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वेद और मनुस्मृति का मूल

कुछ पौराणिक महाज्ञानी और अल्पबुद्धि लोग दोनों ही कुछ दिनों से एक विषय पर वार्तालाप करते चले आ रहे हैं, विषय है या सवाल है कुछ भी है वो इस प्रकार है –

मनुस्मृति का मूल वेद में कहाँ है ?

इस सवाल का जवाब देने से पूर्व हम देखते हैं मूल का अर्थ क्या होता है ?

मूल का अर्थ होता है आधार, बुनियाद, जड़, आदि। यानी इस सवाल को इस प्रकार समझा जा सकता है –

मनुस्मृति का आधार वेद में कहाँ है ?

यहाँ दो बाते समझनी चाहिए –

1. वेद अपौरुष्य हैं – अर्थात वेद ईश्वर का नित्य ज्ञान है जो आदि सृष्टि में ही चार ऋषियों के ह्रदय में प्रकाशित किया गया था। इससे सिद्ध है की वेद में इतिहास नहीं हो सकता और जो वेद में इतिहास खोजे वो गधे के सर पर सींग खोजने का व्यर्थ कार्य ही कर रहा है। इसी कारण से वेदो को श्रुति कहा गया है। ये परंपरा सनातन काल से चली आ रही है पर खेद की आज कुछ तथाकथित विद्वान अपने स्वार्थ को पूरा करने के चक्कर में इस सनातन परम्परा का अपमान करने से भी नहीं चूक रहे।

2. मनुस्मृति महाराज मनु द्वारा बनाया गया मानवो के लिए निर्मित आचार, व्यव्हार आदि धर्मशास्त्र है जिसे स्मृति कहा गया है। इस धर्मशास्त्र में मनुष्यो को क्या कर्म करने और क्या नहीं करने आदि विषयो से सम्बंधित है, कहने का तात्पर्य है की धर्म पर चलना और अधर्म से पृथक रहने का मनुस्मृति में विधान किया गया है।

अब दोनों तथ्यों को ध्यान में रखकर ये तो सिद्ध हो जाता है की मनुस्मृति वेदो के बहुत बाद की रचना है और मनुस्मृति में महाराज मनु ने वेदो के मंत्रो को देख पढ़ कर बहुत विचार करने के उपरान्त ये धर्मशास्त्र बनाया था। ताकि समस्त मानव जाति का कल्याण हो।

अब सवाल है की श्रुति और स्मृति में अंतर क्या है ?

सामान्य रूप से वेद को ‘श्रुति कहा जाता है और धर्मशास्त्रा को ‘स्मृति। महाराज मनु ने स्पष्ट रूप से स्मृति को ‘धर्मशास्त्रा कहा है-

श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रां तु वै स्मृति:।

-मनुस्मृति 2/10

भावार्थ : वेद धर्म के मूल हैं। वेद में प्रतिपादित धर्म का ही सरल रूप से धर्मशास्त्रा में वर्णन हुआ है।

तो यहाँ स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया की धर्म का मूल वेद है और वेद में प्रतिपादित धर्म का ही सरल रूप से धर्मशास्त्र यानी मनुस्मृति में वर्णन हुआ है।

इससे ये भी सिद्ध हुआ की मनुस्मृति का मूल वेद ही है। और इस आक्षेप का समाधान भी हो गया की मनुस्मृति का मूल वेद में कहाँ है।

महर्षि दयानंद और पंडित तारचरण के मध्य शास्त्रार्थ हेतु जो संवाद हुआ वो पठनीय है :

महर्षि दयानंद : क्या आप वेदो का प्रमाण मानते हैं वा नहीं ?

पंडित तारचरण : जो वर्णाश्रम में स्थित हैं उन सबको वेदो का प्रमाण ही है।

यहाँ पंडित तारचरण को भी सत्यभाषण ही करना पड़ा क्योंकि जो वेदो को प्रमाण न मानते ऐसा कहते तो बहुत ही निंदा होती – लेकिन ध्यान योग्य बात है की जब वेद को स्वयं ही प्रमाण मान लिया तब अन्य प्रमाण की इन्हे आवश्यकता क्या पड़ी ?

महर्षि दयानंद : कहीं वेदो में पाषाणादि मूर्ति पूजन का प्रमाण है वा नहीं ? यदि है तो दिखाइए और जो न हो तो कहिये नहीं है।

पंडित तारचरण : वेदो में प्रमाण है वा नहीं परन्तु जो एक वेदो का ही प्रमाण मानता है औरो का नहीं उसके प्रति क्या कहना चाहिए ?

यहाँ ध्यान से पढ़ने वाली बात है – ऋषि ने केवल मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में सवाल किया की क्या वेदो में मूर्तिपूजा का प्रमाण है ? इस पर तारचरण जी से कुछ कहते नहीं बना क्योंकि वो जानते थे की वेदो में मूर्तिपूजा का प्रमाण नहीं इसलिए अन्य प्रमाणों की और जोर देकर कहा की अन्य प्रमाण भी साक्षी के तौर पर लेने चाहिए मगर तारचरण जी ये भूल गए की खुद भी ऊपर उन्होंने स्वयं माना की जो भी वर्णाश्रम में स्थित है उसके लिए वेद ही प्रमाण है। तब जब वेद ही को वर्णाश्रम में स्थित के लिए प्रमाण मान तब अन्य प्रमाण की साक्षी क्यों ?

महर्षि दयानंद : औरो का विचार पीछे होगा। वेद का विचार मुख्य है। इस निमित्त इसका विचार पाहिले ही करना चाहिए क्योंकि वेदोक्त ही कर्म मुख्य है और मनुस्मिृत आदि भी वेदमूलक है इससे इनका भी प्रमाण है क्योंकि जो वेद विरुद्ध और वेदो में अप्रसिद्ध है उनका प्रमाण नहीं होता।

यहाँ ध्यान योग्य पढ़ने वाली बात है, क्योंकि इससे पंडित तारचरण का पंडितव और महर्षि दयानंद का अद्भुद ज्ञान दोनों ही समझ आ सकते हैं – देखिये महर्षि ने कहा क्योंकि मनुस्मृति वेद पर आधारित है अर्थात जो वेद सम्मत है उसको महाराज मनु ने भी धर्म कहा और जो वेद विरुद्ध है उसे अधर्म कहा – इससे सिद्ध है की मनुस्मृति वेदमूलक है। मगर पंडित तारचरण की पंडताई देखिये :

पंडित तारचरण : मनुस्मृति का वेदो में कहाँ मूल है ?

अब देखिये धूर्तता और छल, ऋषि ने कहा मनुस्मिृति वेदमूलक है यानी वेद सम्मत बात मनुस्मृति में धर्म कहा है, मगर तारचरण जी अपनी धूर्तता करते हुए मनुस्मृति का वेदो में कहाँ मूल है ये सवाल पूछते हैं, खैर फिर भी महर्षि ने बहुत ही अच्छा जवाब देते हुए कहा :

महर्षि दयानंद : जो जो मनुजी ने कहा है सो सो औषधियों का भी औषध है ऐसा सामवेद के ब्राह्मण में कहा है।

यहाँ ये बात बहुत ही गूढ़ है जो महर्षि ने बताई – पंडित तारचरण समझ गये इसलिए अब इस विषय से हट गए क्योंकि जो इसी विषय पर रहते तो वेदो से प्रमाण देना होता की मूर्तिपूजा वेद सम्मत है – जो की कभी दे नहीं सकते थे – इसलिए फ़ौरन एक दूसरे पंडित विशुद्धांनंद स्वामी ने प्रकरण को बदलते हुए आक्षेप करने शुरू करे।

इतने से ही पाठकगण समझ लेंगे की पौराणिक व्यर्थ ही आक्षेप मढ़ते हैं जवाब उनपर आजतक नहीं मगर फिर भी आक्षेप महर्षि पर लगाने हैं, खैर हम यहाँ ऋषि के समर्थन में और अनेक ऋषियों जैसे महर्षि व्यास और वाल्मीकि जिन्होंने मनु महाराज के श्लोको को अपने ग्रंथो में महत्त्व प्रदान किया पठनीय है :

महाभारत में मनुस्मृति के श्लोक –

महर्षि वेदव्यास (कृष्णद्वेपायन ) रचित महाभारत में मनुस्मृति के श्लोक व् मनु महाराज कि प्रतिष्ठा अनेकों स्थानो पर आयी है किन्तु मनु में महाभारत वा व्यास जी का नाम तक नही ।

महाभारत में मनु महाराज की प्रतिष्ठा –
मनुनाSभिहितम् शास्त्रं यच्चापि कुरुनन्दन ! महाभारत अनुशासन पर्व , अ० ४ ७ – श ० ३ ५
तैरेवमुक्तोंभगवान् मनु: स्वयम्भूवोSब्रवीत् । महाभारत शांतिपर्व , अ० ३ ६ – श ० ५
एष दयविधि : पार्थ ! पूर्वमुक्त : स्वयम्भूवा । महाभारत अनुशासन पर्व , अ० ४ ७ – श ० ५ ८
सर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् । महाभारत शांतिपर्व , मोक्षधर्म आदि ।
अद्भ्योSग्निब्रार्हत: क्षत्रमश्मनो लोहमुथितं ।
तेषाम सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिशु शाम्यति ।। – मनु अ० ९ – ३ २ १

ठीक यही मनु का श्लोक महाभारत शांतिपर्व अ० ५ ६ – श २ ४
में आया है और महाभारत के इस श्लोक से ठीक पूर्व २ ३ वें श्लोक में आया है –
“मनुना चैव राजेंद्र ! गीतो श्लोकों महात्मना”
अर्थात हे राजेंद्र ! मनु नाम महात्मा ने इन श्लोकों को कहा है !

इसी प्रकार मनु के जो जो श्लोक ज्यों के त्यों महाभारत में है ;
मैं यहाँ अब केवल उनके श्लोक नम्बर ही लिखा रहा हूँ

मनु ० १ १ /७ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ५
मनु ० १ १ /१२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ९
मनु ० १ १ /१८ ० – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ३ ७
मनु ० ६ /४५ – महा० शांति अ ० २४५ – श ० १५
मनु ० २ /१२० – महा०अनु ० अ ०१०४ – श ० ६४

अब वो श्लोक लिखते है जो मनु के है परन्तु कुछ परिवर्तन के साथ आयें है –

यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग: ।
यश्च विप्रोSनधियान स्त्रयते नाम बिभ्रति । । – मनु २ /१५७

यथा दारुमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग: ।
ब्राह्मणश्चानधियानस्त्रयते नाम बिभ्रति । । -महा शांति ३६/४७

अब केवल उनके श्लोक नम्बर ही लिखा रहा हूँ जो कुछ परिवर्तन के साथ आयें है –

मनु ० १ १ /४ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ४
मनु ० १ १ /१२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ७
मनु ० १ १ /३७ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० २ २
मनु ० ८ /३७२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ६३
मनु ० २ /२३१ – महा० शांति अ ० १०८ – श ० ७
मनु ० ९ /३ – महा० अनु अ ० ४६ – श ० १४
मनु ० ३ /५५ – महा० अनु अ ० ४६ – श ० ३

लगभग मनु के ५ ० ऐसे श्लोक है जो ज्यों के त्यों वा कुछ परिवर्तन के साथ महाभारत में आये है ।
वाल्मीकि रामायण में मनुस्मृति के श्लोक –

महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में मनुस्मृति के श्लोक व् मनु महाराज कि प्रतिष्ठा आयी है किन्तु मनु में वाल्मीकि , राम जी आदि का नाम तक नही ।

वाल्मीकि रामायण में मनु महाराज की प्रतिष्ठा –

किष्किन्धा काण्ड में जब श्री राम अत्याचारी बाली को घायल कर उसके आक्षेपों के उत्तर में अन्यान्य कथनो के साथ साथ यह भी कहते है कि तूने अपने छोटे भाई सुग्रीव कि स्त्री को बलात हरण कर और उसे अपनी स्त्री बना अनुजभार्याभिमर्श का दोषी बन चूका है , जिसके लिए (धर्मशास्त्र ) में दंड कि आज्ञा है ।
इस पृथिवी के महाराज भरत है (अतः तू भी उनकी प्रजा है ) ; मैं उनकी आज्ञापालन करता हुआ विचरता हूँ फिर में तुझे यथोचित दंड कैसे ना देता ? जैसे –

श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चारित्र वत्सलौ ||
गृहीतौ धर्म कुशलैः तथा तत् चरितम् मयाअ || वाल्मीकि ४-१८-३०

राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || वाल्मीकि ४-१८-३१

शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते |
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् || वाल्मीकि ४-१८-३२

उपरोक्त श्लोक ३० में मनु का नाम आया है और श्लोक ३१ , ३२ भी मनु महाराज के ही है !
उपरोक्त श्लोक किंचित पाठभेद (परन्तु जिससे अर्थ में कुछ भी भेद नही आया ) मनु अध्याय ८ के है ! जिनकी संख्या कुल्लूकभट्ट कि टिकावली में ३१८ व् ३१९ है –

राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || वाल्मीकि ४-१८-३१

राजभिः धूर्त दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || मनु ८ / ३१८

शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते |
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् || वाल्मीकि ४-१८-३२

शसनाद्वा अपि मोक्षाद्वा स्तेनः स्तेयाद विमुच्यते |
अशासित्वा तू तं राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम् ॥ मनु ८/३१६

रामायण में स्पष्टतः मनु के श्लोकों (मनुना गीतौ श्लोकौ) कि प्रशंसा विधमान है ठीक उसी प्रकार जैसे महाभारत में थी “मनुना चैव राजेंद्र ! गीतो श्लोकों महात्मना” – महाभारत शांतिपर्व अ० ५ ६ – श २ ३

ऐतिहासिक ग्रंथो में ही इतिहास का वर्णन हो सकता है, वेद तो ईश्वर का नित्य ज्ञान है उसमे इतिहास नहीं हो सकता, क्योंकि वेद धर्म का मूल है इसलिए मनुस्मृति वेदमूलक है तभी उसका वर्णन और महाराज मनु की प्रतिष्ठा रामायण व महाभारत दोनों ही ग्रंथो में विस्तार से मिलती है, यदि अब भी कोई पौराणिक ना माने हठ करे तो इसे देखे :

इदं शास्त्रां तु कृत्वा-सौ मामेव स्वयमादित:।

विधिवद ग्राहयामास मरीच्यादींस्त्वहं मुनीन।।

-मनुस्मृति 1/58

अतएव मनु द्वारा उपदिष्ट होने से ही इसका नाम मनुस्मृति है।

महाराज मनु आदि अनेको ऋषियों ने धर्म का मूल वेदो के अनुसार जो नियम बनाये और उनका पालन करने की प्रेरणा दी वही धर्म कहा गया है। यदि कुछ महानुभाव वेद से उसे ना भी जोड़ते हुए ‘चोदना’ प्रेरणा तक ही सीमित रखे जैसे की व्यर्थ ही कोशिश काशी शास्त्रार्थ के दौरान विशुद्धानन्द जी ने की मगर वो भूल गए की कर्तव्य के मूल में प्रेरणा अवश्यम्भावी है अर्थात जिन लक्षणों, कर्तव्यों या नियमो में लोक को धारण करने की प्रेरणा मूलभूत रहती है वे धर्म हैं और उनका पालन आवश्यक माना जाता है, यही बात महर्षि ने विशुद्धानन्द जी को जवाब देते समय कही थी :

महर्षि दयानंद : धर्म के दस लक्षण मनुस्मृति में बताये हैं, धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध – फिर सवाल घूम फिर कर विशुद्धानन्द जी पर ही आ गिरा क्योंकि उन्होंने धर्म के स्वरुप को पाहिले ‘चोदना’ अर्थात प्रेरणा बता दिया फिर बाद में धर्म का केवल एक ही लक्षण बताया।

इससे काशी में मौजूद सभी पंडितो का पंडितव और आडमबर सबके सम्मुख निकल आया। नतीजा आजतक सभी पंडित महर्षि दयानंद पर व्यर्थ आक्षेप लगा रहे हैं, जवाब खुद के पास मौजूद नहीं और जिस महर्षि ने अपनी विद्वत्ता काशी ही नहीं सम्पूर्ण धरती पर वेदो के माध्यम से दिखाई वो कोई साधारण मनुष्य नहीं कर सकता।

निश्चय ही वो महामानव अर्थात महर्षि थे।

धन्य है तुझ को ए ऋषि तूने हमेँ जगा दिया।
सो सो के लुट रहे थे हम,तूने हमेँ जगा दिया।

अब भी चाहे तो अनेको पौराणिक मिथ्या आक्षेप और विलाप करने हेतु स्वतंत्र है।

लौटो वेदो की और।

नमस्ते

सगुण क्या निर्गुण क्या? प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

अबोहर के डी.ए.वी. कॉलेज में कुछ वर्ष पूर्व दो योग्य युवा हिन्दी प्राध्यापक नियुक्त हुए। कुछ पुराने अध्यापकों से लेखन व साहित्य सृजन की चर्चा करते समय उन्होंने अपने पुराने सहयोगियों से मेरे लेखन-कार्य के बारे में कुछ सुना। एक दिन फिर धूप में खड़े-खड़े वे कुछ ऐसी ही चर्चा कर रहे थे। पुनः मेरा नाम किसी ने लिया तो वे बोले- उनका निवास कॉलेज पुस्तकालय के पीछे ही तो है। वे प्रायः कॉलेज के डाकघर पत्र डालने व कार्ड आदि लेने आते रहते हैं। जो दुबला-पतला व्यक्ति चलते-चलते यहाँ से पढ़ता-पढ़ता निकले बस समझलो- वह राजेन्द्र जिज्ञासु ही हो सकता है। वे यह बात कर ही रहे थे कि मैं चलते-चलते उधर से निकला। कुछ पढ़ता भी जा रहा था। मेरी उनसे भेंट करवाई गई। कुछ चर्चा छिड़ गई। क्या लिख रहे हो? आजकल किस विषय की खोज में लगे हो? कुछ ऐसे प्रश्न पूछे।

मैंने उन्हें अपने निवास पर दर्शन देने के लिए कहा। वे निमन्त्रण पाकर प्रसन्न हुए और दो दिन में मिलने आ गये। मैं अपने लेखन-कार्य में व्यस्त था। बातचीत चल पड़ी तो उन दो में से एक ने कहा- आर्यसमाज तो निर्गुण, निराकार की उपासना को मानता है, जब कि भक्तिकाल के कई सन्त सगुण, साकार ईश्वर की उपासना को मानते हैं।

यह कथन सुनकर इस लेखक ने उनसे कहा- आपके कथन में आंशिक सच्चाई है। आर्यसमाज तो ईश्वर को निर्गुण व सगुण दोनों मानता है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जो निर्गुण न हो और कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो सगुण न हो।

मेरे मुख से निकले ये शब्द  सुनकर वे दोनों चौंक पड़े। दोनों ही पीएच.डी. उच्च शिक्षित सज्जन थे। वे बोले हिन्दी साहित्य में तो अनेक लेखकों ने निर्गुण भक्ति को निराकार की उपासना और सगुण उपासना का अर्थ मूर्तिपूजा  ही माना है। कुछ सन्त महात्माओं के नाम भी लिए।

उनसे निवेदन किया गया कि सन्तों को इस चर्चा में मत घसीटें। मैं भी बहुत नाम ले सकता हूँ। आप यह बतायें कि सगुण व निर्गुण इन दो शब्दों  में जो ‘गुण’ शब्द  पड़ा है, इसका अर्थ क्या है? कोई-सा शब्दकोष  उठा लीजिये अथवा किसी ग्रामीण निरक्षर वृद्धा से पूछें कि ‘गुण’ शब्द  का अर्थ क्या है? यह शब्द देशभर में प्रयुक्त होता है। सर्वत्र इसका आशय क्वालिटी सिफ़त ही जाना, माना व समझा जाता है। सद्गुण, अवगुण सब ऐसे शब्द यही सिद्ध करते हैं या नहीं? उनको मेरी बात जँच गई। वे इसका प्रतिवाद न कर सके।

अब उनसे पूछा कि जब गुण का अर्थ आप क्वालिटी विशेषतायें मानते हैं तो फिर ‘सगुण’ ‘निर्गुण’ की चर्चा में काया अथवा शरीर-आकार कैसे घुस गया? वे बोले- यह बात तो हमने पहली बार ही सुनी है। आपका तर्क तो बहुत प्रबल है। मैंने कहा- आप चिन्तन करिये। स्वाध्याय करिये। बहुत कुछ नया मिलेगा। आप अन्ध परम्पराओं की अंधी गुफाओं से निकलें। वेद, दर्शन, उपनिषद् तक पहुँचे। सत्य का बोध हो जायेगा। मान्य सोमदेव जी के ‘जिज्ञासा समाधान’ में सगुण-निर्गुण विषयक चर्चा पढ़कर यह प्रसंग देने का मैंने साहस किया है। आशा है कि पाठकों को इससे लाभ मिलेगा, प्रेरणा प्राप्त होगा

सोमयाग ऋषि दयानन्द प्रतिपादित यज्ञ

शान्तिधाम आर्यजगत् के लिये अब अपरिचित नाम नहीं है। यह इसके संस्थापक अनन्त आर्य के पुरुषार्थ और निष्ठा का परिणाम है। उन्होंने राष्ट्रीय संरक्षित वन प्रदेश के मध्य एक गाँव की निजी भूमि को खोजकर उसे क्रय किया। गाँव के लोग जंगली जानवरों के उत्पात के कारण गाँव छोड़कर बहुत पहले जा चुके थे, बाद के लोगों को पता भी नहीं था कि उनका कोई गाँव और उनकी जमीन भी है। ऐसी भूमि को खोजकर खरीदा और साठ एकड़ भूमि से आधी भूमि पर गुरुकुल की स्थापना की। आज अपने सहयोगियों के साथ श्री सत्यव्रत, श्री राधाकृष्ण आदि के पुरुषार्थ से स्वामी धर्मदेव के मार्गदर्शन में गुरुकुल चल रहा है। गुरुकुल का क्षेत्र कावेरी नदी के तट पर चारों ओर फैली पर्वतमाला के मध्य प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण है। यहाँ पर सोमयाग का आयोजन गत अनेक वर्षों से निरन्तर हो रहा है। सोमयाग की परम्परा तो बहुत पुरानी है। इस यज्ञ को सम्पन्न करने वाले परिवार आहिताग्नि होते हैं, जो अपने जीवन में दोनों समय यज्ञ करने का संकल्प ले चुके होते हैं। ऐसे लोग केवल पौराणिक परम्परा में ही शेष हैं। सस्वर वेदपाठ और यज्ञीय कर्मकाण्ड परम्परा को इन लोगों ने सुरक्षित रखा है। ये लोग कर्नाटक, महाराष्ट्र में तो अधिक हैं ही, अन्य दक्षिण भारत में भी कहीं-कहीं हैं।

आर्यसमाज में ऋषि दयानन्द ने इनकी चर्चा की है। अग्निहोत्र से अश्वमेध पर्यन्त यज्ञ करने का विधान भी किया है। ऋषि ने शाहपुराधीश के यहाँ इस प्रकार का यज्ञ कराया है। आज भी शाहपुरा के महल में इस प्रकार की वेदी बनी हुई है। शाहपुरा में एक अन्य भवन में भी इस यज्ञ के तीनों कुण्ड बने हुए हैं, परन्तु आर्यसमाज में इस प्रकार के यज्ञों की कोई परम्परा नहीं चली और आर्यसमाज के लोग इसे पाखण्ड मात्र समझकर इसमें कोई उत्सुकता भी नहीं रखते थे। पं. ब्रह्मदत्त  जिज्ञासु जी अपने यहाँ शतपथ, मीमांसा, तैत्तरीय  संहिता आदि को पढ़ाते हुए अपने शिष्यों को इन यज्ञों को देखने के लिए प्रेरित करते थे। इस परम्परा को पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने आगे बढ़ाया, ऐसे यज्ञ करने वालों से सम्पर्क स्थापित किया और उनके आयोजनों में सम्मिलित होते रहे, जिसके परिणामस्वरूप इनसे पण्डित जी का आत्मीयभाव बढ़ा। सेलूकर जी, श्रौती जी आदि पण्डित जी के मित्रों में सम्मिलित रहे। सेलूकर एक बार अजमेर पधारे, तब सात दिन तक ऋषि उद्यान में रहकर यज्ञशाला में प्रवचन देते रहे। इस प्रकार इस कर्मकाण्ड से आर्यसमाज के विद्वानों का सम्पर्क हुआ और वह सम्पर्क बढ़ता रहा। जहाँ-जहाँ भी इस प्रकार के यज्ञों का आयोजन होता रहता है, वहाँ-वहाँ आर्यसमाज के विद्वान् और छात्रगण उसे देखने जाते रहते हैं। इससे कर्मकाण्ड के ग्रन्थों का पठन-पाठन भी आर्यसमाज के विद्वान् करने लगे हैं। पं. मीमांसक जी ने लिखा है- सबसे पहले पं. सत्यव्रत जी ने श्रौतयज्ञों के परिचय पर पुस्तक लिखी थी। उसके पश्चात् तो मीमांसक जी ने तथा आचार्य विजयपाल जी ने श्रौत यज्ञों को देखकर उनका परिचय विस्तार से लिखा, जो वेदवाणी और पुस्तक रूप में पाठकों को सुलभ है।

शान्तिधाम के यज्ञ करने वालों का परिचय स्वतन्त्र रूप से है। शान्तिधाम के परिचय में बैंगलूर के कृष्ण भट्ट जी आये और उन्होंने सस्वर वेदपाठ के मह व से संस्था संचालकों को अवगत कराया। आयोजकों को लगा कि वेद पढ़ना है तो सस्वर ही क्यों न पढ़ा जाय? संचालकों ने इन परम्परागत वेदपाठियों से अपने छात्रों को वेदपाठ सिखाना प्रारम्भ किया। निकट आने पर इन विद्वानों में से आर्यसमाज के प्रति जो दुर्भाव बना हुआ था, वह कम हुआ।

सस्वर वेदपाठ के शिक्षण के साथ श्रौत यज्ञों की परम्परा भी जाननी चाहिए, इस भावना से शान्तिधाम के संचालकों ने आयोजकों से केरल में बड़े सोमयाग का आयोजन कराया। फिर अनेक स्थानों पर छोटे-बड़े आयोजन संस्था के सहयोग से होते रहे। वर्तमान में पाँच वर्षों से सोमयाग का आयोजन शान्तिधाम में हो रहा है। सारा व्यय यज्ञ करने-कराने वाले उठाते हैं। स्थान, आवास आदि की सुविधा गुरुकुल की ओर से दी जाती है। जो लोग यज्ञ को देखने जाते हैं, उनके भोजन, आवास आदि की व्यवस्था संस्था उदारता से करती है। स्थानीय परम्परा के अनुसार भोजन की विविधता और प्रचुरता अतिथियों को प्रसन्न और सन्तुष्ट करने वाली होती है। इन श्रौत यागों के आयोजन में एक और बात ध्यान देने योग्य है। ये यज्ञ कुछ लोग हिंसा करके करते हैं, कुछ लोग बिना हिंसा के करते हैं। शान्तिधाम के आयोजन में हिंसा नहीं थी, वे हिंसा की क्रियायें प्रतीकों से सम्पन्न करते हैं। वायवीय पशुयाग में आज्य पशु, अर्थात् एक पात्र में घी भर के उसे ही पशु मान लेते हैं, उसी की आहुति देते हैं। इसी प्रकार श्येनयाग के आयोजन में चिति निर्माण करते हुए, कछुआ तो जीवित रखा था। कहते हैं- वह अपने-आप नीचे निकल जाता है। एक मेढ़क को एक कुशा के थैले में डाल कर उसे वेदी पर घुमाया गया, परन्तु बाद में उसे छोड़ दिया गया। वेदी निर्माण करते हुए मनुष्य का, गाय का, बकरी का, घोड़े का, भेड़ का सिर-ये सब खिलौने के बने हुए थे, जिन्हें वेदी के अन्दर दबाया गया। दूध के लिए गाय और बकरी भी प्रतीक के रूप में बाँधी गईं। दूध तो बोतल में लाकर ही वेदी की अग्नि में डाला जाता था।

इस यज्ञ में जो विशेष आयोजन संस्था की ओर से किया गया था, वह था सोमयाग विषय पर गोष्ठी। इसमें अनेक स्थानीय विद्वानों के साथ आर्यसमाज के विद्वान् और सान्दीपनी वेद विद्या प्रतिष्ठान के सचिव डॉ. रूपकिशोर शास्त्री भी उपस्थित थे, जो गोष्ठी के अध्यक्ष थे। डॉ. रूपकिशोर जी के पुरुषार्थ से सस्वर वेद पाठशालाओं की एक लम्बी शृंखला स्थापित हो चुकी है, विशेष रूप से पौराणिक पाठशालाओं में कन्याओं को वेद सिखाने की परम्परा आपकी ऐतिहासिक उपल        िध है। आपने अपनी प्रेरणा और दूसरों के सहयोग से आर्य संस्थाओं में भी बालकों के साथ बलिकाओं के सस्वर वेद सीखने की व्यवस्था कराई, यह वेद की सेवा का अच्छा उदाहरण है। इस गोष्ठी में आचार्य सनत्कुमार जी अपनी शिष्य मण्डली के साथ उपस्थित थे। आपने दृश्य उपकरणों से सोमयाग का परिचय और उसके वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डाला। इसके अतिरिक्त दो विश्वविद्यालयों के कुलपति तथा अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक भी इस गोष्ठी में उपस्थित थे, जिन्होंने अपने शोधपूर्ण विचार गोष्ठी में प्रस्तुत किये, जिन्हें श्रोताओं ने बड़ी रुचि से सुना। इनमें मीमांसा मर्मज्ञ वासुदेव पराञ्जपे भी थे। इस यज्ञ और गोष्ठी के अवसर पर एक विचार सामने आया, जिससे ऐसा लगने लगा कि कुछ लोग समझते हैं, वेद को सस्वर पढ़ना ही शुद्धता की कसौटी है, बिना स्वर के वेद पढ़ना अशुद्ध है। इसी तर्क के आधार पर यह भी कहा गया कि जैसे वेद बिना स्वर के पढ़ना गलती है, वैसे ही कर्मकाण्ड की रीति को छोड़कर यज्ञ करना भी अशुद्ध है। यह विचार घातक है और ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के कार्यों को व्यर्थ करने वाला है। हमें प्रथम यह समझना चाहिए कि वेद है किसके लिए? वेद परमेश्वर का ज्ञान है, वेद मनुष्य मात्र के लिये है। यदि आप मनुष्य को वेद से दूर करते हैं तो आपका विधि-विधान वेद के प्रयोजन को सिद्ध नहीं करता, अतः ग्राह्य नहीं है। हमें समझना चाहिए कि वेद और यज्ञ में एक सतत सम्बन्ध है। दूसरे शब्दों  में वेद सिद्धान्त है, ज्ञान है तो यज्ञ कर्म है। यज्ञ वेद का ज्ञानपूर्वक किया गया कर्म होने से यज्ञ वेद का व्यावहारिक या प्रायोगिक रूप है। वेद में ज्ञान या विज्ञान है तो विज्ञानपूर्वक यज्ञ किया जा सकता है, परन्तु सामान्य व्यक्ति के लिए भी तो वेद है, सामान्य व्यक्ति के लिये भी यज्ञ है, फिर उसको कैसे वञ्चित कर सकते हैं? पराम्परागत कर्मकाण्ड जहाँ लाखों रुपये व्यय करके बड़े-बड़े वेदज्ञों, वेदपाठियों द्वारा सम्पन्न किया जाता है तो सामान्य जनता के लिये क्या होगा? यज्ञ तो जनता के लिये कहा गया है। यह ठीक है कि कोई पढ़कर विशेषज्ञ, विद्वान् बनता है, परन्तु कोई कम पढ़कर सामान्य भी रहता है। जैसे पढ़ने का विशेषज्ञता से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है, उसी प्रकार वेद और यज्ञ के भी सामान्य-विशेष दोनों से सम्बन्ध हैं।

पौराणिक परम्परा को ही ठीक और अन्तिम नहीं माना जा सकता। इन यज्ञों में हिंसा का विधान करके इनको भी तो विकृत किया गया है। ऋषि दयानन्द ने इस एकाधिकार को ही तो तोड़ा है। सब वेद सस्वर नहीं पढ़ सकते, परन्तु जो सस्वर पढ़ते हैं, वे भी तो अर्थज्ञान से रहित होने के कारण अधूरे हैं। केवल सस्वर वेद पढ़कर कर्मकाण्ड करने से तो वेद का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। स्वर और कर्मकाण्ड अर्थज्ञान में सहायक हैं, इसलिए स्वीकार्य हैं। अर्थज्ञान के बिना स्वर और कर्मकाण्ड का कितना मह                    व रह जायेगा, ऋषि दयानन्द ने इसी अर्थ के पक्ष को ही हमारे सामने रखा है। उन्होंने मनुष्य मात्र को वेद पढ़ने और यज्ञ करने का अधिकार दिया है तो वह वेद वैसा ही तो पढ़ेगा, जैसा उसे आता है, यज्ञ भी उतना ही कर पायेगा, जितनी उसे जानकारी है। उसकी जानकारी कम है, केवल इसिलिये उसे उसके अधिकार से वञ्चित नहीं किया जा सकता। अधिक जानेगा तो अधिक लाभ उठा सकेगा, कम जानेगा तो कम लाभ ले पायेगा। स्वामी दयानन्द संस्कार विधि के सामान्य प्रकरण में यज्ञ की विधि बताते हुए निर्देश करते हैं कि ‘‘सब संस्कारों में मधुर स्वर से मन्त्रोच्चारण यजमान ही करे। न शीघ्र, न विलम्ब से उच्चारण करें, किन्तु मध्य भाग जैसा कि जिस वेद का उच्चारण है, करें। यदि यजमान पढ़ा हो तो इतने मन्त्र तो अवश्य पढ़ लेवे। यदि कोई कार्यक    र्ाा जड़, मन्दमति, काला अक्षर भैंस बराबर जानता हो, तो वह शूद्र है, अर्थात् शूद्र मन्त्रोच्चारण में असमर्थ हो, तो पुरोहित और ऋत्विज मन्त्रोच्चारण करें और कर्म उसी मूढ़ यजमान के हाथ से करावें।’’ क्या इस ऋषि वाक्य को सस्वर वेद पाठ और कर्मकाण्ड के सामने मिथ्या कर देंगे? ऋषि दयानन्द कन्याओं को वेद पढ़ाने का आग्रह करते हैं, इतना ही नहीं, ऋषि दयानन्द ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में वेदाध्ययन के अधिकार की चर्चा करते हुए सबको, मनुष्य मात्र स्त्री-पुरुषों को वेद पढ़ने का अधिकार प्रतिपादित करते हैं और यथेमां मन्त्र की व्याख्या में मनुष्य को अपने परिवार के लोगों के साथ अपने घर के सेवक और मजदूर को भी वेद पढ़ाने का निर्देश देते हैं। क्या ऐसी परिस्थिति में नौकर सस्वर वेद पढ़ेंगे या विधिपूर्वक यज्ञ करेंगे? वे जैसा जानते हैं, वैसा ही तो कर पायेंगे।

स्वामी दयानन्द का निर्देश वेद से है, अतः बाकी शास्त्र या परम्परा उसके सामने गौण है। वेद का आदेश स्वतः प्रमाण है। क्या ऋषि दयानन्द व्यवस्था देने के अधिकारी नहीं हैं? ऋषि दयानन्द से किसी आचार्य का मन्तव्य मेल नहीं खाता या विरोधी लगता है तो उसे विरोध न समझकर मत भिन्नता भी तो समझा जा सकता है। फिर इन यज्ञों के देखने या सस्वर वेद पढ़ने से आर्य समाज में चल रही परम्परा को अशुद्ध क्यों मानना चाहिए? जहाँ सस्वर वेदपाठ हमारा उत्कर्ष है, वहाँ तक पहुँचाने का मार्ग ऋषि दयानन्द को दिये अधिकार के द्वारा प्रशस्त किया गया है, अतः इस भ्रम की कोई सम्भावना नहीं है कि आर्यसमाज की यज्ञ परम्परा या वेदपाठ अशुद्ध या अग्राह्य है। कर्मकाण्ड भी वेद को समझने के लिये ही हैं। पूरे शतपथ ब्राह्मण में मन्त्रों के माध्यम से यज्ञ की क्रियाओं को मन्त्रों के साथ जोड़कर अभिप्राय को समझाया जा रहा है। मन्त्र, उसका अर्थ, यज्ञ की क्रिया में मन्त्रार्थ की संगति, मन्त्र के अर्थ और यज्ञ की क्रिया का जगत् में चल रहे निरन्तर यज्ञ से उसकी समानता बताना यज्ञ का उद्देश्य है। इस बात को ध्यान में रखकर महर्षि दयानन्द ने यज्ञ में मन्त्रों का विनियोग किया है। महर्षि दयानन्द ने यज्ञ में कर्मकाण्ड के साथ वेद मन्त्रों का विनियोग करते हुए यज्ञ से परमेश्वर की उपासना का होना कहा है। इस प्रकार महर्षि दयानन्द का यज्ञ विधान अधिक वैदिक व उत्कृष्ट है।

मनु महाराज ने वेद को समस्त धर्म का मूल कहा है। जिसका भी धर्म से सम्बन्ध है, उसका वेद से सीधा सम्बन्ध है। वेद के प्रकाश में मनुष्य कार्य कर सकता है। जैसे सूर्य के प्रकाश के बिना मनुष्य कार्य करने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार वेदरूपी ज्ञान चक्षुओं के बिना मनुष्य उचित-अनुचित का विवेक करने में असमर्थ रहा है। मध्य काल में समाज के एक वर्ग ने लोगों के ज्ञान चक्षुओं को छीन कर समाज को गहरे अन्धकार में धकेल दिया था, ऋषि दयानन्द ने उस अन्धे समाज को वेद रूपी ज्ञान चक्षु पुनः प्रदान किये। किसी भी प्रकार से इस अधिकार को क्षति पहुँचाना वेद विरोधी कार्य होगा, चाहे वह वेद के नाम पर ही क्यों न किया गया हो। हमें मनु के इन शब्दों  को सदा स्मरण रखना चाहिए-

पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्।

अशक्यञ्चाप्रमेयञ्च वेदशास्त्रमिति स्थितिः।।

– धर्मवीर

स्तुता मया वरदा वेदमाता-११

येन देवा न वियन्ति नो च विद्वषते मिथः।

तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः।।

अथर्व. ३.३०.४

मन्त्र में घर के बढ़ाने की बात है। यहाँ इसके लिए ब्रह्म शब्द  कर प्रयोग किया गया है। ब्रह्म शब्द ईश्वर का भी वाचक है, क्योंकि वह सबसे बड़ा है। इसी प्रकार ज्ञान को भी ब्रह्म कहा जाता है। जो ज्ञान में सबसे बढ़कर है, उसे ब्रह्मा कहा गया है। इसी कारण संसार के प्रारम्भ में जो सबसे ज्ञानी पुरुष हुआ, उसका भी नाम ब्रह्मा है। इसके लिए उपनिषद् में कहा गया है, ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव। देवताओं में प्रथम ब्रह्मा हुआ। आज भी यज्ञ आदि कर्मों में जो अधिक जानकार होता है, उसे ही हम अपना मार्गदर्शक चुनते हैं। उसे ब्रह्मा बनाते हैं।

मन्त्र में घर को भी बड़ा बनाने की बात की गई है। मन्त्र कहता है- मैं तुम्हारे घर को बड़ा बनाना चाहता हूँ। घर बड़ा होता है, समृद्धि से। घर को समृद्ध करने का उपाय इस मन्त्र में बताया गया है। उपाय क्या हो सकता है? उपाय है संज्ञानम्। संज्ञान का शास्त्रीय अर्थ ज्ञान है, चेतना है। हम इसे सामान्य भाषा में कहें तो समझ कह सकते हैं। घर को बड़ा बनाने के लिए, सम्पन्न या समृद्ध बनाने के लिए घर में रहने वाले सदस्यों को समझदार बनना होगा। सभी सदस्य समझदार होंगे, तभी घर परिवार समृद्ध होगा। घर में सबका समझदार होना आवश्यक है। एक भी नासमझ व्यक्ति घर की व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करके रख देता है। घर में सबकी समझदारी से ही व्यवस्था बनी रह सकती है। आजकल समझदार का अर्थ चालाक या स्वार्थी भी हो जाता है। लोग कहते हैं- यह व्यक्ति बड़ा समझदार है, उसे अपना काम बनाना आता है। ऐसे शब्द श्रेष्ठ अर्थ को नहीं देते, इसलिये दुनियादार, समझदार, व्यावहारिक आदि शब्द सदा उचित और श्रेष्ठ अर्थ में ही प्रयोग में नहीं आते, परन्तु वेद में इस समझदारी की कसौटी भी दी है। वेद कहता है- समझदार देव होते हैं। मनुष्यों को समझदार बनने के लिए देवों के गुण अपने में धारण करने होंगे। देवों का देवत्व जिन गुणों से आता है, उसे देवों के कर्म से समझा जा सकता है। देवों का एक पर्यायवाची शब्द है- अनिमेष। ऐसा माना जाता है कि देवता लोग कभी पलक नहीं झपकाते। क्यों नहीं झपकाते, इसे समझाने के लिये पुराण में कथा आती है। देवताओं ने और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया। जो पहले मिला वह असुरों ने लिया, जो बाद में मिला वह देवताओं ने लिया। पहले मिलने वाली वस्तुओं में विष था, जिसे बाँटने के लिए कोई तैयार ही नहीं था, जो शिव के कण्ठ का अलंकरण बन गया। अन्त में अमृत का कलश निकला, जिस पर देवताओं ने अधिकार कर लिया। इसी अमृत के कारण देवता अमरता को प्राप्त हुए। असुर इस अमृत को पाने के लिए सतत संघर्षरत हैं, इस कारण देवताओं को अमृत की रक्षा के लिए सतत् जागना पड़ता है। वे इतने सावधान हैं कि पलक भी नहीं झपकाते। पलक झपकने की असावधानी भी उनसे अमृत कलश के छीने जाने का कारण बन सकती है। देवताओं के पास अमृत ही नहीं रहा तो देवत्व कैसे रहेगा? संस्कार विधि में बालक की दीर्घायु की कामना करते हुए जो मन्त्र पढ़े गये हैं, उनमें एक मन्त्र में कहा गया है- देवताओं की दीर्घायु का कारण अमृत है। उनके पास अमृत है, इसलिए वे दीर्घजीवी हैं- देवा आयुष्मन्तः ते अमृतेनायुष्मन्तः। अतः देव दीर्घजीवी अमृत से हैं। इसका अभिप्राय है कि जो मनुष्य समृद्ध होना चाहता है, उसे सावधान रहना होगा। सावधानी हटते ही दुर्घटना घटती है।

विवाह संस्कार में सप्तपदी कराते हुए चौथे कदम को मयोभवाय चतुष्पदी भव कहा है। यहाँ यह तो कह दिया, परन्तु कोई वस्तु नहीं बताई। अन्न के लिये पहला कदम, बल के लिये दूसरा, समृद्धि के लिये तीसरा, वैसे ही सुख के लिए चौथा। अब समझने की बात है कि समृद्धि के लिये जब तीसरा कदम कह दिया था तो चौथा कदम सुख के लिये कहने की क्या आवश्यकता थी? इससे पहले अन्न, बल और धन प्राप्त करने की बात कह चुका है, फिर पृथक् से सुख के लिये प्रयास करने की आवश्यकता कहाँ पड़ती है? परन्तु पृथक् कहने का अभिप्राय है, इन सब साधनों के होने के बाद भी घर-परिवार में सुख हो, यह आवश्यक नहीं है। भौतिक साधनों का अभाव कष्ट देता है, परन्तु वे मुख्य रूप से शरीर तक ही सीमित रहते हैं। उन कष्टों के रहते हुए भी मनुष्य सुखी रह सकता है, परन्तु साधनों के रहते सुख का होना आवश्यक नहीं। सुख मानसिक परिस्थिति है, जबकि सुविधा शारीरिक वस्तु के अभाव में शारीरिक श्रम बढ़ जाता है, इतना ही है। सुख पाने के लिए मनुष्य के मन में देवत्व के भाव जगाना आवश्यक है, अतः मन्त्र में देवत्व के बाधक भावों को दूर करने के लिए कहा गया है।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता-१०

मन्त्र में एक वाक्य आया है- वाचं वदतं भद्रया-वाणी सभी बोलते हैं, वाणी के प्रयोग दोनों हो सकते हैं। हानि के, लाभ के, मृदु के, कठोर के, सत्य के, असत्य के। कोयल की भाँति सभी की वाणी मीठी होती, सब एक-दूसरे के साथ मधुर वाणी का व्यवहार करते तो किसी को यह कहने की आवश्यकता ही नहीं होती कि मधुर वाणी बोलनी चाहिए। यदि ऐसा होता तो अच्छा नहीं होता, क्योंकि तब मेरा कोई अधिकार ही नहीं होता, मुझे मेरी इच्छा का प्रयोग करने का अवसर ही नहीं मिलता, विवेक की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। कोई दूसरे से अलग नहीं होता, कोई किसी से अच्छा तो किसी से बुरा भी नहीं होता। इस परिस्थिति में मेरे होने का अर्थ ही क्या होता? मेरी सत्ता  मेरे अधिकार से प्रकट होती है, मेरा अधिकार मेरे अस्तित्व का प्रकाशक है।

जितना मुझे अच्छा करने का अधिकार है, उतना ही मुझे बुरा करने का अधिकार भी है। उसे मुझसे कोई नहीं छीन सकता, इसी कारण उनके फल को भी मुझसे कोई अलग नहीं कर सकता। यही कारण है कि मुझे मेरे कर्म का फल मिलता है, क्योंकि वे मेरे हैं, चाहे वे अच्छे हैं, चाहे वे बुरे। इसीलिए उपदेश देने की आवश्यकता पड़ती है। उपदेश से मेरे विवेक पर प्रभाव पड़ता है, मैं अपने विचार को बदल सकता हूँ। इसी प्रक्रिया को संकल्प- विकल्प कहा गया है। जब मनुष्य सोचता है कि मैं यह करूँगा तो मुझे लाभ होगा। मैं सोचता हूँ- मैं ऐसा करूँगा तो मेरी हानि होगी, मैं ऐसा नहीं करूँगा। यह मेरी दशा, मेरे निर्णय की भूमिका है। मैं निश्चय कर लेता हूँ, तब वह मेरा निर्णय होता है, उसका फल अच्छा या बुरा मेरा ही होता है।

वाणी भी मेरी है, मैं इसका अच्छा या बुरा कैसा भी उपयोग कर सकता हूँ। जब अच्छा उपयोग करता हूँ तो मुझे अच्छा फल मिलता है, बुरा उपयोग करता हूँ तो बुरा फल मिलता है। मुझे मेरी वाणी के अच्छे-बुरे का ज्ञान होना चाहिए। वेद कहता है- लाभ के लिए, पुण्य के लिये भद्र वाणी का प्रयोग करना चाहिए। भद्र का अर्थ शरीर के लिए, वर्तमान में लाभप्रद और मन, बुद्धि, आत्मा के लिए शान्तिप्रद होना है। यदि ऐसा नहीं तो केवल मधुर वाणी से भी कार्य चल सकता था। हम समझते हैं कि मीठा बोलना ही पर्याप्त है पर केवल मीठा नहीं, वह परिणाम में भी लाभप्रद होना चाहिए। इस मन्त्र भाग में बोलने वालों के लिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है, अर्थात् परिवार में सभी सदस्यों को एक-दूसरे के साथ कल्याण कारिणी वाणी का प्रयोग करना चाहिए। वाणी का प्रभाव ही व्यवहार को प्रभावित करता है। मनुष्य आदर से बोलता है तो उसे प्रत्युत्तर  में अनुकूल ही उत्तर  प्राप्त होता है। यदि कठोरता से, असभ्यता से बोलता है तो निकटस्थ व्यक्ति भी अपमान का अनुभव करता है।

वाणी के सम्बन्ध में महाभारत में एक शिक्षाप्रद प्रसंग आया है। युधिष्ठिर युद्ध भूमि में घायल होकर शिविर में चिकित्सा के लिये उपस्थित हुए हैं। अर्जुन को बड़े भाई के घायल होने का समाचार मिलता है, वह तत्काल युद्ध छोड़ भाई को देखने शिविर में पहुँचता है। युधिष्ठिर ने पूछा- क्या युद्ध जीत लिया? अर्जुन ने कहा- नहीं। युधिष्ठिर ने अर्जुन के गाण्डिव को धिक्कार कह दिया। अर्जुन को क्रोध आया, उसने अपने बड़े भाई को मारने के लिए तलवार उठा ली। अर्जुन ने कहा- मेरी प्रतिज्ञा है कि जो गाण्डिव को धिक्कारेगा, उसके प्राण हरण करूँगा। श्री कृष्ण ने समझाया- मारना केवल तलवार से नहीं होता, बड़े भाई को ‘तू’ कह दे तो भी वह मर जायेगा। अर्जुन ने कह तो दिया, परन्तु फिर सोचने लगा कि उसने बड़े भाई का अपमान किया है। उसने कहा- अब इस अपराध के लिए मैं मरूँगा। श्री कृष्ण ने कहा- क्यों मरते हो? मरना भी कई प्रकार का होता है। मनुष्य के लिए आत्म-प्रशंसा भी मरने के समान है, तुम अपनी प्रशंसा स्वयं करो, मर जाओगे। मनुष्य वाणी से ही मरता है और वाणी से जीवन पाता है, अतः वेद ने कल्याणकारिणी वाणी के प्रयोग करने का आदेश दिया है।

 

हमारा परम मित्र – ईश्वर – सुकामा आर्या

हम सब बचपन से एक तत्व  के विषय में बहुत कुछ सुनते आए हैं, पर आज भी ध्यान से देखें तो उस तत्व  के विषय में हमारी प्रवृत्ति  वैसी नहीं बन पाई है, जैसी की होनी चाहिए। कारण, हमारी स्थिति श्रवण तक रही-

न श्रवणमात्रात् तत् सिद्धिः।

सिर्फ सुनने मात्र से किसी वस्तु की सिद्धि नहीं हो जाती। मान लीजिए- हम रुग्ण हो गए। किसी मित्र ने बताया कि अमुक दवा ले लीजिए, तो क्या हम सुनने मात्र से स्वस्थ हो जाएँगे? नहीं, हमें बाजार से दवा लानी पड़ेगी, यथोचित समय पर उसका सेवन करना पड़ेगा, तब कहीं जाकर सम्भावना है कि हम स्वस्थ हो पाएँ। ठीक यही बात उस एक तत्व  के विषय में भी घटती है। उस तत्व को हमें व्यक्तिगत स्तर पर, अनुभूति के स्तर पर लाना है, तभी हम अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। वह अद्भुत त           व है- ईश्वर।

ईश्वर को समझने में सहायक उसका सबसे सरलतम गुण है- सर्वव्यापकता। किसी वस्तु को हम उसके गुणों से ही जानते हैं। इसी एक गुण को समझ लेने से उसके कई प्रमुख गुण भली प्रकार से समझ में आ जाते हैं।

ईश्वर सर्वज्ञ है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,

ईश्वर सर्वान्तर्यामी है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,

ईश्वर सर्वरक्षक है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,

वेद कहता है- स पर्यगात्- वह पहले से वहाँ पहुँचा हुआ है।

त्वं हि विश्वतोमुख विश्वतः परिभूरसि सब तरफ उसके मुख हैं।

विश्वतो चक्षुः सब जगह उसकी आँखें हैं।

अर्थात् वह ईश्वर इस जगत् के कण-कण में विद्यमान है। ‘‘प्रभु सब में, सब कुछ है प्रभु में।’’ यूँ समझें कि सारा संसार ईश्वर में डूबा हुआ है। हर दिशा में, हर सिम्त वह है-

जिधर देखता हूँ, खुदा ही खुदा है,

खुदा से नहीं चीज कोई जुदा है।

जब अव्वल और आखिर खुदा ही खुदा है,

तो अब भी वही कौन उसके सिवा है।

एक क्षण के लिए विचार करें कि माँ-बाप, भाई-बहन, सखा-मित्र आदि तब तक ही हमारी रक्षा कर पाते हैं, जब तक वे हमारे साथ हैं, हमारे साथ उपस्थित हैं। अपनी अनुपस्थिति में वे हमारा सहयोग नहीं कर पाते हैं, उनकी विवशता होती है। ईश्वर को अनुभूति के स्तर पर देखें, तो पता चलेगा कि वह हर क्षण हमारे पास है, हम उसकी उपस्थिति में उपस्थित हैं। उसकी हाजिरी में हाजिर हैं।

हम मुश्किल परिस्थिति में किससे सहायता माँगते हैं- माँ-बाप से, मित्रों से- जिनकी देने की शक्ति व सीमा सीमित है, जो दोहरे मापदण्ड वाले हैं। आज-इस क्षण अच्छे तो अगले ही क्षण बुरे, जिनके व्यवहार का हम अनुमान ही नहीं लगा पाते। दुनिया में सबसे अधिक अपूर्वानुमेय व्यवहार किसी प्राणी का है, तो वह इस छः फूट के मानव नाम के प्राणी का है। जानवरों का व्यवहार भी अधिकतम सीमा तक निर्धारित रहता है। कुत्ते को रोटी डालोगे तो वह स्नेह से पूँछ हिलाएगा, डण्डा दिखाओगे तो डरेगा, भौंकेगा, पर इस मनुष्य नामक प्राणी का तो पता ही नहीं चलता, जाने कब कौन-से पत्ते  फेंक दे? परन्तु ईश्वर हमेशा एकरस है, उसके नियम अटल हैं, वह पक्षपात रहित होकर न्यायपूर्वक व्यवहार करता है, हर देश, काल व परिस्थिति में एक-सा ही रहता है। वस्तुतः वह ईश्वर ही हमारी मैत्री के सर्वाधिक लायक है।

यूँ ही काल की दृष्टि से देखें तो इस  लोक के सम्बन्ध- माता-पिता, भाई-बन्धु, गुरुजन- सभी इस जीवन तक ही सीमित हैं। हम समाप्त तो सब सम्बन्ध समाप्त, पर ईश्वर से हमारा सम्बन्ध तो अनादि काल से है और अनन्त काल तक रहेगा। इस शरीर के छूटने के बाद भी- हमेशा। लोक में भी जो वस्तुएँ या सम्बन्ध या मैत्री लम्बे काल तक चलती हैं, उनको हम अच्छा समझते हैं, मूल्यवान समझते हैं। ओल्ड इज गोल्ड मानते हैं। इस दृष्टि से भी ईश्वर हमारी मैत्री के मापदण्डों पर पूर्णतया खरा उतरता है, इसलिए हमें उससे मित्रता बढ़ाने व बनाए रखने पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

हमें समस्या कहाँ आती है? हम लोक के मित्रों व सम्बन्धों को तो समय देते हैं, पर ईश्वर के लिए समय निकालना हमें मुश्किल लगता है। इसका मुख्य कारण यह है कि हमें ईश्वर के मह       व का पता नहीं, इसलिए सन्ध्या व ध्यान के लिए समय निकालना अत्यन्त कठिन लगता है। रुचि नहीं बनती है। हमें अपने पिता जी की १-२ करोड़ की संपत्ति  नजर आती है। मित्रों की योग्यता, धन-वैभव, गुरुजनों का ज्ञान नजर आता है, परन्तु ईश्वर का परम ऐश्वर्य हमारी आँखों से प्रायः ओझल ही रहता है। यह विचार कर लें कि जो पिताओं का भी पिता है, गुरुओं का भी गुरु है, माताओं की भी माता है- वह कितना मह                    वपूर्ण, विशिष्ट, वरिष्ठ सहयोगी सिद्ध होगा।

दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें- अगर हम जरा-सा कुछ पिता जी के खिलाफ गए तो पिता जी जायदाद से बेदखल कर देंगे। कक्षा में अध्यापक की आज्ञा का उल्लंघन किया तो वे कक्षा से बाहर जाने को कह देंगे। संस्था के अधिकारी रुष्ठ हो गए तो वे संस्था से बाहर निकाल देंगे। एक क्षण के लिए विचार करें कि क्या ईश्वर कभी हमें अपने दायरे से बाहर निकाल सकता है? कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं, क्योंकि वह सर्वव्यापक है, हर स्थान पर है। यहाँ से इस लोक से निकालेगा, तो दूसरे लोक में रख लेगा, लेकिन हमेशा अपने सान्निध्य में, अपने पास हमें रखेगा। क्या इस ईश्वरीय प्रेम के तुल्य कोई अन्य सांसारिक व्यक्ति का प्रेम हो सकता है? विचार करेंगे तो स्वयमेव ही उस परम सत्ता  के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा, समर्पण व प्रेम का भाव उद्भूत हो जाएगा।

हम विकट-से-विकट परिस्थिति में डगमगाएँगे नहीं। एक बार समुद्र में कोई नवविवाहित जोड़ा नाव में बैठ कर जा रहा था। अन्य लोग भी नाव में सवार हो कर जा रहे थे। अचानक तूफान आया और नाव डगमगाने लगी। सभी लोग चिल्लाने लगे, परन्तु वह युवक प्रेम से ईश्वर का ध्यान करने लगा, ताकि अपने मन को विचलित होने से बचाकर अपनी सुरक्षा का समाधान ढूंढ सके। उसकी पत्नी ने पूछा कि सब लोग हाहाकार मचा रहे हैं और तुम ध्यान कर रहे हो? क्या तुम्हें भय नहीं लग रहा? तो उसने तत्काल पिस्तौल निकाल कर पत्नी की कनपटी पर रख दी। पत्नी मुस्कुराने लगी। युवक ने पूछा- क्या तुम्हें भय नहीं लग रहा? उसने कहा- नहीं। युवक ने पूछा- क्यों? पत्नी बोली- क्योंकि मैं जानती हूँ कि पिस्तौल मेरे प्रियतम के हाथ में है, वह मेरा नुकसान कर ही नहीं सकता। वह युवक बोला- ठीक इसी प्रकार यह नाव भी मेरे परमप्रिय मित्र, सखा ईश्वर के हाथ में है, जो उसको अभीष्ट मानकर करेगा, वही सुझाये हुए उपायों के  भय से रहित होगा। यह विश्वास तभी बनता है, जब हम ईश्वर की सत्ता  को सर्वव्यापक समझ लेते हैं-

आ गया तेरी शरण जब तो मुझे अब भय कहाँ?

मैं तेरा, किश्ती तेरी, साहिल तेरा, दरिया तेरा।

हमारी कमी, न्यूनता यहाँ रह जाती है, हम मानते हुए भी व्यावहारिक स्तर पर ईश्वर की अनुभूति नहीं रख पाते हैं। यूँ कहें कि थ्योरी की परीक्षा में तो सफल हो जाते हैं पर प्रैक्टिकल की परीक्षा में या तो उपस्थित ही नहीं होते या होते हैं तो अनुत्तीर्ण  हो जाते हैं। हमें दोनों परीक्षाओं में पास होना है।

इसके लिए आवश्यक है कि जीवन जीते हुए, दिनचर्या करते हुए, हम अपने परम मित्र की याद बनाए रखें। हमें हर क्षण महसूस हो कि हमारा परमप्रिय मित्र साथ है-

नहीं कहता हूँ, दुनिया से जुदा हो।

मगर हर काम में यादे खुदा हो।।

हम जिस-जिस वस्तु या व्यक्ति का चिन्तन करते हैं, उससे अनुराग हो ही जाता है या यूँ कहें कि जिस-जिस वस्तु या व्यक्ति से अनुराग होता है, उस-उस का चिन्तन करने से हमें सुख मिलता है, आनन्द मिलता है, तो क्यों न उस परम आनन्दमय, सुख के भण्डार हमारे परम मित्र का चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते चिन्तन किया जाए, उसको स्मरण में रखा जाए। इसको करने से दूसरा लाभ यह होगा कि हम गलत, बुरे कर्मों को करने से बच जाएँगे। जैसे अगर ट्रैफिक पुलिस वाला चौक में खड़ा हो तो हम लाल बत्ती  का उल्लंघन नहीं करते हैं, हमें डर, भय होता है- चालान काट दिए जाने का। ठीक उसी प्रकार हम दिनचर्या में चलते हुए भी नियमों को नहीं तोड़ेंगे, क्योंकि हमारा ट्रैफिक पुलिस वाला मित्र तो हर क्षण ड्यूटी पर तैनात है, कभी भी कहीं भी हमें अकेला नहीं छोड़ता। हाँ, हम उसे समझने महसूस करने में नाकाबिल साबित होते हैं-

दिलबर तेरा तेरे आगे खड़ा है,

मगर नुक्स तेरी नजर में पड़ा है।

बचपन से लेकर आज तक कई मित्र बनाए, कई छोड़े, कई मिले, कई बिछुड़े, आज से एक उसकी मैत्री को बनाने में लगें, जो न केवल मित्रता-दिवस पर हमें याद आए, परन्तु हमेशा के लिए हमारे साथ आत्मसात् हो जाए। हम अपने पक्ष को उस मैत्री के लिए योग्य सिद्ध करें, तभी हम इस मित्रता को सही ढंग से, प्रेम से, कृतज्ञता से निभा पाने में सफल हो पाएँगे।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

वेद प्रतिपादित देवहित-आयु और उसका परिमाण – डॉ. प्रशस्यमित्र शास्त्री

ऋग्वेद का निम्नलिखित प्रसिद्ध मन्त्र है, जिसे हम स्वस्तिवाचन में पढ़ने के साथ ही यजमान आदि के दीर्घ आयुष्य, आशीर्वाद एवं शुभकामना प्रकट करने के लिए भी पढ़ते हैं-

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।।

(ऋ. वेद १.८९.८)

इस मन्त्र में ‘देवहित-आयु’ की प्रार्थना की गई है। अब प्रश्न होता है कि यह देवहित-आयु क्या है तथा इसका परिणाम कितना है? यही नहीं, अपितु अनेक वेदमन्त्रों में चक्षुरादि इन्द्रियों के सबल होने के साथ ही जीवन एवं स्वास्थ्य आदि की जब कामना की जाती है तो वहाँ भी विशेषण के रूप में ‘देवहित’ शब्द  प्रयुक्त होता है। जैसे-

तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ता…… पश्येम शरदः शतम्।

जीवेम शरदः शतं….. भूयश्च शरदः शतात्।

(माध्यन्दिन यजु. ३६.२४)

आचार्य सायण का अर्थः यज्ञमय जीवन :- चारों वेदों के सुप्रसिद्ध भाष्यकार आचार्य सायण ‘भद्रं कर्णेभिः’ आदि ऋग्वेदीय मन्त्र की व्याख्या में ‘देवहितं यदायुः’ इस पद का भाष्य करते हुए लिखते हैं-

‘यदायुः षोडशाधिकशत प्रमाणं विंशत्यधिकशत प्रमाणं वा’ अर्थात् ‘देवहित-आयु’ का तात्पर्य है- ११६ वर्ष की आयु अथवा १२० वर्ष की आयु।

अब प्रश्न होता है कि सायणाचार्य के इस अर्थ का आधार क्या है? ‘देवहित-आयु’ का प्रमाण ११६ या १२० वर्ष ही क्यों माना जाये? इसका उ ार हमें छान्दोग्य उपनिषद् के निम्न वाक्य से प्राप्त होता है-

पुरुषो वाव यज्ञस्तस्य यानि चतुर्विंशति

वर्षाणि तत्प्रातः सवनं चतुर्विशत्यक्षरा गायत्री

यानि चतुश्चत्वारिशद् वर्षाणि

तन्माध्यन्दिनं सवनं चतुश्चत्वारिशदक्षरस्त्रिष्टुप्

यान्यष्टाचत्वारिशद् वर्षाणि

तत् तृतीयं सवनम् इति।  (छान्दोग्योप. ३.१६.१.४)

अर्थात् मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ही एक यज्ञ है। इस यज्ञमय जीवन के प्रारम्भिक २४ वर्ष प्रातः सवन है, जबकि अगले ४४ वर्ष माध्यन्दिन सवन है तथा अग्रिम ४८ वर्ष तृतीय सवन के रूप में समझना चाहिए। इस प्रकार इस का कुल योग ११६ वर्ष होता है।

यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सोमयाग के प्रातः, माध्यन्दिन एवं तृतीय सवन क्रमशः गायत्र, त्रैष्टुभ एवं जागत कहे जाते हैं। ये छन्द क्रमशः २४, ४४ एवं ४८ अक्षरों वाले होते हैं।

जहाँ तक १२० वर्ष का प्रश्न है, सम्भव है छान्दोग्योपनिषद् के किसी संस्करण में माध्यन्दिन सवन को भी ४८ वर्ष का स्वीकार किया गया हो।

मनुष्य की औसत आयु एक सौ वर्षः वैदिक ग्रन्थों में मनुष्य की औसत आयु एक सौ वर्ष मानी गयी है। ऐतरेय आरण्यक में लिखा है-

शतं वर्षाणि पुरुषायुषो भवति। (ऐ.आर. २१२९)

अर्थात् पुरुष की सामान्य आयु एक सौ वर्ष होती है। अन्यत्र भी इसी प्रकार का भाव वैदिक ग्रन्थों में उपल      ध है-

शतायुर्वै पुरुषः शतवीर्यः (मैत्रायणी संहिता १६.४)

शतायुः पुरुषः शतेन्द्रियः (तै. संहिता २.३.११५)

माध्यन्दिन यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का द्वितीय मन्त्र है-

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।

अर्थात् मनुष्य कर्म करते हुए सक्रिय सबल स्वस्थ्य रहकर ही एक सौ वर्ष पर्यन्त जीवन की कामना करे। यहाँ एक सौ वर्ष से तात्पर्य औसत रूप में एक सौ वर्ष है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि एक सौ वर्ष से अधिक जीवन नहीं है, क्योंकि मन्त्रों में कहा भी है-

भूयश्च शरदः शतात्। (माध्यन्दिन यजु. ३६.४)

माध्यन्दिन शतपथ ब्राह्मण में भी लिखा है-

अपि हि भूयांसि शताद् वर्षेभ्यः पुरुषो जीवति

(मा. शतपथ १९.३.१९)

सम्प्रति भारतवर्ष में औसत आयु ६५ वर्षः भारतवर्ष में इस समय मनुष्यों की आयु औसत रूप में केवल ६५ वर्ष मानी गई है, जबकि संयुक्त राष्ट्र के विश्व स्वास्थ्य संगठन के १९९५ के आँकड़ों के हिसाब से अमेरिका, यूरोप तथा जापान प्रभृति विकसित देशों के मनुष्यों की औसत आयु ७५ वर्ष तक मानी गयी है। इन देशों में पौष्टिक भोजन एवं आम चिकित्सा सुविधाओं की अच्छी व्यवस्था होने से ऐसा है।

अफ्रीकी महाद्वीप के कई देशों जैसे- सोमालिया, इथियोपिया, युगाण्डा आदि में तो औसत आयु मात्र ४० वर्ष ही मानी गई है। इन देशों में अधिक गरीबी, कुपोषण के साथ ही चिकित्सा व्यवस्था की जर्जर स्थिति होने से मृत्यु दर भी अधिक है, अतः औसत आयु बहुत कम है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अभी विश्व में वेद प्रतिपादित एक सौ वर्ष की औसत आयु कहीं भी परिलक्षित नहीं हो पा रही है।

‘जरा’ ही देवहित-आयु हैः- वास्तव में पूर्ण आयुष्य अर्थात् कम-से-कम एक सौ वर्ष की आयु के साथ ही स्वस्थ निरोग रहते हुए वृद्धावस्था के द्वारा मृत्यु को प्राप्त करना ही ‘देवहित-आयु’ की प्राप्ति है। रोग द्वारा अल्प समय में मृत्यु या दुर्घटना आदि के द्वारा आकस्मिक-मृत्यु की प्राप्ति का अभाव तथा पूर्ण निरोग रहते हुए वृद्धावस्था को प्राप्त कर मृत्यु की प्राप्ति की स्थिति का नाम ही देवहित-आयु की प्राप्ति है। इस सम्बन्ध में वैदिक ग्रन्थों के निम्न प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

जरा वै देवहितम्-आयुः। (मैत्रायणी. १.७.५)

यही वाक्य काठक संहिता तथा कपिष्ठल कठसंहिता में भी प्राप्त होता है। जैसे-

जरा वै देवहितमायुः (काठक संहिता ९.२) तथा (कपिष्ठल कठ संहिता ८.५)

अभीष्ट आयु एवं आरोग्य प्राप्ति के लिए यज्ञः श्रीमद्भगवतगीता में लिखा है-

सह यज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्ट कामधुक्।।

(श्रीमद्भगवद्. ३.१०)

अर्थात् यज्ञ की रचना के साथ ही प्रजापति का यह निर्देश भी हुआ कि जो मनुष्य निरन्तर यज्ञ का अनुष्ठान करता है, वह अभीष्ट कामनाओं को निरन्तर प्राप्त करता रहता है। अभीष्ट एवं यथाकाम आयु की प्राप्ति में यज्ञ सहायक होता है। अथर्ववेद में इस सम्बन्ध में निम्नलिखित मन्त्र द्रष्टव्य है-

न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैनं शपथो अश्नुते।

यं भेषजस्य गुग्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते।।

(अथर्ववेद १९.३८.१)

अर्थात् जो अग्नि होम में गुग्गुल का प्रयोग करता है, उसे क्षय आदि रोग नहीं होता।

चिकित्साशास्त्रों में जहाँ विविध रोगों के निवारण के लिए विविध प्रकार की औषधियों एवं उनके द्वारा चिकित्सा करते हुए रोगों से मुक्ति का उल्लेख है, वहीं इष्टियों एवं यज्ञों के सम्पादन का भी सङ्केत करते हुए इनके माध्यम से मनुष्य को निरोग होने तथा उसकी आयु में वृद्धि का उल्लेख प्राप्त होता है। जैसे-

प्रयुक्तया यया चेष्ट्या राजयक्ष्मा पुरा जितः।

तां वेदविहिताम् इष्टिमारोग्यार्थी प्रयोजयेत्।।

(चरक चिकित्सा स्थान ८.१२१)

जो लोग यज्ञ नहीं करते, उनका चिन्तन, मनन याज्ञिकों के समान सा िवक नहीं हो पाता तथा वे सदाचार की ओर भी उन्मुख नहीं हो पाते। दुराचारी एवं अधर्मात्मा व्यक्ति की आयु भी अल्प सम्भावित है, अतः महाभारत में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा है-

अधर्मज्ञा दुराचारास्ते भवन्ति गतायुषः।

(अनुशासन पर्व….)

जबकि चरित्रवान् एवं धार्मिक याज्ञिक प्रकृति के लोगों के बारे में वे कहते हैं-

‘शतं वर्षाणि जीवति’ वे स्वस्थ, सबली एवं निरोग होकर पूर्ण एक सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर जरावस्था के द्वारा मृत्यु को प्राप्त करते हैं। यही वेद प्रतिपादित ‘देवहित-आयु’ भी है।

दीर्घ सन्ध्या से दीर्घ आयुः मनुस्मृति के चतुर्थ अध्याय में लिखा है कि ऋषियों ने दीर्घकाल तक दीर्घ सन्ध्या एवं गायत्री जप के द्वारा दीर्घायु प्राप्त किया-

ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुयुः।

प्रज्ञां यशश्च कीर्तिच ब्रह्मवर्चसमेव च।।

(मनु. ४.९४)

अथर्ववेद के एक अन्य मन्त्र (१९.७१.१) से भी सङ्केत मिलता है कि गायत्री-जप से आयु, प्राण, कीर्ति आदि की प्राप्ति में वृद्धि होती है।

पञ्चमहायज्ञों में नृयज्ञ अर्थात् अतिथियज्ञ या घर में आये हुए विद्वान् सदाचार सफल अतिथि की पूजा का विधान भी ‘यज्ञ’ श     द से बोध्य है। ‘यज्ञ’ का अर्थ बहुत व्यापक है। ‘यज्ञ’ श   द पञ्चमहायज्ञों का वाचक है। इसका अर्थ केवल देवयज्ञ या अग्निहोत्र ही नहीं है। ब्रह्मयज्ञ अर्थात् सन्ध्या तथा अतिथि यज्ञ आदि भी यज्ञ में अन्तर्भूत है। इसी कारण विद्वान् अतिथि के प्रति नमन या सत्कार मात्र से तथा उनके द्वारा प्रयुक्त आशीर्वचन मात्र से भी मनुष्य की आयु की वृद्धि सम्भावित है। इसी कारण मनुस्मृति में कहा है-

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।

-मनुस्मृति २.११२

अस्तु! कुछ भी हो, वास्तव में ‘देवहित-आयु’ अर्थात् यज्ञमय जीवन का निर्माण करते हुए समस्त इन्द्रियों से स्वस्थ, सबल सक्रिय रहते हुए कम-से-कम ११६ वर्ष जीवन बिताकर जरावस्था द्वारा मृत्यु की प्राप्ति हो- हम इस वैदिक भावना को हृदयङ्गम कर सकते हैं। वेद ने हमें सङ्केतों में ही इसका उपदेश कर दिया है। हम वेद के इन सन्देशों को ठीक तरह से समझें तथा जीवन में क्रियान्वित करें तो निश्चय ही सार्थकता को प्राप्त कर सकते हैं। वेदमन्त्रों के उपदेश हमें जीवन की सफलता एवं उसके उद्देश्य के प्रति निरन्तर प्रेरित करते हैं।

बी-२९, आनन्द नगर, जेल रोड, रायबरेली-२२९००१ (उ.प्र.)

चलभाष– ०९४५१०७४१२३

स्तुता मया वरदा वेदमाता-९

सांमनस्य सूक्त के दूसरे मन्त्र में प्रथमशब्द  था-अनुव्रत, जिसका अभिप्राय सन्तान का पिता के अनुकूल आचरण वाला होना है। इस मन्त्र में घर की सुख-शान्ति के लिए परिवार के सभी सदस्यों का सहज होना आवश्यक है। जहाँ सन्तान का पिता के अनुकूल आचरण वाला होना कहा है, वहीं पर सन्तान के माता के साथ कैसा व्यवहार हो, इसके लिये कहा गया है- माता भवतु संमना अर्थात् सन्तान का मन भी माता के अनुसार होना चाहिए। सन्तान के व्यवहार होना कहा गया है। यहाँ शंका हो सकती है कि माता-पिता का व्यवहार क्यों नहीं सन्तान के अनुकूल होना चाहिए? इसका उत्तर  है- सामान्य रूप से माता-पिता का व्यवहार सन्तान के साथ प्रेमयुक्त और हितकारी होता ही है। व्यवहार के बनने-बिगड़ने की सम्भावना तो सन्तान के व्यवहार की है। घर में सन्तान के मन में यह भाव रहना आवश्यक है कि उनके माता-पिता, उनसे प्रेम करते हैं और उनका भला चाहते हैं। घर में बच्चों का मन अपने बड़े-छोटे भाई-बहनों के साथ होने वाले व्यवहार से प्रभावित होता रहता है। माता-पिता कभी छोटों को अधिक स्नेह करते दीखते हैं, तो कभी बड़ों को अधिक मह      व देते हैं। इससे साथ के बच्चों में प्रतिकूल प्रभाव होने की सम्भावना सदा ही बनी रहती है, यही अतः सन्तानों का माता-पिता से और परस्पर सम्बन्ध ठीक बना रहे, यही इस मन्त्र का विशेष भाव है।

बच्चों के व्यवहार के सामान्य बने रहने का एक मह     वपूर्ण बिन्दु है-पति-पत्नी के मध्य का व्यवहार। यही बच्चों के लिए आदर्श भी होता है और प्रेरक भी। माता-पिता जैसे परस्पर बोलते, व्यवहार करते हैं, वैसा ही बच्चे करते हैं, इसलिए मन्त्र में कहा गया है- जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु। अर्थात् पत्नी मधुर वाणी का व्यवहार करे। यदि परस्पर व्यवहार की भाषा कठोर होगी तो बच्चे भी वैसा ही सीखेंगे।

एक बार दिल्ली के बस अड्डे पर एक व्यक्ति अपना सामान एक बस से उतार कर दूसरी बस में ले जाना चाहता था। वह पहले कुछ सामान और अपनी तीन-चार साल की बच्ची को सामान के पास खड़ी कर पुनः शेष सामान व पत्नी को लेने बस की ओर बढ़ा, तो बच्ची ने अपनी बात कहते हुए पिता से कहा- पापा आपमें तो अक्ल ही नहीं है! यह बात इतने ऊँचे स्वर से कही गई थी कि पास खड़े यात्रियों का ध्यान उस पिता-पुत्री की ओर जाना स्वाभाविक था। बच्ची के पिता ने कुछ लज्जा का अनुभव करते हुए बच्ची को डाँटना चाहा तो मैंने उस व्यक्ति से कहा- भाई साहब, यह दोष बच्ची का नहीं है। आपकी पत्नी, आपको इतने मधुर सम्बोधन से पुकारती होगी, वही तो बच्ची कर रही है। आप उसे व्यर्थ ही डाँट रहे हैं। इसलिए बच्चों पर अच्छा प्रभाव डालने के लिए घर के वातावरण का अच्छा होना आवश्यक है।

मन्त्र में पत्नी को मधुमतीं वाचम्– मधुर वाणी बोलने के लिये कहा गया है, वहीं ऋषि दयानन्द संस्कार विधि के गृहाश्रम प्रकरण में इस मन्त्र का अर्थ करते हुए शान्तिवान् का अर्थ करते हैं- पति को भी पत्नी की बात शान्त भाव से सुननी चाहिए। सामान्य रूप से घर में एक ही बात बहुत बार कही-सुनी जाती है, इस कारण सुनने वाले को उससे आक्रोश आने लगता है। आक्रोश से सामने वाला भी आक्रोश में आ जाता है। जब कोई काम पत्नी या बच्चों के द्वारा बार-बार किया जाता है और घर के स्वामी को वह पसन्द नहीं है, तब आक्रोश, क्रोध, तनाव की स्थिति बनती जाती है।

घर में बच्चे भी अपने बारे में बार-बार टिप्पणियाँ सुनना पसन्द नहीं करते। माता-पिता इस बात पर ध्यान नहीं देते और बच्चों में प्रतिक्रिया होने लगती है। बच्चे या तो ऐसे माता-पिता से भयभीत होने लगते हैं, उनसे बचते हैं, उनसे संवाद स्थापित नहीं करना चाहते अथवा धृष्टता से उस कार्य को बार-बार करना चाहते हैं। ये दोनों ही परिस्थितियाँ घर के वातावरण को तनावपूर्ण बनाने के कारण बनती हैं। विशेष कर बच्चे अपने साथी या अतिथि के सामने डाँट या टिप्पणी सुनना नहीं चाहते। माता-पिता कि इस बात पर बच्चों के मन में कुण्ठा बनने लगती है, अतः घरेलू परिस्थितियों को सहज सामान्य रखने की नितान्त आवश्यकता है। वेद जहाँ पत्नी के लिए मधुर वाणी बोलने की बात करता है, वहीं पति को पत्नी की बात शान्तिपूर्वक सुनने का निर्देश करता है।

विवाह संस्कार में भी घर के वातावरण को अच्छा रखने के लिए सुनने का निर्देश दिया गया है- मम वाचं एकमना जुषस्व। यह मन्त्र दोनों द्वारा बोला जाता है। दोनों परस्पर कह रहे हैं- तुम मेरी बात को एकाग्र मन से सुनो। एकाग्रता से सुनने पर बात समझ में आती है, देर तक स्मरण रहती है और बात करने वाले के मन में सन्तुष्टि भी होती है, अतः मन्त्र में सन्तान को माता-पिता के अनुकूल आचरण वाला, पति-पत्नी को एक दूसरे की बात को शान्ति से सुनने वाला और मधुर वाणी बोलने वाला बनने के लिए कहा गया है।

सत्पात्र बन सकूँ- रामनिवास गुणग्राहक

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्नासुव ।।
भावार्थ- हे सकल जगत् के उत्पत्ति कत्र्ता समग्र ऐश्वर्य युक्त, शुद्ध स्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिये और जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हंै, वह सब हमें प्राप्त कराइये । (ऋषि भाष्य)
यह मंत्र ऋषि दयानंद को बहुत प्रिय था, यजुर्वेद का भाष्य करते समय ऋषिवर ने इसे प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में आवश्यक रूप से लिखा है । स्तुति प्रार्थनोपासना के मंत्रों का प्रारम्भ भी इसी मंत्र के साथ किया है । स्तुति प्रार्थनोपासना के मंत्रों का शब्दार्थ करते समय महर्षि दयानन्द ने बहुत ही सरल भाषा का प्रयोग किया है । भाषा सरल होने के साथ-साथ बड़ी रोचक, प्रवाहपूर्ण एवं मंत्र के अर्थ को स्पष्ट कर देने वाली है । स्तुति प्रार्थनोपासना के इन आठ मंत्रों पर कई आर्य विद्वानों ने कलम उठाई है, उनमें से कुछ एक के विचारों को मैंने पढ़ा है । मैं जब दैनिक यज्ञ समाज में या कभी घर में करता हूँ तो सदैव ऋषिवर के अर्थ सहित मंत्र पाठ करता हूँ । पाठ करते समय औपचारिकता निभाना मुझे कभी ठीक नहीं लगा, मैं महर्षि पतंजलि के ‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्’ के पालन करने का प्रयास करता हूँ । ऐसा करते समय कई बार मेरे मन में आया कि महर्षि ने इन मंत्रों का जो अर्थ किया है, उस ऋषि के अर्थ को ऋषि की भावना के अनुरूप थोड़ा भाव-विस्तारपूर्वक लिखा जाए ताकि भक्त हृदय आर्य जन उसका पूरा आनन्द ले सकें । मैं अपनी इस सदिच्छा को लम्बे समय से टालता आ रहा था, लेकिन आज (4-1-2015) मेरे हृदय ने कहा कि किसी अच्छे विचार को कार्यरूप देने क¢ समय बहानेबाजी करना ऐसा दोष है जो अपराध की कोटि में रखा जाता है । यह हमारे स्वभाव का पतनशील अंग है, जनहित की भावना को निर्बल बनाता है। मनुष्य को पुण्यों की पूँजी से वंचित करता है । हृदय में उठने वाले हर प्रकार के सद्भावों का पल्लवन उनके क्रियान्वयन पर टिका होता है । सद्भाव-सद्विचार व सद्गुण को व्यवहार के रास्ते विस्तृत धरातल पर विचरने की स्वतन्त्रता नहीं मिलती, जब वो व्यवहार मंे प्रकट होने के लिए हृदय में प्रतीक्षा करते-करते थक जाते हैं, व्याकुल हो जाते हैं, उनका दम घुटता है तो वे निर्बल और निर्जीव होकर निढ़ाल हो जाते हैं । व्यवहार में व्यक्त होने क¢ लिए व्याकुल सद्भाव, सद्विचार व सद्गुण हमारी उपेक्षा व अनदेखी का शिकार होकर अन्दर ही दम तोड़ दें तो हमारा हृदय दुर्भावों, दुर्विचारों व दुर्गुणों क¢ फूलने-फलने का उपजाऊ खेत बनकर रह जाता है और हम न चाहते हुए भी पतन क¢ गर्त में गिरने लगते हंै । सुख-शान्ति, समृद्धि चाहने वालों का पहला कत्र्तव्य है कि वे अपने हृदय में उठने वाले सद्भाव, सद्विचार, सत्संकल्प एवं सद्गुण को व्यवहार का रूप देकर अपने स्वभाव का जीवन्त अंग बनाने में आलस्य प्रदान न करें । ध्यान रहे जो व्यक्ति अपने स्वयं क¢ हृदय में उठने वाले सद्विचारों, सद्भावों व सत्संकल्प का सम्मान नहीं कर सकता, वह जगत् व्यवहार में किसी दूसरे क¢ मानवीय सद्गुणों व सत्कर्माें क¢ साथ कभी भी न्याय नहीं कर सकेगा । मुझे मेरी अच्छाई नहीं सुहाती तो किसी दूसरे की अच्छाई क्यों सुहाएगी ?
लो क्या करने निकले थे, कहाँ जा निकले । चलो सीधे अपने विषय पर आते हैं- महर्षि दयानन्द ने मंत्रार्थ में जो कुछ कहा है हम स्तुति-प्रार्थना की शैली में ऋषि वाक्यों की अन्तर्यात्रा करने निकलंे और अपने मन-मस्तिष्क को इस पूरी यात्रा में साथ ही रखेंगे तो मन्त्रार्थ को आत्मसात करने में सुभीता रहेगा ।
‘हे सकल जगत् क¢ उत्पत्तिकत्र्ता ! ‘समग्र ऐश्वर्य युक्त’ – ऋषि दयानन्द जी ने सविता का अर्थ जगत् निर्माता व सब ऐश्वर्य से युक्त किया है। ‘सविता वै प्रसविता भवति’ के अनुसार सविता का अर्थ बनाने-उत्पन्न करने वाला होता है और जिसने जो बनाया है, वह उसका स्वामी तो हो ही गया। जगत् में जो भी कुछ ऐश्वर्य है, अनमोल दिखने वाला धन है, वह सब परमात्मा ने ही बनाया है, तो वही उस सबका स्वामी ठहरा । इसके साथ ही जान लें कि सविता शब्द ‘षु प्रेरणे’ धातु से बनता है। निर्माण और प्रेरणा दोनों अर्थ सविता शब्द से लिये जा सकते हंै । परमात्मा सबका निर्माण करने और सबको प्रेरित-संचालित करने वाला है । स्तुति प्रार्थनोपासना के छटे मंत्र में कहा है कि जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले होकर हम आपको पुकारें, आपका आश्रय लेवें, उस-उसकी कामना हमारी पूर्ण होवे । अर्थात् हमें जीवन में जो कुछ चाहिए उसे पाने के लिए हमें परमात्मा से ही पुरुषार्थपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए । इससे सिद्ध है कि परमात्मा इस संसार की हर वस्तु को बनाकर उसे अपनी अटल न्यायपूर्ण व्यवस्था के अनुरूप चलाता, प्रेरित करता है ।
‘शुद्ध स्वरूप सब सुखों क¢ दाता परमेश्वर’ । देव शब्द का यही अर्थ ऋषिवर ने यहाँ किया है । सामान्य भाषा में भी देने वाले को देव कहते हैं । क्या दुःख देने वाले को भी ? नहीं सुख या सुखद वस्तु देने वाले को ही देव कहा जाता है । परमात्मा भी सबके लिए सब सुखों का देने वाला है । यहाँ एक व्यावहारिक बात समझ लेनी चाहिए कि परमात्मा अपनी ओर से कभी किसी को सुख या सुखद वस्तुएँ नहीं देता । संसार में ज्ञान से बड़ा कोई दान नहीं, ऐसा महर्षि मनु-‘सर्वेषामेव दानानां ब्रह्म दानं विशिष्यते’ कहते हैं । योगिराज श्री कृष्ण ज्ञान के बारे में लिखते हैं -‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ । अर्थात हमारे जीवन को ज्ञान ही सबसे अधिक पवित्र करने वाला है । जीवन की पवित्रता मानो सब सुखों व सुखद वस्तुओं को प्राप्त करने की पात्रता है । वह परमात्मा अपनी ओर से मनुष्य मात्र को ज्ञान-प्रेरणा निरन्तर देता रहता है । यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम प्रभु प्रदत्त प्रेरणा (ज्ञान) के अनुसार कर्म-व्यवहार करते हुए सब सुखों व सुखद वस्तुओं को प्राप्त करें। परमात्मा द्वारा सुख देना दूसरे प्रकार से भी सिद्ध होता है । हमारी कमाई हुई धन-सम्पत्ति को कोई दुष्ट व्यक्ति छीन या चुराकर ले जाए तो उस चोर को जितना दोषी मानते हैं उससे कहीं अधिक दोषी शासक व शासक की व्यवस्था को भी मानते हंै । शासक की न्याय व्यवस्था अगर हमारी चुराई व खोई चीज को हमें दुबारा दिला दे तो हम उसका धन्यवाद अवश्य करते हैं। ठीक इसी प्रकार से अगर हमारे शुभ कर्माें का यथायोग्य फल ईश्वर की अटल, न्याय व्यवस्था से मिलता है तो उसका दाता ईश्वर को ही मानना चाहिए ।
मंत्र में सविता और देव के अर्थ स्पष्ट हो जाने के बाद दो बातें शेष रह जाती हंै और वे दोनों बातें अत्यन्त स्पष्ट हैं- ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ अर्थात् सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और ‘यद् भद्रं तन्नासुव’ जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कराइये । मंत्र को और सरलता से समझने के लिए ‘विश्वानि दुरितानि‘- सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को-‘परासुव’ दूर करने या परे धकेलने की प्रार्थना को भली भाँति समझना होगा । यहाँ दुर्गुण और दुव्र्यसन से पूर्व सम्पूर्ण शब्द बहुत ही ध्यान देने योग्य है । हमारे जीवन में जितने भी दुर्गुण हैं, जितने भी दुव्र्यसन हैं उन सब को दूर करने की प्रार्थना या पुकार यह सिद्ध करती है कि हमारा जीवन पूर्णतः निर्मल और पवित्र होना चाहिए । एक भी दुर्गुण व दुव्र्यसन मेरे जीवन में शेष न रहे । अगर हम थोडा सा भी दुःख नहीं चाहते तो अपने अन्दर के सब दुर्गुणों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर निकाल फैंकंे । हमारे आन्तरिक दुर्गुणों के कारण हमारे व्यावहारिक जीवन में दुव्र्यसन उत्पन्न होते हैं और दोषों दुव्र्यसनों के परिणाम स्वरूप हमें दुःख भोगने पड़ते हंै । दुःख दूर करने की इच्छा है जिनकी वे दुव्र्यसनों को दूर भगायें । जो दुव्र्यसनों से मुक्त होना चाहते हैं वे अपने दुर्गुणों को समाप्त करने का संकल्प लें । हमारे आन्तरिक दुर्गुण ही हमारे दुव्र्यसनों अर्थात् दुराचरणों, दुष्प्रवृत्तियांे और दुष्कर्मों के बीज हैं और इन्हीं दुव्र्यसनों का परिणाम दुःख है । यह मंत्र हमारे दुःखों को दूर करने का वैदिक उपाय बताता है । आज हम अपने दुःखों को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के मनमाने उपाय करते रहते हंै या किसी गुरु घण्टाल के मायाजाल में फँस कर विविध प्रकार के पाखण्ड पूर्ण कृत्य करते-कराते हैं । हमारे मनमाने उपायों या गुरु घण्टालों के तंत्र-मंत्र से दुःख दूर हो जाते तो संसार में एक भी दुःखी नहीं होता ।
मंत्र में दूसरी प्रार्थना है -‘यद्् भद्रं तन्न आसुव’- अर्थात् जो कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव हंै वह सब हमको प्राप्त कराइये । जब हम अपने जीवन के सब दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर करने का सशक्त संकल्प लेकर अपनी आन्तरिक बुराइयों के विरुद्ध सफल संघर्ष छेड़ देते हैं, दुर्गुणों, दोषों व दुष्कर्मों के पतनशील प्रवाह में निर्जीव तिनके की तरह बहते रहने से आत्मबल पूर्वक मना कर देते हैं और बुराइयों के चक्रव्यूह से बच निकलते हैं तो हमारे सामने अपने हृदय को अच्छाइयों से भरते रहने का प्रश्न खड़ा होता है । यह तो सब जानते हैं कि संसार में ऐसा कुछ नहीं जो किसी प्रकार के गुणों से शून्य हो । ऐसे में हमारा हृदय-मन, बु़िद्ध और चित्त आदि भी गुणहीन स्थिति में नहीं रह सकते । दुर्गुणों को दूर करने के आन्तरिक अभियान के साथ-साथ हमें कल्याण कारक गुणों का आह्वान करना होगा । दुर्गुणों को दूर करके उनके स्थान पर कल्याण कारक गुणों अर्थात् सद्गुणों को बसाना जीवन-निर्माण की आवश्यक प्रक्रिया है । किसी बर्तन में कोई अनावश्यक व अनुपयोगी चीज भरी हो तो जब तक उसमें किसी अच्छी व उपयोगी वस्तु को रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती तब तक हम उस अनुपयोगी चीज को निकाल फैंकने के बारे में प्रायः नहीं सोचते । जब हमें कोई मूल्यवान व उपयोगी वस्तु की आवश्यकता अनुभव होती है तो हम उसे पाने के प्रयास करते हैं । पाने के प्रयास करने से पूर्व बुद्धिमान व्यक्ति उसे सुरक्षित रखने के बारे में सोचता है तो उसे लगता है कि यह जो अनावश्यक चीज इस बर्तन में रखी है, उसे निकाल फैंको और इस बर्तन को स्वच्छ करके उपयोगी वस्तु को इसमें रख दो ।
यही स्थिति मानव के जीवन की है । सांसारिक विषय वासना व परस्पर के राग-द्वेष पूर्ण जीवन जीने वाले को जब किसी सद्ग्रन्थ के स्वाध्याय या सत्संग से यह पता चलता है कि मेरा हृदय जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्य का कबाड बनकर रह गया है, मेरे जीवन में आलस्य, प्रमाद, दीर्घसूत्रता आदि दोष निरन्तर बिगाड़ पैदा कर रहे हैं, ये मुझे सुख-शान्ति, समृ़िद्ध और सन्तुष्टि नहीं दे सकते । ये मेरे जीवन को सफल और सार्थक बनाने में उपयोगी नहीं । यह ज्ञान स्वाध्याय व सत्संग के बिना नहीं होता । अधिकांश लोगों को लम्बे समय तक सत्संग स्वाध्याय करते रहने पर भी यह ज्ञान नहीं होता, लेकिन जिन विवेकशील सज्जनों को यह ज्ञान हो जाता है तो उन्हें कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव की आवश्यकता अनुभव होने लगती है । जब उन्हें सद्गुणों की आवश्यकता अनुभव होती है तो उन्हें लगता है कि मेरे हृदय में तो दुर्गुण जडे़ं जमाये बैठे हैं । जीवन को अच्छा, सुखी और सन्तुष्ट बनाने की प्रबल इच्छा जब तक हृदय में उठ खडी नहीं होती, तब तक हर मनुष्य को अपने हृदय में भरा पड़ा काम-क्रोध आदि दुर्गुणों का कूड़ा-कबाड़ भी काम चलाऊ अच्छा लगता है । जैसे ही उसके मन-मस्तिष्क में कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थों की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है, और वह उन्हें पाने के लिए लालायित होने लगता है, वैसे ही उसे अपने अन्दर के काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि अनुपयोगी और अनावश्यक ही नहीं लगते, बल्कि काँटे की तरह चुभने लगते हैं । इस अवस्था में आकर वह ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ और ‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’ की पुकार करने लगता है । इस अवस्था में सच्चे हृदय से की गई ऐसी प्रार्थना, पुकार ही परमात्मा के निकट सफल होती है ।
‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ का जो अर्थ ऋषि दयानन्द ने किया है, वह बहुत ही चमत्कार पूर्ण एवं जीवन-निर्माण की अन्तःक्रिया को सन्तुलित-सम्यक् ढं़ग से प्रकट करता है । ऋषि लिखते हैं- ‘जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमें प्राप्त कराइये ।’ कल्याण करने वाले गुण, कर्म और स्वभाव की क्रमबद्धता पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है । सुखी, शान्त व आनन्दपूर्ण जीवन के तीन घटक आन्तरिक हैं और पदार्थ बाहरी हैं । कल्याणकारक घटकों में गुण, कर्म और स्वभाव एक पात्रता है और पदार्थ उसमें रखी जाने वाली सामग्री । जिसने तप-साधना से अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याण कारक बना लिया परमात्मा उसक¢ लिए कल्याणकारक पदार्थाें की प्राप्ति सरल और सहज बना देते हैं । जो अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारक बनाने के लिए तप नहीं करते, स्वयं को सद्गुण सम्पन्न सदाचारी एवं सुख का सत्पात्र बनाये बिना ही जो कल्याणकारक सुखद पदार्थाें को छल-बल या कल से हथिया लेते हंै, ऐसे अभिशप्त लोगों के हाथ लगे कल्याण कारक पदार्थ कभी उनको सच्चा सुख नहीं दे पाते । सीधे शब्दों में कहें तो गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारी बनाये बिना हम कल्याणकारी पदार्थाें का सच्चा सदुपयोग नहीं कर सकते । बुद्धिमान लोग काँटों का सदुपयोग बाड़ लगाकर फलों व फसलों की सुरक्षा के रूप में करते हैं दूसरी ओर कुछ मूर्ख लोगों ने पाकिस्तान में पंजाब के गवर्नर के हत्यारे आतंकियों पर गुलाब के फूलों की वर्षा करके भी विश्व के मानवतावादी जन समुदाय के बीच स्वयं को कलंकित कर लिया ।
‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ की अन्तिम लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय वस्तु को रखना चाहते हैं । जो सच्चे अर्थाें में सच्चे हृदय से अपना जीवन सुखी व श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं, उनके लिए ऋषि दयानन्द के शब्दों -‘कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव’ को समझ लेना बहुत ही आवश्यक है । जब हमारे कल्याणकारक गुण हमारे कर्माें के माध्यम से सजीव होकर हमारे स्वभाव का अंग बन जाते हंै, तब जाकर हमारा जीवन कल्याणकारक पदार्थाें को पाने का पात्र बन पाता है । आज के मानव की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने अन्दर की ढ़ेर सारी अच्छाइयों को अपने कर्मों-व्यवहार में उतारने से ड़रता है । जब तक यह डर हमारे जीवन में डेरा डाले रहेगा, तब तक हर सच्चाई और अच्छाई मानव के संकीर्ण स्वार्थ के भार तले दबकर दम तोड़ती रहेगी । पाठक ध्यान रखें कि परमात्मा ने हमारे कल्याण को सरल और सहज बनाने के लिए हमारे हृदय में सत्य के प्रति श्रद्धा और असत्य के प्रति अश्रद्धा स्वाभाविक रूप से प्रदान की है । प्रत्येक मानव का हृदय सदैव सत्य के प्रति श्रद्धालु रहता है, आकर्षित रहता है । असत्य मानव के हृदय को कभी अच्छा नहीं लगता । असत्य मानव के हृदय में सदैव काँटे की तरह खटकता रहता है । मानव-स्वभाव की विचित्रता भी बड़ी अनौखी है । यह सच है कि सरल चित्त के व्यक्ति के हृदय में असत्य काँटे की तरह ही खटकता है, लेकिन जब वो स्वार्थ के खूंटे से बँधकर सत्य को स्वीकार करने का साहस नहीं दिखा पाता और निरन्तर इस असत्य रूपी काँटे से हृदय को लहूलुहान करता रहता है तो कुछ काल ऐसा ही होते रहने के बाद स्वार्थपूर्ति से मिलने वाले क्षणिक सुख के नशे में असत्य रूपी काँटे की इस तीखी चुभन को भी वह भाग्यहीन व्यक्ति ऐसे ही सहन करता रहता है जैसे एक शराबीे मद के लिए उसकी कड़वाहट व तीखेपन को सहन करता रहता है।
कल्याण की कामना वाले व्यक्ति को सांसारिक स्वार्थ पूर्ति से ऊपर उठकर एक अक्षय सुख पर अपना ध्यान केन्द्रित करना होगा । सुधी जन जानते हंै कि झूठ की जितनी शक्ति है, जितनी आयु है, उससे मिलने वाले सुख की शक्ति और आयु भी उतनी ही होगी उससे अधिक नहीं । झूठ सदैव सत्य से भयभीत रहता है, सत्य की एक किरण झूठ को धराशायी कर देती है ठीक इसी प्रकार से असत्य के बल पर सुख शान्ति पाने वाले व्यक्ति सत्य से भयभीत होकर जीवन जीते हंै, उनका सुख सत्य की सम्भावना देखकर ही भाग खड़ा होता है । क्या लाभ उस टूटे-फूटे, डरे-सहमे सुख का ? सत्य से डरकर उल्लू की तरह अँधेरे में कब तक ऐसे सुख को भोगकर सन्तुष्ट होते रहोगे ? वह सुख ही क्या जो अपने इष्ट मित्रों व परिजनों के साथ मिल कर खुले में सार्वजनिक रूप से न भोगा जा सके ? इसीलिए ऋषि दयानन्द कल्याणकारक गुणों को कर्माें में सजीव और साकार करके अपने स्वभाव का अंग बनाने का सांकेतिक प्रेरणा कर रहे हैं । गीता में श्री कृष्ण जी भी शब्दान्तर से यही सन्देश दे रहे हैं कि संसार में सब प्राणी अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभाव के अनुसार ही अपनी समस्त चेष्टाएँ (कर्म) करते हैं इसलिए स्वभाव को ही अच्छा (श्रेष्ठ) बनाओ अपनी बुराइयों को छिपाकर अच्छा दिखने से क्या लाभ ? स्वभाव को श्रेष्ठ बनाने-सुधारने का सच्चा और सरल रास्ता ऋषि दयानन्द बता रहे हैं कि अपने हृदय में सोये पडे़ हुए अपने सद्गुणों को कर्माें में उतारिये । हम जब निरन्तर अपने सद्गुणों को कर्मों का सहारा देते रहेंगे तो एक दिन हमारे सद्गुण हमारे स्वभाव का अंग बना जाएँगें । जब हम अपने सद्गुणों को अपने कर्मों के द्वारा अपने स्वभाव का अंग बना लेंगे तब इस संसार के समस्त कल्याण कारक पदार्थों को प्राप्त करने के अधिकारी-पात्र बन जाएँगे । दुर्गुणों, दुव्र्यसनों और दुःखों से निकल कर कल्याणकारक गुण, कर्म स्वभाव और पदार्थों को प्राप्त करने की अन्तर्यात्रा को मंत्रानुसार ऋषिवर ने जिस रूप में रखी और वह जैसी मेरी समझ में आई वैसी मैंने सच्चे हृदय से, सुधी जन के कल्याण की कामना से प्रकट कर दी । आशा है अध्यात्म पथ के पथिक इससे लाभ उठाएँगे ।
रामनिवास गुणग्राहक
महर्षि दयानन्द सरस्वती स्मृति भवन न्यास
निकट जसवन्त काॅलेज पुराना परिसर
रातानाडा, जोधपुर (राजस्थान)
सम्पर्कः- 07597894991

ओ३म् वह सबका स्वामी है। रामनिवास गुणग्राहक

ओं हिरण्य गर्भः समवत्र्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकऽ आसीत्।
स्दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विद्येम।।
जो स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करने हारे सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि को धारण कर रहा है। हम लोग उस सुख स्वरूप, शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अति प्रेम से विशेष भक्ति किया करें। (ऋषि भाष्य)
परमात्मा स्वयं प्रकाश स्वरूप तो है ही साथ ही वह संसार के समस्त प्रकाश करने वाले सूर्य चन्द्रमा आदि लोकों को धारण भी कर रहा है। यजुर्वेद का बड़ा सर्वज्ञात मंत्र है- ‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्य वर्णं तमसः परस्तात्’। उपासक समाधि-अवस्था में परमात्मा को पाकर, उस न्यारे-प्यारे प्रभु का साक्षात्कार करके आनन्द विभोर होकर सहसा कह उठता है- अरे। मैंने पा लिया उसे, उस महान् पुरुष को, जो सारे ब्रह्माण्ड़ में सुखपूर्वक शयन करता हुआ सब भक्तजनों को सतत् सुख प्रदान कर रहा है। शरीर रूपी पुरी में शयन करने के कारण मुझ जीवात्मा को पुरुष कहा जाता है और वह परम् पुरुष इस अनन्त सी दिखने वाली ब्रह्माण्ड़ पुरी में शयन कर रहा है। आहा। कैसा है वह? आदित्य वर्ण है। चमक और प्रकाश के लिए हमारे सामने सूर्य से बढ़कर कोई उदाहरण है ही नहीं। वह प्रभु भी आदित्य वर्ण है, सूर्य के समान चमकीला है, प्रकाश स्वरूप है। सुना है कि सूर्य में भी कुछ स्थान प्रकाश रहित है तो क्या परमात्मा भी…….अरे नहीं रे। परमात्मा में तो जितने भी गुण हैं वे सब पूर्णता से हैं। वह परम् पुरुष होने के साथ ही पूर्ण पुरुष भी है। उसका स्वरूप कहीं भी किंचित् भी प्रकाश शून्य नहीं है, वह तमस् अर्थात् अज्ञान-अन्धकार से नितान्त परे है। वह तो पूर्ण प्रकाशस्वरूप है, उसके प्रकाश की तुलना या उपमा संसार के किसी प्रकाशमान पदार्थ से नहीं की जा सकती। ऋग्वेद में कहा है-‘इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिः आगात् चित्रः प्रकेतो’ (१‐११३‐१), ‘इदं ज्योतिषाम् श्रेष्ठं ज्योतिः’= संसार में प्रकाश करने वाले इन समस्त प्रकाशकों में वह परमात्मा अतीव प्रकाशस्वरूप है। उस परम् प्रकाश प्रभु को, चित्रः प्रकेतः आगात् = अद्भुत प्रज्ञा व पुरुषार्थसम्पन्न पुरुष ही प्राप्त कर सकता है। कठोपनिषद् का ऋषि भी उद्घोष कर रहा है कि सूर्य चन्द्रमा व विद्युत की चमक भी उसकी चमक, उसके प्रकाश के सामने कुछ नहीं, इस लोक-अग्नि की तो चर्चा ही क्या? वेद बता रहा है कि विलक्षण गुण, कर्म स्वभाव वाला, अद्भुत प्रज्ञा (बुद्धि) और पुरुषार्थ (कार्य-व्यवहार) वाला धर्मनिष्ठ विद्वान् ही उस परमप्रकाश स्वरूप प्रभु को प्राप्त कर सकता है। समाधि-प्राप्त साधक ही- ‘वेदाहमेतं पुरूषं महान्तं’ कह सकता है। उसी की आत्मज्योति तप-साधना के द्वारा इतनी सक्षम व समर्थ हो सकती है जो उस परम् ज्योति का साक्षात् कर सके।
निर्धन-अभावग्रस्त व्यक्ति को एकाएक अपार धनराशि मिल जाए तो वह उसे सम्भाल नहीं पाता हमारी आँखों को देखने के लिए प्रकाश चाहिए, वह प्रकाश कम होगा तो असुविधा होगी लेकिन बहुत अधिक हो तो आँखें चुँधिया जाती हैं। बिजली चमकती है तो हमारी आँखंे स्वतः बन्द हो जाती है। ज्येष्ठ मास में दोपहर एक बजे कड़क-तेज धूप हो तो प्रायः सभी को धूप के काले चश्मे का सहारा लेना पड़ता है। स्पष्ट है कि हमारी सामथ्र्य जितनी होगी हम उतने ही किसी गुण या वस्तु का लाभ उठा सकते हैं। इसीलिए वेद बताता है कि उस परम् प्रकाशस्वरूप प्रभु को अद्भुत गुण सम्पन्न साधक जो तप-साधना के द्वारा अपना सामथ्र्य उतना बढ़ा लेते हंै, वे ही प्राप्त कर सकते हैं। तप के बारे में ऋषि कहते हैं- ‘कायेन्द्रिय सिद्धिऽशुद्धि क्षयात् तपसः’ (यो.२‐५३) शरीर व इन्द्रियों की अशुद्धियों को नष्ट करके इन्हें साधना के योग्य बनाना ही तप है। ‘तपति दुःखी भवति, तप्यते समर्थो वा भवति येन तत् तपः’ अर्थात तप करने वाला प्रथम तप के कारण दुःखी होता है और आगे चलकर वह इस तप से प्रभु प्राप्ति का सामथ्र्य तक पा लेता है। प्रसंगवश अत्यन्त उपयोगी समझते हुए यहाँ तप का स्वरूप भी बतना उपयोगी रहेगा क्योंकि तप के बारे में हमारे देश में बहुत भ्रान्तियाँ पनप रही हैं। आज हम किसी भी जटाधारी, राख लपेटे हुए निरक्षर भट्टाचार्य पाखण्ड़ी को देखकर उसे तपस्वी समझ बैठते हैं और उसकी सेवा को धर्म मानते हैं। हमारे ऋषि लिखते हैं- ‘सत्यं तपो दमस्तपः स्वाध्याय स्तपः (तैत्तÛ)’ अर्थात् सत्य बोलना, सत्याचरण करना तप है। मन-इन्द्रियों का दमन करना तप है तथा वेद आदि सद्ग्रन्थों का श्रद्धापूर्वक नित्य पढ़ना तप है। महर्षि मनु के शब्दों में- ‘वेदाभ्यासहि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते’ (२‐१४१) अर्थात् वेद को स्वीकार करना, वेदमंत्रों पर चिन्तन-मनन और विचार करना, वेदपाठ करना, वेदमंत्रों का जाप करना तथा वेद का प्रचार-प्रसार करना, उपदेश करना- इन सब को मिलाकर वेदाभ्यास कहते हंै और इन पाँचों कर्मों में लगे रहने को महर्षि मनु परम् तप मानते हैं। योगदर्शन सूत्र २‐२३ के भाष्य में महर्षि व्यास लिखते हैं- ‘तपो द्वन्द्व सहनम्’- अर्थात् अपने कत्र्तव्य कर्म को करते हुए सर्दी-गर्मी, धूप-छाँव, सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-हानि, सफलता-असफलता, राग-द्वेष आदि से विचलित हुए बिना लगे रहना, कत्र्तव्य कर्म करते रहना ही तप कहलाता है। ऐसे तप करने वाले को ही परमात्मा के प्रकाश स्वरूप का साक्षात् होता है।
स्वप्रकाश स्वरूप परमात्मा ही प्रकाश करने हारे सूर्य-चन्द्रमा आदि को धारण कर रहा है। इसी मंत्र में आगे चल कर ‘सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां’ बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा है- ‘सो परमात्मा इस पृथ्वी और सूर्यादि को धारण कर रहा है। ऋषि ने स्तुति प्रार्थनोपासना के पाँचवे मंत्र में इस बात को दो बार कहा है। ऋषि ने स्तुति प्रार्थनोपासना के लिए जिन मंत्रों का चयन किया है, उनमें परमात्मा को इस सारे ब्रह्माण्ड़ का निर्माता, संचालक और स्वामी सिद्ध करने का भूरिशः प्रयास किया गया है। इन मंत्रों का अर्थ सहित नित्य पाठ करने से कम से कम मेरे मन-मस्तिष्क पर तो यह प्रभाव पड़ा है कि मैं स्वयं को सदैव परमात्मा की निगरानी और नियंत्रण में अनुभव करता हूँ और ऐसी अनुभूति मुझे निर्भय और निर्दोष बनाने में बहुत सहायक है। पाठक स्वस्थ चित्त से विचार करें कि संध्या में आये अघमर्षण मंत्रों में परमात्मा को इस विश्व ब्रह्माण्ड़ का रचयिता और नियन्ता ही सिद्ध किया है। परमात्मा ने अपने ऋत ज्ञान और सत्रूप प्रकृति से तप पूर्वक इस ब्रह्माण्ड़ को बनाया। उसी ने सूर्य को बनाया और उसी ने दिन रात आदि को बनाकर इस निर्मित ब्रह्माण्ड़ को स्वाभाविक रूप से अपने नियंत्रण में किया हुआ है। तीसरे मंत्र में केवल यही प्रकट किया है कि परमात्मा ने सूर्य चन्द्र आदि विश्व को जैसे अब बनाया है वैसे ही पूर्व कल्प में बनाया था और ऐसा ही आगामी कल्पों में बनाएगा। इन तीन मंत्रों को महर्षि ने अघमर्षण नाम दिया है। वेद कहता है- ‘ऋतस्य धीतिर्वृजनानि हन्ति’ (ऋ 4.23.8) अर्थात् ऋत के धारण करने, ध्यान करने और चिन्तन-मनन करने से हमारी पाप वासनाएँ नष्ट होती हैं। अर्थात् परमात्मा द्वारा इस सृष्टि के बनाने और चलाने का वर्णन जहाँ भी आया है, जिन मंत्रों में ऐसा वर्णन है, उनके ध्यान और चिन्तन से हमारे अन्दर की पाप वृत्ति नष्ट होती है।