Debate on Idol worship in Vedas by Swami Dayanand
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अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द : सत्येन्द्र सिंह आर्य
पंजाब प्रान्त के जालन्धर जिले में तलवन ग्राम में एक प्रतिष्ठित परिवार में लाला नानकचन्द्र जी के गृह में विक्रमी सवत् 1913 में फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन जिस बालक का जन्म हुआ, उसका नाम पण्डित जी ने बृहस्पति रखकर भी प्रसिद्ध नाम मुंशीराम रख दिया। संन्यास ग्रहण करने के समय तक वे इसी नाम से वियात रहे। पिता जी पुलिस में इस्पेक्टर के पद पर राजकीय सेवा में थे। अतः जल्दी-जल्दी होने वाले स्थानान्तरण के कारण बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान पड़ना स्वाााविक था। परन्तु एक लाा भी हुआ। जिन दिनों श्री नानकचन्द्र जी बरेली में पद स्थापित थे, उन दिनों अंग्रेजी भाषा के व्यामोह में फंसे और नास्तिकता के भँवर में गोते लगाते मुंशीराम को स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के दर्शन करने का, उनके वेदोपदेश सुनने का, उनसे मिलकर अपनी शंकाओं का समाधान करने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी द्वारा प्रतिपादित वैदिक विचारधारा का मुंशीराम जी के जीवन पर प्रााव पड़ने में यद्यपि वर्षों का समय लगा, परन्तु अन्त में ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि वे ऋषि-मिशन के दीवाने हो गए। एक-एक करके इतने कार्य किये कि उनका सही मूल्यांकन कोई ऋषि-भक्त, तपस्वी, वैदिक विद्वान् ही कर सकता है।
जालन्धर में कन्या पाठशाला खोली जिसका स्थानीय लोगों ने घोर विरोध किया। उस युग में सब स्त्री-शिक्षा के शत्रु थे। पाठशाला चार लड़कियों से आरभ हुई, दो बेटियाँ इनकी स्वयं की थी और दो इनके साले की थीं। वही संस्था आज स्नातकोत्तर कन्या विद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित है जिसमें हजारों कन्याएँ शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। हरिद्वार के निकट काँगड़ी ग्राम में गुरुकुल की स्थापना की। अपने दोनों पुत्रों हरिशचन्द्र एवं इन्द्र को उसी में प्रविष्ट किया। वह संस्था भी आज एक विश्वविद्यालय के रूप में विद्यमान है। इस संस्था से आर्यसमाज को बड़ी संया में वेद के विद्वान्, उपदेशक, साहित्यकार, पत्रकार एवं समाजसेवी राजनेता प्राप्त हुए। पं. इन्द्र जी विद्यावाचस्पति एक आर्य पुरुष, साहित्यकार, पत्रकार के रूप में इसी संस्था की देन हैं।
वैदिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए मुंशीराम जी ने सद्धर्म प्रचारक पत्र निकाला। पहले उर्दु में और बाद में आर्य भाषा में। पत्र इतना लोकप्रिय था कि पाठकों को अगले अंक की सदैव प्रतीक्षा रहती थी। मुद्रण की सुविधा के लिए अपना प्रेस स्थापित किया। देश-दुनिया के समाचारों से आर्य जनता को परिचित कराये रखने का यह बड़ा सशक्त माध्यम था। अपनी पत्रकारिता में कुशलता के बल पर मुंशीराम जी ने उस युग में राष्ट्र की महती सेवा की।
अछूतोद्धार का कार्य उनकी प्राथमिकता में था। राजनैतिक रूप से उस समय कांग्रेस एक पार्टी के रूप में देश की आजादी के लिए कार्य कर रही थी। मुंशीराम जी (और अप्रैल 1917 में संन्यास ग्रहण के पश्चात् स्वामी श्रद्धानन्द जी) उस समय देश के अग्रणी नेताओं में थे उनके जीवन की एक-एक घटना उनकी महानता की साक्ष्य है। वर्ष 1917 ईसवी में अप्रैल मास में उत्सव के समाप्त होने के पश्चात् अगले दिन उन्हें संन्यास लेना था। संन्यास-ग्रहण संस्कार के समय वहाँ हजारों की भीड़ थी। आर्य समाज के बहुत से संन्यासी, पण्डित और अधिकारी साक्षीरूप से उपस्थित थे। संस्कार में सबसे विशेष बात यह हुई कि, मंशीराम जी ने किसी संन्यासी महानुााव को अपना आचार्य न बनाकर परमात्मा को ही आचार्य माना और जो प्रक्रिया आचार्य द्वारा पूरी होनी थी, वह स्वयं ही पूरी कर ली। क्षौर कराकर और भगवावस्त्र पहनकर वे यज्ञ-मण्डप में आए और खड़े होकर उन्होंने निम्नलिखित आशय की घोषणा की-
‘‘मैं सदा सब निश्चय परमात्मा की प्रेरणा से श्रद्धापूर्वक ही करता रहा हॅूँ। मैंने संन्यास भी श्रद्धा की भावना से प्रेरित होकर ही लिया है। इस कारण मैंने श्रद्धानन्द नाम धारण करके संन्यास में प्रवेश किया है। आप सब नर-नारी परमात्मा से प्रार्थना करें कि वे मुझे अपने इस नए व्रत को पूर्णता से निभाने की शक्ति दे।’’
सन् 1919 में बैसाखी के दिन अमृतसर में जलियाँवाला बाग में भीषण हत्याकाण्ड हुआ। उसी वर्ष कुछ माह पश्चात् अमृतसर में ही कांग्रेस का महा-अधिवेशन होना था, परन्तु बैसाखी वाली भयावह घटना लोगों के मन-मस्तिष्क पर छाई हुई थी। निर्भीकता की प्रतिमूृर्ति स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने स्वागताध्यक्ष का कार्य भार ग्रहण करके सारे आयोजन को सहज और सरल बना दिया।
अछूतोद्धार एवं शुद्धि सभा– स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज आर्य पुरुष थे और कांग्रेसी भी थे। उस समय कांग्रेस में आर्यों की संया काफी अधिक थी। उन्होंने समाज में अछूत कहे जाने वाले लोगों के लिए विशेष कार्य किया। संस्थागत रूप में इस कार्य को आगे बढ़ाया। जन्मना जाति-प्रथा को यथावत् बनाए रखने वाले हिन्दुओं एवं मठाधीशों का उस समय दबदबा था। अछूत कहे जाने वाले नर-नारियों की बात तो दूर रही, उस समय के हिन्दू मठाधीश, सन्त-महन्त तो मजबूरी में या प्रलोभनवश ईसाइयों -मुसलमानों द्वारा हिन्दू वर्ग से धर्मान्तरित किये गए सवर्ण हिन्दुओं को भी शुद्ध करके पुनः अपने में मिलाना शास्त्र-विरुद्ध और पूर्णतः निषिद्ध मानते थे। हिन्दू (आर्य) जाति एक प्रकार से कच्चे माल की खान बनी हुई थी। सूक्ष्म राजनीतिक सूझबूझ वाले ईसाई मिशनरी और मुल्ला मौलवी इसी खान में से विशेषकर अछूत कहे जाने वाले वर्ग में से हमारे ही भाई-बहनों को बहला-फुसलाकर, प्रलोभन देकर, धोखाधड़ी से ईसाई-मुसलमान बना रहे थे। हिन्दू जाति के विघटन की यह चरम स्थिति थी। ऐसे में दूरदर्शी आर्य नेता एवं इस हिन्दू जाति के परम शुभचिन्तक स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने अछूतोद्धार एवं शुद्धि का कार्य एक आन्दोलन के रूप में किया। शुद्धि के काम से महात्मा गाँधी के चहेते अलीबन्धु बौखला गए और उन्होंने गाँधी जी से स्वामी श्रद्धानन्द जी के शुद्धि-कार्य के विरुद्ध शिकायत की। गाँधी जी द्वारा एतद्विषयक चर्चा किये जाने पर स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कहा कि आप अली बन्धुओं को कहकर इस्लाम द्वारा जारी तबलीग (धर्मान्तरण के लिए इस्लाम मतावलबियों द्वारा निरन्तर चलाई जाने वाली प्रक्रिया) का काम रुकवा दीजिए, मैं शुद्धि का काम बन्द कर दूँगा। भला यह कार्य मुस्लिम तुष्टिकरण के जनक और मसीहा महात्मा गाँधी के बूते का कहाँ था। अतः स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज कांग्रेस से अलग हो गये। शुद्धि के कार्य को करने के मूल्य के रूप में स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज को अपने प्राण आहूत करने पड़े।
विडबना देखिए कि जिस हत्यारे अदुल रसीद ने स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज को गोली मारी और जिसे रंगे हाथों पकड लिया गया उसी के बचाव के लिए महात्मा गाँधी के दायाँ और बाँया हाथ (जैसा कि अली बन्धुओं-मौलाना मोहमद अली, मौलाना शौकत अली को कहा करते थे) ये अली बन्धु न्यायालय में उपस्थित रहा करते थे और गाँधी जी इस बात को जानते थे। मुस्लिम प्रेम के आगे महात्मा गाँधी को सत्य दिखाई नहीं पड़ता था जैसे रतौन्धी (आँखों की एक बीमारी) वाले व्यक्ति को रात्रि में कुछ नहीं दिखाई पड़ता। इस्लाम मतावलबियों की करतूतों का वर्णन करने लगे तो पोथे पर पोथे बनते चले जायेंगे परन्तु उन करतूतों का किनारा नहीं पा सकते। उदाहरण के लिए एक घटना देते हैं।
वाजा हसन निजामीकृत ‘दाइये इस्लाम’- वाजा हसन निजामी अपने समय के मौलवियों, पीरों, सूफियों और मुस्लिम नेताओं में सर्वोच्च स्थान रखते थे। इस्लामी साहित्य और इतिहास के वे बहुत बड़े आलिम माने जाते थे। वह अपना अखबार निकालते थे और अपना रोजनामचा (दैनन्दिनी) भी लिखते थे। देहली की निजामी दरगाह में उनका मुय निवास था। वह सदा यही सोचते रहते थे कि किस प्रकार भारत के हिन्दुओं को इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाए और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उचित-अनुचित की चिन्ता किये बिना वे किसी भी सीमा तक जाने को तैयार थे। जहाँ उन्होंने और अनेक उपाय इस बात के लिए मुसलमानों को जताये थे, वहीं हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित करने का एक बड़ा विषैला और गुप्त उपाय भी निकाला था। सब मुसलमानों में उस उपाय का गुप्त रूप से प्रचार किया गया। जितने धन्धे-पेशे मुसलमान करते थे जैसे नाई, धोबी, लुहार आदि उन्हीं के अनुसार उनको उपाय समझाए गए थे। यहाँ तक कि बाजारू औरतों (वेश्याओं) को भी हिदायत दी गई थी कि वे अपनी सुन्दरता में फँसा कर हिन्दुओं को मुसलमान बनाएँ। इन सब उपायों को एक पुस्तक में लिखा गया था और पुस्तक का नाम था- ‘दाइये इस्लाम’। इस पुस्तक को गुप्त रूप से न केवल भारत भर के मुसलमानों में पहुँचाया गया, अपितु भारत से बाहर के इस्लामी देशों में भी भेजा गया था।
हिन्दुओं के विरुद्ध किये जा रहे इस भीषण षड्यन्त्र की पौराणिकों के किसी सन्त-महन्त, मठाधीश, शंकराचार्य अथवा नेता को भनक तक न लगी। स्वामी श्रद्धानन्द जी तब मुय रूप से दिल्ली में ही रहा करते थे। नया बाजार के एक मकान के ऊपरी भाग में निवास करते थे। स्वामी जी महाराज बड़े ही विलक्षण आर्य नेता थे। वह आर्य समाज के साथ-साथ समस्त हिन्दुओं के बारे में खबरगीरी रखते थे। वह यह पूरा ध्यान रखते थे कि बेखबर सोती हिन्दू जाति की सब तरफ से रक्षा की जाए। इस बात को जानने के लिए चाणक्य मुनि द्वारा वर्णित उपायों को काम में लाते थे। उसी आधार पर उन्हें अत्यन्त सूक्ष्म और अतीव गुप्त रूप और अज्ञात द्वार से वाजा हसन निजामी द्वारा लिखित और प्रचारित ‘दाइये-इस्लाम’ पुस्तक की सूचना मिली। पुस्तक उर्दु में लिखी गयी, प्रैस में छपी। कातिबों ने काम किया, मशीनों पर छपी, बाइण्डरों ने जिल्दें बान्धी, दुकानों में बिक्री के लिए गयी। न जाने कितने हाथों में पहुँची। प्रैस एक्ट के अनुसार छपी पुस्तकों की प्रतियाँ सरकारी कार्यालय को भेजी जानी चाहिए। इतना सब कुछ होते हुए भी कानोकान किसी गैर-मुसलमान को जरा सी भी भनक सुनाई नहीं पड़ी। सारे भारत में गुप्त खोज करने पर इस पुस्तक की एक भी प्रति न मिल सकी। परन्तु स्वामी जी के हाथ भी बहुत लबे थे। अन्त में बहुत यत्न करने पर एक प्रति ब्रिटिश ईस्ट अफ्रीका में एक सज्जन के हाथ लगी और उस पुस्तक को दिल्ली स्वामी जी के पास पहँुंचा दिया गया। उन्होंने उसको पढ़ा और देखा कि हिन्दुओं को नाश के गहरे गड्ढ़े में गिराये जाने के लिए कैसे षड्यन्त्र किये और कराये जा रहे हैं। स्वामी जी ने उस पुस्तक को फिर से छपवाया और ‘आर्य-बिगुल’, ‘अलार्म’ नाम से उसका खण्डन और आलोचनाएँ भी प्रकाशित हुई। हिन्दुओं को सावधान किया गया। आज के तथाकथित आर्य नेता? तो अपनी सर्व-स्वीकार्यता का ग्राफ ऊँचा करने के लिए मुस्लिम नेताओं और ईसाई पादरियों की चापलूसी में जीवन गुजार देते हैं परन्तु नोबेल पुरस्कार (शान्ति के लिए) प्राप्त करने की उनकी इच्छा अपूर्ण ही रह जाती है। नोबेल पुरस्कार क्या, नई दिल्ली स्थित उप वैटिकन में दशकों तक मत्था टेकने के बाद राज्यसभा की सदस्यता भी नसीब न हुई। ऐसे लोग जाति की क्या सेवा करेंगे।
स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज के बलिदान की पहली कड़ी यह पुस्तक ‘दाइये इस्लाम’ कहीं जा सकती है। आज साधारण जनता और आर्यजनों की तो बात ही क्या है अपितु बड़े-बड़े नेताओं को इस पुस्तक का पता भी नहीं है, उसका पढ़ना तो दूर रहा। इन पंक्तियों के लेखक के पास उस पुस्तक के हिन्दी संस्करण की एक प्रति है जो परोपकारिणी सभा को पुस्तकालय हेतु सौंप दी जाएगी।
प्रतिवर्ष अमर हुतात्मा का बलिदान दिवस मनाया जाता है। धुआँ-धार व्यायान होते हैं। अखबारों में लेख लिखे जाते हैं। उनके अनेक उत्तम गुणों पर प्रकाश डाला जात है परन्तु उस जहरीली पुस्तक दाइये-इस्लाम का मानो किसी को पता ही नहीं। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने अछूतोद्धार एवं शुद्धि का जो कार्य अपने जीवन में किया उनके बलिदान के बाद उसमें शिथिलता आ गई थी। आर्य समाज के लिए यह हानि की बात रही। स्वामी जी ने देश, जाति, धर्म की अहर्निश सेवा की, ऋषि मिशन के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और 23 दिसबर सन् 1926 को अपने प्राण भी दे दिये। उस नर-नाहर सर्वस्व-त्यागी आर्य पुरुष के प्रति मेरी विनम्र श्रद्धाञ्जलि।
– 751/6, जागृति विहार, मेरठ
भस्मासुर बनते सन्त : आचार्य धर्मवीर जी
भारतीय परपरा में धर्म का सबन्ध शान्ति के साथ है। जहाँ धर्म है वहाँ शान्ति और सुख अनिवार्य है परन्तु आज के वातावरण में धर्म अशान्ति और परस्पर संघर्ष का पर्याय होता जा रहा है। धार्मिक स्थान पर रहने वाले लोगों को साधु, सन्त आदि शदों से पहचाना जाता था। साधु का अर्थ ही अच्छा होता है, संस्कृत भाषा में जो दूसरों के कार्यों को सिद्ध करने में अपने जीवन की सार्थकता समझता है उसे ही साधु कहते हैं। जिसका स्वभाव शान्त है वही सन्त होता है। आजकल इन शदों का अर्थ ही बदल गया है, जो स्वार्थ सिद्ध करने में लगा है वह साधु है, जो अशान्ति फैला रहा है वह सन्त है। जो जनता को मूर्ख बना रहा है वह योगी है। पुराने समय में साधु लोग जिन स्थानों पर निवास करते थे उन स्थानों को आश्रम कहा जाता था। वहाँ जाकर सबको विश्राम मिलता था। वहाँ किसी के आने-जाने पर प्रतिबन्ध नहीं होता था, उनके यहाँ मनुष्य क्या, पशु-पक्षीाी निर्भय होकर विचरते थे। उनके निवास स्थान का गर्मी-सर्दी, शारीरिक कष्ट, पशुओं के द्वारा हानि न पहुँचे इतना ही उद्देश्य था। इसके लिए उन्हें न तो बड़े-बड़े महलों की आवश्यकता थी, न सुरक्षा के लिए किले जैसे आश्रम बनाने की जरूरत, न अपनी फौज, कमाण्डो रखने का झंझट। जब वैराग्य हो गया तो किसका भय, किससे द्वेष, फिर आश्रम की ऊँची-ऊँची दीवारें किसकेाय से बनाई जायें।
आज सन्त वह है जो अशान्त हुआ घूम रहा है। ठग संन्यासी हो गया, विलासी-विरक्त कहला रहा है, यह सब क्यों हो रहा है? क्यों होने दिया जा रहा है? आज हमारे पास ऐसे बहुत उदाहरण हैं जिनसे इन दुर्घटनाओं के कारणों को समझ सकते हैं। सन्त रामपाल दास चौबीसों घण्टे दूरदर्शन और समाचार-पत्रों का विषय बना हुआ है। आज तात्कालिक समस्या के समाधान के रूप में सरकार ने उसे गिरतार कर लिया परन्तु इससे समस्या का समाधान होने वाला नहीं है। यह समस्या सरकार और समाज की बनाई हुई है, यदि इसके कारणों पर विचार करके उसके समूल विनाश का प्रयास नहीं किया गया तो यह समस्या प्रतिदिन खड़ी रहेगी। केवल उसके नाम बदलते रहेंगे। कभी यह समस्या भिण्डरावाला के रूप में, कभी आसाराम बापू के रूप में, कभी राम-रहीम के रूप में, कभी रामपाल दास के रूप में। इन सन्तों में और चन्दन तस्कर वीरप्पन में भौतिक अन्तर इतना है कि एक आदमी डाकू बनकर डकैती करता है दूसरा सन्त या गुरु बनकर डकैती या ठगी करता है। एक जंगलों में छिपता है तो दूसरा नगरों में किलेनुमा महल बनाकर रहता है। एक बदनाम है और दूसरे की चरण वन्दना होती है। परिणाम दोनों का एक जैसा होता है। जब इनसे जनता का दुःख बढ़ जाता है, सरकार के अस्तित्व पर संकट आता है तब दोनों को अपराधी मानकर पुलिस, फौज, प्रशासन उनको गिरतार करने, दण्ड देने में जुट जाता है। इन दोनों के बनाने के लिए सरकार और समाज ही पूर्ण रूप से उत्तरदायी हैं।
रामपाल दास को सन्त किसने बनाया? समाज के समानित समझे जाने वाले लोगों ने। रामपाल दास हरियाणा सरकार की सेवा में एक जूनियर इञ्जीनियर था, गबन के कारण उसे सरकारी नौकरी से निष्कासित कर दिया गया। वह आज इतना बड़ा सन्त बन बैठा। वह अपने को कबीर का अवतार मानता है। जब दुष्ट व्यक्ति धार्मिकता का आडबर करता है तो जनता को मूर्ख बनाता है। धर्म के क्षेत्र में भक्त सन्तों को बड़ा बनाने का कार्य करते हैं। रामपाल दास कबीरदासी मठ में रहते हुए अपने दुराचरण के कारण अपनी मण्डली में निन्दा का पात्र बना, इसके एक चेले ने इसकी पोल खोलते हुए एक पुस्तक लिखी ‘शैतान बण्यो भगवान’ इस पुस्तक से क्रोधित होकर रामपाल दास ने उसे गुण्डों से पिटवाया। उसने अपनी कहानी अपने परिचितों में अपने क्षेत्र के लोगों को सुनाई। रामपाल दास की दुष्टता से गाँव के लोग भी तंग थे, वहाँ की महिलाओं से दुर्व्यवहार की घटनाओं से ग्रामवासी उत्तेजित थे। आश्रम के पास खेती करने वालों के खेतों पर कजा करने के उसके प्रयास से वहाँ के किसान भी परेशान थे। सरकार में सन्त की पहुँच बढ़ गई थी, लोगों की सुनवाई नहीं हो रही थी, तब आचार्य बलदेव जी के नेतृत्व में ग्रामवासियों ने संघर्ष किया। सरकार को बाध्य होकर कार्यवाही करनी पड़ी। एक युवक का बलिदान भी हुआ। रामपाल दास को सरकार ने गिरतार भी किया, वह जेल में भी रहा, जमानत पर छूटा, सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को उसका आश्रम उसे लौटाने का निर्देश दिया। ग्रामीणों के लिए फिर संकट आ गया, रोष बढ़ता रहा, बलदेव जी के नेतृत्व में फिर संघर्ष हुआ। इसमें तीन लोगों का बलिदान हुआ। रामपाल दास से आश्रम खाली कराया गया फिर उसने वही सब हिसार के बरवाला आश्रम में करना प्रारभ किया, आज उसी घटना का अगला दृश्य जनता के सामने है।
इस घटनाचक्र में रामपाल दास ने समाचार पत्र और दूरदर्शन के माध्यम से ऋषि दयानन्द को गालियाँ देना, पुस्तकों के उद्धरण को गलत तरीके से प्रस्तुत करना, समाचार पत्रों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द की निन्दा करने का अभियान जारी रखा। आर्यसमाज ने अपने सीमित साधनों से उसका उत्तर देने का प्रयास किया परन्तु उसके साधनों के सामने यह बहुत स्वल्प था। जब मनुष्य का दुर्भाग्य आता है तो दुर्बुद्धि साथ लाता है। रामपाल दास अपने मुकद्दमे की पेशी पर जाने से बचता रहा और वह दिन आ गया जब न्यायालय ने किसी भी स्थिति में उसे गिरतार कर न्यायालय में प्रस्तुत करने का आदेश दिया। एक सप्ताह तक पुलिस प्रयास करने पर भी उसे गिरतार करने में सफल नहीं हो सकी तब आश्रम तोड़कर, बिजली, पानी बन्द कर उसे पकड़ने का प्रयास किया और 14 दिन बाद उसे गिरतार किया जा सका।
इस घटना में विचारणीय बिन्दु है कि इसके लिए दोषी कौन है? क्या रामपाल दास दोषी है? इसका उत्तर है नहीं। क्या जनता दोषी है? इसका भी उत्तर है नहीं। फिर इसका दोषी कौन है? इसका उत्तर है सरकार, प्रशासन, पुलिस अधिकारी, राजनेता और समाज के धनी लोग इसके लिए उत्तरदायी हैं। जब समाज के लोग ऐसे व्यक्ति को माध्यम बनाकर अपने काम सिद्ध करते हैं तो वे ही लोग समाज में ऐसे लोगों की प्रतिष्ठा बढ़ाते हैं। इन बड़े सपन्न प्रतिष्ठित लोगों को इन साधुओं की पूजा करते देखते हैं तो सामान्य जनता इनके भँवरजाल में फंस जाती है। समाज में अधिकांश लोग आज भी धर्म, अधर्म, झूठ-सच इसका अन्तर करने में समर्थ नहीं है। वे तो किसी को भी इस स्थान पर सन्त की वेशभूषा में देखकर उस पर सहज विश्वास कर लेते हैं, अपना सबकुछ उसको सौंपने के लिए तैयार हो जाते हैं, यही कारण है कि इन धार्मिक ठगों के भक्तों, अनुयायियों की संया हजारों में नहीं, लाखों में पहुँच गई है। इनकी बढ़ती भीड़ लोगों को अपनी ओर इतना आकर्षित करती है कि सामान्य व्यक्ति उस भीड़ का हिस्सा बनकर अपने को धन्य समझ लेता है। भक्तों के धन से ये सन्त कुबेर बन जाते हैं, इनकी झोपड़ियाँ महलों में बदल जाती हैं। इनके भक्तों की भीड़ से समाज में इनका महत्त्व बढ़ता जाता है। पुलिस इनसे डरती है, सरकारी अधिकारी इनकी सेवा करते हैं, मन्त्री इनको प्रणाम करते हैं और निर्वाचन के समय इनके भक्तों के वोट प्राप्त करने के लोभ में इनके चरण छूकर आशीर्वाद लेते हैं। ऐसे में वे अपने को सर्वशक्तिमान् समझने लगें तो आश्चर्य की क्या बात है?
रामपाल दास के प्रसंग में भी यही कुछ हुआ है। रामपाल दास का बचाव पहले से सरकारी अधिकारी करते आ रहे हैं, पुलिस कमिश्नर का वक्तव्य ध्यान देने योग्य है, उन्होंने पत्रकारों से कहा कि पुलिस के दस प्रतिशत लोग रामपाल दास के प्रभाव में हैं, इसी कारण पुलिस को अपने कार्य में सफलता नहीं मिल रही। इस तथ्य की जानकारी मिलने पर कार्य-नीति बदली गई और अपरिचित पुलिस को इस कार्य में लगाया गया तब जाकर पुलिस को सफलता मिली। स्मरण रखने की बात है कि भूतपूर्व मुयमन्त्री भूपेन्द्रसिंह हुड्डा की पत्नी रामपाल दास के ट्रस्ट की ट्रस्टी है, यह भी समाचार पत्रों में आ चुका है। मनोहर लाल खट्टर नये मुयमन्त्री हैं, उन्हें प्रशासन को निर्देशित करने में कठिनाई है। यह स्वाभाविक है परन्तु मुयमन्त्री स्वयं रोहतक के रहने वाले हैं, अतः यह समझना चाहिए कि वे रामपाल दास और उसके साथ घटी घटनाओं से भलीभांति परिचित हैं फिर भी इस घटनाक्रम में लोगों को ऐसा लगा कि सरकार जानबूझकर कार्यवाही करने से बचना चाहती है। आलोचकों और पत्रकारों की दृष्टि में ऐसी सोच का ठोस कारण है, खट्टर सरकार ने रामपाल दास से चुनाव में उसका समर्थन माँगा था और भक्तों से भाजपा को मत देने की माँग की गई थी।
राजनीति में एक-एक मत का और मतदाता का मूल्य होता है। मतदाता मतदाता है, वह चोर है, डाकू है, सन्त है, दादा है, जिसके साथ जितने मत जुड़े हैं वह उतना ही महत्त्वपूर्ण है। ऐसी परिस्थिति में राजनेता भूल जाते हैं कि वह कौन है, उन्हें तो बस मतदाता की चरण-वन्दना करनी होती है। रामपाल दास के साथ-साथ भाजपा ने राम-रहीम बाबा का चुनाव में समर्थन लिया। उसके भक्तों के मत ही भाजपा को विजयी बनाने में समर्थ हुए, पिछले दिनों एक बड़े कांग्रेसी नेता ने स्वीकार किया कि कांग्रेस की हार का प्रमुख कारण, राम रहीम बाबा का भाजपा को समर्थन देना है। इस का समर्थन, कांग्रेस को भी चाहिए, चौटाला को भी चाहिए, फिर राजनीति में रहना है तो भाजपा कैसे पीछे रह सकती है। बाबा राम रहीम के समर्थन का धन्यवाद मनोहर लाल खट्टर ने अपने मन्त्रीमण्डल के सहयोगियों के साथ बाबा के आश्रम में पहुँचकर चरण-वन्दना करके किया। ध्यान देने की बात है कि बाबा राम रहीम रामपाल दास से बड़ा बाबा है, उसके आश्रम में होने वाले अवैध कार्यों की जाँच पड़ताल करने का साहस पहली सरकारों मेंाी नहीं था वर्तमान सरकार में भी नहीं है। वहाँ पत्रकार की हत्या का प्रसंग बहुत चर्चित रहा है, समय-समय पर आलोचनायें होती हैं। सरकारें अपने स्वार्थ और दुर्बलता के कारण सार्थक कार्यवाही करने में समर्थ नहीं हो सकी हैं। जो भी कार्यवाही देखने में आई वे न्यायालय द्वारा की गई है। अभी बाबा राम रहीम के डेरे का एक वाद न्यायालय में लबित है। बाबा ने अपने अन्तरंग कार्यकर्त्ताओं को बड़ी संया में बलपूर्वक नपुंसक बना दिया जिससे अन्तरंग कार्यों में उनसे कोई बाधा नहीं पहुँचे। न्यायालय इस बात की जाँच कर रहा है। सरकार में यह साहस नहीं है कि आश्रम के विषय में आई शिकायतों की जाँच कर कार्यवाही कर सके।
बाबा लोग अपने कार्यक्रमों में राजनेताओं को बुलाकर अपना प्रभाव प्रदर्शित करते हैं और राजनेता उनके कार्यक्रमों में जाकर आशीर्वाद लेते हैं। इन बाबाओं में कई तो निपट मूर्ख होते हैं और इन बाबाओं के भक्तों कीाीड़ में बड़े शिक्षाविद्, प्रशासक, राजनेता हाथ बांधे पंक्ति में खड़े रहते हैं। कुछ वर्ष पहले शेखावत मुयमन्त्री थे, आसाराम का जयपुर में कार्यक्रम था, आसाराम ने अनेक स्थानों से सिफारिश दबाव डालकर मुयमन्त्री को अपने कार्यक्रम में बुलाया था।
राजनेताओं को भीड़ ऐसे लुभाती है जैसे ठेका शराबियों को। फिर कौन, किसे दोष दे? आसाराम ने आश्रम बनाये, भूमि पर अवैध कजे किये, महिलाओं का शोषण किया, भक्तों के धन से धनपति बन बैठा, प्रायः करके हर बाबा-सन्त की यही कहानी है।
भिण्डरावाला की कहानी से इस देश के नेताओं ने कोई शिक्षा नहीं ली। इन्दिरा गाँधी ने उसे अपने विरोधियों को परास्त करने के लिए आगे किया था परन्तु भारत सरकार के लिए वह कितना बड़ा सिरदर्द बना और इन्दिरा गाँधी की हत्या का कारण बना। आजकल एक नहीं दर्जनों सन्त इसी कार्य में लगे हुए हैं, ये पाखण्ड फैलाकर जनता के विश्वास को दिन-रात लूटने में लगे हुए हैं। मोदी की जन-धन योजना तो सफल हो या न हो पर इन पाखण्डियों की जन-धन योजना शत-प्रतिशत सफल है। एक निर्मल बाबा, हरी-लाल चटनी खिलाकर लोगों का भाग्य बदल रहा है। कुमार स्वामी ब्रह्मर्षि बनकर बीज-मन्त्र दे रहा है और ऐसे लोगों को इन राजनेताओं से खूब सहयोग और समर्थन मिलता है। दक्षिण का सोना स्वामी हो या नित्यानन्द स्वामी, सभी लोग जनता को मूर्ख बनाकर लूटते हैं और कामिनी काञ्चन के स्वामी बनते हैं, अपनी प्रवृत्तियों का स्वामित्व तो इन्हें न मिला और न ही मिलेगा।
इन सारी घटनाओं को देखने से एक बात साफ होती है कि जनता को समझदार और जागरूक किये बिना इसका सुधार सभव नहीं है। आर्यसमाज इन्हीं लोगों की ऐसी बातों का खण्डन करता है तो नासमझ लोग कहते हैं सभी को अपनी आस्था चुनने का अधिकार है, सबको अपने विचारों का प्रचार करने की स्वतन्त्रता है परन्तु आर्यसमाज भी तो विचार ही दे रहा है। क्या गलत बातों से सावधान करना, विचार का प्रचार करना नहीं है? क्योंकि गलत विचारों के निराकरण के बिना सद्विचारों को स्थान नहीं मिल सकता। रामपाल दास के दुष्कृत्यों के विरोध में आर्यसमाज ने आवाज उठाई, आन्दोलन किया, आज उसी का परिणाम है कि रामपाल दास का यथार्थ रूप जनता के सामने आ सका।
इस घटनाक्रम में बाबा की ओर से गोलीबारी में पुलिस वाले और कुछ लोग घायल हुए परन्तु पुलिस को गोली नहीं चलानी पड़ी। रामपाल दास को पुलिस ने गिरतार किया या रामपाल दास ने समर्पण किया यह तो प्रशासन और सरकार की नीयत को बतायेगा। परन्तु एक दुर्घटना का अन्त हुआ। पुलिस को बधाई, ईश्वर का धन्यवाद। इस घटनाक्रम पर पञ्चतन्त्र की पंक्ति सटीक लगती है-
प्रथमस्तावदहं मूर्खो द्वितीयः पाशबन्धकः।
ततो राजा च मन्त्री च सर्वं वै मूर्खमण्डलम्।।
– धर्मवीर
जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव जी
जिज्ञासा– अथर्ववेद में निनलिखित दो मन्त्र इस
प्रकार से हैं-
अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।
तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।
तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते।
तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः।।
– अथर्ववेद 10/2/31-32
पहले मन्त्र में मनुष्य के शरीर की संरचना का वर्णन किया गया है। संक्षेप में, यह स्पष्ट रूप में कहा गया है कि हमारे शरीर में आठ चक्र हैं। मैं अपने अल्प ज्ञान के आधार पर यही समझता हूँ कि वेद-मन्त्र का संकेत मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र नामक आठ चक्रों पर है। इस शरीर में एक आनन्दमय कोश है जो कि आत्मा का निवास-स्थान है। इस आत्मा में जो परमात्मा विद्यमान है, ब्रह्म-ज्ञानी उसे ही जानने का प्रयास करते हैं। जहाँ तक मैंने वैदिक विद्वानों के मुखारविन्द से सुना है, ब्रह्म-रन्ध्र आनन्दमय कोश में ही विद्यमान है। उनका यह भी कथन है कि मस्तिष्क को भी हृदय कहा जाता है। मस्तिष्क की स्थिति आनन्दमय कोश में है।
जब स्तभवृत्ति द्वारा, श्वासों की गति को कुछ क्षणों के लिए रोक दिया जाता है तो मन के द्वारा ध्यान लगाने में सुविधा होती है। जब श्वासों को ब्रह्म-रन्ध्र की स्थिति में रोका जाए तो मन शीघ्र ही एकाग्र हो जाता है क्योंकि दोनों ही एक कोश में विद्यमान है। स्वभाविक रूप से ब्रह्मरन्ध्र (सहस्रार) में धारणा करते हुए आत्मा का अन्तःकरण के द्वारा चिन्तन करना अधिक सरल हो जाता है। वक्षस्थल के समीप जिसे व्यवहारिक भाषा में हृदय कहा जाता है, ध्यान बिखरने लगता है क्योंकि ध्यान लगाने वाला तो इस कोश में है नहीं।
ऊपर लिखित तथ्यों को ध्यान रखते हुए मेरी निनलिखित जिज्ञासायें हैं और प्रार्थना है कि उनका अपनी पत्रिका में यथोचित समाधान करते हुए कृतार्थ करें।
(क) अथर्ववेद में किन आठ चक्रों का वर्णन किया गया है।
(ख) इन आठ चक्रों का क्या महत्त्व है, विशेषतया ध्यान की पद्धति में?,
(ग) क्या ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान करना युक्ति-युक्त नहीं? क्या यह वर्जित है?
समाधान की प्रतीक्षा में,
– रमेश चन्द्र पहूजा, प्रधान, आर्यसमाज मॉडल टाऊन, यमुनानगर
समाधान– आज अध्यात्म के नाम पर अनेक भ्रान्तियाँ चल रही हैं। यथार्थ में अध्यात्म क्या है? इसको प्रायः लोग समझते ही नहीं। बिना समझे अध्यात्म के नाम पर भ्रान्ति में जीवन जी रहे होते हैं। आत्मा-परमात्मा के विषय को अधिकृत करके विचार करना उसके अनुसार जीना अध्यात्म है। ठीक-ठीक वैदिक सिद्धान्तों को समझना उनको आत्मसात करना उनके अनुसार अपने को चलाना अध्यात्म है। यह अध्यात्म तनिक कठिन है। इस कठिनता भरे अध्यात्म को अपनाने के लिए साहस और पुरुषार्थ की आवश्यकता है। प्रायः आज का व्यक्ति पुरुषार्थ से बचना चाहता है इसलिए उसको सरल मार्ग चाहिए। यम-नियम आदि के बिना ही कुण्डलिनी जाग्रत कर मोक्ष चाहता है। इन कुण्डलिनी आदि के साथ चक्रों के चक्र में भी घुमने लगता है।
महर्षि दयानन्द ने हमें विशुद्ध अध्यात्म का परिचय ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका उपासना विषय, मुक्ति विषय में व सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 7 व 9 में तथा अध्यात्म से ओतप्रोत ग्रन्थ आर्याभिविनय में करवा दिया है। महर्षि के इस अध्यात्म में कुण्डलिनी और चक्रों की कोई चर्चा नहीं है। महर्षि दयानन्द ने हठयोग प्रदीपिका पुस्तक को अनार्ष ग्रन्थ माना है और ये कुण्डलिनी आदि उसी अनार्ष ग्रन्थ की देन है। न ही सांय आदि शास्त्र में इनका वर्णन है। ऋषियों के ग्रन्थों में तो यमनियामादि के द्वारा ज्ञान प्राप्त कर उस ज्ञान से मुक्ति कही है न कि कुण्डलिनी जागरण से। अस्तु।
अथर्ववेद के जो मन्त्र आपने उद्धृत किये हैं उन मन्त्रों के आर्ष भाष्य उपलध नहीं हैं, अन्य विद्वानों के भाष्य उपलध हैं। जो भाष्य उपलध हैं उन विद्वानों का मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान् प्रचलित चक्रों की बात करते हैं कुछ नहीं। जो प्रचलित चक्रों को मानते हैं वे इन्हीं चक्रों परक अर्थ करते हैं और जो नहीं मानते वे चक्र का अर्थ आवर्तन घेरा आदि लेते हुए शरीर में स्थित ओज सहित अष्ट धातुओं का जो वर्णन है उसको लेते हैं अथवा अष्टाङ्ग योग को लेते हैं। ये विद्वानों की अपनी मान्यता है। यथार्थ में मन्त्र में आये अष्ट चक्र में कौनसे आठ चक्र कहे हैं, यह निश्चित नहीं हैं। हमें अधिक संगत अष्ट धातु परक अर्थ लगता है, फिर भी यह अन्तिम नहीं है।
महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में तन्त्रादि ग्रन्थों को भी पढ़ा था। उन तन्त्र ग्रन्थों में शरीर रचना विशेष की बातें लिखी थी। उन पुस्तकों में कई पुस्तकों का विषय नाड़ीचक्र था। महर्षि ने शव परीक्षण भी किया था जो उन नाड़ीचक्र आदि विषय वाली पुस्तकों के अनुसार खरा नहीं उतरा अर्थात् नाड़ीचक्र आदि वहाँ कुछ नहीं मिला। उससे ऋषि का और अधिक दृढ़ निश्चय आर्ष ग्रन्थों पर हुआ। वर्तमान के चिकित्सकों को भी ये चक्र कुण्डलिनी नहीं मिले हैं। जब ये चक्र हैं ही नहीं तो इनकी ध्यान में उपयोगिता भी कैसी? ध्यान में उपयोगी अपना शुद्ध व्यवहार, सिद्धान्त की निश्चितता, वैराग्य, यम-नियमादि योग के अंग हैं। इनको कर व्यक्ति अच्छी प्रकार ध्यान कर सकता है अन्यथा तो शरीर के चक्रों में ही लगा रहेगा।
हाँ मन्त्र में आये अष्टचक्र से यदि अष्टधातु शरीर में स्थित रसादि सात और आठवाँ ओज लिया जाता है तो निश्चित रूप से इनका महत्त्व है।
आपने पूछा क्या ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान करना युक्ति युक्त नहीं? क्या यह वर्जित है? इस पर हमारा कथन कि महर्षि पतञ्जली जी ने योगदर्शन में ‘धारणा’ के लिए कहा है, धारणा की परिभाषा करते हुए महर्षि ने सूत्र बनाया ‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा’ अर्थात् चित्त का शरीर के एक देश (स्थान) विशेष पर बान्धना (स्थिर) करना धारणा है। इस सूत्र का भाष्य करते हुए महर्षि व्यास ने कुछ स्थानों के नाम गिनाये हैं
नाभिचक्रे, हृदयपुण्डरीके, मूर्ध्नि, ज्योतिषि, नासिकाग्रे, जिह्वाग्र इत्येवमादिषु देशेषु….धारणा।
अर्थात् नाभी, हृदय, मस्तक, नासिका और जिह्वा के अग्रभाग आदि देश में मन को स्थिर करना। यहाँ मुयरूप से मन को एक स्थान पर रोकने की बात कही है वह स्थान कोई भी हो सकता है, ब्रह्मरन्ध्र भी ऋषि के कथन से तो हमें यह प्रतीत नहीं हो रहा कि ध्यान करने के लिए ब्रह्मरन्ध्र विशेष स्थान है और अन्य स्थान सामान्य है। हाँ यह अवश्य प्रतीत हो रहा है कि सभी स्थान अपना महत्त्व रखते हैं। उनमें चाहे नासिकाग्र, जिह्वाग्र हो अथवा ब्रह्मरन्ध्र। यह वर्जित भी नहीं है कि ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान नहीं करना चाहिए, ब्रह्मरन्ध्र में मन टिका कर ध्यान किया जा सकता है।
आपने विद्वानों से सुना है कि ब्रह्मरन्ध्र आनन्दमय कोश में रहता है। मस्तिष्क को हृदय कहा जाता है। मस्तिष्क की स्थिति आनन्दमय कोश में है। आपने जो विद्वानों से सुना है कि हृदय मस्तिष्क है अथवा मस्तिष्क में है यह ऋषि के प्रतिकूल कथन है। हमने कई बार जिज्ञासा समाधान में ऋषि कथनानुसार हृदय स्थान का वर्णन किया है। अब फिर कर रहे हैं ‘जिस समय….. परमेश्वर करके उसमें प्रवेश किया चाहें, उस समय इस रीति से करें कि कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर के ऊपर जो हृदय देश है। जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाश रूप स्थान है…….।’ ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी मस्तिष्क को हृदय कहना, ऋषि मान्यता को न मानना है। इसी हृदय प्रदेश में ध्यान करने वाला आत्मा रहता है। यहाँ पर ठीक-ठीक किया गया ध्यान बिखरेगा नहीं अपितु अधिक-अधिक ध्यान लगेगा।
इसलिए ध्यान उपासना को अधिक बढ़ाने के लिए महर्षि दयानन्द ने जो उपासना पद्धति विशेष बताई है उसके अनुसार चले चलावें इसी से अधिक लाभ होगा। और जो ऋषि मान्यता से विपरीत अन्य विद्वानों के विचार हैं उसको छोड़ने में ही लाभ है। ऋषि मान्यता के विपरीत चाहे कितने ही बड़े विद्वान् की बात क्यों न हो वह हमारे लिए मान्य नहीं है।
– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर
ദയാനന്ദ സന്ദേശം ജനുവരി 2015
Religious Conversion through Temptation
Dec’2014 secession of parliament is stalled by our concern leader on the issue of religion conversion. Verily our elected members of parliament are our representatives and should be concerned over the issues of general public. It should be addressed in parliament. Religion conversion should not be a matter of temptation or threat. Different Muslim Member of Parliament heard saying that 95% of the Indian Muslims were Hindus. How they become Muslims these are not hidden facts. It was a conversion thru the force and lure which resulted in creating ground for Muslims in Aryavart. Sing of forceful conversion are still found as after passing lot of generations still converted Muslims are carrying their identity of Gotra like Chaudhary Muslim, Malik Muslims and Taygi Muslims etc. Chaudhary, Malik or Tyagi have not been forefather of Muslims community but these are the converted Muslims whose affection towards Hinduism have not allowed them to leave their surname and they are still carrying that identity.
In Vedic dharma it is preached “मनु॑र्भव” (Rig 10/53/6) i.e. be a noble man for the benefit of the society. Vedic dharma works on the principle of “वसुधैव कुटुम्बकम” considering that all people of this universe are member of family and utmost love and care should be extended for everyone. It doesn’t preach that follow the particular idol or hate or kill who is not in line with your views it doesn’t preach to behead those who reject and hate what is revealed it does not threat that your good deeds will not have no effect at death or on the day of judgment because u have not followed what was told to you.
It is matter of joy that our elected representatives are aware now and has raised concerned on this issue. We do support the idea of stopping force full conversion thru temptation or through the treat. In this part we will discuss about few temptation offer given by few books of various sects to lure different people. We don’t think that such temptation can be a part of the book of GOD. In our opinion these would be the interpolated versed added by the mischievous people to tarnish the book of most merciful and gracious creator of universe. Otherwise what’s the necessarily to lure his own creation to follow a particular sects. We do request to the awaked member to parliament to have a look on such books that temp to convert people to their sect.
Verses From Holy Islamic Book
[38:49]
This is a remembrance, of them, [made] by [the mention of] fair praise [of them] here; and indeed for the God-fearing, who comprise them, there will truly be a fair return, in the Hereafter —
[38:50]
Gardens of Eden (jannāti ‘Adnin is either a substitution for, or an explicative supplement to, husna ma’ābin, ‘a fair return’) whose gates are [flung] open for them;
[38:51]
reclining therein, on couches; therein they call for plenteous fruit and drink.
[38:52]
And with them [there] will be maidens of restrained glances, restricting their eyes to their spouses, of a like age, of the same age, girls who are thirty three years of age (atrāb is the plural of tirb).
[56:8]
Those of the right [hand], those who are given their record [of deeds] in their right hand (fa-ashābu’l
maymanati is the subject, the predicate of which is [the following mā ashābu’l-maymanati]) — what of those of the right [hand]? — a glorification of their status on account of their admittance into Paradise.
[56:9]
And those of the left [hand] (al-mash’ama means al-shimāl, ‘left’), each of whom is given his record [of
deeds] in their left hands — what of those of the left [hand]? — an expression of contempt for their status on account of their admittance into the Fire.
[56:10]
And the foremost, in [the race to do] good, namely, the prophets (al-sābiqūna is a subject) the foremost:
(this [repetition] is to emphasise their exalted status; the predicate [is the following, ūlā’ika’l muqarrabūna])
[56:15]
[will be] upon encrusted couches, [their linings] woven onto rods of gold and jewels,
[56:16]
reclining on them, face to face (muttaki’īna ‘alayhā mutaqābilīna constitute two circumstantial qualifiers
referring to the [subject] person of the predicate [‘they’]).
[56:17]
They will be waited on by immortal youths, resembling young boys, never ageing;
[56:18]
with goblets (akwāb are drinking-vessels without handles) and ewers (abārīq [are vessels that] have handles and spouts) and a cup (ka’s is the vessel for drinking wine) from a flowing spring, in other words, wine flowing from a spring that never runs out,
[56:19]
wherefrom they suffer no headache nor any stupefaction (read yanzafūna or yanzifūna, [respectively
derived] from nazafa or anzafa al-shāribu, ‘the drinker became inebriated’), in other words, they do not get a headache from it nor do they lose their senses, in contrast to [the case with] the wine of this world;
[56:20]
and such fruits as they prefer,
[56:21]
and such flesh of fowls as they desire, for themselves to enjoy,
[56:22]
and houris, maidens with intensely black eyes [set] against the whiteness [of their irises], with wide eyes
(‘īn: the ‘ayn here is inflected with a kasra instead of a damma because it [the kasra] better harmonises with the yā’; the singular is ‘aynā’, similar [in pattern] to hamrā’; a variant reading [for wa-hūrun ‘īn] has the genitive case wa-hūrin ‘īn)
[56:23]
resembling hidden, guarded, pearls,
[18:31]
Those, for them there shall be Gardens of Eden, as a [place of] residence, underneath which rivers flow;
therein they shall be adorned with bracelets of gold (min asāwir: it is said that min here is either extra or
partitive; it [asāwir] is the plural of aswira — similar [in pattern] to ahmira [for himār] — which is the plural of siwār) and they shall wear green garments of fine silk (sundus) and [heavy] silk brocade (istabraq is that [silk] which is coarse: [God says] in the verse of [sūrat] al-Rahmān [Q. 55:54], lined with [heavy] silk brocade); reclining therein on couches (arā’ik is the plural of arīka, which is a bed inside a [curtained] canopy, and is also a tent adorned with garments and curtains for a bride). How excellent a reward, a requital, is Paradise, and how fair a resting-place!
[37:45]
they are served from all round, each one of them [is so served], with a cup (ka’san, [this denotes] the vessel with the drink in it) from a spring, of wine that flows along the ground like streams of water,
[37:46]
white, whiter than milk, delicious to the drinkers, in contrast to the wine of this world which is distasteful to drink,
[37:47]
wherein there is neither madness, nothing to snatch away their minds, nor will they be spent by it (read
yunzafūna or yunzifūna, from [1st form] nazafa or [4th form] anzafa, said of one drinking, in other words, they are [not] inebriated [by it], in contrast to the wine of this world),
[37:48]
and with them will be maidens of restrained glances, who reserved their glances [exclusively] for their
spouses and do not look upon any other — because of the beauty they [the maidens] see in them — with
beautiful eyes (‘īn means with large and beautiful eyes),
[37:49]
as if they were, in terms of [the starkness of their white] colour, hidden eggs, of ostriches, sheltered by their feathers from dust, the colour being that whiteness with a hint of pallor, which is the most beautiful of female complexions
[44:54]
So [shall it be] (an implied al-amru, ‘the matter’, should be read as preceding this); and We shall pair them, either in conjugality or [meaning] We shall join them, with houris of beautiful eyes, women of the fairest complexion with wide and beautiful eyes.
[76:19]
And they will be waited upon by immortal youths, [immortally] in the form of youths, never ageing, whom, when you see them you will suppose them, because of their beauty and the way in which they are scattered about [offering] service, to be scattered pearls, [strewn] from their string, or from their shells, in which they are fairer than [when they, the pearls, are] otherwise [not in their shells].
[2:25]
And give good tidings to, inform, those who believe, who have faith in God, and perform righteous deeds, such as the obligatory and supererogatory [rituals], that theirs shall be Gardens, of trees, and habitations, underneath which, that is, underneath these trees and palaces, rivers run (tajrī min tahtihā’l-anhāru), that is, there are waters in it (al-nahr is the place in which water flows [and is so called] because the water carves [yanhar] its way through it; the reference to it as ‘running’ is figurative); whensoever they are provided with fruits therefrom, that is, whenever they are given to eat from these gardens, they shall say, ‘This is what, that is, the like of what we were provided with before’, that is, before this, in Paradise, since its fruits are similar (and this is evidenced by [the following statement]): they shall be given it, the provision, in perfect semblance, that is, resembling one another in colour, but different in taste; and there for them shall be spouses, of houris and others, purified, from menstruation and impurities; therein they shall abide: dwelling therein forever, neither perishing nor departing therefrom. And when the Jews said, ‘Why does God strike a similitude about flies, where He says, And if a fly should rob them of anything [Q. 22:73] and about a spider, where He says, As the likeness of the spider [Q. 29:41]: what does God want with these vile creatures?
[47:15]
A similitude, a description, of the Garden promised to the God-fearing: [the Garden] that is shared equally by all those who enter it (this first clause is the subject, of which the predicate [follows:]) therein are rivers of unstaling water (read āsin or asin, similar [in form] to dārib, ‘striker’, and hadhir, ‘cautious’), that is to say, one that does not change, in contrast to the water of this world, which may change due to some factor; and rivers of milk unchanging in flavour, in contrast to the milk of this world, on account of its issuing from udders, and rivers of wine delicious to the drinkers, in contrast to the wine of this world, which is distasteful to drink; and [also] rivers of purified honey, in contrast to the honey of this world, which when it issues out of the bellies of bees becomes mixed with wax and other elements; and there will be for them therein, varieties [of], every fruit and forgiveness from their Lord, for He is pleased with them, in addition to His beneficence towards them in the way mentioned, in contrast to one who is a master of servants in this world, who while being kind to them may at the same time be wrathful with them. [Is such a one] like him who abides in the Fire? (ka-man huwa khālidun fī’l-nāri, the predicate of an implied subject, which is a-manhuwa fī hādha’l-na‘īm, ‘Is one who is amidst such bliss [as him who abides in the Fire]?’). And they will be given to drink boiling water which rips apart their bowels, that is, their entrails, so that these will be excreted from their rears. (Am‘ā’, ‘bowels’, is the plural of mi‘an, its alif being derived from the yā’ of their saying mi‘yān [as an alternative singular to mi‘an]).
By going through from the verses given above it is clear that various temptations are given whether it is related to women or wine or many other facilities those are not easily available to the common man. A lot of men women are in stage of starving in this world. These offers lure them to get convert and people get caught in such temptation. We believe in the creator of this universe and are of opinion that HE who has created this universe has power to create his follower also. What is the need of these offers to the mankind. We don’t think that these are part of the book of GOD. These would have been interpolated by the mischievous people for their benefit. Our leaders who have stalled the parliament should raise the voice against such verses and these should be banned. People should be free to choose what they want. Humanity should be preached to all the people instead of different sects. IF we get success in making this world noble place to live in what else can we require?