सेवा कर्म कमाते रहेः- आर्य समाज के इतिहास से सेवा करने की कुछ स्वर्णिम घटनायें दी गईं। पाठकों ने कुछ ऐसे प्रेरक प्रसंग और देने का अनुरोध किया है। दिल्ली क्षेत्र के अथक व सफल प्रचारक स्वामी धर्मानन्द जी (करोलबाग वाले) जीवन की अन्तिम वेला में बहुत रुग्ण व असमर्थ हो गये। आर्य समाज शतादी महोत्सव पर मैंने श्री आचार्य विरजानन्द जी झज्जर को अपने एक दो साथियों सहित उनकी सेवा करते देखा। गर्म जल के लोटे भर-भर कर उन पर डालते जाते थे। वे हाथ हिलाने में असमर्थ थे। श्री विरजानन्द उनके शरीर को मल-मलकर स्नान करवाते मैंने देखे। कौन कहता है कि आर्य समाज अपने सपूतों व सेवकों को असमर्थ होने पर पूछता नहीं? जिन्होंने आप कभी किसी की सेवा नहीं की, वे आर्य समाज के अपयश के लिए ऐसा दुष्प्रचार करते हैं।
कुँवर सुखलाल जी आर्य समाज श्रद्धानन्द बाजार अमृतसर पधारे। तब श्री पं. सत्यपाल जी पथिक उस समाज के पुरोहित थे। ग्रीष्म ऋतु थी। मैं पूज्य कुँवर जी से मिलने व उन्हें सुनने कादियाँ से वहाँ पहुँचा। आर्य मन्दिर में प्रवेश करते ही एक हैण्ड पप हुआ करता था। कुँवर साहब हड्डियों का ढाँचा-सा थे, पर उनके कण्ठ में वही पहले-सा जादू था।
पथिक जी नल को चलाकर जल की बाल्टी भर कर बड़ी, श्रद्धा से कुँवर जी को ऐसे स्नान करवा रहे थे, जैसे कोई संस्कारी पोता दादा को मल-मल कर स्नान करवाता है। मैंने कहा, ‘‘पथिक जी, आप जल निकालें, अब मैं स्नान करवाता हूँ।’’ आपने कहा, ‘‘नहीं! आपके वस्त्र भीगेंगे। आप जल निकालकर देते जायें। स्नान मैं ही करवाऊँगा।’’ कुँवर जी के शरीर पर बर्छी, भालों व लाठियों के किये गये एक-एक घाव के निशान के बारे में पथिक जी पूछते जाते थे-यह निशान कब का है? कैसे घाव हुआ? कुँवर जी बताते जाते और हम सुन-सुनकर आनन्द रस का पान करते गये। मित्रो! सेवा करना सीखो। आपने कभी किसी पूज्य पुरुष की सेवा नहीं की तो आप यह विषैला प्रचार न किया करें कि सब आप जैसे ही हैं।