यज्ञ का क्रय-विक्रय – रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ का क्रय-विक्रय  – रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः  और्णवाभः ।  देवता  यज्ञः ।  छन्दः  आर्षी अनुष्टुप् । पूर्णा दर्वि परा पत सुपूर्णा पुनरार्पत। वस्नेव विक्रीणावहाऽइषमूर्ज शतक्रतो॥ -यजु० ३।४९ (दर्वि) हे सुवा! तू (पूर्णा) घृत से भरी हुई (परापत) यज्ञकुण्ड में जाकर गिर। वहाँ से (सुपूर्णा) खूब भरी हुई (पुनः आ पत) फिर हमारे पास आ । इस प्रकार हे (शतक्रतो) सैंकड़ों यज्ञों के कर्ता इन्द्र परमेश्वर ! हम (वस्ना इव) जैसे मूल्य से किसी वस्तु का क्रय-विक्रय किया जाता है, वैसे ही (इषम्) अन्न, रस आदि तथा (ऊर्जम्) बल, प्राण, स्वास्थ्य आदि (वि क्रीणावहै) विशेषरूप से खरीदें। क्या तुम सोचते हो कि यज्ञ में घृत से भरी हुई खुवा जब अग्नि में घृत उंडेलती है, तब हमारे पास वापिस आती हुई … Continue reading यज्ञ का क्रय-विक्रय – रामनाथ विद्यालंकार

पाप – मोचन – रामनाथ विद्यालंकार

पाप-मोचन ऋषिः प्रजापतिः ।  देवता  मरुतः (मनुष्याः) । छन्दः  स्वराड् अनुष्टुप् । यद् ग्रामे यदरण्ये यत् सभायां यदिन्द्रिये। यदेनश्चकृमा व्यमिदं तदवेयजामहे स्वाहा ॥ -यजु० ३ | ४५ (यद्) जो (ग्रामे) ग्राम में, (यद्) जो (अरण्ये) जङ्गल में, (यत्) जो (सभायां) सभा में, (यत्) जो (इन्द्रिये) चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों के विषय में, (यद्) जो अन्य किसी के विषय में भी (एनः) पाप या अपराध (वयं चकृम) हम करते हैं (तत्) उसे (इदं) यह (अ वयजामहे) हम दूर कर रहे हैं, (स्वाहा) यह कैसा उत्तम व्रत है। हम जाने या अनजाने कुछ न कुछ पाप या अपराध करते ही रहते हैं। कभी हम ग्रामविषयक अपराध करते हैं। ग्राम के मुखिया का कहना नहीं मानते, ग्राम-पञ्चायत के निर्णयों की उपेक्षा करते हैं, … Continue reading पाप – मोचन – रामनाथ विद्यालंकार

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः आसुरिः।   देवता  अग्निः ।  छन्दः आर्षी अनुष्टुप् । आर्गन्म विश्ववेदसमस्मभ्यं वसुवित्तमम्। अग्ने सम्राडुभि द्युम्नमुभि सहुऽआयच्छस्व ॥ -यजु० ३।३८ हम (आ अगन्म) आये हैं (विश्ववेदसम्) विश्ववेत्ता, (अस्मभ्यं वसुवित्तमम्) हमें सर्वाधिक धन प्रदान करने वाले आपकी शरण में । हे (अग्ने) अग्रणी जगदीश्वर ! (सम्राट्) हे विश्वसम्राट् ! आप (अभि) हमारे प्रति (द्युम्नम्) यश और (अभि) हमारे प्रति (सहः) बल (आ यच्छस्व) प्रदान कीजिए। संसार में जितने प्रकार के पदार्थ हैं, उतनी ही विद्याएँ हैं, क्योंकि प्रत्येक प्रकार के पदार्थ की अपनी-अपनी विशेषता है। इस प्रकार असंख्य विद्याएँ हैं। ब्रह्माण्ड में ज्ञान का समुद्र लहरा रहा है। कोई किसी विद्या का विज्ञानी है, कोई किसी का। विज्ञानी पण्डितों में भी तारतम्य है। ज्ञान … Continue reading विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः मेधातिथिः । देवता बृहस्पतिः । छन्दः आर्षी गायत्री । यो रेवान् योऽअमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्द्धनः। स नः सिषक्तु यस्तुरः॥ -यजु० ३। २९ (यः) जो बृहस्पति जगदीश्वर (रेवान्) विद्या आदि धनों से युक्त है, (यः) जो (अमीवहार) आत्मिक एव शारीरिक रोगों को नष्ट करने वाला, (वसुवित्) ऐश्वर्य प्राप्त कराने वाला, और (पुष्टिवर्धनः) पुष्टि बढ़ानेवाला है, तथा (यः तुर:) जो शीघ्रकारी है (सः) वह (नः सिषक्तु) हमें प्राप्त हो। क्या तुम गर्व करते हो अपनी विशाल बहुमंजिली कोठियों पर, गगनचुम्बी रत्नजटित महलों पर, विस्तृत भूमिक्षेत्र पर, अपार धन-दौलत पर, हरे-भरे रसीले फलों वाले बाग बगीचों पर ? यह तुम्हारा गर्व क्षण- भर में चूर हो जायेगा, जब तुम बृहस्पति परमेश्वर के समस्त ब्रह्माण्ड में … Continue reading कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना ऋषिः  अवत्सारः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  आर्षी त्रिष्टुप् । तुनूपाऽअग्नेऽसि तुन्वं मे पाह्यायुर्दाऽअग्नेऽस्यायुर्मे देहि वर्षोदाऽ अग्नेऽसि वर्षों में देहि।अग्ने यन्मे तन्वाऽऊनं तन्मऽआपृण।। -यजु० ३ । १७ (अग्ने ) हे अग्रनायक जगदीश्वर और भौतिक अग्नि! तुम ( तनूपाः असि ) शरीरों के पालक व रक्षक हो, अतः ( मे तन्वं पाहि ) मेरे शरीर को पालित-रक्षित करो। (अग्ने ) हे परमात्मन् तथा अग्नि-विद्युत्-सूर्य रूप अग्नि! तुम ( आयुर्दाः असि ) आयु देने वाले हो, अत: ( मे आयुः देहि ) मुझे आयु दो। ( अग्ने ) हे परमेश्वर तथा उक्त अग्नियो ! तुम ( वच्चदा: असि ) वर्चस् देने वाले हो, अतः (मे वर्चः३ देहि ) मुझे वर्चस् दो। ( यत् ) जो ( मे तन्वाः … Continue reading तनूपाः अग्नि से प्रार्थना

सुशील नारी नै घरकी लक्ष्मी हुन्छिन्

सुशील नारी नै घरकी लक्ष्मी हुन्छिन्…. ओ३म् मान्छे सुन्दरताको पुजारी हो | यही कारणले ऊ सुन्दरताको खोजमा यता-उता भौंतारी रहन्छ तथा प्रतिक्षण सुन्दर सुन्दर दृश्यमा नै आफ्नो समय बिताउने धुनमा प्रयासरत रहन्छ| यहि मनोभावको कारणले नै आजको मान्छे केवल सुन्दर मात्र हैन सुशील युवतीलाई पाएर सदा अति प्रसन्न रहने चाहना राख्दछ | यदि उसको सुन्दरतामा कुनै ह्रास आएको अनुभव भयो भने उसले वर्तमान युगको कृत्रिम साधनहरुको लेपन द्वारा हटाउने प्रयास पनि गरिरहन्छ| ठीक यस्तै गरेर मान्छे सोमको जल पाएर पनि आनन्दको अनुभव गर्दछ र उसलाई पवित्र गर्दछ| यहि तथ्यको चर्चा ऋग्वेद: १०/३०/५ मा यसरि गरिएको छ:- याभिः सोमो मोदते हर्षते च कल्याणीभिर्युवतिभिर्न मर्यः । ता अध्वर्यो अपो अच्छा परेहि यदासिञ्चा ओषधीभिः पुनीतात् ॥ आमा-दिदी-बहिनी-श्रीमती-भान्जी-भतिजी-छोरी आदि सुन्दर तथा सुशील स्त्रीहरुबाट जसरि … Continue reading सुशील नारी नै घरकी लक्ष्मी हुन्छिन्

मूर्ति पूजा ईश्वर प्राप्तिको साधन हैन

मूर्ति पूजा ईश्वर प्राप्तिको साधन हैन ईश्वर प्राप्तिको केवल एक मात्र मार्ग छ-  “अष्टांग योग” ओ३म्.. वेदमा मूर्तिपूजाको विधान छैन। वेदले घोषणा गरेको छ- न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः।  (यजुर्वेद: ३२/३) अर्थात्, जसको नाम महान यशवाला हो, उस परमात्माको कुनै मूर्ति, तुलना, प्रतिकृति, प्रतिनिधि छैन। प्रश्न उत्पन्न हुनसक्छ कि फेरी हिन्दु समाजमा मूर्तिपूजा कहिले प्रचलित भयो र कसले चलायो? महर्षि दयानन्दले आफ्नो कालजयी ग्रन्थ – “सत्यार्थ प्रकाश” को एकादश समुल्लासमा प्रश्नोत्तर रूपमा यस सम्बन्धमा लेख्छन् कि- प्र – मूर्तिपूजा कहाँबाट चल्यो? उ – जैनिहरुबाट| प्र – जैनिले कहाँबाट चलाए ? उ – आफ्नो मूर्खताले| पण्डित जवाहरलाल नेहरुका अनुसार मूर्तिपूजा बौद्धकाल देखि प्रचलित भयो| उनि लेख्छन् – “यो एक मनोरंजक विचार हो कि हिन्दु समाजमा मूर्तिपूजा यूनानबाट आयो| वैदिक … Continue reading मूर्ति पूजा ईश्वर प्राप्तिको साधन हैन

अग्न्याधान

अग्न्याधान ऋषिः प्रजापतिः।   देवताः अग्नि-वायु-सूर्याः।   छन्दः क. दैवीबृहती, र. निवृद् आर्षी बृहती। भूर्भुवः स्वर्’ द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमुन्नाद्ययोदधे। -यजु०३।५ ( भूःभुवःस्वः ) सत्-चित्-आनन्द, पृथिवी-अन्तरिक्षद्यौ, अग्नि-वायु-आदित्य, ब्रह्म-क्षत्र-विट् का ध्यान करता हूँ। मैं ( भूम्ना) बाहुल्य से ( द्यौःइव) द्युलोक के समान हो जाऊँ, ( वरिम्णा) विस्तार से ( पृथिवी इव) भूमि के समान हो जाऊँ। ( देवयजनिपृथिवि ) हे देव यज्ञ की स्थली भूमि! ( तस्याःतेपृष्ठे ) उस तुझे भूमि के पृष्ठ पर ( अन्नादम्अग्निम्) हव्यान्न का भक्षण करने वाली अग्नि को ( अन्नाद्याय) अदनीय अन्नादि का भक्षण करने के लिए ( आदधे ) आधान करता हूँ/करती हूँ। अग्न्याधान से पूर्व व्याहृतियों द्वारा सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर का स्मरण करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में भूः, भुवः, स्व: … Continue reading अग्न्याधान

आर्य मंतव्य (कृण्वन्तो विश्वम आर्यम)