Advaitwaad Khandan Series 11: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

ग्यारहवाँ अध्याय

शंकर – सूक्तियाँ

यद्यपि शांकर  – भाश्य में मौलिक भूलें हैं तथापि जैसा हम पहले कह चुके हैं श्री शंकराचार्य महाराज के भाश्य मंे अनेक ऐसी सूक्तियां पाई जाती हैं जिन से वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति के उत्थान मंे बडी सहायता मिलती है । यदि मायावाद, छायावाद, स्वप्नवाद, ब्रह्मोकवाद, जीव ईष्वर अभेद वाद, प्रकृति – विरोधवाद को छोड दिया जाय या आँख से ओझिल कर दिया जाय तो शांकर  – भाश्य अर्णव मंे बहुत से रत्न हैं जो वेद तथा वैदिक ग्रन्थों से मथ कर ही निकाले गये हैं । उनसे पाठकों को बहुत लाभ हो सकता है । हम यहाँ कुछ नमूले के तौर पर देते हैं:-

(1)

वेदस्य हि निपेक्ष स्वार्थे प्रामाण्यं रवेरिति रूप विशये ।

(2।1।1 पृश्ठ 182)

वेद स्वतः प्रमाण है । इसके प्रमाणत्व में किसी अन्य को नहीं । जैसे सूय्र्य की रूप विशय में ।

(2)

ब्रह्म जिज्ञासा के लिये चार बातें चाहियेंः-

(अ) नित्यानित्य वस्तु विवेकः

नित्य और अनित्य की पहचान!

(आ) इहामुत्रार्थभोगविरागः ।

लोक और परलोक के भोग से विरक्ति!

(इ) षमदमादि साधन संपत् ।

षम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान रूपी छः मानसिक वृत्तियां ।

(ई) मुमुक्षुत्व ।

मोक्ष की इच्छा !

(3)

(1।1।1 पृश्ठ 5)

महतः ऋग्वेदादेः षास्त्रस्यानेकविद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थविद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म । नहीद्रषस्य षास्त्रस्यग्र्वेदादिलक्षणस्य सर्वज्ञ गुणान्वितस्य सर्वज्ञादन्यतः संभवोस्ति ।

(1।2।3 पृश्ठ 9)

ऋग्वेद आदि बडे षास्त्र हैं । उनमंे अनेक विद्यायें हैं । दीपक के समान वे सब अर्थों के द्योतक हैं । ऐसे सर्वगुण सम्पन्न षास्त्रों का प्रकाष सर्वज्ञ ईष्वर के सिवाय और किसी से नहीं हो सकता ।

(4)

तच्च सम्îग् ज्ञानमेकरूपं वस्तुतन्त्रत्वात् । एकरूपेण ह्यवस्थितो योऽर्थः स परमार्थ । लोके तद्विशयं ज्ञानं सम्यग्ज्ञान मित्युच्यते यथाग्निरूश्ण इति ।

(षां॰ भा॰ 2।1।11 पृश्ठ 194)

जो ज्ञान एक रूप रहे वह सम्यक् हैं, क्यांेकि वह वस्तु के आश्रित् है । परमार्थ वही है जो एक रूप में स्थित रहे, जैसे अग्नि की उश्णता ।

(5)

ध्यानं चिन्तनं यद्यपि मानसं तथापि पुरूशेण कर्तुमकतु मन्यथा वा कत्तुं षक्यं, पुरूशतन्त्रत्वात् । ज्ञानं तु प्रमाणजन्यं प्रमाणं च यथाभूत वस्तु विशयमतो ज्ञानं कर्तुमकर्तुमन्यथावा कत्र्तुमषक्य केवलं वस्तु तन्त्रमेव तत् ।

(1।1।4 पृश्ठ 18)

ध्यान यद्यपि मानस व्यापार है तो भी वह पुरूश के अधीन है, करे, न करे, या अन्यथा करे । ज्ञान प्रमाण जन्य है प्रमाण वस्तु विशय के आश्रित है । इसलिये ज्ञान मंे करने, न करने, या उल्टा करने का प्रष्न नहीं । वह वस्तु के आधीन है

(6)

ज्ञानस्य नित्यत्वे ज्ञानक्रियां प्रति स्वातंत्र्यं ब्रह्मणो हीयते । अथानित्यं तदिति ज्ञानक्रियाया उपरमेतापि ब्रह्म, तदा सर्वज्ञान षक्तिमत्त्वेनैव सर्वज्ञत्वमापतति ।

(1।1।5 पृश्ठ 25)

यदि ब्रह्म सर्वज्ञ है और उसका ज्ञान नित्य है तो संसार मंे जो क्रियायें हुआ करती हैं उनके जानने के लिये ब्रह्म स्वतन्त्र न रहेगा । क्यांेकि उसका ज्ञान बदलेगा नहीं । और यदि वह ज्ञान अनित्य है तो ब्रह्म कभी ज्ञान क्रिया से उपरत भी हो जायगा । अर्थात् ब्रह्म कभी ज्ञान क्रिया को नहीं भी करेगा । इसलिये यही मानना चाहिये कि ब्रह्म की सर्वज्ञता से ‘‘सर्वज्ञान – षक्ति’’ ही अभिप्रेत है ।

(7)

‘‘प्राण’’ के चार अर्थ:-

(1) वायुमात्र (2) देवतात्मा (3) जीव (4) परंब्रह्म ।

(1।1।28 पृश्ठ 56)

(8)

न ह्यन्यत्र परमात्मज्ञानाद्धिततम प्राप्तिरस्ति ।

(1।1।28 पृश्ठ 57)

परमात्मा के ज्ञान से इतर और कोई परम हितकारी प्राप्ति नहीं है ।

(9)

क्रतुः संकल्पो ध्यानमित्यर्थः ।

(1।2।1 पृश्ठ 63)

‘क्रतु’ का अर्थ है संकल्प या ध्यान!

(10)

यद्यपि अपौरूशेये वेदे वक्तुरभावान् नेच्छार्थः संभवति तथा प्युपादानेन फलेनोपचर्यते । लोके हि यच्छब्दाभिहितमुपादेयं भवति तद् विवक्षितमित्युच्यते, यदनुपादेयं तदविवक्षितमिति तद् वद् वेदेप्युपादेयत्वेनाभिहितं

विवक्षितं भवति इतरदविवक्षितम् ।

(1।2।2 पृश्ठ 64-35)

वेद अपौवुशेय है । कोई उसका वक्ता नहीं । इसलिये कहने की इच्छा का प्रष्न नहीं उठता । तथापि उपादान फल के उपचार से ऐसा कहा जाता है । लोक मंे देखते हैं कि जो उपादेय है उसको विवक्षित (कहने योग्य) कहते हैं । जो उपादेय नहीं उसको ‘अविवक्षित’ । ऐसे ही वेद मंे भी है ।

(11)

नन्वोष्वरोपि षरीरे भवति । सत्यम् । षरीरे भवति न तु षरीर एव भवति, ‘ज्यायान् पृथिव्या ज्यायानन्तरिक्षात्’ ‘आकाषवत् सर्वगतश्च नित्यः’ इति च व्यापित्वश्रवणात् । जीवस्तु षरीर एव भवति, तस्य भोगाधिश्ठानाच्छरीरादन्यत्र वृत्त्यभावात् ।

(षां॰ भा॰ 1।2।3 पृश्ठ 66)

जीव को ‘षरीर’ (षरीर वाला) कहते हैं । ईष्वर को नहीं । इस पर प्रष्न करते हैं कि जब ईष्वर भी षरीर मंे रहता है तो वह भी षारीर क्यों नहीं? इसका उत्तर देते हैं । यह ठीक है कि ईष्वर षरीर में है । परन्तु ‘षरीर मंे ही है’ ऐसा नहीं। श्रुति में कहा है कि ‘वह पृथ्वी से भी बडा है’, । अन्तरिक्ष से भी बडा है । आकाष के समान व्यापक है नित्य है । इसके विरूद्ध जीव केवल षरीर में ही है । षरीर से बाहर नहीं । षरीर ही उसके भोग का स्थान है । षरीर से बाहर उसकी वृत्ति नहीं । अतः जीव ही ‘‘षारीर’’ है । ईष्वर नहीं ।

(12)

कर्मफल भोगस्य प्रतिशेवकमेतद् दर्षनं, तस्य संनिहितत्वात् । न विकारसंहारस्य प्रतिशेधकं, सर्ववेदान्तेशु सृश्टि स्थिति संहार कारणत्वेन ब्रह्मणः प्रसिद्धत्वात् ।

(1।2।9 पृश्ठ 70)

ईष्वर कर्मफल का भोक्ता नहीं । इसका यह अर्थ नहीं कि ईष्वर सृश्टि मंे विकार और संहार भी नहंी करता । सब वेदान्त मंे प्रसिद्ध है कि ईष्वर स्त्रश्टि, स्थिति और संहार करने वाला है ।

(13)

विष्वश्चायं नरष्चेति, विष्वेशां वायं नरः, विष्वे वा नरा अस्येति विष्वानरः परमात्मा, सर्वात्मत्वात् । विष्वानर एव वैष्वानरः ।

अग्नि षब्दोपि अग्रणीत्वादि योगाश्रयेण परमात्म विशय एव भविश्यन्ति ।

(1।2।28 पृश्ठ 91)

परमात्मा को वैष्वानर कहते हैं क्योंकि वह विष्व नर या विष्व का नर है । या सब नर उसी के हैं ।

अग्रणी होने से अग्नि भी ईष्वर का ही नाम है ।

(देखो स्वामी दयानन्द का सत्यार्थ प्रकाष समुल्लास पहला) ।

(14)

सर्वाणीन्द्रियकृतानि पापानि वारयतीति सा वरणा, सर्वाणीन्द्रियकृतानि पापानि नाषयतीति सा नासीति ।

भ्रुवोघ्राणस्य च यः संधिः स एश द्यौलोकस्य परस्य च संधि र्भवति ।

(1।2।32 पृश्ठ 93)

जो पापों को वारे वह वरणा, जो उनको नासे वह नासी । यह ‘वाराणसी’ की व्युत्पत्ति है । नाक के ऊपर भौओं के बीच का भाग ईष्वर के ध्यान होने से ‘वाराणसी’ है । आजकल ‘वाराणसी’ काषी या बनारस नगर का नाम है ।

(15)

नहीदमतिगम्भीरं भावयाथत्म्यं मुक्तिनिबन्धनमागममन्तरे-णोत्प्रेक्षितुमपि षक्यम् रूपाद्यभावाद्धि नायमार्थः प्रत्यक्षगोचरः, लिंगाद्यभावाच्च नानुमानादीनामिति चावोचाम ।

(2।1।11 पृश्ठ 193)

मुक्ति का विशय अति गंभीर है । इसलिये वेद से ही इसका ज्ञान होता है । मुक्ति में न तो रूप आदि है कि प्रत्यक्ष से ज्ञान हो सकता । न लिंग आदि हैं कि अनुभव आदि से ज्ञान हो सके ।

(16)

यद्यपि अस्माकमियं जगद्विम्बविरचना गुरूतरसंरम्भेवाभाति तथापि परमेष्वरस्य लीलैव केवलेयम् । अपरिमित षक्तित्वात् ।

(2।1।33 पृश्ठ 217)

यद्यपि जगत् की रचना हमको बडी भारी तैय्यारी का फल प्रतीत होती तो भी ईष्वर के लिये यह लीला के समान है क्योंकि ईष्वर की षक्ति अपरिमित है ।

(17)

यथापि पर्जन्यो व्रीहि यवादि सृश्टौ साधारणं कारणं भवति, व्रीहियवादि वैशम्ये तु तत्तद् बीजगतान्येवासाधारणानि सामथ्र्यानि कारणानि भवन्ति, एवमीष्वरो देवमनुश्यादिसृश्टौ साधारणं कारणं भवति । देवमनुश्यादि वैशम्येतु तत्तज् जीवगतान्येवा साधारणानि कर्माणि कारणानि भवन्ति ।

(2।1।34 पृश्ठ 217-218)

जैसे चावल जौ आदि के उत्पत्ति मंे वर्शा साधारण कारण है और उनका भेद उनको बीजों के भेद के कारण है इसी प्रकार देव मनुश्य आदि की उत्पत्ति मंे ईष्वर सामान्य कारण है और उनके भेद उन – उन जीवों के भिन्न – भिन्न कर्मों के कारण हैं ।

(18)

‘पुर्यश्टकेन लिगंेन प्राणाद्येन स युज्यते । तेन बद्ध वै बन्धो मोक्षो मुक्तस्य तेन च ।’

षरीर के आठ बन्धन हैं । इनसे बद्ध होता है । और इनसे जो मुक्त है वही मुक्त है ।

(1) प्राणादि पच्चक्रम् ।

प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान ।

(2) भूतसूक्ष्म पच्चक्रम् ।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाष ।

(3) ज्ञानेन्द्रिय पच्चक्रम् ।

आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा ।

(4) कर्मेन्द्रिय पश्चक्रम् ।

हाथ, पैर, वाणी, पायु, उपस्थ ।

(5) अन्तःकरण चतुश्टय ।

मन, बुद्धि, चित्त, अंहकार ।

(6) अविद्या ।

(7) काम वासना ।

(8) कर्म ।

(2।4।3 पृश्ठ 311)

(16)

अन्नंषब्दश्चोपभोगहेतुत्व सामान्यादनन्नेऽप्युपचयमाणो द्रष्यते । यथा विषोऽत्रं राज्ञां पषवोऽत्र विषामिति ।

(3।1।7 पृश्ठ 329)

‘अन्न’ षब्द सब उपभोग की सामग्री के अर्थों में भी आता है । केवल खाद्य पदार्थ के अर्थ में ही नहीं । जैसे प्रजा राजा का अन्न है और पषु प्रजा के अन्न हैं ।

(20)

यथेह क्षुधितावाला मातर पर्युपासते, एवं सर्वाणि भूतान्यग्निहोत्रमुपासते ।

(3।3।40 पृश्ठ 414)

जैसे भूखे बालक माता को चाहते हैं ऐसे ही सब भूत अग्निहोत्र को चाहते हैं । अर्थात् बिना अग्निहोत्र के पंचभूत अपूर्ण रहते हैं । अग्निहोत्र पूरक हैं । उससे क्षीण अंष की पूर्ति हो जाती है ।

(21)

यदा प्रक्रान्तस्य विद्यासाधनस्य कश्चित् प्रतिबन्धो न क्रियते उपस्थितविपाकेन कर्मान्तरेण तदेहैव विद्योत्पद्यते, यदा तु खलु तत् प्रतिबन्धः क्रियते तदामुत्रेति ।

(3।4।51 पृश्ठ 457)

यदि किसी अन्य कर्म का फल बाधक न हो । तो विद्या का फल इसी जन्म मंे मिलता है । और यदि कोई प्रतिबन्ध आ जाय तो दूसरे जन्म में ।

(22)

उपासनं नाम समानप्रत्यय प्रवाहकारणं न च तद् गच्छते । धावतो वा संभवति गत्यादीनां चित्तविक्षेपकत्वात् । तिश्ठतोऽपि देहधारणे व्यापृतं मनोन सूक्ष्मवस्तु निरीक्षणक्षमं भवति । षयानस्याप्यकस्मादेव निद्रयाभिभूयेत । आसीनस्य त्वेवं जातीयको भूयान् दोशः सुपरिहर इति ।

 

(4।1।7 पृश्ठ 470)

एक ही प्रत्यय का प्रवाह करना उपासना है । उपासना चलते या दौडते नहीं हो सकतीं । क्योंकि चलने फिरने से चित्त विक्षिप्त होता है । खडे होने में भी मन षरीर के रोके रखने में व्यग्र रहता है अतः सूक्ष्म वस्तु का निरीक्षण नहीं कर सकता । लेटने में निद्रा की संभावना रहती है । इसलिये बैठ कर ही उपासना करने में दोशों से बचत है ।

(23)

नहि वयं कर्मणः फलदायिनी षक्तिमवजानीमहे । विद्यत एव सा, सा तु विद्यादीना कारणान्तरेण प्रतिवध्यत इति बदामः ।

(4।1।13 पृश्ठ 473)

हम कर्म की फलदायिनी षक्ति का अनादर नहीं करते । वह तो होती ही है । परन्तु हमारा तो इतना कहना है कि वह विद्या आदि अन्य कारणों से दब जाती है ।

नोट – इसी का नाम कर्मक्षय है ।

(24)

स्मरति ह्यापस्तम्बः – तद् यथाम्रेफलार्थे निमिते छायागन्धावनूत्पद्येते एव धर्म चर्यमाणमर्था अनूत्पद्यन्ते । इति ।

(4।3।14 पृश्ठ 500)

आप स्तम्ब का कथन है कि जैसे फल के लिये आम लगाओ तो छाया और गन्ध ऊपर से लाभ में मिलती हैं इसी प्रकार धर्म का आचरण करने से अर्थ – लाभ तो ऊपर से हो जाता है ।

(25)

जगदुत्पत्यादि व्यापारं वर्जयित्वाऽन्यदणिमाद्यात्म कमैष्वर्यं मुक्तनां भवितुमर्हति जगद्व्यापारस्तु नित्यसिद्धस्यैतेश्वरस्य ।

(4।4।17 पृश्ठ 510)

अणिमा आदि षक्तियाँ तो मुक्त जीवों को भी प्राप्त हो जाती हैं परन्तु जगत् का रचना आदि तो नित्य सिद्ध ईष्वर के ही वष में है । अर्थात् मुक्त जीव सृश्टि की उत्पत्ति नहीं कर सकते ।

नोट – इससे ज्ञात होता है कि मुक्त जीव जिन्होंने अविद्या से छूट कर मुक्ति को प्राप्त किया है ब्रह्म नहीं हुये । वे जीव ही हैं, और नित्यसिद्ध ब्रह्म अलग है जो सृश्टि करता है । यहाँ शंकर स्वामी ने ‘ईष्वर’ षब्द अपर ब्रह्म के लिये प्रयुक्त नहीं किया जो मायावष सृश्टि उत्पत्ति करता है । शांकर  मत में ईष्वर नित्य सिद्ध नहीं । ब्रह्म ही नित्य सिद्ध है ।

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