(क) महर्षि मनु परम दयालु एवं मानवीय दृष्टिकोण के थे। उन्होंने शूद्रों के प्रति मानवीय सद्भावना व्यक्त की है और उन्हें यथोचित समान दिया है। निनांकित श्लोक में मनु का आदेश है कि द्विजवर्णस्थ व्यक्तियों के घरों में यदि शूद्र वर्ण का व्यक्ति आ जाये तो उसका अतिथिवत् भोजन-साान करें-
वैश्य शूद्रावपि प्राप्तौ कुटुबेऽतिथिधर्मिणौ।
भोजयेत् सह भृत्यैस्तावानृशंस्यं प्रयोजयन्॥ (3.112)
(ख) डॉ0 अम्बेडकर र द्वारा समर्थन-डॉ0 अम्बेडकर र ने इस श्लोक के अर्थ को प्रमाण-रूप में उद्धृत किया है, जो यह संकेत देता है कि वे मनु के इस कथन को स्वीकार करते हैं और यह भी भाव इससे स्पष्ट होता है कि आर्य द्विजों के घर में अतिथि के रूप में सत्कार पाने वाले शूद्र, मनुमतानुसार अस्पृश्य, नीच, निन्दित या घृणित नहीं होते-
‘‘यदि कोई वैश्य और शूद्र भी उसके (ब्राह्मण के) घर अतिथि के रूप में आए तब वह उसके प्रति दया का भाव प्रदर्शित करते हुए अपने सेवकों के साथ भोजन कराए (मनुस्मृति 3.112)।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 9, पृ0 112)
इतनी सहृदयता और सद्भाव का आदेश देने वाला महर्षि मनु, जिसका प्रमाण डॉ0 अम्बेडकर र को भी स्वीकार है, वह विरोध का पात्र नहीं है, अपितु प्रशंसा का पात्र है। फिर भी मनु का विरोध क्यों?
(इ) द्विज और शूद्र वर्ण एक परमात्मपुरुष की सन्तान हैं-
(क) वैदिक या मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था में सभी वर्णों का उद्भव एक ही परमात्मपुरुष अथवा ब्रह्मा के अंगों से माना है। ध्यान दें, यह आलंकारिक उत्पत्ति वर्णस्थ व्यक्तियों की नहीं है अपितु चार वर्णों की है।