Advaitwaad Khandan Series 5 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

वैषेशिक और शंकर स्वामी

वैषेशिक दर्षन वैदिक शट् दर्षनों में से एक है। परन्तु शंकर स्वामी ने उसको अर्द्ध वैनाषिक, तथा अषिश्ट माना है। क्योंकि वैषेशिक के स्पश्ट सिद्धान्त के समक्ष मायावाद या विवर्तवाद की स्थापना अत्यन्त कठिन है। इस अध्याय में शंकर स्वामी के षारीरक भाश्य के उस भाग की मीमांसा की जाती है जो वैषेशिक से संम्बन्ध रखता है।

(1)

परमाणुओं का पारिमाण्डल्य

पूर्वपक्ष-तत्रायं वैषेशिकाणामभ्युपगमः-कारणद्रव्यसमवायिनो गुणाः कार्यद्रव्ये समानजातीयं गुणान्तरमारभन्ते, षुक्लेभ्यस्तन्तुभ्यः षुक्लस्य पटस्य प्रसवदर्षनात् तद्विपर्यया दर्षनाच्च तस्माच्चेतनस्य ब्रह्मणो जगत्कारणतवेऽभ्यपगम्यमाने कार्यऽपि जगति चैतन्यं समवेयात्। तद्दर्षनात् तु न चेतनं ब्रह्म जगत् कारणं भवितुमर्हति।

(षां॰ भा॰ 2।2।11 पृश्ठ 228-229)

वैषेशिकों का यह सिद्धान्त है-कि जैसे गुण कारण द्रव्य में होते हैं वैसे ही कार्य द्रव्य में आते है। इसलिए यदि जगत् का (उपादान) कारण चेतन ब्रह्म को माना जाय तो कार्य जगत् में भी चेतनता होनी चाहिये। परन्तु ऐसा नहीं है इसलिये चेतन ब्रह्म जगत् का (उपादान) कारण नहीं है।

षं॰ स्वा॰ को उत्तर पक्ष-यथा परमाणोः परिमण्डलात् सतोऽणु ह्नस्वं च द्वîणुकं जायते महद्दीर्धं च त्र्चणुकादि न परि मण्डलम्। यथा वा द्वîणुकादणोह्र्नस्वाच्च सतो महद्दीर्घं च त्र्चणुकं जायते नाणुनोह्नस्वम्। एवं चेतनाद्ब्रह्मणोऽचेतनं जगज् जनिश्यते।

(षां॰ भा॰ 2।2।11 पृश्ठ 228-229)

जैसे परमाणु परिमण्डल होता है और इसका पारिमाण्डल्य द्व ्यणुक में नहीं जाता। उसमें पारिमाण्डल्य के स्थान में अणुत्व और ह्नस्वत्व होता है और जैसे द्व ्यणुकों का अणुत्व और ह्नस्तत्व चतुरणुकों में महत्व औद दीर्घत्व उत्पन्न हो जाय तो तुम्हारी क्या हानि?

इस उत्तर के समझने के लिये कुछ व्याख्या की आवष्यकता है जिसको स्थानाभाव से हम षांकर-वाक्यों के अनुवाद रूप में देते हे। वैषेशिक-कार की प्रक्रिया यह है। परमाणु सबसे छोटी और आरंभिक वस्तु है। उसमें केवल पारिमाण्डल्य (गुलाई) होती है। दो परमाणु मिल कर द्व ्यणुक में पारिमाण्डल्य नहीं होता। अणुत्व और ह्नस्वत्व होता है। द्व्यणुको से चतुरणुक बने तो उनमें अणुत्व तथा ह्नस्वत्व न रहा। महत्व और दीर्घत्व आ गया। इससे ज्ञात हुआ कि वैषेशिक के मत में भी कारण के गुण कार्य में नहीं गये। फिर वैषेशिक का षांकर मत के विरूद्ध यह आक्षेप असंगत है कि चेतन ब्रह्म से अचेतन जगत् कैसे उत्पन्न हो गया?

पूर्व पक्ष-विरोधिना परिमाणान्तरेणाक्रान्तं कार्यद्रव्यं द्वîणुकादि। इत्यतो नारम्भकाणि कारणगतानि पारिमाण्डल्यादीनि इत्यभ्युपगच्छामि। न तु चेतनाविरोधिना गुणान्तरेण जगत आक्रान्तत्वमस्ति; येन कारणगता चेतना कार्येचेतनान्तरं नारभेत। न ह्यचेतना नाम चेतनाविरोधी कष्चिद् गुणोऽस्ति। चेतनाप्रतिशेधमात्रत्वात्। तस्मात् पारिमण्डल्यादि वैशमयात् प्राप्नोति चेतनाया आरम्भकत्वमिति।        (षां॰ भा॰ 2।2।11 पृश्ठ 229-30)

द्व ्यणुक आदि कार्य द्रव्य दूसरे विरोधी परिमाण से आक्रांत (घिरे हुये) होते हैं, इसलिये कारण का आरंभक पारिमाण्डल्य कार्य में नही आता। ऐसा हमारा मत है। परन्तु जगत् किसी चेतना-विरोधी अन्य गुण से आक्रांत नहीं है जो कारणगत चेतना को कार्य में दूसरी चेतना उत्पन्न करने से रोक सके। अचेतना चेतन का विरोधी गुण तो है नहीं। चेतना का अभाव ही अचेतना है। इसलिये पारिमाण्डल्य का उदाहरण विशम है। चेतना से चेतना उत्पन्न होनी ही चाहिये।

षां॰ उत्तर पक्ष-(1) मैव मंस्थाः। यथा कारणें विद्यमानानामपि पारिमाण्डल्यादीनामनारम्भकत्वमेवं चैतन्यस्यापि, इति अस्यांषस्य समानत्वात्।

(पृश्ठ 230)

जैसे कारण का पारिमाण्डल्य कार्य में नहीं जाता उसी प्रकार कारण का चैतन्य भी कार्य में नहींे जाता। बात तो एक सी ही है। वैशम्य नहीं।

(2) न च परिमाणान्तराक्रान्तत्वं पारिमाण्डल्यादीनामनारम्भकत्वे कारणम्, प्राक् परिमाणान्तरारम्भात् पारिमाण्डल्यादीनामारम्भ्कत्वोपपत्तेः। आरव्धमपि काय्य द्रव्यं प्राग् गुणांरभात् क्षण मात्रगुणं तिश्ठति इत्यभ्युपगमात्।।      (पृश्ठ 230)

दूसरे परिमाण की आक्रान्ति पारिमाण्डल्य आदि गुणों को कार्य में जाने से नहीं रोक सकती। क्योंकि कार्य द्रव्य आरंभ होकर भी क्षण भर बिना गुण के रहता है। कार्य गुण तो कार्य में भी क्षण भर के पीछे ही उत्पन्न होता है। ऐसा वैषेशिक का सिद्धान्त है।

(3) न च परिमाण अन्तर आरभे व्यग्राणि पारिमाण्डल्यादीनि, इति अतः स्वसमानजातीयं परिमाणान्तरं नारभन्ते परिमाणान्तरस्य अन्य हेतुत्व अभ्युपगमात्। ‘कारण बहुत्वात कारण महत्वात् प्रचयविषेशाच्च महत्’ (वै॰ सू॰ 7।1।9) ‘तद्विपरीतमणु’ (7।1।10), ‘एतेन दीर्धत्वह्नस्वत्वे व्याख्याते’ (7।1।17), इति हि कारणभुजानि सूत्राणि।      (पृश्ठ 230)

यह भी नहीं कह सकते हि पारिमाण्डल्य आदि गुण दूसरे परिमाण के उत्पन्न करने मे व्यग्र (लगे) रहते हैं इसलिये स्वसमान जातीय परिमाण को नहींे बना सकते। क्योंकि दूसरे परिमाण के उत्पन्न होने का तो कणाद ने अपने सूत्रो में दूसरा हेतु बताया है। देखो ”कारण के बहुत्व, कारण के महत्व और प्रचय (इकट्ठा होने की रीति) के कारण“ महत्व उत्पन्न होता है (7।1।9), अणु उसके विपरीत है’ (7।1।10) ‘इसी प्रकार दीर्धत्व और ह्नस्वत्व भी समझने चाहिये’ (7।1।17)।

(4) न च संनिधान विषेशात् कुतष्वित् कारण बहुत्वादीनि एव आरभन्ते न पारिमाण्डल्यादीनीत्युच्येत, द्रव्यान्तरे गुणान्तरे वारभ्यमाणे सर्वेशामेव कारणगुणानां स्वाश्रयसमवाय-अविषेशात्। तस्मात् स्वभावादेव पारिमाण्डल्यादीनामनारम्भकत्व तथा। चेतनाया अपीति द्रश्टव्यम्।    (पृश्ठ 230)

यह भी नहीं कह सकते कि कारण का बहुत्व किसी संनिधान (निकट रखना) के कारण कार्य में महत्व उत्पन्न कर देता है और पारिमाण्डल्य आदि अपने अनुरूप गुण नही उत्पन्न कर सकते। क्योंकि जब कभी नया गुण या नया द्रव्य उत्पन्न होता है तब कारण के सभी गुणों का अपने आश्रय के साथ एक सा ही समवाय सम्बन्ध रहता है। अर्थात् कारण में जिस प्रकार बहुत्व का गुण है उसी प्रकार पारिमाण्डल्य का भी। फिर क्या कारण है कि बहुत्व तो महत्व को उत्पन्न कर सके और पारिमाण्डल्य पारिमाण्डल्य को नहीं।

इसलिये स्वभाव से ही पारिमाण्डल्य आदि अपने अनुरूप गुणों को उत्पन्न नहीं कर सकते। इसी प्रकार चेतन ब्रह्म से भी अचेतन जगत् उत्पन्न हो जाता है।

(5) संयोगाच्च द्रव्यादीनां विलक्षणानामुत्पत्तिदषनात् समानजातीयोत्पत्ति व्यभिचारः।

(पृश्ठ 230)

लोक में देखा भी जाता है कि द्रव्यों के संयोग से विलक्षण चीजें  उत्पन्न हो जाती है। इससे यह सिद्धान्त सर्वतन्त्र नहीं कि समान जातीयों की ही उत्पत्ति होती है।

(6) द्रव्यंप्रकृते गुणोदाहरणमयुक्तमिति चेत्। न। दृश्टान्तेन विलक्षणारम्भमात्रस्य विवक्षिततवात्। (षां॰ भा॰ 2।2।11 पृश्ठ 230)

यदि यह कहो कि द्रव्य के प्रसंग में गुणों का उदाहरण क्यों दिया? तो ठीक नहीं। क्योंकि यहाँ तो हम केवल यह दिखाना चाहते है कि विलक्षण की उत्पत्ति हो जाती है।

हमारी आलोचना-षं॰ स्वा॰ ने केवल एक गुण अर्थात् पारिमाण्डल्य को लेकर सब आक्षेप किये हैं। उनका उद्देष है खण्डन करना ”कारणगुण पूर्वकः काय्र्य गुणों दृश्टः“ का। परन्तु ऐसा करने से ”नासतो, दृश्टात्“ (वेदान्त 4।2।26) का भी खण्डन हो जायगा। क्योंकि जो गुण कारण में नहीं वह यदि कार्य में आ जाय तो कार्य की उत्पत्ति के लिये कोई नियत कारण का उपयोग न करे। षाक में चटपटाहट उत्पन्न करने के लिये मिर्च डालते हैं क्योंकि मिर्च चटपटी है हलवे को मीठा करने के लिये गुड़ डालते है क्योंकि गुड़ मीठा होता है। यदि सफेद सूत से भी काला कपड़ा बुना जा सके तो फिर कोई व्यवस्था ही न रहे। और षं॰ स्वा॰ के कथनानुसार ”षषविशाणादिभ्योऽप्यंकुगदयो जायेरन्“ (षां॰ भा॰ 2।2।26 पृश्ठ 245) अर्थात् खरगोष के सींगो से भी वृक्ष्ज्ञ के अंकुर उग आवें। यदि कहो कि उस सूत्र में तो अभाव से भाव की असिद्धि लिखी है तो वह तो यहाँ भी सिद्ध होती है क्योंकि कार्य में आप उस गुण की उत्पत्ति मानते हैं जो कारण में नहीं है। अर्थात् उसका अभाव है। शंकर स्वामी ने स्चयं अन्यत्र इसी सिद्धान्त को स्वीकार किया है जैसे ”कारणानुरूपं ही कार्ये भवति“। (षां॰ भा॰ 3।1।5 पृश्ठ 328)। रही परिमाण और संख्या की बात, वह तो परिमाण और संख्या और संख्या के अर्थो को समझने से ही स्पश्ट हो जाती है और उसके साथ आपके आक्षेपों का परिहार भी हो जाता है। एक सेब और एक सेब मिलकर दो सेब होते हैं। द्वितव दोनों में से किसी एक में भी नहीं। परन्तु मिलकर दो हो जाते है। यदि पचास सेब मिलकर भी अपनी इकाई को न छोड़े अर्थात् एक ही रहें तो कोई इतने सेब एकत्रित क्यों रहे? यदि एक इंच और एक इंच कपड़ा संयुक्त होकर भी एक इंच ही रहे तो कोई उसको जोडे़ क्यों? इसीलिये तो वैषेशिक ने स्पश्ट कह दिया कि ”कारणबहुत्वात् कारण महत्वात् प्रचयविषेशाच्च महत्“ (वै॰ सू॰ 7।1।1)। यह महत्व और दीर्घत्व प्रचय विषेश से (अर्थात् किन्हीं चीजों को एक विषेश रीति से जोड़ देने के कारण) होता है। इसको आप प्रत्यक्ष देखते है और इसका खण्डन नहीं कर सकते। याद रखना चाहिये कि जब एक ईट पर एक ईट रखकर एक 10 फुट ऊँची दीवार बन जाती है तो यह 10 फुट की ऊँचाई दीवार के अलग-अलग कारण ईटो में नहीं थी। ईटो को प्रचय (चयन) आकाष के कारण हुआ और उसी की सहायता से ऊँचाई उत्पन्न हो गई। यदि आकाष न होता तो ईटों का प्रचय भी न हो सकता। अब यदि ईटें ठोस है तो दीवार ठोस है तो दीवार ठोस होगी। यदि ईटें पोली हैं तो दीवार पोली है दिवार पोली होगी। क्योंकि कारण का ठोसपन या पोलापन कार्य में भी आवेगा सत्कार्यवादी होते हुये आप कैसे इनकार कर सकते है? एक और बात ध्यान देने योग्य है। पारिमाण्डल्य ह्नस्वत्व, दीर्घत्व सब परिमाण की सापेक्षिक श्रेणियां है। पारिमाण्डल्य में दीर्घत्व की बीज षक्ति ;चवजमदजपंसपजलद्ध है। पारिमाण्डल्य और ह्नस्वत्व को हम देख नहीं सकते दीर्घत्व को देख सकते है। श्री राधाकृश्णन् के षब्दों मेंः-

प्दपिदपजम हतमंजदमेे ंदक पदपिदपजम ेउंससदमेे ंतम दवज तमंसप्रमक उंहदसजनकमेय जीमल ंतम जीम नचचमत – जीम सवूमत सपउपजेए ंदक ूींज ूम ानवू पे पदजमतउमकपंजम इमजूममद जीम जूवण्

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टंपेमेीपांए टवस  प्प् चण् 195द्ध

यदि आप कहें कि हम सत्कार्य वादी है सत्कारणादी नहीं। अर्थात् कार्य का अस्तित्व कारण में मानते है कारण का कार्य में नही तो भी ठीक नहीं क्योंकि ‘अनन्यत्व’ के जो आपने अर्थ किये है वे गलत ठहरेंगे। यदि आप कहें कि हम सत्कारणवादी भी है तो ब्रह्म के उपादान मानने से ब्रह्म की चेतनता जगत् में भी आनी चाहिये और जगत् में कोई जड़ पदार्थ भी होना नहीं चाहिये। और यदि भिन्न-भिन्न कारणों के परिमाण और संख्या को भी कार्य में देखना चाहते तो ब्रह्म से उत्पन्न हुये सभी पदार्थ एक और विभु होने चाहिये क्योंकि ब्रह्म विभु और एक है। यदि आप कहें कि हम तो कारण के गुणों का कार्य में होना आवष्यक नहीं समझते, विलक्षणता के पक्षपाती हैं तो सत्य ब्रह्म से मिथ्या जगत् की उत्पत्ति मानने के लिये अविद्या या माया की क्या आवष्यकता है? एक कारण से उससे विपरीत गुण वाले विलक्षण कार्य की उत्पत्ति हो जायगी। और मकड़ी के जाले से गंगा का पुल बनाकर भी लोग उससे पार हो सकने की आषा रख सकेंगे।

यदि आप कहें कि हमारा प्रयोजन किसी नियम का खण्डन करना नहीं है अपितु वैषेशिक कार की प्रक्रिया को असत्य सिद्ध करना है तो भी ठीक नहीं। क्योंकि प्रकरण ब्रह्म की सिद्धि का है। यह सूत्र तो केवल यह दिखाने के लिये है कि बिना चेतन ब्रह्म को निमित्त कारण माने हुये सृश्टि की व्याख्या नहीं हो सकती।

अब रही बात कि ‘आरब्धमपि कार्य द्रव्य प्राग् गुणारम्भात् क्षणमात्रगुणंतिश्ठति’ अर्थात् कार्य द्रव्य एक क्षण के लिये गुणषून्य रहता है। यह तो प्रक्रिया समझने मात्र के लिये है अन्यथा कोई द्रव्य गुणषून्य होकर द्रव्य कहला ही नहीं सकता। वैषेशिक दर्षन में तो इसका कहीं उल्लेख नहीं। पिछले लोगों ने समझने के लिये मान लिया है। ‘क्षण’ स्वयं कल्पित इकाई है और सापेक्ष्ज्ञिक है। परन्तु परमाणु सापेक्षिक नहीं। क्योंकि परमाणु के फिर टुकड़े नहीं हो सकते। परमाणु के पारिमाण्डल्य का अर्थ रही है कि उसमें लम्बाई चैड़ाई या मोटाई नहीं। परन्तु लम्बाई, चैड़ाई, उत्पन्न करने की बीज षक्ति है। और उसका आविर्भाव प्रचय द्वारा होता है। बुझे हुये एक सहस्त्र दीपक प्रकाष नहीं कर सकते परन्तु टिमटिमाते हुये सौ दीपक प्रकाष को बढ़ा सकते है। बहुत्व का यही प्रभाव है। संख्या गुण एक व्यक्ति में नहीं रहता अपितु समूह का गुण है। या यों कहिये कि व्यक्ति में व्यक्तित्व है और समूह में समूहत्व। यदि व्यक्ति में समूहत्वच हो तो सहति अनावष्यक हो। और यदि समूह में व्यक्तित्व हो तो संहति निरर्थक हो। सूत की सफेदी की तुलना महत्व और दीर्घत्व से करनी अयुक्त है। षं॰ स्वामी समझते हैं कि चतुरणुक के महत्व और दीर्घत्व में परमाणु का पारिमाण्डल्य नहीं रहा। परन्तु जैसे एक, एक, एक मिलकर तीन होते है। और त्रित्व में एकत्व भी विद्यमान है इसी प्रकार दीर्घत्व में पारिमाण्ल्य भी विद्यमान है। परन्तु जड़ जगत् की जड़ता में ब्रह्म का चेतनस्य विद्यमान नहीं है। अतः चेतन ब्रह्म को जड़ जगत् का उपादान मानना भूल है।

(2)

सावयवत्व और आदिम कर्म

पूर्वपक्ष-(1) सर्व चेदं जगद् गिरि समुद्रादिकं सावयवं, सावययतवाच् च आदि अन्तवत्। न च अकारणेन कार्येण भवितव्यम् इति, अतः परमाणवो जगतः कारणम्।

(षां॰ भा॰ 2।2।12, पृश्ठ 231)

यह सब जगत् पहाड़ समुद्र आदि अवयवों वाला है। अवयवों वाली चीज आदि वाली और अन्तवाली होती है। क्योंकि कभी तो अवयव मिले होने। और यदि मिलें तो उनका वियोग भी होगा ही। बिना कारण के कोई कार्य होता नहीं इसलिये जगत् का कारण परमाणु हैं।

(2) तानि इमानि चत्वारि भूतानि भूम्युदक तेजः पवनाख्यानि सावयवानि उपलभ्यं चतुर्विद्या परमाणवः परिकल्प्यन्ते।      (पृश्ठ 231)

पृथ्वी, जल, तेज, वायु चार अवयव वाले 5 भूत है। इसीलिये चार प्रकार के परमाणु भी है।

(3) तेशां च अपकर्शपर्यन्तगतवेन परतो विभागा-असंभवाद् विनष्यतां पृथिव्यादीनां परमाणुपर्यन्तो विभागो भवति स प्रलयकालः।    (पृश्ठ 231)

ये चार भूत जब बिखरने लगते है और ऐसी सीमा आ जाती है कि फिर आगे उनका विभाजन नहीं हो सकता तो अन्त की चीज को परमाणु कहते है। यही प्रलयकाल है।

(4) ततः सर्गकाले च वायवीयेशु अणुशु अदृश्टापेक्षं कर्म उत्पद्यते, तत् कर्म स्वाश्रयमणुमण्वन्तरेण संयुनक्ति ततो द्व ्यणुकादि क्रमण वायुमुत्पद्यते।

तब सृश्टि के समय वायु के अणुओं में अदृश्ट की सहायता से कर्म की उत्पत्ति होती है। वह कर्म अपने आश्रयी अणु को दूसरे अणु से जोड़ देता है। इस प्रकार द्व ्यणुक आदि क्रम से वायु उत्पन्न हो जाती है?

(5) एवमग्नः, एवम् आपः, एवं पृथिवी, एवमेव षरीरं सेन्द्रियमिति।

ऐसे ही अग्नि उत्पन्न होती है, ऐसे ही जल, ऐसे ही पृथ्वी, ऐसे ही इन्द्रियों सहित षरीर।

(6) एवं सर्वमिदं जगद् अणुभ्यः संभवति।

ऐसे ही सब जगत् अणुओं से उत्पन्न होता है।

(7) अणु गतेभ्यष्व रूपादिभ्यो द्वîणुकादिगतानि रूपादीनि संभवन्ति तन्तुपटन्यायेन इति कारणदा मन्यन्ते।   (षां॰ भा॰ 2।2।12 पृश्ठ 231)

अणुओं के रूप आदि से द्व ्यणुकों में रूपादि उत्पन्न होते है जैसे ष्वेत धागों से ष्वेत वस्त्र।

कणाद मुनि के वैषेशिक का ऐसा सिद्धान्त है।

षां॰ उत्तरपक्ष-(1) विभागावस्थानां तावदणूनां संयोगः कर्मापेक्षोऽभ्युपगन्तव्यः, कर्मवतां तन्तवादीनां संयोगदर्षनात्। कर्मणष्व कार्यत्वान्निमितं किमपि अभ्युपगन्तव्यम्।

(पृश्ठ 231)

प्रलय अवस्था वाले अणुओं का संयोग कर्म की अपेक्षा से हुआ। जैसे कर्म वाले धागे आदि का संयोग देखने में आता है। अब हम पूछते है कि कर्म तो कार्य है। इसलिये इस कर्म का भी कोई निमित्त तलाष करना चाहिये।

(2) अभ्युपगमें निमित्ताभावान् न अणुशु आद्यं कर्म स्यात्।

यदि निमित्त न मानो तो अणुओं में पहला कर्म कहाँ से आयेगा?

(3) अनभ्युपगमेऽपि यदि प्रयत्नोऽभिघातादिर्वा यथादृश्टं किमपि कमणो निमित्तमभ्युपमम्येत तस्यासंभवान्नैवाणुश्वाद्य कम स्यात्।

यदि निमित्त मानो तो पहले लोक में प्रत्यक्ष किसी (दृश्ट) चीज को निमित्त मान लो जैसे प्रयत्न या अविघात।

अर्थात् जब सूतों से कपड़ा बुना जाता है तो प्रयत्न और अभिघात पाये जाते है। परन्तु अणुओं के साथ ऐसा नहीं मान सकते। वहाँ तो सब की आदि में आदिम प्रयत्न या आदम संघात सभव ही नहीं हो सकते।

(अ) नहि तस्यामवस्थायामात्मगुणः प्रयत्नः संभवति षरीरभावात्। षरीर प्रतिश्ठे हि मनसि आत्मनः संयोगे सति आत्मगुणः प्रयत्नो जायते।

उस प्रलय अवस्था में आत्मा का गुण प्रयत्न तो सभव ही नहीं क्योंकि षरीर नहीं। षरीर में प्रतिश्ठित मन से ही आत्मा का संयोग होने पर प्रयत्न हो सकता है।

(आ) एतेन अभिघाताद्यपि दृश्टं निमित्तं प्रत्याख्यातव्यम्।

इसी प्रकार की युक्ति से लोक मेें प्रत्यक्ष अभिघात आदि निमित्तों का भी खण्डन हो गया।

(इ) सर्गोत्तरकालं हि तत् सर्व नाद्यस्य कर्मणो निमित्तं संभवति।

यह सब तो सृश्टि की उत्पत्ति के पष्चात् ही हो सकता है। और आदिम कर्म का निमित्त नहीं हो सकता।

(4) अथादृश्टमाद्यस्य कर्मणो निमित्तमित्युच्येत।

अब यदि आदिम कर्म का निमित्त अदृश्ट को मानो तो दो प्रष्न उठेगें।

(अ) तत् पुनः आत्मसमवायि वा स्यात्।

(आ) अणु समवायि वा।

उसका समवाय सम्बन्ध आत्मा के साथ होगा या अणु के साथ।

(इ) उभयथापि न अदृश्ट निमित्तमणुशु कर्मावकल्पेत अदृश्टस्य अचेतनत्वात्।

दोनों दषाओं में अदृश्ट अणुओं में कर्म-नहीं उत्पन्न कर सकता और न करा सकता है।

(उ) आत्मनष्वानुत्पन्न चैतन्यस्य तस्यामवस्थायामचेतनत्वात्।

आत्मा भी असमर्थ है क्योंकि उस समय उसमें चेतना प्रादुर्भूत नहीं हुई है।

(ऊ) आत्मसमवायितवाभ्युपगमाच्च नादृश्टमणुशु कर्मंणो निमित्त स्यादसंबन्धात्।

यदि कहो कि अदृश्ट का आत्मा से समवाय सम्बन्ध है तो भी अणुओं में कर्म की उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि अणुओं से सम्बन्ध नहीं।

(ऋ) अदृश्टवता पुरूशेण अस्ति अणूनां संबन्ध इति चेत, संबन्ध सातत्यात् प्रवृत्तिसातत्यप्रसंगो नियामकान्तराभावात्।

यदि कहो कि अदृश्टवान आत्मा का अणुओं से सम्बन्ध है तो सम्बन्ध है तो सम्बन्ध नित्य होगा अतः प्रवृत्ति भी नित्य ही होगी। और कोई नियामक तो है ही नहीं।

(ऋ) तदेव नियतस्य कस्यचित् कम निमित्तस्य अभावात् न अणुशु आद्यकर्म स्यात्।

इसलिये कर्म का कोई भी नियत निमित्त नहीं और अणुओं में आदिम कर्म नहीं हो सकता।

(5) कर्माभावात् तान्नन्धनः संयगो नस्यात्।

कर्म न होगा तो उसका निबन्ध संयोग भी न होगा।

(6) संयोगाभावाच्च तन्निबन्धनं द्वîणुकादि कार्यजातं न स्यात्।

(षां॰ भा॰ 2।2।12, पृश्ट 231-232)

संयोग न हो तो द्व ्यणुक आदि से रचना कैसे हो?

हमारी आलोचना-यह उसी प्रकार का विकल्प व्यूह है जैसा सांख्य के सम्बन्ध में आ चुका है। और उसका मूल्य भी उतना ही है।

प्रथम तो कणाद ने पहाड़ आदि जगत् के पदार्थो का विष्लेशण करते-करते सब से आदिम सीमान्त परमाणुओं की जो अस्तित्व सिद्धि की उसमें आपने कोई दोश नहीं निकाला। यह तो दैनिक अनुभव की बात है। दीवार को तोड़ो तो आदिम इकाइयों अर्थात् ईटों तक पहुँचचोगे। ईटों को तोड़ो तो मिट्टी के कणों तक। इत्यादि। इसमें भूल ही क्या है? प्रत्यक्षे कि प्रमाणम्। यदि कणादोक्त विष्लेशण में कोई भूल बताई होती तो उसकी परीक्षा की जाती।

आप चले प्रलय सें, आप का प्रष्न यह है कि अणुओं में कर्म कैसे उत्पन्न हुआ? यदि आप यह विचार कर लें कि परमाणुओं के ऊपर उनमें ओत-प्रोत एक सर्वज्ञ और सर्वषक्तिमती सत्ता भी है जो जीवों के कर्मफल को दृश्टि में रखकर उनके कर्मक्षेत्र ओर भोग क्षेत्र के रूप में उन परमाणुओं से सुश्टि बनाया करती है तो आपके सभी आक्षेप दूर हो जाते है। परमाणु तो केवल उपादान कारण होगंे, कर्म होंगे जीवों के! उनके अनुकूल  ईष्वर उनको फल देने के लिये भिन्न भिन्न जीवों की भिन्न भिन्न आवष्यकताओं को ध्यान में रखकर सृश्टि बनावेगा। इसके साथ ही आप यह भी दृश्टि में रक्खें कि सृश्टि प्रवाह से अनादि है अतः ‘आद्य कर्म’ का प्रष्न भी न उठेगा। यहाँ तो हम आपके ही कथन को आपके खण्डनं में उपयुक्त समझते हैंः-

”नैश दोशः। अनादित्वात संसारस्य। भवेदेश दोशो यद्यादिमान् संसारः स्यात्। अनादौ तु संसारे बीजांकुरवद्धेतुमöावेन कर्मणः सर्गवैशम्यस्य च प्रवृत्तिर्न विरूघ्यते।“

(षां॰ भा॰ 2।1।35 पृश्ठ 218)

संसार अनादि है इसलिये कोई दोश नहीं। यदि संसार आदि मान् होता तो दोश आ सकता था। अनादि संसार में कर्म और सृश्टि के वैशम्य में विरोध नहीं पड़ता। बीज से अंकुर होता है। अंकुर से बींज

(3)

अणुओं का संयोग

षं॰ स्वा॰-संयोगष्वाणोरण्वन्तरेण सर्वात्मना वा स्यादेक देषेन वा।

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यह खण्डन श्री षंकराचार्यजी का अपना नहीं है बौद्धदार्षनिक आर्यदेव (देव) ने भी बहुत पहले इसी प्रकार की आलोचना की थी। देखोः-

(क) सर्वात्मना चेदुनपचयानुपपत्तेरणुमात्रतव प्रसंगो दृश्टविपर्ययप्रसंगेष्व। प्रदेषवतो द्रव्यस्य प्रदेषवता द्रव्यान्तरेण संयोगस्य दृश्टत्वात्।

(ख) एक देषेन चेत् सावयवत्व प्रसगः।

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”प्रतिपक्षी कहता है कि परमाणु है जो यद्यपि सर्वव्यापक और नित्य दोनों नहीं तथापि एक देषीय और नित्य है क्योंकि उनके कार्य रूप समुदाय उनके अस्तित्व को बताते हैं (वै॰ 4।1।1-4)। हमारा (अर्थात् आर्य देव का) आक्षेप यह है कि दो परमाणु एक दूसरे से सब और से नहीं जुड़ सकते। क्योंकि समुदायरूपी कार्य में पारिमाण्डल्य नहीं होता (वै॰ 7।1।20) हमारा कथन है कि परमाणु अनित्य होने चाहिये क्योंकि वह आकाष द्वारा सर्वत्र विभक्त होते है (वै॰ सूत्र 7।1।9-10 7।1।20, न्याय सूत्र 4।2।18) दूसरा हेतु उनके अनित्य होने का यह कि रंग आदि से उनकी पहचान होती है (वै॰ सूत्र 7।1।18, 18) (वैषेशिक फिलासफी, चीनी संस्करण, प्रोफेसर एच॰ यू॰ आई॰ षोताषू कालेज टोक्यो कृत, एफ डब्ल्यू टामस द्वारा अंगरेजी अनुवाद पृश्ठ 51।52)

(ग) परमाणूनां कल्पिताः प्रदेषाः स्युरिति चेत्, कल्पितानाम वस्तृत्वादवस्त्वेव संयोग इति वस्तुनः कार्यस्यासमवायिकारणं न स्यात्।

(घ) असति चासमवायिकारणे द्वîणुकादि कार्य द्रव्यं नोत्पद्येत।

(षां॰ भा॰ 2।1।12 पृश्ठ 232)

क्या एक अणु कुल का कुल दूसरे अणु से मिल जाता है या अणु का एक देष मिलता है?

(क) यदि कुल का कुल मिल जाय तो परिमाण में वृद्धि न होगी। सब चीजें मिलने पर भी अणु के बराबर ही रहेगी दूसरी बात यह है कि प्रदेष वाली चीजें ही मिलती देखी जाती हैं।

(ख) यदि कहो कि परमाणु कुल का कुल नहीं मिलता, एक देष में मिलता है तो परमाणु के अवयव मानने पड़ेगें। और उनका आगे विभाजन हो सकेगा।

(ग) यदि कहो कि परमाणु में प्रदेष कल्पित कर लिये गये है। तो कल्पित वस्तु मिथ्या होती है। कल्पित वस्तुओं का संयोग भी कल्पित होगा और वह वास्तविक वस्तुओं का असमबायि कारण न हो सकेेगा।

(घ) असमवायि कारण न होने से द्वîणुक कैसे बनेगें?

हमारी आलोचना-निरवयव वस्तु में समस्त और व्यस्त या कुल और एक देष का प्रष्न ही नहीं उठता। आपके विकल्प हो सावयव पदार्थों में हो सकते हैं। परमाणु निरवयव है। इसलिये आप उसके सम्बन्ध में यह प्रष्न नहीं कर सकते।

आप कहते हैं कि संयोग तो प्रदेष वाली चीजों में ही देखा गया है। ठीक हम भी मानते है। बने हुये जगत् में सभी चीजें प्रदेष वाली हैं। परन्तु यदि आप मान लेवें कि प्रदेष वाली चीजें विभाज्य है तो उनके विभाग भी मानने पड़ेंगे। और उन विभागों को भी विभाज्य मानने से उनका भी विभाग हो सकेगा। इस प्रकार कहीं तो सीमा पहुँचेगी ही अत्यथा अमवस्था दोश्ज्ञ आयेगा। इस प्रकार भी परमाणु की सिद्धि हो गई।

एक परमाणु के दूसरे परमाणु में धसकर एक हो जाने का प्रष्न तभी उठता जब परमाणु सावयव होात और उसमें पोल होती।

आप यह तो मानते हैं कि प्रदेष वाली चीजें सिरों पर संयुक्त होती है। परन्तु आप यह नहीं बताते कि वे सिरे आपस में कैसे संयुक्त होते है। कुल के कुल या एक देष में। क्योंकि सिरों से भी सिरे हो सकते है। सिरा सापेक्षिक षब्द है। इस प्रकार भी या तो अनवस्था दोश आयेगा या मानना पड़ेगा कि सिरे मिलना सम्भव है। उसी प्रकार की सम्भावना आप परमाणु के विशय में भी कर सकते हैं। विष्लेशण द्वारा सिद्ध हुये परमाणु के अस्तित्व का निशेध करने की क्या आवष्यकता है?

(4)

प्रलय और अदृश्ट

षं॰ स्वा॰-प्रदृश्टमपि भोगप्रसिद्धयर्थ न प्रलय प्रसिद्धयर्थम्।

(षां॰ भा॰ 2।2।12 पृश्ठ 232)

अदृश्ट तो भोग के लिये है प्रलय के लिये नहीं। फिर प्रलय कैसे होगी?

——————————————————वैषेशिक दर्षन के निम्न सूत्रों में कर्म के सम्बन्ध में अदृश्ट का उल्लेख हैः-5।1।15, 5।2।2, 5।2।13, 5।2।17-18, 6।2।2, 6।2।13

जीव जो कर्म करते है उनके फल की प्राप्ति के हेतु उनमें एक प्रकार के संस्कार या बीजषक्ति उत्पन्न हो जाती है जो अदृश्ट रहता है और जिसकी प्रेरणा से उसको उन कर्मो का अच्छा या बुरा फल मिलता है। जीव के षरीर और षरीरों द्वारा प्राप्त भोग अदृश्ट की प्रेरणा से होते हैं। जैसे भूमि में बोया हुआ बीज प्राकृतिक नियमों द्वारा वृक्ष रूप होता हुआ कालान्तर में फल लाता है इसी प्रकार कर्मो के करने से

——————————————————हमारी आलोचना-जिस प्रकार आजकल चीजों का बिगड़ना या षरीर का मृत्यु को प्राप्त होना जीवों के भोग के अन्तर्गत है इसी प्रकार समस्त जगत् का प्रलय भी भोग से सम्बन्ध है। आज कल नित्य प्राप्ति क्षण आंषिक प्रलय हुआ करती है। वह महाप्रलय होगी।

(5)

समवाय सम्बन्ध

षं॰ स्वा॰-”द्वाभ्यां चाणुभ्यां द्वîणुकमुत्पद्यमानमत्यन्त भिन्नमणुभ्यामणवोः समवैतीत्यभ्युपगम्येते भवता। न चैवमभ्युपगच्छताषक्यतेऽणुकारणता समर्थयितुम्। कुतः? साम्यादनवस्थितेः।          (षां॰ भा॰ 2।2।13 पृश्ठ 233)

तुम्हारे मत में (वैषेशिक के मत में) दो अणुओं से मिल कर द्वîणुक और पहले अणुओं में समवाय सम्बन्ध होता है। हमारा आक्षेप यह है कि द्वय्णुक अणु से भिन्न है। इन भिन्न पदार्थो में समवाय सम्बन्ध मानते हो तो इसी प्रकार समवाय ओर समवायी भी भिन्न है उनमें भी दूसरा समवाय सम्बन्ध मानना पड़ेगा। इस प्रकार अनवस्था दोश आ जायेगा।

वैषेशिक का पक्षः-नन्विह प्रत्ययग्राह्यः समवायो नित्यसंबद्ध एव समवायिभिर्गृह्यते नासंबन्धान्तरापेक्षो वा। ततष्व न तस्यान्यः संबन्धः कल्पयितव्यो येनानवस्था प्रसज्येत इति।   (पृ॰ 223)

——————————————————उत्पन्न हुआ अदृश्ट रूपी बीज ईष्वर की धर्म व्यवस्था द्वारा कालान्तर में सुख या दुःख रूपी फलों को प्राप्त कराता है। बीज का वृक्ष रूप होना प्राकृतिक नियमों के अनुसार है जो दृश्ट है। कर्मोे से उत्पन्न अदृश्ट आचार सम्बन्ध नियमों ;उवतंस संूेद्ध के अनुसार है जो दिखाई नहीं पड़ता।

——————————————————

समावाय और समवायी का सम्बन्ध हमको नित्य प्रतीत होता है। यह न तो दूसरे सम्बन्ध की अपेक्षा रखता है। इसलिये और दूसरे सम्बन्ध की कल्पना अनावष्यक है। इसलिये अनवस्था दोश नहीं आता।

षं॰ स्वा॰-नेत्युच्चते। संयोगीऽप्येवं सति संयोगिभिर्नित्यसंबद्ध एवेति समवायवन्नन्यं संबन्धमपेक्षेत।

यह युक्ति ठीक नहीं। इस प्रकार तो संयोग और संयोगी का भी नित्यसम्बन्ध मानना पड़ेगा। और तुम्हारी यह कल्पना व्यर्थ होगी कि संयोग और संयोगी मे सम्बन्ध है। यदि कहो कि अर्थान्तरत्व (भिन्नता) के कारण संयोग को एक और सम्बन्ध की आवष्यकता है तो समवाय को भी समवायी से उसी प्रकार भिन्न है जैसे संयोग संयोगी से। यदि कहो कि संयोग गुण है, गुण और गुणी में समवाय सम्बन्ध होता है इसलिये संयोगी में भी समवाय सम्बन्ध होता है इसलिये संयोगी में भी समवाय सम्बन्ध है तो यह भी ठीक नहीं।

अपेक्षाकारणस्य तुल्यत्वात्। गुणपरिभाशायाष्वातन्त्रत्वात्।।

(षां॰ भा॰ 2।2।13 पृश्ठ 233)

क्योंकि कारण तो दोनों के साथ एक ही है। यह दूसरी बात है कि परिभाशा में संयोग को गुण कह लिया और समवाय को नहीं।

हमारी आलोचना-वैषेशिककार ने छः पदार्थ ;बंजमहवतपमेद्ध माने  है द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विषेश और समवाय। षं॰ स्वा॰ का ऊपर का आक्षेप समवाय विशयक है। याद रखना चाहिये कि पिछले तीन पदार्थो को कणाद ने बुद्ध्यपेक्षित माना है। जैसे-

सामान्यं विषेश इति बुद्धयपेक्षम्।            (वैषे॰ दर्षन 1।2।3)

इसका यह अर्थ नहीं कि ये तीन पदार्थ काल्पनिक है। हैं तो ये वास्तविक। परन्तु इनका परिज्ञान बुद्धि से होता है। मेरा आषय उदाहरण से स्पश्ट  होगा। संसार में अनेक वस्तुये हैं। ये सब वस्तुएँ असंद्ध नहीं है। इस सम्बन्ध को आप बुद्धि से समझ सकते हैं, समवाय एक सम्बन्ध है।

दहेदमिति यतः कार्यकारणयोंः स समवायः।              (वैषे॰ दर्षन 7।2।26)

अयुतसिद्धानाम धार्याधारभूतानां गः संबन्धं इहेतिप्रतययहेतुः स समवायः। इति प्रषस्तपादः।

समवाय सम्बन्ध अयुतसिद्ध वस्तुओं में होता है। अयुतसिद्ध वह है जिनका कभी पृथक्त्व नहीं हो सकता, जैसे गुण और गुणी। वैषेशिक लोग कारण कार्य, गुण-गुणी, अवयव-अवयवी, क्रिया-क्रियायान्, जाति-व्यक्ति मे समवाय सम्बन्ध सम्बन्ध मानते है। इसका केवल इतना अर्थ है कि इनमें जो कुछ सम्बन्ध है उस सम्बन्ध का नाम समवाय रक्खा गया। युत-सिद्ध वस्तुओं में भी सम्बन्ध होता है। जिसका नाम संयोग है। जैसे पात्र में दही है। पात्र और दही अयुत सिद्ध नहीं। युत-सिद्ध है। गुण के बिना गुणी रह नहीं सकता। परन्तु दही के बिना पात्र रह सकता है।

इतना समझने के पष्चात् षं॰ स्वा॰ के आक्षेप इतने प्रबल समझे जाते है कि श्रीराधाकृश्णन जी को यह कहना पड़ा कि-

ज्ीम जीमवतल व िैंउंअंलं पे ं ूमंा सपदा पद जीम टंपेमेपां ैलेजमउण् ॅम बंददवज सववा नचवद ैंउंअंलं ंे ं बवददमबजपवद इमज ूममद जूव कपेजपदबज जीपदहे ंदक लमज तमहंतक पज ंे व िं कपििमतमदज ापदक तिवउ ैंउलवहंए वत बवदरनदबजपवदण् प् िैंउंअंलं

——————————————————

कार्यकारणयोरित्युपलक्षणं गुणगुणिनोः क्रियाक्रियावतोर्जातिव्यक्त्यौर्नित्द्रत्र्यविषेश दार्थयौष्वाधाराधेयभावनियामकोऽपि सम्मबाध एवेति मन्तव्यम्।

(जयनाराण तर्क पचानन भट्टाचार्यकृत कणाद सूत्र विवृत्ति 7।2।26)

——————————————————

पे कपे पदबज तिवउ ैंउलवहंए जीमद जीम ूीवसम पे ेवउमजीपदह वअमत ंदक ंइवअम जीम चंतजण्

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टवसण् प्प्ण् चंहम 231द्ध

अर्थः-वैषेशिक दर्षन की शृखला में समवाय का सिद्धान्त एक निर्बल कड़ी हैं। यह कैसे माना जा सकता है कि समवाय दो भिन्न भिन्न वस्तुओं के बीच का सम्बन्ध भी हो और संयोग सम्बन्ध से भिन्न हो? यदि समवाय को संयोग से भिन्न मानोगे तो अवयवी को अवयवों से अतीत (अधिक) मानना पड़ेगौ।

यह सम्मति शंकर स्वामी के प्रभाव का फल स्वरूप है। जब कणाद ने भिन्न भिन्न पदार्थाें की दो कोटियाँ कर दी एक अयुत-सिद्ध और दूसरी युत-सिद्ध, तो इन दो प्रकार की वस्तुओं के परस्पर सम्बन्धों के लिये भी दो नाम रक्खे, तो इन दो प्रकार की वस्तुओं के परस्पर सम्बन्धों के लिए भी दो नाम रक्खे, एक समवाय, दूसरा संयोग। यह दो नाम तो सर्वथा उपयुक्त है। इनमें कोई दोश नहीं। तो क्या इनके लक्षणो में कोई दोश है? यदि लक्षण के षब्दों को ष्लेश के झमेले मे अलग रक्खा जाय तो लक्षण में भी कोई दोश प्रतीत नहीं होता। हाँ यदि षब्दों का कहीं कोई अर्थ लिया जाय तो हो सकता है और षं॰ स्वा॰ ने ऐसा ही किया है। देखिये-

(1) शंकर स्वा॰ का आक्षेप यह है कि आकाष और परमाणु तो कभी अलग नहीं होते। फिर इनमें समवाय सम्बन्ध क्यों नहीं?

परन्तु थोड़े से विचार से पता चल जायगा कि जिस भाव से पदार्थो की दो कोटियाँ की गई एक अयुत-सिद्ध और दूसरी युत-सिद्ध,उसके अनुसार आकाष और परमाणु अयुत-सिद्ध की कोटि में नही आते। षब्द आकाष का गुण है अतः यह दोनों अयुत-सिद्ध है, और इनमें परस्पर समवाय सम्बन्ध है।

दूसरी बात यह है कि यदि आप इस बात पर आग्रहे करें कि आकाष और परमाणु भी अयुत-सिद्ध है, क्योंकि जहाँ आकाष है वहाँ

परमाणु है, जहाँ परमाणु है वहाँ आकाष है, तो हम कह देंगे कि इस आग्रह मात्र से समवाय सिद्धान्त नहीं कटता। केवल हमको आपकी इतनी बात स्वीकार कर लेनी पड़गी कि आकाष और परमाणु में भी समवाय सम्बन्ध है। परन्तु ऐसा हैं नहीं क्योंकि यह कहना ठीक न होगा कि जहाँ जहाँ आकाष है वहाँ वहाँ वही परमाणु है और आकाष के होने के कारण है। जो विषेशता कारण-कार्य, गुण-गुणी, क्रिया-क्रियावान्, अवयव-अवयवी, जाति-व्यक्ति में पाई जाती है वह आकाष-परमाणु में नहीं है। आकाषत्व का परमाणुत्व के साथ वही सम्बन्ध नहीं है जो जातित्व का व्यक्तित्व के साथ या कारणत्व का कार्यत्व के साथ।

(2) दूसरा आक्षेप यह है कि यदि गुण और गुणी भिन्न हैं और उनके बीच में समवाय सम्बन्ध है तो समवाय और समवायी भी भिन्न हैं अतः उनके बीच में कोई दूसरा समवाय सम्बन्ध चाहिये। इस प्रकार बढ़ाते-बढ़ाते अनवस्था दोश आ जाएगा।

इस आक्षेप के उत्तर में वैषेशिक का यह कहना है कि समवाय-समवयी के सम्बन्ध की प्रतीति तो नित्य है। उसे किसी अन्यसम्बन्ध की अपेक्षा नहीं। रथ के दो बैलों के कंधों को एक जुए से संबद्ध कर देते है। परन्तु जुए को प्रत्येक बैल के कंधें से बाँधने के लिए किसी दूसरे जुए की आवष्यकता नहीं होती। इसलिए अन्य समवाय मान कर अनवस्था उत्पन्न करने का प्रष्न नहीं उठता।

इस पर षं॰ स्वा॰ कहते है कि यह बात तो संयोग पर भी लागू होगी फिर संयोग और संयोगी में भी समवाय मानना पड़ा। परन्तु याद रखना चाहिये कि जिन भिन्न-भिन्न पदार्थों के संयोग से एक संयुक्त पदार्थ बना उसके उन भिन्न-भिन्न पदार्थों से अलग अलग हर एक के साथ संयोग का समवाय सम्बन्ध नहीं। केवल संयुक्त पदार्थ के साथ है। उदाहरण सके लिये जल को लीजिये। आक्सीजन और हायड्रोजन के संयोग से जल बना। जल का गुण है षीतलता। यह षीतलत्व न तो आक्सीजन का गुण हैं न हायड्रोजन का। अपितु एक तीसरे संयुक्त पदार्थ का जिसको जल कहते हैं। संयोग न तो अलग आक्सीजन में है न अलग हायड्रोजन में है अपितु दोनों के मेल से बने तत्व में।

जल है संयुक्त पदार्थ।

जलत्त है संयोग।

अतः जल और जलतव तथा संयुक्त और संयोग अयुत-सिद्ध हो गये और उनमें समवाय मानना आवष्यक हो गया।

वैषेशिक ने बुद्धि-भ्रम को बचाने के लिए ये दो सम्बन्ध अलग अलग रक्खे। आप इनमें गड़बड़ करके बुद्धि-भ्रम के लिये अवसर दे रहे है। श्रीराधाकृश्णन् जी को यह आपत्ति खटकी तो अवष्य परन्तु उन्होंने इसको इतना गंभीर नहीं समझा और सहन कर गये। वे लिखते है।

ज्ीमतम पे दव कवनइज जींज जीम तमसंजपवद व िं इपदंतल ंजवउपब बवउचवनदक जव पजे बवदेजपजनमदज मसमउमदजेए वत व िं ेचमबपमे जव जीम पदकपअपकनंसे बवदेजपजनजपदह पजए पे दवज जीम ेंउम ंे जीम तमसंजपवद व िं जंइसम बसवजी ंदक जीम जंइसमण् ठनज जीम कपििपबनसजल पद इवजी जीम बंेमे ेममउे जव इम जीम ेंउमण् जींज ं तमसंजपवदए ीवूमअमत पदजपउंजमए बंद दवज इम पकमदजपबंस ूपजी जीम जमतउे तमसंजमकण्

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टवसण् प्प्ण् च्ंहम 218.19द्ध

अर्थः-इसमें संदेह नहीं कि द्वîणुक का अपने परमाणुओं के साथ या जाति का अपने व्यक्तियों के साथ वही सम्बन्ध नहीं है जो मेज का मेजपोष के साथ है। परन्तु कठिनाई दोनों दषाओं में एक ही है। अर्थात् एक सम्बन्ध चाहे कितना ही घनिश्ठ क्यों न हो, संबद्ध पदार्थों से उसका अनन्यतव नहीं हो सकता।

यहाँ स्पश्ट हो गया कि मेज और मेजपोष युत-सिद्ध है और जाति व्यक्ति अयुत-सिद्ध। इनके सम्बन्ध भिन्न-भिन्न है। अतः इनके नाम भी भिन्न होने चाहिये। आगे की कठिनाई कुछ कल्पित सी है। क्योंकि समवाय और समवायी में कोई अनन्यत्व नहीं मानता।

(3) तीसरा आक्षेप षं॰ स्वा॰ का यह है कि कारण और कार्य अयुत-सिद्ध नहीं। क्योंकि वैषेशिक असत्कार्य-वादी है। वह कारण में कार्य को उत्पत्ति से पूर्व नहीं मानता। अर्थात् कार्य का प्रागभाव मानता है। (देखो षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 236)

यह आक्षेप बहुत गहरा नहीं है, हम अन्यत्र सत्कार्य और असत्कार्य की मीमांसा कर चुके है। यह झगड़ा एकांगी विचार के कारण है। घड़े में मिट्टी तो सदा ही रहती है अतः अयुत-सिद्ध है, केवल ऊपरी दृश्टि से यह कहा जा सकता है कि मिट्टी में घड़ा सदा नहीं रहता। परन्तु असत्कार्यवाद का यह सिद्धान्त तो नहीं कि कारण और कार्य में नियत-सम्बन्ध नहीं। प्रत्येक कारण से प्रत्येक कार्य तो उत्पन्न नहीं हो सकता। जल से बरफ बनती है रेत से नहीं। इसलिये यों समझना चाहिये कि मिट्टी में घड़ा बीज-रूप से रहता है। प्रागभाव और अन्योन्याभाव या अत्यन्ताभाव में भेद है।

यह कहना कि कार्य कारण के साथ समवाय सम्बन्ध में प्रविश्ट हाने से पूर्व अपनी उत्पत्ति के पष्चात् कुछ काल तक बिना सम्बन्ध के रहता है केवल षाब्दिक भूल भुलय्या हैं। युक्ति में कोई सार नहीं। ऐसी युक्यिाँ उभयपक्ष से बहुत सी दी जा सकती है।

(6)

अणुओं में प्रवृत्ति का प्रष्न

षं॰ स्वा॰-अपि चाणवः प्रवृत्तिस्वभावा वा निवृत्तिस्वभावा योगयवास्वभावा वाऽनुभयस्वभावा वऽभ्युपरम्यन्ते गत्यन्तराभावात्। चतुर्थापि नोपपद्यते। इत्यादि।

(षां॰ भा॰ 2।2।14 पृश्ठ 223)

अर्थः-यदि परमाणुओं को सृश्टि का कारण मानो तो चार अवस्थायें मानी जा सकती हैं। या तो परमाणुओं में बनाने की प्रवृत्ति हो। यदि ऐसा है तो सृश्टि बनती ही जायगी, कभी प्रलय आदि नाष न होगा। यदि निवृत्ति मानो तो कभी प्रलय आदि नाष न होगा। यदि निवृत्ति मानो तो कभी बनेगी ही नहीं। दोनों स्वभाव परस्पर विरोधी है। अतः विचार के योग्य नहीं। यदि दोनों प्रकार की न मानो तो अदृश्ट आदि निमित्त से इनका नितय सम्बन्ध होने की दषा में सृश्टि सदैव बनती रहेगी, बिगड़ेगी नहीं और यदि किसी अदृश्ट बनने की प्रवृत्ति ही न हो सकेगी। इस लिये परमाणुकारणवाद ठीक नहीं।

हमारी आलोचना-शंकर स्वामी इस आक्षेप को करने से पूर्व मान बैठते हैं कि कणाद अनीष्वरवादी हैं, और परमाणुओं को अभिन्न-निमित्त-उपादान कारण मानते हैं। श्री राधाकृश्णन् का यह कथन विचारने योग्य हैः-

ज्ञंदंकंष्े ेनजतं कवमे दवज वचमदसल तममित जव ळवकण् भ्म जतंबमे जीम चतपउंस ंबजपअपजपमे व िजीम ंजवउे ंदक ेवनसे जव जीम चतपदबपचसम व िंकतेजंण् ॅींजम ीम ेममउमक जव ींअम इममद ेंजपेपिमक ूपजी जीम मगचसंदंजपद व िजीम नदपअमतेम इल जीम चतपदबपचसम व िंकतेजंए ीपे विससवूमते मिसज जींज जीम चतपदबपचसम व िंकतेजं ूंे जवव दमइनसवदे ंदक नद.ेचपतपजदंस ंदक उंकम पज कमचमदकमदज वद ळवकष्े ूपससण् ळवक पे जीम मििपबपमदज बंनेम व िजीम ूवतसक ूीपसम जीम ंजवउे ंतम जीम उंजमतपंस बंनेमण् प्ज पेए ीवूमअमतए ींतक जव बवदबमकम जींज ज्ञंदंकं ीपउ ेमस िमिसज जीम दममक व िं कपअपदम इमपदहण् ज्ीम ंिअवनतपजम चंेेंहमए ूीपबी वबबनते जूपबमए ंदक ींे इममद उंकम जव ेनचचवतज जीमेउ इल संजमत बवउउमदजंजवतेए ींे दव तममितमदबम जव ळवकण् ।चचमदजसल ज्ञंदंकं मिसज जींज जीम टमकंे ूमतम जीम ूवतो व िजीम ेममतेए ंदक दवज ळवकण् प् ींज जीम टमकंे ूमतम जीम ूवतो व िजीम ेममतेए ंदक दवज ळवकण्

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टवसण् प्प् चण् 226द्ध

अर्थः-कणाद के सूत्र खुलमखुल्ला ईष्वर का उल्लेख नहीं करते। वह तो परमाणुओं और आत्माओं की प्रारम्भिक प्रवृत्ति को अदृश्ट तक ले जाते हैं। वह अदृश्ट के सिद्धान्त से ही जगत् की उत्पत्ति मानने से सन्तुश्ट थे परन्तु उनके अनुयायियों ने सोचा कि अदृश्ट तो इतना अनिष्चित और अनात्मक है कि इससे काम नही चलता। अतः उन्होंने अदृश्ट ईष्वर की इच्छा के परतन्त्र कर दिया। ईष्वर जगत् का निमित्त कारण है और परमाणु उपादान कारण। परन्तु यह मानना कठिन है और परमाणु उपादान कारण। परन्तु यह मानना कठिन है कि कणाद ईष्वर की आवष्यकता को अनुभव करते थे। जो सूत्र दो बाद आया है।

तद्वचनादामनायस्य प्रामाण्यम्। 1।1।3; 10।2।9

और जिसको आस्तिकवाद की पुश्टि में पेष किया जाता है उसका ईष्वर से सम्बन्ध नहीं। प्रतीत होती है कि कणाद वेद को ईष्वर कृत नहीं अपितु ऋशि-कृत मानते थे।

हमको भी राधाकृश्णन जी के साथ साहमत्य प्रकट करने में आपत्ति है। ‘तद् वचनाद्’ में ‘तद्’ षब्द केवल ईष्वर के लिये ही आ सकता है। अन्य कोई प्रकरण ही नहीं है। यह एक प्रसिद्ध बात है कि वैदिक साहित्य में ‘तत्’ षब् ईष्वर का ही वाचक है यदि कोई और प्रकरण न हो। यदि यह भी मान लिया जाय कि कणाद वेद ऋशि-कृत मानते थे तो भी कणाद का अनीष्वरवादी होना सिद्ध नहीं होता क्योंकि वेद में आरम्भ से ही ईष्वरवाद का प्रतिपादन है। इस बात को तो श्री षंकराचार्यजी भी स्वीकार करते है। यदि ईष्वर को मान लिया जाय तो शंकर स्वा॰ का विकल्प-व्यूह एक झटके से ही टूट जाता है। अदृश्ट का सबन्ध तो कर्मो से है। ईष्वर अकारण ही तो सृश्टि के भिन्न भिन्न भागों को उत्पन्न नहीं करता। अदृश्ट के अनुसार करता है। इस प्रकार उत्पत्ति ओर नाष दोनों ही संभव हो जाती है। न प्रलय के अभाव का प्रसंग रहता है सृश्टि में अभाव का। रेल के अध्यक्ष है और रेल है। परन्तु रेल का पूर्व, पष्चिम, उत्तर, दक्षिण को दौड़ना, न दौड़ना, कभी दौड़ना, कभी रूकना, यात्रियों की आवष्यकताओं के आधीन है। इस दृश्टान्त को विस्तार के साथ घटा लीजिये। समस्त आक्षेप निरस्त हो जायेगे। यही बात षं॰ स्वा॰ भी मानते हैं परन्तु अन्यत्र। देखोः-

वैशमय नैघृण्ये नेष्वरस्य प्रसज्येते। कस्मात्? सांपेक्षत्वात्। यदि हि निरपेक्षः केवल ईष्वरों विशमां सृश्टि निर्मिमीते स्यातामेतौ दोशौ वैशम्यं विद्र्यृण्यं च। न तु निरपेक्षस्य निर्मातृत्वमस्ति। सापेक्षो हीष्वरो विशमां सृश्टिं निर्मिमीते। किमपेक्षित इति चेत्। धर्माधर्मावपेक्षित इति वदामः।        (षां॰ भा॰ 2।1।34 पृश्ठ 219)

ईष्वर में विशमता और निर्दयता का दोश नहीं आ सकता। क्यों? अपेक्षा से। यदि ईष्वर बिना किसी की अपेक्षा के सृश्टि बनाता तो उस पर दोश आता कि उसने कहीं कुछ कही कुछ कयों बनाया? वह निर्दयी है। परन्तु वह तो धर्म और अधर्म की अपेक्षा से सृश्टि बनाता है।

यह अदृश्ट भ्ीा इन्हीं धर्म, अधर्म के अनुसार बनता है।

(7)

परमाणुओं की नित्यता।

षं॰ स्वा॰-यदि लोके रूपादिमद्वस्तु तत्स्वकारणाापेक्षया स्थूलमनित्यं च दृश्टम्। तद् यथा पटस्तन्तूनपेक्ष्य स्थूलोऽनित्यअष्वभवति तन्तवष्वांषूनपेक्ष्य स्थूला अनित्याष्च भवन्ति। यथाचामी परमाणवो रूपादिमन्तस्तैरभ्युपगम्यन्ते, तस्मात् तेऽपि कारणवन्तस्तदपेक्षया स्थूला अनितयाष्च प्रात्नुवन्ति। यच्च नित्यत्वे कारणं तैरूक्तम्-”सक्ष्कारणवन्नित्यम्“ (वै॰ सू॰ 4।1।1) इति। ततप्येवा सत्यणुशु न संभवति। उक्तेन प्रकारेणाणूनामपि कारणवत्त्वोपपत्तेः।

(षां॰ भा॰ 2।2।15 पृश्ठ 234)

अर्थः-लोक मे देखा जाता है कि रूप आदि वाली स्थूल वस्तुयें अपने कारण की अपेक्षा स्थूल और अनित्य होती है। जैसे कपड़ा सूत की अपेक्षा स्थूल और अनित्य है और सूत छोटे-छोटे रूई के कणों की अपेक्षा स्थूल और अनित्य है। इसी प्रकार रूप आदि वाले परमाणु भी अपने कारण की अपेक्षा स्थूल और अनित्य होगे। और उन पर ‘सत्, कारण रहित, नित्य’ यह लक्षण ने घट सकेंगे क्योंकि उनका एक और कारण होगा जो उनकी अपेक्षा सूक्ष्म और नित्य होगा और यह उसकी अपेक्षा स्थूल और अनित्य होगे। इसलिये परमाणुओं को नित्य मानना ठीक नहीं।

हमारी आलोचना-क्या कार्य से कारण की ओर वापिस चलने में कहीं विराम न होगा? चलते ही जायेगें? जब यह मान लिया कि कार्यरूप कपड़ा कारणरूप तन्तुओं की अपेक्षा स्थूल और अनित्य है तो अर्थापत्ति से यह भी सिद्ध हो गया कि तन्तु सूक्ष्म और अधिक नित्य है। सापेक्षित स्थूलता और अनित्यता सापेक्षक सूक्ष्मता और नित्यता को सिद्ध करती है। इस प्रकार रूई के कारण अधिक सूक्ष्म और नित्य हुये। इसी प्रकार चलते-चलते आप सूक्ष्मतम और नित्यतम वस्तु तक अवष्य पहुँचेेंगे उसी का नाम परमाणु है। यह तो इतनी स्पश्ट बात है कि इसका खण्डन ही नहीं हो सकता। आप की युक्ति ‘लोके’ इस षब्द से आरम्भ होती है। लोक में तो यही देखते है इसीलिये तो कहना पड़ा कि इसका खण्डन ही नहीं हो यही देखते है। इसीलिये तो कहना पड़ा कि ‘मूले मूलाभावादमूलं मूलम्’ अर्थात् जड़ की जड़ नहीं होती। अतः जड़ को अमूल कहते है। या यों कह सकते हैं किः-

‘कारणे कारणाभावादकारणं कारणम्’

अर्थात् कार्य का कारण होता है कारण का कारण नहीं होता। जब तक किसी वस्तु का कार्य होनार सिद्ध न हो जाय उसके कारण की खोज करना भूल है। तन्तु पट का कारण है। परन्तु तन्तु के स्वरूप को देखने से पता चलता है कि यह कार्य भी है। अतः कार्य होने के कारण उसका कारण खोजा जाता है न कि कारण होने के कारण। यह युक्ति तो इसी प्रकार की है जैसे नास्तिक लोग कहा करते हैं कि यदि जगत् को ईष्वर ने बनाया तो ईष्वर को किसने बनाया? उनको यह नहीं पता कि यदि जगत् का कार्यत्व सिद्ध न होता तो हम कभी जगत् के कत्र्ता की खोज न करते। इसलिये वैषेशिक के सूत्र में कोई अषुद्धि नहीं।

षं॰ स्वा॰-यदपि नित्यत्वे द्वितीयं कारणमुक्तम्-”अनितयमिति च विषेशतः प्रतिशेधाभावः“ (वै॰ 4।1।4) इति। तदपि नावष्यं परमाणूनां नित्यत्वं साधयति। असति हि यस्मिन्कारिमँष्चि न्नितये वस्तुनि नित्यषब्देन न´ाः समासो नोपपद्यते। न पुनाः परमाणुनित्यत्वमेवापेक्ष्यते। तच्चास्तयेव नित्यं परमकारणं ब्रह्म। न च षब्दाथव्यवहारमात्रेण कस्यचिदर्थस्य प्रसिद्धिर्भवत्ति, प्रमाणान्तर सिद्धयोः षब्दार्थयोव्यवहारावतारात्।

(षां॰ भा॰ 2।2।15 पृश्ठ 234)

अर्थः-यह जो परमाणु के नित्यत्व में दूसरा कारण दिया कि ‘अनित्य’ षबद कहने से ही नित्य की सिद्धि होती है। अर्थात् यदि कोई चीज नित्य न होती तो उसके साथ ‘न’ कार लकार अनित्य न बनाते। इससे भी यह सिद्ध नहीं होता कि परमाणु अवष्य ही नित्य सिद्ध हो जायँ। यदि कोई नित्य वस्तु हो ही न तो नित्य षब्द के साथ न´ा् सभास न लगेगा। इससे यह भी सिद्ध नहीं होता कि परमाणु नित्य है क्योंकि परम कारण ब्रह्म तो नित्य है ही। केवल किसी षब्द और अर्थ के व्यवहार मात्र से किसी अर्थ की सिद्धि नहीं हो सकती। जब तक किसी अन्य प्रमाण से उसकी सिद्धि न हो जाय।

हमारी आलोचना-वैषेशिक के जो सूत्र मिलते हैं उनमें ‘प्रतिवेधभावः’ है ‘प्रतिशेधाभावः’ नहीं। सम्भव है श्री षं॰ स्वा॰ को ऐसा ही पाठ मिला हो। इसकी व्याख्या आनन्द गिरि ने इस प्रकार की हैः-

कार्यमनित्यमिति कार्येविषेशतो नित्यत्वनिशेधी न स्याद्यदि कारणेऽप्यनित्यतवम्। अतोऽणूनां कारणानां नित्यतेति सूत्रार्थः।

अर्थात् यदि कारण भी अनित्य होता तो जैसा कारण अनित्य वैसा ही कार्य अनित्य, फिर कार्य में ‘अनित्य’ विषेशण लगाने की क्या आवष्यकता थी? कार्य की अनित्यता पर बल देने का अभिप्राय ही यह है कि कारण की नित्यता से कार्य में विषेशता उत्पन्न की जाय। इसलिये सिद्ध हुआ कि कारण अर्थात् परमाणु नित्य है। कारण और कार्य में यह भेदक-भित्ति है।

इस पाठ भेद से कुछ भेद नहीं पड़ता क्योंकि शंकर मिश्र ने उपस्कार में इस सूत्र का भाश्य करते हुये लिखा हैः-

तच्च न संभवतीति षेशः।

बात एक ही है। या तो ‘प्रतिशेधाभावः’ ऐसा कहो या ‘प्रतिशेधभावो न संभवति’ ऐसा कहो।

परन्तु षं॰ स्वा॰ का इस सूत्र का खण्डन ठीक नहीं। क्योंकि यह सूत्र ‘परमाणु की नित्यता’ ही सिद्ध करने के लिये नहीं लिखा गया अपितु,

सर्वमेवानित्यं नहि किंचिदपि नितयमिति मतं निरस्यति।                 (विवृति॰)

अर्थात् ‘सभी चीजें अनित्य हैं कोई भी नित्य नहीं’ इस बात का खण्डन इस सूत्र से किया गया है। सूत्रान्तर्गत युक्ति स्पश्ट है और ठीक है। यदि सभी पदार्थ अनित्य होते कोई नित्य न होता तो ‘अनित्य’ षब्द भी न होता। क्योंकि जितने षब्द है वे अपने वाच्य की अन्य पदार्थो से विषेशता बताते हैं। यदि संसार की समस्त वस्तुयें काली होती तो काला, पीला, लाल, सफेद ये षब्द भी न होते। इससे करण का नित्यतव सिद्ध है।

रही बात कि ‘ब्रह्म नित्य है, परमाणु नहीं।’ यह भी ठीक नहीं। क्योंकि ब्रह्म तो उपादान नहीं हो सकता। इसका हम कई स्थानों पर वर्णन कर चुके है। कोई युक्ति या दृश्टान्त अभिन्न-निमित्त-उपादान कारण को सिद्ध नहीं करता। अतः नित्य उपादान कारण परमाणुओं को ही मानना पड़ेगा।

श्री षं॰ स्वा॰ का यह कहना भी ठीक नहीं कि केवल षब्द के व्यवहार से कुछ नहीं होता जब तक अन्य प्रमाणों से कोई चीज सिद्ध न हो। क्योंकि प्रकृत युक्ति में कोई त्रुटि प्रतीत नहीं होती। जिस प्रतिपत्ति को सिद्ध किया गया है अर्थात् ”कुछ न कुछ नित्य अवष्य है“ उसकी युक्ति पर्याप्त है।

षं॰ स्वा॰-(1) यदपिनित्यत्वे तृतीयं कारणमुक्तम्-‘अविद्या च’ (वै॰ 4।15) इति, तद्यद्येवं विव्रीयेत सतां परिदृष्यमानकार्याणां कारणानां प्रत्यक्षेणग्रहणमविद्येति, ततो द्वîणृकनित्यताऽप्यपद्येत।

अर्थः- परमाणु के नित्यत्व का साधक है। यदि न दीख पड़ने से ही कोई चीज नित्य हो जाय तो द्वîणुक भी नहीं दीखते अतः वह भी नित्य होने चाहिये।

(2) अथाद्रव्यत्वे सतीति विषेश्येत तथाप्यकारणवत्त्वमेव नित्यता निमित्तमापद्येत। तस्य च प्रागेवोक्तत्वात् ‘अविद्या च’ इति पुनरूक्तं स्यात्।

यदि ‘अविद्या च’ इस सूत्र को इस प्रकार पढ़ा जाय ”अविद्या च अद्रव्यत्वेसति“ अर्थात् कारण का कारण नहीं होता अतः दिखाई नहीं पड़ता, तो यह बात हो ‘सदाकारणवन्नित्यम्’ (वै॰ 4।1।1) इसी सूत्र में बता दी गई। फिर एक दूसरा सूत्र बना कर उसी की पुनरूक्ति की क्या आवष्यकता थी?

(3) अथापि कारणविभागात् कारणविनाषाच्चान्यस्य तृतीयस्य विनाष हेतोरसंभवोऽविद्या सा परमाणूनां नित्यत्वं ख्यापयतीति व्याख्यायेत। नावष्यं विनष्यद्वस्तु द्वाभ्यामेव हेतुभ्यां विनश्टुमर्हतीति नियमोस्ति।

यदि कहो कि नाष के दो ही कारण है एक तो कारण का विभाग हो जाना (जैसे मकान की ईटें यदि अलग अलग हो जाये तो मकान का नाष हो जाय), दूसरा कारण का नश्ट हो जाना। परमाणु विभाज्य नहीं, और न उनका नाष होता है। तीसरा कोई हेतु संभव नहीं है इसलिए परमाणु नित्य है। तो यह ठीक नहीं क्योंकि वस्तु के नाष के यही दो हेतु नहीं है।

(4) संयोग सचिवेह्यनेकस्मिंष्च द्रव्ये द्रव्यान्तरम्यारम्भकेऽभ्युप गम्यमान एतदेवं स्यात्।

यह तो तभी हो सकता है जब मान लिया जाय कि दो चीजों के मिलने से ही तीसरी चीज बनती है।

(5) यदा त्वापास्तविषेशं सामान्यत्मकं कारणं विषेशवदवस्थान्तरमापद्यमानमारम्भकमभ्युपगम्यते।

परन्तु यदि यह माना जाय कि एक वस्तु पहले सामान्य मात्र थी, उसमें विषेशता कुछ न थी। फिर वह विषेश अवस्था में आ गई और कार्य बन गई। तो

(6) तदा घृत काठिन्य विलयनवन् मूत्र्यवस्था विलयनेनापि विनाष उपपद्यते।

(षां॰ भा॰ 2।1।18 पृश्ठ 205)

तो जिस प्रकार जमा हुआ घी पिघल कर विलय हो जाता है इस प्रकार भी नाष हो सकेगा।

हमारी समालोचना-पहले षं॰ स्वा॰ की युक्तियों को सरल भाशा में रख दिया जाय। शंकर स्वामी सिद्ध करना चाहते है कि परमाणु के नित्यत्व की जो युक्यिाँ वैषेशिक में दी हुई हैं वे सब गलत है। एक युक्ति यह है कि परमाणु के टुकड़े हो ही नहीं सकते। अतः कैसे नाष होगा। जब नाष न होगा तो परमाणु नित्य ठहरे। योंही तो अभाव हो न जायगा।

षं॰ स्वा॰ कहते है कि यदि चीजें कई चीजों के मिलने से ही बना करती तो यह बात ठीक थी। परन्तु चीजों के बनने की एक रीति यह भी है कि पहले एक वस्तु सामान्य रूप में हो उसमें विषेशता न आई हो। फिर उसकी अवस्था बदल जाय, उसमें विषेशता न थी। अब अवस्थान्तर हो गई। बर्फ बन गई। बर्फ के पिघलने से बर्फ का नाष हो गया। उसके टुकड़े टुकड़े अलग होने की आवष्यकता नहीं। यदि इसी प्रकार बर्फ जल हो सकती है तो जल एक तीसरी चीज जो सकता है। इस प्रकार आगे बढ़ते बढ़ते ब्रह्म तक पहुँच जायँगे। परमाणुओं की क्या आवष्यकता?

इस प्रकार षं॰ स्वा॰ ने गुण परिणामवाद का आश्रय लेकर आरम्भकवाद का खण्डन किया है।

परन्तु उनका यह कहना ठीक नहीं। यदि एक ही वस्तु ही। अनेक न हो। तो गुण परिणाम भी नहीं होता। यदि अकेला घी हो और ताप न हो तो घी न जमे, न पिघले; न जल जम कर बर्फ हो, न बर्फ पिघल कर जल बने। दूसरे यदि जल या घी के बिन्दु अलग अलग न हो तो भी जमने या पिघलने का प्रष्न नहीं उठता। जितने दृश्टान्त गुण परिणाम के मिलते है उनमें से कोई भी अखण्ड एक रस वस्तु के नहीं है। आष्चर्य है कि षं॰ स्वा॰ घी को अखण्ड एक पदार्थ मानते हैं। यदि ऐसा हो तो एक पात्र के घी को कई पात्रों मे बाँटा न जा सके। मिट्टी सामान्य है। उसमें घटत्व की विषेशता नहीं है। परन्तु यह कहना ठीक नहीं कि बिना आरम्भक क्रिया के केवल गुण परिणाम से घट बन गया। सामान्य में विषेशता आवेगी ही तब, जब उसके टुकड़ों का क्रम बदल दिया जाय। अतः गुण परिणाम और आरम्भक में ऊपरी भेद है। वास्तविक भेद नहीं। फिर शंकर स्वामी तो विवर्तवादी है। अतः उनका तो गुण परिणाम से भी काम नहीं चलता।

यदि कहो कि शंकर स्वामी पहले विवर्त मान कर फिर गुण-परिणाम मानते है, जैसे पहले स्वप्न देखा फिर उसमें कारण-कार्य की परम्परा चल पड़ी। तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि गुण परिणाम के पीछे तो विवर्त संभव है विवर्त के पीछे गुण परिणाम संभव नहीं। यह तो संभव है कि जल की बर्फ बन जाय और कोई धोखे से उसे रूई का गाला समझने लगे। परन्तु यह संभव नहीं कि बर्फ को रूई का गाला समझ कर कोई उसके कात कर कपड़ा बुन सके। यही कारण है कि स्वप्न की देखी हुई वस्तुओं में देष, काल, तथा कारण-कार्य की मर्यादा नहीं रहती।

(8)

परमाणु और भूत

षं॰ स्वा॰-एवमेतानि चत्वारि भूतान्युपचितापचित गुणानि स्थूल सूक्ष्म सूक्ष्मतरसूक्ष्मतमतारतम्योपेतानि च लोके लक्ष्यन्ते, तद्वत् परमाणवोऽप्युपचितापचितगुणाः कल्प्येरन्नवा।

(अ) कल्प्यमाने तावदुपचितापचित गुणत्वे परमाणुत्वसामयप्रसिद्धये यदि तावत् सर्व एकैकगुणा एव कल्प्येरंस्ततस्तेजसि स्पर्षस्योपलब्धिर्न स्यात्।

(इ) अथ सर्वे चतुर्गुणाएव कल्प्येरन्, ततोऽप्स्वपि गन्धस्योपलब्धिस्यात्।

(षां॰ भा॰ 2।2।16 पृश्ठ 235)

अर्थः-जैसे चार भूतो में किसी में कम गुण हैं किसी में अधिक, इस प्रकार कोई स्थूल है कोई सूक्ष्म, इसी प्रकार क्या उनके परमाणुओं में भी स्थूल सूक्ष्म का तारतम्य है

(अ) यदि तारतम्य मानो तो उनके परिमाण में भी तारतम्य होगा क्योंकि जिसमें अधिक गुण होगे उसका परिमाण बड़ा होगा।

(आ) यदि मानो कि सब मे समान गुण है तो या एक ही गुण सब में मानो। उस दषा में अग्नि में स्पर्ष न होगा, जल में रूप और स्पर्ष न होगा, पृथ्वी में रस, रूप तथा स्पर्ष न होगा। क्योंकि कारण के गुण कार्य में आते हैं।

(इ) या हर परमाणु में चारों गुण मानो, तो जल में गन्ध, अग्नि में गन्ध और रस, वायु में गन्ध, रस और रूप भी होना चाहिये। ऐसा नहीं है।

अतः परमाणुकारणवाद ठीक नहीं।

हमारी आलोचना-शंकर स्वामी ने तीन विकल्प दिये। चैथा छोड़ दिया। वही निर्दोश था। न तो हर परमाणु में एक गुण मानो न हर परमाणु में चारों गुण। अपितु भिन्न-भिन्न भूतों के भिन्न भिन्न परमाणु मानो और उनमें उस भूत का मुख्य गुण मानो। जैसे पृथ्वी के परमाणु का गुण गन्ध है, जल के परमाणु का रस, अग्नि के परमाणु का रूप, वायु के परमाणु का स्पर्ष। इन सब के संयोग से भूत बनते हैं। बने हुये भूतों में जो वायु के परमाणुओं से भूत बना वह सूक्ष्मतम वायु-भूत होने से केवल स्पर्षवान् हुआ। जिसमें वायु और अग्नि के परमाणु मिले वह अग्नि-भूत होने से रूप और स्पर्षवान् हुआ, जिसमें वायु अग्नि तथा जल के परमाणु मिले वह जल-भूत होने से स्पर्ष, रूप तथा रसवान् हुआ। और जिसमें वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी के परमाणु मिले वह पृथ्वी-भूत होने से स्पर्ष, रूप, तथा गन्धवान् हुआ। इन पांच भूतों के अपने अपने मुख्य गुण का ज्ञान त्वक्, चक्षु, रसन, प्राण तथा श्रोत्र इन्द्रियों से अलग अलग होता है।

यदि आप इस सिद्धान्त को दूशित समझते हैं तो आपके पास माया-विवर्त को छोड़कर और कोई सिद्धान्त नहीं रह जाता। और आपके इस सिद्धान्त में इतने दोश है कि अन्त में आपको अनिर्वचनीयता का आश्रय लेना पड़ता है। अनिर्वचनीय कह कर पल्ला छुड़ाना तो दार्षनिक मनोवृत्ति के सर्वथा विपरीत है।

(9)

वैषेशिक के छः पदार्थ

(1) वैषेशिकास्तन्त्रार्थभूतान् शट्पदार्थान् द्रव्य गुण कर्म सामान्य विषेश समवायाख्यान्, अत्यन्त भिन्नान्, भिन्नलक्षणान्, अभ्युपगच्छन्ति। यथा मनुश्योऽष्वः षष इति।

(2) तथात्वं चाभ्युगम्य तद् विरूद्धं द्रव्याधीनत्चं षेशाणामभ्युपगच्छन्ति। तन्नोपपद्यते।

(षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 235-236)

अर्थ-(1) वैषेशिक लोग छः पदार्थ मानते हैं द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विषेश, समवाय। इन के भिन्न-भिन्न लक्षण करते है। इन को इतना ही भिन्न मानते है जैसे मनुश्य, घोड़ा, खरगोष।

(2) ऐसा मानकर भी द्रव्य के आधीन षेश पांचों को मानते हैं। यह ठीक नहीं।

(3) अथ भवति द्रव्याधीनत्वं गुणादीनां ततो द्रव्यभावे भावाद् द्रव्याभावेऽभावाद् द्रव्यमेव संस्थानादि भेदादनेक षब्द प्रत्यय भाग् भवति। यथा देवदत्त एक एव सन्नवस्थान्तरयोगादनेक षब्द प्रत्ययभाग् भवति तद्वत्।             (पृश्ठ 236)

जब गुण कर्म आदि पांचो द्रव्य के आधीन हैं तो द्रव्य के होते हुये होंगे; द्रव्य के न होते हुये न होंगे, तो इसका अर्थ तो यही हुआ कि द्रव्य ही संस्थान-भेद से अनेक षब्द का वाच्य होगा जैसे देवदत्त भिन्न भिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न षब्दों से पुकारा जाता है।

वैषेशिक का पूर्वपक्षः-ननु अग्नेरन्यस्यापि सतो धूमस्याग्न्यधीतत्वं दृष्यते।    (पृश्ठ 236)

धुआं अग्नि से भिन्न है फिर भी अग्नि के आधीन है।

षां॰ उत्तरपक्ष-नैव द्रव्यगुणयोरग्नि-धूमयोरिव भेदप्रतीतिरस्ति।        (पृश्ठ 236)

अग्नि और धूम की प्रतीति तो अलग-अलग होती है द्रव्य और गुण की इसी प्रकार नहीं होती।

हमारी आलोचना-द्रव्य, गुण, कर्म आदि भिन्न पदार्थ तो है परन्तु मनुश्य, घोड़ा, खरगोष के समान भिन्नता नहीं। घोड़ा मनुश्य से उसी प्रकार भिन्न नहीं जैसे घोड़े का रंग घोड़े से भिन्न है। यह तो प्रत्यय-विधान पर विचार करने से ही स्पश्ट हो जाता है। मनुश्य और घोड़े का विशम दृश्टान्त भ्रमोत्पादक है। यह कहना ठीक नहीं कि संस्थान भेद से द्रव्य ही गुण आदि कहलाता है। क्योंकि यदि गुण, कर्म आदि भिन्न न मानो तो संस्था भेद भी कैसे होता? देवदत्त की भिन्न-भिन्न अवस्थाये भी तो कर्म आदि के भिन्नत्व के कारण है। जल और जल के प्रवाह को एकात्मता प्राप्त नहीं है। यदि गुण और गुणी को एक माना जाय तो दूध और मिठास तथा दूध और सफेदी एक होने ओर इस प्रकार मिठास और सफेदी को एक मानना पड़ेगा जो नितान्त निरर्थक है।

दूध = मिठास

दूध = सफेदी

मिठास = सफेदी।

(10)

अयुतसिद्ध का लक्षण

वैषेशिक का पूर्वपक्ष-गुणादीनां द्रव्याधीनत्वं द्रव्य गुणयोरयुतसिद्धत्वात्।

द्रव्य और गुण अयुत सिद्ध हैं अतः गुण द्रव्य के आधीन है।

षां॰ उत्तर पक्ष-(1) तत् पुनयुतसिद्धत्वमपृथग्देषत्वं वा स्यादपृथक्कालत्वं वाऽपृथक्स्वभावत्वं वा। सर्वथापि नोपपद्यते।

अयुतसिद्ध से क्या तात्पर्य है? देष की अपेक्षा अपृथक्त्व, या काल की अपेक्षा, या स्वभाव की अपेक्षा? तीनों दषायें नहीं बनती।

(2) अपृथग्देषत्वे तावत् स्वाभ्युपगमो विरूध्येत।………………तन्तवो हि कारणद्रव्याणि कार्यद्रव्यं पटमारभन्ते तन्तुगताष्व गुणाः षुक्लादयः कार्यद्रव्ये परे षुक्लादिगुणान्तरमारभन्त इति हि तेऽम्युपगच्छन्ति। सोऽम्युपगमो द्रव्य गुणयोरपृथग्देषत्वेऽम्युपगम्यमाने बाध्येत।

(षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 236)

अपृथग्देषत्व वैषेशिक के अपने ही सिद्धान्त को काटता है।……………इनका सिद्धान्त यह है कि कारण द्रव्य तन्तु कार्य द्रव्य वस्त्र को उत्पन्न करते है। ऐसा मानने से द्रव्य और गुण का अपृथग्देषत्व खण्डित हो जाता है।

हमारी आलोचना-यह आक्षेप ठीक नहीं। केवल षाब्दिक भूल-भुलावा है। द्रव्य और गुण का अपृथदेषत्व तो वैसा ही बना है। जहाँ तन्तु है वहीं तन्तु की सफेदी है। वहीं तन्तु से बना वस्त्र है और वहीं वस्त्र की सफेदी भी है। यह किसने कहा कि कपड़ा किसी और जगह है और उसकी सफेदी और जगह?

(3) अथापृथक्कालत्वमयुतसिद्धन्वमुच्येत सव्य दक्षिण योरपि गोविशाणयोरयुतसिद्धत्वं प्रसज्येत। (षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 236)

यदि अपृथक्कालत्व को अयुत सिद्धत्व माना जाय तो गाय के दाहिने और बांये सींग भी अयुत सिद्ध होंगे।

हमारी आलोचना-समकालीनतव का नाम अयुसिद्धत्व नहीं है। यो तो लन्दन की टेम्स ओर प्रयाग की गंगा अयुत सिद्ध होंगे क्योंकि इनमें समय की दूरी नहीं है। गाय का दहिना सींग टूट सकता है बायाँ सींग बना रह सकता है। यह अयुत सिद्ध कैसे? क्या यह दृश्टान्त गुण और द्रव्य पर लागू हो सकता है?

(4) तथाऽपृथक् स्वभावत्वे त्वयुतसिद्धत्वे न द्रव्यगुणयोरात्म भेदः संभवति।

(षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 237)

यदि स्वभाव की अपेक्षा से अयुत सिद्ध मानो तो द्रव्य और गुण में भेद नहीं रहेगा।

हमारी आलोचना-यहाँ भी स्वभावैकत्व और स्वभावापेक्षितायुतसिद्धत्व में बहु भेद है। एक स्वभाव के हो सकते हैं कि वे सर्वप्रकारेण एक दूसरे से पृथक्् न हो सके जैसे द्रव्य और गुण। या मेज और उसकी लम्बाई। जहाँ मेज है वहाँ उसकी लम्बाई है। जब तक मेज की लम्बाई है तब तक मेल है। यद्यपि मज और लम्बाई एक (अनन्य) नही। मेज का स्वरूप और है, लम्बाई का और। मेज के प्रत्यय और लम्बाई के प्रत्यय (ज्ञान) में भी भेद है। कोई मेज को लम्बाई नहीं कहता, न लम्बाई को मेज। फिर भी दोनों के स्वरूप इस प्रकार के है कि उनमें पृथक्त्व की कल्पना हो ही नहीं सकती। यहाँ शंकर स्वामी ने तीन विकल्प उठा कर जो अयुत सिद्धतव का खण्डन किया वह दृश्टान्तों की विशमता के कारण स्वंय खण्डित हो गया।

(11)

समवाय और संयोग

षं॰ स्वा॰-नापि संयोगस्य समवायस्य वा संबन्धस्य संबन्धिव्यतिरेकेणास्तितवे किंचित् प्रमाणमस्ति। संबन्धिषब्द प्रत्ययव्यतिरेकेण संयोगसमवाय षब्द प्रत्ययदर्षनात् तया रस्तितवमिति चेत्।न। एकत्वेऽपि स्वरूप बाह्यरूपापेक्षयानेक षब्द प्रत्ययदर्षनात्। यथैकोऽपि सन् देवदत्तो लोके स्वरूपं संबन्धिरूपं चापेक्ष्यानेक षब्द प्रत्ययभाग् भवति, मनुश्यो, ब्रह्मणः श्रोत्रियो वदान्तो बालो युवा स्थविरः पिता पुत्रः पौत्रो भ्राता जामातेति। यथा चैकापि सती रेखा स्थानान्यत्वेन निविषमानैकदषषसहस्त्रादि षब्द प्रत्ययभेदमनुभवति।   (षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 237)

अर्थः- संबन्ध से इतर न तो संयोग संबन्ध के अस्तित्व का कोई प्रमाण है न समवाय संबन्ध के अस्तित्व का। यदि कहो कि षब्द अलग अलग है इसलिये इनके भाव भी अलग अलग होगे। तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न अपेक्षा से भिन्न-भिन्न नाम होते है। जैसे देवदत्त एक है परन्तु स्वरूप और सबन्धिरूप की अपेक्षा से अनेक षब्दों का वाच्य होता है। जैसे मनुश्य, ब्रह्मण, श्रोत्रिय, बालक, युवा, स्थविर, पिता, पुत्र, पौत्र, भ्राता, जमाता आदि। इसी प्रकार एक ही रेखा (अंक) भिन्न-भिन्न स्थानों पर रक्खी जाय तो इकाई, दहाई, सैकड़ा वा हजार का वाचक हो जाती है।

हमारी आलोचना-शंकर स्वामी दृश्टान्त देते है वैषेशिक सिद्धान्त की पुश्टि का और प्रदर्षन कर देते है उसके खण्डन का। यह शंकर स्वामी की तर्क षैली की विलक्षणता। काटतेक है अपना हाथ और षत्रु समझता है कि मेरा हाथ काट डाला। इसको कहते है षस्त्र चलाने का कौषल। यहाँ दो दृश्टान्त दिये एक देवदत्त का, दूसरा रेखा का। किसलिये? संबन्धि से इतर संबन्ध के अस्तितव के खण्डन में। परन्तु सिद्ध क्या हुआ? संबन्ध का अस्तित्व! स्वयं कहते जाते हैं कि देवदत्त के भिन्न भिन्न नाम उसके ‘संबन्धि रूप’ की अपेक्षा से हैं। अर्थात् यदि संबन्ध न होता तो संबन्धी कैसे होता? फिर उसकी अपेक्षा कैसे होती? फिर देवदत्त के अनेक नाम कैसे होते? इससे तो संबन्ध का अस्तित्व सिद्ध होता है न कि असिद्ध। यही रेखा के दृश्टान्त से सिद्ध होता है। क्या दस, सौ, हजार, एक ही वस्तु के भिन्न भिन्न नाम है? यदि कहो कि अपेक्षा से है तो यदि द्रव्य से इतर गुण आदि पदार्थ न माने जायँ तो किसकी अपक्षा होगी? यदि कहो कि द्रव्य को द्रव्य की ही अपेक्षा होगी तो भी प्रष्न होगा कि क्या एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से कुछ संबन्ध है या नहीं। यदि कहो ‘है’ तो इस संबन्ध का नाम देना पड़़ेगा, चाहे संयोग हो चाहे समवाय। यदि कहो कि कोई संम्बन्ध नहीं तो ‘अपेक्षा’ का क्या अर्थ होगा? सांराष यह है कि शंकर स्वामी ने वैषेशिक के छः पदार्थो के खण्डन में जो युक्तियाँ दी हैं सब निस्सार है।

(12)

परमाणु और प्रदेष

षं॰ स्वा॰-अण्वात्ममनसामप्रदेषतवान्न संयोगः संभवति प्रदेषवतो द्रव्यस्य प्रदेषवता द्रव्यान्तरेण संयोग दर्षनात्।       (षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 237)

अणु आत्मा और मन का संयोग नहीं हो सकता। क्योंकि संयोग केवल प्रदेष (टुकड़े) वाले द्रव्यों में ही होता है। अणु आत्मा और मन में प्रदेषों का अभाव है।

हमारी आलोचना-यह तो शंकर स्वामी ने मान ही लिया कि संयाग प्रदेष वाले द्रव्यों में होता है। अब प्रष्न यह है कि क्या यह संयोग द्रव्यों में होता हैं या द्रव्यों के प्रदेषों में? यदि कहो कि द्रव्यों के प्रदेष संयुक्त होते है तो क्या इन प्रदेषों के भी प्रदेष होते हैं या नहीं। ‘नहीं’ तो कह नहीं सकते क्योंकि प्रदेष सापेक्षक चीज है। षरीर की अपेक्षा से हाथ की अपेक्षा से उंगलियाँ, उंगलियों की अपेक्षा से उंगलियों के सिरे, उंगलियों के सिरों की अपेक्षा से उंगलियों के नख, नखों की अपेक्षा से नखों के सिरे। फिर संयोग तो अन्ततोगत्वा उन्हीं प्रदेषों का होगा जो सीमान्त पर है। वे प्रदेष तो फिर प्रदेषवान् न होंगे। जिस प्रकार प्रदेषो के ये सीमान्त संयुक्त हो सकते है उसी प्रकार परमाणु, मन और आत्मा में भी संयोग संभव है। बात बारीक थी, युक्ति मोटी दी। काट न सके। कुल्हाड़ी मार कर विद्युत् की धारा को कैसे काट सकते हैं?

(13)

संष्लेश का प्रष्न

षं॰ स्वा॰-द्वाभ्यां परमाणुभ्यां निरवयवाभ्यां सावयवस्य द्वîणुकस्याकाषेनेव संष्लेशानुपपत्तिः। न ह्याकाषस्य पृथिव्यादीना च जातुकाश्ठवत् संष्लेशोऽस्ति।

(षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 238)

अर्थः-दो निरवयव परमाणुओं का सावयव द्वîणुक के साथ उसी प्रकार संष्लेश नहीं हो सकता जैसे आकाष के साथ नहीं हो सकता। क्योंकि आकाष और पृथ्वी आदि का वही संबन्ध नहीं है जो काश्ठ और वार्निष का है।

हमारी आलोचना-यह आक्षेप पहले दिये हुये ‘प्रदेषवत्व’ आक्षेप का छोटा रूप है और संख्या वृद्धि के लिए किया गया है। जिस प्रकार दो परमाणु संयुक्त होकर द्वîणुक बना सकते हैं उसी प्रकार तीसरा परमाणु भी से संयुक्त हो सकेगा उसमे आपत्ति ही क्या है? ‘प्रदेषवत्व’ सम्बन्धी आक्षेप का हम ऊपर उत्तर दे चुके है। वस्तुतः इस आक्षेप में गाड़ी के पीछे घोड़ा जोता गया है। ‘प्रदेषत्व’ संयोग में निमित्त नहीं होता अपितु संयोग द्वारा उत्पन्न होता है, वह संयोेग में निमित्त नहीं होता अपितु संयोग द्वारा उत्पन्न होता है, वह संयोग का कार्य है कारण नहीं। जब तक संयोग न होगा प्रदेष भी न होगे। जब तक कई वस्तुयें न मिलें अवयव और अवयवी नहीं हो सकते। यह तो कहा जा सकता हैं कि जब परमाणु से आगे कोई विभाजन हो ही नहीं सकता और परमाणु किन्हीं दो चीजों से मिल कर नहीं बना तो वह प्रदेषवान नहीं है। पहले संयोग हो तब प्रदेषवतव हो। परन्तु यहाँ उलटी माँग है। कहते है कि प्रदेषवत्व नहीं तो संयोग कैसे होगा? हम तो ”कैसे?“ का यह उत्तर देते है कि लोक के टुकड़़ो से संयुक्त होकर मेज कैसे बनती है। इत्यादि।

अब प्रष्न है ‘संष्लेश’ का। ‘संष्लेश’ के यह लक्षण किये गये हैं-

संष्लेशः संग्रह एकाकर्शणेनापराकर्शणम्।

अर्थात् यदि कोई चीजें ऐसी मिल जायं कि एक दूसरे को आकर्शित करने लगे तो उसको संष्लेश कहते है। जैसे लकड़ी पर वार्निष लगाई जाय तो  लकड़ी की वार्निष को पकड़ लेती है और वार्निष लकड़ी को। वार्निष और लकड़ी के संष्लेश का दृश्टान्त देकर तो षं॰ स्वा॰ ने संष्लेश को और सुदृढ़ कर दिया। यदि कोई पूछे कि परमाणु का द्वयणुक से कैसे संष्लेश होता है? तो हम उत्तर देंगे ”जतुकाश्ठवत्“। जैसे वार्निष के परमाणुओं का लकड़ी के परमाणु के साथ होता है।

(14)

समवाय और अन्योन्याश्रय दोश

वैषेशिक का पूर्वपक्षः-काय्र्यकारणद्रव्ययोराश्रिताश्रयभावोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यवष्यं कल्प्यः समवायः इति।    (पृश्ठ 238)

अर्थः-काय्र्य कारण में आश्रित आश्रय भाव अन्यथा न हो सकेगा अतः समवाय सम्बन्घ की कल्पना आवष्यक हो गई।

षं॰ स्वा॰ का उत्तर पक्षः-न, इतरेतराश्रयत्वात्। कार्यकारणयोर्हिभेदसिद्धावाश्रिताश्रयभावसिद्धिराश्रिताश्रयभावसिद्धौ च तयोर्भेदसिद्धिः कुण्डवदरवद् इति इतरेतराश्रयतास्यात्।        (पृश्ठ 238)

अर्थः-ऐसा नहीं। इसमें तो अन्योन्याश्रय दोश है। काय्र्य कारण का भेद सिद्ध हो गया तब आश्रित-आश्रय भाव की सिद्धि हुई। और जब आश्रिय-आश्रय भाव सिद्ध हो गया तब कार्य-कारण के भेद की सिद्धि हुई।

हमारी आलोचना-इसमें अन्योन्याश्रयदोश नहीं। काय्र्य-कारण का सम्बन्ध और अश्रित-आश्रय का सम्बन्ध दो अलग अलग सम्बन्ध नहीं। एक ही सम्बन्ध के दो नाम है। इस सम्बन्ध को समवाय सम्बन्ध कहते है। सम्बन्ध तो स्वयं सिद्ध है। दो वस्तुयें होंगी तो उनमें कोई न कोई सम्बन्ध अवष्य होगा। जिनको आप सिद्ध-साधक कहते हैं और अन्योन्याश्रय दोश बताते हैं वे वस्तुतः वाच्य वाचक हैं। हम समवाय को साधक मान कर सम्बन्ध की सिद्धि नहीं करते अपितु स्वतः सिद्ध सम्बन्ध का ‘समवाय’ नाम रखते है।

आपका यह कहना कि वेदान्ती। लोग कारण और काय्र्य में भेद नहीं मानते ठीक नहीं। यदि ऐसा है तो ”जन्माद्यस्य यतः“ का क्या अर्थ कीजियेगा? और ब्रह्म को जगत् का क्या अर्थ कीजियेगा? और ब्रह्म को जगत् का अभिन्न-निमित्त-उपादान-कारण कैसे मानेंगे? आप मानते कुछ हैं और कहते कुछ हैं।

(15)

परमाणु और दिषायें

षं॰ स्वा॰-परमाणूनां परिच्छिन्नत्वाद् यावत्यो दिषः शडश्टौ दष वा तावöिरवयवः सावयवास्ते स्युः सावयवत्वाद नित्याष्चेति नित्यतवनिरवयवतवाभ्युपगमो बाध्येत।

(षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 238)

अर्थ-परमाणु परिच्छिन्न एकदेषी है अतः उसमें छः, आठ या दष दिषायें होंगी। दिषाओं के कारण अवयव मानने पड़ेंगे। सावयव वस्तु अनित्य होती है। इससे वैषेशिक का यह सिद्धान्त खण्डित हो जायगा कि परमाणु निरवय और नित्य है।

हमारी आलोचना-परमाणुवाद के विरूद्ध यह सबसे प्रबल युक्ति समझी जाती है परन्तु है यह युक्त्याभास मात्र। जब तक किसी वस्तु में अवयव न मान लो दिषाओं की कल्पना ही नहीं हो सकती। जब तक किसी वस्तु के दो सिरों में व्यवधान न माना जाय यह नहीं कहा जा सकता कि यह पूर्व है और यह पष्चिम। निरवयव वस्तु में कोई बीच का व्यवधान नहीं। वहाँ तो सब दिषायें मिलती हैं। याद रखना चाहिये कि पूर्व और पष्चिम दिषाओं का ज्ञान अपेक्षा से होता है जिसको एक अपेक्षा से पूर्व कहते है उसको दूसरी अपेक्षा से पष्चिम भी कह सकते हैं। कानपुर दिल्ली से पूर्व है और प्रयाग से पष्चिम। निरवयव में अपेक्षा न होने के कारण दिषाओं का भेद भी नहीं हो सकता।

यदि आप कहें कि हम दिषाओं की कल्पना कर लेते हैं तो हम आपके ही षब्दों में कहेंगेः-

अविद्यमानार्थकल्पनायां सर्वाथसिद्धिप्रंसगत्          (षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 237)

अर्थात् जो है नहीं उसकी जितनी चाहो कल्पना किये जाओ। कोई सीमा तो है नहीं। ऐसी उच्छृखल कल्पना पर कुछ विचार नहीं हो सकता। मन के लड्डू हैं जितने चाहें बना लीजिये।

षं॰ स्वा॰-यांस्त्वं दिग्भेदभेदिनोऽवयवान् कल्पयसि त एव परमाण इति चेत् ।न। स्थूल सूक्ष्मतारतम्य क्रमेणापरमकारणाद् विनाषोपत्तेः।

(षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 238)

अर्थः-यदि कहा जाय कि जिनको तुम दिषा-भेद करने वाले अवयव समझते हो वे ही परमाणु है तो यह ठीक नहीं क्योंकि स्थूल सूक्ष्म के क्रम के कारण इनका विनाष हो सकेगा।

हमारी आलोचना-हम स्थूल-सूक्ष्म क्रम के विशय में पहले कह चुके है। यह कोई नई युक्ति नहीं है। पिश्ट-पेशण है। यदि आप किसी विषेश वस्तु को सावयव मानेगे तो उसके अवयव भी मानने पड़ेगे। यदि उन अवयवों को भी सावयव मानो तो उनके भी अवयव होगे। इस पर सिलसिला जारी रहेगा और अनवस्था दोश आयेगा। यदि कहीं विराम लेगे तो वही निरवयव सिद्ध होगा। उसी को परमाणु कहेंगे। वह अनित्य नहीं होना चाहिये।

इसी प्रसंग में षं॰ स्वा॰ ने 2।2।17 के भाश्य के अन्त में घृतकाठिन्य आदि पुरानी युक्तियो को दुहरा दिया है। हम इनकी मीमांसा ऊपर कर चुके है।

(16)

ईष्वर, वेद और वैषेशिक

षं॰ स्वा॰-तदेवमसारतरतर्क संदृब्धत्वाद्, ईष्वरकारण श्रुति विरूद्धत्वात्, श्रुतिप्रवणौष्व षिश्टैर्मन्वादिभिरपरिगृहीतत्वाद्, अत्यन्तमेवानपेक्षास्मिन् परमाणु कारणवादे कार्या श्रेयोर्थिमिरिति वाक्यषेशः।

(षां॰ भा॰2।2।17 पृश्ठ 238)

अर्थ-इस प्रकार तर्क से विरूद्ध, ईष्वर विशयक श्रुतियों से विरूद्ध, षिश्ट लोगों से अमान्य होने के कारण परमाणु कारणवाद का तिरस्कार करना चाहिये।

हमारी आलोचना-युक्तियों की सारता तो हमारे कथन से सिद्ध हो गई। जो युक्तियाँ खण्डन में प्रस्तुत की गई सब आभासमात्र सिद्ध हुई।

वैषेशिक वेद और ईष्वर को मानता है। इसका उल्लेख न केवल विशय के आदि में ही है। अपितु अन्तिम सूत्र में पुनः दुहराया गया है।

इस सिद्धान्त के मानने वाले कणाद आदि और उनके भाश्यकार प्रषस्तपाद आदि षिश्ट ही थे। उनको अषिश्ट कहना अनुचित है।

(17)

वादरायण और वैषेशिक

अब एक बात रह गई। मान लो कि षांकर भाश्य ने वैषेशिक का खण्डन अनुचित किया। परन्तु यह भाश्य तो वादरायण के सूत्रों का ही है। जो दोश षं॰ स्वा॰ पर लगाते हो वही वादरायण पर भी लगेगा। हम कहते है कि यह बात नहीं। वादरायण के सूत्रों के दूसरे अध्याय के दूसरे पाद के 12वें से 17वें तक सब सूत्र देख जाइये न कणाद कर उल्लेख है न वैषेशिक का। ये छः सूत्र निम्न हैः-

(12) उभयथापि न कर्मातस्तदभावः।

(13) समवायाभ्युपगमाच्च साम्यादनवस्थिेतेः।

(14) नित्यमेव च भावात्।

(15) रूपादिमत्त्वाच्च विपर्ययो दर्षनात्।

(16) उभयथाच दोशात्।

(17) अपरिग्रहाच्चात्यन्तमनपेक्षा।

(18)

ईष्वर निमित्त कारण है

षं॰ स्वा॰-(1) तथा वैषेशिकादयोऽपि केचित् कथंचित् स्वप्रक्रियानुसारेण निमित्तकारणमीष्वर इति वर्णयन्ति। अत उत्तरमुच्यते ‘पत्युरसाम´जस्यात्’ इति। पत्युरीश्वरस्य प्रधान पुरूशयोरधिश्ठातृत्वेन जगत् कारणत्वं नोपद्यते। कस्मात्। असाम´जस्यात्।।    (षां॰ भा॰ 2।2।37, पृश्ठ 256)

अर्थः-वैषेशिक आदि कुल, किसी प्रकार, अपनी प्रक्रिया के अनुसार मानते हैं कि ईष्वर निमित्त कारण है। इसका उत्तर देते है कि ईष्वर को प्रधान और पुरूश के अधिश्ठाता के रूप में जगत् का कारण मानना ठीक नहीं। क्यो? इसमें असाम´जस्य है।

(2) किं पुनऽसाम´जस्यम्।

वह असाम´जस्य क्या है?

(3) हीन मध्यमोत्तमभावेन हि प्राणि भेदान् विदधत ईष्वरस्य रागद्वेशादि दोश प्रसक्तेरस्मदादिवदनीश्वरत्वं प्रसज्येत।             (पृश्ठ 256)

अर्थः- ईष्वर ने किसी को हीन, किसी को मध्यम और किसी प्राणि को उत्तम बनाया। इस प्रकार ईष्वर में हमारे समान राग द्वेश आ गया। फिर वह ईष्वर कैसा?

(4) प्राणिकर्मापेक्षितत्वाददोश्ज्ञ इति चेत्। न। कमेश्वरयोः प्रवत्र्यप्रवर्तयितृत्वे इतरेतराश्रय दोश प्रंसगत्।  (पृश्ठ 256)

अर्थ-यदि कहो कि यह भेद प्राणियों के कर्मो के कारण है तो कर्म और ईष्वर एक दूसरे में प्रवृत्ति उत्पन्न करने वाले होंगे। इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोश लगेगा।

(5) नानादित्वादिति चेत्। न। वर्तमान कालवदतीतेश्वपि कालेश्वितरेतराश्रय दोशाविषेशादन्धपरम्परान्यायापत्तेः। (पृश्ठ 257)

अर्थ-यदि कहो कि कर्म अनादि है तो भी बात नहीं बनती। जैसे वर्तमान काल में उसी प्रकार भूतकालों में भी एक दूसरे के आश्रित होने से अन्ध परम्परा चल पड़ेगी।

(6) अपिच ‘प्रवर्तंनालक्षणादोशाः’। (न्याय सू॰ 1।1।18) इति न्यायवित्समयः। नहि कष्चिददोशप्रयुक्तेः स्वार्थे परार्थे वा प्रवर्तमानों दृष्यते। स्वार्थ प्रयुक्त एव च सर्वोजनः परार्थेऽपि प्रवर्तत इत्येवमप्यसाम´जस्यं, स्वार्थवत्त्वादीश्वरस्यानीश्वरत्व प्रसंगत्।

(पृश्ठ 257)

अर्थ-न्याय का सूत्र है कि प्रवृत्ति से दोश उत्पन्न होते हैं। कोई चाहे स्वार्थ में प्रवृत्त हो चाहे परार्थ में, उसे दोश लगता ही है। जो परार्थ का काम करते है। उनमें भी स्वार्थ होता ही है। इसलिये ईष्वर में दोश लगता है।

(7) पुरूशविषेशत्वाभ्युप्रमाच्चेश्वरस्य पुरूशस्य चैदासीन्याभ्युपगमादसामा´जस्यम्।

(षां॰ भा॰ 2।2।27 पृश्ठ 256-57)

अर्थः-ईष्वर को पुरूश विषेश मानने से पुरूश के समान ईष्वर में भी उदासीनता का प्रसंग होगा।

हमारी आलोचना-पहले तो सूत्र के अर्थ पर आपत्ति है। सूत्र में ‘न’ नहीं है। फिर भी बहुत दूर से उसकी अनुवृत्ति ली गई है। इसमें हम को संदेह है। ‘पत्युः न, असाम´जस्यात्’ ऐसा कैसे हो गया?

दूसरे, शंकर स्वामी ने इस सूत्र को पाषुनपत्य सम्प्रदाय के खण्डन में लगाकर फिर अनावष्यकतया ही वैषेशिक के खण्डन में लगा दिया। और पांच आक्षेप किये जिन पर हमने 3, 4, 5, 6, 7, संख्या डाली है। इन आपत्तियां के विरूद्ध षं॰ स्वामी स्वयं ही लिख चुके है। देखियेः-

(1) यदि हि निरपेक्षः केवल ईष्वरो विशमां सृश्टि निर्मिमीते स्यातामेतौ दोशौ वैशम्यं निर्घृण्यं च। न तु निरपेक्षस्य निर्मातृत्वमस्ति। सापेक्षो हीश्वरो विशमां सृश्टि निर्मिमीते। किमपेक्षत इति चेत्। धर्माधर्मावपेक्षत इति वदामः। अतः सृज्यमानप्राणि धर्माधर्मापेक्षा विशमा सृश्टिरिति नायनीश्वरस्यापराधः। ईष्वररस्तु पर्जन्यवद् द्रश्टव्यः।

(षां॰ भा॰ 2।1।34, पृश्ठ 217)

अर्थ-यदि ईष्वर निरपेक्ष भाव से स्वयं अकेला ही सृश्टि बनाता उस पर पक्षपात या निर्दयता का दोश लगता। कि एक को हीन बनाया और दूसरे को अच्छा। परन्तु ईष्वर तो धर्म अधर्म की अपेक्षा से सृश्टि रचता है। जो जैसा करता है उसको वैसा ही फल मिलता है इसमें ईष्वर क्या अपराध है? वह तो बादल के समान एक सा बरसता है। गन्न गन्ने को उत्पन्न करात है और मिर्च-मिर्च को।

(2) प्राक् सृश्टेरविभागावधारणान्नास्ति कर्मं यदपेक्ष्य विशमा सृश्टि स्यात्।……………………………………………नैश दोशः। अनादित्वात् संसारस्य, भवेदेश दोशो यद्यादिमान संसारः स्यात्। अनादौ तु संसारे बीजांकुरवद्धेतु मöावेन कर्मणः सर्गवैशम्यस्य च प्रवृत्तिर्नविरूघ्यते।   (षां॰ भा॰ 2।1।35 पृश्ठ 218)

अर्थ – यदि कहो कि सृश्टि के पहले तो कर्म था ही नहीं जिसकी अपेक्षा से सृश्टि विशम होती । …………………तो यह दोश नहीं । क्योंकि संसार प्रवाह रूप से अनादि है । यदि संसार आदि वाला होता तो आक्षेप ठीक था । अनादि संसार में तो बीज, अंकुर के समान कर्म और विशमता की श्रंखला बनी रहती है और इन की प्रवृत्ति में विरोध नहीं आता ।

दूसरे अध्याय के पहले पाद के 34 और 35वें सूत्र में इन आक्षेपों का ऐसा युक्ति – युक्त समाधान करके दूसरे अध्याय के दूसरे पाद के 37वें सूत्र में इन्हीं आक्षेपों को फिर प्राबल्य के साथ दुहराना घोर परस्पर – विरोध है । परन्तु षं॰ स्वा॰ की यह विषेशता है कि जिस युक्ति से वह एक विपक्षी के आक्रमण से अपने को बचाते हैं उसी युक्ति से अन्यत्र दूसरे विपक्षी का प्रध्वंस भी कर देते हैं । वहाँ यह नहीं सोचते कि जिस युक्ति को अपने पक्ष में लगाया उसी को विपक्ष में कैसे लगाया जाय । विपक्षी को मारना चाहिये किसी षस्त्र से क्यों न सही ।

यहाँ एक बात रह जाती है । षं॰ स्वा॰ कहते हैं कि लोग परार्थ भी स्वार्थवष करते हैं । यह सर्वतन्त्र सिद्धान्त नहीं । बहुत से लोग भी बहुत सा उपकार बिना किसी स्वार्थ के करते हैं, मातायें तो बच्चे के पालन में कुछ भी स्वार्थ नहीं रखतीं । कहा जा सकता है कि वह इसलिये बच्चों का पालन करती है कि वृद्धावस्था मंे उनसे सहायता मिलेगी । परन्तु माताओं का परार्थ इस विचार से नहीं होता । मुर्गी को तो यह भी आषा नहीं होती फिर भी वह अपने बच्चे का निःस्वार्थ भाव से पालन करती है । परन्तु यदि प्राणियों में स्वार्थ हो भी तो भी क्या ईष्वर में भी स्वार्थ मानना ही चाहिये ?

यदि ईष्वर कर्म के अपेक्षा से फल देता है तो इसमें अन्योन्याश्रय भाव कैसा ? सृश्टि की रचना तो ईष्वर के अधीन रही । केवल कर्म के अनुसार रही । इसको आप भी मानते हैं इसमंे विकल्प सम्भव ही नहीं ।

आपने यह बात तो अनोखी ही कही कि ईष्वर भी पुरूश है और जीव भी पुरूश है अतः जीवन के अवगुण ईष्वर मंे भी आ जायेंगे । यह तो ऐसी ही बात हुई कि सिंह भी प्राणी है और बकरी भी प्राणी । इसलिए सिंह की सी क्रूरता बकरी में भी होनी चाहिये । केवल पुरूश कहलाने से ही ब्रह्म और जीव एक नहीं हो जाते । भेद भी तो है ।

षं॰ स्वा॰ – नहि प्रधान पुरूशव्यतिरिक्त ईष्वरोऽन्तरेण संबन्धं प्रधानपुरूशयोरीषिता । न तावत् संयोगलक्षणः संबन्धः संभवति, प्रधान पुरूशेष्वराणां सर्वगतत्वान्निरवयत्वाच्चं । नापि समवायलक्षणः संबन्धः आश्रयाश्रयि भावानिरूपणात् । नाप्यन्यः कच्ंिश्रंत् कार्यगम्यः संबन्धः, षक्यते कल्पयितु काय्र्यकारणभाव – स्यैवाद्याप्यसिद्धत्वात् ।।

(षां॰ भा॰ 2।2।38 पृश्ठ 257)

अर्थ – प्रधान और पुरूश से अतिरिक्त ईष्वर को माना जाय तो ईष्वर अधिपति नहीं हो सकता । इनमंे संयोग सम्बन्ध तो हो नहीं सकता । क्योंकि ईष्वर भी सर्वव्यापक ओर निरवयव, प्रधान भी सर्वव्यापक और निरवयव, पुरूश भी सर्वव्यापक और निरवयव । समवाय सम्बन्ध भी नहीं । क्योंकि आश्रय – आश्रयि सम्बन्ध का निरूपण नहीं हुआ और कोई सम्बन्ध है नहीं । काय्र्य – कारण सम्बन्ध सिद्ध नहीं ।

हमारी आलोचना – यद्यपि प्रधान और जीव सर्वव्यापक नहीं । तथापि ईष्यर सर्वव्यापक है अतः संयोग सम्बन्ध नहीं । परन्तु आश्रय, आश्रित या आधार – आधेय सम्बन्ध होने से इसको समवाय सम्बन्ध कह सकते हैं । यदि समवाय सम्बन्ध को केवल काय्र्य कारण अयुत-सिद्ध यदार्थों तक सीमित रक्खों तो व्याप्य व्यापक सम्बन्ध भी है । इससे ईष्वर के ईषत्व मंे तो कोई विघ्न नहीं पडता ।

षं स्वा॰ – ब्रह्मवादिनः कथमितिचेत् । न तस्य तादान्म्य लक्षणं संबन्धोपपत्तेः ।

(षंा॰ भा॰ 2।2।38 पृश्ठ 257)

अच्छा तो ब्रह्मवादी क्या सम्बन्ध मानते हैं ? तादात्म्य सम्बन्ध ।

हमारी आलोचना – तादात्म्य सम्बन्ध कैसे बनेगा ? यों तो कोई वस्तु जड ही न रहेगी और प्रत्येक जीव ईष्वर के समान सर्वज्ञ होगा । याद रखना चाहिये कि सब सम्बन्ध दो या अधिक वस्तुओं के बीच में होते हैं । एक वस्तु में कोई संबन्ध हो ही नहीं सकता । शंकर स्वामी स्वंय कहते हैं ‘‘द्वयायत्तत्वात् संबन्धस्य’’ (षां॰ भा॰ 2।2।17, पृश्ठ 237, पंक्ति 3) ‘संबन्ध’ षब्द स्वंय बताता है (बन्ध – बन्धने धातु) । दो खूँटे एक रस्सी से बंध सकते हैं एक खूंटा नहीं । अतः ‘तादात्म्य’ सम्बन्ध वस्तुतः कोई संबन्ध है ही नहीं । यह तो उपचार मात्र की भाशा है । संबन्ध कई प्रकार के होते हैं । व्याप्य व्यापक संबन्ध, आधारधेय संबन्ध, गुण गुणी सबंन्ध, काय्र्य – कारण – सम्बन्ध, अवयव – अवयवी संबन्ध । इनके या तो अलग अलग नाम रखिये । या यदि इनको दो कोटियों मंे ही विभक्त करना चाहते हैं तो व्याप्य – व्यापक के लिये ‘समवाय’ सम्बन्ध उपयुक्त है । परन्तु एक कोटि के अन्तर्गत यदि कई अन्य प्रकार के सम्बन्ध आते हैं तो उनमें परस्पर पूर्ण विविक्ति होनी चाहिये । अन्यथा विचार में अविवेक आ जायगा । अर्थात् यदि व्याप्य – व्यापक सम्बन्ध को समवाय सम्बन्ध कहा जाय तो इससे काय्र्य – कारण का सम्बन्ध न समझ लिया जाय । यदि समवाय को केवल कार्य कारण या गुण गुणी तक सीमित रखना चाहते हैं तो व्याप्य – व्यापक सम्बन्ध को अलग तीसरा सम्बन्ध कहिये क्योंकि यह आपके सीमित समवाय में नही आता न संयोग में । दार्षनिक विचारों मंे यदि यह विवेक न रक्खा जाय तो आगे चल कर गडबड हो जाती है । और ठीक मीमांसा नहीं हो सकती ।

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