हो वे ब्राह्मण, जो अधिक पराक्रमवाले भुजा के तुल्य काय्र्यों को सिध्द करनेहारे हों वे क्षत्रिय, जो व्यवहारविद्या में प्रवीण हों वे वैश्य और जो सेवा में प्रवीण, विद्याहीन, पगों के समान मूर्खपन आदि नीच गुणों से युक्त हैं वे शूद्र करने और मानने चाहियें।४

उपनिषद् आदि में तो स्पष्ट रूप से वर्ण व्यवस्था की परिपाटी चल पड़ी थी। जैसे ऐतरेय ब्राह्मणग्रन्थ में ब्राह्मणों का सोम भोजन कहा है और क्षत्रियों का न्यग्रोध, वृक्ष के तन्तुओं, उदुम्बर, अश्वत्थ एवं लक्ष के फलों को कूटकर उनके रस को पीना पड़ता था। लेकिन आनुवंशिक होने से भोजन एवं विवाह संबंधी पृथक्त्व उत्पन्न होने का निश्चित रूप से कुछ पता नहीं चलता । धर्मसूत्रों में स्पष्ट रूप से चारों वर्णों का अलग-अलग होना स्पष्ट हो गया था।

वर्णव्यवस्था जन्म से नहीं अपितु कर्म से मानी गयी है। निम्नलिखित आख्यान इसकी यथार्थता को स्पष्ट करता है। ‘जाबाला का पुत्र सत्यकाम अपनी माता के पास जाकर बोला, हे माता! मैं ब्रह्मचारी बनना चाहता हूॅं। मैं किस वंश का हूॅं। माता ने उत्तर दिया कि हे मेरे पुत्र! सत्यकाम! मैं अपनी युवावस्था में जब मुझे दासी के रूप में बहुत अधिक बाहर आना-जाना होता था तो मेरे गर्भ में तू आया था। इसलिए मैं नही जानती कि तू किस वंश का है। मेरा नाम जाबाला है। तू सत्यकाम है। तू कह सकता है कि मैं सत्यकाम जाबाल हूॅं।

हरिद्रुमत् के पुत्र गौतम के पास जाकर उसने कहा भगवन्! मैं आपका ब्रह्मचारी बनना चाहता हूॅं। क्या मैं आपके यहाॅं आ सकता हूॅं ? उसने सत्यकाम से कहा हे मेरे बन्धु! तू किस वंश का है? उसने कहा भगवन् मैं नहीं जानता किस वंश का हूॅं। मैंने अपनी माता से पूछा था और उसने यह उत्तर दिया था कि ‘मैं अपनी युवावस्था में जब दासी का काम करते समय मुझे बहुत बाहर आना-जाना होता था तो तू गर्भ में आया। मैं नहीं जानती कि तू किस वंश का है। मेरा नाम जाबाला है और तू सत्यकाम है।’ इसलिए मैं सत्यकाम जाबाल हूॅं।

गौतम ने सत्यकाम से कहा एक सच्चे ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य कोई इतना स्पष्टवादी नहीं हो सकता । जा और समिधा ले आ। मैं तुझे दीक्षा दूॅंगा। तू सत्य के मार्ग से च्युत नहीं हुआ है।५

वैदिक काल में वर्णव्यवस्था (आज के सदर्भ में) थी अथवा नहीं यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, लेकिन कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था थी यह निश्चित है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के मन्त्र ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्…६से प्रतीति होती है कि अंगगुण के कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था थी। शरीर में मुख का स्थान श्रेष्ठ है जो कि बौध्दिक कर्मों को ही मुख्य रूप से घोषित करता है। अतः ब्राह्मण उपदेश कार्य, समाजोेत्थान आदि के कार्यों को करने वाले हुए । बाहुओं का काम रक्षा करना गौरव, विजय एवं शक्ति संबन्धी कार्य करना है। अतः क्षत्रियों का बाहुओं से उत्पन्न होना कहा है। उदर का कार्य शरीर को शक्ति देना, भोजन को प्राप्त करना है। अतः उदर से उत्पन्न वैश्यों को व्यापारिक कार्य करने वाला कहा गया है। पैरों का गुण आज्ञानुकरण है। अत पैरों से उद्धृत शूद्रों का कार्य श्रम है। जिस गुण के अनुसार व्यक्ति कर्म करता है वही उसका वर्ण आधार होता है। अन्यथा एक गुण दूसरे गुणों में मिल जाता है और कर्म भी इसी प्रकार बदल जाता है। अतः वर्ण भी बदला हुआ माना जाता है, यही गुण कर्म का आधार होता है।

ब्राह्मण कर्म-वर्णव्यवस्था

मनु महाराज जी ब्राह्मणों के लिए कर्तव्यों का नियमन करते हुए लिखते है कि-

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।७

अर्थात् अध्ययन करना-कराना, यज्ञ करना- कराना तथा दान लेना तथा देना ये छः कर्म प्रमुख रूप से ब्राह्मणों के लिए उपदिष्ट किये गये हैं।

यहाॅं अध्ययन से तात्पर्य अक्षरज्ञान से लेकर वेदज्ञान तक है।

ब्राह्मणों के कर्म के विषय में गीता में इस प्रकार कहा गया है-

क्षमो दमस्तपः शौचं क्षान्ति….८

क्षमा   मन से भी किसी बुरी प्रवृत्ति की इच्छा न करना।

दम    सभी इन्द्रियों को अधर्म मार्ग में जाने से रोकना।

तप    सदा ब्रह्मचारी व जितेन्द्रिय होकर धर्मानुष्ठान करते रहना चाहिए।

शौच  शरीर, वस्त्र, घर, मन, बुध्दि और आत्मा को शुध्द, पवित्र तथा निर्विकार रहना चाहिए।

शान्ति  निन्दा, स्तुति, सुख-दुःख, हानि-लाभ, शीत-उष्ण, क्षुधा-तृषा, मान-अपमान, हर्ष-शोक का विचार न करके शान्ति पूर्वक धर्मपथ पर ही दृढ़ रहना चाहिए।

आर्जवम्  कोमलता, सरलता व निरभिमानता को ग्रहण करना तथा कुटिलता व वक्रता को छोड़ देना।

ज्ञान          सभी वेदों को सम्पूर्ण अÂों सहित पढ़कर सत्यासत्य का विवेक जागृत करना।

विज्ञान तृण से लेकर ब्रह्म पर्यन्त सब पदार्थों की विशेषता को यथावत् जानना और उनसे यथा योग्य उपयोग लेना।

आस्तिकता वेद, ईश्वर, मुक्ति, पुर्नजन्म, धर्म, विद्या, माता-पिता, आचार्य व अतिथि पर विश्वास रखना, उनकी सेवा को न छोड़ना और इनकी कभी भी निन्दा न करना।

गीता के इन्हीं विचारों को ध्यान में रखते हुए महाभाष्यकार९ कहते है कि-

ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडÂो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च१॰

अर्थात् ब्राह्मण के द्वारा बिना किसी कारण के ही यह धर्म अवश्य पालनीय है कि चारों वेदों को उनके अगों११ तथा उपांगो१२ आदि सहित पढ़ना चाहिए और भली-भाॅति जानना चाहिए। और जो इन कर्मों को नहीं करता है, उसके लिए मनु महाराज कहते हैं कि –

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशुगच्छति सान्वयः।।१३

अर्थात् जो ब्राह्मण वेद न पढ़कर अन्य कर्मों में श्रम करता है, वह अपने जीते जी शीघ्र ही शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है। इसलिए ब्राह्मणों को अपने वर्णित कर्मों को अवश्य ही करना चाहिए।

क्षत्रिय कर्म-वर्णव्यवस्था

वर्ण विभाजन क्रम में द्वितीय स्थान क्षत्रिय का है। क्षत्रिय की भुजा से उत्पत्ति से तात्पर्य, क्षत्रिय को समाज का रक्षक कहने से है। जिस प्रकार से भुजाएॅं शरीर की रक्षा करती है उसी प्रकार क्षत्रिय भी समाज की रक्षा करने वाला होता है। समाज जब बृहत् रूप धारण करता है तो वहाॅं कुछ दुष्ट, अत्याचारी भी हो जाते हैं, जिनका दमन आवश्यक होता है। अतः समाज के लिए यह आवश्यकता हुई कि कुछ व्यक्ति ऐसे हों, जो  दुष्ट, दमनकारी प्रवृत्ति के लोगों से समाज की रक्षा करना अपना पवित्र कर्तव्य समझें।

मनु महाराज क्षत्रिय के कर्म लक्षण करते हुए लिखते हैं – अपनी प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, विषयों में अनासक्त रहना।

वैश्य कर्म-वर्णव्यवस्था

जिस प्रकार से जंघाएॅं मनुष्य के शरीर का सम्पूर्ण भार वहन करती हैं उसी प्रकार समाज के भरण-पोषण आदि सम्पूर्ण कार्य वैश्य को करने होते हैं। समाज के आर्थिक तन्त्र का सम्पूर्ण विधान वैश्य के हाथ सौंपा गया । पशुपालन, समाज का भरण पोषण, कृषि, वाणिज्य, व्यापार के द्वारा प्राप्त धन को समाज के पोषण में लगा देना वैश्य का कर्तव्य है। धन का अर्जन अपने लिए नहीं प्रत्युत ब्राह्मण आदि की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए होना चाहिए। जैसे- हे ज्ञानी, ब्राह्मण नेता! जिस प्रकार अश्व को खाने के लिए घास-चारा दिया जाता है, उसी प्रकार हम नित्यप्रति ही तेरा पालन करते हैं। प्रतिकूल होकर हम कभी दुखी न हों। तात्पर्य यह है कि धन के मद से मस्त होकर जो पूज्य ब्राह्मणों को तिरस्कार करते हैं, वे समाज में अधोपतन की ओर अग्रसरित होते चले जाते हैं।

शूद्र कर्म-वर्णव्यवस्था

समाज की सेवा का सम्पूर्ण भार  शूद्रों पर रखा गया है। सेवा कार्य के कारण शूद्र को नीच नहीं समझा जाता है, अपितु जो लोग पहले तीन वर्णों के काम करने में अयोग्य होते हैं अथवा निपुणता नहीं रखते हैं, वे लोग शूद्र वर्ण के होकर सेवा कार्य का काम करते हैं। पुरुष सूक्त के रूपक से यह बात बहुत स्पष्ट होती है कि उपर्युक्त चारों वर्णों का समाज में अपना-अपना महत्व है और उनमें कोई ऊॅंच-नीच का भाव नहीं होता।

युजर्वेद में तपसे शूद्रम्’१४ कहकर श्रम के कार्य के लिए शूद्र को नियुक्त करो, यह आदेश दिया गया है। इसी अध्याय में कर्मार नाम से कारीगर, मणिकार नाम से जौहरी, हिरण्यकार नाम से सुनार, रजयिता नाम से रंगरेज, तक्षा नाम से शिल्पी, वप नाम से नाई, अपस्ताप नाम से लौहार, अजिनसन्ध नाम से चमार, परिवेष्टा नाम से परोसने वाले रसोइये का वर्णन है।

मनु महाराज कहते हैं कि यदि ब्राह्मण की सेवा से शूद्र का पेट न भरे तो उसे चाहिए कि क्षत्रिय की सेवा करे, उससे भी यदि काम न चले तो किसी धनी वैश्य की सेवा से अपना जीवन निर्वाह करना चाहिए।

प्रत्येक मनुष्य की प्रकृति अलग-अलग होती है और उस वह अपनी विशिष्ट मनोवृत्तियों के आधार पर रहने, खाने आदि में प्रवृत्त होता है। अतः कहा जा सकता है कि वर्ण विभाग चार व्यवसाय ही नहीं अपितु ये मनुष्य की चार मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियां हैं। व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक को मोक्ष की ओर जाना है। और यह वर्ण व्यवस्था मनुष्य को सामूहिक रूप से शरीर से मोक्ष की तरफ ले जाने का सिध्दान्त है। वर्णव्यवस्था में कार्यानुसार श्रमविभाग तो आ सकता है, लेकिन यदि केवल श्रम विभाग की बात की जाय तो उसमें वर्ण व्यवस्था नहीं आ सकती है। आज का श्रम विभाग मनुष्य की शारीरिक और आर्थिक आवश्यकताएॅं तो पूरी करता है लेकिन आत्मिक, पारमात्मिक आवश्यकता नहीं। जबकि वर्ण व्यवस्था का आधार ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रहा है।

प्राचीन भारतीय संस्कृति ने चारों प्रवृत्तियों के व्यक्तियों के लिए यह निर्देश किया था कि वे अपनी प्रवृत्ति के अनुसार समाज को चलाने में सहयोग करें, समाज की सेवा करें। ब्राह्मण ज्ञान से, क्षत्रिय क्रिया से, वैश्य अन्नादि की पूर्ति करके और शूद्र शारीरिक सेवा से। यह उनका कर्तव्य निश्चित किया गया है। कर्तव्य से यह तात्पर्य नहीं होता है कि मनुष्य कार्य करने के बदले अपनी शारीरिक पूर्ति कर ले। कर्तव्य भावना जब व्यक्ति के अन्दर आ जाती है तब वह समर्पित भावना से कार्य करता है। इससे समाज में यदि कोई व्यक्ति अधिक  धन संपत्ति से युक्त हो भी जाए तो उसके मत में राज्य करने की प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं हो सकती।

भारतीय संस्कृति की यह अमूल्य विरासत केवल मात्र एक व्यवस्था ही नहीं है अपितु एक कर्म है, जिस कर्म से कोई नहीं बच सकता है तभी चारों प्रकार के कर्मों को करते हुए मनुष्य अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकेगा।

आदि काल से लेकर आज तक मात्र भारतीय संस्कृति ही अपनी कुछ-कुछ अक्षुण्णता बनाए है, जबकि इस बीच कितनी ही संस्कृतियाॅं आयी और सभी-की-सभी धराशायी होती चली गई। वर्णव्यवस्था की परम्परा हमारे भारतवर्ष में पूर्णरूप से समाप्त नहीं हुई है यदि आज तथाकथित जातियों का समापन करके गुण-कर्म-स्वभाव के अनुरूप वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया जाये तो निश्चित ही सामाजिक विसंगतियों का शमन (नाश) हो सकेगा और भारतीय संस्कृति की पताका पुनः अपनी श्रेष्ठ पदवी को प्राप्त कर सकेगी तथा कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’१५  व वसुधैवकुटुम्बकम्’ की उक्ति चरितार्थ हो सकेगी।

किसी कवि की पंक्तिएॅं यहाॅं सम्यक्तया चरितार्थ होती दिखायी देती हैं-

ऋषि ने कहा वर्ण शारीरिक,

बौध्दिक क्षमता के प्रतिरूप।

गुणकर्माश्रित वर्णव्यवस्था,

है ऋषियों की देन अनूप।।

बौध्दिक बल द्विजत्व का सूचक,

भौतिक बल है क्षात्र प्र्रतीक।

धन बल वैश्यवृत्ति का पोषक,

क्षम बल शूद्र धर्म निर्भीक।।

चारों वर्ण समान रहे हैं,

छोटा बड़ा न कोई एक।

चारों अपने गुण-विवेक से,

करते धरती का अभिषेक।।१६

सन्दर्भ-सूची:-

१. सत्व,रज एवं तम।

२. यजुर्वेद-३१/११।

३. स्वामी दयानन्द यजुर्वेद भाष्य से उद्धृत।

४. स्वामी दयानन्द यजुर्वेद भाष्य से उद्धृत।

५. छान्दोग्य.-४/४।

६. यजु.-३१/११।

७. मनुस्मृति-१/८८।

८. गीता-१८/४२।

९. पत´जलि

१॰. महाभाष्य. पा.।

११. शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष्।

१२. न्याय, सांख्य, वैशेषिक, योग, मीमांसा और वेदान्त।

१३. मनुस्मृति-३/१६८।

१४. यजुर्वेद-३॰/५।

१५. ऋग्वेद-९/६३/५।

१६. अद्यतन हिन्द कविताएॅं, उ.सं.वि.विद्यालय प्रकाशन,  हरिद्वार।

-कार्यकारी सम्पादक,

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)

स्तुता मया वरदा वेदमाता-१०

मन्त्र में एक वाक्य आया है- वाचं वदतं भद्रया-वाणी सभी बोलते हैं, वाणी के प्रयोग दोनों हो सकते हैं। हानि के, लाभ के, मृदु के, कठोर के, सत्य के, असत्य के। कोयल की भाँति सभी की वाणी मीठी होती, सब एक-दूसरे के साथ मधुर वाणी का व्यवहार करते तो किसी को यह कहने की आवश्यकता ही नहीं होती कि मधुर वाणी बोलनी चाहिए। यदि ऐसा होता तो अच्छा नहीं होता, क्योंकि तब मेरा कोई अधिकार ही नहीं होता, मुझे मेरी इच्छा का प्रयोग करने का अवसर ही नहीं मिलता, विवेक की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। कोई दूसरे से अलग नहीं होता, कोई किसी से अच्छा तो किसी से बुरा भी नहीं होता। इस परिस्थिति में मेरे होने का अर्थ ही क्या होता? मेरी सत्ता  मेरे अधिकार से प्रकट होती है, मेरा अधिकार मेरे अस्तित्व का प्रकाशक है।

जितना मुझे अच्छा करने का अधिकार है, उतना ही मुझे बुरा करने का अधिकार भी है। उसे मुझसे कोई नहीं छीन सकता, इसी कारण उनके फल को भी मुझसे कोई अलग नहीं कर सकता। यही कारण है कि मुझे मेरे कर्म का फल मिलता है, क्योंकि वे मेरे हैं, चाहे वे अच्छे हैं, चाहे वे बुरे। इसीलिए उपदेश देने की आवश्यकता पड़ती है। उपदेश से मेरे विवेक पर प्रभाव पड़ता है, मैं अपने विचार को बदल सकता हूँ। इसी प्रक्रिया को संकल्प- विकल्प कहा गया है। जब मनुष्य सोचता है कि मैं यह करूँगा तो मुझे लाभ होगा। मैं सोचता हूँ- मैं ऐसा करूँगा तो मेरी हानि होगी, मैं ऐसा नहीं करूँगा। यह मेरी दशा, मेरे निर्णय की भूमिका है। मैं निश्चय कर लेता हूँ, तब वह मेरा निर्णय होता है, उसका फल अच्छा या बुरा मेरा ही होता है।

वाणी भी मेरी है, मैं इसका अच्छा या बुरा कैसा भी उपयोग कर सकता हूँ। जब अच्छा उपयोग करता हूँ तो मुझे अच्छा फल मिलता है, बुरा उपयोग करता हूँ तो बुरा फल मिलता है। मुझे मेरी वाणी के अच्छे-बुरे का ज्ञान होना चाहिए। वेद कहता है- लाभ के लिए, पुण्य के लिये भद्र वाणी का प्रयोग करना चाहिए। भद्र का अर्थ शरीर के लिए, वर्तमान में लाभप्रद और मन, बुद्धि, आत्मा के लिए शान्तिप्रद होना है। यदि ऐसा नहीं तो केवल मधुर वाणी से भी कार्य चल सकता था। हम समझते हैं कि मीठा बोलना ही पर्याप्त है पर केवल मीठा नहीं, वह परिणाम में भी लाभप्रद होना चाहिए। इस मन्त्र भाग में बोलने वालों के लिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है, अर्थात् परिवार में सभी सदस्यों को एक-दूसरे के साथ कल्याण कारिणी वाणी का प्रयोग करना चाहिए। वाणी का प्रभाव ही व्यवहार को प्रभावित करता है। मनुष्य आदर से बोलता है तो उसे प्रत्युत्तर  में अनुकूल ही उत्तर  प्राप्त होता है। यदि कठोरता से, असभ्यता से बोलता है तो निकटस्थ व्यक्ति भी अपमान का अनुभव करता है।

वाणी के सम्बन्ध में महाभारत में एक शिक्षाप्रद प्रसंग आया है। युधिष्ठिर युद्ध भूमि में घायल होकर शिविर में चिकित्सा के लिये उपस्थित हुए हैं। अर्जुन को बड़े भाई के घायल होने का समाचार मिलता है, वह तत्काल युद्ध छोड़ भाई को देखने शिविर में पहुँचता है। युधिष्ठिर ने पूछा- क्या युद्ध जीत लिया? अर्जुन ने कहा- नहीं। युधिष्ठिर ने अर्जुन के गाण्डिव को धिक्कार कह दिया। अर्जुन को क्रोध आया, उसने अपने बड़े भाई को मारने के लिए तलवार उठा ली। अर्जुन ने कहा- मेरी प्रतिज्ञा है कि जो गाण्डिव को धिक्कारेगा, उसके प्राण हरण करूँगा। श्री कृष्ण ने समझाया- मारना केवल तलवार से नहीं होता, बड़े भाई को ‘तू’ कह दे तो भी वह मर जायेगा। अर्जुन ने कह तो दिया, परन्तु फिर सोचने लगा कि उसने बड़े भाई का अपमान किया है। उसने कहा- अब इस अपराध के लिए मैं मरूँगा। श्री कृष्ण ने कहा- क्यों मरते हो? मरना भी कई प्रकार का होता है। मनुष्य के लिए आत्म-प्रशंसा भी मरने के समान है, तुम अपनी प्रशंसा स्वयं करो, मर जाओगे। मनुष्य वाणी से ही मरता है और वाणी से जीवन पाता है, अतः वेद ने कल्याणकारिणी वाणी के प्रयोग करने का आदेश दिया है।

 

तो क्या? ( वैदिक धर्म में गौ मांस भक्षण एक झूठ) – संजय शास्त्री, कनाडा

महाराष्ट्र में गोमांस पर राज्य सरकार द्वारा प्रतिबन्ध लगाते ही कुछ लोगों की मानवीय संवेदनाएँ आहत हो उठीं और उनको लगा, जैसे मानवाधिकारों पर कयामत टूट पड़ी हो। कुछ लोग भारतीय इतिहास की दुहाई देते हुए संस्कृत शास्त्रों से गोमांस-भक्षण के उदाहरण देते हुए हिन्दुओं को सलाह देने लगे कि अपने शास्त्रों की बात मानोगे या आधुनिक हिन्दुत्ववादियों की? (इस विषय में मुसलमानों का एक मतान्ध किन्तु अति मन्दगति वर्ग बहुत सक्रिय हो गया है, इसलिये इस लेख में मुसलमानों की चर्चा करने पर बाध्य हुआ हूँ।) कुछ लोगों के हृदय में आर्य और अनार्य का कथित शाश्वत वैर जाग उठा और वे चिल्ला उठे कि गोमांस-भक्षण अनार्यों की प्राचीन परम्परा रही है, विदेश से आए आर्यों ने ही इस पर प्रतिबन्ध लगाया। यह कैसी षड्यन्त्रानुप्राणित ऐतिहासिक शिक्षा है जो हमें इतना मूर्ख बनाने में सफल रही है कि हम दो परस्पर विरोधी ‘ऐतिहासिक तथ्यों’ को मानने लगे हैं। अजीब है- एक तरफ तो यह सिद्ध किया जाता है कि गोमांस-भक्षण आर्यों के समाज में होता था, और दूसरी तरफ यह भी बताया जाता है कि गोमांस-भक्षण भारत के मूल निवासी अनार्यों की परम्परा रही है और बाहर से आये आर्यों ने ही इस पर जबर्दस्ती प्रतिबन्ध लगाया। खैर, जो भी हो, एक बात अवश्य ही स्पष्ट है कि जो लोग इन उदाहरणों को देकर गोमांस-भक्षण को आर्यों की सामान्य परम्परा सिद्ध करना चाहते हैं, वे उन प्रसंगों की सच्चाई छुपा कर ही ऐसा करते हैं। (इसका खुलासा नीचे भारतीय आदर्श के प्रसंग में किया गया है।) लेकिन इस विषय पर फिर कभी बात करूँगा। अभी तो बस इतना ही कहना है कि गोमांस-भक्षण के उदाहरणों का इस युग से क्या सम्बन्ध है, और उनकी उपयुक्तता क्या है। इस लेख में मैं प्राचीन भारतीय शास्त्रों में गोमांस-भक्षण के उदाहरणों की समीक्षा नहीं करना चाहता। वह इस लेख की सीमा से बाहर है। ऐसी समीक्षा निष्फल भी है, क्योंकि सामान्यतः अतीत की व्याख्या व्यक्ति के मानसिक परिप्रेक्ष्य में तैयार होती है – वैचारिक और नैतिक मानदण्डों से बँधी होती है और जब तक कोई व्यक्ति इस तरह की सीमाओं से बाहर निकलने को तैयार नहीं हो, तब तक मतभेदों का समाधान असम्भवप्रायः होता है। इसको ऐसे समझा जा सकता है-

१. जिन लोगों को गोमांस-भक्षण से ऐतराज नहीं है, उनको भारतीय इतिहास के इस प्रसंग में प्रायः उद्धृत उदाहरणों की व्याख्या गोमांस-भक्षणपरक करने से भी कोई ऐतराज नहीं होगा। यदि वे गोमांस खाते हैं, तो वे कदापि नहीं चाहेंगे कि इस पर प्रतिबन्ध लगे और वे इतिहास की ढाल लेकर मैदान में कूद पड़ेंगे।

२. लेकिन जिनको गोमांस-भक्षण संास्कृतिक पाप मालूम होता है, वे उन्हीं सन्दर्भों की व्याख्या गोमांस-भक्षण परक नहीं करेंगे। और यदि ऐसे सन्दर्भ कहीं मिलते भी हैं तो उनको प्रक्षिप्त मानकर अमान्य कर देंगे।

३. तीसरा प्रकार उन लोगों का है जो इतिहास की ऐसी बातों को गोमांस-भक्षण  के विरोधी हिन्दुओं को द्वेष भावना से केवल नीचा दिखाने के लिये कहते हैं। उन्हें न तो इतिहास से कुछ लेना-देना है, और न ही गोमांस-भक्षण से। ये वे बच्चे हैं, जिनको साथी बच्चों की शान्ति भंग करने में ही मजा आता है।

४. कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनको यह मान लेने से कोई ऐतराज नहीं है कि अतीत में कुछ लोगों ने गोमांस खाया होगा, लेकिन ऐसा मानने वाले यह भी मानते हैं कि इतिहास अतीत की बदलती हुई राजनीतिक और सामाजिक धाराओं का प्रवाह मात्र है, जिसको पढ़कर हम वर्तमान को सुधारने के लिये शिक्षा तो ले सकते हैं, लेकिन उसे हम आज न तो अनुभव कर सकते हैं और न ही उसको जी सकते हैं।

जो भी हो, एक बात स्पष्ट है कि ऐसे उदाहरणों की व्याख्या व्यक्ति के वैचारिक और नैतिक मानदण्डों से प्रेरित होती है, जिसका त्वरित समाधान सम्भव नहीं है, इसलिये यह लेख दुर्जनपरितोषन्याय से लिखा गया है। माना कि प्राचीन काल में कुछ लोगों ने गोमांस खाया होगा, तो क्या?

गोमांस-भक्षण के उदाहरण

जो गोमांस-भक्षण के उदाहरण दिये जाते हैं, वे इतने छिटपुट और प्रसंगतः क्षुद्र हैं कि उनके आधार पर गोमांस-भक्षण को सिद्ध करने की बात पर प्रमाण-शास्त्र को मानने वाला कोई भी व्यक्ति हँसेगा। उसका कारण है कि गौ के प्रति आर्यों की पवित्र भावना शाश्वत है। वेदों और दूसरे संस्कृत ग्रन्थों में गोमांस-भक्षण के उदाहरण देने वाले भी यह मानते हैं कि हिन्दुओं के प्राचीनतम शास्त्र ऋग्वेद से लेकर आज तक गौ के प्रति पवित्रभावना अविच्छिन्न रूप से मिलती है। ऋग्वेद में गाय को अघ्न्या (जिसको नहीं मारना चाहिये) कहा गया है और यही भावना बाद के ग्रन्थों में विस्तार से मिलती है। यदि गोमांस-भक्षण के उदाहरणों और गोहत्या को पाप तथा गोरक्षा को पुण्य मानने वाले उदाहरणों का परिमाण देखा जाए तो तुलना ऐसी होगी-गोहत्या से पाप और गोरक्षा से पुण्य मिलने का बखान करने वाले उदाहरण एक महासागर की तरह हैं, जिसमें गो मांस खाने के उदाहरण कुछेक तिनकों की तरह हैं। ऐसा क्यों है कि ये लोग उन छिटपुट उदाहरणों को तो प्रमाण मान रहे हैं, लेकिन बाकी महासागर की उपेक्षा कर रहे हैं? ऐसा किसी न किसी स्वार्थ या काम के वशीभूत होकर दुराग्रही होने पर ही होता है। प्रमाण-शास्त्र को मानने वालों के लिये यह हास्यास्पद ही होगा कि गोरक्षा की असीम विच्छिन्नधारा की उपेक्षा कर दो-चार वाक्यों को प्रमाण मानकर सांस्कृतिक  ऐतिहासिक धारा को मोड़ने का प्रयास किया जाए।

किसी घटना के केवल उदाहरण मिलने से ही ऐसी घटनाएँ विधान तो नहीं बन जाती हैं। यह सोचना चाहिये कि उस युग में भी आदर्श क्या था? इस विषय में भी इतिहासकारों को कोई संन्देह नहीं है कि तब भी गौ के प्रति सम्मान भावना रखना ही आदर्श माना जाता था। न केवल इतना, बल्कि किसी प्रकार के मांस को न खाना ही उनका आदर्श था। तो फिर आदर्श आचार से उनके आचार को सिद्ध करने में इतना परिश्रम क्यों कर रहे हैं ये लोग?

और फिर मनुष्य कभी भी धर्मशास्त्र का सर्वथा अक्षरशः पालन नहीं करता है। कितने ईसाई और मुसलमान हैं, जो बाइबिल और कुरान की अच्छी शिक्षाओं का अनुसरण करते हैं? मनुष्य पहले स्वभावतः मनुष्य ही होता है, उसकी धार्मिक पहचान भी अक्सर उसके स्वभाव के नीचे दबकर रह जाती है। जैसे ईसाई या मुसलमान अपने धर्म का अक्षरशः पालन नहीं करते हैं, वैसे ही कुछ हिन्दू भी नही करते हैं। ऋषि कपूर जैसे सुविख्यात कलाकार, जिनका परिचय हिन्दू के रूप में ही है, आज भी गोमांस खाते हैं। उन्होंने लिखा था कि ‘‘मुझे गुस्सा आ रहा है। खाने को धर्म से आप क्यों जोड़ रहे हैं? मैं बीफ खाने वाला एक हिन्दू हूँ। तो क्या, इसका मतलब यह है कि मैं बीफ नहीं खाने वाले की अपेक्षा कम धार्मिक हूँ? सोचो!’’ और यह महोदय यहाँ तक लिख बैठते हैं कि ‘‘वैसे मुझे मेरे उन मुस्लिम दोस्तों की तरह पार्क चॉप्स भी बेहद पसंद हैं जो मेरी तरह सोचते हैं। जब आप धर्म को खाने से जोड़ते हैं तो वे भी आप पर हँसते हैं।’’ भारत के अहिंसा के आदर्श और गौ के प्रति देवी तथा मातृवत् भाव के इतिहास से परिचित व्यक्ति इसका क्या उत्तर  देगा, यह कहने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इसका उत्तर  मशहूर शायर गालिब से मिलता है । १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम के बाद पुनः अंग्रेजी शासन की प्रतिष्ठा हो गयी और अंग्रेजों ने दिल्ली में संदिग्ध लोगों की धरपकड़ शुरू की । इसी प्रसंग में एक बर्न नाम के कर्नल ने अपनी टूटी-फूटी उर्दू में गालिब से पूछा, ‘‘तुम मुसलमान हो?’’ गालिब ने कहा, ‘‘आधा।’’ ‘‘इसका मतलब?’’ कर्नल ने पूछा तो गालिब ने जवाब दिया, ‘‘मैं शराब पीता हॅूँ, लेकिन सूअर नहीं खाता।’’ अर्थात् यदि गालिब शराब भी नहीं पीते तो पूरे मुसलमान होते और यदि शराब पीते और सूअर भी खाते तो मुसलमान ही नहीं रहते। खैर, जो भी हो, क्या यह उचित है कि ऋषि कपूर जैसे लोगों के उदाहरण से यह सिद्ध किया जाए कि आज हिन्दुओं में गोमांस खाना मान्य है? यदि नहीं तो, इतिहास में क्यों इस तरह की मानसिकता थोपने की कोशिश हो रही है? इन्द्रियों का दास हो चुके मनुष्य के लिये धर्मशास्त्र व्यर्थ हैं। धर्म का ज्ञान केवल उन्हीं को होता है, या हो सकता है, जो स्वार्थ और काम की भावना के वशीभूत नहीं हैं। स्वार्थान्ध और कामान्ध व्यक्ति के लिये तो शास्त्र नियम अभिशाप की तरह हैं, मानवाधिकारों का उल्लंघन है। ऋषि कपूर जैसे लोगों की यही करुण व्यथा है- गोवध पर प्रतिबन्ध से उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है।

इसी प्रसंग में एक बात और। यदि इन लोगों को भारत के  अतीत से इतना ही प्यार और मान्य-भावना है, तो इनको यह भी समझना चाहिये कि उस युग के आचरणों की यथावत् प्रतिष्ठा के लिये जितना महत्वपूर्ण उस युग की बातों के होने का है, उतना ही महत्वपूर्ण कुछ बातों का नही होना भी है। उस समय ईसाइयत और इस्लाम भारत में तो क्या दुनिया मैं भी नहीं थे। तो जो लोग प्राचीन हिन्दू धर्म में गोमांस-भक्षण को प्रमाण मानकर आचरणीय मानते हैं, तो क्या उनको हिन्दू धर्म को स्वीकार कर अपनी आस्था को खुले रूप में प्रकट नहीं करना चाहिये? जब तक ऐसे लोग वैदिक धर्म और आचरण को स्वीकार न कर लें, तब तक उन्हें वैदिक या हिन्दू धर्म में आस्था रखने वालों को ‘‘अतीत की किस परम्परा का अनुसरण करना चाहिये’’ के विषय में बोलने का कोई अधिकार ही नहीं है।

इतिहास में किसी घटना के उदाहरण मिलना भी उनको हर युग और देश में स्वीकार करने का कारण नहीं हो सकता। भारतीय परम्परा में संस्कृति को प्रवाहमान माना गया है, जो हर युग में बदलती रहती है। इतिहास में इस तरह की परम्पराएँ रही हैं, जिनके विषय में आज सोचना भी मन में जुगुप्साभाव पैदा करता है। जैसे कि ईरान में सगे सम्बन्धियों में आपस में शादी की  परम्परा थी, जिसको पूरी धार्मिक और कानूनी मान्यता थी। यहाँ तक कि माँ-बेटे, बहन-भाई और पिता-बेटी की शादी की भी बहुप्रचलित परम्परा थी। यदि ग्रीक इतिहासकार हेरोडोटस को प्रमाण माना जाए तो ऐसी परम्पराएँ भी थीं, जब किसी के बीमार होने पर उसी के सम्बन्धी उसको मारकर, पकाकर उसका भोग लगाते थे। क्या गोमांस के छिटपुट उदाहरणों के आधार पर हिन्दुओं की धार्मिक भावना से खिलवाड़ करने को जायज ठहराने से पहले सगे सम्बन्धियों से शादी करने और बीमार सम्बन्धियों का भोग लगाने की परम्परा को कानूनी रूप से स्वीकार कर लिया जाये?

शास्त्र में कही गयी बातों के आचरणीय या अनाचरणीय होने के विषय में कामसूत्र में एक ही बात दो बार सावधान करने के लिये कही गयी है-

न शास्त्रमस्तीत्येतेन प्रयोगो हि समीक्ष्यते/न शास्त्रमस्तीत्येतावत् प्रयोगे कारणं भवेत्। शास्त्रार्थान् व्यापिनो विद्यात् प्रयोगांस्त्वेकदेशिकान्।।

(कामसूत्र, २.९.४१,७.२.५५)।

शास्त्र में किसी बात की चर्चा है, केवल इसी आधार पर उसका प्रयोग या आचरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि शास्त्र का विषय व्यापक होता है, जबकि प्रयोग एकदेशिक होते हैं, अर्थात् शास्त्र विभिन्न देश और काल की चर्चा करते हैं, उनका रिकार्ड रखते हैं, लेकिन प्रयोग प्रयोक्ता की शक्ति, समय, देश और परम्परा के अनुसार ही होते हैं, सर्वकालीन और सर्वजनीन नहीं। यही कारण है कि काम शास्त्र में रागवर्धक विचित्र प्रयोगों का विवरण देने के बाद उनका यत्नपूर्वक निवारण भी कर दिया गया है (कामसूत्र ७.२.५४)।

भारतीय आदर्श अब आते हैं भारतीय आदर्श पर। गोमांस की बात छोड़ो, भारतीय परम्परा में तो किसी भी प्राणी के मांस भक्षण से सर्वथा निवृत्ति  को ही आदर्श माना जाता था। मुसलमानों के इस धूर्त वर्ग ने मनु का भी एक श्लोक भारत में मांस भक्षण के पक्ष में प्रमाण के रूप में प्रचारित किया है। इसमें कहा गया है कि भोक्ता अपने खाने लायक पदार्थों  को खाने से किसी दोष का भागी नहीं होता है। इन खाने लायक भोजनों में प्राणियों को भी गिना गया है (मनु ५.३०)। विशेष बात यह है कि भारतीय विद्वानों ने इसको प्राण-संकट होने पर मान्य माना है। जैसे कि मनु के व्याख्याकार मेधातिथि ने इस श्लोक की व्याख्या में कहा है कि इसका मतलब यह है कि प्राणसंकट में हों तो मांस भी अवश्य खा लेना चाहिये (तस्मात् प्राणात्यये मांसमवश्यं भक्षणीयमिति त्रिश्लोकीविधेरर्थवादः।) ऐसा भी नहीं है कि यह मेधातिथि की मनमर्जी से की गई व्याख्या है। यह मनु के अनुरूप ही है। ऊपर उद्धृत श्लोक के बाद मनु ने प्राणियों की अहिंसा का गुणगान कई श्लोकों में करते हुए मांस भक्षण को पुण्यफल का विरोधी माना है। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि यदि कोई व्यक्ति सौ साल तक हर साल अश्वमेध यज्ञ करता रहे और यदि कोई व्यक्ति मांस न खाए तो उनका पुण्यफल समान होता है (५.५३)। सन्तों के पवित्र फल-फूल भोजन मात्र पर निर्वाह करने वाले को भी वह पुण्यफल नहीं मिलता है जो कि केवल मांस छोड़ने वाले को मिलता है। मनु ने मांस की बड़ी अच्छी परिभाषा देते हुए कहा है कि-

मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमदाम्यहम्।

एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः।।

– समझदार लोग कहते हैं कि मांस को मांस इसलिये कहा जाता है, क्योंकि मैं आज जिसको खा रहा हॅूँ (मां) मुझे भी (सः) वह परलोक में ऐसे ही खाएगा। और मनु गौ को तो सर्वथा अवध्य मानते हैं और उसकी रक्षा करना मनुष्य मात्र का कर्तव्य  मानते हैं। इसी प्रसंग में ऊपर दिया कामसूत्र विषयक परिच्छेद (भारतीय आदर्श शीर्षक से पहले) एक बार और देख लें तो विषय और भी स्पष्ट हो जाएगा। एक शास्त्र होने के नाते मनुस्मृति में चाहे मांस-भक्षण की चर्चा है, लेकिन जिस विस्तृत स्पष्टता  के साथ इसको अपुण्यशील माना है, वह मांस-भक्षण की स्वीकृति के पक्ष में नहीं, अपितु उसके साक्षात् विरोध में खड़ा है। तब भी यदि कोई इसमें मांस-भक्षण की स्वीकृति को सिद्ध करने की चेष्टा करता है, तो या तो वह मूढ़ अज्ञानी है, या धूर्त है।

हिन्दू बनाम गैर-हिन्दू

यह तर्क भी दिया जाता है कि गोहत्या केवल हिन्दुओं के लिये पाप है, दूसरे धर्मावलम्बियों (ईसाई और मुसलमानों) के लिये तो नहीं। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और शासन को एक धर्म की मान्यताओं के आधार पर दूसरे धर्मावलम्बियों के मानवाधिकारों का हनन नहीं करना चाहिये।

तर्क तो ठीक है, लेकिन बाकी तर्कों की ही तरह पक्षपाती है। कुरान केवल मुसलमानों के लिये ही तो पवित्र है, पैगम्बर मुहम्मद साहब भी केवल मुसलमानों के लिये पैगम्बर हैं, तो क्या मुसलमान यह स्वीकार करेंगे कि दूसरे धर्मावलम्बी कुरान के साथ जैसा चाहे व्यवहार कर सकते हैं? क्या ईसाईयों को यह स्वीकार होगा कि यदि कोई सूली पर लटके ईसा की काष्ठमूर्ति को जलाकर ठण्ड से सिकुड़ते बदन को सेक ले? यदि मुसलमानों और ईसाइयों को यह स्वीकार नहीं होगा तो उनको हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का ध्यान रखना ही चाहिये। गाय का प्रश्न केवल खाने-पीने तक नहीं है, गाय को श्रद्धाभाव से, पवित्र देवी के रूप में देखा जाता है। यदि एक-दूसरे की भावनाओं का ध्यान  नहीं रखेंगे, तो अतीत की तरह दंगों की आग दोनों ही तरफ के लोगों को झुलसाती रहेगी। समय-समय की बात है – कभी मुसलमानों-ईसाइयों का पलड़ा भारी होगा तो कभी हिन्दुओं का, लेकिन इस हठधर्मिता से कोई समाधान नहीं होगा। समाधान केवल तभी होगा जब आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्। – ‘‘जो व्यवहार अपने प्रति पसन्द नहीं, वह व्यवहार दूसरों के प्रति भी न करें’’ का पालन किया जाए।

और ऐसा भी क्यों है कि मुसलमानों का एक वर्ग हिन्दुओं के प्रति विद्वेषभावना से बाबर, हुमायूँ, औरंगजेब जैसे कट्टरपन्थी मुगलों की केवल गन्दी विरासत को ही ढोने और उसके लिये मर मिटने के लिये तैयार रहता है? यह वर्ग इन शासकों की उन बातों पर कभी ध्यान क्यों नहीं देता, जिनसे भारतीय समाज में सौहार्दभाव को बढ़ावा मिले और शान्ति स्थापित हो सके? इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि हिन्दुओं की धार्मिक/सांस्कृतिक भावनाओं के भड़क जाने के भय से बाबर ने न केवल अपने शासन में गोवध पर पाबन्दी लगा रखी थी, बल्कि अपने बेटे हुमायूँ को भी इसको जारी रखने का हुक्म दिया था। अकबर ने भी अपने शासन में गोवध पर पाबन्दी लगा रखी थी। यहाँ तक कि औरंगजेब जैसे कट्टर और परधर्मद्वेषी शासक ने भी गोवध पर मृत्युदण्ड घोषित कर रखा था और इसी परम्परा को आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने भी जारी रखा था।

जहाँ तक बात है अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की रक्षा की, तो यह रक्षा यदि बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं को आहत करके  होती है तो सर्वथा अनुचित है। और फिर केवल कुछेक व्यक्तियों के मानवाधिकारों की ही बात क्यों हो? क्या बहुसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं होनी चाहिये? ऐसा भी नहीं है कि राज्य सरकार द्वारा पारित यह नियम केवल अल्पसंख्यकों पर लागू होगा, यह तो सभी पर लागू होगा- ऋषि कपूर जैसे और भी लोग होंगे जो अल्पसंख्यकों की श्रेणी में नहीं आते हैं। उन पर भी लागू होगा। इस तरह की सर्वजन-समभाव की सुविधा गैर-मुस्लिमों को मुगल सल्तनत में कभी नहीं मिली।

इन्हीं अधिकारों की भाषा बोलते-बोलते मुसलमानों का यह वर्ग एक और देश विभाजन हो जाने की धमकी देने लगा है। देश विभाजन होगा या नहीं, इसका जवाब तो समय ही देगा, लेकिन मुसलमानों के भारत में अधिकार की चर्चा के विषय में मैं इस्लामी धर्मशास्त्र, परम्परा, और इतिहास के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में से एक मौलाना वहीदुद्दीन खान के मन्तव्य के साथ इस लेख को समाप्त करता हूँ। सन् २००७ में बीबीसी ने आजादी के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर एक लेखमाला छापी थी, जिसमें मौलाना वहीदुद्दीन खान के मन्तव्य भी छपे थे। उसका एक अंश बीबीसी से ही उद्धृत करता हूँ-

इस्लामी मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं कि मुसलमानों को भारत में जो कुछ मिला है, वह हिन्दू समुदाय की मेहरबानी है और उन्हें इस देश में जो कुछ भी मिला है, उसका उन्हें अधिकार ही नहीं था, इसलिए उन्हें ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इस्लामी विद्वान् मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं, ‘‘स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान मुसलमानों ने जो बलिदान दिए, उनके बदले उन्हें पाकिस्तान के रूप में एक अलग देश मिल गया और इस तरह उन्होंने अपनी कुर्बानियों को भुना लिया। विभाजन की दलील ही यह थी कि भारत हिन्दू का और पाकिस्तान मुसलमान का, तो फिर अब भारत में उनका अधिकार कैसा? इसके विपरीत हिन्दू समुदाय ने बड़ी बात की है कि आजाद भारत में भी मुसलमानों को बराबरी का दर्जा दे दिया।’’

उपसंहार इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए केवल मूर्ख व्यक्ति ही ऐसा दुराग्रह करेगा कि चूँकि पहले कुछ लोगों ने ऐसा किया था, इसलिये आज भी ऐसा करना चाहिये। युग बदल गया है, कुछ  आचार-विचार बदल गये हैं और कुछ आचार-विचार समाप्त-प्राय हैं। कुछ परम्पराएँ क्षीण हो गयी हैं, तो कुछ बलवती हो गयी हैं। आधुनिक भारतीय इतिहास को सप्रमाण जानने वाला हर विद्वान् यह मानता है कि पिछले कुछ सौ वर्षों में हुए हिन्दू-मुस्लिम द्वेष और दंगों के पीछे सबसे बड़ा कारण गोहत्या से जुड़ी घटनाओं का होना रहा है। १८५७ में हुए स्वतन्त्रता संग्राम के दिल्ली में विफल हो जाने का एक कारण गोहत्या के कारण हिन्दू-मुस्लिम लोगों का बँट जाना भी था, जिसका अंग्रेजों ने पूरा लाभ उठाया। ऐसे में सवाल यह नहीं है कि पहले भारत में क्या होता था और क्या नहीं होता था। सवाल यह है कि आज की असलियत क्या है? आज हिन्दुओं के लिये गौ एक धार्मिक पहचान है और उसकी रक्षा करना धार्मिक कर्तव्य । जबकि गोमांस खाने वाले किसी भी व्यक्ति के लिये न किसी त्यौहार पर और न किसी दूसरे अवसर पर गोमांस खाना धार्मिक या सांस्कृतिक कर्तव्य है। भारत के अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने गोहत्या पर पाबन्दी लगाई और गोवध करने वाले को तोप से उड़ा दिये जाने की घोषणा की तो दिल्ली के दो सौ प्रतिष्ठित मुसलमानों ने उनके पास जाकर गुहार लगाई कि ईद के मौके पर उनको गोहत्या करने दी जाए। जफर आग-बबूला हो गये और बोले कि मुसलमान का धर्म गाय की बलि पर निर्भर नहीं है। जैसा पहले कहा गया है, यहाँ तक कि धार्मिक रूप से क्रूर पहचान रखने वाले मुगल बादशाह भी कुछ हद तक हिन्दुओं की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए गोहत्या पर पाबन्दी लगा सकते हैं, तो क्या धर्म-निरपेक्ष भारत में सामाजिक समरसता और शान्ति बनाए रखने के लिये गोवध पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता है? क्या गोवध पर प्रतिबन्ध के खिलाफ लड़ाई केवल खाने की लड़ाई है या इसके पीछे सामाजिक समरसता को भंग करने वाले कुछ धूर्त हैं? क्या हम भारत में परस्पर वैमनस्य ही फैलाते रहेंगे?

– बी.बी.सी. हिन्दी,

शुक्रवार, ०५ अक्टूबर २००७

हमारा परम मित्र – ईश्वर – सुकामा आर्या

हम सब बचपन से एक तत्व  के विषय में बहुत कुछ सुनते आए हैं, पर आज भी ध्यान से देखें तो उस तत्व  के विषय में हमारी प्रवृत्ति  वैसी नहीं बन पाई है, जैसी की होनी चाहिए। कारण, हमारी स्थिति श्रवण तक रही-

न श्रवणमात्रात् तत् सिद्धिः।

सिर्फ सुनने मात्र से किसी वस्तु की सिद्धि नहीं हो जाती। मान लीजिए- हम रुग्ण हो गए। किसी मित्र ने बताया कि अमुक दवा ले लीजिए, तो क्या हम सुनने मात्र से स्वस्थ हो जाएँगे? नहीं, हमें बाजार से दवा लानी पड़ेगी, यथोचित समय पर उसका सेवन करना पड़ेगा, तब कहीं जाकर सम्भावना है कि हम स्वस्थ हो पाएँ। ठीक यही बात उस एक तत्व  के विषय में भी घटती है। उस तत्व को हमें व्यक्तिगत स्तर पर, अनुभूति के स्तर पर लाना है, तभी हम अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। वह अद्भुत त           व है- ईश्वर।

ईश्वर को समझने में सहायक उसका सबसे सरलतम गुण है- सर्वव्यापकता। किसी वस्तु को हम उसके गुणों से ही जानते हैं। इसी एक गुण को समझ लेने से उसके कई प्रमुख गुण भली प्रकार से समझ में आ जाते हैं।

ईश्वर सर्वज्ञ है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,

ईश्वर सर्वान्तर्यामी है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,

ईश्वर सर्वरक्षक है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,

वेद कहता है- स पर्यगात्- वह पहले से वहाँ पहुँचा हुआ है।

त्वं हि विश्वतोमुख विश्वतः परिभूरसि सब तरफ उसके मुख हैं।

विश्वतो चक्षुः सब जगह उसकी आँखें हैं।

अर्थात् वह ईश्वर इस जगत् के कण-कण में विद्यमान है। ‘‘प्रभु सब में, सब कुछ है प्रभु में।’’ यूँ समझें कि सारा संसार ईश्वर में डूबा हुआ है। हर दिशा में, हर सिम्त वह है-

जिधर देखता हूँ, खुदा ही खुदा है,

खुदा से नहीं चीज कोई जुदा है।

जब अव्वल और आखिर खुदा ही खुदा है,

तो अब भी वही कौन उसके सिवा है।

एक क्षण के लिए विचार करें कि माँ-बाप, भाई-बहन, सखा-मित्र आदि तब तक ही हमारी रक्षा कर पाते हैं, जब तक वे हमारे साथ हैं, हमारे साथ उपस्थित हैं। अपनी अनुपस्थिति में वे हमारा सहयोग नहीं कर पाते हैं, उनकी विवशता होती है। ईश्वर को अनुभूति के स्तर पर देखें, तो पता चलेगा कि वह हर क्षण हमारे पास है, हम उसकी उपस्थिति में उपस्थित हैं। उसकी हाजिरी में हाजिर हैं।

हम मुश्किल परिस्थिति में किससे सहायता माँगते हैं- माँ-बाप से, मित्रों से- जिनकी देने की शक्ति व सीमा सीमित है, जो दोहरे मापदण्ड वाले हैं। आज-इस क्षण अच्छे तो अगले ही क्षण बुरे, जिनके व्यवहार का हम अनुमान ही नहीं लगा पाते। दुनिया में सबसे अधिक अपूर्वानुमेय व्यवहार किसी प्राणी का है, तो वह इस छः फूट के मानव नाम के प्राणी का है। जानवरों का व्यवहार भी अधिकतम सीमा तक निर्धारित रहता है। कुत्ते को रोटी डालोगे तो वह स्नेह से पूँछ हिलाएगा, डण्डा दिखाओगे तो डरेगा, भौंकेगा, पर इस मनुष्य नामक प्राणी का तो पता ही नहीं चलता, जाने कब कौन-से पत्ते  फेंक दे? परन्तु ईश्वर हमेशा एकरस है, उसके नियम अटल हैं, वह पक्षपात रहित होकर न्यायपूर्वक व्यवहार करता है, हर देश, काल व परिस्थिति में एक-सा ही रहता है। वस्तुतः वह ईश्वर ही हमारी मैत्री के सर्वाधिक लायक है।

यूँ ही काल की दृष्टि से देखें तो इस  लोक के सम्बन्ध- माता-पिता, भाई-बन्धु, गुरुजन- सभी इस जीवन तक ही सीमित हैं। हम समाप्त तो सब सम्बन्ध समाप्त, पर ईश्वर से हमारा सम्बन्ध तो अनादि काल से है और अनन्त काल तक रहेगा। इस शरीर के छूटने के बाद भी- हमेशा। लोक में भी जो वस्तुएँ या सम्बन्ध या मैत्री लम्बे काल तक चलती हैं, उनको हम अच्छा समझते हैं, मूल्यवान समझते हैं। ओल्ड इज गोल्ड मानते हैं। इस दृष्टि से भी ईश्वर हमारी मैत्री के मापदण्डों पर पूर्णतया खरा उतरता है, इसलिए हमें उससे मित्रता बढ़ाने व बनाए रखने पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

हमें समस्या कहाँ आती है? हम लोक के मित्रों व सम्बन्धों को तो समय देते हैं, पर ईश्वर के लिए समय निकालना हमें मुश्किल लगता है। इसका मुख्य कारण यह है कि हमें ईश्वर के मह       व का पता नहीं, इसलिए सन्ध्या व ध्यान के लिए समय निकालना अत्यन्त कठिन लगता है। रुचि नहीं बनती है। हमें अपने पिता जी की १-२ करोड़ की संपत्ति  नजर आती है। मित्रों की योग्यता, धन-वैभव, गुरुजनों का ज्ञान नजर आता है, परन्तु ईश्वर का परम ऐश्वर्य हमारी आँखों से प्रायः ओझल ही रहता है। यह विचार कर लें कि जो पिताओं का भी पिता है, गुरुओं का भी गुरु है, माताओं की भी माता है- वह कितना मह                    वपूर्ण, विशिष्ट, वरिष्ठ सहयोगी सिद्ध होगा।

दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें- अगर हम जरा-सा कुछ पिता जी के खिलाफ गए तो पिता जी जायदाद से बेदखल कर देंगे। कक्षा में अध्यापक की आज्ञा का उल्लंघन किया तो वे कक्षा से बाहर जाने को कह देंगे। संस्था के अधिकारी रुष्ठ हो गए तो वे संस्था से बाहर निकाल देंगे। एक क्षण के लिए विचार करें कि क्या ईश्वर कभी हमें अपने दायरे से बाहर निकाल सकता है? कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं, क्योंकि वह सर्वव्यापक है, हर स्थान पर है। यहाँ से इस लोक से निकालेगा, तो दूसरे लोक में रख लेगा, लेकिन हमेशा अपने सान्निध्य में, अपने पास हमें रखेगा। क्या इस ईश्वरीय प्रेम के तुल्य कोई अन्य सांसारिक व्यक्ति का प्रेम हो सकता है? विचार करेंगे तो स्वयमेव ही उस परम सत्ता  के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा, समर्पण व प्रेम का भाव उद्भूत हो जाएगा।

हम विकट-से-विकट परिस्थिति में डगमगाएँगे नहीं। एक बार समुद्र में कोई नवविवाहित जोड़ा नाव में बैठ कर जा रहा था। अन्य लोग भी नाव में सवार हो कर जा रहे थे। अचानक तूफान आया और नाव डगमगाने लगी। सभी लोग चिल्लाने लगे, परन्तु वह युवक प्रेम से ईश्वर का ध्यान करने लगा, ताकि अपने मन को विचलित होने से बचाकर अपनी सुरक्षा का समाधान ढूंढ सके। उसकी पत्नी ने पूछा कि सब लोग हाहाकार मचा रहे हैं और तुम ध्यान कर रहे हो? क्या तुम्हें भय नहीं लग रहा? तो उसने तत्काल पिस्तौल निकाल कर पत्नी की कनपटी पर रख दी। पत्नी मुस्कुराने लगी। युवक ने पूछा- क्या तुम्हें भय नहीं लग रहा? उसने कहा- नहीं। युवक ने पूछा- क्यों? पत्नी बोली- क्योंकि मैं जानती हूँ कि पिस्तौल मेरे प्रियतम के हाथ में है, वह मेरा नुकसान कर ही नहीं सकता। वह युवक बोला- ठीक इसी प्रकार यह नाव भी मेरे परमप्रिय मित्र, सखा ईश्वर के हाथ में है, जो उसको अभीष्ट मानकर करेगा, वही सुझाये हुए उपायों के  भय से रहित होगा। यह विश्वास तभी बनता है, जब हम ईश्वर की सत्ता  को सर्वव्यापक समझ लेते हैं-

आ गया तेरी शरण जब तो मुझे अब भय कहाँ?

मैं तेरा, किश्ती तेरी, साहिल तेरा, दरिया तेरा।

हमारी कमी, न्यूनता यहाँ रह जाती है, हम मानते हुए भी व्यावहारिक स्तर पर ईश्वर की अनुभूति नहीं रख पाते हैं। यूँ कहें कि थ्योरी की परीक्षा में तो सफल हो जाते हैं पर प्रैक्टिकल की परीक्षा में या तो उपस्थित ही नहीं होते या होते हैं तो अनुत्तीर्ण  हो जाते हैं। हमें दोनों परीक्षाओं में पास होना है।

इसके लिए आवश्यक है कि जीवन जीते हुए, दिनचर्या करते हुए, हम अपने परम मित्र की याद बनाए रखें। हमें हर क्षण महसूस हो कि हमारा परमप्रिय मित्र साथ है-

नहीं कहता हूँ, दुनिया से जुदा हो।

मगर हर काम में यादे खुदा हो।।

हम जिस-जिस वस्तु या व्यक्ति का चिन्तन करते हैं, उससे अनुराग हो ही जाता है या यूँ कहें कि जिस-जिस वस्तु या व्यक्ति से अनुराग होता है, उस-उस का चिन्तन करने से हमें सुख मिलता है, आनन्द मिलता है, तो क्यों न उस परम आनन्दमय, सुख के भण्डार हमारे परम मित्र का चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते चिन्तन किया जाए, उसको स्मरण में रखा जाए। इसको करने से दूसरा लाभ यह होगा कि हम गलत, बुरे कर्मों को करने से बच जाएँगे। जैसे अगर ट्रैफिक पुलिस वाला चौक में खड़ा हो तो हम लाल बत्ती  का उल्लंघन नहीं करते हैं, हमें डर, भय होता है- चालान काट दिए जाने का। ठीक उसी प्रकार हम दिनचर्या में चलते हुए भी नियमों को नहीं तोड़ेंगे, क्योंकि हमारा ट्रैफिक पुलिस वाला मित्र तो हर क्षण ड्यूटी पर तैनात है, कभी भी कहीं भी हमें अकेला नहीं छोड़ता। हाँ, हम उसे समझने महसूस करने में नाकाबिल साबित होते हैं-

दिलबर तेरा तेरे आगे खड़ा है,

मगर नुक्स तेरी नजर में पड़ा है।

बचपन से लेकर आज तक कई मित्र बनाए, कई छोड़े, कई मिले, कई बिछुड़े, आज से एक उसकी मैत्री को बनाने में लगें, जो न केवल मित्रता-दिवस पर हमें याद आए, परन्तु हमेशा के लिए हमारे साथ आत्मसात् हो जाए। हम अपने पक्ष को उस मैत्री के लिए योग्य सिद्ध करें, तभी हम इस मित्रता को सही ढंग से, प्रेम से, कृतज्ञता से निभा पाने में सफल हो पाएँगे।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर