अग्न्याधान

अग्न्याधान

ऋषिः प्रजापतिः।   देवताः अग्नि-वायु-सूर्याः।   छन्दः क. दैवीबृहती, र. निवृद् आर्षी बृहती।

भूर्भुवः स्वर्’ द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमुन्नाद्ययोदधे।

-यजु०३।५

( भूःभुवःस्वः ) सत्-चित्-आनन्द, पृथिवी-अन्तरिक्षद्यौ, अग्नि-वायु-आदित्य, ब्रह्म-क्षत्र-विट् का ध्यान करता हूँ।

मैं ( भूम्ना) बाहुल्य से ( द्यौःइव) द्युलोक के समान हो जाऊँ, ( वरिम्णा) विस्तार से ( पृथिवी इव) भूमि के समान हो जाऊँ। ( देवयजनिपृथिवि ) हे देव यज्ञ की स्थली भूमि! ( तस्याःतेपृष्ठे ) उस तुझे भूमि के पृष्ठ पर ( अन्नादम्अग्निम्) हव्यान्न का भक्षण करने वाली अग्नि को ( अन्नाद्याय) अदनीय अन्नादि का भक्षण करने के लिए ( आदधे ) आधान करता हूँ/करती हूँ।

अग्न्याधान से पूर्व व्याहृतियों द्वारा सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर का स्मरण करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में भूः, भुवः, स्व: पूर्वक आहवनीय अग्नि के आधान का विधान करते हुए इन का सम्बन्ध क्रमशः पृथिवी-अन्तरिक्ष-द्यौ, ब्रह्म-क्षत्र-विट् तथा आत्मा-प्रजा-पशुओं से बताया गया है। इन सब में अपने-अपने प्रकार की अग्नि का वास है। तैत्तिरीय आरण्यक एवं तैत्तिरीय उपनिषद्में इन व्याहृतियों को क्रमशः भूलोक अन्तरिक्ष लोक-द्युलोक, अग्नि-वायु-आदित्य, ऋक्-साम-यजुः और प्राण-अपान-उदान का वाचक कहा है। वहाँ इनके द्वारा विधि करने का फल यह बताया गया है कि भू: के द्वारा अग्नि में, भुवः के द्वारा वायु में और स्वः के द्वारा आदित्य में प्रतिष्ठित हो जाता है, अर्थात् इन-इन के ऐश्वर्य का अधिकारी हो जाता है। इनका ध्यान करने वाला आत्मराज्य को और मन सस्पति को प्राप्त कर लेता है। वह वाक्पति, चक्षुष्पति, श्रोत्रपति हो जाता है, क्योंकि अध्यात्म में भूः, भुवः, स्व: का सम्बन्ध वाक्, चक्षु और श्रोत्र से भी है।

आगे यजमान कहता है कि बाहुल्य (भूमा) में मैं द्युलोक के समान हो जाऊँ, अर्थात जैसे द्यलोक में बहत-से नक्षत्र हैं। और इनकी रश्मियाँ हैं, वैसे ही मेरे अन्दर भी बहुत से सद्गुण रूप नक्षत्र एवं दिव्य अन्त: प्रकाश की किरणें उत्पन्न हों। फिर कहता है कि विस्तार में मैं पृथिवी के समान हो जाऊँ, अर्थात् मेरे आत्मा में अपनत्व का विकास इतना हो जाए कि सारी वसुधा को ही अपना कुटुम्ब मानने लगूं। फिर वह पृथिवी को सम्बोधन कर कहता है कि तुम ‘देवयजनी’ हो, अर्थात् तुम्हारे पृष्ठ पर सदा ही देवयज्ञ या अग्निहोत्र होते रहे हैं। अतः मैं भी तुम्हारे पृष्ठ पर अन्नाद (हव्यान्नभक्षी) अग्नि का आधान करता हूँ, जिससे वह अग्नि अदनीय (भक्षणीय) अन्नादि हव्य का भक्षण करके उसकी सुगन्ध को चारों ओर फैलाकर वातावरण को शुद्ध एवं रोग-परमाणुओं से रहित कर सके। शतपथ ब्राह्मण कहता है कि जैसे नवजात बच्चे को उस के भक्षण योग्य मातृ स्तन का दूध दिया जाता है, ऐसे ही नवजात अग्नि को उसके अदन के योग्य ही हव्यान्न दिया जाना चाहिए, अतःअन्नाद्य ( अद्य-अन्न) शब्द रखा गया है। * अन्नाद्याय’ का दूसरा भाव यह भी हो सकता है कि ‘भक्षणीयअन्न’ की प्राप्ति के लिए मैं अग्नि का आधान करता हूँ। अग्नि में डाली हुई आहुति आकाश में मेघमण्डल उत्पन्न करके वृष्टि द्वारा अन्नोत्पत्ति में कारण बनेगी और मुझे भक्षणीय अन्न प्राप्त होगा।*

अग्न्याधान

पादटिप्पणियाँ

१.श०२.१.४.१०-१४॥

२. तै०आ०७.५.१-३, तै०उ०शिक्षावल्ली५.१-४।।

३. भूरित्यग्नौप्रतितिष्ठति।भुवइतिवायौ।सुवरियादित्ये।

| मह इतिब्रह्मणि।आप्नोति स्वाराज्यम्।आप्नोतिमनसस्पतिम्।।

वाक्पतिश्चक्षुष्पतिः।श्रोत्रपतिर्विज्ञानपतिःएतत्ततोभवति।

-तै० आ०७.६.१.२, तै०उ०शिक्षावल्ली६.१,२।

४. यथासौद्यौर्बह्नी नक्षत्रैरैवंबहुर्भूयासम्इत्येवैतदाहयदाहद्यौरिवभूम्नेति।

| –शे०२.१.४.८५.पृथिवीव वरिण्णेति । यथेयं पृथिवी उर्वी एवम् उरुर्भूयासम् इत्येवैतदाह।

—श० २.१.४.२८अन्नाद्याय। अन्नं च तद् अद्यं चेति अन्नाद्यम् । ‘अद्यान्नाय’ इति प्राप्त

आहिताग्न्यादित्वात्परनिपातः, पा० २.२.३६ ।।७. श० २.१.५.१।

अग्न्याधान

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *