अब द्वितीयाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा करते हैं। इस अध्याय पर व्यूलरसाहब ने कहा है कि “यद्यपि द्वितीयाध्याय से लेकर षष्ठाध्यायपर्यन्त सब कथन मनुस्मृति में धर्मसूत्रों के अनुकूल है, तो भी बीच-बीच में कहीं-कहीं पीछे से श्लोक मिलाये जान पड़ते हैं। जैसे- इस द्वितीयाध्याय में प्रारम्भ से ११ ग्यारह श्लोक पीछे किन्हीं ने मिलाये हैं। अर्थात् १-५ तक श्लोक किसी भी धर्मशास्त्र के आशय से नहीं पाये जाते। छठा श्लोक पुनरुक्त है, क्योंकि बारहवें में यही बात कही गयी है, जो छठे में है। सातवें पद्य में आत्मश्लाघा दोष है, अर्थात् अपने आप ही प्रशंसा की है। आठवें और नववें श्लोक में फल दिखाया गया है तथा दशवें, ग्यारहवें श्लोकों में तर्क का निषेधरूप दोष आता है, क्योंकि धर्म विषय की तर्क से अवश्य परीक्षा करनी चाहिये। इस प्रकार आदि के ११ श्लोक प्रक्षिप्त हैं” इत्यादि।
इसका उत्तर यह है कि- यह नियम नहीं कर सकते कि जो एक किसी धर्मशास्त्र में हो और सबमें न हो वह प्रक्षिप्त माना जावे। क्योंकि सब लोग बराबर नहीं कह सकते, अर्थात् आप ही पहले कही बात का प्रत्यक्षर अनुवाद कोई नहीं कर सकता। इस समय भी पुस्तक बनाने वाले विद्वान् लोग एक ही विषय में अपने-अपने अनुभव को लेकर न्यूनाधिक लिखते वा कहते हैं, उनमें किसी का कथन प्रक्षिप्त वा प्रामादिक नहीं समझा जा सकता। किन्तु जो प्रकरण-विरुद्ध, धर्म-विरुद्ध वा पक्षपात-युक्त हो वही प्रक्षिप्त है। किन्तु किसी अन्य की अपेक्षा से अधिक कथन प्रक्षिप्त नहीं है।
और जो छठे, बारहवें श्लोकों में पुनरुक्त दोष दिया, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि उन दोनों के अभिप्राय में भेद है। और कदाचित् पुनः वही बात कही भी गयी हो, तो अनुवादार्थ मानने में दोष नहीं। छठे श्लोक में धर्म का मूल दिखाया, और बारहवें में साक्षात् धर्म का स्वरूप कहा है। छठे में मनु जी का मत दिखाया गया है, और बारहवें में अपने मत का अनुवाद करके अपना मत पुष्ट करने के लिये अन्य लोगों की सम्मति “आहुः” क्रिया से दिखायी है। इस प्रकार मानने से पुनरुक्ति दोष नहीं आता। सातवां श्लोक किसी प्रकार आत्मश्लाघा दोष से युक्त हो, तो वहां भी भृगु ने मनु जी की प्रशंसा की है, इससे आत्मश्लाघा नहीं है। मनु जी की प्रशंसा करने से भृगु का अभिप्राय यह है कि- इस मानवधर्मशास्त्र के पढ़ने वाले लोग मन में गौरव रखके इस शास्त्र को पढ़ें, विचारें, किन्तु सहसा वेदविरुद्ध न मान लेवें। आठवें, नववें श्लोकों में जो फलश्रुति है, वह रुचि बढ़ाने के लिये अर्थवाद है। जिस वस्तु की गुण-कीर्त्तन रूप स्तुति की जाती है, उसमें मनुष्य श्रद्धा करते हैं, इसलिये अर्थवाद सफल ही है। दशवें, ग्यारहवें श्लोक तर्क के निषेध करने वाले नहीं हैं, किन्तु आशय यह है कि- वैसा तर्क न करना चाहिये, जिससे वेद और वेदानुकूल स्मृति का भी खण्डन हो जावे, अथवा बौद्ध वा सौगत आदि नाम वाले नास्तिक लोग जैसे तर्क का आश्रय लेते हैं, वैसा तर्क नहीं करना चाहिये। “जो तर्क के साथ अनुसन्धान करता है, वह ठीक धर्म को जान लेता है, अन्य नहीं” इस प्रकार कहे बारहवें अध्याय के वचन से सूचित होता है कि धर्म की रक्षा और धर्म को सिद्ध करने के लिये तर्क करना चाहिये, किन्तु धर्म वा धर्म को कहने वाले शास्त्र के खण्डन के लिये तर्क नहीं करना चाहिये, यह बात इस द्वितीयाध्याय के दसवें, ग्यारहवें श्लोकों से जतायी गयी है। जैसे दुष्ट को मारने के लिये शस्त्र चलाना चाहिये, किन्तु अपना शरीर काटने के लिये नहीं। जैसे शस्त्र से सब उचित-अनुचित का छेदन हो सकता है, वा जैसे गम्या-अगम्या दोनों में मैथुन हो सकता है, पर तो भी उचित का छेदन और गम्या में मैथुन करना चाहिये, यह शास्त्रों में विधान किया गया है। वैसे ही तर्क से उचित का ही खण्डन करना चाहिये तथा रक्षा करने के योग्य धर्म वा धर्मशास्त्र की रक्षा करनी चाहिए, यह तात्पर्य है।
और जो व्यूलरसाहब ने यह कहा कि तेरह आदि अनेक श्लोक द्वितीय अध्याय में अन्य धर्मशास्त्र से अधिक कहे हैं। इसका उत्तर भी मैंने दे दिया है। परन्तु किसी से यह अधिक है, इसलिये दूषित है यह नहीं हो सकता। तथा इस द्वितीयाध्याय में व्यूलरसाहब के कथनानुसार अठासीवें श्लोक से लेकर सौवें श्लोक पर्यन्त प्रकरण विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं, ऐसा प्रतीत होता है। इन (८८- १००) पद्यों के पूर्व और पर सन्ध्या का प्रकरण है। बीच में जितेन्द्रियता का प्रसग्, इन्द्रियों का परिगणन, अवान्तर भेद और उनको विषयों से रोकने का उपाय इत्यादि कथन विरुद्ध है, उस विषय का मानवधर्मसूत्रों में वर्णन नहीं था और था तो अति संक्षेप से था। उसी को भृगु ने पद्य बनाते समय विस्तार पूर्वक वर्णन किया, ऐसा अनुमान होता है। और सन्ध्या कर्म में जितेन्द्रियता का भी बड़ा उपयोग है, क्योंकि जिसके वश में अपने इन्द्रिय नहीं, वह सन्ध्या के फल का भागी कदापि नहीं हो सकता। इस कारण यद्यपि उक्त तेरह श्लोकों का आशय मनु जी का कहा नहीं था, तथापि उनमें धर्म से वा वेद से विरोध वा पक्षपात नहीं प्रतीत होता, जिससे वे श्लोक किसी प्रकार दूषित कहे जावें। इस प्रकार व्यूलरसाहब ने द्वितीयाध्याय पर जो कुछ कहा है उसका उत्तर जानो।
इस अध्याय में बावनवां श्लोक भी विचारणीय है, अर्थात् इस श्लोक में जो बात कही है कि “अवस्था चाहने वाला पूर्व को मुख कर, यश चाहने वाला दक्षिण को, लक्ष्मी चाहने वाला पश्चिम को और सत्य चाहने वाला उत्तर को मुख कर भोजन करे” यह असम्भव है। क्योंकि जब चार ही दिशाएं हैं, तो कभी किसी और कभी किसी दिशा में मुख कर के भोजन करना ही पड़ेगा। तो प्रत्येक मनुष्य सब दिशाओं में मुख कर के भोजन कर सकते हैं, यदि वैसा फल होना सम्भव हो तो, सभी मनुष्य चारों फल के भागी होवें, पर यह बात प्रत्यक्ष से भी विरुद्ध है, अर्थात् प्रत्यक्ष में सब मनुष्यों में वैसे फल नहीं दीखते अर्थात् प्रायः पश्चिम को मुख कर भोजन करने वाले सैकड़ों दरिद्री दीख पड़ते हैं। यदि कहो कि यज्ञोपवीत होते समय प्रथम मांगी हुई भिक्षा के भोजन में ब्रह्मचारी को यह फल होता है, ऐसा मानने पर भी वही दोष है। अर्थात् ब्रह्मचारी भी किसी दिशा को मुख कर स्वयमेव भोजन करेगा, तो किसी न किसी प्रकार फल सबको होना चाहिये, सो भी ठीक सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि ब्रह्मचारी वा अन्य मनुष्य वैसे फलभागी नहीं मिलते, किन्तु अल्पायु और दरिद्रादि विपरीत तो दीख पड़ते हैं। इससे अनुमान होता है कि यह श्लोक प्रक्षिप्त है।
इस द्वितीयाध्याय का छासठवां श्लोक भी विचारणीय है। उसमें लिखा है कि कन्याओं के जातकर्मादि संस्कार बिना मन्त्र पढ़े करने चाहियें। इस पर शटा होती है कि ऐसा क्यों करें ? यदि शरीर के संस्कार में मन्त्रपाठ भी हेतु है, तो शरीर का संस्कार वा शुद्धि होने के लिये सब क्रिया ज्यों की त्यों करें, यह कथन विरुद्ध पड़ता है। क्योंकि शुद्धि के लिये उपाय करना कहा जावे और शुद्धि के हेतु मन्त्र पढ़ने का निषेध किया जाय, यह परस्पर विरुद्ध है। यदि कदाचित् मानते हों कि शूद्र के तुल्य स्त्रियां नीच हैं, इससे उनको वेद के सुनने का अधिकार नहीं, तो विवाह में भी उनका मन्त्रों से संस्कार नहीं करना चाहिये। क्योंकि वहां भी वे मन्त्र सुन लेंगी। विवाह में जब स्वयमेव स्त्रियों को मन्त्र बोलने की आज्ञा देते हैं। तो सुनने की क्या कथा है। इससे अनुमान होता है कि मन्त्र सुनने वा बोलने में स्त्रियों को दोष नहीं है। यह बात अनेक आर्ष पुस्तकों में अर्थात् कहीं-कहीं कर्मकाण्ड सम्बन्धी गृह्यसूत्रादि में भी मिलती है कि स्त्रियों के जातकर्मादि संस्कार मन्त्र बिना पढ़े करने चाहियें। इससे अनुमान होता है कि पूर्वकाल में भी किन्हीं-किन्हीं ऋषि लोगों की ऐसी सम्मति होगी। परन्तु उस सम्मति के एकदेशी होने से सब को ग्राह्य नहीं। अर्थात् सब ऋषियों का ऐसा मत नहीं है। और वेद सम्बन्धी सिद्धान्त भी यह नहीं हो सकता। यदि वेद पढ़ने वा सुनने का स्त्रियों को अधिकार न हो तो वेद में भी निषेध मिलना चाहिये, सो नहीं दीखता। यदि कोई कहे कि वेद में ‘स्त्रियों को वेद पढ़ाना चाहिये’ ऐसा विधान भी नहीं मिलता, तो उत्तर यह है कि जैसा विधान पुरुषों को मिलता है, वैसा ही स्त्रियों के लिये है। अर्थात् जैसा कहा गया कि वेद पढ़ना चाहिये तो जिन-जिन पुरुषों को पढ़ना आवेगा उन-उन की स्त्रियों को भी पढ़ाना अवश्य उपयोगी है। इस प्रसग् में प्रमाणों का संग्रह इसलिये नहीं किया कि यह लेख अधिक न बढ़ जावे। पीछे किसी अवसर पर कुछ प्रमाण भी लिख देंगे। जो-जो कर्म वेदादिशास्त्रों में ब्राह्मणादि वर्णों को कर्त्तव्य मानकर कहे गये हैं, वे उन-उन की स्त्रियों को भी वैसे ही कर्त्तव्य हैं। क्योंकि स्त्री पुरुष की अर्द्धाग्ी है। स्त्री-पुरुष दोनों मिल कर पूरे हैं, अकेले-अकेले अधूरे हैं, तो जो काम पुरुष के लिये कहा गया, उसके अच्छे-बुरे फल में स्त्री स्वयमेव अधिकारिणी हो सकती है। इसलिये जहां पुरुष को अधिकार है, वहां उसकी स्त्री को भी अवश्य होना चाहिये। जब स्त्री के शरीर से बने हुए बालकों को अधिकार है, तो उन बालकों की उपादानकारण स्वरूप स्त्रियों को अधिकार न माना जावे, यह पक्षपात मात्र है। अथवा क्या यह बड़ा प्रमाद नहीं ? कदाचित् कहो कि जो स्त्रियां वेदादिशास्त्र पढ़ने में असमर्थ हैं, उनको अधिकार नहीं है, तो वैसे असमर्थ निर्बुद्धि पुरुषों को भी अधिकार नहीं है। स्त्रियों को अधिकार न देने से पुरुष भी विद्या-बुद्धि रहित बिगड़े संस्कारों वाले स्त्रियों के तुल्य नीच प्रकृति वाले उत्पन्न होते हैं। यही इस देश की दुर्दशा का बड़ा हेतु है। पहले जब विद्या और धर्मनीति की शिक्षादि को प्राप्त करा के स्त्रियों का शारीरिक वा आत्मिक संस्कार किया जाता है, तो उन शुद्ध संस्कार को प्राप्त हुई स्त्रियों में बालक भी शुद्ध, संस्कारी, शुभगुण सम्पन्न उत्पन्न होते हैं। यही बात सुश्रुत के शारीर स्थान में कही भी है कि ‘स्त्री-पुरुष जैसे भोजन, छादन, आचरण और चेष्टा के साथ गर्भाधान समय में संयोग करते हैं, उनका पुत्र भी वैसे आचरण वा चेष्टा वाला होता है।’१ मनुष्य के आहार, आचरण और चेष्टा विद्या, शिक्षा के अनुसार होते हैं। अर्थात् विद्वान् और मूर्ख दोनों एक से आचार-विचार नहीं रख सकते, किन्तु स्वयमेव चेष्टादि बदल जाते हैं। इसलिये स्त्रियों को वेदादि शास्त्र पढ़ाने और सुनाने चाहियें, जिससे मूल के संस्कार युक्त होने से वृक्षरूप पुत्रादि संस्कारी हों। ‘यह स्त्री प्राणियों के उत्पन्न होने के लिये खेत के तुल्य पृथिवी है।’१ अर्थात् जैसे पृथिवी में सब अन्नादि उत्पन्न होते हैं, वैसे स्त्रीरूप खेत में मनुष्यादि प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्राणियों की उत्पत्ति का खेत स्त्री है, यह आशय ऊपर कहे मनु जी के वाक्य से निकलता है। पुरुष के शरीर में जितना रस, रुधिर आदि धातुओं का समूह है, वह सब बाल्यावस्था में प्रथम माता के शरीर से आया है, वह मातारूप स्त्री यदि किसी प्रकार नीच ठहराई जावे, तो बालक के उत्तम होने में क्या हेतु है ? इस प्रकार पुरुष के तुल्य स्त्रियों का भी पठन-पाठन में अधिकार सिद्ध होने पर छासठवां श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। तथा आगे कहे सरसठवें श्लोक के साथ विरोध भी है। अर्थात् सरसठवें श्लोक में मनु जी ने स्त्रियों के सब कर्म वैदिक कहे हैं। इसमें विशेष होगा सो वहां यथावसर कहेंगे। इस प्रकार इस द्वितीयाध्याय में दो ही श्लोक प्रक्षिप्त ठहरते हैं, तो शेष २४७ श्लोक ठीक समझने चाहियें। अब यहां लिखना समाप्त करते हैं।