Advaitwaad Khandan Series 7 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

शंकराचार्य और पौराणिक मत

यह एक प्रसिद्ध बात है कि पौराणिक मत वैदिक धर्म का एक बिगडा हुआ रूपान्तर है । मूर्ति पूजा, देवी देवते, जाति पांति के बंधन इत्यादि बोसियों बुराइयाँ जिन्हांेने हिन्दू जाति को नश्ट कर डाला वैदिक धर्म में विहित न थीं । पुराणों मंे इनका समावेष हो गया । वेदान्त दर्षन आदि में पुराण तथा पौराणिक सिद्धान्तों के विशय में कुछ भी नहीं पाया जाता । परन्तु षंकर स्वामी के समय मंे वातावरण पौराणिक बातों से भरा हुआ था । अतः उसके प्रभाव मंे आकर षंकर स्वामी ने अपने भाश्य में भी उन बातों को तद्वत् मान लिया । वह वैदिक धर्म और पौराणिक मत में कोई विवेक नहीं कर सके । हम यहाँ कुछ उदाहरण देते हैं:-

(1)

हृद्यपेक्षया तु मनुश्याधिकारत्वात् ।         (1।3।25)

इस सूत्र का सम्बन्ध ‘अंगुश्ठमात्रः पुरूशो मध्य आत्मनि तिश्ठति’ से है (षां॰ भा॰ 1।3।24) यहाँ प्रष्न उठा कि ‘अंगूठे’ तो भिन्न – भिन्न प्राणियों के भिन्न – भिन्न होंगे । इस पर उत्तर देते हैं:-

‘‘मनुश्याधिकारत्वादिति । षास्त्र ह्यविषेश प्रवृत्तमपि मनुश्यानेवाधिकरोति । षक्तत्वात्, अर्थित्वात्, अपर्युदस्तत्वात्, उपनयनादि षास्त्राच्च ।’’

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 119)

अर्थात् मनुश्य को ही षास्त्र पढने का अधिकार है । इसलिये मनुश्य के अंगूठे से ही नापना चाहिये । इसके आगे का सूत्र है –

‘‘तदुपर्यपि बादरायणः संभवात्’’ (1,3,26)

इसका सीधा अर्थ यह है कि ‘अगुंश्ठमात्र’ से भी ब्रह्म ऊपर है । अर्थात् वह सब प्राणियों के भीतर है । परन्तु शंकराचार्य जी ने ‘‘देवादयः’’ अर्थात् पौराणिक देवताओं का अर्थ लिया है जिसका मूल सूत्र में कुछ उल्लेख नहीं । इसकी युक्ति देते हैंः-

तत्राथित्वं तावन् मोक्ष विशयं देवादीनामपि संभवति विकार विशय विभूत्यनित्यवालोचनादि निमित्तम् ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 120)

अर्थात् देवतों को भी मोक्ष की इच्छा है । क्योंकि संासारिक विकार, विशय, विभूति आदि अनित्य हैं ।

तथा सामथ्र्यमपि तेशां संभवति, मंत्रार्थवादेतिहास पुराण लोकेभ्यो विग्रहवत्त्वाद्यवगमात् ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 120)

पुराण आदि में बताया है कि देवतों में मूर्तिमान् होने की भी षक्ति है ।

देवतों को उपनयन आदि संस्कारों की आवष्यकता नहीं । क्यों?

उपनयन तो वेद पढने के लिये होता है । देवता तो वेदों को जानते ही हैं ।

अपि चैशां विद्याग्रहणार्थ ब्रह्मचर्यादि दर्षयति ।

अर्थात् देवतों को विद्याग्रहण आदि के लिये ब्रह्मचर्यादि आश्रमों के पालने का भी उपदेष है ।

इन सबसे विदित होता है कि श्री शंकराचार्य जी के देवतों के विशय में कितने अनिष्चित विचार थे । एक ओर तो देवताओं को स्वयं ही वेदों का ज्ञान है (स्वयं प्रतिभातवेदत्वात्) दूसरी ओर उनको पढने और ब्रह्मचर्य रखने की भी आवष्यकता है । शंकराचार्य जी के देवते ‘अमर’ नहीं है । उनको मोक्ष की अभिलाशा है । वह ‘मोक्ष’ भी षंकर जी विचार नहीं करते ? मनुश्यों के बन्धमोक्ष! और देवों के बन्ध-मोक्ष में क्या अन्तर है । इत्यादि इत्यादि ।

क्या इन्द्रादि देव व्यक्तियाँ हैं या जातियाँ । यह भी निष्चित नहीं ।

स्थानविषेशसंबन्धनिमित्ताष्चेन्द्रादिषब्दाः     सेनापत्यादि षब्दवत् ।

(षां॰ भा॰ 1।3।28 पृश्ठ 123)

जैसे सेनापति आदि किसी व्यक्ति विषेश के नाम नहीं किन्तु पदों के नाम हैं ऐसे ही इन्द्र आदि भी ।

तथा देवादिव्यक्ति प्रभवाभ्युपगमेऽप्याकृतिनित्यत्वान्न कश्चिद् वस्वादिषब्देशु विरोध इति द्रश्टव्यम् ।

(षां॰ भा॰ 1।3।28 पृश्ठ 133)

वादि व्यक्तियों का तो जन्म होता है । परन्तु आकृति तो नित्यादि देवों की आकृति से सम्बन्ध है । व्यक्ति से नहीं ।

यहाँ देवों को मनुश्यों की ही एक जाति लिया गया । वे अमर नहीं रहे । वह व्यक्ति भी नहीं रहे केवल पदवियों के नाम रह गयें । इससे देवतापन ही नश्ट हो गया । यह है पौराणिक देवतों की लीला जिसको श्री षंकर स्वामी ने बिना विष्लेशण किये मान लिया है ।

(2)

सत्यपि सर्वव्यवहारोच्छेदिनि महाप्रलये परमेष्वरानुग्रहा दीष्वराणां हिरण्यगर्भादीनां कल्पान्तरव्यवहारानुसंधानोपपत्तेः ।

(षां॰ भा॰ 1।3।30 पृश्ठ 129)

ईष्वर के अनुग्रह से हिरण्यगर्भ आदि का एक कल्प से दूसरे कल्प तक व्यवहार जारी रहता है ।

यद्यपि महाप्रलय में व्यवहार का उच्छेद हो जाता है तो भी यहाँ ब्रह्म से इतर हिरण्यगर्भ आदि देवताओं की कल्पना की गई है जो वेदों के मत के विरूद्ध है ।

(3)

तथापि प्राणित्वाविषेशेऽपि मनुश्यादिस्तम्बपर्यन्तेशु ज्ञानैष्वर्यादि प्रतिबन्धः परेण परेणभूयान्भवन् द्रष्यते, तथा मनुश्यादिश्वेव हिरण्यगर्भपर्यन्तेशु ज्ञानैष्वर्याद्यभिव्यक्तिरपिपरेण परेण भूयसीभवति ।

(षां॰ भा॰ 1।3।30 पृश्ठ 129)

जिस प्रकार यद्यपि कीट पतंग आदि से लेकर मनुश्य तक सब में प्राण हैं तो भी ज्ञान की अवनति का तारतम्य है इसी प्रकार मनुश्यादि से लेकर हिरण्यगर्भ पर्यन्त तक ज्ञान की वृद्धि का तारतम्य है ।

यहाँ यह मान लिया गया कि देवता केवल जीवों की ही उत्कृश्ट योनियाँ हैं ।

(4)

स्मर्यते च – ‘‘आदित्यः पुरूशोभूत्वा कुन्तीमुपजगाम ह’’ इति ।

(षां॰ भा॰ 1।3।33 पृश्ठ 133)

स्मृति मंे कहा है कि ‘सूय्र्य ने पुरूश का रूप धारण करके कुन्ती के साथ प्रसंग किया ।’

(5)

तथा च व्यासादयो देवादिभिः प्रत्यक्ष व्यवहरन्तीति स्मर्यते ।

(षां॰ भा॰ 1।3।34 पृश्ठ 135)

स्मृति मंे लिखा है कि व्यास आदि देवताओं से प्रत्यक्ष बात करते थे ।

(6)

तस्मादुपपन्नो मन्त्रादिभ्यो देवादीनां विग्रहवत्त्वाद्यवगमः ।

(षां॰ भा॰ 1।3।33 पृश्ठ 135)

इसलिये मन्त्रादि से सिद्ध है कि देव मूत्र्तिमान् होेते हैं ।

(7)

एवं प्राप्ते ब्रूमः – न षूद्रसयाधिकारः, वेदाध्ययनाभावात् । अधीतवेदो हि विदितवेदार्थो वेदार्थेश्वधिक्रियते । न च षूद्रस्यवेदाध्ययनमस्ति, उपनयनपूर्वकन्वाद् वेदाध्ययनस्य । उपनयनस्य च वर्णत्रयविशयत्वात् । तत्त्वर्थित्वं न तदसति सामर्थोऽधिकार कारणं भवति । सामथ्र्यमपि न लौकिकं केवलमधिकार कारणं भवति । षास्त्रीयेऽर्थे षास्त्रीयस्य सामथ्र्यस्यापेक्षितत्वात् ।

(षां॰ भा॰ 1।3।34 पृश्ठ 136)

‘‘हमारा उत्तर है कि षूद्रों को अधिकार नहीं । क्यांेकि उन्होंने वेद नहीं पढा । जिसने वेद पढा हो और वेद को समझता हो वही वैदिक कर्मों का अधिकारी है । षूद्र वेद नहीं पढता । वेद पढने के लिये उपनयन आदि संस्कार चाहिये और उपनयन आदि तीन उच्च वर्णों का ही होता है । जब तक सामथ्र्य न हो केवल इच्छामात्र से किसी को अधिकार नहीं हो सकता । सामथ्र्य भी यदि केवल लौकिक हो तो पय्र्याप्त नहीं हैं, षास्त्रीय बातों मंे षास्त्रीय सामथ्र्य चाहिये’’ ।

यहाँ षंकर स्वामी षूद्र को अधिकार नहीं देते । यह वेद के विरूद्ध है । ‘यथेमांवाचं’ इति आदि मन्त्र मंे वेद पढने की आज्ञा सबको है ।

नोट – इस सूत्र में कोई ऐसा षब्द नहीं जिससे षूद्र का वेद पढने का अनधिकार पाया जावे । क्यांेकि इसी सूत्र के भाश्य में षूद्र की व्युत्पत्ति की हैः-

षुचमभिदुद्राव, षुचावाभिदुद्रवे ।

जो षोक से भर जाय, या षोक को भर ले ।

(8)

भवति च वेदोच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे षरीरभेद इति ।

(षां॰ भा॰ 1।3।38 पृश्ठ 138)

षूद्र वेद का उच्चारण करे तो जीभ छेद दी जाय, वेद को धारण करे तो षरीर का भेद किया जाय ।

षंकर जैसे अद्वैतवादी के लिये यह सिद्धान्त कैसे सह्य हुआ? पौराणिक मत के प्रभाव से ही ।

(9)

यदा कर्मसु काम्येशु स्त्रियं स्वप्नेशु पष्यति समृद्धि तत्र जानी-यात् तस्मिन् स्वप्ननिदर्षने । (छा॰ 5।2।9)

(षां॰ भा॰ 2।1।14 पृश्ठ 199)

यदि काम्य कर्म करते हुये स्वप्न में स्त्री देखे तो समझ ले कि काम में अवष्य सफलता होगी ।

तथा प्रत्यक्षदर्षनेशु केशुचिदारिश्टेशु जातेशु ‘न चिरमिव जीविश्यतीति विद्यात्’ इत्युक्त्वा ‘अथ स्वप्नाः पुरूशं कृश्णं कृश्णदन्तं पष्यति स एनं हन्ति’ इत्यादिना तेन तेनासन्येनैव स्वप्नदर्षनेन सत्यं मरणं सूच्यत इति दर्षयति ।

(षां॰ भा॰ 2।1।14 पृश्ठ 199)

यदि स्वप्न मंे कोई काले तथा कालेदांत वाले पुरूश को देखे कि मार रहा है तो अवष्य ही समझे कि मृत्यु निकट है ।

प्रसिद्धं चेदं लोकेऽन्वय व्यतिरेक कुषलानामीद्रषेन स्वप्न दर्षनेन साध्वागमः सूच्यत ईद्रषेनासाध्वागम इति ।

(षां॰ भा॰ 2।1।14 पृश्ठ 199)

लोक में प्रसिद्ध है कि ऐसा स्वप्न षुभ होता है और ऐसा अषुभ ।

नोट – षां॰ भा॰ 3।2।4, पृश्ठ 345-46 मंे भी ऐसी ही बातें दी हुई हैं ।

(10)

यथा लोके देवाःपितर ऋशयइत्येवमादयो महाप्रभावाष्चेतना अपि सन्तोऽनपेक्ष्यैव किंचिद्वाह्यं साधनमैश्वर्य विषेशयोगादमिध्यानमात्रेण स्वत एव बहूनि नानासंस्थानानि षरीराणि प्रासादादीनि च रथादीनि च निर्मिमाणा उपलभ्यन्ते मन्त्रार्थवादेतिहास पुराण प्रामाण्यात् ।

(षां॰ भा॰ 2।1।25 पृश्ठ 211)

जैसे लोक मंे देव, पितर, ऋशि आदि महा प्रभावषाली व्यक्ति चेतन होते हुये भी बिना किसी बाहरी साधन की अपेक्षा के ध्यान मात्र से स्वयं ही बहुत से भिन्न – भिन्न संस्थान, षरीर राजमहल आदि तथा रथ आदि को बनाते पाये गये हैं । मन्त्र, अर्थवाद, इतिहास, पुराण आदि इस बात में प्रमाण हैं ।

हमारी आलोचना – सूत्र में ध्यान आदि से बिना साधनों के महल, रथ आदि बनाने का कोई प्रमाण नहीं है । पौराणिक कल्पना मात्र है । श्री षंकर स्वामी का भी अपना अनुभव नहीं है । अन्यथा पुराण आदि की साक्षी न देते ।

सूत्र का वास्तविक अर्थ यह हैः-

देवादिवदपि लोके ।         (2।1।25)

लोक मंे अग्नि, वायु आदि देव (भौतिक देव) बिना किसी अन्य साधन के ही कार्य करते हैं । जैसे दूध में गाय की चेतन षक्ति काम करती है इसी प्रकार इन भौतिक देवों में ईष्वरीय षक्ति काम करती है । बाहर के साधन की आवष्यकता नहीं ।

‘लोके’ षब्द मंे स्पश्ट है कि किसी ऐसी चीज की ओर संकेत नहीं है जो लोक में देखी न जाती हो और जिसकी साक्षी के लिये पुराणों के पन्ने पलटने पडें । ध्यान से महल बनते न हम देखते हैं न श्री षंकर ने देखे थे और न श्री षंकर ने स्वयं ध्यान से महल बना दिये । यह सूत्र वस्तुतः उस सिद्धान्त के खण्डन में है कि अग्नि स्वभाव से जलता है, पानी स्वभाव से बहता है, ईष्वर की क्या आवष्यकता? यदि ईष्वर के द्वारा यह काम करते होते तो ‘उपसंहार’ दिखाई पडता । जैसे कुम्हार घडा बनाने के लिये चाक आदि का प्रयोग करता है । सूत्रकार ने दूध का द्रश्टान्त (2।1।24) देकर बताया कि वहां भी चेतन षक्ति बिना उपंसहार के काम करती है । और अग्नि आदि देवों में भी उपसंहार की आवष्यकता नहीं पडती ।

(11)

अपि च सप्त नरका रौरवप्रमुखा दुश्कृतफलोपभोगभूमित्त्वेन स्मर्यनते पौराणिकैः । ताननिश्टादिकारिणः प्राप्नुवन्ति ।

(षां॰ भा॰ 3।1।15 पृश्ठ 337)

पुराणों मंे दुश्कर्मिंयों के भोग के लिये सात रौरव आदि नरक बताये गये हैं । फिर चन्द्रलोक में उनके जाने की क्या आवष्यकता है ।

तेश्वपि सप्तसु नरकेशु तस्यैव यमस्याधिश्टातृत्व व्यापाराभ्यु पगमादविरोधः । यम प्रयुक्ता हिते चित्रगुप्तादयोऽधिश्ठातारः स्मर्यनते ।

(षां॰ भा॰ 3।1।16 पृश्ठ 337)

उन सात नरकों में भी यम ही मुख्य अधिश्ठाता है । चित्रगुप्त आदि तो उसके बनाये हुये अभिद्रश्टा (ैनचमतपदजमदकमदजे) मात्र हैं ।

हमारी आलोचना – सूत्रों मंे न तो यम का नाम है, न चित्रगुप्त का । और न नरकों का । केवल ‘सप्त’ षब्द से सात नरक नहीं लिये जा सकते । इससे तो श्री स्वामि हरिप्रसाद का भाश्य अधिक युक्ति संगत है देखो:-

सप्तकिल चक्षुरादयः प्राणाः सप्तर्शय इह निगद्यन्ते ‘‘प्राणा वा ऋशयः’’ (षत॰ 6।1।1।1) ते चास्मिन शाट्कौशिके जीवात्म षरीरे यथा स्नानं प्रति धीयन्ते । यत्रैतच्छु ते भवति ‘‘सप्त ऋशयः प्रतिहिताः षरीरे, सप्तरक्षन्ति सदमप्रमादम् । सप्तापः स्वपतो लोकमीयुस्तत्र जागृतो अस्वप्रजौ सत्रसदौ च देवौ ।’’

(यजु॰ 34।55)

अर्थात् चक्षु आदि सात प्राण हैं । उल्लेख षतपथ और यजुर्वेद में हैं ।

(12)

अपि च स्मर्यते लोके । द्रोणधृश्टधुम्न प्रभृतीनां सीता द्रौपदी प्रभृतीनां चायेनिजत्वाम् । तत्र द्रोणादीनां योशिद् विशयैकाहुतिर्नास्ति । धृश्टद्युम्नादीनां तु योशित् पुरूश विशये द्वे अप्याहुती न स्तः । यथा च तत्राहुतिसख्यानादरो भवत्येवमन्यत्रापि भविश्यति । बलाकाप्यन्तरेणैव रेतः । सेकं गर्भं धत्त इति लोकरूढिः ।

(षां॰ भा॰ 3।1।19 पृश्ठ 338-339)

लोक मंे प्रसिद्ध है कि द्रोण, धृश्ट द्युम्न, सीता द्रौपदी आदि अयोनिज हैं (योनि से उत्पन्न नहीं हुये) । द्रोण आदि के विशय मंे तो एक आहुति का अभाव था (जो पुरूश स्त्री की योनि मंे गर्भ के रूप में देता है) । और धृश्टद्युम्न आदि के विशय में दो आहुतियों का अभाव था (अन्न द्वारा जो पुरूश के षरीर मंे छोडी जाती है अर्थात् अन्न से वीर्य बनता है) । जैसे यहां पांच आहुतियों का नियम नहीं है वैसे अन्यत्र भी समझना चाहिये । लोक में प्रसिद्ध है कि बलाकी (सारसी) बिना नर के संग के गर्भ धारण करती है ।

हमारी आलोचना – यह पुराणों की गप हैं । जैसे हजरत ईसा मसीह बिना बाप के उत्पन्न हुये । ‘अयोनिज’ उत्पत्ति भी होती है जैसे वैषेशिक दर्षन में आया है ‘‘सन्त्ययो निजाः’’ (वे॰ 4।2।11)

परन्तु यहाँ अमैथुनी सृश्टि की ओर संकेत हैं । सृश्टि के आरम्भ में बिना माता पिता के उत्पत्ति होती है । जूँ ,खटमल आदि में पहले मैल से ही पैदा हो जाते हैं । चार प्रकार की योनियाँ हैः-

जरायुज – (जैसे मनुश्य, भैंस,गाय आदि) जो जरायु से उत्पन्न होते हैं ।

अण्डज – (जैसे सांप, पक्षी आदि) यह अण्डांे से उत्पन्न होते हैं ।

स्वेदज – (जैसे जूँ, आदि) जो पसीने या षरीर के मल से उत्पन्न होते हैं ।

उöिज – बीरबहुट्टी आदि जो भूमि से फोड कर उत्पन्न हो जाती हैं ।

इनमें पहली दो ‘योनिज’ हैं और दूसरी दो ‘अयोनिज’ हैं । सृश्टि के आरम्भ मंे सभी अयोनिज होते हैं ।

(13)

ननु ‘नहिंस्यात् सर्वा भूतानि’ इति षास्त्रमेव भूतविशयां हिंसामधर्म इत्यवगमयति । बाढम् । उत्सर्गस्तु सः । अपवादः ‘अग्नीशोमीयं पषुमालभेत इति ।’

(षां॰ भा॰ 3।1।25 पृश्ठ 342)

पूर्व पक्ष – षास्त्र मंे लिखा है कि किसी की हिंसा मत करो, पषु योग में पषु की हिंसा होती है अतः वह कर्म अषुद्ध है ।

षं॰ स्वा॰ – वह उत्सर्ग है (सामान्यनियम), यह अपवाद है कि अग्नि – सोम के लिये पषु की आहुति दो । अपवाद अषुद्ध नहीं होता ।

षंकर स्वामी पूर्वमीमांसा का इतना खण्डन करने (देखो 1।2।4) के पष्चात् भी यज्ञ में पषु हिंसा को विहित मानते हैं ।

(14)

यथा प्राणिहिंसा प्रति शेधस्य पषुसंज्ञपनविधिना बाधः ।

(षां॰ भा॰ 3।1।16 पृश्ठ 337)

‘हिंसा न करनी चाहिये’ इस निशेध का वाध पषु यज्ञ से होता है । षंकर स्वामी यज्ञों में पषु – बध का निशेध नहीं करते । यद्यपि ऊपर की उक्ति पूर्व पक्ष में है परन्तु इसका खण्डन नहीं किया गया । इस आक्षेप सं॰ 12 से मिला कर पढिये । ‘अपवाद’ विहित क्यों समझा जावे? इस अपवाद ने तो लाखों प्राणियों का बध करा के बौद्ध जैसे अवैदिक धर्म को जन्म दिया ।

(15)

सर्वगतस्यापि ब्रह्मण उपलब्ध्यर्थं स्थानविषेशो न विरूध्यते, षालग्राम इव विश्णोरिति।

(षां॰ भा॰ 1।2।14 पृश्ठ 76)

सर्व व्यापक ब्रह्म का उपलब्धि के लिये एक कोई स्थान मान लेना विरोध नहीं है । जैसे षालग्राम की बटिया मंे विश्णु का ।

उपनिशदो या वेदों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है । यह पुराणों का प्रभाव है ।

(16)

यथा वा प्रतिमादिशु विश्ण्वादि बुद्धîध्यासः ।

(षां॰ भा॰ 3।3।9 पृश्ठ 382)

‘‘जैसे प्रतिमा आदि में विश्णु आदि बुद्धि का अभ्यास होता है’’ । यह पुराणों की बात है, उपनिशद् आदि मंे इनका उल्लेख नहीं ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *