हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें

हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें
परम पिता परमात्मा होता, कविकृतु , सत्य तथा चित्रश्रवस्तम व देव हैं । उन्हें प्राप्त करने के लिये हमें दिव्यगुणों को ग्रहण करना होता है । जैसे जैसे तथा जितना जितना हम प्रभु को , उस पिता को धारण करने का यत्न करते हैं , उतना उतना ही हम दिव्यगुणों वाले होते चले जाते हैं । इस मन्त्र में इस बात पर ही प्रकाश डालते हुये इस प्रकार व्याख्यान किया है : –
अग्निर्होता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: ।
देवो देवेभिरा गमत । ऋग्वेद १.१.५ ॥
१. गत मन्त्र की भावना अनुरूप ही यह मन्त्र भी कहता है कि संसार में जितने प्रकार के भी यग्य आदि कार्य होते हैं , उनको करने वाले वह देव ही होते हैं , जो सब को गति देने वाले हैं, जिन्हें हम प्रभु के नाम से जानते हैं । हम तो मात्र इन यग्यों को करने के माध्यम मात्र ही होते हैं , वह भी तब जब हम पर उस प्रभु की क्रिपा हो जाती है, उस प्रभु का जब हमें आशीर्वाद मिल जाता है , तब ही तो हम इन सब यग्यों को पूर्ण होता हुआ देख पाते है । यह स्रिष्टि भी एक प्रकार का यग्य ही तो है । इस यग्य के होता, इस यज्ञ को करने वाले तो स्वयं वह पिता ही हैं , इस तथ्य को तो हम सब लोग भली प्रकार से जानते हैं , इस सब से तो हम स्पष्ट रूप से तथा भली भान्ति से परीचित हैं ।
२. यह मन्त्र जो दूसरा उपदेश हमें दे रहा है , वह है – वह पिता कविकृतु हैं अर्थात वह पिता क्रान्तदर्शी हैं । क्रान्तदर्शी होने के कारण वह प्रभु सब कामों को करने वाले हैं । चाहे हम कविकृतु कहें, चाहे हम क्रान्तदर्शी कहें , भाव यह ही है कि वह पिता सब प्रकार के कामों को करने वाले हैं , कारण हैं क्योंकि वह पिता ही सब कामों को करने वाले होते है , इस कारण ही सृष्टी आदि कार्य जिन्हें उस पिता ने किया है , उनमें कहीं कोइ न्यूनता नहीं दिखाई देती , यह सब कार्य कहीं अपूर्ण नहीं होते , पूर्णतया पूर्ण ही होते है । जब हमारे वह पिता पूर्ण हैं तो उनके द्वारा ही किया गया यह कार्य , जिसे हम स्रिष्टी कहते हैं, वह अपूर्ण कैसे हो सकती है ? अत: यह सृष्टी रुपी यह यज्ञ भी पूर्ण है ।
अनेक बार हमें अपनी ही अज्ञानता के कारण इस सृष्टी में कुछ न्यूनतायें दिखाई देती हैं , एसा हम अनुभव करते हैं । जैसे अनेक बार जब हम भूकम्पों का प्रकोप देखते हैं , तो उस पिता को कोसने लगते हैं । हमारे शरीर में अनेक प्रकार की अनेक ग्रन्थियां हैं । उस पिता ने इन का निर्माण किसी विशेष प्रयोजन से किया होगा किन्तु हम अपने ज्ञान की कमी से इन में से कुछ ग्रन्थियों को निष्प्रयोजन मान लेते हैं । इस संसार में अनेक प्राणी एसे हैं , जिनके विषय में हमें कुछ भी जानकारी नहीं है , अनेक वनस्पतियां एसी हैं , जिनके उप्योग के सम्बन्ध में हम कुछ भी ग्यान नहीं रखते । हम अपने बचपन में जो थोडा सा जानते थे, वह बटते बटते , आज हम काफ़ी आगे निकल गये हैं । आज हमे अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर हमारे अपने ही बाल्यकाल से कहीं अधिक ज्ञान है । अत: हम यह नहीं कह सकते कि जिसे हम नहीं जानते, वह ह ही नहीं । जैसे जैसे हम इन सब को जानते जावेंगे, इनके उपयोग को समझते जावेंगे, त्यों त्यों ही हमारा ज्ञान भी बढता ही चला जावेगा । जितना हम जान लेंगे, उतना संसार हमें पूर्ण दिखायी देगा, शेष को हम जानने का यत्न करते रहेंगे ।
हमारे परमपिता परमात्मा सत्य हैं । उन्हें हम सत्य स्वरूप के रुप में जानते हैं । हम यह भी मानते हैं कि जितने भी सज्जन लोग हैं , उनमें उस पिता का ही निवास है । सर्व व्यापक होने के नाते वह पिता सब जगह रह्ते हैं किन्तु फ़िर भी मन्त्र बता रहा है कि वह पिता सज्जनों के ह्रिदय में निवास करते हैं । भाव यह है कि वह पिता सर्व व्यापक होते हुये भी सज्जन लोगों के ह्रिदय को प्रकाशित करते हैं , सज्जन लोगों के अन्दर ही ज्ञान का प्रकाश वह प्रभु करते हैं ।
उस पिता द्वारा जब सृष्टी की उत्पति की जाती है तो आरम्भ मे प्राणी को ग्यान की आवशकता होती है क्योंकि इस समय उसे ज्ञान देने वाला अन्य कोइ नहीं होता । अत: उस परमपिता परमात्मा ने स्रिष्टी के आरम्भ मे प्राणी को वेद का ग्यान दिया । जिस प्रकार हम आज स्कूल , कालेज अथवा गुरूकुल ,में जा कर ज्ञान प्राप्त करते हैं , प्रभु उस प्रकार से ग्यान नहीं देता । उसका ग्यान देने का ढग भी अद्भुत ही है । हम जानते हैं कि वह सर्वव्यापक प्रभु सर्वव्यापक होने के कारण ही हमारे अन्दर ही नहीं हमारे हृदय में भी निवास करता है । इस प्रकार हृदयस्त होने से , बिना किसी अन्य यत्न के हमारे पवित्र हृदयों को प्रकाशित कर देते हैं । अपने ज्ञान के कारण वह प्रभू अत्यन्त कीर्तिमान से युक्त हैं । दूसरे श्ब्दों में वह प्रभु सर्वाधिक ज्ञान वाले हैं , ग्यान के भण्डारी हैं । इस लिये ही तो उन्हें निरतिशय ज्ञान के अधिष्ठाता माना गया है ।
(क) पभु गुणों के साथ आते हैं :-
वह प्रभु सब देवताओं के,जो सब गुणों के पुन्ज रुप होते हैं , के साथ हमारे पास आते हैं । इसका भाव यह है कि उस प्रभु का निवास हमारे ह्रिदयों में होता है । उस प्रभु का निवास होने के कारण हृदय में ही बैठे हुये वह प्रभु हमे सब प्रकार के दिव्यगुणों से स्वयमेव ही भरता चला जाता है । इस प्रकार यह दिव्य गुण हममें स्वय्मेव ही प्रादुर्भूत हो जाते हैं ।
(ख) प्रभु दिव्य गुणों वालों का साथी :-
अथवा हम यूं भी कह सकते हैं कि इन दिव्यगुणों के कारण ही वह पिता हम मे आते हैं । इस सब का भाव यह ही है कि उस पिता को पाने के लिये हम अपने आचरण को देवों के समान उत्तम बनावे , हमारे व्यवहार भी देवों के समान ही हों, आसुरी प्रव्रिति हमारे व्यवहार में किन्चित भी न हो । प्रभु दिव्य गुणों वालों के पास ही रहता है, निवास करता है । अत: हम जितना जितना दिव्यता को दिव्य गुणॊं को अपनायेंगे, उतना उतना ही उस पिता के समीप होते चले जावेंगे । दाश्वान का कल्याण ही प्रभु का सत्य व्रत है |

डा.अशोक आर्य

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