कुछ पौराणिक महाज्ञानी और अल्पबुद्धि लोग दोनों ही कुछ दिनों से एक विषय पर वार्तालाप करते चले आ रहे हैं, विषय है या सवाल है कुछ भी है वो इस प्रकार है –
मनुस्मृति का मूल वेद में कहाँ है ?
इस सवाल का जवाब देने से पूर्व हम देखते हैं मूल का अर्थ क्या होता है ?
मूल का अर्थ होता है आधार, बुनियाद, जड़, आदि। यानी इस सवाल को इस प्रकार समझा जा सकता है –
मनुस्मृति का आधार वेद में कहाँ है ?
यहाँ दो बाते समझनी चाहिए –
1. वेद अपौरुष्य हैं – अर्थात वेद ईश्वर का नित्य ज्ञान है जो आदि सृष्टि में ही चार ऋषियों के ह्रदय में प्रकाशित किया गया था। इससे सिद्ध है की वेद में इतिहास नहीं हो सकता और जो वेद में इतिहास खोजे वो गधे के सर पर सींग खोजने का व्यर्थ कार्य ही कर रहा है। इसी कारण से वेदो को श्रुति कहा गया है। ये परंपरा सनातन काल से चली आ रही है पर खेद की आज कुछ तथाकथित विद्वान अपने स्वार्थ को पूरा करने के चक्कर में इस सनातन परम्परा का अपमान करने से भी नहीं चूक रहे।
2. मनुस्मृति महाराज मनु द्वारा बनाया गया मानवो के लिए निर्मित आचार, व्यव्हार आदि धर्मशास्त्र है जिसे स्मृति कहा गया है। इस धर्मशास्त्र में मनुष्यो को क्या कर्म करने और क्या नहीं करने आदि विषयो से सम्बंधित है, कहने का तात्पर्य है की धर्म पर चलना और अधर्म से पृथक रहने का मनुस्मृति में विधान किया गया है।
अब दोनों तथ्यों को ध्यान में रखकर ये तो सिद्ध हो जाता है की मनुस्मृति वेदो के बहुत बाद की रचना है और मनुस्मृति में महाराज मनु ने वेदो के मंत्रो को देख पढ़ कर बहुत विचार करने के उपरान्त ये धर्मशास्त्र बनाया था। ताकि समस्त मानव जाति का कल्याण हो।
अब सवाल है की श्रुति और स्मृति में अंतर क्या है ?
सामान्य रूप से वेद को ‘श्रुति कहा जाता है और धर्मशास्त्रा को ‘स्मृति। महाराज मनु ने स्पष्ट रूप से स्मृति को ‘धर्मशास्त्रा कहा है-
श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रां तु वै स्मृति:।
-मनुस्मृति 2/10
भावार्थ : वेद धर्म के मूल हैं। वेद में प्रतिपादित धर्म का ही सरल रूप से धर्मशास्त्रा में वर्णन हुआ है।
तो यहाँ स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया की धर्म का मूल वेद है और वेद में प्रतिपादित धर्म का ही सरल रूप से धर्मशास्त्र यानी मनुस्मृति में वर्णन हुआ है।
इससे ये भी सिद्ध हुआ की मनुस्मृति का मूल वेद ही है। और इस आक्षेप का समाधान भी हो गया की मनुस्मृति का मूल वेद में कहाँ है।
महर्षि दयानंद और पंडित तारचरण के मध्य शास्त्रार्थ हेतु जो संवाद हुआ वो पठनीय है :
महर्षि दयानंद : क्या आप वेदो का प्रमाण मानते हैं वा नहीं ?
पंडित तारचरण : जो वर्णाश्रम में स्थित हैं उन सबको वेदो का प्रमाण ही है।
यहाँ पंडित तारचरण को भी सत्यभाषण ही करना पड़ा क्योंकि जो वेदो को प्रमाण न मानते ऐसा कहते तो बहुत ही निंदा होती – लेकिन ध्यान योग्य बात है की जब वेद को स्वयं ही प्रमाण मान लिया तब अन्य प्रमाण की इन्हे आवश्यकता क्या पड़ी ?
महर्षि दयानंद : कहीं वेदो में पाषाणादि मूर्ति पूजन का प्रमाण है वा नहीं ? यदि है तो दिखाइए और जो न हो तो कहिये नहीं है।
पंडित तारचरण : वेदो में प्रमाण है वा नहीं परन्तु जो एक वेदो का ही प्रमाण मानता है औरो का नहीं उसके प्रति क्या कहना चाहिए ?
यहाँ ध्यान से पढ़ने वाली बात है – ऋषि ने केवल मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में सवाल किया की क्या वेदो में मूर्तिपूजा का प्रमाण है ? इस पर तारचरण जी से कुछ कहते नहीं बना क्योंकि वो जानते थे की वेदो में मूर्तिपूजा का प्रमाण नहीं इसलिए अन्य प्रमाणों की और जोर देकर कहा की अन्य प्रमाण भी साक्षी के तौर पर लेने चाहिए मगर तारचरण जी ये भूल गए की खुद भी ऊपर उन्होंने स्वयं माना की जो भी वर्णाश्रम में स्थित है उसके लिए वेद ही प्रमाण है। तब जब वेद ही को वर्णाश्रम में स्थित के लिए प्रमाण मान तब अन्य प्रमाण की साक्षी क्यों ?
महर्षि दयानंद : औरो का विचार पीछे होगा। वेद का विचार मुख्य है। इस निमित्त इसका विचार पाहिले ही करना चाहिए क्योंकि वेदोक्त ही कर्म मुख्य है और मनुस्मिृत आदि भी वेदमूलक है इससे इनका भी प्रमाण है क्योंकि जो वेद विरुद्ध और वेदो में अप्रसिद्ध है उनका प्रमाण नहीं होता।
यहाँ ध्यान योग्य पढ़ने वाली बात है, क्योंकि इससे पंडित तारचरण का पंडितव और महर्षि दयानंद का अद्भुद ज्ञान दोनों ही समझ आ सकते हैं – देखिये महर्षि ने कहा क्योंकि मनुस्मृति वेद पर आधारित है अर्थात जो वेद सम्मत है उसको महाराज मनु ने भी धर्म कहा और जो वेद विरुद्ध है उसे अधर्म कहा – इससे सिद्ध है की मनुस्मृति वेदमूलक है। मगर पंडित तारचरण की पंडताई देखिये :
पंडित तारचरण : मनुस्मृति का वेदो में कहाँ मूल है ?
अब देखिये धूर्तता और छल, ऋषि ने कहा मनुस्मिृति वेदमूलक है यानी वेद सम्मत बात मनुस्मृति में धर्म कहा है, मगर तारचरण जी अपनी धूर्तता करते हुए मनुस्मृति का वेदो में कहाँ मूल है ये सवाल पूछते हैं, खैर फिर भी महर्षि ने बहुत ही अच्छा जवाब देते हुए कहा :
महर्षि दयानंद : जो जो मनुजी ने कहा है सो सो औषधियों का भी औषध है ऐसा सामवेद के ब्राह्मण में कहा है।
यहाँ ये बात बहुत ही गूढ़ है जो महर्षि ने बताई – पंडित तारचरण समझ गये इसलिए अब इस विषय से हट गए क्योंकि जो इसी विषय पर रहते तो वेदो से प्रमाण देना होता की मूर्तिपूजा वेद सम्मत है – जो की कभी दे नहीं सकते थे – इसलिए फ़ौरन एक दूसरे पंडित विशुद्धांनंद स्वामी ने प्रकरण को बदलते हुए आक्षेप करने शुरू करे।
इतने से ही पाठकगण समझ लेंगे की पौराणिक व्यर्थ ही आक्षेप मढ़ते हैं जवाब उनपर आजतक नहीं मगर फिर भी आक्षेप महर्षि पर लगाने हैं, खैर हम यहाँ ऋषि के समर्थन में और अनेक ऋषियों जैसे महर्षि व्यास और वाल्मीकि जिन्होंने मनु महाराज के श्लोको को अपने ग्रंथो में महत्त्व प्रदान किया पठनीय है :
महाभारत में मनुस्मृति के श्लोक –
महर्षि वेदव्यास (कृष्णद्वेपायन ) रचित महाभारत में मनुस्मृति के श्लोक व् मनु महाराज कि प्रतिष्ठा अनेकों स्थानो पर आयी है किन्तु मनु में महाभारत वा व्यास जी का नाम तक नही ।
महाभारत में मनु महाराज की प्रतिष्ठा –
मनुनाSभिहितम् शास्त्रं यच्चापि कुरुनन्दन ! महाभारत अनुशासन पर्व , अ० ४ ७ – श ० ३ ५
तैरेवमुक्तोंभगवान् मनु: स्वयम्भूवोSब्रवीत् । महाभारत शांतिपर्व , अ० ३ ६ – श ० ५
एष दयविधि : पार्थ ! पूर्वमुक्त : स्वयम्भूवा । महाभारत अनुशासन पर्व , अ० ४ ७ – श ० ५ ८
सर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् । महाभारत शांतिपर्व , मोक्षधर्म आदि ।
अद्भ्योSग्निब्रार्हत: क्षत्रमश्मनो लोहमुथितं ।
तेषाम सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिशु शाम्यति ।। – मनु अ० ९ – ३ २ १
ठीक यही मनु का श्लोक महाभारत शांतिपर्व अ० ५ ६ – श २ ४
में आया है और महाभारत के इस श्लोक से ठीक पूर्व २ ३ वें श्लोक में आया है –
“मनुना चैव राजेंद्र ! गीतो श्लोकों महात्मना”
अर्थात हे राजेंद्र ! मनु नाम महात्मा ने इन श्लोकों को कहा है !
इसी प्रकार मनु के जो जो श्लोक ज्यों के त्यों महाभारत में है ;
मैं यहाँ अब केवल उनके श्लोक नम्बर ही लिखा रहा हूँ
मनु ० १ १ /७ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ५
मनु ० १ १ /१२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ९
मनु ० १ १ /१८ ० – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ३ ७
मनु ० ६ /४५ – महा० शांति अ ० २४५ – श ० १५
मनु ० २ /१२० – महा०अनु ० अ ०१०४ – श ० ६४
अब वो श्लोक लिखते है जो मनु के है परन्तु कुछ परिवर्तन के साथ आयें है –
यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग: ।
यश्च विप्रोSनधियान स्त्रयते नाम बिभ्रति । । – मनु २ /१५७
यथा दारुमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग: ।
ब्राह्मणश्चानधियानस्त्रयते नाम बिभ्रति । । -महा शांति ३६/४७
अब केवल उनके श्लोक नम्बर ही लिखा रहा हूँ जो कुछ परिवर्तन के साथ आयें है –
मनु ० १ १ /४ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ४
मनु ० १ १ /१२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ७
मनु ० १ १ /३७ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० २ २
मनु ० ८ /३७२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ६३
मनु ० २ /२३१ – महा० शांति अ ० १०८ – श ० ७
मनु ० ९ /३ – महा० अनु अ ० ४६ – श ० १४
मनु ० ३ /५५ – महा० अनु अ ० ४६ – श ० ३
लगभग मनु के ५ ० ऐसे श्लोक है जो ज्यों के त्यों वा कुछ परिवर्तन के साथ महाभारत में आये है ।
वाल्मीकि रामायण में मनुस्मृति के श्लोक –
महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में मनुस्मृति के श्लोक व् मनु महाराज कि प्रतिष्ठा आयी है किन्तु मनु में वाल्मीकि , राम जी आदि का नाम तक नही ।
वाल्मीकि रामायण में मनु महाराज की प्रतिष्ठा –
किष्किन्धा काण्ड में जब श्री राम अत्याचारी बाली को घायल कर उसके आक्षेपों के उत्तर में अन्यान्य कथनो के साथ साथ यह भी कहते है कि तूने अपने छोटे भाई सुग्रीव कि स्त्री को बलात हरण कर और उसे अपनी स्त्री बना अनुजभार्याभिमर्श का दोषी बन चूका है , जिसके लिए (धर्मशास्त्र ) में दंड कि आज्ञा है ।
इस पृथिवी के महाराज भरत है (अतः तू भी उनकी प्रजा है ) ; मैं उनकी आज्ञापालन करता हुआ विचरता हूँ फिर में तुझे यथोचित दंड कैसे ना देता ? जैसे –
श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चारित्र वत्सलौ ||
गृहीतौ धर्म कुशलैः तथा तत् चरितम् मयाअ || वाल्मीकि ४-१८-३०
राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || वाल्मीकि ४-१८-३१
शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते |
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् || वाल्मीकि ४-१८-३२
उपरोक्त श्लोक ३० में मनु का नाम आया है और श्लोक ३१ , ३२ भी मनु महाराज के ही है !
उपरोक्त श्लोक किंचित पाठभेद (परन्तु जिससे अर्थ में कुछ भी भेद नही आया ) मनु अध्याय ८ के है ! जिनकी संख्या कुल्लूकभट्ट कि टिकावली में ३१८ व् ३१९ है –
राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || वाल्मीकि ४-१८-३१
राजभिः धूर्त दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || मनु ८ / ३१८
शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते |
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् || वाल्मीकि ४-१८-३२
शसनाद्वा अपि मोक्षाद्वा स्तेनः स्तेयाद विमुच्यते |
अशासित्वा तू तं राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम् ॥ मनु ८/३१६
रामायण में स्पष्टतः मनु के श्लोकों (मनुना गीतौ श्लोकौ) कि प्रशंसा विधमान है ठीक उसी प्रकार जैसे महाभारत में थी “मनुना चैव राजेंद्र ! गीतो श्लोकों महात्मना” – महाभारत शांतिपर्व अ० ५ ६ – श २ ३
ऐतिहासिक ग्रंथो में ही इतिहास का वर्णन हो सकता है, वेद तो ईश्वर का नित्य ज्ञान है उसमे इतिहास नहीं हो सकता, क्योंकि वेद धर्म का मूल है इसलिए मनुस्मृति वेदमूलक है तभी उसका वर्णन और महाराज मनु की प्रतिष्ठा रामायण व महाभारत दोनों ही ग्रंथो में विस्तार से मिलती है, यदि अब भी कोई पौराणिक ना माने हठ करे तो इसे देखे :
इदं शास्त्रां तु कृत्वा-सौ मामेव स्वयमादित:।
विधिवद ग्राहयामास मरीच्यादींस्त्वहं मुनीन।।
-मनुस्मृति 1/58
अतएव मनु द्वारा उपदिष्ट होने से ही इसका नाम मनुस्मृति है।
महाराज मनु आदि अनेको ऋषियों ने धर्म का मूल वेदो के अनुसार जो नियम बनाये और उनका पालन करने की प्रेरणा दी वही धर्म कहा गया है। यदि कुछ महानुभाव वेद से उसे ना भी जोड़ते हुए ‘चोदना’ प्रेरणा तक ही सीमित रखे जैसे की व्यर्थ ही कोशिश काशी शास्त्रार्थ के दौरान विशुद्धानन्द जी ने की मगर वो भूल गए की कर्तव्य के मूल में प्रेरणा अवश्यम्भावी है अर्थात जिन लक्षणों, कर्तव्यों या नियमो में लोक को धारण करने की प्रेरणा मूलभूत रहती है वे धर्म हैं और उनका पालन आवश्यक माना जाता है, यही बात महर्षि ने विशुद्धानन्द जी को जवाब देते समय कही थी :
महर्षि दयानंद : धर्म के दस लक्षण मनुस्मृति में बताये हैं, धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध – फिर सवाल घूम फिर कर विशुद्धानन्द जी पर ही आ गिरा क्योंकि उन्होंने धर्म के स्वरुप को पाहिले ‘चोदना’ अर्थात प्रेरणा बता दिया फिर बाद में धर्म का केवल एक ही लक्षण बताया।
इससे काशी में मौजूद सभी पंडितो का पंडितव और आडमबर सबके सम्मुख निकल आया। नतीजा आजतक सभी पंडित महर्षि दयानंद पर व्यर्थ आक्षेप लगा रहे हैं, जवाब खुद के पास मौजूद नहीं और जिस महर्षि ने अपनी विद्वत्ता काशी ही नहीं सम्पूर्ण धरती पर वेदो के माध्यम से दिखाई वो कोई साधारण मनुष्य नहीं कर सकता।
निश्चय ही वो महामानव अर्थात महर्षि थे।
धन्य है तुझ को ए ऋषि तूने हमेँ जगा दिया।
सो सो के लुट रहे थे हम,तूने हमेँ जगा दिया।
अब भी चाहे तो अनेको पौराणिक मिथ्या आक्षेप और विलाप करने हेतु स्वतंत्र है।
लौटो वेदो की और।
नमस्ते