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आत्मा का स्थान-5

आत्मा का स्थान-5

–  स्वामी आत्मानन्द

गतांक से आगे…..

जो आत्मा अभी अन्नमय, प्राणमय, और मनोमय में फंसा हुआ है, उसको लक्ष्य का निर्देश इस आगे के प्रसङ्ग में किया गया है-

मनोमयः प्राणशरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय।

तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपममृतं यद्विभाति।

(मु. 2/2/7)

शरीर का नेता अर्थात् प्राणमय और अन्नमय के प्रबन्ध में लगा हुआ आत्मा, अन्न में = अन्नमय कोष में अपने हृदय को स्थापित कर उस में प्रतिष्ठित है। जो आनन्द रूप अमृत ब्रह्मरन्ध्र में चमक रहा है और प्राप्तव्य है, उसे विद्वान् लोग विज्ञान से अर्थात् इन कोषों और आत्मा के विवेक से देख पाते हैं।

इस प्रसङ्ग में स्पष्ट ही सिद्ध होता है कि आत्मा नीचे के हृदय में प्रतिष्ठित है। क्योंकि उसे विवेक नहीं हुआ, और विवेक के बिना ऊपर के हृदय में उत्क्रमण हो नहीं सकता।

इस आगे के प्रसंग में महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी अज्ञानी आत्मा की स्थिति नीचे के हृदय में ही मानी है।

य एष विज्ञानमयः पुरुषस्तदेषां प्राणानां विज्ञानेन विज्ञानमादाय य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिन् शेते। तानि यदा गृह्णात्यथ हैतत्पुरुषः स्वपिति नाम। तद्गृहीत एव प्राणो भवति। गृहीता वाक् गृहीतं चक्षुः। गृहीतं श्रोत्रं गृहीतं मनः।। (बृहदारण्यक 2/1/17)

(जो यह विज्ञानमय आत्मा है वह अपने विज्ञान से इन प्राणों=इन्द्रियों के विज्ञान को समेट कर जो कि हृदय के अन्दर आकाश है उस में सोता है। उन इन्द्रियों को जब वह पकड़ लेता है=उन्हें कार्य से विरत कर देता है, तब यह पुरुष सोता है। उस समय नासिका, वाणी, चक्षु, श्रोत्र और मन सब काम करना बन्द कर देते हैं।)

इस प्रसङ्ग में भी आत्मा को इन्द्रियों से काम लेता हुआ और सोने के समय उन्हें समेट लेता हुआ प्रकट किया गया है। इन्द्रियों के बन्धन में=प्राणमय कोष में ही फंसा हाने के कारण यह आत्मा भी  अभी अज्ञानी है, उत्क्रमण का अधिकारी नहीं, अतः इस का भी निवास नीचे के हृदय में ही है।

और भी आगे चल कर कहा है

अथ यदा सुषुप्तो भवति यदा न कस्यचन वेद हिता नाम नाड्यो द्वासप्ततिः सहस्राणि हृदयात्पुरीतत– मभिप्रतिष्ठन्ते ताभिः प्रत्यवसृप्य पुरीतति शेते।

(बृहदारण्यक 2/1/19)

(अब जब मनुष्य सो जाता है, जब किसी को भी नहीं जानता, तब उसकी जो हिता नाम 72000 बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं उनके द्वारा फैलकर पुरीतत नाड़ी में सोता है।)

हिता नामक हृदय की नाड़ियों के पास ही हृदयाकाश में पुरीतत नाड़ी होगी, जिसमें आत्मा सोता है। क्योंकि ऊपर के प्रसंग में महर्षि याज्ञवल्क्य ने ही जीव का शयन हृदय के आकाश में लिखा है।

यहाँ सारी प्रशाखाओं का सङ्कलन नहीं कि या गया, इसीलिये संखया बहत्तर हजार लिखी है।

यह आत्मा भी अभी आज्ञानी ही है, अतः इसका स्थान भी नीचे का हृदय ही है।

अन्यत्र महर्षि याज्ञवल्क्य लिखते हैं-

कतम आत्मेति योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तज्योतिः पुरुषः।।

(बृहदारण्यक 4/3/7)

(यह कौन सा आत्मा है, जो कि विज्ञानमय नामक है और हृदय के अन्दर प्राणों के मध्य में है, और जो आी अन्तर्ज्योति है, जिसका प्रकाश आी उस के अन्दर ही है, प्रकट नहीं हुआ)

इस प्रसङ्ग में महर्षि ने आत्मा का नाम विज्ञानमय कहा है। और उसे उस हृदय में उपस्थित किया है, जो प्राण केन्द्र के मध्य में शिर में है। क्योंकि वह मन पर अधिकार कर विज्ञानमय में प्रविष्ट हो चुका है। उसका विवेक ब्रह्मरन्ध्र में भगवान् की सहायता से करना चाहता है। और अपनी अन्तर्हित विज्ञान-ज्योति को प्रकट करना चाहता है।

प्राणों का केन्द्र मस्तिष्क में है, इसके समबन्ध में यजुर्वेद के एक मन्त्र के द्वारा महर्षि याज्ञवल्क्य क्या कहते हैं, इसे आगे पढ़िये-

‘‘अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपम् तस्याऽऽसत ऋषयः सप्त तीर वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति। य एष ऊर्ध्वबुध्नः तच्छिरः। प्राणा वै यशो विश्वरूपम्। प्राणा वा ऋषयः। वाग्ध्यष्टमी ब्रह्मणा संवित्ते।’’ (बृहदारण्यक 2/2/3)

(एक कटोरा है, जिसका पेंदा ऊपर और छिद्र नीचे है। उसमें विश्वरूप यश रक्खा हुआ है। उसके किनारे पर सात ऋषि हैं, और आठवीं वाणी है, जो ब्रह्म के साथ संवाद करती है। इसके व्याखयान में महर्षि लिखते हैं कि वह कटोरा हमारा शिर है और इसमें जो विश्वरूप यश है वह प्राण है। सात ऋषि भी  प्राण ही है और आठवीं ब्रह्म से संवाद करने वाली अथवा उसका गुणगान करने वाली वाणी भी  शिर के पास ही है।)

इस प्रसंग में महर्षि ने प्राणों का केन्द्र शिर माना है। यद्यपि प्राण, शरीर में भिन्न-भिन्न स्थानों में रहकर भिन्न-भिन्न कार्य कर  रहे हैं, परन्तु उनका प्रधान केन्द्र शिर ही है।

अयासी आत्मा को जहाँ ब्रह्म की प्राप्ति होती है, वह स्थान भी यह ब्रह्मरन्ध्र वाला हृदय ही है। इस विषय में आचार्य यम कहते हैं-

तन्दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्।

अध्यात्मयोगधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति।

(कठ.1/2/12)

(वह दृष्टि से गय नहीं है। वह पुराण है और छिपा हुआ हृदय की गुहा में प्रविष्ट है। उस देव को अध्यात्म योग से मनन कर बुद्धिमान् पुरुष हर्ष शोक से छूट जाता है।)

ब्रह्म ऊपर की गुहा के अन्दर जिसे कि ब्रह्मरन्ध्र वाला हृदय कहते हैं, मिलता है। आत्मा को उसकी प्राप्ति के लिये उसका वहाँ ही जाकर मनन करना होता है।

ऊपर के हृदय में पहुँचने पर ही ब्रह्म प्राप्त होता है, इसका आचार्य और भी स्पष्टीकरण करते हैं-

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे,

छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पंचाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः।

(कठ. 1/3/1)

(शरीर के उत्कृष्ट पर भाग में गुहा में प्रविष्ट दो आत्माओं को आहिताग्नि, पञ्चाग्नि विद्या में निपुण ब्रह्मज्ञानी लोग अपने सुकृत का फल प्राप्त करते हुए को छाया और धूप के समान देखते हैं।)

हमारे शरीर के उत्कृष्ट पर भाग में विद्यमान गुहा हमारा ब्रह्मरन्ध्र का हृदय ही है। ब्रह्मज्ञानी का अग्न्याधान अध्यात्म अग्नि में ही होता है। पञ्चकोष विवेक ही उनका पञ्चाग्नि विद्या में नैपुण्य है। इस हृदय में छाया स्थानीय जीव और आतप स्थानीय ब्रह्म है। जीव ज्ञानवान् है, परन्तु ब्रह्मज्ञान के सामने तो उस का ज्ञान छाया के समान ही है। वह यहाँ रहकर प्रभु के ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त कर रहा है, और यह ही उस के सुकृत का फल उसे प्राप्त हो रहा है, और यह ही उसे ज्ञान देना रूप प्रभु के सुकृत का फल है। प्रभु का अपना कुछ भी प्राप्तव्य नहीं है।

यह ही विषय संक्षेप में महर्षि तित्तिरि ने कहा है-

‘‘यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्’’

(जो उत्कृष्ट आकाश में गुहा में प्रविष्ट को जानता है)

हमारे शरीर में उत्कृष्ट आकाश,शरीर के द्युलोक नामक शिर में हृदयाकाश ही है। उसी में ब्रह्म को जाना जाता है। इसीलिये उसे यहाँ इस स्थान में निहित कहा गया है।

इसी विषय को महर्षि याज्ञवल्क्य ने छान्दोग्य में भी कहा है-

‘‘अथ यदस्मिन् ब्रह्मपुरे  दहरं पुण्डरीकं वेश्म, दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशः, तस्मिन् यदन्तस्तदन्वेष्टव्यम्, तद्वाव विजिज्ञासितव्यम्’’           (छान्दोग्य 8/1/1)

(अब जो हमारे इस ब्रह्मपुर में कमल के समान दहर नामक स्थान है। इसके अन्दर का आकाश भी दहर है। उस के अन्दर जो है, उसे खोजना चाहिये और उसी के ज्ञान की इच्छा करनी चाहिये)

हमारे शरीर में ब्रह्मपुर हमारा द्युलोक नामक शिर है। उसमें कमल की आकृति वाला हमारा हृदय है। उसके अन्दर के आकाश को और उस हृदय को दोनों को ही यहाँ दहर कहा गया है। दहर शबद का अक्षरार्थ होता है ‘‘ददाति, हन्ति, रमयति च’’ देता है, नष्ट करता है, और रमण कराता है। इन दोनों में ही ब्रह्म का निवास है। ब्रह्म-ज्ञान देता है, अज्ञान का नाश करता है और आनन्द में रमण कराता है। उसके समबन्ध के कारण, हृदय और हृदयाकाश को भी आत्मा के लिये ऐसे साधन उपस्थित करने वाला कह दिया गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने आत्मा और ब्रह्म दोनों को इस हृदय में दिखलाया है-

एष म आत्माऽन्तर्हृदयेऽणीयान् व्रीहेर्वा यवाद्वा

सर्षपाद्वा श्यामाकाद्वा, श्यामाकतण्डुलाद्वा।

एष म आत्माऽन्तर्हृदये ज्यान्पृथिव्या,

ज्यायानन्तरिक्षात् ज्यायान्दिवो, ज्यायानेयो लोकेयः

– छान्दोग्य 3/14/3

(यह मेरा आत्मा अन्दर के हृदय में, धान से, जौ से, सामक से, और सामक के दाने से भी अत्यन्त छोटा है।)

यह मेरा आत्मा अन्दर के हृदय में, भूमि से, अन्तरिक्ष से, द्युलोक से और इन सारे लोकों से भी बहुत बड़ा है।।

यहाँ अन्दर का हृदय शिर वाला हृदय ही लिया गया है। इसमें प्राप्त करने वाले और प्राप्तव्य दोनों ही आत्माओं का एक का अणु और दूसरे का व्यापक स्वरूप दिखलाया गया है। इस प्रसंग में स्पष्ट किया गया है कि आत्मा को ब्रह्म प्राप्ति के लिये इस स्थान का आश्रय लेना पड़ता है।

इसी प्रकार के दृश्य का बृहदारणयक में एक स्थान पर भी वर्णन किया गया है-

‘‘मनोमयोऽयं पुरुषो भाः सत्यस्तस्मिन्नतर्हृदये यथा वीहिर्वा यवो वा (दूसरे को लक्ष्य करके कहते हैं) स एष सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति यदिदं किञ्च’’।                                  (बृहदारण्यक 5.1)

यह मनोमय पुरुष अन्दर के हृदय में प्रकाश-रूप है, सत्-रूप है। और यह वह सबका ईश्वर, सब का स्वामी है। यह जो सब संसार है, सब पर यह शासन करता है।

यहाँ भी अन्दर का हृदय वही ब्रह्म-रन्ध्र वाला हृदय है। यहाँ भी इस हृदय में जीव ज्ञानरूप प्रकाश को प्राप्त कर रहा है और ब्रह्म उस ज्ञान की प्राप्ति में उसका स्वामी बना हुआ है। यहाँ जीव को धान अथवा जौ जितना परिमाण, उसके यहाँ के निवास स्थान के परिमाण के कारण कह दिया गया है। इसका वास्तविक परिमाण हम उपनिषद् के वाक्य से ही आगे चलकर व्यक्त करेंगे।

श्वेताश्वेतर में भी जीव और ब्रह्म इन दोनों के ज्ञान के लिये इसी हृदय में उल्लेख किया गया है-

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्।

हृदा-हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति।।

– श्वे.4,20

(इसका रूप प्रत्यक्ष गोचर नहीं है। इसे चक्षु से कोई नहीं देखता। हृदय साधन से अर्थात् हृदय में रहकर हृदय में वर्तमान ब्रह्म को जानते हैं, वे अमर हो जाते हैं।)

इस प्रसंग में यह निर्देश किया गया है कि ब्रह्म ऊपर के हृदय में मिलेगा। साधक-आत्मा उस हृदय में पहुँचने की योग्यता प्राप्त करे और उसे जानकर मोक्ष का अधिकारी बने।

इसी विषय का स्पष्टीकरण अथर्ववेद के 10.2.31, 32वें में बड़ी उत्तम रीति से किया गया है-

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।

तस्यां हिण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।

तस्मिन् हिरण्यये कोषे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते।

तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः।।

(जिस के साथ कोई युद्ध नहीं कर सकता, ऐसी एक नौ द्वारों वाली और आठ चक्रों वाली देवताओं की नगरी है। उसमें एक सुवर्णमय कोष है, जिसे कि स्वर्ग कहते हैं और वह प्रकाश से घिरा हुआ है। हे देवो! उस तीन अरों वाले और तीन स्थानों पर प्रतिष्ठित सुवर्णमय कोष में जो आत्मा वाला पूजनीय देव है, उसे ब्रह्मज्ञानी जानते है।)

इन दो मन्त्रों में निम्न विषय प्रकट किये गये हैं-

  1. हमारे इस शरीर में आठ चक्र और नौ द्वार हैं।
  2. जब तक यह शरीर देवताओं की नगरी बना रहता है- अर्थात् इसके इन्द्रिय आदि देव असुर नहीं बन जाते, देव ही बने रहते हैं, तो इस नगर पर कोई रोग अथवा काम आदि शत्रु विजय नहीं पा सकते।
  3. इस में एक स्वर्ग नामक प्रकाश से घिरा हुआ कोष है। जो कि सुवर्ण जैसे उपादान से बना है। चक्र का ही दूसरा नाम कोष है। प्रकाश वाला कोष हमारे शरीर में सहस्रार ही है, जो कि शिर में है। देवों का स्थान स्वर्ग भी हमारा शिर ही कहलाता है। प्रकाश वाला स्थान होने के कारण इसे ही द्युलोक भी कहते हैं।
  4. इस कोष का निर्माण तीन अरों पर हुआ है। और इसीलिये यह अपने त्रिकोण आधार में तीन स्थानों पर टिका हुआ हे।
  5. इसमें एक यक्ष है-पूजनीय देव है, जिसे कि ब्रह्म कहते हैं
  6. उसकी शरण में आत्मा आनन्द तथा ज्ञान की प्राप्ति के लिये आया हुआ है, इसीलिये इसका दूसरा नाम आत्मन्वत्=आत्मा वाला हो गया है।
  7. इस यज्ञ को ब्रह्म-ज्ञानी ही जान सकता है,दूसरा कोई नहीं। हम समझते हैं कि हमारे इस ऊपर के विश्लेषण से इन मन्त्रों का सब विषय पाठकों की समझ में आ गया होगा। इस अवस्था में आत्मा जिन उलझनों को पार करता हुआ पहुँचा है, वे कुछ कम महत्त्व की न थीं। इसे इन उलझनों से निकालकर इतने ऊँचे स्थान पर ले आना, अथवा वहाँ ही उलझाए रखना, ये दोनों ही यद्यपि मनोदेव के काम हैं, परन्तु यह सत्य है कि आत्मा की उपेक्षा अथवा सावधानता उसकी इन दोनों अवस्थाओं में मुखय कारण है।

आत्मा का परिमाण-

एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन् प्राणः पञ्चधा संविवेश।

प्राणैश्चितं सर्वमोतं प्रजानां यस्मिन् विशुद्धे विभवत्येष आत्मा।

– (मुण्डक 3/1/9)

यह अणु आत्मा मन से ही जानना चाहिए। पाँचों प्राणों का निवास इसी के पास है। प्राण एक व्यापक तत्त्व है, जिसका सारी प्रजाओं के चित्तों के साथ समबन्ध है। विशुद्ध हो जाने पर आत्मा का ज्ञान भगवान् के ज्ञान की सहायता से इतना विस्तृत हो जाता है कि उस का भी समबन्ध प्रजाओं के सब चित्तों के साथ हो जाता है। इस प्रसंग में स्पष्ट ही आत्मा का परिमाण अणु माना है।

यह प्रश्न हो सकता है कि दैव-मन का स्थान प्राणों तथा ज्ञानेन्द्रियों के केन्द्र में शिर में माना गया और यक्ष मन का कर्म इन्द्रियों के केन्द्र में छाती वाले हृदय में माना गया है। और यह भी मन्तव्य-कोटि में आ चुका है कि मन आत्मा की स्वीकृति के बिना कुछ नहीं कर सकता। उसका कोई ज्ञान तथा कर्म उसकी प्रेरणा के बिना समभव नहीं है। ऐसे स्थल मिलते हैं कि जहाँ मन कई काम कर लेता है और आत्मा को उनका पता भी नहीं लगता। परन्तु उन स्थलों में भी उसे आत्मा की आज्ञा हो चुकी होती है। ऐसे अयास में आये हुए कर्मों के स्थल में एक बार आज्ञा प्राप्त हो जाती है और फिर वे उसी प्रकार के कर्म उसी आज्ञा के आधार पर अयास के चक्र में होते रहते हैं।

जैसे कि हमने 25 कोस की यात्रा आरमभ की है। अपने लक्ष्य पर पहुँचने के लिये 25 कोष चलकर जाने के विषय में पर्याप्त सोच विचार कर लिया है, आत्मा की मन को आज्ञा मिल चुकी है। मन भी  पैरों को चलने की प्रेरणा कर चुका है और पैरों ने भी चलना आरमभ कर दिया है। अब 25 कोस तक यह चलने का अभयास अपने आप चलता रहेगा। बार-बार मन को आत्मा से और पैरों को मन से आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं रहती। इसी प्रकार शौच, व्यायाम, स्नान, नित्य कर्म, भोजन, शयन आदि जो अभयास में आयें, वे नित्य के कर्म हैं। मन में भी बार-बार आज्ञा की आवश्यकता नहीं रहती, इसी प्रकार और भी अभयास में आये हुए कर्मों के विषय में जान लेना चाहिये।

परन्तु पहिले अथवा तत्काल मन को आत्मा की आज्ञा लेनी ही पड़ती है और उसे उसके नियन्त्रण में रहना ही पड़ता है और यदि बात ऐसी है तो जब आत्मा नीचे के हृदय में होगा, तब दैव-मन से और जब यह ऊपर के हृदय में रहेगा तब यक्ष-मन से काम कैसे लेगा?

इस प्रश्न का उत्तर सरल ही है। नीचे के हृदय से लेकर ऊपर के हृदय तक और फिर सारे ही शरीर में प्रेरणा-तन्तुओं, ज्ञान-तन्तुओं और हृदय की और अत्यन्त सूक्ष्म नाड़ियों का इतना विस्तृत जाल बिछा हुआ है, जिसे कि दे कर बुद्धि चकरा जाती है। बस उसी नाड़ी-जाल के द्वारा आत्मा कहीं भी बैठा हुआ किसी मन के ऊपर अपना नियन्त्रण का हाथ रख सकता है।

इस प्रकार उपनिषदों के समन्वय तथा वेद के भी कुछ सिद्धान्तों के आधार पर हमें अपने शरीर में दो हृदय मानने पड़ते हैं। उन में से एक छाती में और एक शिर में है। आत्मा भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में इन दोनों ही स्थानों में निवास करता है, संसार दशा में नीचे के हृदय में वह कहीं भी रहता हुआ प्राण तन्तुओं और ज्ञान तन्तुओं के द्वारा शरीर, साधन, शक्तियों पर अधिकार रख सकता है।

मैंने ये पंक्तियाँ केवल प्रसङ्ग को छेड़ने के लिये लिखी हैं। विद्वानों के विचार मिलने पर ऊहापोह का अवसर मिले, यह ही ध्येय है।

 

आत्मा का स्थान-४

आत्मा का स्थान-४
– स्वामी आत्मानन्द
‘‘स य एषोऽन्तर्हृदय आकाशः। तस्मिन्नयं पुरुषो मनोमयः। अमृतो हिरण्मयः। अन्तेरण तालुके। य एष स्तन इवावलम्बते सेन्द्रयोनिः। यत्रासौ केशान्तो विवर्तते। व्यपोह्य शीर्षकपाले। भूरित्यग्नौ प्रतितिष्ठति। भुव इति वायौ। सुवरित्यादित्ये। मह इति ब्रह्मणि। आप्नोति स्वाराज्यम्। आप्नोति मनसस्पतिम्। वाक्पतिश्चक्षुष्पतिः श्रोत्रपतिः विज्ञानपतिः। एतत्ततो भवति। आकाशशरीरं ब्रह्म। सत्यात्मप्राणारामं मन इत्यानन्दम्। शान्तिसमृद्धममृतम्। इतिप्राचीन योग्योपास्स्व।’’ (तैत्तिरीय. शिक्षा. षष्ठ अनुवाक १, २)
अर्थात् (जो कि यह हृदय के अन्दर आकाश है। उस में यह पुरुष मनोमय हो कर प्रविष्ट है। अर्थात् जब यह अन्नमय कोश का विवेक कर, उस से ऊँचा उठ, प्राणमय कोश में प्रवेश करता है और उसका भी विवेक कर उस से भी ऊँचा उठ मनोमय सत्त्वप्रधान कोश में प्रतिष्ठित होता है तब इस हृदय में प्रवेश करता है। जब यह इस हृदय में प्रवेश करता है तो इसका स्वरूप प्रकाशमय होता है, और अमृत होता है अर्थात् अब यह अपने प्रकाशमय स्वरूप से च्युत नहीं होता। यह हृदय कहाँ है? इस का उत्तर महर्षि, चिन्हों का निर्देश करते हुए आगे चल कर देते हैं।)
हमारे तालु के अन्दर जो यह स्तन जैसा लटक रहा है। यह ही उस ऐश्वर्य सम्पन्न हृदय के निर्माण की आधार शिला है यह हृदय वहाँ ही है जहाँ शिर के कपाल स्थान को छोड़कर मुण्डन किया जाता है। यहाँ यह मनोमय विशिष्ट आत्मा ‘‘भूः’’ इस व्याहृति के द्वारा अग्नि के प्रकाश में, ‘‘भुवः’’ इस व्याहृति के द्वारा अग्नि के प्रकाश में, ‘‘भुवः’’ इस व्याहृति के द्वारा अन्तरिक्ष के विद्युत के प्रकाश में ‘‘स्वः’’इस व्याहृति के द्वारा द्युलोक में आदित्य के प्रकाश में प्रतिष्ठा पाकर- अर्थात् योग साधनों द्वारा इन सब प्रकाशों से क्रम से पार होता हुआ ‘‘महः’’ इस व्याहृति के द्वारा इस हृदय में ब्रह्म में प्रतिष्ठित होता है। तब यह स्वराज्य को प्राप्त होता है-अर्थात् मन, वाणी, श्रोत्र और विज्ञान का स्वामी बनता है। उस समय वह ऐसा प्रतीत करता है कि आकाश को शरीर बना कर ब्रह्म सर्वत्र फैला हुआ है। यह सत्य रूप है। जगत्प्राण इस के निमन्त्रण में है। इस का मनन आनन्द रुप है। यह शान्ति का भण्डार है। यह अमर है। हे! प्राचीन योग्य इस ब्रह्म की उपासना कर।
पाठक समझ गये होंगे कि जिस हृदय का इस प्रसङ्ग में व्याख्यान किया गया है, वह हमारे तालु के ऊपर के भाग में शिर में है। उसी का नाम शिर का लघु छिद्र है जहाँ वह विराजमान है। उसी में पहुँच कर आत्मा उस महान् प्रकाश के दर्शन करता है जो उन सब प्रकाश से श्रेष्ठ है जिन के वह दर्शन करता हुआ अन्त में यहाँ पर पहुँचा है।
इस प्रकार उपनिषदों के आधार पर हमारे शरीर में दो हृदय सिद्ध होते हैं। एक स्तन के नीचे छाती के वाम भाग में और दूसरा तालु के ऊपर शिर में।
इस प्रसंग से यह भी स्पष्ट हो गया कि आत्मा मन के ऊपर अधिकार करने के बाद ही विज्ञान और आनन्द की प्राप्ति के लिये इस हृदय में पहुँचता है। इस से पहिले वह दूसरे हृदय में ही रहता है। यहीं पहुँच कर उसे ब्रह्मज्ञान होता है।
इसी विषय को स्पष्ट करने वाला उपनिषद् का एक और प्रसङ्ग हम आगे उद्धृत करते हैं।
शतं चैका च हृदयस्य नाड्यास्तासां मूर्धानमभिनिः सृतैका।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति।।
(कठ. २/६/१६)
इस के साथ ही मिलता हुआ छान्दोग्य का यह प्रसङ्ग भी है।
शतं चैका च हृदयस्य नाड्यास्तासां मूर्धानमभिनिः सृतैका।
तयोर्ध्यमायन्नमृतत्वमेति विष्वङ्ङन्या उतक्रमणे भविन्त।
(छा. ८/६/३)
(हृदय की १०१ नाड़ियाँ हैं। उन में से एक मूर्धा की ओर गई है। उस के द्वारा आत्मा ऊपर जाकर अमृत को प्राप्त होता है। शेष सब नाड़ियाँ उस के उत्क्रमण में सहायक होती हैं।)
आचार्य यम और महर्षि याज्ञवलक्य के इन वचनों से स्पष्ट हो जाता है, कि एक ऐसी नाड़ी है जिस का छाती वाले हृदय और मूर्धा के हृदय दोनों से सम्बन्ध है। एक ऐसा अवसर आता है कि आत्मा का उस नाड़ी के द्वारा मूर्धा के हृदय में उत्क्रमण होता है। वह अवसर ऊपर आये प्रसङ्गों के अनुसार आत्मा का मन के ऊपर अधिकार होने के बाद ही आता है। इस प्रकार आत्मा का मन के ऊपर अधिकार होने से पहिले उस का नीचे के हृदय में ही निवास रहता है ऐसा मानना पड़ता है।
हृदय की इन नाड़ियों के रङ्ग रूप का वर्णन करते हुए महर्षि याज्ञवल्कय अन्यत्र लिखते हैं-
‘‘अथ या एता हृदयस्य नाड्यस्ताः पिङ्गलस्याणि- म्नस्तिष्ठन्ति शुक्लस्य नीलस्य पीतस्य लोहितस्येत्यसौ वा आदित्यः पिङ्गल एष शुक्ल एष नील एष पीत एष लोहितः’’।
– (छान्दोग्य ८/६/१)
(अब जो कि ये हृदय की नाडियाँ हैं, वे पिङ्गल वर्ण, शुक्ल वर्ण, नील वर्ण, पीत वर्ण और रक्त वर्ण की हैं, अत्यन्त सूक्ष्म हैं। यह सूर्य भी पिङ्गल, शुक्ल, नील, पीत और लाल रङ्ग का है। )
इस प्रसङ्ग में महर्षि ने नाड़ियों के रूप और उन की आकृति का वर्णन किया है। सूर्य को यहाँ दृष्टान्त के रूप मे उपस्थित किया गया है। इन्द्र धनुष में सूर्य की किरणों का जो रूप दृष्टिगोचर होता है, इन नाड़ियों में उसी रूप की झलक दिखलाई गई है। इन नाड़ियों को सूर्य की किरणों की उपमा इन की सूक्ष्मता को स्पष्ट करने के लिये भी दी गई है। इसी प्रसङ्ग में आगे चलकर मृत्यु के बाद सूर्य में ही इन नाड़ियों का लय भी कहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि जिन के बीच में आत्मा का निवास है वे हृदय की नाड़ियाँ सूर्य की किरणों के समान अत्यन्त सूक्ष्म है। चीर फाड़ में इसका पता ही नहीं लगता अतः शारीरिक में इन की गणना भी नहीं की जा सकी। जिन महर्षियों ने इन की गणना लिखी है उन्होंने योग समाधि में इनका प्रत्यक्ष किया होगा।
जिस प्रकार बाहर के जगत् में तीन लोक माने जाते हैं वैसे ही हमारे इस शरीर में भी तीन लोक हैं। छाती से नीचे पैरों तक का शरीर का भाग भूलोक है। छाती और उसके ऊपर का सारा धड़ अन्तरिक्ष लोक है। और गले से ऊपर का शिर का सारा भाग द्युलोक है। जिस बाहर के द्युलोक में सूर्य चमक रहा है और तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहा है, इसी प्रकार हमारे अन्दर के द्युलोक में भी एक सूर्य चमक रहा है जो कि अन्दर के तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहा है। वह सूर्य हमारे शरीर के हृदयाकाश में एक ज्योति पुञ्ज के रूप में चमक रहा है जिसका कि प्रसिद्ध नाम सहस्रार चला है। शरीर के सब विज्ञान तन्तुओं को इसी से प्रकाश मिल रहा है।
जिस प्रकार सूर्य एक प्रकाश पुञ्ज दृष्टिगोचर हो रहा है और उसके चुंधिया देने वाले प्रबल प्रकाश के अन्दर विभिन्न नील पीत आदि रंग देखने में नहीं आते, परन्तु उन विभिन्न रंगों को हम इन्द्रधनुष आदि में स्पष्ट देखते हैं, इसी प्रकार इस अपने हृदयाकाश के सूर्य में भी अभ्यासियों को एक पुञ्जित श्वेत प्रकाश ही दृष्टि गोचर होता है परन्तु सुषुम्णा आदि के विज्ञान तन्तुओं में यह विभिन्न रूपों में चमकता हुआ अभ्यासियों ने देखा है। इसलिये यह सूर्य ही हमारे बाहर के सूर्य का प्रतिनिधि है अथवा उसी के उपादान तत्त्व से इस का निर्माण हुआ है। हमारे हृदय की नाड़ियों में इसी सूर्य का प्रकाश विभिन्न रूपों में चमक रहा है।
इस प्रसङ्ग को पढ़ कर हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि हमारे हृदय की अनेक रंगों में चमकती हुई अत्यन्त सूक्ष्म नाड़ियाँ हैं।
यमाचार्य और महर्षि याज्ञवल्क्य ने हृदय की इन नड़ियों का वर्णन संक्षेप में किया है। प्रश्न उपनिषद् में महर्षि पिप्पलाद ने इन का व्याख्यान शाखा प्रशाखाओं में जाकर और भी विस्तार से किया है। वह प्रसङ्ग भी पाठकों के परिचय के लिये हम आगे उद्धृत करते हैं।
आत्मन एष प्राणो जायते यथैषा पुरुषे छाया एतस्मिन्नेतदातं। मनोकृतेनायात्यस्मिञ्छरीरे।।
(प्रश्न ३/३)
हृदि ह्येष आत्मा। अत्रैतदेकशतं नाडीनां तासां शतं शतमेकैकस्यां द्वासप्ततिर्द्वासप्ततिः प्रतिशाखा-नाड़ीसहस्राणि भवन्ति आसु व्यानश्चरति।(प्रश्न ३/६)
पायूपस्थेऽपानं चक्षुः श्रोत्रे मुखनासिकाभ्यां प्राणःस्वयं प्रातिष्ठते, मध्ये तु समानः (प्रश्न ३/५)
अथैकयोर्ध्व उदानः पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्। ’’
(प्रश्न ३/७)
(इस प्राण की आत्मा से उत्पत्ति होती है)(आत्मा यहाँ निमित्त कारण है उपादान नहीं) जैसे यह पुरुष की छाया सदा पुरुष के साथ ही रहती है इसी प्रकार यह प्राण भी छाया की तरह पुरुष के साथ ही एक योनि से दूसरी योनि में जाता है। यह प्राण इस आत्मा के ही आधीन है। इस शरीर में यह मन के नियन्त्रण में रहता हुआ आता है।
यह आत्मा हृदय में है। इस हृदय में एक सौ नाड़ियाँ हैं। फिर उनकी एक-एक शाखा में सौ-सौ नाड़ियाँ और हैं। और फिर उनकी एक-एक शाखा में बहत्तर-बहत्तर हजार नाड़ियाँ और हैं। इन सब नाड़ियों में प्राण के एक भाग व्यान का संचार रहता है।
मल स्थान और मूत्र स्थान में प्राण के दूसरे भाग अपान का, और चक्षुः श्रोत्र, मुख और नासिका में स्वयं प्राण का संचार रहता है। शरीर के मध्य भाग में प्राण के एक भाग समान का अधिकार है।
और एक नाड़ी जो ऊपर की ओर गई है उस पर उदान प्राण का अधिकार है। यह उदान ही अन्त में इस नाड़ी के द्वारा आत्मा के उत्क्रमण में सहायक होता है। यह आत्मा को पुण्य के प्रताप से पुण्य लोक में, (जहाँ सुख अधिक है ऐसी योनि में) पाप के प्रताप से पाप लोक में, (जहाँ दुःख अधिक है ऐसी योनि में)और पाप तथा पुण्य के समान होने पर मनुष्य लोक में (जहाँ सुख दुःख दोनों समान मिलें ऐसी योनि में) आत्मा को ले जाता है।
उत्क्रमण में सहायक सौ से भिन्न एक सौ एकवीं नाड़ी प्रथम दोनों प्रसङ्गों में भी थी, और इस प्रसङ्ग में भी है। इतना भेद है कि वहाँ आत्मा का मन के ऊपर अधिकार होने से उत्क्रमण ब्रह्मरन्ध्र की ओर हुआ था। और यहाँ अधिकारी न होने से उत्क्रमण किसी अन्य योनि के लिये है। यहाँ शाखा प्रशाखाओं की नाड़ियों की भी गणना की गई है और वहाँ नहीं की गई थी। और यहाँ इन नाड़ियों पर व्यान के संचार का भी निर्देश किया गया है, वहाँ नहीं किया गया था। उत्क्रमण नीचे के हृदय से ही हो सकता था अतः यहाँ भी आत्मा का स्थान नीचे वाला हृदय ही माना गया है।
‘अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः। तं स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुञ्जादिवेषीकां धैर्येण तं विद्याच्छुक्रममृतम्, तं विद्याच्छुक्रममृतमिति।’
(कठ. २/३/१७)
(अङ्गुष्ठ परिमाण वाला अन्तरात्मा प्राणियों के हृदय में सदा समीप है। उसे अपने इस शरीर से पृथक् करो। जैसे कि मूंज से सींक को पृथक् किया जाता है। अब उसे स्वच्छ और मरण के बन्धन से पृथक समझो।)
इस प्रसङ्ग में भी आत्मा को नीचे के हृदय में ही बतलाया गया है। उसने अभी अपने मन पर अधिकार कर आत्मा को शरीर से पृथक नहीं समझा। और इसलिये उसे ऐसा करने का उपदेश दिया जा रहा है। इस अनुष्ठान के बाद ही उसे उत्क्रमण का और ऊपर के हृदय में जाने का अधिकार होगा।
इस प्रसङ्ग में आत्मा का परिमाण अङ्गुष्ठ मात्र कहा है। परन्तु आत्मा का परिमाण अणु है जैसा कि हम आगे चल कर स्पष्ट करेंगे उस का आश्रय स्थान अङ्गुष्ठ जितना है, इसलिये उसे अङ्गुष्ठ मात्र कह दिया गया है।
अन्यत्र भी आया है-
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।
हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।
(श्वेताश्वतर ३/१३)
(अङ्गुष्ठ जितना बड़ा अन्तरात्मा पुरुष प्राणियों के हृदय में सदा रहता है। मन पर अधिकार करने वाला आत्मा हृदय में रहने वाले मन से सावधान हो कर जब अपने आप को हृदय में जान लेता है अर्थात् हृदय से पृथक् समझ लेता है। तब वह अमर होने का अधिकारी होता है) यहाँ भी अङ्गुष्ठ मात्र परिमाण का वह ही भाव है। ब्रह्म को जानने से पहिले अपने स्वरूप को जाने यह निर्देश है।
क्रमश…….

आत्मा का स्थान-3

आत्मा का स्थान-3

–  स्वामी आत्मानन्द

चरक सुश्रुत आदि आयुर्वेद के सिद्धान्त ग्रन्थों में आत्मा का तथा  उस के निवास स्थान का वर्णन नहीं किया गया। उन्हें उस के वर्णन की आवश्यकता भी न थी, क्योंकि आत्मा की चिकित्सा उन के शास्त्रों का विषय नहीं। आत्मा की चिकित्सा तो अध्यात्म शास्त्रों का विषय है। इन शास्त्रकारों ने चेतना का वर्णन अवश्य किया है। क्योंकि चेतना की वृद्धि तथा रक्षा के उपाय बतलाना और उस के विकृत हो जाने पर उस से उत्पन्न हुए प्रमाद आदि रोगों की चिकित्सा करना उनके शास्त्रों का  विषय है।

अपनी अयुगत इस चेतना की सत्ता वे सारे ही शरीर में मानते हैं। क्योंकि शरीर में जितने आयन्तर अथवा बाह्य कार्य हो रहे हैं वे सब चेतना के प्रताप से ही हो रहे हैं ऐसा वे मानते हैं।

परन्तु हृदय का वर्णन करते समय इन आचायरें ने भी लिखा है ‘‘चेतना स्थानमुत्तमम्’’ (यह चेतना का उत्तम स्थान है)। यद्यपि ये आचार्य सारे शरीर को ही चेतना का स्थान मानते हैं परन्तु फिर भी इन का हृदय को चेतना का मुय स्थान मानना एक विशेष लक्ष्य की ओर ध्यान को आकर्षित करता है। इस से यह ध्वनित होता है कि चेतना का प्रधान आधार आत्मा है, और मुखय रूप से चेतना का स्थान वह ही होना चाहिये जहाँ आत्मा रहता हो। इसप्रकार इन ग्रन्थकारों ने हृदय को चेतना का मुखय स्थान कह कर प्रकारान्तर से हृदय को आत्मा का स्थान मान लिया है।

आयुर्वेद के एक संहिताकार आचार्य भेल ने चेतना का मुखय स्थान मस्तिष्क को माना है। उन का मन्तव्य है कि प्रमाद रोग मस्तिष्क का रोग है। इस रोग में चेतना ही दूषित होती है। यदि चेतना मुखय रूप से मस्तिष्क में न रहती हो तो मस्तिष्क के तन्तुओं में होने वाला प्रमाद चेतना को दूषित कर मनुष्य को पागल नहीं बना सकता।

उन के इस मन्तव्य की और आचार्यों के साथ इस प्रकार सङ्गति लग सकती है कि चेतना के एक साधन बुद्धि का निवास स्थान हमारा मस्तिष्क  है। बुद्धि के विकार का नाम ही प्रमाद रोग है। क्योंकि मनुष्य के सब ही निर्णयों में बुद्धि का प्रधान भाग रहता है। और पागल हो जाने पर उस का कोई निर्णय भी व्यवस्थित नहीं रहता। अतः समभव है उन्होंने चेतना के मुखय साधन बुद्धि के मस्तिष्क में निवास को ही वहाँ चेतना का मुखय निवास कहा है और साधारणतया वे भी हृदय को ही चेतना का मुखय स्थान मानते हों।

हम पहिले लिख आये हैं कि उपनिषद्कार ऋषियों ने आत्मा का स्थान हृदय कहा है ‘‘वह हृदय हमारे शरीर में कहाँ है’’ इस विषय का स्पष्टीकरण हम आगे के प्रसङ्ग में उपनिषदों के आधार पर ही करेंगे उपनिषदों में हृदय शबद बहुधा शरीर के किसी विशेष स्थान के अर्थ में ही आता है। परन्तु उपनिषदों में ही कतिपय स्थानों में यह शबद, मन और चित्त के अर्थों में भी प्रयुक्त हुआ है।

उपनिषदों के उन प्रसङ्गों का हम पहिले उल्लेख करेंगे जहाँ यह शबद मन के अर्थों में आया है।

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।

अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते।।

कठ 6/14

(जब ये कामनाएँ छूट जाती हैं जो इसके हृदय में वर्तमान हैं, उस समय मनुष्य अमर हो जाता है, और यहाँ ही ब्रह्मानन्द का उपयोग करने लग जाता है, जीवनमुक्त हो जाता है।)

यहाँ हृदय शबद मन का वाचक है, आत्मा अथवा मन के आश्रय, किसी स्थान विशेष का वाचक नहीं क्योंकि कामनाओं का आश्रय मन है न कि कोई स्थान विशेष। इसी प्रकार

यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः।

अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम््।।

कठ. 6/15

(जब वे सब गांठे खुल जाती हैं जो इस के हृदय में हैं, फिर मनुष्य अमर हो जाता है, यह इतना ही उपदेश है।)

यहाँ संस्कारों तथा अविद्या की गांठे मन के ही एक भाग चित्त में हैं, शरीर के किसी स्थान विशेष मे नहीं अतः यहाँ हृदय शबद चित्त का वाचक है। बृहदारण्यक के निम्न प्रसङ्ग से यह विषय और भी स्पष्ट हो जाता है।

कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धाधृतिरधृति र्हेर्धी र्भीरित्ये तत्सर्वं मन एव।

(कामनाएँ, सङ्कल्प, सँशय, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, अधीरता, लज्जा, बुद्धि, भय यह सब मन ही है)

यहाँ कामनाएँ और सशंय आदि अविद्या की ग्रन्थियाँ सब मन के ही धर्म कहे हैं। किसी हृदय नामक स्थान विशेष को इन का आधार नहीं माना।

इसी प्रकार कोषकार अमरसिंह ने भी हृदय को मन का वाचक स्वीकार किया है।

‘‘चित्तन्तु चेतो हृदयं स्वान्त हृन्मानसं मनः’’

(चित्त, चेतस् हृदय, स्वान्त, हृत् मानस और मन ये सब एकार्थक हैं)

इन प्रसङ्गों से स्पष्ट है कि हृदय शबद मन के अर्थों में भी आता है इस के अतिरिक्त उपनिषदों में हृदय शबद शरीर के एक प्रदेश अर्थ में भी आता है। और वह प्रदेश ही आत्मा का निवास स्थान माना जाता है। हमारे शरीर में वे प्रदेश दो हैं । उन में से एक हमारी छाती के बाएं भागों में स्तन के नीचे है। और दूसरा शिर में ब्रह्मरन्ध्र में । इन दोनों हृदयों का परिचय हम पाठकों को उपनिषत्कार महर्षियों की समतियों के आधार पर ही देंगे। पहिले हम छाती के वाम वाले हृदय का साधक प्रमाण उपस्थित करते हैं।

‘‘अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशद्वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशदादित्यश्चक्षुर्भूत्वाऽक्षिणी प्राविद्दिशः श्रोतं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशंश्चन्दमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशन्मृत्युरपानो भूत्वा नाभिं प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्नं प्राविशन्’’।

ऐतरेय 1/2/4

(अग्नि वाणी बन कर मुख में प्रविष्ट हो गया। वायु प्राण बन नासिका में प्रविष्ट हो गया। आदित्य चक्षु बन कर नेत्रों में प्रविष्ट हो गया। दिशाएँ श्रोत्र बन कर कानों में प्रविष्ट हो गई। औषधि वनस्पतियाँ रोम बन कर त्वचा में प्रविष्ट हो गई। चन्द्रमा मन बन कर हृदय में प्रविष्ट हो गया। मृत्यु अपान बन कर नाभि में प्रविष्ट हो गया। जल वीर्य बन कर जननेन्द्रिय में प्रविष्ट हो गया)

यहाँ इस प्रसङ्ग में शरीर-रचना की प्रक्रिया चल रही है। शरीर में इन्द्रियों के प्रवेश तथा उन के उपादान कारणों का उल्लेख किया जा रहा। आरमभ में वाणी का मुख में, प्राण का नासिका में, चक्षु का नेत्रों में श्रोत्र का कानों में रोम अथवा त्वच इन्द्रिय का त्वचा में प्रवेश दिखला कर फिर मन हृदय में प्रवेश दिखलाया गया है। और इस के अनन्तर फिर अपान का नाभि में और वीर्य का जननेन्द्रिय में प्रवेश कहा गया है। इस प्रकार यहाँ ऊपर मुख से लेकर नीचे के क्रमिक स्थानों में इन्द्रियों के प्रवेश का वर्णन है । इस प्रसङ्ग में अपान के नाभि में प्रवेश से प्रथम मन के हृदय में प्रवेश का उल्लेख है। हमारी नाभि से ऊपर के भाग में वह ही स्थान है जो हमारे स्तन के नीचे वाम भाग में है। इसलिये मन के प्रवेश के लिए यहाँ इसी शरीर के भाग को हृदय नाम से कहा गया है। अतः यह सिद्ध है कि मन का निवास इस हृदय में है। कभी इन्द्रियों का अधिष्ठाता यक्षमन इस हृदय में रहता है इस का विस्तार से वर्णन ‘‘मनो विज्ञान तथा शिव संङ्कल्प’’ में पढ़िये।

हमारा हृदय हमारे शिर में है उस के लिये भी हम उपनिषद् से ही प्रमाण उद्धृत करते हैं।

क्रमश…….

आत्मा का स्थान-२

आत्मा का स्थान-२

–  स्वामी आत्मानन्द

आत्मा का परिमाण :-आत्मा का निवास स्थान सारा शरीर मान लेने पर और आत्मा को मध्यम परिमाण वाला मान लेने पर कई प्रश्न ऐसे सामने आ जाते हैं जिनका उत्तर देने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है।

शरीरों के परिमाण भिन्न-भिन्न हैं। चींटी से लेकर हाथी तक और हाथी से भी बहुत बड़े सामुद्रिक जन्तु संसार में विद्यमान् हैं। आत्माओं को भी अपने अपने कर्मभोग के अनुसार भिन्न-भिन्न शरीरों में जाना ही पड़ता है। जब वह चींटी जैसे किसी छोटे शरीर में था तब उसका आत्मा अपने शरीर के परिमाण वाला चींटी जितना ही बड़ा होगा। और जब वह किसी छोटे शरीर को छोड़ कर हाथी जैसे बड़े शरीर  में जावेगा तो उस आत्मा को भी वहाँ हाथी जितने बड़े परिमाण वाला ही मानना पड़ेगा। आत्मा बड़े से छोटा और छोटे से बड़ा घटे बढ़े बिना हो नहीं सकता, और घटना बढ़ना अनित्यपदार्थ का काम है। परन्तु आत्मा को तथा पुनर्जन्म को मानने वाले दार्शनिक कोई भी आत्मा को अनित्य मानते नहीं। अतः आत्मा यदि शरीर के परिमाण वाला है, तो बढ़ने और घटने वाला होने के कारण अनित्य क्यों नहीं। यह प्रश्न सामने उपस्थित होता है जिसका कि समाधान कठिन है।

संसार में तीन प्रकार के परिमाण देखने में आते हैं, अणु मध्यम और परम महत् । अणु परिमाण उस पदार्थ का माना जाता है जो टूटते-टूटते इतना सूक्ष्म हो गया है जिसके अब टुकड़े नहीं हो सकते। दार्शनिक परिभाषा में उसे परमाणु कहते हैं। इस परमाणु का परिमाण अणु है और नित्य है। क्योंकि जिस पदार्थ के अवयवों का हम विभाग करने लगेंगे, वह छोटा होता-होता इसी परमाणु की अवस्था में पहुँचेगा, यह इससे छोटा न हो सकेगा, अब उसके वे सब टुकड़े भी परमाणु कहलाएंगे, और उन सब का परिमाण अणु ही होगा। परमाणु से छोटा दुनिया में कोई टुकड़ा न मिलेगा और इसीलिये अणु से छोटा कोई परिमाण न मिलेगा। यह ही कारण है कि इस परिमाण को नित्य मानना पड़ता है, क्योंकि न इसके आधार के टुकड़े होंगे, और न इसका नाश होगा।

दूसरा परिमाण परम महत् परिमाण है। परम महत् परिमाण उन पदार्थों का माना जाता है जो व्यापक हों और नित्य हों, जिनकी न उत्पत्ति होती हो और न विनाश। ऐसे पदार्थ हैं, ईश्वर आकाश आदि।

तीसरा मध्यम परिमाण है। इन परमाणुओं और व्यापक पदार्थों को छोड़ कर शेष जितने पदार्थ हैं वे सब अनित्य हैं उनकी उत्पत्ति भी होती है और विनाश भी, और उन सबका परिमाण मध्यम परिमाण माना जाता है। इस परिमाण के आश्रय जितने पदार्थ हैं उन सबके अनित्य होने से उनका परिमाण मध्यम परिमाण भी अनित्य है। अब यह प्रश्न सामने आता है कि आत्मा का परिमाण यदि मध्यम परिमाण है तो वह विनाशी ही होगा, फिर आत्मा को नित्य कैसे सिद्ध करोगे? यह प्रश्न भी ऐसा ही है जिसका उत्तर देना कठिन होगा।

आत्मा को सारे शरीर में व्यापक मानने के लिये और उसे विनाश से बचाने के लिये उसका परिमाण परम महत् परिमाण माना जा सकता है। परन्तु उसका यह परिमाण मान लेने पर उसे ईश्वर की भाँति ही सर्वव्यापक मानना पड़ जावेगा और इस प्रकार उसके अनन्त हो जाने पर उसका ज्ञान भी अनन्त होगा, अतः अब तो उसे सर्वज्ञ ही मानना पड़ जावेगा अल्पज्ञ नहीं। परन्तु व्यवहार में ऐसा देखने में नहीं आता।

यदि यह समाधान करें कि आत्मा है तो व्यापक ही और अतएव है भी सर्वज्ञ, परन्तु अविद्या आदि किसी उपाधि के कारण वह अल्पज्ञ प्रतीत होने लगता है, और उसी प्रकार का व्यवहार करने लग जाता है। तो यह समाधान युक्ति-युक्ति न होगा।

इस सिद्धान्त पर विचार करने के लिये निम्न विकल्प खड़े हो जाते हैं-जिस उपाधि ने आत्मा को अल्पज्ञ बना दिया है वह आत्मा का अपना ही अंग है या उससे भिन्न। आत्मा का अंग तो उसे कहा नहीं जा सकता-क्योंकि आत्मा निरवयव पदार्थ है अतः निरवयव का कोई अंग या अवयव नहीं हो सकता। यदि कहें कि यहाँ अंग का अर्थ स्वरूप है। तब तो अविद्या आत्म स्वरूप ही हुई। और यदि वह आत्म स्वरूप ही है तो इसके गुण कर्म स्वभाव आत्मा से भिन्न होने चाहिये। यदि आत्मा का गुण ज्ञान है तो इसका भी गुण ज्ञान ही होना चाहिये, और ज्ञानवान् यह पदार्थ अब आत्मा को अज्ञानी न बना सकेगा। यदि कहें कि इस का धर्म अज्ञान है तब फिर आत्मा का भी धर्म अज्ञान ही होगा, और इसका स्वभाव अज्ञान होने से इसे अब कोई ज्ञान न बना सकेगा। यदि कहें कि अविद्या ने इसे अज्ञानी बना दिया था और अविद्या के हट जाने से यह ज्ञानी ही रह जावेगा यह सङ्गत नहीं, क्योंकि अविद्या जब आत्मा का स्वरूप ही है तो वह उससे दूर हो ही न सकेगी, किसी के स्वरूप को कोई उससे पृथक् नहीं कर सकता। अतः आत्मा सदा अज्ञानी ही बना रहेगा। यदि कहें कि अविद्या आत्म स्वरूप नहीं आत्मा से भिन्न ही तत्त्व है, और आत्मा पर छा जाने से वह उसे अज्ञानी बना देती है। इस अवस्था में हम यह जानना चाहेंगे कि अविद्या आत्मा के किसी एक भाग को आच्छादित करती है या सम्पूर्ण को। यदि एक भाग को तो आत्मा का कोई भाग ज्ञानी और कोई भाग अज्ञानी है ऐसा मानना पड़ेगा। परन्तु नित्य निरवयव एक आत्मा में ऐसा होना असम्भव है । वह तो एक अखण्ड हाने से या तो सारा ज्ञानी ही रहेगा या अज्ञानी ही। और यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि सहस्रों मेघों से आच्छादित कर देने पर भी सूर्य के प्रकाश को हम से तो छिपाया जा सकता है परन्तु सूर्य से सूर्य के प्रकाश को कोई नहीं छिपा सकता। इसी प्रकार अविद्या से आच्छादित कर आत्मा के ज्ञान को किसी और से तो कोई छिपा सकता है आत्मा से उसके ज्ञान को कोई नहीं छिपा सकता। हरे शीशे से ढकी हुई सूर्य की किरणें हमें तो हरी दिखाई देने लग जाती हैं परन्तु यदि सूर्य चेतन हो तो उसे अपनी किरणें वैसी ही दिखाई देंगी जैसी कि वे हैं। क्योंकि आवरण सूर्य के बाहर है अन्दर नहीं। इसी प्रकार आत्मा भी अपने आपको अज्ञानी मान न सकेगा क्योंकि अविद्या का पर्दा उस के बाहर है अन्दर नहीं। अतः अल्पज्ञ होने के कारण आत्मा को व्यापक नहीं माना जा सकता।

अब शेष रह जाता है अणु परिमाण अतः अब विवश आत्मा का यह ही परिमाण मानना पड़ेगा।

यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि आत्मा का परिमाण अणु है तो वह शरीर के एक भाग में ही रहेगा। और यदि ऐसा है तो चैतन्य से होने वाली अनेक क्रियाऐं शरीर के सब भागों में किस प्रकार सम्पन्न हो रही है?

इस प्रश्न के उत्तर में निवेदन है कि जिस प्रकार राजा साम्राज्य के एक भाग राजधानी में ही बैठा रहता है परन्तु सारे साम्राज्य के सब विभागों के कार्य उसकी प्रेरणा मात्र से उसके अधिकारीवर्ग  के द्वारा सम्पन्न होते रहते हैं। ठीक इसी प्रकार आत्मा एक भाग में ही बैठा हुआ अपनी प्रेरणा मात्र से मन, इन्द्रिय, ज्ञान तन्तु और प्राणतन्तुओं आदि साधनों द्वारा सारे शीरर में होने वाली क्रियाओं को सम्पादित करता रहता है।

अतः आत्मा के शरीर के किसी एक देश में रहने पर भी कोई चेतन जन्य कार्य रुक नहीं सकता। अतः वह अणु है और नित्य है। युक्ति सिद्ध इस विषय का उपपादन उपनिषद् भी करते हैं-

एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन् प्राणः पञ्चधा संविवावेश।

प्राणैश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां यस्मिन् विशुद्धे विभवत्येष आत्मा।।

मुण्डक ३/१/९

यह अणु आत्मा मन से ही जानना चाहिये। पाँचों प्राणों का निवास इसी के पास है। प्राण एक सर्वत्र विद्यमान् तत्त्व है जिसका सारी प्रजाओं के चित्त के साथ सम्बन्ध है। चित्त के विशुद्ध हो जाने पर आत्मा ईश्वरीय वैभव से अपने आपको सम्पन्न कर लेता है।

उपनिषद् के इस प्रसङ्ग में आत्मा का स्पष्ट ही अणु परिमाण माना है।

आत्मा का परिमाण अणु सिद्ध हो जाने पर स्वभावतः यह जिज्ञासा होती है कि हमारे शरीर में आत्मा का निवास कहाँ होना चाहिये। उपनिषद्कार महर्षि आत्मा का निवास स्थान हृदय में मानते हैं।                                       क्रमश…..