आजकल आर्य समाज में कई नए-नए संगठन बन गए हैं, जो अपनी नई-नई परमपराएँ चला रहे हैं और नए-नए सिद्धान्त भी बता रहे हैं। इसी प्रकार एक यज्ञ के बारे में सुना, जिसका नाम स्वराज यज्ञ रख रखा है। मेरी जिज्ञासा यह है कि क्या वेद, शास्त्रों और स्वामी दयानन्द के अनुसार इस प्रकार के स्वराज यज्ञ करने का कोई विधान है? अगर है तो इसे कौन कर सकता है, इसके करने की विधि क्या होगी? कितने समय के अंतराल पर इसे करना चाहिए? क्या इतिहास में भी कहीं इस प्रकार के यज्ञ का वर्णन आता है? इस प्रकार के यज्ञ करने से स्वराज-प्राप्ति हो जाती है? और इस यज्ञ का लाभ क्या होगा?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआचार्य सोमदेव जी, सादर नमस्ते! आजकल आर्य समाज में कई नए-नए संगठन बन गए हैं, जो अपनी नई-नई परमपराएँ चला रहे हैं और नए-नए सिद्धान्त भी बता रहे हैं। इसी प्रकार एक यज्ञ के बारे में सुना, जिसका नाम स्वराज यज्ञ रख रखा है। मेरी जिज्ञासा यह है कि क्या वेद, शास्त्रों और स्वामी दयानन्द के अनुसार इस प्रकार के स्वराज यज्ञ करने का कोई विधान है? अगर है तो इसे कौन कर सकता है, इसके करने की विधि क्या होगी? कितने समय के अंतराल पर इसे करना चाहिए? क्या इतिहास में भी कहीं इस प्रकार के यज्ञ का वर्णन आता है? इस प्रकार के यज्ञ करने से स्वराज-प्राप्ति हो जाती है? और इस यज्ञ का लाभ क्या होगा? कृपा करके विस्तार से बताएँ।

– यतीन्द्र आर्य, मंत्री आर्यसमाज, बालसमंद, जिला हिसार, हरियाणा।

समाधान– महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य व्यक्तिगत व समाज की उन्नति करना रखा था। महर्षि की इच्छा थी कि ग्राम-ग्राम, नगर-नगर, देश-देशान्तर में आर्य समाज हों और वे समाज की उन्नति का कार्य करें। आर्य समाज व अन्य मत वालों में मौलिक अन्तर यह है कि उन्हें ईश्वर गौण दिखता है, व्यक्ति मुय, कि न्तु आर्य समाज में ऐसा नहीं है। आर्य समाज की मान्यता वेद पर टिकी है। यहाँ व्यक्ति पूजा गौण व ईश्वर पूजा मुय है, यहाँ व्यक्ति की विचारधारा गौण और वेद की विचारधारा मुखय है। इसी को आधार बनाकर महर्षि दयानन्द ने अपने विषय में कहा था कि यदि मेरी बाताी वेद के विपरीत हो तो उसको कदापि मत मानना, उसको वेद के अनुकूल ठीक कर लेना। यह कथन महर्षि की वेदनिष्ठा व ईश्वर के प्रति समर्पण और अत्यन्त सरलता का द्योतक है।

महर्षि के इस कथन से अनेक लोगों ने अनुचित लाभ उठाया अथवा यूँ कहें कि अपनी मनमर्जी का काम करना आरमभ किया। ऋषि की भावना थी कि आर्य समाज रूपी संगठन सुदृढ़ हो कर कार्य करे, सभी आर्य एक होकर कार्य करें, किन्तु दुर्भाग्य है कि आर्य समाज में भी अपनी मनमर्जी के संगठन बने, अपने स्वतन्त्र संगठन बने, जिन संगठनों ने इस आर्य समाज रूपी विशाल संगठन को हानि ही पहुँचाई है, जो संगठन एक होकर बड़ा कार्य कर सकता है, वह टुकड़ों में बँटकर कैसे बड़े कार्य को कर सकता है?

आपने जो कहा कि नये-नये संगठन बन गए हैं, अपनी-अपनी मान्यताएँ व सिद्धान्त गढ़ लिए सो वर्तमान में दिख ही रहा है। कई लोग स्वघोषित स्वंभू विद्वान् बनकर महर्षि व आर्य समाज के नाम पर अपना संगठन बनाकर अपनी महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने का प्रयोजन सिद्ध करने में लगे हैं। अपना नया ही सिद्धांत लाकर आर्यों पर थोपते हैं और उनको भ्रमित करते हैं। एक नई बात फैलाई जा रही है कि जीवात्मा साकार है। इस बात को कहकर यह पता नहीं चल रहा कि ये स्वयाूं अपनी कौन-सी विद्वत्ता सिद्ध करना चाहते हैं? अस्तु, इसके लिए यहाँ तो नहीं, किन्तु फिर कभी लेख लिखेंगे, जिसमें महर्षि के द्वारा दिये गए प्रमाणों से सिद्ध होगा कि जीवात्मा साकार नहीं, अपितु महर्षि की मान्यतानुसार निराकार है। हाँ, हो सकता है, इन नये अवतारों का आत्मा साकार हो….।

आपकी जिज्ञासा है कि इन परमपरा वादियों ने स्वराज यज्ञ नामक यज्ञ की खोज कर ली, इनक ो कहाँ से ये उपलधि हुई है? महर्षि दयानन्द व अन्य ऋषि वा इस विषय के आधिकारिक विद्वान् श्रद्धेय मान्यवर युधिष्ठिर मीमांसक जी आदि को तो स्वराज यज्ञ का पता नहीं लगा। हो सकता है, इन तत्त्ववेत्ताओं को पता लगा गया हो।

महर्षि दयानन्द ने अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध यज्ञों को स्वीकार किया है। इन यज्ञों के अन्दर राजसूय यज्ञ व वाजपेय यज्ञ का वर्णन मिलता है। ये यज्ञ स्वराज की कामना से किये जाते हैं। स्वराज का तात्पर्य वहाँ

‘‘स्वयं राजत इतिह स्वराट्। स्वोपपदाद् राजतेः क्वपि स्वराट्। स्वराजो भवः स्वराज्यम्’’

अर्थात् स्वयं प्रकाशित होने वाला ‘स्वराट्’ उसका भाव स्वराज्य। शास्त्र में कथन आता है

‘‘राजाराजसूयेन स्वराज्यकामो यजेत’’

स्वयं प्रकाशित होने की कामना वाला राजा राजसूय के द्वारा यजन करे। इस वाक्य में राजसूय यज्ञ का कथन है, न कि स्वराज्य यज्ञ का। जो व्यक्ति प्रकरण व शास्त्र के अभिप्राय को नहीं जानता, वह एक शबद देखकर अपनी बुद्धि से कल्पना कर लेता है। वेद मन्त्र में जहाँ कहीं स्वराज्य शबद आया अथवा कहीं और यह शबद आया, उसको देख अपनी कल्पना की पुष्टि व्यक्ति करता रहता है।

जो स्वराज्य अर्थात् अपने-आपको अर्थात् राजा अपने को सम्राट रूप में प्रकाशित करने के लिए राजसूय यज्ञ करता है। स्वराज का जैसा अर्थ आजकल करते हैं कि ‘‘अपना राज्य’’ वह नहीं है, अपितु जो ऊपर दिया है, वह है। इस राजसूय यज्ञ को कोई भी करने लग जाये, ऐसा कदापि नहीं है। इस यज्ञ को राजा ही कर सकता है, राजा के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता। राजा भी वह जो कम से कम तीन पीढ़ियों से परमपरा से राजा हो, तभी वह इस यज्ञ का अधिकारी हो सकता है।

इस यज्ञ को करने की विधि विस्तृत है, इसक ो कराने वाले सोलह ऋत्विज् होते हैं, सत्रहवाँ यज्ञमान् होता है। इस स्वराज्य की कामना वाले राजसूय यज्ञ में विशेष यज्ञशाला का निर्माण किया जाता है, अग्नि को अरणी से उत्पन्न करते हैं। तीनों अग्नियों के स्थान का आकार अलग-अलग होता है। इस राजसूय यज्ञ में अनेक प्रकार की स्वतन्त्र इष्टियाँ होती हैं। इस यज्ञ के पात्र विशेष होते हैं, कुछ पात्रों के चित्र महर्षि दयानन्द ने संस्कार विधि के सामान्य प्रकरण में दिये हैं। इस यज्ञ की विधि को विस्तार से जानने के लिए महा महोपाध्याय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी द्वारा लिखित ‘‘श्रौतयज्ञों का संक्षिप्त परिचय’’ पुस्तक पढ़ें।

इस यज्ञ का वर्णन महाभारत में मिलता है। महाराज युधिष्ठिर जब इन्द्रप्रस्थ के राजा बने, तब स्वराज्य अर्थात् अपने-आपको प्रकाशित करने के लिए तथा दृढ़ता पूर्वक चक्रवर्ती राजा बनने के लिए उन्होंने इस यज्ञ को किया था। यह यज्ञ राजा अपने जीवन काल में एक बार ही करता है और उसके जीवित रहते उसके कुल का कोई अन्य इस यज्ञ को नहीं कर सकता।

इस प्रकार के यज्ञ को करने के  लिए अनेक उपकरणों की आवश्यकता होती है। उन उपकरणों के केवल नाम यहाँ लिख रहे हैं 1. जुहू-यह पलास वृक्ष की होती है। अग्रभाग हथेली के बराबर चौड़ा, छः अंगुल खोदा हुआ, हंसमुख सदृश नाली से युक्त और पीछे का भाग दण्डाकार होता है। इसकी पूरी लबाई बाहुमात्र होती है। दण्डे के अन्तिम छोर से कुछ पूर्व नीचे की ओर सहारे के लिए टेक होती है, जिससे जुहू सीधी रखी जा सके और उसमें डाला हुआ घृत गिर न जाये। जुहू से आहुतियाँ दी जाती हैं।

  1. 2. उपभृत्-यह अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष की होती है। इसका आकार और परिमाण जुहू के समान होता है।
  2. 3. ध्रुवा-यह विकंकत वृक्ष की होती है। यह भी जुहू के समान होती है।
  3. 4. अग्निहोत्रहवणी-यह भी विकंकत वृक्ष की होती है और जुहू के सदृश है। इससे अग्निहोत्र किया जाता है।
  4. 5. श्रुव, 6. कूर्च, 7. वज्र उलूखल, 9. मुसल, 10. शूर्प, 11. कृष्णाजिन, 12. दृषद्-उपल, 13. इडापात्री, 14. आसन, 15. योक्त्र, 16. पुरोडाश पात्री, 17. शृतावदान, 18. प्राशित्र हरण, 19. षडवत्त, 20. अन्तर्धान कट, 21. उपवेश, 22. रज्जु 23. शङ्कु 24. पूर्णपात्र, 25. प्रणीता पात्र, 26. आज्यस्थाली, 27. चरूस्थाली, 28. अन्वाहार्यपात्र, 29. अभ्रि, 30. अरणी, 31. चात्र, 32. प्राक्षणी, 33. पिष्टपात्री, 34. शया, 35. ओवली, 36. नेत्री, 37. इध्म, 38. परिधि, 39. सामिधेनी-समित् 40. समीक्षण, 41. मदन्तीपात्र, 42. मेक्षण, 43. पिष्टलेप पात्र, 44. फलीकरण पात्र, 45. शकट (गाड़ी),46. कपाल, 47. कुशा, 48. व्रीहि वा यव, 49. आज्य आदि। ये इतने सारे उपकरण राजसूय आदि यज्ञों में काम आते हैं। इन सबका वर्णन पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने ‘श्रौतयज्ञों का संक्षिप्त परिचय’ पुस्तक में किया है। इन तथाकथित स्वराज यज्ञ करने वालों को इसकी विधि, समय, उपकरण तथा इसे कौन कर सकता है-इत्यादि ज्ञान मुझे नहीं लगता कि इनको होगा। नाम सुन लिया स्वराज यज्ञ और जहाँ कहीं वेद मन्त्र में स्वराज शबद आया, उसको देख शुरू हो गये होंगे, जबकि स्वराज नाम का कोई यज्ञ है ही नहीं। हाँ, स्वराज्य की कामना से राजसूय यज्ञ व वाजपेय यज्ञ का विधान तो है, जिनका ऊपर वर्णन किया है।

जिस स्वराज्य यज्ञ के विषय में आपने पूछा है, इस प्रकार के यज्ञ से तो स्वराज की प्राप्ति होने वाली है नहीं। स्वराज की प्राप्ति यज्ञ से नहीं, इसकी प्राप्ति तो बल से होती है, नीति से होती है, संगठन से होती है, हवन करने मात्र से नहीं होती। यदि इससे ही यह प्राप्ति होती तो सेना, गुप्तचर विभाग, न्याय पालिका आदि को छोड़ यह यज्ञ ही कर लिया जाये। हाँ, स्वराज्य की प्राप्ति जो शास्त्र में कही है, वह प्राप्ति राजसूय यज्ञ करने से अवश्य होती है, क्योंकि इसको करने वाला समर्थ राजा होता है, जिसका एक सुदृढ़ राज्य होता है, वह स्वराज्य-चक्रवर्ती राज्य की प्राप्ति के लिए राजसूय यज्ञ करता है तो उसको यह उपलबधि होती है, इसका उदाहरण महाभारत में है, जिस यज्ञ के करने से महाराजा युधिष्ठिर चक्रवर्ती सम्राट् हो गये थे।

अधिक विस्तार न करते हुए अन्त में यही कहूँगा कि जो अपने पूछा, इसको करने वाले आधा अधूरा ज्ञान रखने वाले होते हैं, ऐसे लोग शास्त्र को देखते नहीं और किसी का भी पढ़ा-सुना लेकर प्रवृत्त हो जाते हैं। आर्य समाज के लिए हितकर यही है कि अपनी-अपनी मनमर्जी न चलाकर संगठित हों तथा अपनी कार्य प्रणाली व व्यवहार में एक रूपता लायें कि जिससे ऋषियों का गौरव बढ़े और समस्त प्राणी मात्र का कल्याण हो। अस्तु!

– सोमदेव, ऋषिउद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

 

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