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जीव कर्म करने में स्वतन्त्र-विश्व ने मानाः-राजेन्द्र जिज्ञासु

इन्हीं दिनों एक लोकप्रिय हिन्दी दैनिक में एक विचारक का इस विषय पर लेख प्रकाशित हुआ। विनीत केवल शीर्षक ही पढ़ सका। लेख कहीं रखकर खो बैठा। उस लेखक के लेख के शीर्षक का तो भाव यह था कि सृष्टि में मनुष्य को ही कर्म करने या निर्णय लेने की स्वतन्त्रता है। देखा जाये तो यह कथन एक आंशिक सत्य है। वर्षों पूर्व लेखक ने मनोविज्ञान की पुस्तकों में पढ़ा था, आप घोड़े को जल के पास तो ले जा सकते हैं, परन्तु उसे धक्के से पानी नहीं पिला सकते। प्यास होगी तो वह अपनी इच्छा से जल पियेगा। इससे सिद्ध हुआ कि जीव मात्र को निर्णय लेने की-कर्म करने की स्वतन्त्रता है।
एक समय था, जब आर्यसमाजी विद्वानों को इस विषय पर शास्त्रार्थ करने पड़ते थे। मत-पंथों के ग्रन्थों में तो सब कुछ ईश्वरेच्छा अथवा अल्लाह की मर्जी का सिद्धान्त मिलता है। रही सही कमी शैतान द्वारा पाप करवाने की मान्यता से पूरी हो जाती है।
महर्षि दयानन्द ने धार्मिक जगत् में जीव की कर्म करने की स्वतन्त्रता का सिद्धान्त रखकर इस विषय में कई शास्त्रार्थ किये। इससे पूरे विश्व में हलचल मच गई। उसी युग में ‘विकासवाद’ का भौतिक दर्शन पूरे विश्व में चर्चित हुआ। इस मत नेाी परोक्ष रूप में जीव की कर्म करने की स्वतन्त्रता को स्वीकार किया। प्राकृतिक निर्वाचन का नियम विकासवाद का एक आधारभूत सिद्धान्त है। चुनाव करना कर्त्ता की स्वतन्त्रता को मानना है। जड़ प्रकृति तो विचार शून्य, इच्छा शून्य व क्रिया शून्य है। चेतन सत्ता ही चुनाव कर सकती है।
विश्व प्रसिद्ध लेखक श्री अनवर शेख ने यजदान (भगवान्) व शैतान के संवाद को काव्य में अत्युत्तम शैली में प्रस्तुत करते हुए महर्षि दयानन्द के एतद्विषयक दर्शन का डंका बजाया है। परोपकारी में इससे पहले भी लिखा जा चुका है कि पूरे विश्व की न्यायपालिका महर्षि के घोष ‘स्वतन्त्र कर्त्ता’ को स्वीकार कर रही है। अब शैतान व भगवान् को पाप (शर) व पुण्य (खैर) के लिये उत्तरदायी नहीं माना जाता। वैदिक दर्शन के विश्वव्यापी प्रभाव को समझकर आर्य समाज वेद प्रचार में पूरे दल बल से लगेगा तो यश मिलेगा। यह कार्य स्कूलों के बस का नहीं है। स्कूलों-कॅालेजों में वैदिक दर्शन को कौन जानता-मानता है?

सेवा कर्म कमाते रहेः- राजेन्द्र जिज्ञासु

सेवा कर्म कमाते रहेः- आर्य समाज के इतिहास से सेवा करने की कुछ स्वर्णिम घटनायें दी गईं। पाठकों ने कुछ ऐसे प्रेरक प्रसंग और देने का अनुरोध किया है। दिल्ली क्षेत्र के अथक व सफल प्रचारक स्वामी धर्मानन्द जी (करोलबाग वाले) जीवन की अन्तिम वेला में बहुत रुग्ण व असमर्थ हो गये। आर्य समाज शतादी महोत्सव पर मैंने श्री आचार्य विरजानन्द जी झज्जर को अपने एक दो साथियों सहित उनकी सेवा करते देखा। गर्म जल के लोटे भर-भर कर उन पर डालते जाते थे। वे हाथ हिलाने में असमर्थ थे। श्री विरजानन्द उनके शरीर को मल-मलकर स्नान करवाते मैंने देखे। कौन कहता है कि आर्य समाज अपने सपूतों व सेवकों को असमर्थ होने पर पूछता नहीं? जिन्होंने आप कभी किसी की सेवा नहीं की, वे आर्य समाज के अपयश के लिए ऐसा दुष्प्रचार करते हैं।
कुँवर सुखलाल जी आर्य समाज श्रद्धानन्द बाजार अमृतसर पधारे। तब श्री पं. सत्यपाल जी पथिक उस समाज के पुरोहित थे। ग्रीष्म ऋतु थी। मैं पूज्य कुँवर जी से मिलने व उन्हें सुनने कादियाँ से वहाँ पहुँचा। आर्य मन्दिर में प्रवेश करते ही एक हैण्ड पप हुआ करता था। कुँवर साहब हड्डियों का ढाँचा-सा थे, पर उनके कण्ठ में वही पहले-सा जादू था।
पथिक जी नल को चलाकर जल की बाल्टी भर कर बड़ी, श्रद्धा से कुँवर जी को ऐसे स्नान करवा रहे थे, जैसे कोई संस्कारी पोता दादा को मल-मल कर स्नान करवाता है। मैंने कहा, ‘‘पथिक जी, आप जल निकालें, अब मैं स्नान करवाता हूँ।’’ आपने कहा, ‘‘नहीं! आपके वस्त्र भीगेंगे। आप जल निकालकर देते जायें। स्नान मैं ही करवाऊँगा।’’ कुँवर जी के शरीर पर बर्छी, भालों व लाठियों के किये गये एक-एक घाव के निशान के बारे में पथिक जी पूछते जाते थे-यह निशान कब का है? कैसे घाव हुआ? कुँवर जी बताते जाते और हम सुन-सुनकर आनन्द रस का पान करते गये। मित्रो! सेवा करना सीखो। आपने कभी किसी पूज्य पुरुष की सेवा नहीं की तो आप यह विषैला प्रचार न किया करें कि सब आप जैसे ही हैं।

महात्मा नारायण स्वामी जी के दो ऑपरेशनः- राजेन्द्र जिज्ञासु

महात्मा नारायण स्वामी जी के दो ऑपरेशनः-

एक बार महात्मा नारायण स्वामी जी का लखनऊ में एक बड़ा ऑपरेशन हुआ। पूज्य स्वामी श्रद्धानन्द जी व श्रद्धेय उपाध्याय जी ने प्रबल अनुरोध करके महात्मा जी से कहा-हमें पहले ऑपरेशन की तिथि बतायें। हमारे आने पर ही ऑपरेशन करवायें। महात्मा जी क ो उनकी इच्छा का सन्मान करना पड़ा।
देश विभाजन से पूर्व महात्मा जी का एक बड़ा ऑपरेशन लाहौर में हुआ था। क्या आप जानते हैं कि पूज्य महाशय कृष्ण जी के विशेष अनुरोध पर

महात्मा नारायण स्वामी जी को लाहौर में ऑपरेशन करवाना पड़ा था। तब भी उपाध्याय जी आदि अनेक नेता लाहौर जाते रहे।

क्या आप जानते हैं कि सन् 1955 में पूजनीय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का एक बड़ा ऑपरेशन मुबई में हुआ था। श्री सेठ प्रताप भाई जी ने बहुत सेवा की थी। महाराज तो ईश्वर के विधि-विधान को जानकर ऑपरेशन करवाने को कतई तैयार नहीं थे, परन्तु श्री महाशय कृष्ण जी के हठ के सामने स्वामी जी को झुकना पड़ा। महाशय कृष्ण जी का कथन था कि हम महात्मा नारायण स्वामी जी को मुम्बई न दिखा सके। अब उस चूक को नहीं दोहरायेंगे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने यह कहकर महाशय जी का कहा मान लिया कि आपने कभी हमारा कहा नहीं टाला, अब आपकी यही इच्छा है तो आप मुम्बई दिखा लीजिये। आर्य समाज पर अपने पूज्य पुरुषों को अन्तिम वेला में छोड़ने का दोष देना उचित नहीं है। अपवाद हो सकते हैं। अपनी कमियों को दूर करना तो हमारा कर्त्तव्य है ही। पाठक चाहेंगे तो इस प्रकार की सेवा की पचासों घटनायें क्रमशः देता रहूँगा। यही तो सच्चा इतिहास है। मनुष्य ऐसे प्रेरक प्रसंगों से बहुत कुछ सीखता है।

उत्तर दो और उत्तर देने की कला सीखोः- राजेन्द्र जिज्ञासु

उत्तर दो और उत्तर देने की कला सीखोः-
राधा-स्वामी सप्रदाय वाले लबे समय तक बाबा शिवदयाल से महर्षि जी के मन्त्र लेने का प्रचार करते रहे। इस कहानी को गढ़ने वाले ने एक तर्क यह दिया कि सत्यार्थ प्रकाश में उनके मत का खण्डन नहीं है। देर तक आर्य समाज में उनको ऐसा उत्तर न दिया गया जो बोलती बन्द कर दे। पं. चमूपति जी व लक्ष्मण जी की उत्तर देने की शैली का हमारा अयास छूट गया। जालंधर में चमत्कारों पर शास्त्रार्थ में ऋषि ने बाबा शिवदयाल की भी समीक्षा की-यह प्रमाण तत्काल दिया जाना चाहिये था। राधा-स्वामी मत के तीन गुरुओं की पुस्तकों में ऋषि की चर्चा है। खण्डन भी है, परन्तु मन्त्र लेने की कहानी किसी गुरु को न सूझी। जब परोपकारी में यह उत्तर दिया गया तो फिर इसका प्रतिवाद न हो सका।
सिख अब तक ज्ञानी दित्तसिंह से ऋषि के शास्त्रार्थों में पराभव का प्रचार कर रहे हैं। पंजाब में लोग उत्तर चाहते हैं। कोई सभा व लेखक डर के कारण— पं. निरञ्जनदेव जी की प्रेरणा से मैंने उत्तर देते हुए लिखा कि दित्तसिंह स्वयं को सिख नहीं, वेदान्ती लिखता है। किसी भी ऋषि विरोधी पत्र-पत्रिका ने दित्तसिंह से शास्त्रार्थ होने की घटना नहीं दी। कई लेखक उत्तर देने का जोखिम नहीं ले सकते। दिल्ली में एक ने एक ट्रैक्ट लिखकर अपना पता न देकर श्री संजीव का पता दे दिया। उसने वह कटवा दिया। कहीं मुसलमान न भड़क उठें।

इतिहास बोलता है और बोलेगाः-राजेन्द्र जिज्ञासु

इतिहास बोलता है और बोलेगाः-
हमने ऊपर श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा के कंगाली पर दिये गये व्यायान का उल्लेख किया है। सभव है, किसी लेखक ने कहीं इसकी चर्चा की हो और हमें पता न लगा हो। डेढ़ घण्टा तक विद्वान् वक्ता ने इस विषय पर अपने विचार रखे। यह घटना दिसबर सन् 1887 के अन्तिम दिनों की है। परोपकारिणी सभा के उस उत्सव में भारत भर से दूर-दूर से आर्य भाई-समाजों के प्रतिनिधि आये थे। जहाँ-जहाँ ऋषि जी गये थे, वहाँ से तो विशेष रूप से भक्त श्रद्धालु अजमेर आये।

महर्षि जोधपुर में कई मास तक रहे। वहाँ भी कुछ तो ऋषि भक्त होंगे ही। कौन यह मानेगा कि जोधपुर के सब लोग पाषाण हृदय थे और किसी पर महर्षि का कतई प्रभाव न पड़ा? सन् 1887 के इस उत्सव का जो वृत्तान्त आर्यगजट आदि पत्रों में प्रकाशित हुआ, उससे तो यही पता चलता है कि जोधपुर से तब एक भी व्यक्ति अजमेर न पहुँचा। वह सामन्ती युग था। प्रतापसिंह के आतंक के कारण एक भी व्यक्ति अजमेर आने का साहस न कर सका। प्रतापसिंह की आत्मकथा में भी तो ऋषि के जोधपुर आगमन पर कोई छोटा-सा अध्याय नहीं। इतिहास बोल रहा है और बोलेगा। हम क्या कहें? क्या करें?
-वेद सदन अबोहर-152116