– आचार्य सोमदेव
जिज्ञासा – नमस्ते, मेरी निम्न जिज्ञासा है कृपया शान्त करने की कृपा करें।
यज्ञ के प्रकार –
मनुष्य जितने भी कर्म (मन, वचन, कर्म) करता है उन्हें बचपन से लेकर मृत्यु पर्यन्त अच्छी भावना से तथा बगैर राग द्वेष के करे वे सभी यज्ञ कहाते हैं। इस विषय में महर्षि दयानन्द जी द्वारा विस्तार से कब,कहाँ, कैसे बतलाया है?
समाधानः– यज्ञ एक उत्तम कर्म है जो कि सकल जगत् के परोपकारार्थ किया जाता है। यज्ञ का अर्थ केवल अग्निहोत्र ही नहीं है। महर्षि दयानन्द जी ने यज्ञ के विषय में विस्तार से लिखा है। महर्षि लिखते हैं- ‘‘यज्ञ उसक ो कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान अग्निहोत्रादि जिसने वायु, वृष्टि, जल, औषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुँचाना है, उसको उत्तम समझता हूँ।’’ (स.प्र. स्वमन्त. प्र. 23)
- 2. ‘‘यज्ञ अर्थात् उत्तम क्रियाओं का करना।’’
– ऋ. भा. भू.
इन दोनों स्थानों पर महर्षि ने इस यज्ञ का वर्णन सब जीवों को सुख पहुँचाने रूप में और जो उत्तम क्रियाएँ हैं वे सब यज्ञ हैं इस रूप में किया है। ये क्रियाएँ अच्छी भावना से की जाती है। कुछ अच्छी क्रियाएँ अन्य भावना से अर्थात् लोक में प्रसिद्धि की भावना से अथवा किसी ने कुछ बड़ा अच्छा कार्य किया कोई व्यक्ति उसे बड़े कार्य करने वाले को हीन दिखाने के लिए उससे बड़ा अच्छा कार्य कर सकता है। कहने का तात्पर्य है कि सदा अच्छी भावना से ही तथा बिना राग द्वेष के ही सब अच्छे कार्य होते हों ऐसा नहीं है फिराी ऐसा न होते हुए भी वे अच्छे कार्य यज्ञ कहला सकते हैं।
दूसरी ओर अच्छी भावना होते हुए भी दोष युक्त कार्य हो जाते हैं, ऐसे कार्य यज्ञ नहीं हो सकते। इसलिए जो भी प्राणी मात्र के परोपकारार्थ किया कार्य है यज्ञ ही कहलायेगा। और भी महर्षि दयानन्द इस यज्ञ को विस्तार पूर्वक समझाते हुए लिखते हैं। ‘‘……अर्थात् एक तो अग्निहोत्र से लेके अश्वमेधपर्यन्त,दूसरा प्रकृति से लेके पृथिवी पर्य्यन्त जगत् का रचनरूप तथा शिल्पविद्या और तीसरा सत्सङ्ग आदि से जो विज्ञान और योग रूप यज्ञ हैं।’’ ऋ. भा. भू.। इस पूरे संसार में परमेश्वर द्वारा यज्ञ हो रहाहै परमेश्वर की व्यवस्था से सूर्य इस संसार का सदा शोधन कर रहा हे, चन्द्रमा औषधियों में रस को पैदा कर यज्ञ कर रहा है, ये सब संसार की व्यवस्था यज्ञ ही है। वैज्ञानिकों द्वारा शिल्प विद्या से नई-नई खोज कर हम मनुष्यों के सुखार्थ दी जा रही हैं यह महर्षि को दृष्टि से यज्ञ ही तो हैं। सत्संग से ज्ञान विज्ञान को बढ़ाना यज्ञ ही है, योग्यास से आत्मोत्थान करना यज्ञ ही है। ये कहना अयुक्त न होगा कि सब श्रेष्ठ कार्य यज्ञ ही कहलाएंगे।