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Namaste Meaning – swargeeya pandit sukhdev vidya vachaspati

हमारी आर्य जाति का वेद ही एक मात्र स्वतः प्रमाण धर्म -पुस्तक है। यही हमारा ईश्वरीय ज्ञान है। अपने आपको आर्य हिन्दू कहनेवाला कोई भी व्यक्ति इस सिद्धान्त से इन्कार नहीं करेगा । वैदिकधर्मी तथा पौराणिकधर्मी, सभी के आचार- व्यवहार का मूलस्त्रोत वेद ही होना चाहिए। वैसे तो भारतवर्ष के अन्दर बहुत से धर्म प्रचलित है। परन्तु हमें इस लेख में उन धर्मो से कोई शिकायत नहीं करनी, जो वेद को स्वीकार नहीं करते, क्योंकि जब वे वेदों को श्रद्धा की दृष्टि से देखते ही नहीं तो उनके सामने वेदों का प्रमाण उपस्थित करके हम क्या कहेंगे ? अतः हे वेदानुयायी भाइयो! आओ, आज हम इस बात पर विचार करें कि वैदिक साहित्य के अनुसार हमारा परस्पर सत्कार एवम् आशीर्वादसूचक शब्द क्या होना चाहिए ? हमारी जाति में तो एकता को आने में ही डर लगता है। हमारे रीति -रिवाज एक नहीं, हमारे विचार एक नहीं, हमारी शिक्षा एक नहीं, मतलब कहने का यह कि हमारा कुछ भी एक नहीं। ‘एकता’के विश्राम के लिए जब कि हमारा कुछ भी एक नहीं, तो एकता आवे कहाँ से ? कोई कहता है ‘नमस्ते’ तो दूसरा चिल्लाता हैं ‘जय गोपाल जी’ ; एक ने बड़े मीठे स्वर में कहा ‘सीताराम’,  तो दूसरा भन्नाकर बोलता है ‘बोलो राधेश्याम’;  और लगे दोनों लड़ने । एक ने किया ‘राम -राम’ तो दूसरे ने उत्तर दिया ‘जय श्रीकृष्ण ’। एक करे दण्डवत् और प्रणाम तो दूसरा करे सलाम । कुछ समझ में नहीं आता कि कौन ठीक कहता है ?

भला पूछो तो ‘राम – राम कहने वालों से कि क्या महाराजा रामचन्द्र जी अपने पिता दशरथ को सत्कार करते समय ‘राम-राम ’ ही कहा करते थे और राजा दशरथ भी अपने बेटे को ‘राम-राम’ ही कहा करते थे और राजा दशरथ भी अपने बेटे को ‘राम -राम ’ कहकर ही उत्तर देते थे ? जिस समय राधा (जिसके बारे में सुना गया है कि वह श्रीकृष्ण की विवाहिता पत्नी नहीं थी) और कृष्ण परस्पर बड़ी उत्कण्ठा से चिर प्रतीक्षा के पश्चात् मिलते थे तो वे भी कया परस्पर ‘राधाकृष्ण ही कहा करते थे ? स्थूलबुद्धि तो यही कहती है। कि रामचन्द्र और दशरथ ‘ राम – राम ’ नहीं पुकारते होंगे। यह भी समझ में आता है। कि कृष्ण ने भी कभी किसी का ‘जय गोपाल ’ सूचक शब्द से सम्मान नहीं किया होगा।

मिलें परस्पर सम्मान करने के लिए या आशीर्वाद लेने के लिए और बोलें किसी स्त्री या पुरूष का नाम! यह कैसी अप्रासंगिक बात है।

पूर्व पक्षी महाराजा रामचन्द्र और कृष्ण विष्णु के अवतार थे, अतः वे साक्षात् परमात्मा थे। परस्पर मिलते समय यदि परमात्मा का नाम लिया जाये तो उसमें क्या दोष है ?

सिद्धान्ती एक तो भाई परमात्मा अवतार लेता ही नहीं। यदि ‘दुर्जनताषन्याय’ से मान भी लिया जाए कि परमात्मा अवतार लेता है, तब भी तो उस समय वह पुरूष ही बना था। उस पुरूष बने परमात्मा का नाम लेना अपके मत में बुरा नहीं, अच्छा है। तो ठीक रहा, ऐसे पुरूष बने परमात्मा का नाम हर स्थान- पर बिना प्रसंग के भी ले लिया करो। लेने से शायद पाप तो न हो पर व्यवहार तो नहीं चलेगा। एक मालिक को पानी की प्यास लगी है और वह अपने नौकर से कहता ‘राम – राम’पति को लगी भूख और वह लगा अपनी स्त्री से कहने ‘राधाकृष्ण । भाई ! इन दोनों स्थानों पर आपके कथनानुसार सम्भवतः ‘राम -राम’और राधाकृष्ण कहना पाप तो नहीं, पर इतना कहने मात्र से तो मालिक तथा पति दोनों ही प्यासे तथा भूखें मरेंगे। तुम इस प्यास और भूख के अवसर पर ‘राम – राम’ को स्मरण करो या न करो, हमें इससे काई मतलब नहीं, परन्तु हमारा कहना यह है कि प्यास के समय यह अवश्य कहो कि ‘पानी लाओं’और भूख के समय यह अवश्य कहो कि ‘भोजन लाओ । तभी जान बचेगी।

छोटा अपने बड़े का सत्कार करने गया और कहने लगा ‘राम -राम’ । बड़े ने भी आशीर्वाद में दोहरा दिया ‘राम -राम’ , तो इससे क्या सत्कार और आशीर्वाद सूचित हो गये ? कदापि नहीं । जैसे ‘राम – राम’ आदि शब्दों के प्रयोग से भूख और प्यास नहीं बुझती, इसी प्रकार इन शब्दों से सत्कार एवम् आशीर्वाद भी सूचित नहीं होते।

पू० तो आप ही बताइये , ऐसे अवसर पर किस शब्द का प्रयोग किया जाए ?

सि० शब्द ऐसा कहो जो वेदप्रतिपादित हो।

हमारा यह दावा है कि वेदों में ‘राम – राम’ आदि शब्दों से कहीं भी सत्कार – सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं है। वेदों में तो क्या आप सारे प्राचीन संस्कृत साहित्य – को भी पढ़ जाइये, कहीं एक – दूसरे के साथ ‘राम – राम’ या ‘राधाकृष्ण’ आदि शब्दों का प्रयोग नहीं है। पौराणिक धर्मावलम्बियों को अपने पुराण, महाभारत तथा रामायण या मनुस्मृति आदि ग्रन्थों को भी देखना चाहिए । उनमें कहीं भी इन मनुष्यवाचक शब्दों का परस्पर सत्कार के लिए प्रयोग विहित नहीं है। सभी वेद, पुराण, इतिहास तथा स्मृति आदि ग्रन्थ और शब्द की आज्ञा देते है। आर्यसमाज उसी शब्द का प्रचार करना चाहता है।

पू० वह शब्द क्या है ?

सि० वेदादि सत्य शास्त्र तथा पुराणदि ग्रन्थ सभी एक स्वर से यही कहते हैं कि परस्पर ‘ नमस्ते ’ शब्द का प्रयोग होना चाहिए।

इस नमस्ते शब्द में बहुत से प्रमाण देने से पूर्व इस शब्द का अर्थ जान लेना आवश्यक है । ‘नमस्ते ’ शब्द को दो टुकड़ों में बाँटा जा सकता है-

‘नमः -ते’ । व्याकरण के जाननेवाले जानते है कि ‘ते’ शब्द का अर्थ है – तुम्हारे लिए (ते, तुभ्यम् -तुम्हारे लिए) परिणमत: ‘नमस्ते’ शब्द का अर्थ यह हुआ कि तुम्हारे लिए नमः। अब केवल विवाद है ‘नमः’ शब्द पर। आइए, हम इस ’नमः’ शब्द के अर्थ का भी विवेचन करें। ‘नमः’ शब्द के निम्न अर्थ अधिक प्रसिद्ध हैं-

                () नमः = सत्कार, श्रद्धा, किसी के सामने झुकना।

क – अमरकोष में आया है ‘नमो नतौ’ । ‘नमस्’ अव्यय ‘ ज्ञति’ अर्थात् किसी के सामने झुकने के अर्थ में आता है।

ख – यास्क निघण्टु ३ । ५ में ‘नमस्यति ’ का अर्थ किया है ‘परिचरति’ । अर्थात् सेवा करने, सत्कार करने के अर्थ में नमस्यति शब्द आता है।

ग – सिद्धान्तकौमुदी में ‘णम’ धातु प्रहत्व अर्थात सत्कार अर्थ में आता है।

घ – पं० शिवदत्त तत्वबोधिनी की टिप्पणी में लिखते हैं-

अपकृष्टत्वज्ञानबोधनानुकूलो व्यापारो नमः पदार्थः।

अर्थात् जब मनुष्य दूसरे के सामने ऐसी किया करे जिससे वह उस दूसरे से छोटा प्रतीत हो, वही क्रिया ‘ नमः’ शब्द का अर्थ है। जैसे जब कोई हाथ जोड़कर माथा नवाकर किसी के सामने झुकता है तो वह उससे छोटा ही प्रतीत होता है। अर्थात् ‘नमः’करनेवाला दूसरे का सत्कार कर रहा होता है।

                () नम:= भेंट, त्याग

क – आप्टे संस्कृत कोश में ‘नमः’ शब्द का अर्थ किया है – a gift, present-  जिसका अर्थ भेंट ही है।

ख – श्री पं० शिवदत्त जी तत्वबोधिनी पर टिप्पणी करते समय लिखते है – ‘ एषोऽर्घः   शिवाय नमः इत्यादौ त्यागो नमः शब्दार्थः । शिव के लिए जब अर्घ भेंट किया जाता हो, वहाँ यदि ‘नमः’ शब्द का प्रयोग हो तो उसका अर्थ ‘ त्याग’ है।

ग – नमः sacrifice त्याग । आप्टे संस्कृत कोश।

                (3) नमः = अन्न

क – यास्क निघण्टु २।७ में ‘नमः’ शब्द का अर्थ ‘ अन्न’ भी किया गया है। अन्न यहाँ सब भेाग सामग्री का उपलक्षक या प्रतिनिधि है। इसमें अपने निर्वाह के कपड़े, रूपया, पैसा, पशु तथा मकानादि सभी आ जाते है।

ख – शतपथ ब्राह्मण ६।३।१। १७ में भी कहा है ‘ अन्न नमः’ अर्थात् अन्न ही ‘नमः’  है।

ग – आप्टे संस्कृत कोश में ‘ नम:’ शब्द का अर्थ किया है Food भोजन।

                (नमः = वज्र

क – यास्क निघण्टु २ । २० में नमः शब्द का अर्थ वज्र भी किया गया है। वज्र – का मतलब उन सब भयंकर शस्त्रास्त्रों से है। जिनसे दुष्टों का संहार किया जाए।

ख – नमः a thunder bolt वज्र । आप्टे संस्कृत कोश।

                () नमः = यज्ञ

शतपथ ब्राह्मण ७। ४।१।३०।। २।४।२।२४।।२।६।१।४२।।९।१।१।१६।। में ‘ यज्ञों वै नमः ‘ कहकर ‘नमः’ शब्द का अर्थ ‘यज्ञ’भी किया गया है। इसी प्रकार शतपथ – ब्राह्मण में कहा है –

                ‘तस्मादु नायज्ञियं ब्रूयान्नमस्तऽइति यथा हैनं’(अयज्ञियं) ब्रूयाद् यज्ञस्त इति तादृक्तत् ।।

यह वाक्य भी यही सिद्ध करता है कि ‘ नमः शब्द ’यज्ञ’ का भी वाचक है।

यधपि संस्कृत साहित्य में ‘ नमः ’ शब्द के कई अर्थ है। तथापि थोड़े से अर्थ हम ने यहाँ प्रसंगवशात् दिये हैं। इस प्रकार यदि हम ‘ नमः ’ शब्द के अर्थों का संक्षेप में संग्रह करें तो वह संग्रह इस प्रकार होगा –

नमः – सत्कार, श्रद्धा, किसी के सामने झुकना, नीचा होना, त्याग , अन्न (सम्पूर्ण भोग्य सामग्री) , वज्र (सम्पूर्ण धातक शस्त्रास्त्र): यज्ञ और भेंट ।

पू० यह कैसे प्रतीत हो कि इन बहुत से अर्थों में से ‘नमः ’ शब्द का कहाँ क्या अर्थ है ?

सि० थोड़ी – सी भी बुद्धि का प्रयोग किया जाए तो यह उलझन भी आसानी से सुलझ सकती है। प्रकरण, समय तथा स्थानादि को देखकर यह बात बड़ी आसानी से पहचानी जा सकती है कि ‘ नमः ’ शब्द का कहाँ क्या अर्थ होना चाहिए। संस्कृत साहित्य में ‘ सैन्धव’ शब्द के ‘नमक’ और ‘घेाड़ा ’ दोनों अर्थ है। एक आदमी रसोई – घर में भोजन करते समय अपने नौकर से कहता है –

सूपाय किचित् सैन्धवमानीयताम्, नूनमघ न्यूनमाभाति।

अर्थात् दाल के लिए थोड़ा ‘ सैन्धव’ले आओ, कुछ कम मालूम होता है। यह सुनते ही नौकर सैन्धव अर्थात् सेन्धा नमक ले आएगा, घोड़ा नहीं । और जब मालिक को हवाखेरी करने जाना होगा, उस समय नौकर सैन्धव – घोड़ा ही लाएगा, नमक नहीं । ठीक इसी तरह ‘ नमः ’ शब्द का प्रयोग को  देखकर पहचानो कि यहाँ ‘ नमः ’ शब्द का  प्रयोग किस दृष्टि से है। पाठक अब इस बात को समझ गए होंगे कि इन सब अर्थो को कण्ठाग्र कर लेने पर यह कहनेवालों की जबान बन्द हो जाएगी कि छोटा तो बड़ों को ‘नमस्ते’  करे पर बड़ा छोटों को नमस्ते कैसे करे ?

जिस समय छोटा, पुत्र या शिष्य आपने पिता या आचार्य को ‘ नमस्ते ’ करता है उस समय उसका यही अर्थ होता है कि आपके लिए सत्कार हो, मैं आपके सामने झुकता हूँ , मेरे हृदय में आपके प्रति श्रद्धा है इत्यादि। और उसके उत्तर – में पिता या आचार्य अपने बेटे या शिष्य को आशीर्वाद देते हैं कि ‘ नमस्ते ’ अर्थात् ’ तेरे लिए अन्नादि समस्त भेाग्य सामग्री प्राप्त हो, तू फूले – फले, समृद्धिशाली हो।’ इत्यादि। यही तो बड़ों का आर्शीवाद होता है। अब चाहे परस्पर ‘ नमस्ते करते हुए क्यों न हृदय में परमात्मा का नाम याद करते रहो । हमें इसमे कोई आपत्ति नहीं। इसी का नाम है भूख के समय भोजन माँगना , प्यास के समय पानी माँगना तथा सत्कार के समय सत्कार और आशीर्वाद के समय आशीर्वाद देना । परमात्मा का नाम स्मरण करने से तुम्हें कोई नहीं रोकता।

बराबरवाले परस्पर ‘ नमस्ते ’ करके एक – दूसरे का सत्कार ही करते हैं, परन्तु इसके साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि यदि बड़ा भी छोटों को सत्कार करने के अभिप्राय से ‘ नमस्ते ’ करता है तो भी कोई दोष नहीं और कोई पाप नहीं । संसार में तो यह होता ही है कि बड़ा भी छोटे का सत्कार करता है, क्याकि वह छोटा बड़े के सत्कार का साधन बन सकता है। यदि तुम स्वयं सत्कार चाहते हो तो औरों का भी सत्कार करो। छोटों का सत्कार करना उनको अपने समान बनाने का अच्छा साधन है। जितना तुम उसका सत्कार करोगे उतना ही वह तुम्हारा भी सत्कार करेगा और कराएगा।

यदि ’नमस्ते ’ शब्द का शास्त्रोक्त प्रयोग देखना हो तो आइए सारे वैदिक साहित्य एवं लौकिक साहित्य पर सरसरी नजर डालें, बहुत स्थानों पर ‘ नमस्ते’ शब्द का प्रयोग मिलेगा। हमें स्थान – स्थान पर नमस्ते शब्द का प्रयोग मिलेंगा । हम स्थान-स्थान पर ‘ नमस्ते’ शब्द का प्रयोग दिखायेंगे, प्रकरण तथा स्थान को देखकर पाठकवृन्द स्वयं विचार लेंगे कि उपरिलिखित ‘ नमः’ शब्द के अर्थों में से कौन – सा अर्थ उपयुक्त है। ‘ ते’ शब्द का अर्थ सब जगह ’तुम्हारे लिए’ ही होगा।

यजुर्वेद का सारा १६ वाँ अध्याय मन्त्र ३२ उठाकर देख जाइए ।, उसमें ’ नमस्ते ’ शब्द का बहुत प्रयोग है-

() नमो ज्येष्ठाय कनिष्ठाय नमः पूर्वजाय चापरजाय नमो मध्यमाय चापगल्भाय नमो जघन्याय बुध्न्याय ।।

इस मन्त्र में छोटे , बडे , पूर्वज एवं नीच तथा मध्यम आदि सब के लिए ’ नमस्ते ’ का प्रयोग है।

() नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यश्च वा नमो नमो कुलालेभ्यः कर्मारेभ्यश्च वो नमो नमो निषादेभ्यः पुञिजष्ठेभ्यश्च वा नमो नमः श्वनिभ्यो मृगयुभ्यष्च वो नमः ।।

(यजु० १६।२७)

यहाँ तो तक्ष – तरखान , राजमिस्त्री , रथकार, कुलाल -कुम्हार, निषाद अर्थात् चाण्डाल तथा कुत्तों के शिक्षक, आदि सब के लिए ’ नमस्ते ’ का प्रयोग है अर्थात् इनके लिए अन्नादि भोग्य सामग्री देने का विधान है।

() नमो वञचते परिवञचते स्तायूनां पतये नमो नमो निषडिग्णऽइषुधिमते तस्कराणां पतये नमो नमः सृकायिभ्यो जिघा् सद्भ्यो मुष्णतां पतये नमो नमोऽसिमद्भ्यो नक्तञचद्भ्यो विकृन्तानां पतये नमः।

(यजु० १६।२१)

इस मन्त्र में छली, कपटी चोरों के सरदार , हिंसक, लुटेरे तथा गठकतरे आदि सभी के लिए ’ नमस्ते ’ शब्द का प्रयोग होता है अर्थात् उन्हें नमः वज्र से मारने का विधान है।

यजुर्वेद के १६ वें अध्याय के हमने तीन ही मन्त्र केवल दिखाने मात्र के लिए लिखे हैं यह तो सारा अध्याय नमस्ते श्ब्द से भरा पड़ा है।

हमारे पौराणिक भाई कहते है। कि यह तो रूद्राध्याय है इसमें परमात्मा के प्रति ‘नमस्ते’ है।

यथा – नमस्ते रूद्र मन्यवे – ’ इत्यादि।                                                               (यजु० १६।१)

मै अपने उन पौराणिक भाइयों से पूछता हूँ कि यदि वस्तुतः इस अध्याय में सर्वत्र रूद्र अर्थात् परमात्मा को ही ‘नमस्ते’ है, तब तो इस अध्याय में आए चोर , लुटेरे, डाकू, कुत्ते, शूद्र तथा चाण्डालादि सभी प्राणी परमात्मा के ही रूप हो गए जिनको भिन्न – भिन्न अभिप्राय से ’ नमस्ते किया गया है। तब तो भाई । जब तुम्हारे घर में चोर, लुटेरे, कसाई या चाण्डाल घुस आवें तब तुम उनकी अर्घ आदि देकर पूजा किया करो। वे लुटेरे आपकी भक्ति से बड़े प्रसन्न होंगे, और आपको आपने घर में रूपया – पैसा तथा अन्य सामान आदि रखने की तकलीफ भी नहीं होगी, क्योंकि वे सब उठाकर ले जायेंगे। शूद्र और चाण्डालों को भी मन्दिरों से आने से क्यों रोकते हों ? भाई ! वे भी तुम्हारे कथनानुसार रूद्र परमात्मा के ही तो रूप हैं।

() नमस्ते हरसे शोचिषे नमस्तेऽअस्त्वर्चिषे।

(यजु० १७।११)

() नमस्ते यातुधानेभ्यो नमस्ते भेषजेभ्यः मृत्यो मूलेभ्यो ब्राहाणेभ्य इद नमः

(अथर्व० ६।१४।३)

नमस्ते लाङलेभ्यो                                                                                            (अथर्व० २।९।४)

() नमस्ते राजन्                                                                                                     (अथर्व० २।१०।२)

() नमस्ते अग्न ओजसे

सामवेद प०१, अथ् प०१, द०२, मं०१।।

इन सब स्थानों में ’ नमस्ते शब्द का प्रयोग है।

() नमोमहद्भ्यो नमो अर्भकेम्यो नमो युवभ्यो नमो आशिनेभ्यः।

(ऋग्०   १। २७। १३)

यहाँ पर क्रमशः बड़े , छोटे, जवान तथा बूढ़े सब के लिए नमस्ते किया गया है। अर्भक शब्द का अर्थ है छोटा। यास्क मुनि निरूक्त ३।४।२० में लिखते है- ’दभ्रमर्भकमित्यल्पस्य’ अर्थात् ’दभ्र’और ’अभ्रक’शब्द थोड़े या छोटे के अर्थ में आते हैं।

(९) शतपथ ब्राह्मण में आता है कि गार्गी अपने पति याज्ञवल्क्य को नमस्ते करती है।

सा होवाचनमस्ते याज्ञवल्क्य।

(१०) याज्ञवल्क्य यद्यपि ऋषि थे, वे पदवी में अपने से छोटे राजा जनक को नमस्ते करते हैं –

होवाचजनको वैदेहोनमस्ते (शतपथ)

(११) महर्षि ’यम’ जो कि नचिकेता के आचार्य होने के कारण अपने शिष्य से बडे थे, अपने शिष्य नचिकेता को नमस्ते कहते हैं-

नमस्तेऽस्तु ब्रहा्न् स्वस्ति तेऽस्तु।

(कठोपनिषद् व० १ कं० ९)

(१२) गीता में अर्जुन ने कृष्ण को नमस्ते किया-

नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्वः , पुनष्च भूयोऽपि नमो नमस्ते।

नमःपुरस्तादथ पृष्ठतस्ते, नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।।

गीता १।३९।४०

(१३) पौराणिक काल के भवभूति नाम के महाकवि लिखित ग्रन्थ उत्तररामचरित में राम ने सीता को नमस्ते किया है –

भगवति ! नमस्ते (उत्तररामचरित)

(१४) आइए, अब हम पुराणों को टटोलें कि उन में भी कहाँ – कहाँ नमस्ते शब्द का प्रयोग है।

                देवदेव जगन्नाथ , नमस्ते भुवनेश्वर।

                जीवच्छाद्धं महादेव, प्रसादेन विनिर्मितम् ।।

(लिंग पु० ३। २७। ७)

हे सम्पूर्ण संसार के स्वामी महादेव ! कृपापूर्वक तुम ने जीवित श्रद्धा का निर्माण किया है। इसलिए तुम्हें नमस्ते हो।

(१५) पृथ्वी वराहरूपधारी भगवान् की स्तुति करती हुई बोली-

शेषपर्यड़क्शयने, धृतवक्षःस्थ्लश्रिये ।

नमस्ते सर्वदेवेश, नमस्ते मोक्षकारिणे।।

(वाराह पु० १। २१)

शेषनागरूपी शय्या पर छाती पर लक्ष्मी को धारण करने वाले भगवान् को नमस्ते हो, मोक्षदायक भगवान् को नमस्ते हो।

(१६) वराह पृथ्वी से बोला –

नमोऽस्तु विष्णवे नित्यं, नमस्ते पीतवाससे।

      नमस्ते चाघरूपाय, नमस्ते जलरूपिणे।।

(वाराह पु० ११। ११)

पीतवस्त्रधारी विष्णु को नित्य नमस्ते हो, पापरूप विष्णु को नमस्ते हो, जलरूप विष्णु को नित्य नमस्ते हो।।

नमस्ते सर्वसंस्थाय, नमस्ते जलशायिने

 नमस्ते क्षितिरूपाय, नमस्ते तैजसात्मने।।

(वाराह पु० ११। १२)

सर्वव्यापक, जल में सोने वाले, पृथ्वीरूप तथा तेजः स्वरूप विष्णु को नित्य नमस्ते हो।

(१७) केतकी का फूल जड़ होता हुआ भी महादेव को नमस्ते करता है-

नमस्ते नाथ मे जन्म , निष्फलं भवदाज्ञया।

(शिव पु० विधेश्वर सं० अ० ८, श्लोक १७)

हे नाथ ! मेरा जन्म आपकी आज्ञा से निष्फल हो गया। मैं आपको नमस्ते करता हूँ । यहाँ नमस्ते शब्द में कहीं कुछ व्यंग्य तो नहीं!

(१८) ब्रह्मा तथा विष्णु महादेव को नमस्ते करते हैं –

नम: सकलनाथाय, नमस्ते सकलात्मने ।।२८ ।।

(शिव पु० विधेश्वर सं० १, अध्याय १०)

सब के नाथ तथा सब के आत्मा शिव के लिए नमस्ते हो।

(१९) पौराणिकों के यहाँ। स्त्री तथा शूद्र अच्छी दृष्टि से नहीं देखे जाते।’ स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम्ंइत्यादि मनगढ़न्त वाक्यों के प्रमाण से वे स्त्री तथा शूद्र को पढ़ने का अधिकार तक नहीं देते । अतः प्रतीत ऐसा होता है कि हमारे पौराणिक भाई, स्त्री तथा शूद्र को नीच समझते हैं। परन्तु पुराणों में तो उन स्त्री और शूद्रों के लिए भी नमः शब्द का प्रयोग है-

द्धिजानाञ्च नमः पूर्वमन्येषाञ्च नमोऽन्तकम्।

स्त्रीणां क्वचिदिच्छन्ति, नमोऽन्तं यथाविधि ।।

(शिव पु०विधेश्वर सं० १। अ० ११। श्लो० ४२)

द्धिजों के लिए पूर्व नमः शब्द का प्रयोग करना चाहिए तथा अन्यों के लिए अन्त में नमः शब्द प्रयुक्त होना चाहिए और स्त्रियों के लिए भी यथाविधि कहीं नमः शब्द का अन्त में प्रयोग करते हैं। (कहीं पूर्व भी)

परिणामतः पौराणिकों का यह कहना कि नीचों के लिए नमस्ते नहीं होता, ठीक नहीं।

(२०) दक्ष अपनी पुत्री सतीको नमस्ते करता है-

वीरिणीसम्भवां दृष्ट्वा, दक्षस्तां जगदम्बिकाम्

नमस्कृत्य करौ बद्ध्वा, बहु तुष्टाव भक्तितः ।। २७।।

(शिव पु० रूद्र० सं० २ सती खं० अध्याय १४)

दक्ष ने अपने स्त्री वीरिणी से उत्पन्न जगत् की माता सती को देखकर दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते करके भक्ति से उसकी स्तुति की ।

पौराणिक भाई अब इसका उत्तर दें कि यदि पिता अपनी पुत्री को नमस्कार या नमस्ते करके सत्कार करे तो उसका क्या मतलब होता है ? क्या यह अपने से छोटे को नमस्ते करने का प्रमाण नहीं है ?

(२१) मनुस्मृति में एक वाक्य आता है कि –

क्षत्रियाद् विप्रकन्यायां, सूतो भवति जातितः।

(मनु० १०।११)

अर्थात् एक ब्राह्मण की लड़की में क्षत्रिय के द्धारा जो सन्तान पैदा हो उसे सूत कहते हैं। इस वाक्य के प्रमाण से हमारे पौराणिक – धर्मी भइयों के सिद्धान्त में सूत एक वर्णसंकर शूद्र होता है। परन्तु पुराण के अध्ययन से पता चलता है कि सूत नामवाले वर्ण संकर शूद्र को भी ऋषियों ने नमस्ते किया। ऋषि बोले –

सूतसूत महाभाग, व्यासशिष्य नमोऽस्तु ते

तदेव व्यासतो ब्रूहि, भस्ममाहात्म्यमुत्तमम् ।।१।।

(शिव पु० विधेश्वर सं० १ अध्याय २३)

हे सौभाग्य युक्त ! व्यास के शिष्य सूत ! हम आपको नमस्ते करते है। आप व्यास से पढ़ा हुआ भस्म का महात्म्य हमें सुनाइए।।

क्या यहाँ बड़े ने छोटे को नमस्ते नहीं किया ? एक और भी बात यहाँ प्रसडक्वशात् लिख देनी आवश्यक है और वह यह कि पुराणों के अनुसार इन सूत जी ने जो कि शूद्र से भी पतित है। पुराणों को गा – गाकर सुनाया है । मालूम होता है कि पुराण अवश्यमेव शूद्र के ही लिए हैं । इसीलिए भागवत में आया है कि –

स्त्रीशूद्रद्धिजबन्धूनां , त्रयी श्रुतिगोचरा।

कर्मश्रेयसि मूढानां, श्रेय एवं भवेदिह ।। २५।।

इति भारमाख्यानं, कृपया मुनिना मृतम् ।। २५।।

(भागवत स्कं० १ अध्याय ४)

अर्थात स्त्री, शूद्र तथा जो पतित द्धिज हैं वे वेदाध्ययन नहीं कर सकते इसलिए उनके लिए मुनि ने महाभारत की रचना की जिससे कि वे भी अपना कर्तव्याकर्तव्य निश्चय कर सकें।

(२२) विष्णु का दधीचि को नमस्ते –

बिभेमीति सकृद् वक्तुमर्हसि त्वं नमस्तव ।।१२।।

जगाम निकटं तस्य, प्रणनाम मुनिं हरिः ।।४३।।

(शिव पू० रूद्र० सं० २। सती खं० २। अ० ३९)

विष्णु ने दधीचि से कहा – मैं एक बार कहने में डरता हूँ। तुम पूजा के योग्य हो। मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। तब विष्णु जी उस दधीचि के समीप गए और उसको भी प्रणाम किया।

(२३) ब्रह्म ने अपने पुत्र को नमस्ते किया-

ब्रह्मोवाच-

नमस्ते भगवन् यद्र, भास्कारामिततेजसे ।। ४१।।

भगवन् भूतभव्येश, मम पूत्र महेश्वर

सृष्टिहेतोस्त्वमुत्पन्नो, ममाङेऽनङनाशनः।। ४५।।

(शिव पु० वायु सं० ७। खं० 1। अ० १२)

ब्रह्मा बोले – सूर्य के समान महातेजस्वी भगवान् यद्र के लिए नमस्ते हो ।। ४१ ।। हे भगवन् ! हे भूत, भविष्य तथा वर्तमान के अधिपति मेरे पुत्र महेश्वर ! हे कामनाशक ! तुम मेरे शरीर से सृष्टि के निमित्त उत्पन्न हुए हो ।। ४५ ।।

ऐसे स्थल पर हमारे पौराणिक भाई कहा करते हैं कि यहाँ वस्तुतः पिता अपने पुत्र को नमस्ते नहीं करता। यहाँ परमेश्वर स्वयं ही पुत्र रूप में प्रकट हुए हैं , अतः नमस्ते परमेश्वर को ही है।

मेरा निवेदन यह है कि पौराणिकसम्मत वेदान्त के अनुसार तो सारा संसार ही ब्रह्मरूप है लौकिक माता, पिता तथा पुत्रादि सभी सम्बन्धी भी ब्रह्मरूप ही हैं। अतः यदि वे परस्पर नमस्ते करें तो क्या दोष ? तब भी तो आप के कथनानुसार ब्रह्म ही ब्रह्म को नमस्ते करेगा।

(२४) शिव ने अपनी स्त्री पार्वती को नमस्ते किया –

तथा प्रणयभङेन , भीतो भूतपतिः स्वयम्।

पादयोः प्रणमन्नेव, भवानीं प्रत्यभाषत ।। ४० ।।

(शिव पु० वायवीय० सं० ७।खं १। अध्याय २४)

तथा स्वयं शिव ने प्रीतिभंग से भयभीत होकर पार्वती के चरणों में नमस्ते करके उत्तर दिया।

(२५) ब्रह्म ने अपनी पत्नी सावित्री के चरणों में गिरकर नमस्ते किया-

चापराधं भूयोऽन्यं, करिष्ये तव सुव्रते !

पादयोः पतितस्तेऽहं, क्षम देवि नमोऽस्तु ते ।।१५०।।

 (पझ० पु० सृ० खं० अ० १७)

ब्रह्म बोले – हे सुवते देवि ! मैं तुम्हारे पेरों पर गिरा हूँ । क्षमा करो । मैं फिर तुम्हारे अपराध नहीं करूँगा । तुम्हें नमस्ते हो।

इन उपर के दो श्लोकों में तो पति अपनी स्त्रियों के पैरों पर गिरकर नमस्ते कर रहे हैं यह अपनी स्त्री के चरणों में गिरकर नमस्ते करना तो वेदविरूद्ध पौराणिक लीला है। परन्तु पति – पत्नी का परस्पर प्रेम से सत्कारार्थ नमस्ते करना आर्य समाज का वैदिक सिद्धान्त है।

इस नमस्ते के लिए प्रमाण बहुत अधिक हैं। अतः लेख की काया कढ़ने के भय से मैं केवल प्रमाण देता चला जाऊॅंगा। जहाँ आवश्यक होगा वहाँ अर्थ भी कर दिया जायेगा-

(२६) वासना वासुदेवस्य वासितं भुवनत्रयम्

सर्वभूतनिवासानां वासुदेव नमोऽस्तु ते ।। ३४ ।।

 (विष्णु सहस्त्रनाम)

वसुदेव को नमस्ते किया गया है।

(२७) नमस्ते भगवन् रूद्र देवानां पतये नमः

   सर्वोपासितरूपाय सुरासुरपतये नमः।।

(पार्थिव पूजन)

यहाँ सुरासुर पति रूद्र को नमस्ते किया गया है।

(२८) गोविन्द  नमो नमस्ते      

हे गोविन्द  ! तुम्हें नमस्ते हो ।

(२९) या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संसिथता

            नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।।

नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे,

                                नमस्ते जगद्व्यापिके चित्स्वरूपे।

   नमस्ते सदानन्दरूपे नमस्ते,

                                जगत्तारिणी त्राहि दुर्गे नमस्ते ।।

(देवी भागवत)

इन उपरिलिखित श्लोकों में जगद्रक्षिका दुर्गा को नमस्ते किया गया है।

(३०) नमस्ते भगवन् भूयो, देहि मे मोक्ष शाश्वतम्

 (सारस्व सूत्र २५८)

हे भगवान ! तुम्हें बार- बार नमस्ते हो। तुम मुझे मुक्ति दो।

(३१) नमस्ते वाङ्मनोतीतरूपाय

 (सत्यनारायण)

वाणी तथा मन के अगोचर प्रभु को नमस्ते हो।

(३२) इसी प्रकार दुर्गापाठ के पञ्चम अध्याय के श्लोक १६ से लेकर ७९ तक अनेक स्थलों पर नमस्ते शब्द आया है।

(३३) जगदादिरनादिस्त्वं, नमस्ते स्वात्मवेदिने

(शिव पु० उत्तर खं० अध्याय १४ श्लो० २८)

हे प्रभो ! तुम जगत् के आदि कारण ओर स्वयम् अनादि हो, तुम्हें नमस्ते हो।

(३४) श्रीमद्गवत में श्रीकृष्ण ने उत्तम ब्राह्मणों को नमस्ते किया है-

विप्रान् स्वालाभसन्तुष्टान्, साधून् भूतसुहत्तमान्।

निरहङकारिणः शान्तान्ः शान्तान् नमस्ते शिरसाऽसकृद्।।

ऐसे विप्रों को बार – बार नमस्ते हो, जब सब मित्र अहंकारशून्य शान्ति तथा लाभ न होने पर भी सन्तोष करने वाले हैं।

(३५) बृहदारण्यकोपनिषद् में आया है कि राजा जनक ने अपने आसन से उठकर मुनि याज्ञवल्क्य को नमस्ते किया –

जनकोऽहं वैदेहः कूर्चादुपापसर्पन्नुवाच नमस्ते।

(३६) वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग ५० श्लोक १७ में विश्वामित्र ने ’नमस्तेऽस्तु’ आपको मेरा नमस्ते हो, ऐसा कहकर वसिष्ठ से विदा ली थी।

(३७) सीता जङग्ल में विराध नाम के राक्षस को नमस्ते करती है-

मां वृका भझयिष्यन्ति, शार्दूला दीपिनस्तथा

मां हरोत्सृज्य काकुत्स्थौ नमस्ते राक्षसोत्तम ।।

(वाल्मीकि रामायण काण्ड २। सर्ग २। श्लोक १३)

(३८) अथर्ववेद में स्त्री जाति के लिए नमस्ते का प्रयोग है –

नमस्ते जायमानायै, जाताया उत ते नमः

 (अथर्ववेद १०।१०।१)

नमस्ते शब्द का व्यवहार अथर्ववेद तथा अन्य वेदों के अन्दर बहुत अधिक है। विज्ञ पाठक स्वयं भी देख सकते है।

इस प्रकार हम ने नमस्ते शब्द का व्यवहार संक्षेप रूप से वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, गीता, रामायण तथा पुराणादि सभी ग्रन्थों में दिखा दिया है। मैं समझता हूँ कि इतने विवेचन से हमारे पण्डितम्मन्य पौराणिक भाइयों की आँखें अवश्य खुल गई होंगी ।

पू० नमस्ते इस शब्द में दो विभाग हैं- नमः – ते । वास्तव में यहाँ था – नमः – तुभ्यम् । परन्तु यह याद रखना चाहिए कि तुभ्यम् के स्थान पर ते आदेश पद्य (श्लोकादि) में ही होता है, गद्य अर्थात् सीधी बोलचाल की भाषा में नही होता है। । अतः व्याकरण की दृष्टि से आर्यसमाजियों का बोलचाल की भाषा में नमस्ते शब्द का प्रयोग अशुद्ध है। तभी तो भट्टोजी दीक्षित ने सिद्धान्तकौमुद्री मे तुभ्यम् के सथान पर ते आदेश होने का जो प्रमाण दिया है, वह श्लोक में दिखाकर दिया है। यथा-

श्रीस्त्वावतु मापीह, दत्तात्ते मेऽपि शर्म सः।

स्वामी ते मेऽपि हरिः पातु वामपि नौ हरिः ?।।१।।

सि० पौराणिक भाई की यह शंका व्यर्थ है। यदि वह सिद्धान्तकौमुदी का ठीक तरह से मनन करे तो उसे ऐसी बात कहने की हिम्मत ही न पड़े । आगे चलकर कौमुदीकार ने एक वार्तिक लिखा है –

समानवाक्ये निघातयुष्मदस्मदादेशा वक्तव्याः

इस वार्तिक के अनुसार एक ही वाक्य में, (भिन्न वाक्य में नहीं) हम तुभ्यम् के स्थान पर ते आदेश कर सकते है। इसमें यह आग्रह हठ नहीं है कि वह किसी पद्य में ही आया है। इसीलिए भट्टोजी दीक्षित ने आगे जो ते आदेश होने का दृष्टान्त दिया है वह पद्य का नहीं है अपितु गद्य अर्थात् सीधी बोलचाल की भाषा का है। यथा – शालीनं ते ओदनं वास्यामि।

यहाँ यह गद्य वाक्य है। अगले –

ʿʿ एते वां नावादया आदेशा अनन्वादेशे वा वक्तव्या ’’

इस वार्तिक को पढ़ने से यह बात ओर भी स्पष्ट हो जाती है , कि जब हम देखते हैं कि इस वार्तिक का प्रत्युदाहरण भट्टोजी दीक्षित ने गद्य में ही दिया है-

ʿतस्मै ते नमः

परिणमतः हम यह दावे से कह सकते हैं कि नमस्ते शब्द ठीक है, प्रामाणिक है तथा इसी का बोलचाल की भाषा में प्रयोग होना चाहिए।

पू० नमस्ते शब्द को दो टुकड़ों में बाँटा जाता है। नमः, ते । ते शब्द तुभ्यम् के स्थान पर आदेश होता है। परन्तु विचारणीय बात यहाँ पर यह है कि तुभ्यम् शब्द युष्मद् शब्द की चतुर्थी विभक्ति के एक वचन का रूप है। इसका अर्थ है तेरे लिए । ऐसी अवस्था में यह कैसा असभ्य व्यवहार होगा कि पुत्र अपने पिता को यह कहे कि तेरे लिए नमः हो ? आदर के लिए उसको कहना तो यह चाहिए था कि आपके लिए नमः हो । अतः समझ में यही आता है कि आर्यसमाज में नमस्ते शब्द का व्यवहार अनुपयुक्त है।

सि० यह कोई आवश्यक नहीं कि ते एकवचन का रूप प्रयोग करने से बड़ों का अनादर होता है। यह तो केवल प्रत्येक भाषा का अपना – अपना तरीका होता है। अंग्रेजी में ’ही’इस एक – वचन के रूप का अर्थ है वह । परन्तु इसका प्रयोग छोटे – बडें सब के लिए समान रूप से होता है। यदि कोई छोटा पुरूष बड़े के लिए ही इस एकवचनान्त शब्द का व्यवहार करता है, तो इसमें बड़ा व्यक्ति अपना अपमान नहीं समझता, क्योंकि यह उसकी भाषा के व्यवहार का तरीका है। परन्तु हाँ, यदि हम नमस्ते शब्द में ते शब्द का हिन्दी अनुवाद करके किसी महापुरूष से कहें कि तेरे लिए नमः तो यह एक अपमानसूचक प्रयोग होगा , क्योकि इस हिन्दी के व्यवहार का यही भाव समझा जाता है। थोड़ी देर के लिए यदि हम मान भी लें कि ते शब्द अपमानसूचक है, तो पौराणिक भाइयों से पूछा जा सकता है कि पूर्व दिये हुए पुराणों के उदाहरण में परमात्मा के लिए , अपने – अपने पिता के लिए , गुरूओं के लिए , ऋषियों के लिए तथा अपने अन्य पूज्यों के लिए, एकवचन के ते शब्द का प्रयोग क्यों किया गया है? क्या वहाँ अपमानसूचित नहीं होता ? दिवचन का प्रयोग तो एक के लिए हो ही नहीं सकता । शेष रह गया बहुवचन का प्रयोग । अब यदि ते के स्थान पर बहुवचन वः शब्द प्रयुक्त कर देते तो हमारे पौराणिक भाई यह प्रश्न कर बैठते , कि छोटों को नमः करते समय बहुवचनान्त शब्द के प्रयोग की क्या आवश्यकता ? बहुत हद तक यह उनका प्रश्न ठीक भी होता । इन आपत्तियों से बचने के लिए वैदिक साहित्यज्ञों ने ते एक वचनान्त शब्द का सब के लिए प्रयोग करना उचित समझा और यह युक्तियुक्त भी है।

हमारे पौराणिक धर्मियों के तो पुराण उनके विश्वास के अनुसार वेद हैं । जैसा कि भागवत में आया है-

ऋग्यजुः सामाथर्वाख्या, वेदाश्चत्वार उद्धृताः।

इतिहासपुराणं , पञ्चमो वेद उच्यते।।२०।।

 (भागवत स्कं० १। अ० ४२०)

इतिहासपुराणानि पञ्चमं वेदमीश्वरः।

सर्वेभ्य एव वक्त्रेभ्यः ससृजेसर्वदर्शनः ।।३९।।

(भागवत स्कं० ३।अ० १२३९)

इन दोनों श्लोकों के अनुसार पुराणों को पाँचवाँ वेद माना गया है । इन पौराणिकों के वेद में से भी हम ने अच्छी तरह दिखा दिया है कि छोटे – बड़े सब के लिए ’ नमस्ते ’ उपयुक्त है। सच्चे वेदों (ऋग्, यजु ,साम और अथर्व) में से भी ‘नमस्ते’ की प्रामाणिकता को सिद्ध कर दिया गया है। अतः हे आर्य भाइयों ! आओ, हम एक – दूसरे में अनेकता तथा विद्वेष फैलानेवाले ’सीताराम’ तथा ’ राधेश्याम’ आदि असम्बद्ध शब्दों का परित्याग करके परस्पर के सत्कार एवम् आशीर्वाद के लिए वैदिक ’नमस्ते ’ को ही अपनायें और परस्पर नमस्ते करके एकता के सूत्र में बॅंध जायें। आप भी परस्पर नमस्ते कीजिए और मैं भी आपसे सादर नमस्ते करके विदा होता हॅूं।

नमस्ते वासुदेवाय नमः सङक्र्षणाय

प्रद्युम्नायःनिरूद्धाय तुभ्यं भगवते नमः।।

नारायणाय ऋषये पुरूषाय महान्मने।

विश्वेश्वराय विश्वाय सर्वभूतात्मने नमः।।

भागवत ५।अध्याय ११। स्कन्ध २९-३०

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