आत्मा का स्थान-२

आत्मा का स्थान-२

–  स्वामी आत्मानन्द

आत्मा का परिमाण :-आत्मा का निवास स्थान सारा शरीर मान लेने पर और आत्मा को मध्यम परिमाण वाला मान लेने पर कई प्रश्न ऐसे सामने आ जाते हैं जिनका उत्तर देने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है।

शरीरों के परिमाण भिन्न-भिन्न हैं। चींटी से लेकर हाथी तक और हाथी से भी बहुत बड़े सामुद्रिक जन्तु संसार में विद्यमान् हैं। आत्माओं को भी अपने अपने कर्मभोग के अनुसार भिन्न-भिन्न शरीरों में जाना ही पड़ता है। जब वह चींटी जैसे किसी छोटे शरीर में था तब उसका आत्मा अपने शरीर के परिमाण वाला चींटी जितना ही बड़ा होगा। और जब वह किसी छोटे शरीर को छोड़ कर हाथी जैसे बड़े शरीर  में जावेगा तो उस आत्मा को भी वहाँ हाथी जितने बड़े परिमाण वाला ही मानना पड़ेगा। आत्मा बड़े से छोटा और छोटे से बड़ा घटे बढ़े बिना हो नहीं सकता, और घटना बढ़ना अनित्यपदार्थ का काम है। परन्तु आत्मा को तथा पुनर्जन्म को मानने वाले दार्शनिक कोई भी आत्मा को अनित्य मानते नहीं। अतः आत्मा यदि शरीर के परिमाण वाला है, तो बढ़ने और घटने वाला होने के कारण अनित्य क्यों नहीं। यह प्रश्न सामने उपस्थित होता है जिसका कि समाधान कठिन है।

संसार में तीन प्रकार के परिमाण देखने में आते हैं, अणु मध्यम और परम महत् । अणु परिमाण उस पदार्थ का माना जाता है जो टूटते-टूटते इतना सूक्ष्म हो गया है जिसके अब टुकड़े नहीं हो सकते। दार्शनिक परिभाषा में उसे परमाणु कहते हैं। इस परमाणु का परिमाण अणु है और नित्य है। क्योंकि जिस पदार्थ के अवयवों का हम विभाग करने लगेंगे, वह छोटा होता-होता इसी परमाणु की अवस्था में पहुँचेगा, यह इससे छोटा न हो सकेगा, अब उसके वे सब टुकड़े भी परमाणु कहलाएंगे, और उन सब का परिमाण अणु ही होगा। परमाणु से छोटा दुनिया में कोई टुकड़ा न मिलेगा और इसीलिये अणु से छोटा कोई परिमाण न मिलेगा। यह ही कारण है कि इस परिमाण को नित्य मानना पड़ता है, क्योंकि न इसके आधार के टुकड़े होंगे, और न इसका नाश होगा।

दूसरा परिमाण परम महत् परिमाण है। परम महत् परिमाण उन पदार्थों का माना जाता है जो व्यापक हों और नित्य हों, जिनकी न उत्पत्ति होती हो और न विनाश। ऐसे पदार्थ हैं, ईश्वर आकाश आदि।

तीसरा मध्यम परिमाण है। इन परमाणुओं और व्यापक पदार्थों को छोड़ कर शेष जितने पदार्थ हैं वे सब अनित्य हैं उनकी उत्पत्ति भी होती है और विनाश भी, और उन सबका परिमाण मध्यम परिमाण माना जाता है। इस परिमाण के आश्रय जितने पदार्थ हैं उन सबके अनित्य होने से उनका परिमाण मध्यम परिमाण भी अनित्य है। अब यह प्रश्न सामने आता है कि आत्मा का परिमाण यदि मध्यम परिमाण है तो वह विनाशी ही होगा, फिर आत्मा को नित्य कैसे सिद्ध करोगे? यह प्रश्न भी ऐसा ही है जिसका उत्तर देना कठिन होगा।

आत्मा को सारे शरीर में व्यापक मानने के लिये और उसे विनाश से बचाने के लिये उसका परिमाण परम महत् परिमाण माना जा सकता है। परन्तु उसका यह परिमाण मान लेने पर उसे ईश्वर की भाँति ही सर्वव्यापक मानना पड़ जावेगा और इस प्रकार उसके अनन्त हो जाने पर उसका ज्ञान भी अनन्त होगा, अतः अब तो उसे सर्वज्ञ ही मानना पड़ जावेगा अल्पज्ञ नहीं। परन्तु व्यवहार में ऐसा देखने में नहीं आता।

यदि यह समाधान करें कि आत्मा है तो व्यापक ही और अतएव है भी सर्वज्ञ, परन्तु अविद्या आदि किसी उपाधि के कारण वह अल्पज्ञ प्रतीत होने लगता है, और उसी प्रकार का व्यवहार करने लग जाता है। तो यह समाधान युक्ति-युक्ति न होगा।

इस सिद्धान्त पर विचार करने के लिये निम्न विकल्प खड़े हो जाते हैं-जिस उपाधि ने आत्मा को अल्पज्ञ बना दिया है वह आत्मा का अपना ही अंग है या उससे भिन्न। आत्मा का अंग तो उसे कहा नहीं जा सकता-क्योंकि आत्मा निरवयव पदार्थ है अतः निरवयव का कोई अंग या अवयव नहीं हो सकता। यदि कहें कि यहाँ अंग का अर्थ स्वरूप है। तब तो अविद्या आत्म स्वरूप ही हुई। और यदि वह आत्म स्वरूप ही है तो इसके गुण कर्म स्वभाव आत्मा से भिन्न होने चाहिये। यदि आत्मा का गुण ज्ञान है तो इसका भी गुण ज्ञान ही होना चाहिये, और ज्ञानवान् यह पदार्थ अब आत्मा को अज्ञानी न बना सकेगा। यदि कहें कि इस का धर्म अज्ञान है तब फिर आत्मा का भी धर्म अज्ञान ही होगा, और इसका स्वभाव अज्ञान होने से इसे अब कोई ज्ञान न बना सकेगा। यदि कहें कि अविद्या ने इसे अज्ञानी बना दिया था और अविद्या के हट जाने से यह ज्ञानी ही रह जावेगा यह सङ्गत नहीं, क्योंकि अविद्या जब आत्मा का स्वरूप ही है तो वह उससे दूर हो ही न सकेगी, किसी के स्वरूप को कोई उससे पृथक् नहीं कर सकता। अतः आत्मा सदा अज्ञानी ही बना रहेगा। यदि कहें कि अविद्या आत्म स्वरूप नहीं आत्मा से भिन्न ही तत्त्व है, और आत्मा पर छा जाने से वह उसे अज्ञानी बना देती है। इस अवस्था में हम यह जानना चाहेंगे कि अविद्या आत्मा के किसी एक भाग को आच्छादित करती है या सम्पूर्ण को। यदि एक भाग को तो आत्मा का कोई भाग ज्ञानी और कोई भाग अज्ञानी है ऐसा मानना पड़ेगा। परन्तु नित्य निरवयव एक आत्मा में ऐसा होना असम्भव है । वह तो एक अखण्ड हाने से या तो सारा ज्ञानी ही रहेगा या अज्ञानी ही। और यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि सहस्रों मेघों से आच्छादित कर देने पर भी सूर्य के प्रकाश को हम से तो छिपाया जा सकता है परन्तु सूर्य से सूर्य के प्रकाश को कोई नहीं छिपा सकता। इसी प्रकार अविद्या से आच्छादित कर आत्मा के ज्ञान को किसी और से तो कोई छिपा सकता है आत्मा से उसके ज्ञान को कोई नहीं छिपा सकता। हरे शीशे से ढकी हुई सूर्य की किरणें हमें तो हरी दिखाई देने लग जाती हैं परन्तु यदि सूर्य चेतन हो तो उसे अपनी किरणें वैसी ही दिखाई देंगी जैसी कि वे हैं। क्योंकि आवरण सूर्य के बाहर है अन्दर नहीं। इसी प्रकार आत्मा भी अपने आपको अज्ञानी मान न सकेगा क्योंकि अविद्या का पर्दा उस के बाहर है अन्दर नहीं। अतः अल्पज्ञ होने के कारण आत्मा को व्यापक नहीं माना जा सकता।

अब शेष रह जाता है अणु परिमाण अतः अब विवश आत्मा का यह ही परिमाण मानना पड़ेगा।

यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि आत्मा का परिमाण अणु है तो वह शरीर के एक भाग में ही रहेगा। और यदि ऐसा है तो चैतन्य से होने वाली अनेक क्रियाऐं शरीर के सब भागों में किस प्रकार सम्पन्न हो रही है?

इस प्रश्न के उत्तर में निवेदन है कि जिस प्रकार राजा साम्राज्य के एक भाग राजधानी में ही बैठा रहता है परन्तु सारे साम्राज्य के सब विभागों के कार्य उसकी प्रेरणा मात्र से उसके अधिकारीवर्ग  के द्वारा सम्पन्न होते रहते हैं। ठीक इसी प्रकार आत्मा एक भाग में ही बैठा हुआ अपनी प्रेरणा मात्र से मन, इन्द्रिय, ज्ञान तन्तु और प्राणतन्तुओं आदि साधनों द्वारा सारे शीरर में होने वाली क्रियाओं को सम्पादित करता रहता है।

अतः आत्मा के शरीर के किसी एक देश में रहने पर भी कोई चेतन जन्य कार्य रुक नहीं सकता। अतः वह अणु है और नित्य है। युक्ति सिद्ध इस विषय का उपपादन उपनिषद् भी करते हैं-

एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन् प्राणः पञ्चधा संविवावेश।

प्राणैश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां यस्मिन् विशुद्धे विभवत्येष आत्मा।।

मुण्डक ३/१/९

यह अणु आत्मा मन से ही जानना चाहिये। पाँचों प्राणों का निवास इसी के पास है। प्राण एक सर्वत्र विद्यमान् तत्त्व है जिसका सारी प्रजाओं के चित्त के साथ सम्बन्ध है। चित्त के विशुद्ध हो जाने पर आत्मा ईश्वरीय वैभव से अपने आपको सम्पन्न कर लेता है।

उपनिषद् के इस प्रसङ्ग में आत्मा का स्पष्ट ही अणु परिमाण माना है।

आत्मा का परिमाण अणु सिद्ध हो जाने पर स्वभावतः यह जिज्ञासा होती है कि हमारे शरीर में आत्मा का निवास कहाँ होना चाहिये। उपनिषद्कार महर्षि आत्मा का निवास स्थान हृदय में मानते हैं।                                       क्रमश…..

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