आदि सृष्टि के मनुष्यो की भाषा क्या थी और भाषा का विस्तार कैसे हुआ ?

भाषा की उत्पत्ति :

मानव जिस समय पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ उस समय बोलने और समझने की शक्ति समपन्न अवस्था थी – यह निर्देश पहले भी किया जा चुका है की आदि सृष्टि के मनुष्य युवा अवस्था के उत्पन्न होते हैं – इसलिए उनमे बोलने की शक्ति थी तो यह भी मानना होगा की वर्ण भी थे जिनके द्वारा वह अपनी वाणी को प्रकट कर सके। यदि कोई यह माने की वर्ण नहीं थे तो उसके साथ यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा की मनुष्य आदिम अवस्था में गूंगा उत्पन्न हुआ। यदि गूंगा उत्पन्न हुआ तो फिर वह किसी भी हालत में बोलने वाला नहीं हो सकता। इसलिए निष्कर्ष यही निकलेगा की उसमे बोलने की शक्ति थी और जब बोलने की शक्ति थी तो ये भी तथ्यात्मक है की जो भाषा वो बोले उनके वर्ण भी होने चाहिए।

जो लोग कहते हैं की सेमिटिक भाषाए, हीब्रू अथवा अरबी आदि आर्य भाषाओ से स्वतंत्र हैं वह गलती पर हैं, कारण की मनुष्य किसी नवीन भाषा को तो कभी बना ही नहीं सकता ?

क्योंकि मैथुनी (सेक्स) सृष्टि के लोगो की भाषा सदैव उनके मातापिता तथा गुरु की भाषा होती है। लेकिन आदि मनुष्यो की भाषा पूर्ण (संस्कृत) भाषा ही थी ऐसा नियम इसलिए मान्य है क्योंकि आदि मनुष्यो का माता पिता और गुरु ईश्वर के अतिरिक्त और कोई थे ही नहीं। तो ऐसी स्थति में और कोई देशीय भाषा विरासत में मिलना असंभव है – तो साफ़ है उनकी केवल वही भाषा होगी जो सृष्टि के पदार्थो में विद्यमान हो – परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर प्रकट किये जाने वाले ज्ञान के पूर्ण माध्यम होने की उस भाषा में क्षमता हो और वह ऐसी भाषा होनी चाहिए जो सदा प्रत्येक कल्प में एक सी रहती हो तथा आगे बोल चाल की समस्त भाषाओ को उत्पन्न करने में सक्षम हो। विशेष बात यह है की वो किसी देश विदेश की भाषा न हो और न उससे पूर्व कोई ज्ञान वा भाषा पृथ्वी पर कहीं मौजूद हो

बस यही बात है जो विशेष वर्णन के योग्य है की परमेश्वर ने मानव के पृथ्वी पर आने के साथ ही साथ वेद ज्ञान की प्रेरणा मनुष्य में दी – और वह वेद की भाषा “संस्कृत” में ईश्वरीय ज्ञान मानव को मिला जो आदि ज्ञान और आदि भाषा – दोनों था।

वाणी भाषाओ का विस्तार –

ऊपर जो कुछ दर्शाया गया है उसका भाव यह है की आदि अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के शरीर तथा शरीर के सब अंग आदि आदर्श रुपी थे, जैसे वो आदि सृष्टि के मनुष्य मैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के लिए साँचे रुपी थे अर्थात मनुष्य समाज के प्रवर्तक थे वैसे ही आदि भाषा भी साँचा रुपी और सभी भाषाओ की प्रवर्तक होनी चाहिए। इसीलिए उस आदि भाषा का नाम संस्कृत है। संस्कृत का अर्थ होगा पूर्ण भाषा यानी जो पूर्ण भाषा हो वो संस्कृत कहलाएगी।

इसी प्रकार अपूर्ण भाषाए जो वेद भाषा से संकोच, अपभ्रंश और मलेच्छित आदि होकर मनुष्य के बोल चाल की भाषाए बनती हैं। क्योंकि संस्कृत भाषा के दो भाग हैं –

1. वैदिक संस्कृत
2. लौकिक संस्कृत

प्राय सभी पश्चिमी विद्वान और अनेक भारतीय अनुसन्धानी भी संस्कृत को ही सभी भाषाओ का मूल मानते हैं – पर ध्यान देने वाली बात है की लौकिक संस्कृत की जन्मदात्री वैदिक संस्कृत है। वैदिक संस्कृत ही आदि भाषा है क्योंकि वैदिक संस्कृत अर्थात वेद की भाषा कभी भी किसी भी देश वा किसी जाती की अपने बोलचाल की भाषा नहीं रही है – क्योंकि वेदो में वाक्, वाणी आदि पदो का प्रयोग देखा जाता है भाषा का नहीं।

अब हम समझते हैं भाषा का विस्तार किस प्रकार हुआ – देखिये वेद में वैदिकी वाणी को नित्य कहा है –

तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूप नित्यया।

(ऋग्वेद 8.75.6)

नित्यया वाचा – अर्थात नित्य वेदरूप वाणी – यानी की वैदिक संस्कृत यह सब वाणियों (भाषाओ) की अग्र और प्रथम है –

बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्नं

(ऋग्वेद 10.71.1)

प्रभु से दी गयी वेदवाणी ही इस सृष्टि के प्रारंभिक शब्द थे।

ईश्वर की प्रेरणा से यह वाणी सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों पर प्रकट होती है।

यज्ञेन वाचः पदवीयमायणतामानवविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्।

(ऋग्वेद 10.71.3)

प्रभु अग्नि आदि को वेदज्ञान देते हैं इससे अन्य यज्ञीय वृत्तिवाले ऋषियों को यह प्राप्त होती है – इसी मन्त्र में आगे लिखा है –

इस ही प्रथम, निर्दोष और अग्र वाणी को लेकर लोग बोलने की भाषा का विस्तार करते हैं।

तामाभृत्या व्यदधुः पुरूत्रा तां सप्त रेभा अभी सं नवंते।।

(ऋग्वेद 10.71.3)

इस वाणी को ऋषि मानव समाज में प्रचारित करते हैं। यह वेदवाणी सात छन्दो से युक्त है अर्थात २ कान – २ नाक – २ आँख और एक मुख ये सात स्तोता बनकर इसे प्राप्त करते हैं –

उपरोक्त प्रमाणों और तथ्यों से सिद्ध होता है की मनुष्य की एक ही भाषा थी – और मनुष्यो ने इसी वेद वाणी से अर्थात प्रथम व पूर्ण भाषा संस्कृत से – अपूर्ण भाषाए – अर्थात जितनी भाषाए आज प्रचलित हैं उनका निर्माण किया – लेकिन वैदिक संस्कृत में आज भी कोई फेर बदल नहीं हो सका – क्योंकि वैदिक संस्कृत पूर्ण भाषा है –

कृपया सत्य को जानिये –

वेद की और लौटिए —

वेद, विज्ञानं, और सृष्टि उत्पति के युवा मनुष्य

नमस्ते मित्रो,

अमैथुनी सृष्टि के मनुष्य कैसे और किस अवस्था में उत्पन्न हुए होंगे ?

जैसे की आपने विषय पढ़ा – जो बहुत ही गूढ़ है – फिर भी हम कोशिश करेंगे इस विषय पर ध्यान रखकर – वेदो के विज्ञानं को समझने की – वेदो के अनुसार आदि सृष्टि अमैथुनी होती है – पहले समझते हैं ये अमैथुनी सृष्टि क्या है ?

अमैथुनी सृष्टि से अभिप्राय उस सृष्टि से है जिसमे जीवो के शरीर बिना मैथुन (सेक्स) द्वारा उत्पन्न होते हैं – ऐसे शरीर उत्पन्न होने के बाद ही मैथुनी सृष्टि – अभी जो आप देख रहे इस प्रकार संतति उत्पन्न करने वाली होती है।

अब कुछ लोग सोचेंगे – जब प्रकृति का नियम ही मैथुनी सृष्टि से है तो फिर किसप्रकार और क्यों अमैथुनी सृष्टि होती है ? कुछ सोचेंगे ऐसा कैसे हो सकता है ? कुछ कहेंगे वेद सदा ही ज्ञान विज्ञान और तर्क की कसौटी पर किसी तथ्य को कसता है मगर यहाँ अमैथुनी सृष्टि के लिए कौन सा विज्ञानं और तर्क है ? कुछ भाई बिना कुछ सोचे विचार ही इस पोस्ट को लाइक कर देंगे और कमेंट में अपने विचार भी प्रकट नहीं करेंगे –

खैर पहले हम जांच करते हैं की अमैथुनी सृष्टि किस प्रकार होती है :-

हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते ।यद्यस्य सोऽदधात्सर्गे तत्तस्य स्वयं आविशत् ।।

अर्थ : हिंस्रकर्म-अहिंस्र, मृदु (दयाप्रधान) क्रूर, धर्म घृत्यादि-अधर्म, सत्य असत्य, जिसका जो कुछ (पूर्वकल्प का) स्वयं प्रविष्ट था, वह वह उस उस को सृष्टि के समय उस (ईश्वर) ने धारण कराया। (२९)

यथा र्तुलिङ्गान्यृतवः स्वयं एव र्तुपर्यये ।
स्वानि स्वान्यभिपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनः।।

अर्थ : जैसे वसंत आदि ऋतुएँ अपने अपने समय में निज निज ऋतु चिन्हो को प्राप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्यादि भी अपने अपने कर्मो को पूर्व कल्प के बचे कर्मानुसार प्राप्त हो जाते हैं। (३०)

(मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक २९-३०)

जिस प्रकार प्रलय काल में सभी जीव सुषुप्ति की अवस्था में गहन निद्रा में होते हैं, जैसे ही सृष्टि का समय आता है ईश्वर जीव के पूर्व कल्प के कर्मो अनुसार उचित फल देकर आदि सृष्टि में उत्पन्न उचित देह द्वारा फल भोग करवाते हैं।

अब सवाल उठेगा ये देह कैसे बनेगी ?

तो उसका जवाब है –

महर्षि मनु ने जो ऋतुओं की उपमा देकर आदि अमैथुनी सृष्टि का वर्णन किया है, यह बहुत ही सारगर्भित है, महर्षि का आशय कुछ इस प्रकार है जैसे ऋतुओं के चिन्ह बिना श्रम विशेष स्वाभाविक ही प्रगट होने लगते हैं। वसंत ऋतू में वृक्षों में वह खमीर गर्मी सर्दी के नियत प्रभाव से उत्पन्न होने लगता है और सर्वत्र बाग़ खिले फूलो से भर जाता है। भूमि की गर्मी सर्दी के प्रभाव से ऐसी दशा स्वयमेव ही हो जाती है की स्वयं ही शंखपुष्पी आदि अनेक फूलवाली औषधीय निकल आती हैं।
ठीक ऐसे ही वसंत ऋतू में भूमि को यदि गर्भाशय मान ले तो कोई संशय नहीं होगा क्योंकि ऋतुओं के परिवर्तन का कारण जल गर्मी की कमीबेसी इसी प्रकार आदि सृष्टि के समय पर पृथ्वी अत्यंत गर्म होती है ऐसा ब्राह्मण ग्रन्थ भी कहते हैं और हाल के वैज्ञानिक भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं –

एक अवस्था में पृथ्वी और द्यौ साथ थे :

इमौ लोको सह सन्तौ व्यैताम। जै० ब्रा० १।१४५

इमौ वै लोको सहास्ताम्। एत० ब्रा० ७।१०।१

शतपत ब्रा० (७।१।२२३) आदि अनेक ब्राह्मण ग्रन्थ में श्लोक पाये जाते हैं जिनका
अर्थ है सूर्य और पृथ्वी पहले साथ ही साथ थे। बाद में पृथक हुए

इमौ वै सहास्ताम। ते वायु वर्यवात। तै० शा० ३।४।३

जब पृथ्वी सूर्य से अलग हुई तब बहुत गर्म थी इस हेतु उसमे मनुष्यादि प्रजा का उत्पन्न होना विज्ञानं सम्मत नहीं होता – इसलिए पृथ्वी का उचित तापमान बनाने हेतु वर्षा की गयी और उचित समय पर पृथ्वी और जल के संपर्क से मनुष्य आदि की उत्पत्ति से तीन चतुर्युगी पूर्व वृक्ष औषधियां आदि उत्पन्न हुई –

या औषिधी पूर्वा जाता देमयस्त्रियुग पुरा।
मनै नु बभ्रूणामह शत धामानि सप्तच।।
(ऋग्वेद 10.97.1)

औषधियां मनुष्य से तीन चतुर्युगी पूर्व उत्पन्न होती हैं।

ये सिद्धांतभूत नियम है जो वेदो में इस विज्ञानं के सम्बन्ध में पाये जाते हैं।

सिद्धांतो को लेकर ब्राह्मण आदि ग्रंथो में विस्तार और क्रम आदि दिखलाया गया है।

तस्मादात्मन आकाश सम्भूत। आकाशाद्वायु। वायोरग्नि। अग्नेराप। अदभ्य पृथ्वी। पृथिव्या औषधय। औश्विम्यो न्नम्। अन्नात्पुरुष।
तै० उ० 2.1

अर्थ : परमात्मा की निमित्तता से प्रकृति से आकाश उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु। वायु से अग्नि और अग्नि से जल। जल से पृथ्वी और पृथ्वी से औषधीय। इनसे अन्न और अन्न से पुरुष उत्पन्न हुआ।

यह एक वैज्ञानिक क्रम है जो उपनिषद में वर्णित है।

तो पृथ्वी में आदि सृष्टि के मनुष्य आदि प्रजा उत्पन्न करने के लिए वसंत आदि ऋतू में गर्भ आदि का उचित तापमान जब आया तब ईश्वर ने “वीर्य” को गर्भ (पृथ्वी) में धारण करवाया।

यहाँ वीर्य उस सामग्री का नाम है जो गर्भ में भ्रूण बनाने में उपयोगी पदार्थ विद्या है – जैसे वीर्य में अनेक गुण (प्रॉपर्टीज) होती हैं – वैसे ही रज में होते हैं – और गर्भ में उचित तापमान होता है जिससे गर्भ में भ्रूण बनता है।

यदि हमें ४ लोगो का भोजन बनाना हो – तो नमक हल्दी मिर्च आदि मसाला – सामान्य ही उपयोग होगा – परन्तु यदि ज्यादा लोगो का खाना बनाना हो तो अवश्य ही ज्यादा हल्दी मिर्च आदि मसाला प्रयुक्त होगा – ठीक इसी प्रकार जब आदि सृष्टि के मनुष्य युवा अवस्था में उत्पन्न होते हैं – तब उत्तम और उचित वीर्य से उस अवस्था के मनुष्य उत्पन्न होते हैं – यदि विज्ञान रज-वीर्य आदि के गुण (प्रॉपर्टीज) ठीक प्रकार जांच लेवे तो विज्ञानिक स्वयं स्वतंत्र रूप से वीर्य का निर्माण कर सकते हैं मगर ऐसा होना अभी हाल के अनुसन्धानियो द्वारा संभव नहीं मगर विज्ञानं ने इतनी तरक्की तो कर ही ली है की “कृत्रिम गर्भ” को बना सके। आने वाले कुछ वर्षो में शायद ये तकनीक ठीक काम करने लगे –

http://en.wikipedia.org/wiki/Artificial_uterus

ठीक इसी प्रकार यदि रज और वीर्य आदि के गुण धर्म (प्रॉपर्टीज) भी ज्ञात कर लेवे तो स्वतंत्र वीर्य – विज्ञानिक स्वयं निर्माण कर सकते हैं। और उचित समय पर जब गर्भ (पृथ्वी) में मनुष्यादि देह में जीव का संयोग ईश्वर को करना होता है तब विद्युत अग्नि आदि से जीव का शरीर से संयोग होता है और जगत में मनुष्य आदि प्रकट होते हैं।

आपो ह यादवृहतीविशवमायन गर्भदयाना जनयतिरग्निम्। (ऋग्वेद म. १० सूक्त १२१ मन्त्र ७)
कारण भूत जले गर्भ में अग्नि को धारण करती हुई विश्व को प्रकट करती हैं।

अब कुछ लोग सोचेंगे – ये युवा अवस्था में ही क्यों आदि सृष्टि मनुष्य उत्पन्न होते हैं ? तो मित्रो इसका बहुत ही सुन्दर और सरल जवाब ऋषिवर दयानंद ने दिया है –
ऋषि ने सत्यार्थ में इस सवाल का जवाब दिया है –

“आदि सृष्टि में मनुष्य युवावस्था में उत्पन्न होता है क्योंकि जो बालक उत्पन्न होता तो उसके पालन के लिए दूसरे मनुष्य आवश्यक होते और जो वृद्धावस्था में उत्पन्न करता तो मैथुनी सृष्टि न होती। इसलिए युवावस्था में ही आदि सृष्टि मनुष्य उत्पन्न होते हैं।

तनिक विचार किया जाए तो ये बात सिद्ध भी सही होती है और ऊपर के लेख में वैज्ञानिक और तार्किक रूप से यही सत्य सिद्धांत समझाने का प्रयास किया गया है =

किसी भी लेख में भूलचूक होना स्वाभाविक है – कृपया लेख को पढ़कर अपने सुझाव और परामर्श अवश्य देवे – यदि कोई त्रुटि रह गयी हो तो क्षमा करे

लौटो वेदो की और

नमस्ते

वेद का सार्वभौमिक सिद्धांत बाइबिल में – आदम हव्वा का सिद्धांत झूठा है

बाइबिल में भी – अनेक मनुष्यो की उत्पत्ति है
आदम हव्वा का सिद्धांत झूठा है

अब जहाँ तक हम देखते हैं – वेद का विज्ञानं ही पूरी दुनिया में था –
और जितने भी मत निकले हैं – वो सभी वेद से ही कुछ सत्य बात निकालकर –

बाकी अपने मतलब की बाते ठूस कर दुनिया को मुर्ख बनाने हेतु – प्रपंच रचने को बनाये हैं – उसके लिए सबूत देखिये –

1.  ईसाई कहते है –

आदम और हव्वा दो ही मनुष्य उत्पन्न हुए – बाकी सब उनके बाद पैदा हुए – यानी आदम और हव्वा से ही सभी मनुष्य प्रजाति निकली।

लेकिन क्या ये सच है ?

देखिये वैज्ञानिक आधार पर – सभी मनुष्य के जेनेटिक सिस्टम अलग अलग हैं –

डीएनए अलग अलग पाये गए हैं – ऐसा कभी नहीं होता की एक ही माता पिता की संतान अलग अलग डीएनए की हो – ये तो हुआ वैज्ञानिक आधार –

अब थोड़ा – बाइबिल को जांच ले –

बाइबिल में भी – अनेक मनुष्यो की उत्पत्ति है – न की केवल एक आदम और हव्वा की – ये तो मुर्ख बनाने को शिगूफा छोड़ रखा है ईसाइयो ने – ताकि अपनी हवस पूर्ति करते रहे – अपने ही बहनो और बेटियो के साथ व्यभिचार करते रहे –

ये बहुत ही गलत बात है की ईसाई सुनी सुनाई मनगढ़ंत बात को सच मान लेते हैं – देखिये – आदम और हव्वा से अलग – अनेक मनुष्य – ईश्वर ने रचे थे – ये बात बाइबिल खुद स्वीकार करती है – देखिये –

आदम और हव्वा केवल एक स्त्री और एक पुरुष ईश्वर ने रचा –

इनके दो पुत्र हुए – कैन और हाबिल

अब हाबिल को कैन ने मार दिया – और जमीन में गाढ़ दिया – तब यहोवा ने कैन को बड़ा फटकारा – और कैन ने क्षमा याचना करते हुए कहा –

“यदि कोई मनुष्य मुझे पायेगा तो मार डालेगा”
(उत्पत्ति ४:१४)

– तब यहोवा ने कैन को आशीर्वाद दिया – जाओ अगर कोई तुमको मारेगा तो मैं उसे कठोर दंड दूंगा – और कैन के ऊपर यहोवा ने एक चिन्ह बना दिया – ताकि सभी मनुष्य जान ले की कैन को कोई ना मारे –

उपरोक्त बातो से साफ़ है – जब यहोवा ने केवल आदम और हव्वा बनाई और उनके दो ही बच्चे हुए – एक को दूसरे ने मार दिया – तब उसे (कैन) को अनेक मनुष्यो का डर क्यों सताया ?

जाहिर है – आदम और हव्वा अकेले नहीं थे – और भी मनुष्य थे – आइये एक और प्रमाण देखते हैं।

“कैन का परिवार” (उत्पत्ति ४:१६)

देखिये आपको पहले ही बताया की – यहोवा ने केवल आदम और हव्वा बनाई – आदम और हव्वा से – कैन – हाबिल हुए – कैन ने हाबिल को मार दिया – अब केवल कैन बचा – तो फिर कैन का परिवार कहाँ से आया ?

कैन यहोवा को छोड़ नोद देश चला गया। कैन ने अपनी पत्नी के साथ शारीरिक सम्बन्ध किया – और फिर कैन ने एक शहर बसाया –

तो मित्रो – एक बात समझ आई ? कैन यहोवा के पास से जब गया तब उसकी पत्नी नहीं थी – यानी कैन जब नोद देश गया – तो वहां की लड़की से शादी की – यानी की आदम और हव्वा से अलग भी मनुष्य उत्पन्न हुए थे – ये सिद्ध हुआ।

अब फिर भी कुछ अतिज्ञानी मानेंगे नहीं – उनको एक बार फिर प्रमाण दे दू
आदम और हव्वा को एक और पुत्र हुआ (उत्पत्ति ४:२५)

और ये पुत्र अब – कैन के विवाह के बाद हुआ है – ध्यान रहे – इस दौरान आदम और हव्वा को कोई पुत्री नहीं हुई –

तो कैन ने जिस लड़की से विवाह किया वो क्या हवा से टपक गयी ?

मेरे ईसाई मित्रो – इस पाखंड से बाहर आओ –

सत्य को जानो

ईश्वर को जानो – पाखंड को त्यागो

लौटो वेदो की और

वेद और मनुस्मृति का मूल

कुछ पौराणिक महाज्ञानी और अल्पबुद्धि लोग दोनों ही कुछ दिनों से एक विषय पर वार्तालाप करते चले आ रहे हैं, विषय है या सवाल है कुछ भी है वो इस प्रकार है –

मनुस्मृति का मूल वेद में कहाँ है ?

इस सवाल का जवाब देने से पूर्व हम देखते हैं मूल का अर्थ क्या होता है ?

मूल का अर्थ होता है आधार, बुनियाद, जड़, आदि। यानी इस सवाल को इस प्रकार समझा जा सकता है –

मनुस्मृति का आधार वेद में कहाँ है ?

यहाँ दो बाते समझनी चाहिए –

1. वेद अपौरुष्य हैं – अर्थात वेद ईश्वर का नित्य ज्ञान है जो आदि सृष्टि में ही चार ऋषियों के ह्रदय में प्रकाशित किया गया था। इससे सिद्ध है की वेद में इतिहास नहीं हो सकता और जो वेद में इतिहास खोजे वो गधे के सर पर सींग खोजने का व्यर्थ कार्य ही कर रहा है। इसी कारण से वेदो को श्रुति कहा गया है। ये परंपरा सनातन काल से चली आ रही है पर खेद की आज कुछ तथाकथित विद्वान अपने स्वार्थ को पूरा करने के चक्कर में इस सनातन परम्परा का अपमान करने से भी नहीं चूक रहे।

2. मनुस्मृति महाराज मनु द्वारा बनाया गया मानवो के लिए निर्मित आचार, व्यव्हार आदि धर्मशास्त्र है जिसे स्मृति कहा गया है। इस धर्मशास्त्र में मनुष्यो को क्या कर्म करने और क्या नहीं करने आदि विषयो से सम्बंधित है, कहने का तात्पर्य है की धर्म पर चलना और अधर्म से पृथक रहने का मनुस्मृति में विधान किया गया है।

अब दोनों तथ्यों को ध्यान में रखकर ये तो सिद्ध हो जाता है की मनुस्मृति वेदो के बहुत बाद की रचना है और मनुस्मृति में महाराज मनु ने वेदो के मंत्रो को देख पढ़ कर बहुत विचार करने के उपरान्त ये धर्मशास्त्र बनाया था। ताकि समस्त मानव जाति का कल्याण हो।

अब सवाल है की श्रुति और स्मृति में अंतर क्या है ?

सामान्य रूप से वेद को ‘श्रुति कहा जाता है और धर्मशास्त्रा को ‘स्मृति। महाराज मनु ने स्पष्ट रूप से स्मृति को ‘धर्मशास्त्रा कहा है-

श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रां तु वै स्मृति:।

-मनुस्मृति 2/10

भावार्थ : वेद धर्म के मूल हैं। वेद में प्रतिपादित धर्म का ही सरल रूप से धर्मशास्त्रा में वर्णन हुआ है।

तो यहाँ स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया की धर्म का मूल वेद है और वेद में प्रतिपादित धर्म का ही सरल रूप से धर्मशास्त्र यानी मनुस्मृति में वर्णन हुआ है।

इससे ये भी सिद्ध हुआ की मनुस्मृति का मूल वेद ही है। और इस आक्षेप का समाधान भी हो गया की मनुस्मृति का मूल वेद में कहाँ है।

महर्षि दयानंद और पंडित तारचरण के मध्य शास्त्रार्थ हेतु जो संवाद हुआ वो पठनीय है :

महर्षि दयानंद : क्या आप वेदो का प्रमाण मानते हैं वा नहीं ?

पंडित तारचरण : जो वर्णाश्रम में स्थित हैं उन सबको वेदो का प्रमाण ही है।

यहाँ पंडित तारचरण को भी सत्यभाषण ही करना पड़ा क्योंकि जो वेदो को प्रमाण न मानते ऐसा कहते तो बहुत ही निंदा होती – लेकिन ध्यान योग्य बात है की जब वेद को स्वयं ही प्रमाण मान लिया तब अन्य प्रमाण की इन्हे आवश्यकता क्या पड़ी ?

महर्षि दयानंद : कहीं वेदो में पाषाणादि मूर्ति पूजन का प्रमाण है वा नहीं ? यदि है तो दिखाइए और जो न हो तो कहिये नहीं है।

पंडित तारचरण : वेदो में प्रमाण है वा नहीं परन्तु जो एक वेदो का ही प्रमाण मानता है औरो का नहीं उसके प्रति क्या कहना चाहिए ?

यहाँ ध्यान से पढ़ने वाली बात है – ऋषि ने केवल मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में सवाल किया की क्या वेदो में मूर्तिपूजा का प्रमाण है ? इस पर तारचरण जी से कुछ कहते नहीं बना क्योंकि वो जानते थे की वेदो में मूर्तिपूजा का प्रमाण नहीं इसलिए अन्य प्रमाणों की और जोर देकर कहा की अन्य प्रमाण भी साक्षी के तौर पर लेने चाहिए मगर तारचरण जी ये भूल गए की खुद भी ऊपर उन्होंने स्वयं माना की जो भी वर्णाश्रम में स्थित है उसके लिए वेद ही प्रमाण है। तब जब वेद ही को वर्णाश्रम में स्थित के लिए प्रमाण मान तब अन्य प्रमाण की साक्षी क्यों ?

महर्षि दयानंद : औरो का विचार पीछे होगा। वेद का विचार मुख्य है। इस निमित्त इसका विचार पाहिले ही करना चाहिए क्योंकि वेदोक्त ही कर्म मुख्य है और मनुस्मिृत आदि भी वेदमूलक है इससे इनका भी प्रमाण है क्योंकि जो वेद विरुद्ध और वेदो में अप्रसिद्ध है उनका प्रमाण नहीं होता।

यहाँ ध्यान योग्य पढ़ने वाली बात है, क्योंकि इससे पंडित तारचरण का पंडितव और महर्षि दयानंद का अद्भुद ज्ञान दोनों ही समझ आ सकते हैं – देखिये महर्षि ने कहा क्योंकि मनुस्मृति वेद पर आधारित है अर्थात जो वेद सम्मत है उसको महाराज मनु ने भी धर्म कहा और जो वेद विरुद्ध है उसे अधर्म कहा – इससे सिद्ध है की मनुस्मृति वेदमूलक है। मगर पंडित तारचरण की पंडताई देखिये :

पंडित तारचरण : मनुस्मृति का वेदो में कहाँ मूल है ?

अब देखिये धूर्तता और छल, ऋषि ने कहा मनुस्मिृति वेदमूलक है यानी वेद सम्मत बात मनुस्मृति में धर्म कहा है, मगर तारचरण जी अपनी धूर्तता करते हुए मनुस्मृति का वेदो में कहाँ मूल है ये सवाल पूछते हैं, खैर फिर भी महर्षि ने बहुत ही अच्छा जवाब देते हुए कहा :

महर्षि दयानंद : जो जो मनुजी ने कहा है सो सो औषधियों का भी औषध है ऐसा सामवेद के ब्राह्मण में कहा है।

यहाँ ये बात बहुत ही गूढ़ है जो महर्षि ने बताई – पंडित तारचरण समझ गये इसलिए अब इस विषय से हट गए क्योंकि जो इसी विषय पर रहते तो वेदो से प्रमाण देना होता की मूर्तिपूजा वेद सम्मत है – जो की कभी दे नहीं सकते थे – इसलिए फ़ौरन एक दूसरे पंडित विशुद्धांनंद स्वामी ने प्रकरण को बदलते हुए आक्षेप करने शुरू करे।

इतने से ही पाठकगण समझ लेंगे की पौराणिक व्यर्थ ही आक्षेप मढ़ते हैं जवाब उनपर आजतक नहीं मगर फिर भी आक्षेप महर्षि पर लगाने हैं, खैर हम यहाँ ऋषि के समर्थन में और अनेक ऋषियों जैसे महर्षि व्यास और वाल्मीकि जिन्होंने मनु महाराज के श्लोको को अपने ग्रंथो में महत्त्व प्रदान किया पठनीय है :

महाभारत में मनुस्मृति के श्लोक –

महर्षि वेदव्यास (कृष्णद्वेपायन ) रचित महाभारत में मनुस्मृति के श्लोक व् मनु महाराज कि प्रतिष्ठा अनेकों स्थानो पर आयी है किन्तु मनु में महाभारत वा व्यास जी का नाम तक नही ।

महाभारत में मनु महाराज की प्रतिष्ठा –
मनुनाSभिहितम् शास्त्रं यच्चापि कुरुनन्दन ! महाभारत अनुशासन पर्व , अ० ४ ७ – श ० ३ ५
तैरेवमुक्तोंभगवान् मनु: स्वयम्भूवोSब्रवीत् । महाभारत शांतिपर्व , अ० ३ ६ – श ० ५
एष दयविधि : पार्थ ! पूर्वमुक्त : स्वयम्भूवा । महाभारत अनुशासन पर्व , अ० ४ ७ – श ० ५ ८
सर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् । महाभारत शांतिपर्व , मोक्षधर्म आदि ।
अद्भ्योSग्निब्रार्हत: क्षत्रमश्मनो लोहमुथितं ।
तेषाम सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिशु शाम्यति ।। – मनु अ० ९ – ३ २ १

ठीक यही मनु का श्लोक महाभारत शांतिपर्व अ० ५ ६ – श २ ४
में आया है और महाभारत के इस श्लोक से ठीक पूर्व २ ३ वें श्लोक में आया है –
“मनुना चैव राजेंद्र ! गीतो श्लोकों महात्मना”
अर्थात हे राजेंद्र ! मनु नाम महात्मा ने इन श्लोकों को कहा है !

इसी प्रकार मनु के जो जो श्लोक ज्यों के त्यों महाभारत में है ;
मैं यहाँ अब केवल उनके श्लोक नम्बर ही लिखा रहा हूँ

मनु ० १ १ /७ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ५
मनु ० १ १ /१२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ९
मनु ० १ १ /१८ ० – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ३ ७
मनु ० ६ /४५ – महा० शांति अ ० २४५ – श ० १५
मनु ० २ /१२० – महा०अनु ० अ ०१०४ – श ० ६४

अब वो श्लोक लिखते है जो मनु के है परन्तु कुछ परिवर्तन के साथ आयें है –

यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग: ।
यश्च विप्रोSनधियान स्त्रयते नाम बिभ्रति । । – मनु २ /१५७

यथा दारुमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग: ।
ब्राह्मणश्चानधियानस्त्रयते नाम बिभ्रति । । -महा शांति ३६/४७

अब केवल उनके श्लोक नम्बर ही लिखा रहा हूँ जो कुछ परिवर्तन के साथ आयें है –

मनु ० १ १ /४ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ४
मनु ० १ १ /१२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ७
मनु ० १ १ /३७ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० २ २
मनु ० ८ /३७२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ६३
मनु ० २ /२३१ – महा० शांति अ ० १०८ – श ० ७
मनु ० ९ /३ – महा० अनु अ ० ४६ – श ० १४
मनु ० ३ /५५ – महा० अनु अ ० ४६ – श ० ३

लगभग मनु के ५ ० ऐसे श्लोक है जो ज्यों के त्यों वा कुछ परिवर्तन के साथ महाभारत में आये है ।
वाल्मीकि रामायण में मनुस्मृति के श्लोक –

महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में मनुस्मृति के श्लोक व् मनु महाराज कि प्रतिष्ठा आयी है किन्तु मनु में वाल्मीकि , राम जी आदि का नाम तक नही ।

वाल्मीकि रामायण में मनु महाराज की प्रतिष्ठा –

किष्किन्धा काण्ड में जब श्री राम अत्याचारी बाली को घायल कर उसके आक्षेपों के उत्तर में अन्यान्य कथनो के साथ साथ यह भी कहते है कि तूने अपने छोटे भाई सुग्रीव कि स्त्री को बलात हरण कर और उसे अपनी स्त्री बना अनुजभार्याभिमर्श का दोषी बन चूका है , जिसके लिए (धर्मशास्त्र ) में दंड कि आज्ञा है ।
इस पृथिवी के महाराज भरत है (अतः तू भी उनकी प्रजा है ) ; मैं उनकी आज्ञापालन करता हुआ विचरता हूँ फिर में तुझे यथोचित दंड कैसे ना देता ? जैसे –

श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चारित्र वत्सलौ ||
गृहीतौ धर्म कुशलैः तथा तत् चरितम् मयाअ || वाल्मीकि ४-१८-३०

राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || वाल्मीकि ४-१८-३१

शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते |
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् || वाल्मीकि ४-१८-३२

उपरोक्त श्लोक ३० में मनु का नाम आया है और श्लोक ३१ , ३२ भी मनु महाराज के ही है !
उपरोक्त श्लोक किंचित पाठभेद (परन्तु जिससे अर्थ में कुछ भी भेद नही आया ) मनु अध्याय ८ के है ! जिनकी संख्या कुल्लूकभट्ट कि टिकावली में ३१८ व् ३१९ है –

राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || वाल्मीकि ४-१८-३१

राजभिः धूर्त दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || मनु ८ / ३१८

शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते |
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् || वाल्मीकि ४-१८-३२

शसनाद्वा अपि मोक्षाद्वा स्तेनः स्तेयाद विमुच्यते |
अशासित्वा तू तं राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम् ॥ मनु ८/३१६

रामायण में स्पष्टतः मनु के श्लोकों (मनुना गीतौ श्लोकौ) कि प्रशंसा विधमान है ठीक उसी प्रकार जैसे महाभारत में थी “मनुना चैव राजेंद्र ! गीतो श्लोकों महात्मना” – महाभारत शांतिपर्व अ० ५ ६ – श २ ३

ऐतिहासिक ग्रंथो में ही इतिहास का वर्णन हो सकता है, वेद तो ईश्वर का नित्य ज्ञान है उसमे इतिहास नहीं हो सकता, क्योंकि वेद धर्म का मूल है इसलिए मनुस्मृति वेदमूलक है तभी उसका वर्णन और महाराज मनु की प्रतिष्ठा रामायण व महाभारत दोनों ही ग्रंथो में विस्तार से मिलती है, यदि अब भी कोई पौराणिक ना माने हठ करे तो इसे देखे :

इदं शास्त्रां तु कृत्वा-सौ मामेव स्वयमादित:।

विधिवद ग्राहयामास मरीच्यादींस्त्वहं मुनीन।।

-मनुस्मृति 1/58

अतएव मनु द्वारा उपदिष्ट होने से ही इसका नाम मनुस्मृति है।

महाराज मनु आदि अनेको ऋषियों ने धर्म का मूल वेदो के अनुसार जो नियम बनाये और उनका पालन करने की प्रेरणा दी वही धर्म कहा गया है। यदि कुछ महानुभाव वेद से उसे ना भी जोड़ते हुए ‘चोदना’ प्रेरणा तक ही सीमित रखे जैसे की व्यर्थ ही कोशिश काशी शास्त्रार्थ के दौरान विशुद्धानन्द जी ने की मगर वो भूल गए की कर्तव्य के मूल में प्रेरणा अवश्यम्भावी है अर्थात जिन लक्षणों, कर्तव्यों या नियमो में लोक को धारण करने की प्रेरणा मूलभूत रहती है वे धर्म हैं और उनका पालन आवश्यक माना जाता है, यही बात महर्षि ने विशुद्धानन्द जी को जवाब देते समय कही थी :

महर्षि दयानंद : धर्म के दस लक्षण मनुस्मृति में बताये हैं, धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध – फिर सवाल घूम फिर कर विशुद्धानन्द जी पर ही आ गिरा क्योंकि उन्होंने धर्म के स्वरुप को पाहिले ‘चोदना’ अर्थात प्रेरणा बता दिया फिर बाद में धर्म का केवल एक ही लक्षण बताया।

इससे काशी में मौजूद सभी पंडितो का पंडितव और आडमबर सबके सम्मुख निकल आया। नतीजा आजतक सभी पंडित महर्षि दयानंद पर व्यर्थ आक्षेप लगा रहे हैं, जवाब खुद के पास मौजूद नहीं और जिस महर्षि ने अपनी विद्वत्ता काशी ही नहीं सम्पूर्ण धरती पर वेदो के माध्यम से दिखाई वो कोई साधारण मनुष्य नहीं कर सकता।

निश्चय ही वो महामानव अर्थात महर्षि थे।

धन्य है तुझ को ए ऋषि तूने हमेँ जगा दिया।
सो सो के लुट रहे थे हम,तूने हमेँ जगा दिया।

अब भी चाहे तो अनेको पौराणिक मिथ्या आक्षेप और विलाप करने हेतु स्वतंत्र है।

लौटो वेदो की और।

नमस्ते

सगुण क्या निर्गुण क्या? प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

अबोहर के डी.ए.वी. कॉलेज में कुछ वर्ष पूर्व दो योग्य युवा हिन्दी प्राध्यापक नियुक्त हुए। कुछ पुराने अध्यापकों से लेखन व साहित्य सृजन की चर्चा करते समय उन्होंने अपने पुराने सहयोगियों से मेरे लेखन-कार्य के बारे में कुछ सुना। एक दिन फिर धूप में खड़े-खड़े वे कुछ ऐसी ही चर्चा कर रहे थे। पुनः मेरा नाम किसी ने लिया तो वे बोले- उनका निवास कॉलेज पुस्तकालय के पीछे ही तो है। वे प्रायः कॉलेज के डाकघर पत्र डालने व कार्ड आदि लेने आते रहते हैं। जो दुबला-पतला व्यक्ति चलते-चलते यहाँ से पढ़ता-पढ़ता निकले बस समझलो- वह राजेन्द्र जिज्ञासु ही हो सकता है। वे यह बात कर ही रहे थे कि मैं चलते-चलते उधर से निकला। कुछ पढ़ता भी जा रहा था। मेरी उनसे भेंट करवाई गई। कुछ चर्चा छिड़ गई। क्या लिख रहे हो? आजकल किस विषय की खोज में लगे हो? कुछ ऐसे प्रश्न पूछे।

मैंने उन्हें अपने निवास पर दर्शन देने के लिए कहा। वे निमन्त्रण पाकर प्रसन्न हुए और दो दिन में मिलने आ गये। मैं अपने लेखन-कार्य में व्यस्त था। बातचीत चल पड़ी तो उन दो में से एक ने कहा- आर्यसमाज तो निर्गुण, निराकार की उपासना को मानता है, जब कि भक्तिकाल के कई सन्त सगुण, साकार ईश्वर की उपासना को मानते हैं।

यह कथन सुनकर इस लेखक ने उनसे कहा- आपके कथन में आंशिक सच्चाई है। आर्यसमाज तो ईश्वर को निर्गुण व सगुण दोनों मानता है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जो निर्गुण न हो और कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो सगुण न हो।

मेरे मुख से निकले ये शब्द  सुनकर वे दोनों चौंक पड़े। दोनों ही पीएच.डी. उच्च शिक्षित सज्जन थे। वे बोले हिन्दी साहित्य में तो अनेक लेखकों ने निर्गुण भक्ति को निराकार की उपासना और सगुण उपासना का अर्थ मूर्तिपूजा  ही माना है। कुछ सन्त महात्माओं के नाम भी लिए।

उनसे निवेदन किया गया कि सन्तों को इस चर्चा में मत घसीटें। मैं भी बहुत नाम ले सकता हूँ। आप यह बतायें कि सगुण व निर्गुण इन दो शब्दों  में जो ‘गुण’ शब्द  पड़ा है, इसका अर्थ क्या है? कोई-सा शब्दकोष  उठा लीजिये अथवा किसी ग्रामीण निरक्षर वृद्धा से पूछें कि ‘गुण’ शब्द  का अर्थ क्या है? यह शब्द देशभर में प्रयुक्त होता है। सर्वत्र इसका आशय क्वालिटी सिफ़त ही जाना, माना व समझा जाता है। सद्गुण, अवगुण सब ऐसे शब्द यही सिद्ध करते हैं या नहीं? उनको मेरी बात जँच गई। वे इसका प्रतिवाद न कर सके।

अब उनसे पूछा कि जब गुण का अर्थ आप क्वालिटी विशेषतायें मानते हैं तो फिर ‘सगुण’ ‘निर्गुण’ की चर्चा में काया अथवा शरीर-आकार कैसे घुस गया? वे बोले- यह बात तो हमने पहली बार ही सुनी है। आपका तर्क तो बहुत प्रबल है। मैंने कहा- आप चिन्तन करिये। स्वाध्याय करिये। बहुत कुछ नया मिलेगा। आप अन्ध परम्पराओं की अंधी गुफाओं से निकलें। वेद, दर्शन, उपनिषद् तक पहुँचे। सत्य का बोध हो जायेगा। मान्य सोमदेव जी के ‘जिज्ञासा समाधान’ में सगुण-निर्गुण विषयक चर्चा पढ़कर यह प्रसंग देने का मैंने साहस किया है। आशा है कि पाठकों को इससे लाभ मिलेगा, प्रेरणा प्राप्त होगा

उत्तर देने की आर्यसमाजी कला: प्रो राजेंद्र जिज्ञासु

कुछ तड़प-कुछ झड़प

– राजेन्द्र जिज्ञासु

उत्तर  देने की कलाः गत तीन चार मास में बिजनौर के आर्यवीर श्री विजयभूषण जी तथा कुछ अन्य नगरों के आर्य सज्जनों ने भी चलभाष पर दो बातें विशेष रूप से इस लेखक को कहीं। . आपकी उत्तर देने की कला बहुत अनूठी है। २. आप तड़प-झड़प में इतिहास की ठोस सामग्री देते हैं। इसमें अलभ्य लेखों, पत्र-पत्रिकाओं तथा इस समय अप्राप्य साहित्य की पर्याप्त चर्चा होने से बहुत जानकारी मिलती है। अनेक बन्धुओं विशेष रूप से युवकों के मुख से ये बातें सुनकर उत्तर देने की कला पर दो-चार बार कुछ विस्तार से लिखने का विचार बना।

मैं गत दस-बारह वर्षों से मेधावी लगनशील युवकों से बहुत अनुरोध से यह बात कहता चला आ रहा हूँ कि वैदिक धर्म पर वार-प्रहार करने वालों को उत्तर देना सीखो। अब भी आर्य समाज में कुछ अनुभवी विद्वान् ऐसे हैं, जिनकी उत्तर देने की शैली मौलिक, विद्वतापूर्ण  तथा हृदयस्पर्शी है। श्री डॉ. धर्मवीर जी को जब उत्तर देना होता है तो उनकी लेखनी की रंगत ही कुछ निराली होती है। श्री राम जेठमलानी ने श्री रामचन्द्र जी पर एक तीखा प्रश्न उठाया। संघ परिवार के ही श्री विनय कटियार ने उनके स्वर में स्वर मिला दिया।

राम मन्दिर आन्दोलन का एक भी कर्णधार श्रीयुत् राम जेठमलानी के आक्षेप का सप्रमाण यथोचित उत्तर न दे सका। मेरे जैसे आर्यसमाजी रामभक्त भी तरसते रहे कि उमा भारती जी, श्री मुरली मनोहर जी अथवा सर संघचालक आदरणीय भागवत जी इस आक्षेप का कुछ सटीक उत्तर दें, परन्तु ऐसा कुछ भी न हुआ। परोपकारी का सम्पादकीय पढ़कर अनेक पौराणिकों ने भी यह माँग की कि श्री धर्मवीर जी श्री राम के जीवन पर इसी शैली में २५०-३०० पृष्ठों की एक मौलिक पुस्तक लिख दें।

श्री डॉ. ज्वलन्त कुमार जी भी जानदार उत्तर देते हैं। परोपकारी में श्री आचार्य सोमदेव जी तथा आदरणीय सत्यजित् जी द्वारा शंका समाधान की शैली प्रभावशाली व प्रशंसनीय है।

आर्यसमाज में श्री राजवीर जी जैसे उदीयमान लेखक तथा अनुभवी गम्भीर विद्वान् डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी ने भी इस विनीत से एक दो बार कहा, ‘आपने उत्तर देते हुए चुटकी लेना कहाँ से सीखा?’

मैंने कहा, ‘अपने बड़ों से और विशेष रूप से पूज्य पं. चमूपति जी से।’

प्रिय राजवीर जी तथा श्री धर्मेन्द्र जी ‘जिज्ञासु’ ने तो कुछ श्रम करके उत्तर देने की कला सीखी व विकसित की है, परन्तु बहुत से युवक इस दिशा में कुछ करके दिखा नहीं सके और राजवीर जी तथा धर्मेन्द्र जी भी समय के अभाव में जितना उन्हें बढ़ना चाहिये, बढ़ नहीं सके। कई युवक ऐसे भी मिले हैं, जो गुरु तो बनाने की ललक रखते हैं, परन्तु उनमें विनम्रता व श्रद्धा से सीखने की ललक नहीं। घर बैठे तो यह विद्या आती नहीं।

आइये, उत्तर देने की आर्यसमाजी कला का कुछ इतिहास यहाँ देते हैं। मैंने जो पूर्वजों (इस कला के आचार्यों) के मुख से जो कुछ सुना व पढ़ा है, इस कला के जनक तो स्वयं पूज्य ऋषिवर दयानन्द जी महाराज थे। उनके पश्चात् इस कला के सिद्धहस्त कलाकार पं. लेखराम जी मैदान में उतरे। यह मेरा ही मत नहीं है, लाला लाजपतराय जी ने भी अपनी लौह लेखनी से ऐसा ही लिखा है। बड़े-बड़े मौलवियों तथा सनातन धर्मी नेता पं. दीनदयाल जी का भी ऐसा ही मत था। मौलाना अ दुल्ला मेमार तथा मौलाना रफ़ीक दिलावरी जी का भी ऐसा ही मत था।

तनिक महर्षि जी की उत्तर देने की कला पर भी इतिहास शास्त्र का निर्णय सुना दें। आर्यसमाजी लेखक जो ऋषि जीवन की तोता रटन लगाते रहते हैं, वे इतिहास के इस निर्णय को जानते ही नहीं और परोपकारी में पढ़-सुनकर इसे आगे प्रचारित ही नहीं करते।

१. वैद्य शिवराम पाण्डे ऋषि के साथ प्रयाग रहे। वे काशी की पाठशाला में भी रहे। वे आर्यसमाजी तो नहीं थे, परन्तु ऋषि की संगत की रंगत मानते थे। आपका एक दुर्लभ लेख हमारे पास है। वे लिखते हैं कि ऋषि एक ही प्रश्न का उत्तर कई प्रकार से देना जानते थे। श्री गोस्वामी घनश्याम जी मुल्तान निवासी बाल शास्त्री की कोटि के विद्वानों में से एक थे। काशी शास्त्रार्थ के समय आप काशी में नहीं थे। जब काशी शास्त्रार्थ के पश्चात् मूर्तिपूजकों ने देशभर में यह प्रचार करना चाहा कि स्वामी दयानन्द शास्त्रार्थ में हारे तो गोस्वामी झट से काशी गये। बाल शास्त्री से मिलकर पूछा, सच-सच बताओ! क्या स्वामी दयानन्द हारे या काशी के पण्डित?

तब बाल शास्त्री जी ने वीतराग दयानन्द के गुणों का बखान करते हुए कहा था कि हम जैसे निर्बल संसारी उन्हें हराने वाले कौन?

चाँदापुर के शास्त्रार्थ में पादरी महोदय ने कहा था, ‘‘सुनो भाई मौलवी साहबो! पण्डित जी इसका उत्तर हजार प्रकार से दे सकते हैं। हम और तुम हजारों मिलकर भी इनसे बात करें तो भी पण्डित जी बराबर उत्तर दे सकते हैं, इसलिए इस विषय में अधिक कहना उचित नहीं।’’

पादरी जी का यह कथन आर्यसमाज में प्रचारित करने वाले चल बसे। पुस्तकों की सूचियाँ बनाने वाले सम्पादक लेखक शास्त्रार्थ कला (विधा) को समझ ही न सके।

पं. लेखराम जी की उत्तर देने की कला की एक घटना ‘आर्य मुसाफिर’ मासिक की फाईलों में छपे उनके एक शास्त्रार्थ से मिली। सीमा प्रान्त के एक नगर में प्रतिमा पूजन पर एक शास्त्रार्थ में पण्डित जी ने ‘न तस्य प्रतिमाऽअस्ति’ इस वेद वचन से अपने कथन की पुष्टि की तो विरोधी ने कहा कि यहाँ ‘नतस्य’ है अर्थात् प्रतिमा के आगे झुकने की बात है। यहाँ ‘तस्य’ शब्द  नहीं। तब पण्डित जी ने कहा कि यदि यहाँ ‘तस्य’ शब्द  नहीं तो फिर इस मन्त्र में ‘यस्य’ शब्द  किसके लिए है? वहाँ पौराणिक पण्डितों ने भी पण्डित जी के इस तर्क व प्रमाण का लोहा माना। यह किसी भी शास्त्रार्थ में किसी संस्कृतज्ञ आर्य ने तर्क न दिया। श्रद्धेय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने इस प्रसंग में हमें कहा था, ‘‘यह तो पं. लेखराम जी के जन्म-जन्मान्तरों का संस्कार और उनकी ऊहा का चमत्कार मानना पड़ेगा।’’

अब इस प्रसंग में इतिहास का एक और निचोड़ देना लाभप्रद होगा। पं. गणपति शर्मा जी तथा श्री स्वामी दर्शनानन्द जी की उत्तर देने की कला भी विलक्षण थी। इनके पश्चात् आर्यसमाज में अपनी-अपनी कला से उत्तर देने में कई सुदक्ष कलाकार विद्वान् हुए, परन्तु स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, श्री पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय, पं. रामचन्द्र जी देहलवी, पं. लक्ष्मण जी आर्योपदेशक, स्वामी सत्यप्रकाश जी- इन पाँच महापुरुषों के दृष्टान्त, तर्क व प्रमाण अत्यन्त प्रभावशाली, मौलिक व हृदयस्पर्शी होते थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज ने चार बार पूरे भारत का पैदल भ्रमण किया। उनके पास दृष्टान्तों का अटूट भण्डार व जीवन के बहुत अनुभव थे।

आचार्य रामदेव जी, मेहता जैमिनि जी तथा श्री पं. धर्मदेव जी को विश्व साहित्य के असंख्य उद्धरण कण्ठाग्र थे। इन तीनों की उत्तर देने की कला भी बड़ी न्यारी व प्यारी थी। मैं बाल्यकाल में अपने छोटे से ग्राम के आर्यों की परस्पर की चर्चा सुन-सुनकर ग्राम के एक आर्य युवक कार्यकर्ता से पूछा करता था कि आचार्य रामदेव जी की वक्तृत्व कला की क्या विशेषता है? उनका  उत्तर था- उन्हें सब कुछ कण्ठाग्र है। मैं अपने निजी अनुभव से यह बताना चाहूँगा कि मैं सब पूज्य विद्वानों को ध्यान से सुना करता था। उनसे चर्चा किया करता था, फिर चिन्तन करने का अभ्यास हो गया। इससे मेरी भी उत्तर देने की कला विकसित हुई।

स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ ने मेरे आरम्भिक काल में अत्यन्त प्यार से, कुछ डाँटकर कहा कि जो पढ़ो व सुनो, उसपर विचार कर स्वयं उत्तर खोजो, फिर उ उत्तर न सूझे तो आकर पूछा करो। अब इन उतावले युवकों का न गहन अध्ययन है, न बड़ों से कुछ सीखने की भूख है। प्राणायाम की चर्चा सुनकर तथा दो योग शिविरों में भाग लेकर ये सब नौ सिखिये योगाचार्य बनकर ध्यान शिविर लगाने व अपना आश्रम या अड्डा बनाने में लग जाते हैं। यह प्रवृत्ति  धर्मप्रचार में बाधक रोड़ा बन रही है।

 

ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः – १० – स्वामी विष्वङ्

महर्षि पतञ्जलि ने पाँचवें सूत्र से लेकर नौवें सूत्र तक पाँचों क्लेशों की परिभाषाएँ दीं और चौथे सूत्र (अविद्या क्षेत्रमु ारेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्) में क्लेशों की चार अवस्थाएँ बतायीं। उन्हीं चार (सोये हुए, कमजोर हुए, दबे हुए और वर्तमान में रहने वाले की) अवस्थाओं को दो विभागों में बाँटकर महर्षि ने प्रस्तुत सूत्र की चर्चा की है। वे दो भाग स्थूल रूप में और सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहते हैं। क्लेशों के स्थूल रूप को हटाने-समाप्त करने के लिए क्रियायोग है। तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान के माध्यम से क्लेशों के स्थूल-उग्ररूप को नष्ट किया जाता है। क्लेशों के सूक्ष्मरूपों-कमजोर रूपों को नष्ट करने के लिए जिस प्रसंख्यान रूपी त वज्ञान को अपनाते हुए उन्हें दग्धबीज के समान बनाकर कारण प्रकृति में पहुँचाया जाता है, उसे बताने के लिए प्रस्तुत सूत्र प्रवृ ा हुआ है। सूत्र का अर्थ इस प्रकार है- वे अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश जब क्रियायोग के माध्यम से सूक्ष्म हो जाते हैं, तब उन क्लेशों को जले हुए-भुने हुए बीजों के समान बनाकर कारण प्रकृति-स व, रज और तम में विलीन (प्रलय) कर देना चाहिए, जिससे आत्मा और दृश्य का संयोग न हो। उनके संयोग का न होना ही मोक्ष कहलाता है।
महर्षि वेदव्यास प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या करते हुए कहते हैं-
ते पञ्च क्लेशा दग्धबीजकल्पा योगिनश्चरिताधिकारे चेतसि प्रलीने सह तेनैवास्तं गच्छन्ति।
अर्थात् योगाभ्यासी तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान रूपी क्रियायोग को अत्यन्त पुरुषार्थ के साथ अपने जीवन में लाता हुआ, उन पाँचों क्लेशों को तनू-कमजोर बना देता है। योग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान को अपनाता हुआ लम्बे काल तक, निरन्तर-बिना व्यवधान के ब्रह्मचर्य पूर्वक, विद्यापूर्वक और श्रद्धापूर्वक जीवन में उतारता हुआ घोर पुरुषार्थ से कमजोर हुए क्लेशों को दग्धबीजभाव की ओर ले चलता है। अभिप्राय यह है कि उन क्लेशों को जले हुए-भुने हुए चने के बीजों के समान बना देता है। जिस प्रकार भुने हुए चने अंकुरित होने में असमर्थ होते हैं, उसी प्रकार क्लेश भी पुनः उद्बुद्ध नहीं होते हैं, अर्थात् व्यवहार में नहीं आते हैं। जब पाँचों क्लेश दग्धबीज वाले बन जाते हैं, तब मन समाप्त अधिकार वाला बन जाता है। मन के दो प्रयोजन हैं- एक संसार का भोग कराना और दूसरा अपवर्ग-मोक्ष दिलाना। इन दोनों प्रयोजनों को पूरा करना ही मन का अधिकार-कर् ाव्य है। जैसे ही इन कर् ाव्यों को मन पूरा करता है, तो मन समाप्त कर् ाव्यों वाला बनता है, इस समाप्त कर् ाव्य वाले मन को ही चरिताधिकार मन कहते हैं।
जिस योगी के मन के कर् ाव्य पूर्ण हो चुके हों, ऐसे मन का इस संसार में रहने का कोई औचित्य नहीं रह जाता, इसलिए क्लेशों को दग्धबीज अवस्थाओं में पहुँचाने वाले योगी का मन योगी से अलग होता है। यहाँ मन मुख्य होने से मन को लेकर चर्चा की जा रही है। यद्यपि मन के साथ-साथ सभी इन्द्रियाँ, सभी तन्मात्राएँ, अहंकार, मह ा व रूपी बुद्धि सहित अठारह त वों का समुदाय रूपी सूक्ष्म शरीर अपने कारण रूपी स व, रज, तम में विलीन हो जाता है। इन अठारह त वों में मन की भूमिका मह वपूर्ण होने से ऋषि ने मन को लेकर कथन किया है कि चरिताधिकार वाला मन अपने कारण रूपी प्रकृति (स व, रज, तम) में विलीन होता है। जब मन अपने कारण में विलीन होता है, तब दग्धबीज वाले क्लेशों की क्या स्थिति होती है? इसका समाधान ऋषि करते हैं- ‘तेनैव सह अस्तं गच्छन्ति।’ अर्थात् उसी मन के साथ-साथ दग्धबीज वाले पाँचों क्लेश भी स व, रज, तम में मिल जाते हैं। यहाँ पर महर्षि वेदव्यास ने दग्धबीज अवस्था वाले क्लेशों (अविद्या) को स व, रज, तम में मिलने की बात की है, अर्थात् अविद्या कारण रूप में प्रकृति में रहती है।
अविद्या कार्य रूप में रहती है, तो मन में रहती है, इस बात को महर्षि वेदव्यास ने स्पष्ट श दों में अनेकत्र कहा है। जैसे ‘ते च मनसि वर्तमानाः पुरुषे व्यपदिश्यन्ते, स हि तत्फलस्य भोक्तेति।’ (योगदर्शन १.२४) ‘तावेतौ भोगापवगौ बुद्धिकृतौ बुद्धावेव वर्तमानौ कथं पुरुषे व्यपदिश्येते….अभिनिवेशा बुद्धौ वर् ामाना पुरुषेऽध्यारोपित सद्भावाः स हि तत्फलस्य भोक्तेति।’ (योगदर्शन २.१८) ‘प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति तमनुपश्यन्नतदात्माऽपि तदात्मक इव प्रत्यवभासते।’ (योगदर्शन २.२०) इन सभी प्रमाणों का एक ही तात्पर्य है कि उत्पन्न होने वाली अविद्या और विद्या- दोनों ही मन में रहती हैं। कोई यह न समझे कि ज्ञान जड़ में कैसे रह सकता है? ज्ञान के जड़ में रहने से कोई भी आप िा नहीं आती है। हाँ, यदि वह जड़ उस ज्ञान को अनुभव करने लगे, तो आप िा आ सकती है, परन्तु जड़ वस्तु अनुभव नहीं कर सकती। क्यों? चेतन न होने से। इसलिए उत्पन्न मात्र पदार्थ चाहे वे द्रव्य के रूप में हों या गुण के रूप में हों, जड़ में ही रहते हैं। आत्मा तो अप्रतिसंक्रमा- न घुलने-मिलने वाला है, इसलिए उत्पन्न मात्र पदार्थ व गुण घुलने-मिलने वाले जड़ पदार्थों में ही रह सकते हैं। विद्या और अविद्या के निवास स्थान जड़ पदार्थ हैं, इसी कारण महर्षि वेदव्यास कहते हैं- कार्यकाल में ये दोनों मन में रहते हैं और कार्यकाल समाप्त होने पर अपने कारण प्रकृति में मिल जाते हैं।
यहाँ पर विद्या और अविद्या का निवास स्थान जड़ को कहने से यह नहीं समझना चाहिए कि विद्या के निवास स्थान चेतन नहीं हो सकते। हाँ, विद्या के निवास स्थान चेतन भी होते हैं, परन्तु वहाँ विद्या उत्पन्न होने वाली नहीं है। परमात्मा में विद्या सदा रहती है और नित्य होने से वह कभी न्यून या अधिक नहीं होती है। ईश्वर का ज्ञान (विद्या) नित्य है, इसलिए घटता और बढ़ता नहीं है। जीवात्मा का अपना स्वाभाविक ज्ञान (विद्या) है और वह भी घटता और बढ़ता नहीं है। हाँ, जो उत्पन्न होने वाली विद्या और अविद्या हैं, वे घटती और बढ़ती हैं, परन्तु यह घटना और बढ़ना मन में होता रहता है, आत्मा में नहीं। इसलिए इस बात को अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि उत्पन्न मात्र पदार्थ और गुणों का आश्रय स्थान जड़ पदार्थ ही होते हैं। इस कारण विद्या और अविद्या और उसके संस्कार जड़ मन में रहते हैं, इस बात को स्वीकार करने में कोई आप िा नहीं होनी चाहिए। यहाँ पर केवल आश्रय के रूप में बताया जा रहा है, इस निवास के कारण जड़, चेतन नहीं बन जाता। अनुभव करने वाला ही चेतन होता है, यही सत्य है।
महर्षि वेदव्यास ने दग्धबीजभाव को प्राप्त हुए क्लेशों को मन के साथ प्रकृति में विलीन होने की बात कही है। क्लेश दग्धबीज अवस्था को कैसे प्राप्त होते हैं, इसकी चर्चा महर्षि ने समाधि पाद में विस्तार से की है, वहीं पर समझने का प्रयास करना चािहए। फिर भी यहाँ संक्षेप से कह देता हूँ- विषय भोगों की यथार्थता को जानने से योगाभ्यासी को विवेक हो जाता है और उस विवेक से वैराग्य उत्पन्न होता है, अर्थात् विषय भोगों से तृष्णा हट जाती है, जिससे योगाभ्यासी का मन पूर्ण एकाग्र हो जाता है, मन की एकाग्रता से समाधि लगती है और उस समाधि से जड़ और चेतन आत्मा का साक्षात्कार होता है। आत्म साक्षात्कार से गुणों के प्रति पूर्ण तृष्णा रहित हो जाने से प्रभु दर्शन हो जाता है। प्रभु दर्शन का अभ्यास क्लेशों को दग्धबीज बना देता है। दग्धबीज हुए क्लेश आत्मा को दुःख नहीं दे सकते, इसलिए आत्मा का प्रयोजन पूरा हो जाता है, प्रयोजन के पूर्ण होने से मन का कार्य समाप्त हो जाता है। फिर चरितार्थ मन अपने कारण में विलीन होता है, तो क्लेश भी मन के साथ-साथ प्रकृति में विलीन हो जाते हैं।
– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

सोमयाग ऋषि दयानन्द प्रतिपादित यज्ञ

शान्तिधाम आर्यजगत् के लिये अब अपरिचित नाम नहीं है। यह इसके संस्थापक अनन्त आर्य के पुरुषार्थ और निष्ठा का परिणाम है। उन्होंने राष्ट्रीय संरक्षित वन प्रदेश के मध्य एक गाँव की निजी भूमि को खोजकर उसे क्रय किया। गाँव के लोग जंगली जानवरों के उत्पात के कारण गाँव छोड़कर बहुत पहले जा चुके थे, बाद के लोगों को पता भी नहीं था कि उनका कोई गाँव और उनकी जमीन भी है। ऐसी भूमि को खोजकर खरीदा और साठ एकड़ भूमि से आधी भूमि पर गुरुकुल की स्थापना की। आज अपने सहयोगियों के साथ श्री सत्यव्रत, श्री राधाकृष्ण आदि के पुरुषार्थ से स्वामी धर्मदेव के मार्गदर्शन में गुरुकुल चल रहा है। गुरुकुल का क्षेत्र कावेरी नदी के तट पर चारों ओर फैली पर्वतमाला के मध्य प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण है। यहाँ पर सोमयाग का आयोजन गत अनेक वर्षों से निरन्तर हो रहा है। सोमयाग की परम्परा तो बहुत पुरानी है। इस यज्ञ को सम्पन्न करने वाले परिवार आहिताग्नि होते हैं, जो अपने जीवन में दोनों समय यज्ञ करने का संकल्प ले चुके होते हैं। ऐसे लोग केवल पौराणिक परम्परा में ही शेष हैं। सस्वर वेदपाठ और यज्ञीय कर्मकाण्ड परम्परा को इन लोगों ने सुरक्षित रखा है। ये लोग कर्नाटक, महाराष्ट्र में तो अधिक हैं ही, अन्य दक्षिण भारत में भी कहीं-कहीं हैं।

आर्यसमाज में ऋषि दयानन्द ने इनकी चर्चा की है। अग्निहोत्र से अश्वमेध पर्यन्त यज्ञ करने का विधान भी किया है। ऋषि ने शाहपुराधीश के यहाँ इस प्रकार का यज्ञ कराया है। आज भी शाहपुरा के महल में इस प्रकार की वेदी बनी हुई है। शाहपुरा में एक अन्य भवन में भी इस यज्ञ के तीनों कुण्ड बने हुए हैं, परन्तु आर्यसमाज में इस प्रकार के यज्ञों की कोई परम्परा नहीं चली और आर्यसमाज के लोग इसे पाखण्ड मात्र समझकर इसमें कोई उत्सुकता भी नहीं रखते थे। पं. ब्रह्मदत्त  जिज्ञासु जी अपने यहाँ शतपथ, मीमांसा, तैत्तरीय  संहिता आदि को पढ़ाते हुए अपने शिष्यों को इन यज्ञों को देखने के लिए प्रेरित करते थे। इस परम्परा को पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने आगे बढ़ाया, ऐसे यज्ञ करने वालों से सम्पर्क स्थापित किया और उनके आयोजनों में सम्मिलित होते रहे, जिसके परिणामस्वरूप इनसे पण्डित जी का आत्मीयभाव बढ़ा। सेलूकर जी, श्रौती जी आदि पण्डित जी के मित्रों में सम्मिलित रहे। सेलूकर एक बार अजमेर पधारे, तब सात दिन तक ऋषि उद्यान में रहकर यज्ञशाला में प्रवचन देते रहे। इस प्रकार इस कर्मकाण्ड से आर्यसमाज के विद्वानों का सम्पर्क हुआ और वह सम्पर्क बढ़ता रहा। जहाँ-जहाँ भी इस प्रकार के यज्ञों का आयोजन होता रहता है, वहाँ-वहाँ आर्यसमाज के विद्वान् और छात्रगण उसे देखने जाते रहते हैं। इससे कर्मकाण्ड के ग्रन्थों का पठन-पाठन भी आर्यसमाज के विद्वान् करने लगे हैं। पं. मीमांसक जी ने लिखा है- सबसे पहले पं. सत्यव्रत जी ने श्रौतयज्ञों के परिचय पर पुस्तक लिखी थी। उसके पश्चात् तो मीमांसक जी ने तथा आचार्य विजयपाल जी ने श्रौत यज्ञों को देखकर उनका परिचय विस्तार से लिखा, जो वेदवाणी और पुस्तक रूप में पाठकों को सुलभ है।

शान्तिधाम के यज्ञ करने वालों का परिचय स्वतन्त्र रूप से है। शान्तिधाम के परिचय में बैंगलूर के कृष्ण भट्ट जी आये और उन्होंने सस्वर वेदपाठ के मह व से संस्था संचालकों को अवगत कराया। आयोजकों को लगा कि वेद पढ़ना है तो सस्वर ही क्यों न पढ़ा जाय? संचालकों ने इन परम्परागत वेदपाठियों से अपने छात्रों को वेदपाठ सिखाना प्रारम्भ किया। निकट आने पर इन विद्वानों में से आर्यसमाज के प्रति जो दुर्भाव बना हुआ था, वह कम हुआ।

सस्वर वेदपाठ के शिक्षण के साथ श्रौत यज्ञों की परम्परा भी जाननी चाहिए, इस भावना से शान्तिधाम के संचालकों ने आयोजकों से केरल में बड़े सोमयाग का आयोजन कराया। फिर अनेक स्थानों पर छोटे-बड़े आयोजन संस्था के सहयोग से होते रहे। वर्तमान में पाँच वर्षों से सोमयाग का आयोजन शान्तिधाम में हो रहा है। सारा व्यय यज्ञ करने-कराने वाले उठाते हैं। स्थान, आवास आदि की सुविधा गुरुकुल की ओर से दी जाती है। जो लोग यज्ञ को देखने जाते हैं, उनके भोजन, आवास आदि की व्यवस्था संस्था उदारता से करती है। स्थानीय परम्परा के अनुसार भोजन की विविधता और प्रचुरता अतिथियों को प्रसन्न और सन्तुष्ट करने वाली होती है। इन श्रौत यागों के आयोजन में एक और बात ध्यान देने योग्य है। ये यज्ञ कुछ लोग हिंसा करके करते हैं, कुछ लोग बिना हिंसा के करते हैं। शान्तिधाम के आयोजन में हिंसा नहीं थी, वे हिंसा की क्रियायें प्रतीकों से सम्पन्न करते हैं। वायवीय पशुयाग में आज्य पशु, अर्थात् एक पात्र में घी भर के उसे ही पशु मान लेते हैं, उसी की आहुति देते हैं। इसी प्रकार श्येनयाग के आयोजन में चिति निर्माण करते हुए, कछुआ तो जीवित रखा था। कहते हैं- वह अपने-आप नीचे निकल जाता है। एक मेढ़क को एक कुशा के थैले में डाल कर उसे वेदी पर घुमाया गया, परन्तु बाद में उसे छोड़ दिया गया। वेदी निर्माण करते हुए मनुष्य का, गाय का, बकरी का, घोड़े का, भेड़ का सिर-ये सब खिलौने के बने हुए थे, जिन्हें वेदी के अन्दर दबाया गया। दूध के लिए गाय और बकरी भी प्रतीक के रूप में बाँधी गईं। दूध तो बोतल में लाकर ही वेदी की अग्नि में डाला जाता था।

इस यज्ञ में जो विशेष आयोजन संस्था की ओर से किया गया था, वह था सोमयाग विषय पर गोष्ठी। इसमें अनेक स्थानीय विद्वानों के साथ आर्यसमाज के विद्वान् और सान्दीपनी वेद विद्या प्रतिष्ठान के सचिव डॉ. रूपकिशोर शास्त्री भी उपस्थित थे, जो गोष्ठी के अध्यक्ष थे। डॉ. रूपकिशोर जी के पुरुषार्थ से सस्वर वेद पाठशालाओं की एक लम्बी शृंखला स्थापित हो चुकी है, विशेष रूप से पौराणिक पाठशालाओं में कन्याओं को वेद सिखाने की परम्परा आपकी ऐतिहासिक उपल        िध है। आपने अपनी प्रेरणा और दूसरों के सहयोग से आर्य संस्थाओं में भी बालकों के साथ बलिकाओं के सस्वर वेद सीखने की व्यवस्था कराई, यह वेद की सेवा का अच्छा उदाहरण है। इस गोष्ठी में आचार्य सनत्कुमार जी अपनी शिष्य मण्डली के साथ उपस्थित थे। आपने दृश्य उपकरणों से सोमयाग का परिचय और उसके वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डाला। इसके अतिरिक्त दो विश्वविद्यालयों के कुलपति तथा अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक भी इस गोष्ठी में उपस्थित थे, जिन्होंने अपने शोधपूर्ण विचार गोष्ठी में प्रस्तुत किये, जिन्हें श्रोताओं ने बड़ी रुचि से सुना। इनमें मीमांसा मर्मज्ञ वासुदेव पराञ्जपे भी थे। इस यज्ञ और गोष्ठी के अवसर पर एक विचार सामने आया, जिससे ऐसा लगने लगा कि कुछ लोग समझते हैं, वेद को सस्वर पढ़ना ही शुद्धता की कसौटी है, बिना स्वर के वेद पढ़ना अशुद्ध है। इसी तर्क के आधार पर यह भी कहा गया कि जैसे वेद बिना स्वर के पढ़ना गलती है, वैसे ही कर्मकाण्ड की रीति को छोड़कर यज्ञ करना भी अशुद्ध है। यह विचार घातक है और ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के कार्यों को व्यर्थ करने वाला है। हमें प्रथम यह समझना चाहिए कि वेद है किसके लिए? वेद परमेश्वर का ज्ञान है, वेद मनुष्य मात्र के लिये है। यदि आप मनुष्य को वेद से दूर करते हैं तो आपका विधि-विधान वेद के प्रयोजन को सिद्ध नहीं करता, अतः ग्राह्य नहीं है। हमें समझना चाहिए कि वेद और यज्ञ में एक सतत सम्बन्ध है। दूसरे शब्दों  में वेद सिद्धान्त है, ज्ञान है तो यज्ञ कर्म है। यज्ञ वेद का ज्ञानपूर्वक किया गया कर्म होने से यज्ञ वेद का व्यावहारिक या प्रायोगिक रूप है। वेद में ज्ञान या विज्ञान है तो विज्ञानपूर्वक यज्ञ किया जा सकता है, परन्तु सामान्य व्यक्ति के लिए भी तो वेद है, सामान्य व्यक्ति के लिये भी यज्ञ है, फिर उसको कैसे वञ्चित कर सकते हैं? पराम्परागत कर्मकाण्ड जहाँ लाखों रुपये व्यय करके बड़े-बड़े वेदज्ञों, वेदपाठियों द्वारा सम्पन्न किया जाता है तो सामान्य जनता के लिये क्या होगा? यज्ञ तो जनता के लिये कहा गया है। यह ठीक है कि कोई पढ़कर विशेषज्ञ, विद्वान् बनता है, परन्तु कोई कम पढ़कर सामान्य भी रहता है। जैसे पढ़ने का विशेषज्ञता से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है, उसी प्रकार वेद और यज्ञ के भी सामान्य-विशेष दोनों से सम्बन्ध हैं।

पौराणिक परम्परा को ही ठीक और अन्तिम नहीं माना जा सकता। इन यज्ञों में हिंसा का विधान करके इनको भी तो विकृत किया गया है। ऋषि दयानन्द ने इस एकाधिकार को ही तो तोड़ा है। सब वेद सस्वर नहीं पढ़ सकते, परन्तु जो सस्वर पढ़ते हैं, वे भी तो अर्थज्ञान से रहित होने के कारण अधूरे हैं। केवल सस्वर वेद पढ़कर कर्मकाण्ड करने से तो वेद का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। स्वर और कर्मकाण्ड अर्थज्ञान में सहायक हैं, इसलिए स्वीकार्य हैं। अर्थज्ञान के बिना स्वर और कर्मकाण्ड का कितना मह                    व रह जायेगा, ऋषि दयानन्द ने इसी अर्थ के पक्ष को ही हमारे सामने रखा है। उन्होंने मनुष्य मात्र को वेद पढ़ने और यज्ञ करने का अधिकार दिया है तो वह वेद वैसा ही तो पढ़ेगा, जैसा उसे आता है, यज्ञ भी उतना ही कर पायेगा, जितनी उसे जानकारी है। उसकी जानकारी कम है, केवल इसिलिये उसे उसके अधिकार से वञ्चित नहीं किया जा सकता। अधिक जानेगा तो अधिक लाभ उठा सकेगा, कम जानेगा तो कम लाभ ले पायेगा। स्वामी दयानन्द संस्कार विधि के सामान्य प्रकरण में यज्ञ की विधि बताते हुए निर्देश करते हैं कि ‘‘सब संस्कारों में मधुर स्वर से मन्त्रोच्चारण यजमान ही करे। न शीघ्र, न विलम्ब से उच्चारण करें, किन्तु मध्य भाग जैसा कि जिस वेद का उच्चारण है, करें। यदि यजमान पढ़ा हो तो इतने मन्त्र तो अवश्य पढ़ लेवे। यदि कोई कार्यक    र्ाा जड़, मन्दमति, काला अक्षर भैंस बराबर जानता हो, तो वह शूद्र है, अर्थात् शूद्र मन्त्रोच्चारण में असमर्थ हो, तो पुरोहित और ऋत्विज मन्त्रोच्चारण करें और कर्म उसी मूढ़ यजमान के हाथ से करावें।’’ क्या इस ऋषि वाक्य को सस्वर वेद पाठ और कर्मकाण्ड के सामने मिथ्या कर देंगे? ऋषि दयानन्द कन्याओं को वेद पढ़ाने का आग्रह करते हैं, इतना ही नहीं, ऋषि दयानन्द ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में वेदाध्ययन के अधिकार की चर्चा करते हुए सबको, मनुष्य मात्र स्त्री-पुरुषों को वेद पढ़ने का अधिकार प्रतिपादित करते हैं और यथेमां मन्त्र की व्याख्या में मनुष्य को अपने परिवार के लोगों के साथ अपने घर के सेवक और मजदूर को भी वेद पढ़ाने का निर्देश देते हैं। क्या ऐसी परिस्थिति में नौकर सस्वर वेद पढ़ेंगे या विधिपूर्वक यज्ञ करेंगे? वे जैसा जानते हैं, वैसा ही तो कर पायेंगे।

स्वामी दयानन्द का निर्देश वेद से है, अतः बाकी शास्त्र या परम्परा उसके सामने गौण है। वेद का आदेश स्वतः प्रमाण है। क्या ऋषि दयानन्द व्यवस्था देने के अधिकारी नहीं हैं? ऋषि दयानन्द से किसी आचार्य का मन्तव्य मेल नहीं खाता या विरोधी लगता है तो उसे विरोध न समझकर मत भिन्नता भी तो समझा जा सकता है। फिर इन यज्ञों के देखने या सस्वर वेद पढ़ने से आर्य समाज में चल रही परम्परा को अशुद्ध क्यों मानना चाहिए? जहाँ सस्वर वेदपाठ हमारा उत्कर्ष है, वहाँ तक पहुँचाने का मार्ग ऋषि दयानन्द को दिये अधिकार के द्वारा प्रशस्त किया गया है, अतः इस भ्रम की कोई सम्भावना नहीं है कि आर्यसमाज की यज्ञ परम्परा या वेदपाठ अशुद्ध या अग्राह्य है। कर्मकाण्ड भी वेद को समझने के लिये ही हैं। पूरे शतपथ ब्राह्मण में मन्त्रों के माध्यम से यज्ञ की क्रियाओं को मन्त्रों के साथ जोड़कर अभिप्राय को समझाया जा रहा है। मन्त्र, उसका अर्थ, यज्ञ की क्रिया में मन्त्रार्थ की संगति, मन्त्र के अर्थ और यज्ञ की क्रिया का जगत् में चल रहे निरन्तर यज्ञ से उसकी समानता बताना यज्ञ का उद्देश्य है। इस बात को ध्यान में रखकर महर्षि दयानन्द ने यज्ञ में मन्त्रों का विनियोग किया है। महर्षि दयानन्द ने यज्ञ में कर्मकाण्ड के साथ वेद मन्त्रों का विनियोग करते हुए यज्ञ से परमेश्वर की उपासना का होना कहा है। इस प्रकार महर्षि दयानन्द का यज्ञ विधान अधिक वैदिक व उत्कृष्ट है।

मनु महाराज ने वेद को समस्त धर्म का मूल कहा है। जिसका भी धर्म से सम्बन्ध है, उसका वेद से सीधा सम्बन्ध है। वेद के प्रकाश में मनुष्य कार्य कर सकता है। जैसे सूर्य के प्रकाश के बिना मनुष्य कार्य करने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार वेदरूपी ज्ञान चक्षुओं के बिना मनुष्य उचित-अनुचित का विवेक करने में असमर्थ रहा है। मध्य काल में समाज के एक वर्ग ने लोगों के ज्ञान चक्षुओं को छीन कर समाज को गहरे अन्धकार में धकेल दिया था, ऋषि दयानन्द ने उस अन्धे समाज को वेद रूपी ज्ञान चक्षु पुनः प्रदान किये। किसी भी प्रकार से इस अधिकार को क्षति पहुँचाना वेद विरोधी कार्य होगा, चाहे वह वेद के नाम पर ही क्यों न किया गया हो। हमें मनु के इन शब्दों  को सदा स्मरण रखना चाहिए-

पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्।

अशक्यञ्चाप्रमेयञ्च वेदशास्त्रमिति स्थितिः।।

– धर्मवीर

इस्लाम में नारी

इस्लामिक साहित्य में स्त्रीयों के प्रति मानसिकता को प्रदर्शित करते कुछ उदाहरण :

अत्याचार करने और कष्ट देने की सूची में औरत सदैव ऊपर रही है . ( इसका अनुमान आधुनिक युग में भी लगाया जा सकता है ) क्योंकि हजरत अली के कथनानुसार औरत की खस्लत (प्रवृत्ति , स्वाभाव) में अत्याचार करना, कष्ट देना और लड़ाई और झगड़े को पैदा करना ही होता है . नहजुल बलागा  में है :-

………. वास्तव में जानवरों के जीवन का उद्देश्य पेट भरना है फाड़ खाने वाले जंगली जानवरों के जीवन का उद्देश्य दूसरों पर हमला करके चीरना फाड़ना है और औरतों का उद्देश दुनिया की जिन्दगी का बनाव सिंगार और लड़ाई झगड़े पैदा करना होता है . मोमिन वह हैं जो घमण्ड से दूर रहते हैं . मोमिन वह हैं जो महरबान हैं मोमिन वह हैं जो खुदा से डरते हैं .

जहाँ हजरत अली ने औरत को लड़ाई झगडा फ़ैलाने और  पैदा करने वाला बताया है वहीं रसूल ए  खुदा ने इर्शाद फरमाया :
‘ औरतें शैतानों की रस्सियाँ हैं “

अर्थात औरतें कल अक्ल (मंद बुद्धि नाकिसुल अक्ल ) होने के कारण शैतान के कब्जे (चंगुल ) में शीघ्र आ जाती हैं और शैतान उस मंद बुद्धि औरत के हाथों दुनिया में लड़ाई झगडा (दंगा फसाद ) फैलाने  (अर्थात खुदा के बन्दों पर अत्याचार करने ) का काम लेता है और हजरत अली के विचारानुसार मर्द वह होता है जो औरत के लड़ाई झगड़े फ़ैलाने के बावजूद भी खुदा से डरता रहता है और औरत जैसी कमजोर जाति पर मजबूत होने की वजह से अत्याचार  नहीं करता और न ही कष्ट देता है .

बहरहाल हज़रत अली ने औरत को जहाँ लड़ाई झगडा फैलाने वाला बताया है वहीं पुरी तरह से (सरापा) आफत (मुसीबत ) ही बताया है

“औरत सरापा (पूरी तरह से ) आफत (मुसीबत ) हैं और इससे ज्यादा आफत यह है की उसके बिना कोई चारा नहीं (अर्थान गुजारा नहीं )

अर्थात औरत के साथ होने आया न होने …….. दोनों हालातों में मर्द के लिए मुसीबत ही मुसीबत है . शायद इसी लिए मर्द इस पुरी तरह से मुसीबत औरत को अपने गले से लगा लेता है . ताकि मुसीबत के साथ साथ शरीर से चिमटने और लिपटने पर स्वाद और आनन्द भी मिलता रहे . हजरत अली ने इर्शाद फरमाया :

“औरत एक बिच्छु है लिपट जाते तो (उसके जहर में ) स्वाद है “

लेकिन जी तरह बिच्छु अपनी आदत के अनुसार  डंक मारे बिना नहीं रह सकता . उसी तरह औरत भी लड़ाई झगडा फैलाये बिना नहीं रह सकती अर्थात (कुछ को छोड़कर  अधिकतर ) औरत की खस्लत में अत्याचार करना , ढोंग मचाना कष्ट देना और शत्रुता फैलाना इत्तियादी कूट कूट कर भरा होता है . ऐसी ही औरतों के लिएय रसूल ए खुदा ने इर्शाद फ़रमाया
“ जो औरतें अपने पति को दुनिया में तकलीफ पहुँचती हैं हरें उससे कहती हैं तुझ पर खुदा की मार अपने पति को कष्ट न पहुंचा यह मर्द तेरे लिए नहीं ही तू इसले लायक नहीं , वह शीग्र ही तुझ से जुदा होकर हमारी तरफ आ जायेगा .
अर्थात अपने पति को कष्ट देने वाली औरत स्वर्ग नहीं पहुँच सकती

इस्लाम और सेक्स डॉ. मोहम्मद तकी अली आबिदी (स्वर्ण पदक )

क्या कहें ! बस यही कह सकते हैं कि भगवान्  ऐसे लोगों को सद्बुद्धि दें .

बोद्ध ग्रंथो में मासाहार (झूटी अंहिसावाद )


बोद्ध ओर नवबोद्ध अपने आप को कितना भी संयमी ,सात्विक आहारी बताये लेकिन बोद्ध देशो को देखने पर पता चलता है कि वहा के बोद्धो में काफी हिंसक भावनाए है ,, वे लोग अपने जीभ के स्वाद के लिए किसी भी प्राणी यहाँ तक कि मानव भ्रूण को तक खाने लगे है | क्यूंकि जेसा आहार होता है वेसे ही विचार ओर व्यवहार होता है |
मह्रिषी मनु मॉस भक्षण को हिंसक ओर पाप मानते हुए कहते है –
” स्मुत्पत्ति च मॉसस्य बवबन्धो च देहिनाम |
प्रसमीक्षय निवर्तेत सर्वमॉसस्य भक्षणात || मनु . ५/४९ ||
अर्थात मॉस की उत्पति जेसे होती है उसको ,प्राणियों की हत्या ओर बंधन के कष्टों को देख सब प्रकार के मॉस भक्षण से दूर रहे |
ओर कहते है –
” अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी |
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकेश्चेति घातका ||मनु .५/५१ ||”
मारने की आज्ञा देने वाले ,मॉस को काटने वाले पशु को मारने वाले क्रय विक्रय करने वाले ,पकाने वाले परोसने वाले खाने वाले ये सब हत्यारे ओर पापी है |
इस तरह मनु ने मॉस भक्षण को पाप बताया है ,,साथ ही मॉस व्यापार को क्यूंकि मॉस खाने की आदत ही जीवो की हिंसा को प्रेरित करती है |
हिन्दू धर्म के काशी खंड में निम्न श्लोक मिलता है – जातु मॉस न भोक्तव्यम प्राणै कंठगतैरपि (काशी खंड ,३५३ -५५ ) चाहे प्राण कंठ तक  आ जाए तो भी मॉस नही खाना चाहिए |
अर्थववेद ८/६/९३ में कहा है जो अंडे मॉस खाते है उनका मै नाश करता हु |
इस तरह मॉस भक्षण को सनातन शास्त्रों में निन्दित बताया है |
अब हम बोद्ध दर्शन में मॉस भक्षण सम्बन्धित बातें देखते है –
बोद्ध ने यज्ञ में पशु वध का विरोध किया लेकिन बोद्ध मॉस भक्षण से अपने आप को दूर नही रख सके इसके बारे में सकलिक सुत्त में देवदत्त विद्रोह नामक अध्याय में आता है ,इस अध्याय में एक कथा अनुसार देवदत बोद्ध से निम्न बातो की शर्त रखता है वो इस तरह है | देवदत्त बुद्ध से कहता है ,कि संघ में निम्न नियम बनाये जाए -(१) भिक्षु वन में रहे नगर में रहे तो दोष हो |
(२) जिन्दगी भर भिक्षा मांग कर खाने वाला हो |
(३) जिंदगी भर फेंके हुए चीथड़े पहने ,जो चीवर का उपभोग करे उस पर दोष हो |
(४) जिन्दगी भर वृक्ष के नीचे रहे |
(५ ) जिन्दगी भर मॉस मच्छली न खाए जो खाए उस पर दोष हो |
इसमें से बुद्ध एक भी शर्त नही मानते है ,,हम यहाँ बाकि ४ पर बुद्ध के उत्तर न लिख ५ वे पर लिखते है कि मॉस भक्षण पर बुद्ध ने क्या कहा –
बुद्ध कहते है – है देवदत्त ! जो अदृष्ट (जिसे मरते हुए मेने न देखा हो ) अश्रुत (जिसे मरते हुए न सुना हो ) अ परिशंकित (जो संदेह में न हो ) इस तरह का मॉस खाने की मेने आज्ञा दी है |
बुद्ध ने देवदत्त के मॉस भक्षण के निषेध वाली शर्त को ठुकरा दिया ओर इससे देवदत्त बोद्ध के संघ से अलग हो गया |
इसी तरह की बात जीवक नामक भिक्षु से बोद्ध ने जीवक सुत्तन्त (२/९/५ ) में कही है जीवक से बुद्ध कहते है –
जिस जीव का अपने लिए न मारा जाना हो | जिसे मारे हुए न देखा हो , न सुना हो न शंका हो | ऐसे मॉस को खाने का मेने आज्ञा दी है |
बोद्ध के उपरोक्त कथन को देखा जाए तो किसी दूकान से मॉस खाया जा सकता है ,,क्यूंकि दूर किसी होटल आदि पर पकाए हुए मॉस की किसी दूर से आये खाने वाले को कोई जानकारी नही होती |
एक स्थान से दुसरे स्थान की यात्रा में अगर कोई मासाहार भोजनालय है तो वहा मॉस खा सकते है क्यूंकि खाने वाले ने न प्राणी को कटते देखा है ,न ही वो उसके लिए काटा है न ही वो उसने काटते हुए सुना है |
इस तरह बुद्ध ने हिंसा का एक दूसरा रास्ता खोल दिया | ओर असयम को जो कि स्वाद से है को बढ़ावा दिया |
इस तरह एक जातक कथा में भी मॉस भक्षण का उलेख मिलता है – जिसके अनुसार एक भिक्षु के पास एक चील द्वरा छुटा हुआ कोई मॉस गिरता है भिक्षु बुद्ध से कहता है कि इसका क्या करू बुद्ध उसे वह मॉस खाने को कहते है |
इस तरह बोद्ध ग्रंथो में जगह जगह एक अलग प्रकार की हिंसा का उलेख मिलता है जो उनके अहिंसक ओर संयमी होने के दावे पर प्रश्न चिन्ह लगाता है |
शायद बुद्ध को इस बात पर ध्यान देना चाहिय था कि जेसा आहार वेसा ही विचार ओर व्यवहार हो जाता है | मॉस भक्षण किसी भी प्रकार का जीव हत्या को बढ़ावा देता है |
संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ – (१) मनुस्मृति – सुरेन्द्रकुमार जी 
   (२) मझिम निकाय – राहुल सांस्क्रतायन 
 (३ ) बुद्धचर्या – राहुल सांस्क्रतायन 
 (४) दीर्घ निकाय – राहुल सांस्कृतायन