स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व (स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में)

स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व (स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में) – नवीन मिश्र स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती एक वैज्ञानिक संन्यासी थे। वे एक मात्र ऐसे स्वाधीनता सेनानी थे जो वैज्ञानिक के रूप में जेल गए थे। वे दार्शनिक पिता पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय के एक दार्शनिक पुत्र थे। आप एक अच्छे कवि, लेखक एवं उच्चकोटि के गवेषक थे। आपने ईशोपनिषद् एवं श्वेताश्वतर उपनिषदों का हिन्दी में सरल पद्यानुवाद किया तथा वेदों का अंग्रेजी में भाष्य किया। आपकी गणना उन उच्चकोटि के दार्शनिकों में की जाती है जो वैदिक दर्शन एवं दयानन्द दर्शन के अच्छे व्याख्याकार माने जाते हैं। परोपकारी के नवम्बर (द्वितीय) एवं दिसम्बर (प्रथम) २०१४ के सम्पादकीय ‘‘आदर्श संन्यासी- स्वामी विवेकानन्द’’ के देश में धर्मान्तरण, शुद्धि, घर वापसी की जो चर्चा … Continue reading स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व (स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में)

मख (त्रुटिहीन) प्रबन्धन (सांतसा विशेषांक प्रथम भाग) : डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

हमारे सद्-प्रयासों और उद्योगों से हमारा जीवन तथा जीवन व्यवहार मख हो। `म’ का अर्थ होता हैं `नहीं’ औंर `ख’ का अर्थ होता हैं छिद्र या त्रुटि। 5 कर्मेन्द्रियों, 5 ज्ञानेन्द्रियों – दश प्राणों, तीन हठों, चार-वाक्, एक मन, एक बुद्धि, एक धी, स्व, अहम्, अध्यात्म, अन्तरात्म, देवात्म, सभी मख हों। मख का अर्थ `त्रुटिहीन’ या शून्य त्रुटिविधा होता है। हमारे जीवन का लक्ष्य या आदर्श हमारा ईश्वर या परमात्मा होता है। यह लक्ष्य परिपूर्ण या सम्पूर्ण होना चाहिए। यदि हमारे माने गए परमात्मा में छिद्र है, या दोष है, या जडत्व है; तो वह शून्य त्रुटि नहीं हो सकता। अपूर्ण को पूर्ण मान लेने से वह कभी पूर्ण नहीं हो सकता है। परमात्मा जो पूर्ण है उसके नाम अक्षर, … Continue reading मख (त्रुटिहीन) प्रबन्धन (सांतसा विशेषांक प्रथम भाग) : डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

Advaitwaad Khandan Series 11: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

ग्यारहवाँ अध्याय शंकर – सूक्तियाँ यद्यपि शांकर  – भाश्य में मौलिक भूलें हैं तथापि जैसा हम पहले कह चुके हैं श्री शंकराचार्य महाराज के भाश्य मंे अनेक ऐसी सूक्तियां पाई जाती हैं जिन से वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति के उत्थान मंे बडी सहायता मिलती है । यदि मायावाद, छायावाद, स्वप्नवाद, ब्रह्मोकवाद, जीव ईष्वर अभेद वाद, प्रकृति – विरोधवाद को छोड दिया जाय या आँख से ओझिल कर दिया जाय तो शांकर  – भाश्य अर्णव मंे बहुत से रत्न हैं जो वेद तथा वैदिक ग्रन्थों से मथ कर ही निकाले गये हैं । उनसे पाठकों को बहुत लाभ हो सकता है । हम यहाँ कुछ नमूले के तौर पर देते हैं:- (1) वेदस्य हि निपेक्ष स्वार्थे प्रामाण्यं रवेरिति रूप विशये … Continue reading Advaitwaad Khandan Series 11: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

Advaitwaad Khandan Series 10 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

दसवाँ अध्याय परस्पर विरोध श्री शंकराचार्य जी महाराज मायावाद और ब्रह्म के अभिन्न – निमित्त उपादान कारणवाद को सिद्ध करना चाहते थे जो उपनिशदों, वेदान्त तथा वैदिक सिद्धान्त के विरूद्ध है । अतएव कई स्ािनों पर परस्पर विरोध हो गया है । यहाँ कुछ उद्धरण दिये जाते हैं । 1- (अ) ‘अविकार्योऽयमुच्यते ।’ (षां॰ भा॰ 1।1।4 पृश्ठ 17) वह ईष्वर अविकारी है ।   (क) प्राणानां ब्रह्मविकारत्व सिद्धिः । (षां॰ भा॰ 2।4।4 पृश्ठ 308) इससे सिद्ध है कि प्राण ईष्वर के विकार हैं । 2- (अ) प्रदीप प्रभायाश्च द्रव्यात्रत्वं व्याख्यातम् । (षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286) दीपक का प्रकाष एक द्रव्य ही दूसरा है । (क) अग्नेरिवौश्ण्य प्रकाषौ । (षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286) जैसे गरमी और प्रकाष अग्नि के … Continue reading Advaitwaad Khandan Series 10 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

Advaitwaad Khandan Series 9 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

प्रलय का क्रम षं॰ स्वा॰ – एवं क्रमेण सूक्ष्मं सूक्ष्मतंर चानन्तरमनन्तरं कारणमपीत्य सर्वं कार्याातं परमकारणं परमसूक्ष्म च ब्रह्माप्यतीति वेदितव्यम् । (षां॰ भा॰ 2।2।14 पृश्ठ 295) इस प्रकार क्रम पूर्वक सूक्ष से सूक्ष्मतर, एक काय्र्य से उसके कारण मंे, फिर उसके कारण में, फिर उसके कारण में अन्त को सभी जगत् अन्त्य कारण परमसूक्ष्म ब्रह्म मंे लय हो जाता है ऐसा जानना चाहिये । हमारी आलोचना – यदि सृश्टि मिथ्या और अविद्या जन्य होती तो क्रम कैसे हो सकता था? क्रम विद्या का सूचक है न कि अविद्या का । क्रम – भंग के कारण ही तो स्वप्न विष्वसनीय नहीं होते । स्वप्नों मंे कहीं न कहीं कोई न कोई क्रम भंग ऐसा होता है जिससे स्वप्न का अतत्यत्व प्रकट हो … Continue reading Advaitwaad Khandan Series 9 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

Advaitwaad Khandan Series 8 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

शंकर और जादू शांकर भाष्य में ‘मायावी’ अर्थात् जादूगर का उल्लेख बहुत आता है । श्री शंकराचार्य जी जादू की उपमा देकर इस संसार को मिथ्या सिद्ध करते हैं । आज कल किसी का जादूगर के जादू पर विष्वास नहीं है । बाजारों में नित्य जादू का खेल हुआ करता है । और जादूगर हाथ की चालाकी से कुछ का कुछ दिखा कर लोगों का मनोविनोद किया करते हैं । परन्तु कोई उनसे धोखा नहीं खाता । जादूगर रेत की चुटकी हाथ में लेकर कुछ मन्तर पढ कर रेत की घडी बना देता है । लोग चकित रह जाते हैं । परन्तु किसी को यह विष्वास नहीं होता कि वस्तुतः रेत की घडी बना दी गई हैं । श्री शंकराचार्य जी … Continue reading Advaitwaad Khandan Series 8 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

Advaitwaad Khandan Series 7 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

शंकराचार्य और पौराणिक मत यह एक प्रसिद्ध बात है कि पौराणिक मत वैदिक धर्म का एक बिगडा हुआ रूपान्तर है । मूर्ति पूजा, देवी देवते, जाति पांति के बंधन इत्यादि बोसियों बुराइयाँ जिन्हांेने हिन्दू जाति को नश्ट कर डाला वैदिक धर्म में विहित न थीं । पुराणों मंे इनका समावेष हो गया । वेदान्त दर्षन आदि में पुराण तथा पौराणिक सिद्धान्तों के विशय में कुछ भी नहीं पाया जाता । परन्तु षंकर स्वामी के समय मंे वातावरण पौराणिक बातों से भरा हुआ था । अतः उसके प्रभाव मंे आकर षंकर स्वामी ने अपने भाश्य में भी उन बातों को तद्वत् मान लिया । वह वैदिक धर्म और पौराणिक मत में कोई विवेक नहीं कर सके । हम यहाँ कुछ उदाहरण … Continue reading Advaitwaad Khandan Series 7 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

Advaitwaad Khandan Series 6 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

जीव और ब्रह्म का स्पश्ट भेद श्री शंकराचार्य जी जीव ओर ब्रह्म में वास्तविक भेद नहीं मानते । केवल उपाधि भेद मानते हैं । और जीव के उपासना आदि जितने व्यवहार हैं उनको भी उपाधि कृत ही कहते हैं । उनके इस सिद्धान्त की पुश्टि मंे हम उनके भाश्य से कुछ उदाहरण आलोचना सहित देते हैं: – (1) द्वि रूपं हि ब्रह्मावागम्यते, नामरूपविकारभेदोपाधि विषिश्टं, तद् विपरीतं च सर्वोपाधि विवर्जितम् । (षां॰ भा॰ 1।2।12 पृश्ठ 34) ब्रह्म के दो रूप हैं एक तो नाम रूप विकार भेद की उपाधि वाला, दूसरा इसके विपरीत सब प्रकार की उपाधियों से छूटा हुआ । (2) तत्राविद्यावस्थायां ब्रह्मण उपास्योपासकादिलक्षणः सर्वो व्यवहारः । तत्र कानिचिद् ब्रह्मण उपासनान्यभ्युदयार्थानि, कानिचित् क्रम – मुक्तयर्थानि, कानि चित् कर्म समृद्धîर्थानि । … Continue reading Advaitwaad Khandan Series 6 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

Advaitwaad Khandan Series 5 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

वैषेशिक और शंकर स्वामी वैषेशिक दर्षन वैदिक शट् दर्षनों में से एक है। परन्तु शंकर स्वामी ने उसको अर्द्ध वैनाषिक, तथा अषिश्ट माना है। क्योंकि वैषेशिक के स्पश्ट सिद्धान्त के समक्ष मायावाद या विवर्तवाद की स्थापना अत्यन्त कठिन है। इस अध्याय में शंकर स्वामी के षारीरक भाश्य के उस भाग की मीमांसा की जाती है जो वैषेशिक से संम्बन्ध रखता है। (1) परमाणुओं का पारिमाण्डल्य पूर्वपक्ष-तत्रायं वैषेशिकाणामभ्युपगमः-कारणद्रव्यसमवायिनो गुणाः कार्यद्रव्ये समानजातीयं गुणान्तरमारभन्ते, षुक्लेभ्यस्तन्तुभ्यः षुक्लस्य पटस्य प्रसवदर्षनात् तद्विपर्यया दर्षनाच्च तस्माच्चेतनस्य ब्रह्मणो जगत्कारणतवेऽभ्यपगम्यमाने कार्यऽपि जगति चैतन्यं समवेयात्। तद्दर्षनात् तु न चेतनं ब्रह्म जगत् कारणं भवितुमर्हति। (षां॰ भा॰ 2।2।11 पृश्ठ 228-229) वैषेशिकों का यह सिद्धान्त है-कि जैसे गुण कारण द्रव्य में होते हैं वैसे ही कार्य द्रव्य में आते है। इसलिए यदि जगत् का … Continue reading Advaitwaad Khandan Series 5 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

Advaitwaad Khandan Series 4 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

श्री स्वामी षंकाराचार्य जी ने वेदान्त दर्षन का जो भाश्य किया है उसके आरम्भ के भाग को चतुःसूत्री कहते है। क्योंकि यह पहले चार सूत्रों के भाश्य के अन्र्तगत है। इस चतुःसूत्री में भाश्यकार ने अपने मत की मुख्य रूप से रूपरेखा दी है। इसलिये चतुःसूत्री को समस्त षांकर-भाश्य का सार कहना चाहिये। वादराय-कृत चार सूत्रों के षब्दों से तो षांकर-मत का पता नहीं चलता। वे सूत्र ये हैंः- (1) अथातो ब्रह्मजिज्ञासा-अब इसलिये ब्रह्म जानने की इच्छा है। (2) जन्माद्यस्य यतः-ब्रह्म वह है जिससे जगत् का जन्म, स्थिति तथा प्रलय होती है। (3) षास्त्रायोत्विात्-वह ब्रह्म षास्त्र की योनि है अर्थात् वेद ब्रह्म से ही आविर्भूत हुये है। (4) तत्तु समन्वयात्-ब्रह्म-कृत जगत् और ब्रह्म-प्रदत्त वेद में परस्पर समन्वय है। अर्थात् षास्त्र … Continue reading Advaitwaad Khandan Series 4 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

आर्य मंतव्य (कृण्वन्तो विश्वम आर्यम)