Category Archives: वेद विशेष

पृथिवी पर श्रेष्ठ धर्म वैदिक धर्म और श्रेष्ठ संगठन आर्यसमाज

ओ३म्

पृथिवी पर श्रेष्ठ धर्म वैदिक धर्म और श्रेष्ठ संगठन आर्यसमाज

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का अस्तित्व सत्य है। किसी भी विषय में सत्य केवल एक ही होता है। जिस प्रकार दो व दो को जोड़ने से चार होता है, कुछ कम व अधिक नहीं हो सकता इसी प्रकार ईश्वर, जीव, प्रकृति, सृष्टि, धर्म, समाज, मानवीय आचार व विचार आदि सिद्धान्त व मान्यतायें भी भिन्न-भिन्न न होकर सर्वत्र एक समान ही होनी चाहिये। यदि यह पूछा जाये कि वेद पर आधारित वैदिक धर्म और आर्यसमाज संगठन की प्रमुख विशेषता क्या है तो इसका एक वाक्य में उत्तर है कि यह धर्म संगठन सत्य पर आधारित है। दूसरा उत्तर यह है कि वैदिक धर्म आर्य समाज का संगठन प्राणीमात्र के हित कल्याण के लिए हैं। यह कभी किसी के अकल्याण की बात सोचता है और ही करता है। एक अन्य उत्तर यह भी हो सकता है कि यह दोनों ज्ञान पर आधारित है तथा अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीति, रूढि़, मिथ्या परम्परा आदि से पूर्णतः रहित हैं। आर्यसमाज की मान्यता है कि वेद मन्त्रों के अर्थ वही स्वीकार्य होंगे जो सत्य हों व मानव सहित प्राणीमात्र के हित के लिए हों। यदि कहीं कोई भ्रान्ति हो तो उसे इस कसौटी पर कस कर संशोधित कर लेना चाहिये। अन्य मतों, सम्प्रदायों वा धर्मों में सत्य, तर्क व युक्ति को वैदिक धर्म की भांति महत्व नहीं दिया जाता। तर्क व युक्ति से सिद्ध बातें ही सत्य हुआ करती हैं। इसी से ज्ञान की उन्नति व अज्ञान की निवृत्ति होती है और यही मनुष्य के सुख व उन्नति का मुख्य कारण व आधार है।

 

वैदिक धर्म का आरम्भ कब, किसने व क्यों किया? इस प्रश्न पर विचार करना भी समीचीन है। इसका उत्तर है वैदिक धर्म का आरम्भ चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के ज्ञान से सृष्टि के आरम्भ में हमारे पहली पीढ़ी के ऋषियों ने किया। यह सभी ऋषि ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का साक्षात व यथार्थ ज्ञान रखने के साथ-साथ वेदों के पूर्ण वेत्ता व विद्वान थे। वेदों में जो मन्त्र व उनमें अलौकिक ज्ञान है वह किसी मनुष्य व ऋषि द्वारा रचित, निर्मित व उत्पन्न नहीं है अपितु यह वेद, इसके मन्त्र व ज्ञान इस सृष्टि के रचयिता व संचालक ईश्वर का निज ज्ञान है जो वह सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न आदि मनुष्यों, स्त्री व पुरूषों को, उनके कल्याणार्थ देता है। चार वेदों का यह ज्ञान सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ ईश्वर ने सृष्टि के आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य अंगिरा की आत्माओं में प्रेरणा द्वारा स्थापित किया था। ईश्वर ने ही जीवात्मा को मनुष्य शरीर दिये, इन शरीरों में व्यवहार के लिए पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां व बुद्धि आदि प्रदान करने सहित सृष्टि के आरम्भ में वेदमन्त्रों का उच्चारण, परस्पर संवाद एवं व्यवहार करना भी सिखाया है। तर्क व विवेचन से यह सिद्ध है कि यदि ईश्वर इस सृष्टि के आदि मनुष्यों को वेदों का ज्ञान न देता, जिससे कि वह परस्पर संवाद आदि कर सके और सत्य व असत्य में भेद कर सकें, तो उनका जीवन व्यतीत करना संभव नहीं था। मान लीजिए हमें बोलना नहीं आता और हमारे आसपास के अन्य मनुष्यों को भी नहीं आता। हममें ज्ञान भी नहीं है। ऐसी स्थिति में हम क्या कोई व्यवहार कर सकते हैं? इसका उत्तर है कि हम परस्पर किसी प्रकार का कोई व्यवहार नहीं कर सकते। व्यवहार के लिए किसी न किसी भाषा सहित उठने, बैठने, चलने, फिरने, सोचने, समझने, खाद्य-अखाद्य पदार्थों का ज्ञान, भोजन की विधि, मल-मूत्र विसर्जन आदि सभी आवश्यक क्रियाओं का ज्ञान आवश्यक है। अतः सृष्टि की रचना के बाद अमैथुनी सृष्टि में मनुष्यों की उत्पत्ति के साथ ही उनको ईश्वर से ज्ञान मिलना तर्क संगत है। यही ज्ञान उसे परमात्मा से मिलता है और इसी का नाम वेद है।

 

परमात्मा प्रदत्त इसी ज्ञान से प्रथम चार ऋषियों से अध्ययन, अध्यापन, शिक्षा, प्रचार, प्रवचन व उपदेश की परम्परा आरम्भ हुई और सभी लोग ज्ञान सम्पन्न हुए। यह वेद ज्ञान आज भी अपने मूल स्वरूप में सुरक्षित है। महाभारत के बाद यह ज्ञान लुप्त हो गया था जिसके कारण देश व विश्व में अज्ञान का घोर अन्धकार फैला और अज्ञान पर आधारित अनेक मत व मतान्तर उत्पन्न हुए। महर्षि दयानन्द, जो कि वेदों के उच्च कोटि के मर्मज्ञ विद्वान थे, उन्होंने चारों वेदों की परीक्षा कर घोषणा की कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेद का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सभी मनुष्यों वा आर्यों का परम धर्म है। अपनी इस घोषणा को उन्होंने सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थों को लिखकर पुष्ट किया। उन्होंने वेदों के सभी मन्त्रों का भाष्य करना आरम्भ किया था। ऋग्वेद आंशिक व यजुर्वेद का सम्पूर्ण भाष्य उन्होंने किया है। आकस्मिक मृत्यु के कारण वह वेदों के भाष्य को पूर्ण नहीं कर सके। उन्होंने जितने ग्रन्थ लिखे और उनकी जो शिक्षायें, उपदेश, पत्र, पुस्तकें, शास्त्रार्थों के विवरण आदि उपलब्ध हैं, उनसे वैदिक धर्म का विस्तृत सत्य स्वरूप प्रकट होता है। इस पर विचार करने पर यह पूर्व व पश्चात प्रचलित सभी धर्मों में श्रेष्ठ सिद्ध होता है। अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में उन्होंने प्रमुख सभी मतों का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है जो वेद को विश्व के सभी मनुष्यों के धर्म की उनकी मान्यता को पुष्ट करता है।

 

वेद धर्म की पहली विशेषता तो यह है कि वेद की सभी मान्यताओं तर्क व युक्ति की कसौटी पर सत्य सिद्ध होती हैं। वेद, तर्क व युक्तियों से डरता नहीं अपितु उनका स्वागत करता है। वेदों की सभी मान्यतायें ज्ञान व विज्ञान की कसौटी पर भी सत्य सिद्ध हैं। ईश्वर, जीव व प्रकृति का जो स्वरूप वेदों में उपलब्घ होता है वह अपूर्व व आज भी सर्वोत्तम हैं एवं विवेक पर आधारित है। अन्य मतों में यह बात नहीं है। वेदाधारित ईश्वरोपासना वा पंचमहायज्ञ विधि में भी मुनष्यों के सर्वोत्तम कर्तव्यों का विधान किया गया है जिससे मनुष्य की व्यक्तिगत व सामाजिक उन्नति होने के साथ सभी प्राणियों का कल्याण होता है। कर्म-फल सिद्धान्त भी वेद प्रदत्त ज्ञान के अन्र्तगत ही सत्य सिद्धान्त है जिसके अनुसार मनुष्य जो शुभ व अशुभ कर्म करता है उसका फल उसे जन्म व जन्मान्तरों में अवश्य ही भोगना होता है। अशुभ कर्मों का त्याग व शुभ कर्मों को करके तथा साथ हि वेदविहित ईश्वरोपासना, यज्ञादि कार्य, मातृ-पितृ-आचार्यों की सेवा, परोपकार व विद्यायुक्त कर्मों को करने से ही मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है। यह वैदिक धर्म की विशेषता व युक्तिसंगत सिद्धान्त है।

 

आर्यसमाज वेदों के सत्य ज्ञान को संसार में फैलाने के लिए स्थापित किया गया एक संगठन है जिसकी स्थापना महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 10 अप्रैल सन् 1875 को मुम्बई में की थी। इस संगठन की स्थापना का मुख्य उद्देश्य महर्षि दयानन्द के समय में वैदिक धर्म का संगठित रूप से प्रचार करना था और उनके बाद भी कृण्वन्तो विश्वमार्यम् (संसार को श्रेष्ठ बनाओ) के लक्ष्य की प्राप्ति तक संसार में वेदों का प्रचार अबाधित रूप से हो, यह मुख्य प्रयोजन था। महर्षि दयानन्द ने पृथिवी के सभी मनुष्यों के कल्याणार्थ वेदों की सार्वभौमिक व सार्वजनीन मान्यताओं व सिद्धान्तों के प्रचार के लिए अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋग्वेद आंशिक व यजुर्वेद सम्पूर्ण वेदभाष्य आदि ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों के अनेक भाषाओं में अनुवाद भी उपलब्ध हैं। ग्रन्थ लेखन के इस स्थाई कार्य के अतिरिक्त महर्षि दयानन्द ने देश के प्रमुख स्थानों पर जाकर वैदिक विचारधारा का प्रचार किया और सभी मतों को अपनी-अपनी धर्म व समाज विषयक मान्यताओं पर शंकाओं का निवारण करने का अवसर दिया। प्रतिपक्षी मतों के आचार्यों को उन्होंने शंका समाधान का अवसर देने के साथ शास्त्रार्थ करने की चुनौती भी दी और अनेक प्रमुख मतों के विद्वानों से शास्त्रार्थ कर वैदिक मत की श्रेष्ठता, ज्येष्ठता, ज्ञानसम्पन्नता व सत्यता को प्रतिपादित व सम्पादित किया। इसके साथ ही महर्षि दयानन्द ने उदयपुर, शाहपुर, जोधपुर आदि अनेक देशी रियासतों के शासकों को भी अपना शिष्य व अनुगामी बनाया और वहां वैदिक मत की स्थापना में आंशिक सफलतायें प्राप्त कीं। अनेक पादरी व मुस्लिम विद्वान भी उनकी मित्र मण्डली में थे जो उनकी सभी मतों के अनुयायियों के प्रति सदाशयता के उदाहरण हैं। स्वामी दयानन्द जी ने अनेक अवसरों पर हिन्दी के प्रचार व प्रसार सहित गोरक्षा आदि आन्दोलनों का सूत्रपात भी किया जबकि ऐसे कार्य व उदाहरण पूर्व इतिहास में कहीं उपलब्ध नहीं होते। इस प्रकार से प्रचार करते हुए उन्होंने वेदों के ज्ञान को फैलाकर विश्व के मनुष्यों को प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी वैदिक धर्म की स्थापना व विश्व समुदाय में इसकी स्वीकृति में यथाशक्ति योगदान किया।

 

ईश्वर इस सृष्टि के सभी मनुष्यों व पूर्वजों का आदि गुरू है। इस सृष्टि में अब तक उत्पन्न हुए सभी आचार्य, विद्वान व ऋषि-मुनि ईश्वर के शिष्य सिद्ध होते हैं जिन्होंने अपने-अपने काल में ईश्वर द्वारा आदि ऋषियों को प्रदत्त वेद ज्ञान को ही जाना, समझा व प्रचारित किया। जिस प्रकार सृष्टि की आदि में ईश्वर अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को चार वेदों का उपदेश देने से उनका गुरू व चारों ऋषि ईश्वर के शिष्य सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार से चार ऋषियों से आरम्भ आचार्य-शिष्य परम्परा के अनुसार उनके बाद के सभी आचार्य उसी ईश्वरीय ज्ञान के प्रचारक व प्रसारक सिद्ध होते हैं। सच्चा आचार्य माता-पिता के समान होता है। इस प्रकार से संसार में जितने भी सच्चे उपदेशक, ज्ञानी व ऋषि आदि हुए हैं वह-वह ज्ञानदाता व ज्ञानप्रसारक होने से अपने शिष्यों के मातृ-पितृ तुल्य ही रहे हैं। उसी परम्परा व ज्ञान प्रवाह का परिणाम ही आज का अन्यान्य विषयक ज्ञान-विज्ञान है। यदि उन्होंने वैदिक ज्ञान को सुरक्षित रखते हुए उपदेश आदि से उसका देश-देशान्तर में प्रचार न किया होता तो आज का मानव ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न न हो पाता। संसार के सभी मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह ज्ञान विज्ञान का क्षेत्र हो या मत-मतान्तरों का, उनकी सभी मान्यताओं वा सिद्धान्तों की परीक्षा कर उनमें विद्यमान सत्य को ही अपनायें और मिथ्या का त्याग करें। मत-मतान्तरों में निहित अज्ञान व भ्रम की बातें कि जिससे मनुष्यों में समरसता में बाधा पहुंचती है, उनका त्याग करें। सत्य का ग्रहण असत्य का त्याग ही वैदिक धर्म आर्यसमाज का मुख्य प्रयोजन है। आर्यसमाज सत्य का पोषक व प्रचारक है और विश्व के सभी मनुष्यों में वेदों के सत्य ज्ञान का प्रचार कर उनका कल्याण करना चाहता है। वैदिक ज्ञान ही एकमात्र मनुष्य के अभ्युदय व निःश्रेयस क कारण है, यह निर्विवाद सत्य है। आर्यसमाज के संगठन में कुछ दुर्बलतायें हो सकती हैं परन्तु विश्व के कल्याण की दृष्टि से आर्यसमाज की अवधारणा व उसका प्रभावशाली सशक्त रूप ही मानवता के हित में है। वेद और आर्यसमाज विश्व में मानवता को विद्यमान रखने की गारण्टी है। इसके साथ विश्व के सभी मनुष्यों को अभ्युदय व निःश्रेयस के मार्ग पर अग्रसर करने का एकमात्र संगठन हैं। इसके महत्व को जानकर सभी मनुष्यों को इसे सहयोग देना चाहिये और अपनी सर्वांगीण उन्नति करनी चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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पाप दूर करने का वैदिक साधन अघमर्षण के तीन मन्त्र व उनके अर्थ

ओ३म्

पाप दूर करने का वैदिक साधन अघमर्षण के तीन मन्त्र उनके अर्थ

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य जाग्रत अवस्था में कोई न कोई कर्म अवश्य करता है। यह कर्म दो प्रकार के होते हैं जिन्हें शुभ व अशुभ अथवा पुण्य व पाप कह सकते हैं। मनुष्य का जन्म ही पूर्वजन्मों के शुभ व अशुभ कर्मों के फलों के भोग के लिए हुआ है। शुभ व सत् कर्मों का फल सुख व विपरीत कर्मों का फल दुःख होता है। संसार में मनुष्य अन्य प्राणियों से इस अर्थ में भिन्न है कि उसके पास निश्चयात्मक बुद्धि होती है जिससे निर्णय करके वह किसी कर्म को करता है। मनुष्येतर अन्य प्राणियों में बुद्धि होती तो है परन्तु वह अपने स्वभाविक ज्ञान के अनुसार ही कार्य करती है। वह सत्य व असत्य का निर्णय नहीं कर सकती। यदि वह विचार व चिन्तन कर सकते तो सम्भव था कि वह मनुष्य की तुलना में अधिक अच्छे व श्रेष्ठ कर्म करते। वर्तमान में भी गाय, बैल, घोड़ा, भैंस, भेड़, बकरी आदि पशु मनुष्यों से कहीं अधिक मनुष्यों का उपकार करते हुए दिखते हैं। मनुष्य तो इन पशुओं का उपयोग व दुरुपयोग ही करता है। मनुष्य योनी उभय-योनी है। इसमें मनुष्य पूर्व व वर्तमान जन्मों के कर्म भोगने के साथ नये शुभ-अशुभ कर्म भी करता है। अशुभ कर्मों का परिणाम दुःख होता है जिससे मनुष्य बच सकता है यदि दुःखों का कारण अशुभ कर्मो वा पाप को हटा दे अर्थात् अशुभ कर्म न करे। अतः मनुष्य को शुभ व अशुभ कर्मों का ज्ञान होना चाहिये और भविष्य में दुःखों से बचने के लिए उसे केवल शुभ कर्म ही करने चाहिये। बुरे कर्मों को विवेक पूर्वक रोक देना चाहिये। इन पाप कर्मों से बचने के लिए महर्षि दयानन्द ने अपनी वैदिक सन्ध्या पद्धति में अघमर्षण मन्त्र को लिखकर कर व इनकी व्याख्या करके शुभ व अशुभ कर्मों के परिणाम व फलों को जानकर पाप कर्मों के त्याग करने का विधान किया है जिससे हमारा भविष्य सुरक्षित व सुखी हो।

 

जिन अघमर्षण मन्त्रों की चर्चा हमने की है वह वैदिक सन्ध्या पद्धति का एक भाग है। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के सम्यक् ध्यान के लिए की जाने वाली वैदिक सन्ध्या में गायत्री मन्त्र से शिखा बन्धन, आचमन मन्त्र, इन्द्रियस्पर्शमन्त्र, मार्जनमन्त्र, प्राणायाममन्त्र, अघमर्षणमन्त्र, मनसापरिक्रमामन्त्र, उपस्थानमन्त्र, समर्पणमन्त्र और समाप्ती पर नमस्कारमन्त्र के मन्त्रों का पाठ करने का विधान किया है। महर्षि दयानन्द के यह विधान बहुत ही युक्तिसंगत हैं और साधक व उपासक को सन्ध्या के फल प्राप्त कराने में पूर्णतः समर्थ हैं। सन्ध्या करने का प्रयोजन है कि ईश्वर से हमें मनोवांछित आनन्द अर्थात ऐहिक सुख-समृद्धि, हम पर सर्वदा सुखों की वर्षा और पूर्णानन्द की प्राप्ति वा मोक्ष के आनन्द की प्राप्ति हो। इन लाभों के अतिरिक्त सन्ध्या में शरीर की रक्षा व इसको स्वस्थ रखने आदि की अनेक प्रार्थनायें निहित हैं। अघमर्षण के सन्ध्या में सम्मिलित तीन मन्त्र हैं-ओ३म्। ऋतं सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोऽअर्णवः।।1।। समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत। अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।2।। सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः।।3।। अपने जीवन से पापों को दूर करने के लिए इन मन्त्रों का पाठ करने के बाद इनके यथार्थ अर्थों पर विचार करना व उससे मिलने वाली शिक्षा का पालन करना आवश्यक है। पहले मन्त्र का अर्थ है कि सब जगत का धारण और पोषण करनेवाला और सबको वश में करनेवाला परमेश्वर, जैसा कि उसके सर्वज्ञ विज्ञान में जगत् के रचने का ज्ञान था और जिस प्रकार पूर्वकल्प की सृष्टि में जगत् की रचना थी और जैसे जीवों के पुण्य-पाप थे, उनके अनुसार ईश्वर ने मनुष्यादि प्राणियों के देह बनाये हैं। जैसे पूर्व कल्प में सूर्य-चन्द्रलोक रचे थे, वैसे ही इस कल्प में भी रचे हैं जैसा पूर्व सृष्टि में सूर्यादि लोकों का प्रकाश रचा था, वैसा ही इस कल्प में रचा है तथा जैसी भूमि प्रत्यक्ष दीखती है, जैसा पृथिवी और सूर्यलोक के बीच में पोलापन है, जितने आकाश के बीच में लोक हैं, उनको ईश्वर ने रचा है। जैसे अनादिकाल से लोक-लोकान्तर को जगदीश्वर बनाया करता है, वैसे ही अब भी बनाये हैं और आगे भी बनावेगा, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान विपरीत कभी नहीं होता, किन्तु पूर्ण और अनन्त होने से सर्वदा एकरस ही रहता है, उसमें वृद्धि, क्षय और उलटापन कभी नहीं होता। इसी कारण से यथापूर्वमकल्पयत् इस पद का ग्रहण किया है। इस मन्त्र व मन्त्रार्थ में सृष्टि रचना, उसका प्रयोजन, जीवों के पूर्व कर्मों के अनुसार मनुष्यादि देह बनाने पर प्रकाश डाला है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि इस सृष्टि का स्वामी ईश्वर है और जीवों के कर्मों के फल, दण्ड-दुःख व सुख, देने के लिए उसने मनुष्यादि प्राणियों के देह बनाये है।

 

अघमर्षण के दूसरे मन्त्र का अर्थ है कि उसी ईश्वर ने सहजस्वभाव से जगत् के रात्रि, दिवस, घटिका, पल और क्षण आदि को जैसे पूर्व थे वैसे ही रचे हैं। इसमें कोई ऐसी शंका करे कि ईश्वर ने किस वस्तु से जगत् को रचा है? उसका उत्तर यह है कि ईश्वर ने अपने अनन्त सामर्थ्य से सब जगत् को रचा है। ईश्वर के प्रकाश से जगत् का कारण प्रकाशित होता और सब जगत के बनाने की सामग्री ईश्वर के अधीन है। उसी अनन्त ज्ञानमय सामर्थ्य से सब विद्या के खजाने वेदशास्त्र को प्रकाशित किया है जैसाकि पूर्व सृष्टि में प्रकाशित था और आगे के कल्पों में भी इसी प्रकार से वेदों का प्रकाश करेगा। जो त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज और तमोगुण से युक्त है, जो स्थूल और सूक्ष्म जगत् का कारण है, सो भी कार्यरूप होके पूर्वकल्प के समान उत्पन्न हुआ है। उसी ईश्वर के सामर्थ्य से जो प्रलय के पीछे एक हजार चुतुर्युगी के प्रमाण से रात्रि कहाती है, सो भी पूर्व प्रलय के तुल्य ही होती है। इसमें ऋग्वेद का प्रमाण है कि–‘‘जब जब विद्यमान सृष्टि होती है, उसके पूर्व सब आकाश अन्धकाररूप रहता है, उसी का नाम महारात्रि है। तदनन्तर उसी सामर्थ्य से पृथिवी और मेघ मण्डल=अन्तरिक्ष में जो महासमुद्र है, सो पूर्व सृष्टि के सदृश ही उत्पन्न हुआ है। तीसरे मन्त्र में ईश्वर ने मनुष्यों को शिक्षा देते हुए कहा है कि उसी समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् संवत्सर, अर्थात् क्षण, मुहुर्त, प्रहर आदि काल भी पूर्व सृष्टि के समान उत्पन्न हुआ है। वेद से लेके पृथिवीपर्यन्त जो यह जगत् है, सो सब ईश्वर के नित्य सामथ्र्य से ही प्रकाशित हुआ है और ईश्वर सबको उत्पन्न करके, सबमें व्यापक होके अन्तर्यामिरूप से सबके पाप-पुण्यों को देखता हुआ, पक्षपात छोड़के सत्यन्याय से सबको यथावत् फल दे रहा है।

 

इन अर्थों को प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि कि ऐसा निश्चित जान के ईश्वर से भय करके सब मनुष्यों को उचित है कि मन, वचन और कर्म से पापकर्मों को कभी न करें। इसी का नाम अघमर्षण है अर्थात् ईश्वर सबके अन्तःकरण के कर्मों को देख रहा है, इससे पापकर्मों का आचरण मनुष्य लोग सर्वथा छोड़ देवें। महर्षि दयानन्द के इस सत्परामर्थ और प्रातः व सायं दोनों समय सन्ध्या करते समय अघमर्षण मन्त्रों के अर्थों पर विचार करते हुए मनुष्य जान लेता है कि वह जैसे पाप व पुण्य कर्म करेगा, ईश्वर की व्यवस्था से उसको उन कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल वा दण्ड आदि यथायोग्य अवश्य मिलेगा। इससे वह पाप व अशुभ कर्मों को छोड़ देता है। अतः सन्ध्या के यह तीन मन्त्र एवं इनके अर्थ पर विचार करने से मनुष्य पापों को करना छोड़ देता है। इस पर भी यदि कोई पाप करता रहता है तो उसे बुद्धिहीन व मलिन मन व आत्मा वाला मनुष्य ही कह सकते हैं जो अन्धकार में पड़कर दुःख का भागी होता है। यदि मनुष्य व संसार को पापों से बचाना है तो उसे वेदों की शरण में लाकर वेदों का अध्ययन कराकर अटल कर्म-फल सिद्धान्त को जनाकर अशुभ व पाप कर्मों को करने से छुड़ाना ही होगा। पाप कर्मों को छोड़ने व सन्ध्यादि करने से मनुष्य व जीवात्मा को अनेकानेक लाभ होंगे जिसमें इहलौकिक उन्नति सहित परजन्मों में उन्नति होने के साथ मोक्ष की सिद्धि भी हो सकती है। हम आशा करते हैं पाठक पाप त्याग के लिए इन मन्त्रों का प्रातःसायं पाठ करने के साथ इनके अर्थों पर भी गम्भीरता से विचार करेंगे और वैदिक साहित्य का अध्ययन कर अपने-अपने जीवन को वेदानुकूल बनायेंगे।

 

मनुष्य बुरे कर्मों के कठोर दण्ड के भय से ही बुराईयों व पापों से दूर रहता है। देश व समाज में जो लोग अपराध नहीं करते उनका एक कारण यह है कि वह ईश्वर व सरकारी दण्ड व्यवस्था दोनों से डरते हैं। महर्षि दयानन्द ने सन्ध्या में विधान किये अघमर्षण मन्त्रों में भी ईश्वर की सर्वोपरि सत्ता व उसके दण्ड विधान कर्मफल सिद्धान्त का उल्लेख किया है जो अनादि काल से चला आ रहा और अनन्त काल यथापूर्व चलता रहेगा। ज्ञानी व सज्जन पुरूष ईश्वर के दण्ड व मोक्ष विधान को जानकर अपने समस्त जीवन में अपराध, पाप व अशुभ कर्मों से बचे रहते हैं व सुख-शान्ति-समृ़िद्ध का अनुभव व भोग करते हैं। अतः महर्षि दयानन्द द्वारा अघमर्षण मन्त्रों का विधान सर्वथा उपयुक्त व समाज को अपराध मुक्त बनाने की दिशा में एक प्रशंसनीय कार्य है। अन्य मतों में तो संख्या बढ़ाने के लिए पाप क्षमा का विधान किया गया है जो कि सत्य नहीं हो सकता क्योंकि पापों को क्षमा करना एक प्रकार पाप को बढ़ावा देना है जिसे ईश्वर कदापि नहीं करेगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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ईश्वर का अवतार होना सत्य वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

ओ३म्

ईश्वर का अवतार होना सत्य वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महाभारत काल के बाद भारत में ज्ञान का लोप होने से अन्धकार फैला। ऐसे ही समय में वेद व वैदिक साहित्य से अनेक प्रसंगों में अज्ञान व कल्पनाओं का मिश्रण कर संस्कृत व काव्य रचने में प्रवीण विद्वानों ने पुराणों आदि ग्रन्थों की रचना की। ऐसे ही समय में, देश, काल व परिस्थितियों व बौद्ध-जैन मत के प्रभाव के कारण, ईश्वर के अवतार की भी कल्पना की गई जो आज भी प्रचलित है। अवतार सृष्टि की रचना व पालन करने वाले अजन्मा, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ ईश्वर के मनुष्य जन्म लेने को कहा जाता है। महाभारत काल के बाद जिन लोगों ने ईश्वर के अवतार लेने की कल्पना की है, वह ईश्वर को पूर्णतया जानते ही नहीं थे और न हि वह पूर्णतः निष्कपट व स्वार्थहीन थे, ऐसा आभास मिलता है। यदि वह वेदों को जानते होते तो उन्हें ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान अवश्य होता और वह अवतारवाद की अज्ञानपूर्ण व मिथ्या कल्पना न करते। अवतार पर चर्चा करने से पूर्व ईश्वर के वैदिक व यथार्थ स्चरूप को जानना आवश्यक है। ईश्वर सत्य, चित्त व आनन्दस्वरूप, अनादि, अजन्मा, शरीर-नस-नाड़ी-बन्धन-से-रहित, नित्य, अनन्त, अमर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय और सृष्टि का रचयिता है। हर कार्य का कारण होता है। ईश्वर का यदि अवतार मानेंगे तो उसका स्वीकार्य कारण भी बताना ही होगा। अवतारवाद मानने वालों के पास ऐसा कोई ठोस कारण नहीं है जिससे ईश्वर के अवतार लेने का प्रयोजन सिद्ध हो सके। अवतारवाद के पोषक कहते हैं कि दुष्टों का दमन व हनन करने के लिए ईश्वर मनुष्य का जन्म लेता है। यह कथन हास्यापद ही लगता है। यह इसलिए कि जो ईश्वर अपनी अनन्त सामथ्र्य से निराकार रूप से इस सृष्टि व जड़-जंगम जगत का निर्माण करता है, क्या वह अपने द्वारा उत्पन्न रावण व कंस जैसे क्षुद्र प्राणियों को अपने अनन्त बल व शक्ति से धराशायी व नष्ट नहीं कर सकता? यदि श्री रामचन्द्र जी का जन्म रावण को मारने के लिए ही हुआ था तो वह युवावस्था में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न होकर सीधे रावण के पास जाकर उसका वध कर देते और वहां के सभी धार्मिक लोगों को उपदेश देते कि मैंने रावण को इसके दुष्ट स्वभाव के कारण मारा है क्योंकि मैं स्वयं भी सर्वव्यापक रूप से ऐसा नहीं कर सकता था और न हि संसार का कोई मनुष्य ऐसा कर सकता था। ईश्वर या रामचन्द्र जी ने ऐसा नहीं किया और न रामायण के रचयिता वाल्मीकि जी ने ऐसा लिखा है, अतः यह मान्यता वाल्मीकि, ईश्वर व रामचन्द्रजी की नहीं है। देश काल व परिस्थितियों के अनुसार ही यह सब कार्य हुए हैं जैसे कि आजकल विश्व धरातल पर यत्र तत्र हो रहे हैं। श्री रामचन्द्र जी एक राज परिवार में जन्में होने से एक राजा था। वैदिक राजा का दायित्व होता है कि वह वेद धर्म के अनुयायियों, ऋषि, मुनियों व विद्वानों की आतंकियों व दुष्टों से रक्षा करे। श्री रामचन्द्र जी ने वैदिक राजा होने का अपना कर्तव्य निभाया। रावण क्योंकि अपने बुरे कार्यों को करता रहा, उसने छोड़ा नहीं, अतः परिस्थितियों के अनुसार ही उसका वध हुआ। यह सारा वर्णन वाल्मीकि रामायण में उपलब्ध है। वाल्मीकि जी श्री रामचन्द्र जी को अवतार नहीं मानते थे। यह मान्यता तो विगत दो से ढ़ाई सहस्र वर्ष पूर्व ही प्रचलित हुई है। यही स्थिति महाभारत में श्री कृष्ण जी की है। एक सर्वव्यापक व निराकार सत्ता जो असंख्य जीवों को मनष्यादि जन्म देती है और उनका नियमन करती है, अब भी कर रही है, वह किसी एक जीवात्माधारी मनुष्य को मारने के लिए यदि स्वयं मनुष्य का जन्म लेती है, यह विजय नहीं पराजय है व युक्ति-तर्क से सिद्ध नहीं होती। यदि श्री रामचन्द्र जी को ईश्वर मान भी लें तो सर्वशक्तिमान होने के कारण उन्हें न तो सुग्रीव, न हनुमान, न अंगद न अन्य महावीरों की आवश्यकता पड़ती। भारत व विश्व में केवल रावण और कंस दो ही कू्रर शासक नहीं हुए अपितु इन, इनके जैसे व इनसे भी अधिक क्रूर अमानुष शासक हुए हैं। परन्तु अवतार केवल दो ही महापुरूषों को माना जाता है। इससे भी अवतारवाद का सिद्धान्त अप्रमाणिक सिद्ध होता है। क्या महाभारतकाल के बाद औरंगजेब व उससे पूर्व व पश्चात के मानवीयता के शत्रुओं के हनन के लिए ईश्वर के अवतार की आवश्यकता नहीं थी? यदि थी तो ईश्वर का अवतार क्यों नहीं हुआ? ऐसे अमानुषों को ईश्वर ने अपने सर्वान्तर्यामी स्वरूप से ही उनकी जीवन ज्योति को बुझा दिया, यह सर्वज्ञात व सिद्ध है। अतः अतवारवाद प्रमाणों के अभाव में सत्य सिद्ध नहीं होता।

 

हमारे देश में और वह भी केवल हिन्दुओं में ही अवातारवाद का सिद्धान्त पाया जाता है जिसका प्राचीन साहित्य वेद व वैदिक साहित्य में कहीं कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। हमें भी अपने पौराणिक परिवारों में बाल्यकाल से ही बताया गया कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी और योगेश्वर श्री कृष्ण जी ईश्वर थे। बचपन में जो बताया जाता है उस पर स्वतः विश्वास हो जाता है। युवावस्था में हम वेद व वैदिक साहित्य के सम्पर्क में आये और हमने महर्षि दयानन्द के विचारों को पढ़ा, समझा व जाना तथा अनेक विद्वानों के उपदेश व ग्रन्थों को पढ़ा तो इस विषयक पूर्व का हमारा विश्वास अन्धविश्वास सिद्ध हुआ। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वदेशी है अतः वह सिकुड़ कर एक अत्यन्त सीमित आकर का एकदेशी पदार्थ नहीं बन सकता। यदि बनेगा तो वह ईश्वर नहीं जीवात्मा ही होगा। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर विषयक प्रश्न करते हुए बताया है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो क्या वह दूसरा ईश्वर बना सकता है? क्या वह स्वयं को नष्ट कर सकता? इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द जी कहते हैं कि सर्वशक्तिमान का अर्थ यह है कि वह अपने सभी कार्य अपने-आप, अकेले, बिना किसी अन्य की सहायता आदि के कर सकता है परन्तु वह सत्य व सत्य नियमों के विरुद्ध न कोई कार्य करता है और न कर सकता है। ईश्वर न तो दूसरा ईश्वर ही बना सकता है और न स्वयं को नष्ट ही कर सकता है। इसी प्रकार से वह सदैव ही अपने सत्यस्वरूप सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वव्यापक, अनादि, अजन्मा, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर, अजर आदि स्वरूप में विद्यमान रहता है। अवतार लेना उसके स्वरूप, स्वभाव व सामर्थ्य में नहीं है और न सम्भव है। अतः वह कभी अवतार नहीं लेता। यदि ऐसा होता तो महाभारत काल के बाद उत्पन्न अल्प व स्वार्थ बुद्धि वालों से कहीं अधिक विद्वान, ज्ञानी, ईश्वर के साक्षात्कर्ता ऋषि व योगी महाभारत व उससे पूर्व काल रचित अपने वैदिक साहित्य में अवतारवाद का वर्णन अवश्य करते। लगभग साढ़े दस हजार मन्त्रों वाले चार वेदों में भी इसका कहीं न कहीं उल्लेख अवश्य होता। और नहीं तो ईश्वर साक्षात्कार करने के ज्ञान के लिए रचे गये योगदर्शन जिसमें ईश्वर प्राप्ति विषयक सभी साधनों का युक्ति व तर्कसंगत सत्यज्ञान प्रस्तुत किया गया है, ईश्वर के अवतार का भी अवश्य उल्लेख किया जाता। क्योंकि यह मिथ्या ज्ञान है, इसी कारण न वेद, न उपनिषद और न दर्शन आदि प्राचीन वैदिक ग्रन्थों और न हि ईश्वर का साक्षात्कार कराने वाले योगदर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने इसका उल्लेख किया। वैदिक ज्ञान, युक्ति व तर्क के आधार पर केवल यही कहा जा सकता है कि मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी व योगेश्वर श्री कृष्ण जी आदि जो ऐतिहासक युगपुरूष हुए हैं वह ईश्वर के अवतार न होकर अपने समय के महापुरूष, युगपुरूष, महामानव, महात्मा, दिव्य व श्रेष्ठ पुरूष थे। गीता में स्वयं योगेश्वर कृष्ण जी कहते हैं कि जातस्य हि धु्रवो मृत्यु धु्रवं जन्म मृत्यस्य अर्थात् जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म निश्चित होता है। इस आधार पर जन्म लेना मृत्यु को प्राप्त होना और फिर जन्म लेना यह कार्य केवल जीवात्मा का होता है परमात्मा का नहीं। श्री कृष्ण जी का माता देवकी व पिता श्री वसुदेव जी से जन्म हुआ, भगवान (ऐश्वर्यवान) श्री रामचन्द्र जी का भी माता कौशल्या और पिता दशरथ से जन्म हुआ था और इनकी मनुष्यों की ही तरह एक सौ व एक सौ पचास वर्ष की आयु में मृत्यु होने से यह सृष्टि को रचने व चलाने वाले परमात्मा न होकर एक श्रेष्ठ व परमश्रेष्ठ जीवात्मा ही सिद्ध होते हैं। ऐसे ही अन्य अवतार माने जाने वाले ऐतिहासक महापुरूषों व देवियों के बारे में कहा जा सकता है।

 

वैदिक सनातन धर्मी भाग्यशाली हैं कि इन्हें सृष्टि संवत् का ज्ञान है। इस समय यह सृष्टिसंवत एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सोलह वर्ष चल रहा है। लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत से पूर्व का हमारा इतिहास व इतर वैदिक साहित्य अनेक कारणों से सुरक्षित नहीं रखा जा सका। इस काल में श्री राम व श्री कृष्ण जी के समान सहस्रों महान दिव्य विभूतियों ने जन्म लिया होगा जिनके शुभ कर्मों को जानकर उनकी पूजा व अनुसरण किया जा सकता था परन्तु उन पर रामायण व महाभारत समान ग्रन्थ विलुप्त होने के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। सौभाग्य से हमें श्री राम व श्री कृष्ण जी, महर्षि दयानन्द आदि के सत्य इतिहास वाल्मीकि रामायण, महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत व इतर ग्रन्थों से उपलब्ध होते हैं। अपनी विवेक बुद्धि से इन ग्रन्थों में मिथ्या प्रक्षेपों को छोड़कर हम इन महापुरूषों के सत्य इतिहास को जानकर इनके अनुसार आचरण कर व वैदिक ग्रन्थों के प्रमाणों के अनुसार कर्मकाण्ड व योगयुक्त जीवन व्यतीत कर अपने मानव जीवन को सफल सिद्ध कर सकते हैं। ऐसा करके ही हमारा जीवन श्रेष्ठ बनेगा व सफल होगा, देश भी संगठित सशक्त हो सकता है और विश्व का कल्याण भी इससे हो सकता है।

 

ईश्वर ईश्वर है जिसका कभी जन्म वा अवतार नहीं होता। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु और पुनर्जन्म अवश्य होता है और वह मनुष्य वा जीवात्मा ही होता है। श्री राम व श्री कृष्ण सहित महर्षि दयानन्द हमारे आदर्श महापुरूष हैं। वैदिक शिक्षाओं सहित इन महापुरूषों के जीवनों की सत्य शिक्षाओं का आचरण व अनुकरण कर ही हम अपने जीवन को सही अर्थों में उन्नत व सफल कर सकते हैं। सत्य का आचरण व मिथ्या का त्याग ही मनुष्य जीवन की उन्नति का कारण हुआ करता है, इसके विपरीत आचरण मनुष्य की इस जन्म व परजन्म में अवनति ही करता है, यह सुनश्चित वैदिक सिद्धान्त है। हम आशा करते हैं कि इस लेख से पाठकों पर ईश्वर व महापुरूषों वा महान आत्माओं का भेद स्पष्ट हो सकेगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘सर्वव्यापक ईश्वर मुनष्य की जीवात्मा में वास करता है’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

वेदाध्ययन, चिन्तन व मनन सहित ध्यान व समाधि से यह जाना गया है कि मनुष्य जीवन जीवात्मा और मानव शरीर का संघात है। हमारा व सभी मनुष्यों का शरीर पांच भौतिक तत्वों यथा पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश से मिलकर बनाया गया है। इसमें माता-पिता की भूमिका के साथ प्रमुख भूमिका ईश्वर की है। माता-पिता व जन्म लेने वाला जीवात्मा यह नहीं जानते कि शरीर कैसे बनता है? अतः मानव व सभी प्राणियों के शरीर अपौरूषेय सत्ता की ही रचनायें व कृतियां हैं। उसी अपौरूषेय सत्ता को वेदों व वैदिक साहित्य सहित अन्य अनेक ग्रन्थों में ईश्वर के नाम से प्रस्तुत किया गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, प्राणियों के शरीरों की रचना व संचालन में ईश्वर की प्रमुख भूमिका के कारण ही मनुष्य को सर्वशक्तिमान ईश्वर को अपने आचरण व अच्छे कार्यों से प्रसन्न रखने व उससे सुख-स्वास्थ्य-ज्ञान-बल-शान्ति की प्राप्ति के लिए प्रार्थना वा यज्ञाग्निहोत्र पूजा आदि का विधान वेदों व वैदिक साहित्य में मिलता है। ईश्वर सर्वव्यापक होने से सर्वज्ञ एवं मनुष्य एक देशी होने से अल्पज्ञ है। अल्पज्ञ होने के साथ मनुष्य काम, क्रोध, राग, द्वेष, अहंकार व अनेक बुराईयों से भी बद्ध व युक्त होता है। इन दुर्गुणों, दुव्र्यसनों दुःखों को दूर करने के लिए ही पूर्ण युक्ति तर्क संगत वैदिक धर्म संसार में सृष्टि के आदि काल से प्रचलित है। सृष्टि के आदि काल से महाभारत काल तक वैदिक धर्म ही संसार के सभी मनुष्यों का एकमात्र धर्म व मत रहा। इसके बाद अज्ञान की वृद्धि के कारण नाना मतों की उत्पत्ति हुई जिनमें अनेकानेक अज्ञानयुक्त विचार व मान्यताओं के साथ अन्धविश्वास, रूढि़वादिता, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, सामाजिक असमानता वा विषमता, मांसाहार, अण्डों का सेवन, मदिरापान, धूम्रपान, अनाचार, मृतकों के शवों को जलाने के स्थान पर भूमि में गाढ़ने जैसी मिथ्या प्रथायें प्रचलित हो गई जो आज आधुनिक काल में भी प्रचलित हैं। यह सब अनुचित कार्य वेदों को न जानने व अविद्या के कारण ही हो रहे हैं। इन्हीं अज्ञानों में से एक अज्ञान ईश्वर के सर्वव्यापक स्वरुप को भलीभांति समझना भी है।

 

संसार में प्रायः हर पदार्थ एकदेशी और सीमाओं में आबद्ध या ससीम होता है। मनुष्य आदि सभी प्राणियों की आत्मायें एकदेशी व ससीम हैं। यह आत्मायें हमारे शरीरों के अन्दर तो हैं परन्तु बाहर नहीं है। शरीर के अन्दर भी जीवात्मा पूरे शरीर में विद्यमान व व्यापक नहीं है अपितु हृदय में एक स्थान पर है और इसका परिणाम कोई सेंटीमीटर या मीटर में न होकर 1 मिलीमीटर से भी हजारों गुणा न्यून वा सूक्ष्म है। इसके विपरीत कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं जो सर्वव्यापक होते हैं। आकाश ऐसा ही पदार्थ है जो सर्वव्यापक है। दिशाओं व समय को भी सर्वत्र विद्यमान व उसका सर्वत्र व्यवहार होने से सर्वव्यापक कह सकते हैं। यह तो जड़ पदार्थ हैं परन्तु ऐसा ही एक अन्य चेतन पदार्थ भी है जो सर्वव्यापक है और वही ईश्वर कहलाता है। यदि ईश्वर एकदेशी व ससीम होता तो उससे इस सृष्टि की रचना सहित सर्वत्र प्राणी सृष्टि व उसका संचालन नहीं हो सकता था। हमारी यह पृथिवी अति विशाल है। सूर्य इससे लाखों गुणा विशाल है। इसी प्रकार हमारे सौर मण्डल व समस्त ब्रह्माण्ड में हमारी पृथिवी, चन्द्र व सूर्य की भांति अनेक बड़े ग्रह व उपग्रह विद्यमान है। यह सब अपौरूषेय रचनायें होने से इनका रचयिता केवल ईश्वर ही सिद्ध होता है।

 

सृष्टि का यह नियम है कि ज्ञान पूर्वक की गई कोई भी रचना केवल चेतन सत्ता द्वारा अपने बुद्धि तत्व का उपयोग करने से ही होती है। हमारा सुन्दर घर व उपयोग की वस्तुएं यथा साइकिल, वस्त्र, खाद्यान्न का उत्पादन आदि समस्त कार्य केवल चेतन व बुद्धि रखने वाले प्राणी अपने ज्ञान से ही करते हैं। मनुष्यों की बुद्धि अत्यल्प व अल्पशक्ति होने से उनसे सृष्टि रचना व पालन का यह कार्य सम्पादित नहीं हो सकता। इसके लिए सृष्टिकर्ता का सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान आदि गुणों वा स्वरूप वाला होना अपरिहार्य है। वेदों व ऋषि-मुनियों द्वारा रचित वैदिक साहित्य में ईश्वर के ऐसे ही स्वरूप का वर्णन मिलता है जिससे अध्येता की पूर्ण सन्तुष्टि हो जाती है। वैज्ञानिकों ने सृष्टि के पदार्थों में कार्यरत नियमों के अध्ययन व खोज से जो परिणाम प्रस्तुत किये हैं, उनसे भी सृष्टि के रचयिता का एक सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वव्यापक चेतन सत्ता होना सिद्ध है। विचार करने पर यह तथ्य भी सम्मुख आता है कि यदि ईश्वर सर्वव्यापक न होता, एकदेशी व ससीम होता तो वह भी मनुष्य की ही तरह का हो सकता था और वह भी तब जब कोई उसका शरीर बनाता अर्थात् अन्य ईश्वर की फिर भी अपेक्षा थी। अतः सृष्टि में एक सर्वव्यापक सर्वज्ञ ईश्वर अवश्यमेव है जो अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देता। ऋषि व योगी अपनी सूक्ष्म विवेक बुद्धि व उच्च ज्ञान से उसका साक्षात व प्रत्यक्ष करते हैं। हमें भी अनेक घटनाओं से ईश्वर का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। महर्षि दयानन्द ने भी इसे अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है। यदि कोई कुछ भी न समझ सके तब भी सृष्टि की रचना व पालन तथा मनुष्य आदि प्राणियों के जन्म व मृत्यु आदि की व्यवस्था के लिए तो ईश्वर के अस्तित्व को माना ही जा सकता है। वह है इसलिये यह कार्य हो रहे हैं, यदि वह न होता तो यह कार्य होने सम्भव नहीं थे।

 

हम मनुष्य हैं और एक अत्यन्त सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, चेतन, अल्पज्ञ, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, सनातन, अमर, जन्म व मृत्यु के चक्र में आबद्ध, कर्मशील सत्ता हैं। जीवात्मा सूक्ष्म पदार्थ है और ईश्वर वा परमात्मा जीवात्मा से भी अत्यन्त सूक्ष्म वा सर्वातिसूक्ष्म पदार्थ है। सर्वातिसूक्ष्म और सर्वव्यापक होने से ईश्वर सर्वान्तर्यामी भी है। सर्वान्तर्यामी का अर्थ है कि वह सबके भीतर भी है अर्थात् ईश्वर सभी जीवात्माओं, सृष्टि व इसके परमाणुओं के भीतर भी  विद्यमान है और इनका पूरा हाल जानता व ज्ञान रखता है। इस आधार पर सर्वव्यापक ईश्वर का सभी जीवात्माओं के भीतर आवास, वास निवास सिद्ध होता है। अतः जीवात्मा को शुद्ध व पवित्र बनाने के लिए जीवात्मा को योग वा ध्यान के द्वारा ईश्वर से जोड़ना होता है। जीवात्मा से जुड़ जाने से जीवात्मा का अशुद्ध ज्ञान व अशुद्ध कर्म नष्ट हो जाते हैं और वह विवेक को प्राप्त होकर सत्याचरण व ईश्वरोपासना आदि श्रेष्ठ कार्यों में अपना समय व्यतीत करता है जिसके परिणाम से उसे ईश्वर के द्वारा दुःखों से मुक्ति मिलती है। दुःखो का कारण हमारी अविद्या, अज्ञान, दुष्कर्म, संस्कारविहीनता आदि ही होते हैं जो ईश्वरोपासना व सत्कर्मों को करके ही दूर होते हैं। यह ईश्वरोपासना आदि कार्य मनुष्यों के लिए सबसे बड़ी और प्रमुख उपलब्धि होती है। इसकी तुलना में धन व सम्पत्ति व भोग सामग्री अत्यन्त हेय व निम्नतम होती है। ईश्वर को प्राप्त व्यक्ति को न तो कोई दुःख होता है और न हि उसकी कोई कामना अपूर्ण रहती है। वह सत्य की ही कामना करता है और वह ईश्वर की सहायता से पूरी होती है। महर्षि दयानन्द जी का जीवन हमारे सामने है। उन्होंने कभी भिक्षा नहीं मांगी। यहां तक की जब वह गुरु विरजानन्द जी के पास मथुरा पहुंचे और उनसे व्याकरण के अध्ययन के लिए प्रार्थना की तो गुरुजी ने उन्हें अपने निवास, भोजन व पुस्तकों की व्यवस्था करने के लिए कहा। इस पर भी स्वामीजी ने किसी से कुछ मांगा नहीं। इसका ज्ञान अनेक लोगों को हुआ। किसी प्रकार से यह बात मथुरा के धनीमानी पंडित श्री अमरनाथ जोशी जी के कानों में पहुंची और उन्होंने उनके भोजन आदि की व्यवस्था कर दी। अन्य व्यवस्थायें भी श्रद्धालु लोगों द्वारा कर दी गईं। उसके बाद हम देखते हैं कि देश के अनेक बड़े-बड़े राजा भी उनका सम्मान करते थे और उनसे उपदेश ग्रहण करते थे। यह ईश्वर विश्वास व ईश्वर भक्ति का ही उदाहरण कहा जा सकता है।

 

हमने इस लेख में यह जानने का प्रयास किया है कि इस संसार को बनाने व चलाने तथा सभी प्राणियों को उत्पन्न करने वाली सत्ता ईश्वर है जो कि सर्वव्यापक सत्ता है। इससे पृथक जीवात्मा एक चेतन तत्व, अल्पज्ञ, एकदेशी व ससीम सत्ता है। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने के कारण सभी जीवात्माओं वा प्राणियों की आत्माओं के भीतर भी विद्यमान है। इस रहस्य को जानकर विधिपूर्वक ईश्वरोपासना करने से जीवात्मा का अज्ञान व आचरण शुद्ध होकर सभी दुःखों से निवृत्ति होती है। वेद ज्ञान इन सभी विषयों पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं। वेदाध्ययन करने से मनुष्यों की सभी भ्रान्तियां दूर होती हैं। यदि आज के बड़े वैज्ञानिक व इतर धर्माचार्य निष्पक्ष व जिज्ञासाभाव से वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करेंगे तो वह भी सत्य को अवश्य प्राप्त हो सकते हैं। हम सबको ईश्वर को सर्वव्यापक, दुःखों से सर्वथारहित, आनन्दमय, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सर्वान्तर्यामी जानकर तथा उसे अपनी आत्मा में विद्यमान मानकर उसका ध्यान व चिन्तन करना चाहिये जिससे हमारा कल्याण होगा। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘ईश्वर से क्या व कैसी प्रार्थना करें?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

प्रार्थना अपने से अधिक सामथ्र्य व क्षमतावान सत्ता से किसी आवश्यक व उपयोगी वस्तु को मांगने व याचना करने को कहते हैं।  मनुष्य शिशु के रूप में माता-पिता से इस पृथिवी पर जन्म लेता है। उसे अपने शरीर का समुचित विकास और ज्ञान व बुद्धि सहित सत्कर्मों की प्रेरणा की अपेक्षा रहती है जिससे वह अपने उद्देश्य, लक्ष्य व उनकी प्राप्ति के उपायों को जान सके। इस कार्य में उसके माता-पिता व आचार्य सहित ऋषि महर्षियों के पूर्ण विद्या व अज्ञान से रहित ग्रन्थ सहायक होते हैं। हमारे माता-पिता, आचार्य व सभी ऋषि-मुनि भी वेदों वा ईश्वर से ही ज्ञान प्राप्त करते थे। ईश्वर एक सत्य, चित्त, आनन्दस्वरुप, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सृष्टि की रचना, पालन व लय करने वाली सत्ता है जो हमारे इस जीवन व अनेकानेक पूर्व जीवनों से पूर्व से ही हमारे साथ है और हर पल व हर क्षण हमारे साथ रहती है व रहेगी। अतः हमें प्रातः व सायं उसकी संगति वा उपासना कर उसकी स्तुति व प्रार्थना करनी चाहिये जिससे हमें सभी श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति सुगमता से हो सके। महर्षि दयानन्द सच्चे व सिद्ध योगी थे और वेदों के मर्मज्ञ व अपूर्व विद्वान थे। उनके अनेक ग्रन्थों का मार्गदर्शन हमें प्राप्त है जिससे हम अपने जीवन को सुखी व सफल बना सकते हैं। ईश्वर से प्रार्थना करने से मनुष्य का अहंकार दूर होकर निरभिमानता उत्पन्न होती है और प्रार्थना के अनुरुप ईश्वर से पदार्थों की प्राप्ति होती है। हमें केवल अपनी सभी इन्द्रियों को वश व नियन्त्रण में रखते हुए अपने अन्तःकरण को स्वच्छ व पवित्र रखना है। यही ईश्वर को प्रसन्न व उससे प्राप्त हो सकने वाले पदार्थों की प्राप्ति के लिए आवश्यक पात्रता है। आज इस लेख में महर्षि दयानन्द द्वारा ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना विषयक वेद मन्त्रों के आधार पर की गई कुछ प्रार्थनायें प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें भी नित्य प्रति इसी प्रकार की व ऐसी ही प्रार्थनायें सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक परमात्मा से करनी चाहिये।

 

प्रार्थना आरम्भ करने से पूर्व उपासक को अपने शरीर की शुद्धि कर अपने मन को सांसारिक बातों से हटाकर सुखासन आदि किसी एक आसन में बैठकर एकाग्र चित्त होकर ईश्वर का ध्यान करते हुए मौन रहकर अपने मन से इन व इस प्रकार की प्रार्थनाओं को करना चाहिये। पहले यह मन्त्रपाठ करें, ओ३म् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीय्र्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।। ओ३म्  शान्तिः शान्तिः शान्तिः।। हे सर्वशक्तिमान् ईश्वर ! आपकी कृपा, रक्षा और सहाय से हम लोग परस्पर एक-दूसरे की रक्षा करें, हम सब लोग परमप्रीति से मिलके सबसे उत्तम ऐश्वर्य अर्थात् चक्रवर्तिराज्य आदि सामग्री व आपके अनुग्रह से आनन्द को सदा भोगें। हे कृपानिधे ! आपके सहाय से हम लोग एक-दूसरे के सामथ्र्य को अपने-अपने पुरुषार्थ से सदा बढ़ाते रहें, और हे प्रकाशमय सब विद्या के देने वाले परमेश्वर ! आपके सामथ्र्य से ही हम लोगों का पढ़ा और पढ़ाया सब संसार में प्रकाश को प्राप्त हो और हमारी विद्या सदा वृद्धि को प्राप्त होती रहे। हे प्रीति के उत्पादक ! आप ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे हम लोग परस्पर विरोध कभी न करें, किन्तु एक-दसरे के मित्र होके सदा वर्तें। हे भगवन्! आपकी करुणा से हम लोगों के तीन ताप-एक आध्यात्मिक जो कि ज्वरादि रोगों से शरीर में पीड़ा होती है, दूसरा आधिभौतिक जो दूसरे प्राणियों से कष्ट व पीड़ा होती है, और तीसरी आधिदैविक जो कि मन और इन्द्रियों के विकार, अशुद्धि और चंचलता से क्लेश होता है, इन तीनों तापों को आप शान्त अर्थात् निवारण कर दीजिये जिससे हम वेदों का ज्ञान प्राप्त कर तदनुकूल आचरण करते हुए अपना व अन्य सभी मनुष्यों का उपकार कर सकें। यही हम आपसे चाहते हैं सो कृपा करके हम लोगों की सब दिनों में सहायता कीजिये।

 

प्रार्थना के लिए यजुर्वेद का 30/3 मन्त्र ओ३म् विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आसुव।। भी एक श्रेष्ठ मन्त्र है। इससे इस प्रकार प्रार्थना करें कि हे सत्यस्वरुप ! हे विज्ञानमय ! हे सदानन्दस्वरुप ! हे अनन्तसामर्थ्ययुक्त ! हे परमकृपालो ! हे अनन्तविद्यामय ! हे विज्ञानविद्याप्रद ! हे परमेश्वर ! आप सूर्यादि सब जगत् का और विद्या का प्रकाश करने वाले हैं तथा सब आनन्दों के देने वाले हैं, हे सर्वजगदुत्पादक सर्वशक्तिमन् ! आप सब जगत् को उत्पन्न करने वाले हैं, हमारे सब जो दुःख हैं उनको और हमारे सब दुष्ट गुणों को कृपा से आप दूर कर दीजिये, अर्थात् हमसे उनको और हमको उनसे सदा दूर रखिये, और जो सब दुःखों से रहित कल्याण है, जो कि सब सुखों से युक्त भोग है, उसको हमारे लिए सब दिनों में प्राप्त कीजिये। सो सुख दो प्रकार का है–एक जो सत्य विद्याओं की प्राप्ति में अभ्युदय अर्थात् चक्रवर्ति राज्य, इष्ट मित्र, धन, पुत्र, स्त्री और शरीर से अत्यन्त उत्तम सुख का होना, और दूसरा जो निःश्रेयस् सुख है कि जिसको मोक्ष कहते हैं ओर जिसमें ये दोनों सुख होते हैं उसी को भद्र कहते हैं। उस सुख को आप हमारे लिये सब प्रकार से प्राप्त कीजिए।  हे  परमेश्वर ! आपकी कृपा व सहाय से सब विघ्न हमसे दूर रहें कि जिससे कि वेदाध्ययन व वेदाचरण का हमारा व्रत सुख से पूरा हो। इससे हमारे शरीर मे आरोग्य, बुद्धि, सज्जनों का सहाय, चतुरता और सत्यविद्या का प्रकाश सदा बढ़ता रहे। इस भद्रस्वरूप सुख को आप अपनी सामथ्र्य से ही हमको दीजिये, जिस आपकी कृपा के सामर्थ्य से हम लोग सत्य विद्या से युक्त जो आपके बनाये वेद हैं उनके यथार्थ अर्थ से युक्त भाष्य को सुख से विधान करें कि जिसके प्रचार व मनुष्यों द्वारा आचरण से मनुष्यमात्र लाभान्वित हो।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उर्युक्त मन्त्रों सहित अन्य अनेक महत्वपूर्ण मन्त्रों को भी प्रस्तुत कर उनके संस्कृत व हिन्दी में भावार्थ दिये हैं। कुछ अन्य मन्त्रों के भावार्थ इस प्रकार हैं। जो परमेश्वर एक भूतकाल जो व्यतीत हो गया है, दूसरा जो वर्तमान है और तीसरा जो होने वाला भविष्यत् कहलाता है, इन तीनों कालों के बीच में जो कुछ होता है उन सब व्यवहारों को वह ईश्वर यथावत् जानता है। जो सब जगत् को अपने विज्ञान से ही जानता, सब जगत् व पदार्थों की रचना, पालन, लय करता और संसार के सब पदार्थों का अधिष्ठाता अर्थात् स्वामी है, जिस का सुखरूप ही केवल स्वरूप है, जो कि मोक्ष और व्यवहार व सुख का भी देने वाला है, सबसे बड़ा सब सामथ्र्य से युक्त ब्रह्म जो परमात्मा है उसको अत्यन्त प्रेम से हमारा नमस्कार हो। ईश्वर कि जो सब कालों के ऊपर विराजमान है, जिसको लेशमात्र भी दुःख नहीं होता, उस आनन्दघन परमेश्वर को हमारा नमस्कार प्राप्त हो। जिस परमेश्वर ने अपनी सृष्टि में पृथिवी को पादस्थानी रचा है, अन्तरिक्ष जो पृथिवी और सूर्य के बीच में आकाश है सो जिसने उदरस्थानी किया है और जिसने अपनी सृष्टि से दिव अर्थात् प्रकाश करने वाले सूर्य आदि पदार्थो को सबके ऊपर मस्तकस्थानी किया है अर्थात् जो पृथिवी से लेके सूर्यलोकपर्यन्त सब जगत् को रच के उसमें व्यापक होके, जगत् के सब अवयवों में पूर्ण होके सबको धारण कर रहा है, उस परब्रह्म को हमारा अत्यन्त नमस्कार हो।

 

हे जगदीश्वर ! आपने नेत्रस्थानी सूर्य और चन्द्रमा को रचा है तथा कल्प-कल्प के आदि में आप ही सूर्य और चन्द्रमादि पदार्थों को वारम्वार नये-नये रचते हैं। आपने ही मुखस्थानी अग्नि को उत्पन्न किया है। आपको हम लोगों का नमस्कार हो। हे सृष्टिकर्ता परमेश्वर ! आपने ब्रह्माण्ड के वायु को प्राण और अपान के समान किया है तथा जो प्रकाश करने वाली किरण है उसे चक्षु के समान रची हैं अर्थात् सूर्य के प्रकाश से ही रूप का ग्रहण होता है। दश दिशाओं को जिसने सब व्यवहारों को सिद्ध करने वाली बनाई हैं, ऐसा जो अनन्तविद्यायुक्त परमात्मा सब मनुष्यों का इष्टदेव है, उस को निरन्तर हमारा नमस्कार हो।

 

उपर्युक्त लेख में हमने महर्षि दयानन्द के द्वारा उनके ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ से ईश्वर से की जाने वाली श्रेष्ठ प्रार्थनाओं की एक झलक प्रस्तुत की है। वैदिक सन्ध्या वा पंचमहायज्ञविध, आर्याभिविनय, संस्कार विधि, सत्यार्थप्रकाश, वेदभाष्य आदि उनके अन्य ग्रन्थों में भी इसी प्रकार के उत्तमोत्तम विचार मिलते हैं। विश्व के धार्मिक व सामाजिक साहित्य में इस प्रकार की प्रार्थनायें उपलब्ध नहीं होती। अतः जीवन का कल्याण चाहने वाले सभी मनुष्यों को महर्षि दयानन्द व वेद की शरण में आकर वेदाध्ययन आदि के द्वारा सत्य वैदिक रीति से सन्ध्योपासना, अग्निहोत्र आदि के द्वारा प्रार्थनायें करके सभी अभिलषित पदार्थों की प्राप्ति करनी चाहिये। ईश्वर व जीवात्मा की सत्तायें सत्य है जो वेद के प्रमाणों सहित तर्क व युक्ति से भी सिद्ध है। ईश्वर सर्वऐश्वर्यसम्पन्न व इसका स्वामी है, वह सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक है तथा जीवों को कर्मानुसार सुख व दुःख तथा पदार्थों को प्राप्त कराता है, अतः ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखकर समर्पित होकर ईश्वर का ध्यान, चिन्तन व प्रार्थना कर अपने सभी उचित मनोरथ सिद्ध करने चाहिये। हम आशा करते हैं कि पाठक ईश्वर से उपुर्यक्त प्रार्थनाओं को करके लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘धर्म के अनुशासन बिना विज्ञान मानव जीवन के लिए अहितकारी’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

आजकल विज्ञान की उन्नति ने सबको आश्चर्यान्वित कर रखा है। दिन प्रतिदिन नये नये बहुपयोगी उत्पाद हमारे ज्ञान व दृष्टि में आते रहते हैं। बहुत कम लोग जानते होंगे कि उनकी अनेक समस्ययाओं का कारण भी विज्ञान व इसका दुरुपयोग ही है। इसका सबसे मुख्य उदाहरण तो वायु, जल और पर्यावरण प्रदुषण का है। यह प्रदुषण विज्ञान व उसके आविष्कारों सहित औद्योगिक उत्पादों के बिना सोचे उपभोग के कारण व मनुष्य की दिनचर्या में आये बदलाव का परिणाम है। मनुष्य को वायु और जल शुद्ध न मिले तो यह अनेकानेक रोगो का उत्पादक होने से मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिए घातक होता है। यही आजकल सर्वत्र हो रहा है। इतना ही नहीं हम जो भोजन करते हैं उसे भी विज्ञान ने हमारे लिए अहितकार व अनेकानेक रोगों का उत्पादक बना दिया है जिससे मनुष्य दुःखी रहते हैं और कालकवलित होते रहते हैं। आज हमें जो खाद्य पदार्थ बाजार से मिलते हैं उसमें रासायनिक खादों कीटनाशकों के प्रयोग ने उन्हें स्वास्थ्य के अहितकर हानिप्रद बना दिया है। अनेक अन्नीय पदार्थ व सब्जियां मल-मूत्र को खाद के रूप में प्रयोग कर पैदा की जाती है जो स्वास्थ्य व मनोविकारों को जन्म देती हैं। इस ओर देश व समाज का बहुत कम ध्यान है और विज्ञान भी चुप है जबकि हमारे ऋषि-मुनियों को इसका ज्ञान था और इसी कारण उन्होंने मल-मूत्र के संसर्ग से उत्पन्न अन्न आदि पदार्थों के सेवन को निषिद्ध किया था। विज्ञान के नाम पर आज आम मनुष्य की क्षमता से भी कहीं अधिक खर्चीली चिकित्सा पद्धति देश में आई है जिसमें न केवल जीवन भर की पूंजी कुछ ही दिनों छोटे-मोटे रोगों के उपचार में स्वाहा हो जाती है अपितु वह कर्जदार होकर शेष जीवन नरक के समान व्यतीत करता है। बहुत से लोग तो धनाभाव के कारण अपना उपचार करा ही नहीं पाते और मृत्यु का वरण कर लेते हैं। अनेक चिकित्सक और पैथोलोजी लैब भी रोगियों को स्वेच्छा से लूटती हैं जिसके अनेक उदाहरण सामने आ चुके है और जो कम नहीं हो रहे हैं। स्वार्थ के कारण कुछ व अनेक चिकित्सक रोगियों को महंगी व कई अनावश्यक दवायें भी लिख देते हैं जिसका असर रोगी की आर्थिक स्थिति व स्वास्थ्य पर बुरा ही पड़ता है। इस ओर न तो सरकारों का ध्यान है और न ही देश के नागरिक ही सचेत हैं। इस क्षेत्र में सरकार व रोगी परिवारों के बीच किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति है। इसका कोई हल सामने नहीं आ रहा है। जिस प्रकार से संसार के विकसत व अर्धविकसित देश विज्ञान के उपयोग से नाना प्रकार के हानिकारक आयुद्ध आदि बना रहे हैं वह भी मानवता की सुख, समृद्धि व शान्ति के उपयों के विपरीत हैं। सौभाग्य से आज योग, प्राणायाम, आसन, व्यायाम व सन्तुलित भोजन के प्रति स्वामी रामदेव जी के प्रयासों से जागरुकता बढ़ी है। उन्होंने कम खर्चीली आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को भी विश्व स्तर पर लोकप्रिय बनाया है। इसे अपनाने वाले लोग इससे लाभान्वित हो रहे हैं परन्तु फिर भी विज्ञान प्रदत्त अन्य साधनों से कुल मिलाकर मनुष्यों को नानाविध हानियां हो रही है जिस पर विद्वानों व वैज्ञानिकों सहित सरकारों को भी ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। इसका प्रमुख कारण हमें धर्म के वास्तविक रूप को न समझना ही ज्ञात होता है। यदि मनुष्य धर्म के वास्तविक स्वरूप से परिचित होकर सत्य व सरलता का प्राकृतिक व वैदिक मान्यताओं के अनुसार जीवन व्यतीत करें जैसा कि उन्होंने महाभारतकाल तक व उससे पहले व्यतीत किया है, तो समाज में आज की यह समस्यायें न होती। आज भी यदि इस दिशा में विचार व आचरण किया जाये तो सामाजिक भलाई का बहुत कार्य किया जा सकता है।

 

वैदिक धर्म की कुछ विशेषतायें हैं जिससे अनेक समस्याओं का निराकरण हो जाता है। वैदिक धर्म मनुष्यों को मानव जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य से परिचित कराता है और उन कार्यों व उपायों को करने के लिए बल देता है जिससे मनुष्य का यह जीवन व परजन्म सुख व शक्ति का संचय कर दीर्घायु हो और उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त होकर दुःखों की सर्वथा निवृत्ति वा चिरकालीन मोक्ष रूपी स्वर्गीय सुखों व आनन्द की प्राप्ति हो। वैदिक धर्म वेदों का ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार आचरण करने को कहते हैं। वैदिक जीवन में मनुष्य को अनिवार्य रूप से ईश्वरोपासना, ईश्वर का ध्यान, चिन्तन, मनन, अध्ययन वा स्वाध्याय, ऋषियों व विद्वानों की संगति व उनकी सेवा सत्कार, प्राणियों के प्रति अंहिसा व हित की कामना, स्वयं व दूसरों के जीवन का सुधार व उन्नति, समाज को संगठित करना व उसका उच्च आदर्शों के अनुरूप निर्माण सहित परोपकार व दूसरों की सेवा के संस्कार वा स्वभाव की प्राप्ति होती है। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो मनुष्यों को सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा ऋषियों को प्राप्त हुआ, तत्पश्चात उनसे ब्रह्मा जी को प्राप्त हुआ और उनके द्वारा आदि सृष्टि के स्त्री-पुरूषों सहित काल-क्रम के अनुसार संसार भर में प्रवृत्त हुआ था। वेद की सभी शिक्षायें अज्ञान से सर्वथा रहित व मानव जीवन सहित सभी प्राणियों की हितकारी है। यह मत-पन्थ-मजहब-सम्प्रदाय आदि से कहीं ऊपर व सर्चोच्च हैं। वेदों व वैदिक धर्म में सुख-सुविधा-विलासिता के भौतिक साधनों का न्यूनतम प्रयोग करते हुए भोगों से दूर रहकर त्याग पूर्ण जीवन व्यतीत करने का विधान है। शारीरिक उन्नति व आत्मिक उन्नति पर वैदिक धर्म में सर्वाधिक ध्यान दिया जाता है। वेदों के आधार पर उपनिषदों व दर्शनों में ऋषियों ने जो ज्ञान दिया है वह संसार भर के साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। इन सबका सेवन, आचरण व अभ्यास करते हुए वायु, जल व पर्यावरण की शुद्धि के लिये प्रयास करने की प्रेरणा की गई है, तभी मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकेगा अन्यथा नहीं। वैचारिक व सत्य-असत्य के विवेचन के आधार पर चिन्तन करने पर भी यह विचारधारा प्राणिमात्र के हित को सम्पादित करने में सहायक व सत्य सिद्ध होती है। इसी कारण से हमारे प्राचीन ऋषि व पूर्वज वैदिक धर्म का न केवल स्वयं पालन करते थे अपितु समाज के सभी लोग उनसे उपदेश प्राप्त कर उनकी आज्ञाओं के अनुसार ही अपना त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। वैदिक धर्म मनुष्य के जीवन को अनुशासित कर उन्नति करते हुए जीवन के उद्देश्य धर्मअर्थकाममोक्ष तक ले जाता है। दूसरी ओर उन्मुक्त वा अनुशासन रहित जीवन आर्थिक सुख-समृद्धि भले ही प्राप्त कराये, परन्तु यह मनुष्य को रोगी व अल्पायु बनाकर, उसे जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य से दूर कर जन्म-जन्मान्तरों में दुःख व कष्टों का कारण सिद्ध होता है।

 

विज्ञान के लाभ व हानि को जानने का प्रयास सभी मनुष्यों को करना आवश्यक है। विज्ञान के साधनों का उसी सीमा तक उपयोग उचित है जहां तक की उससे हमारा धर्म, अर्थात् वर्तमान व भावी सुख, कुप्रभावित न हों। वायु-जल-अन्न के प्रदुषण के सभी कारको को दूर कर प्रदुषण निवारण के उपाय करने का प्रयास होना चाहिये। यदि विज्ञान इनका समाधान प्रस्तुत नहीं करता तो फिर निश्चय ही प्रदुषणकारक साधनों व उत्पादों को छोड़ना व इनका उपयोग नियंत्रित करना आवश्यक है। यातायात के साधन, वाहन, उद्योग तथा सीमेंट-कंक्रीट के बड़े बड़े भवन आदि वायु-जल-अन्न व पर्यावरण प्रदुषण के प्रमुख कारक हैं। निश्चय ही यह आज हमारे जीवन में ऐसे प्रविष्ट हो गये हैं कि इनके बिना जीवन व्यतीत करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस पर भी जिस प्रकार विष-मिश्रित स्वादिष्ट भोजन का त्याग करना ही श्रेयस्कर होता है वैसी ही यहां भी स्थिति है। सत्य वैदिक धर्म को यदि संसार अपना ले और उसके अनुसार सभी मनुष्य ईश्वरोपासना, यज्ञअग्निहोत्र, योग, ध्यान, स्वाध्याय, सेवा, परोपकार, त्याग, प्राणिहित, अंहिसात्मक व्यवहार, स्वार्थ लोभ पर नियंत्रण, अपरिग्रह आदि का सेवन करें तभी पर्यावरण बच सकेगा। वैदिक धर्म में प्रतिदिन प्रातः सायं यज्ञ करने का जो विधान है वह अनेक लाभों सहित वायु, जल अन्न के प्रदुषण को दूर करने के लिए होता है। इस ज्ञान विज्ञान को विकसित कर प्रदुषण निवारण में इसका भी उपयोग किया जा सकता है। सरकार वैज्ञानिकों इस ओर ध्यान देना है। वैदिक धर्म का ज्ञान व उसका सभी मनुष्यों द्वारा आचरण आज संसार में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व प्रासंगिक होने के कारण आवश्यक व अनिवार्य प्रतीत हो रहा क्योंकि इसके द्वारा ही हम विश्व को सभी प्रकार के प्रदुषणों, अन्याय, शोषणों व अशान्ति से बचा सकते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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मनुष्य की चहुंमुखी उन्नति का आधार अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

मनुष्य के जीवन के दो यथार्थ हैं पहला कि उसका जन्म हुआ है और दूसरा कि उसकी मृत्यु अवश्य होगी। मनुष्य को जन्म कौन देता है? इसका सरल उत्तर यह है कि माता-पिता मनुष्य को जन्म देते हैं। यह उत्तर सत्य है परन्तु अपूर्ण भी है। माता-पिता तभी जन्म देते हैं जबकि ईश्वर माता-पिता व जन्म लेने वाली जीवात्मा के शरीर के निर्माण वा रचना सहित सभी व्यवस्था और उपाय करता है। क्या मनुष्य का जन्म बिना पुर्लिंग पुर्लिंग ईश्वर के सहाय के सम्भव है, इसका उत्तर नहीं में है। अब प्रश्न है कि ईश्वर व माता-पिता ने सन्तान को जन्म क्यों दिया है? माता-पिता तो यह कह सकते हैं कि यह मनुष्य का स्वभाव सा है कि युवावस्था में उसे विवाह की आवश्यकता अनुभव होती है और विवाह के बाद परिवार की वृद्धि की इच्छा से सन्तान का जन्म होता है। अन्य कुछ कारण भी हो सकते हैं। माता-पिता द्वारा सन्तानों से वृद्धावस्था व आपातकाल में सेवा-सुश्रुषा आदि की अपेक्षा भी की जाती है। ईश्वर जन्म लेने वाली जीवात्मा को पिता व माता के शरीर में प्रवेश कराने सहित उसका लिंग स्त्रीलिंग वा पुर्लिंग निर्धारित करता है और माता के गर्भ में एक शिशु का शरीर रचकर उसे गर्भ की अवधि पूरी होने पर जन्म देता है। इसका उद्देश्य तो सामान्य व्यक्ति ईश्वर से पूछ नहीं सकता। हां, योगी व ज्ञानी अपने अध्ययन, विवेक, योग साधना व कुछ सिद्धियों से इसका यथार्थ उत्तर दे सकते हैं। वह उत्तर है कि जीवात्मा ज्ञान वा विद्या प्राप्त कर अपने अज्ञान को दूर करे। इसके साथ मनुष्य जन्म में अपने अकर्तव्य व अकर्तव्यों सहित उसे संसार, ईश्वर व जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान भी होना चाहिये। जीवात्मा, ईश्वर व अनेकानेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर को प्राप्त करना मनुष्य जन्म में ही सुलभ है। अतः ईश्वर जीवात्माओं को मनुष्य आदि अनेक योनियों में उसके पूर्वजन्म के कर्मानुसार जन्म देता है और पुराने कर्मों का भोग करने तथा नये कर्मों के आधार पर मृत्यु के पश्चात जीवात्मा के नये जीवन अर्थात् पुनर्जन्म की योनि का निर्धारण करता है।

 

मनुष्य जीवन केवल शरीर को पोषण देने, स्वादिष्ट भोजन करने व धन स्म्पत्ति अर्जित कर सुख-सुविधाओं की वस्तुओं का संग्रह करने मात्र के लिए ही नहीं मिला है। यह काम अवश्य करने हैं परन्तु सबसे महत्वपूर्ण इस संसार सहित ईश्वर व जीवात्मा के सत्य ज्ञान व रहस्यों को जानकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना को भी करना होता है। इन सब कामों के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है जो हमें माता-पिता के बाद आचार्यों व शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त होता है। यदि जीवन में शास्त्रों का ज्ञान व सदाचरण नहीं है तो वह जीवन मनुष्य का होकर भी पशु के समान, एकांगी जीवन, ही कहा जाता है। पशु का काम खाना-पीना व अपने स्वामी की सेवा करना होता है। यदि मनुष्य भी धनसंग्रह करने व शारीरिक सुविधाओं के लिए ही जीवित रहता है तो यह पशुओं के समान ही है। सत्य शास्त्रों के ज्ञान से जो विवेक प्राप्त होता है वही मनुष्य की वास्तविक पूंजी होता है। यह ज्ञान व इसकी प्रेरणा से किए गये सदकर्म न केवल इस जीवन अपितु भावी अनेकानेक जन्मों में भी सहयोगी, लाभदायक व सुखप्रापक होते हैं। अतः सभी मनुष्यों का मुख्य कर्तव्य यह है कि वह अपने अज्ञान व अविद्या का नाश करने के लिए योग्य आचार्यों से वेदाध्ययन वा ज्ञान की प्राप्ति करे।

 

यदि हम इतिहास पर दृष्टि डाले तो हमें इतिहास में बड़े-बड़े ज्ञानियों, धर्मपालकों, ऋषियों, आचार्यों के नाम मिलते हैं जिनका नाम श्रद्धा से लिया जाता है। ऐसे लोग ही मानव समुदाय का आदर्श हुआ करते हैं। इतिहास में प्राचीन महापुरुषों में श्री रामचन्द्र जी व श्री कृष्ण जी का नाम प्रसिद्ध होने के साथ उनको लोग आज भी श्रद्धा-भक्ति से स्मरण करते हैं। इसका कारण उनके कार्य व जीवन का आचरण है जो उन्होंने किया था। इन महापुरुषों के जीवन को प्रकाश में लाने का काम महर्षि वाल्मीक और महर्षि वेदव्यास जी ने रामायण व महाभारत ग्रन्थों की रचना कर किया। यह सभी लोग विद्या में सर्वोच्च थे। आज भी हम महर्षि दयानन्द, स्वामी शंकराचार्य, आचार्य चाणक्य, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, सरदार पटेल आदि को स्मरण करते हैं तो इसका कारण भी इन लोगों का ज्ञान व उसके अनुरुप किये गये कार्य हैं। इन उदाहरणों का अभिप्राय यही है कि मनुष्यों को पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर श्रेष्ठ कार्यों को करना चाहिये जैसा कि इन कुछ महापुरुषों ने किये हैं। ऐसा करके हम अपने अपने जीवन को सफल व सफलतम बना सकते हैं।

 

शास्त्रों ने बताया है कि विद्या वह होती है जो मनुष्यों को दुःखों से मुक्त करती है। इससे यह आभाष मिलता है कि मनुष्यों के दुःखों का कारण अविद्या व असत् ज्ञान होता है। हम संसार में भी देखते हैं कि असत् ज्ञान व ज्ञानहीनता निर्धनता का मुख्य कारण होता है। अज्ञानी व्यक्ति अन्याय व शोषण से पीडि़त भी होता है व स्वयं भी ऐसा ही आचरण दूसरों के प्रति करता है। ऐसा भी देखा जाता है कि जिस व्यक्ति को ज्ञान हो जाता है वह न केवल अपने जीवन का सुधार करता है अपितु अपने साथ अपने सम्पर्क में आने वाले अनेकों का भी उससे सुधार होता है। आजकल संसार में नाना विषयों का ज्ञान उपलब्ध है। यह सांसारिक ज्ञान अपरा विद्या कहलाता है। इस विद्या से मनुष्य अनेकानेक काम करके धन व सम्पत्ति व अनेक पदार्थों का सृजन कर सकता है परन्तु अपनी आत्मा को उत्तम नहीं बना सकता। आत्मा को उत्तम व श्रेष्ठ बनाने के लिए वेदों व वैदिक साहित्य की शरण में जाना पड़ता है। वेदों का आत्मा व ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान परा विद्या कहलाती है। इसे आध्यात्मिक विद्या भी कह सकते हैं। इस विद्या से मनुष्यों को अपने यथार्थ कर्तव्यों का बोध होता है। इस ज्ञान व विज्ञान को प्राप्त होकर मनुष्य अपरिग्रह को अपनाता है और आत्मा व ईश्वर का चिन्तन करते हुए ईश्वर का अधिकतम व पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है जिससे उसकी अविद्या नष्ट होकर वह वैदिक मान्यता के अनुसार जन्म व मरण के दुःखों से 4.32x2x360x100 =  3,11,040  अरब वर्षों तक के लिए मुक्त होकर ईश्वर के सान्निध्य में पूर्ण आनन्द का भोग करता है। यही मनुष्य जीवन का वास्तविक स्वर्ग है जिसका विस्तृत वर्णन सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में उपलब्ध होता है।

 

महर्षि दयानन्द वेद सहित प्राचीन काल से उनके समय तक ऋषियों व विद्वानों द्वारा रचित सभी शास्त्रों व ग्रन्थों के अपूर्व विद्वान थे। संसार का सुधार व उन्नति करने के लिए उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की थी। वेद ज्ञान के आधार पर आपने आर्यसमाज के दस नियमों की रचना की जिसमें से आठवां नियम है कि अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। यह नियम सर्वमान्य नियम है। इसका महत्व सभी जानते हैं। इस पर किसी को विवाद नहीं है। परन्तु विद्या का क्षेत्र कहां तक है यह बहुतों को ज्ञात नहीं है। पूर्ण विद्या की प्राप्ति वेद वैदिक साहित्य का अध्ययन कर ही सम्पन्न होती है। वेदों के ज्ञान से रहित मनुष्य पूर्ण ज्ञानी नहीं कहा जा सकता। अतः जीवन की पूर्ण उन्नति के लिए संसार के अनेकानेक विषयों का अध्ययन करने के साथ वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन भी अवश्य ही करना चाहिये। जो करेंगे उनको आत्मा के विकास सहित  ईश्वर की प्राप्ति का लाभ होगा और परजंन्म की उन्नति होगी। जो नहीं करेंगे वह इन लाभों से वंचित रहेंगे। महर्षि दयानंद के आर्यसमाज के तीसरे नियम में प्रस्तुत शब्दों का उल्लेख कर लेख को विराम देते हैं। उन्होंने लिखा है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना सुनना सुनाना सब आर्यों (श्रेष्ठ मनुष्यों) का परम धर्म है।

मनमोहन कुमार आर्य

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स्तुता मया वरदा वेदमाता- डॉ धर्मवीर

 

वेद जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखने का सन्देश देता है। इस मन्त्र में महिला के द्वारा कहा जा रहा है। प्रतिदिन सूर्योदय के साथ ही प्राणियों का भाग्योदय होता है। प्रत्येक सूर्योदय नये जीवन का सन्देश लेकर आता है। मनुष्य को अपने जीवन से निराशा को समाप्त करना चाहिए। निराशा असफलता को स्वीकार करने का दूसरा नाम है। मनुष्य के सभी मनोरथ पूर्ण नहीं हो पाते। मनुष्य को असफलता मिलती है तो निराश होने की सभावना होती है, किन्तु यदि दूसरा-तीसरा अवसर उसके सामने होता है तो वह निराशा की ओर न जाकर फिर से प्रयत्न करने के लिये तैयार हो जाता है। वेद कहता है- मनुष्य को कितनी भी बार असफलता क्यों न मिले, हर नया दिन एक नई सफलता का अवसर लेकर आता है, इसीलिये मन्त्र में ऋषिवर ने कहा है- यह सूर्योदय मात्र सूर्योदय नहीं है, यह मेरे सौभाग्य का उदय है। प्रतिदिन सूर्योदय के साथ मनुष्य को निराशा छोड़कर नये उत्साह और विश्वास के साथ नये दिन का प्रारभ करना चाहिए।

एक महिला की सफलता उसके साथ जीवन बिताने वाले की योग्यता से जुड़ी होती है। मन्त्र कहता है- अहं तद् विद्वला– मैंने वर को प्राप्त कर लिया है। संस्कृत भाषा के शदों में अद्भुत शक्ति है- अर्थ को अपने अन्दर समाने की। होने वाले पति की विवाह संस्कार के समय वर संज्ञा होती है। वर शब्द  का मूल अर्थ चुना गया होता है। वर का एक अर्थ श्रेष्ठ भी होता है, व्यक्ति जब बहुतों में से चुनाव करता है, तो वह श्रेष्ठ का ही चुनाव करता है, इसी कारण विवाह के समय विवाह कर रहे युवक की संज्ञा वर होती है। जब विवाह में युवक को वर कहते हैं, तो उसी समय युवती की संज्ञा वधू होती है। वधू शब्द  का अर्थ है- इसे जीवन के लक्ष्य तक पहुँचाना है अथवा जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के साथ लेना है, जिसके साथ रखने का उत्तरदायित्व वर स्वीकार करता है। वधू को साथ रखने का जिसमें सामर्थ्य है, ऐसा चुने गये व्यक्ति की संज्ञा वर है। इससे भी रहस्य की बात है, वर शब्द  बताता है कि उसे किसी ने अपने लिए चुना है, स्वीकार किया है, अतः चुनने का अधिकार वर का नहीं, वधू का है। वर तो वधू का चयन स्वीकार करता है। चुनाव की प्रक्रिया को स्वयंवर कहते हैं। स्वयंवर में वर तो युवक है, परन्तु चुनने का अधिकार युवती का है, उस चुनाव से सहमत होना, न होना, युवक की स्वतन्त्रता है। जब अनेक युवक एक युवती को प्राप्त करने में इच्छुक होते हैं, तो चयन का अधिकार युवती का होता है। भारतीय इतिहास में अनेकशः स्वयंवर के उदाहरण मिलते हैं, द्रौपदी स्वयंवर है, सीता स्वयंवर है। कालिदास के प्रसिद्ध महाकाव्य में अज- इन्दुमति स्वयंवर का चित्रण बड़ा रोचक है। स्वयंवर के समय देश के विभिन्न भागों से इन्दुमति से विवाह करने के इच्छुक राजकुमार स्वयंवर स्थल पर उपस्थित होते हैं। स्वयंवर के समय इन्दुमति की दासी सुनन्दा राजकुमारी इन्दुमति के साथ चलती है और प्रत्येक राजकुमार के सामने खड़ी होकर, राजकुमार के गुण, वैभव, विद्या, वीर्य, पराक्रम का वर्णन करती है। राजकुमारी इन्दुमति द्वारा अस्वीकृत करने पर वह अगले राजकुमार के सामने पहुँच जाती है। इस चित्रण को कालिदास ने अपने काव्य में बहुत सुन्दर ढंग से बाँधा है। वे कहते हैं-

संचारिणी दीपशिखेव रार्त्रो ये ये व्यतीयाय पतिंवरासा

नरेन्द्र मार्गट्ट इव प्रपेदे विवर्ण भावं स स भूमिपालः।।

अर्थात् जब इन्दुमति राजकुमारों के समुख वरमाला लेकर उपस्थित होती थी, तब राजकुमार का मुख कान्ति से दैदीप्यमान हो जाता था, जैसे चलते हुए दीपक के किसी महल के समुख आने पर भवन की भव्यता प्रकाशित होती है, परन्तु जब राजकुमारी राजकुमार के सामने से बिना वरण किये आगे बढ़ जाती थी तो उस राजकुमार की कान्ति वैसी मलिन पड़ जाती थी, जैसे दीपक के भवन के सामने से निकल जाने पर, कितना भी विशाल भवन हो- अन्धकार में विलुप्त हो जाता है।

इस प्रकार महिला के अधिकारों पर एक सहज विचार इन शदों में प्रतिबिबित होता है। आज महिला के अधिकार और कर्त्तव्य का निश्चय पुरुष करना चाहता है, तब हमें वेद के इस सन्देश पर ध्यान देना चाहिये।

वेद प्रत्येक मनुष्य को ज्ञान का अधिकार देता है। ज्ञान प्राप्त करके ही मनुष्य अपने हित-अहित का विचार कर सकता है। यदि महिला शिक्षित नहीं होगी, तो निर्णय और विचार कैसे कर सकेगी? इन मन्त्रों में अपने अधिकार, अपने कर्त्तव्य, अपनी योग्यता के कारण जो आत्मविश्वास व्यक्ति के अन्दर आता है, उसका स्पष्ट पता चलता है। अतः तद् विद्वला पतिम् अर्थात् मैंने अपने योग्य पति को प्राप्त कर लिया है, यह कथन उचित ही है।

 

यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है? आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा :-

आचार्य जी, ‘‘समाधान – 93’’ में आपने जो दिया है, उसमें थोड़ी-सी शंका शेष रह गई है और वह यह है कि ईश्वर ने इस साकार जगत् की रचना प्रकृति के परमाणुओं से की है। इसका मतलब प्रकृति के परमाणुओं में साकारत्व का गुण है, तभी तो साकार जगत् बन पाया। पंचभौतिक तत्त्व भी प्रकृति के परमाणुओं से ही बने हैं, तो इन परमाणुओं से निराकार पदार्थ कैसे बन जाते हैं और फिर वे निराकार पदार्थ परस्पर मिलते हैं, तो आकार कैसे ग्रहण कर लेते हैं, अर्थात् साकार कैसे बन जाते हैं? यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है?

निम्न बिन्दुओं पर भी स्थिति स्पष्ट करने का कष्ट करें-

(1) आपने आकाश निराकार बताया है। यह प्रकृति के परमाणुओं से बना है। इसी तरह वायु भी निराकार है, अग्नि जब प्रकट होती तब साकार होती है, अन्यथा निराकार। यह क्यों है?

(2) मेरे विचार से प्रलयकाल में जब प्रकृति अपने विशुद्ध रूप में होती है, तब निराकार ही होती है और ईश्वर तथा जीव निराकार होते ही हैं। फिर निराकार प्रकृति से साकार जगत् कैसे बना?

(3) महर्षि दयानन्द जी ने बताया है कि साकार चीजें असीम नहीं होती, बल्कि जीवात्माएँ भी संया वाली हैं, चाहे वे मनुष्य की गिनती से बाहर हों। ऐसी अवस्था में आकाश या अवकाश रूप आकाश असीम है या ससीम है?

(4) वायु ससीम है या असीम?

(5) क्या ईश्वर के अतिरिक्त अन्य भी कोई तत्त्व ऐसा है, जो असीम हो?

कृपया, समाधान करने का कष्ट करें।

– इन्द्रसिंह पूर्व एस.डी.एम. 29- नई अनाज मण्डी, भिवानी (हरियाणा) चलभाषः – 9416057813

समाधानः परमेश्वर ने यह संसार अपने सामर्थ्य से मूल प्रकृति को लेकर बनाया है। संसार के बनाने में परमेश्वर निमित्त कारण और प्रकृति उपादान कारण है। स्थूल जगत् के बनने की प्रक्रिया महर्षि कपिल ने अपने सांय दर्शन में दी है-

सत्त्वरजतमसां सायावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान्, महतोऽहङ्कारोऽहङ्कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिद्रियं पञ्चतन्मात्रेयः स्थूलभूतानि……।।  सां.- 1.61

सत्त्व, रज, तम- इन तीन वस्तुओं से मिलकरजो एक संघात है, उसका नाम प्रकृति है। उस प्रकृति से महतत्त्व बुद्धि, उस महतत्त्व से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्रा अर्थात् सूक्ष्म भूत- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द , दस इन्द्रियाँ तथा ग्यारहवाँ मन, पाँच तन्मात्राओं से पाँच स्थूल भूत अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और इन पाँच महाभूतों से यह दृश्य जगत्।

प्रकृति से जो कुछ भी उत्पन्न होता है, वह आकार वाला होता है, क्योंकि प्रकृति स्वयं आकार वाली है, जो गुण कारण में नहीं होते, वे कार्य में भी नहीं होते। यदि ऐसा होने लग जाये, तो अभाव से भाव की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जो द्रव्यात्मक पदार्थों में कभी घट ही नहीं सकता। महर्षि दयानन्द ने भी प्रकृति को आकार वाला माना है। महर्षि लिखते हैं-‘‘…….वह प्रकृति और परमाणु जगत् का उपादान कारण है और वे सर्वथा निराकार नहीं, किन्तु परमेश्वर से स्थूल और अन्य कार्य से सूक्ष्म आकार रखते हैं।’’ – स. प्र. स. 8

आपने जो कहा कि ‘‘मेरे विचार से प्रलयकाल में जब प्रकृति अपने विशुद्ध रूप में होती है, तब निराकार ही होती है।’’ यह विचार ऋषि के विचार से नहीं मिल रहा है। यदि ऐसा मान भी लें तो अभाव से भाव की उत्पत्ति वाली बात हो जायेगी, जो कि युक्त नहीं है। ऊपर जो लिखा कि प्रकृति से उत्पन्न पदार्थ आकार वाले होते हैं, इस कथन से आकाश निराकार कैसे सिद्ध होगा- यह प्रश्न खड़ा हो जायेगा। इसके लिए मेरा कथन है कि जो आपने परोपकारी के जिज्ञासा समाधान-93 की चर्चा की है, उसमें साकार निराकार की तीन परिभाषाएँ लिखी हैं, उनको यहाँ पुनः उद्धृत करता हूँ-

  1. साकार वह है, जो प्रकृति से बना हुआ, इसके अतिरिक्त निराकार।
  2. साकार वह, जिसमें रूप, रस, गन्धादि पाँचों गुण प्रकट हों, इससे भिन्न अर्थात् जिसमें पाँचों गुण प्रकट न हों, वह निराकार।
  3. साकार वह, जिसमें केवल रूप गुण प्रकट रूप में हो, अर्थात् जो आँखों से दिखाई दे वह साकार, इससे भिन्न निराकार।

इन परिभाषाओं के आधार से पहली परिभाषा के अनुसार देखें तो जो प्रकृति से बना आकाश है, वह भी साकार होगा। जहाँ आकाश को निराकार कहा है, वहाँ सापेक्ष रूप से कहा है। आकाश पाँच भूतों में सबसे सूक्ष्म है, उसको हम केवल शब्द  के आधार से अनुमान लगाकर जान पाते हैं। इसी प्रकार वायु को स्पर्श से जान पाते हैं। रूप क ी दृष्टि से तो ये निराकार ही कहलाएँगे।

हाँ, जिस अवकाश रूप आकाश की बात ऋषि करते हैं, जो कि प्रकृति से नहीं बना, वह तो निराकार ही है और यह अवकाश रूप आकाश असीम है। इन आकाश, वायु आदि के असीम-ससीम के विषय में हम इतना ही कह सकते हैं कि ये पदार्थ प्रकृति से बने होने केकारण ससीम हैं। शेष बाद में लिखेंगे।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

जीवात्मा वा मनुष्य की मृत्यु और परलोक’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महाभारत के एक अंग भगवद्-गीता के दूसरे अध्याय में जन्म व मृत्यु विषयक वैदिक सिद्धान्त को बहुत सरल व स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है। गीता के इस अध्याय में कुछ प्रसिद्ध श्लोकों में से 3 श्लोक प्रस्तुत हैं। यह तीन श्लोक गीता के दूसरे अध्याय में क्रमांक 22, 23 तथा 27 पर हैं जिन्हें प्रस्तुत  कर रहे हैं। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।22।।, ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। चैनं क्लेदयन्त्यापो शोषयति मारुतः।।23।। तथा जातस्य हि धु्रवो मृत्युध्र्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे त्वं शोचितुमर्हसि।।27।। इनका अर्थ है कि मनुष्य जैसे पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण कर लेता है वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीर में चली जाती है। तेइसवें श्लोक में बताया गया है कि शस्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती अर्थात् प्रत्येक स्थिति में यह आत्मा अपरिवर्तनीय रहती है। सत्ताइसवें श्लोक का अर्थ है कि पैदा हुए मनुष्य की मृत्यु अवश्य होगी और मरे हुए मनुष्य का जन्म अवश्य ही होगा। इस जन्म मरण रूपी परिवर्तन के प्रवाह का निवारण नहीं हो सकता। अतः जन्म मृत्यु होने पर मनुष्य को हर्ष शोक नहीं करना चाहिये। गीता के इन श्लोकों में जो ज्ञान दिया गया है वह जन्म व मृत्यु की यथार्थ स्थिति को प्रस्तुत कर रहा है। संसार में हम सर्वत्र इन कथनों का पालन होते हुए देख रहे हैं।

 

संसार में हम प्रतिदिन मनुष्यों व अन्य प्राणियों के बच्चे व सन्तानों का जन्म होता हुआ देखते हैं। हम यह भी देखते हैं कि मानव व अन्य प्राणियों का शिशु समय के अनुसार बालक, किशोर, युवा, प्रौढ़ व वृद्ध होता है। वृद्धावस्था भी स्थाई नहीं होती। कुछ वर्षों बाद रोग व दुर्घटना आदि कोई कारण बन जाता है और मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के समय हम मृतक के लिये शोक वा दुःख व्यक्त करते हैं और उसकी आत्मा की शान्ति व सद्गति के लिए प्रार्थना करते हैं। ऐसा प्रायः सभी मतों व धर्मों के लोग करते हैं। जो लोग ईश्वर व आत्मा के पृथक अस्तित्व को नहीं मानते, वह भी मृत्यु होने पर दुःखी होते हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य व उसके परिजन नहीं चाहते कि उनमें से किसी की मृत्यु हो। हां, रोग आदि होने व अधिक समय तक स्वस्थ होने के स्थान पर अस्वस्थता के विकराल हो जाने पर अवश्य ही लोग विवशता में यह कहते हैं कि यदि इसकी मृत्यु हो जाये तो यह इन दुःखों से छूट सकता है। इन सब पर विचार करने से यह विदित होता है कि जिन लोगों के परस्पर परिचय व सम्बन्ध होते हैं उनमें एक दूसरे के प्रति प्रेम व मोह उत्पन्न हो जाता है। मिलने पर सुख का अनुभव होता है व अलग होने पर दुःख होता है चाहे यह वियोग दोनों के जीवित होने पर ही हो अर्थात् एक दूसरे से कुछ समय के लिए दूर जाने से हो। स्थाई रूप से वियोग अर्थात् मृत्यु का दुःख अधिक होता है। मृत्यु के समय पर हमारे प्रिय जन का भौतिक शरीर तो हमारे ही पास रहता है परन्तु उस शरीर में स्थित एक चेतन तत्व जीवात्मा के न रहने पर उसका शरीर निश्चेष्ट हो जाता है। शरीर के प्रति यद्यपि प्रियजनों को यह विश्वास होता है कि जिस व्यक्ति व पदार्थ से उनका प्रेम सम्बन्ध था वह यह शरीर नहीं, वह इससे भिन्न अन्य कोई था जो अब इसमें नहीं है और यह शरीर उसके न रहने से अब उनके किसी काम का नहीं है। शरीर से कुछ समय बाद दुर्गन्ध उत्पन्न होने लगती है जिसको अपने से दूर करना ही होता है। पर्यावरण प्रदुषण आरम्भ हो जाता है जिसके रोकने के लिए सर्वोत्तम उपाय उसका गोघृत, केसर व कस्तूरी व वनौषधि आदि सुगन्धित पदार्थों से उसे काष्ठ की चिता में जलाकर पंचतत्वों में विलीन किया जाता है। बहुत से लोग इस सर्वोत्तम प्रक्रिया को तत्वतः व यथार्थतः नहीं जानतेख् अतः वह अन्य प्रकार से  अन्त्येष्टि करते हैं जिसमें उनकी कुछ साम्प्रदायिक भावनाये व अज्ञान भी होता है। अब प्रश्न यह है कि शरीर से चेतन जीवात्मा कैसे निकलती है व कहां जाती है?

 

इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए वैदिक ज्ञान के प्राचीनतम व प्रमाणिक होने के साथ ही यह हमारा सहायक होता है। वैदिक ज्ञान के अनुसार यह समस्त संसार सत्व, रज व तम गुणों वाली अति सूक्ष्म मूल जड़ प्रकृति का विकार है जिसे ईश्वर अस्तित्व में लाता है। सृष्टि की रचना का कारण जीवों के पूर्वजन्मों के कर्म होते हैं जिनका भोग करना जीवात्माओं के लिए शेष रहता है। इन भोग करने वाले कर्मों के अनुसार ही ईश्वर जीवात्माओं को नाना प्रकार की योनियों में जन्म देता है। जिन-जिन योनियों में जिसको जन्म मिलता है, उन-उन योनियों में रहकर जीवात्मा अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का भोग करते हैं। भोग करने के बाद मृत्यु आने पर जो कर्म भोग करने के लिए शेष रह जाते हैं उनके अनुसार फिर नया जन्म होता है। मनुष्य योनि एकमात्र ऐसी योनि है जिसमें मनुष्य पूर्वजन्मों के कर्मों को भोगता भी है और नये शुभ व अशुभ कर्मों को करके उनका संचय कर आत्मा की उन्नति व अवनति करता है। इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि धर्मात्मा मनुष्य जन्म में आत्मा की उन्नति करते हैं और धर्महीन लोग अवनति कर दुःखों के भागी बन परजन्मों में दुःखों को भोगते हैं। जीवात्मा को मनुष्य जन्म में यह सुविधा भी दी गई है कि वह ईश्वरीय ज्ञान वेदों का अध्ययन करे, वेद विहित कर्मों ब्रह्मचर्य पालन, ईश्वरोपासना अर्थात् ईश्वर के गुणों का ध्यान व चिन्तन, यज्ञादि कर्म, माता-पिता-आचार्य आदि की सेवा व सत्कार, सभी प्राणियों के प्रति दया, हिंसा का पूर्ण त्याग, समाज व देश का उपकार आदि कार्य करे। यह सभी कर्म मनुष्य को बार-बार के जन्म व मृत्यु के चक्र से छुड़ाकर मोक्ष प्राप्ति में सहायक होते हैं। मोक्ष को प्राप्त जीवात्मा को अन्य जीवात्माओं की तरह बार-बार जन्म व बार-बार मरण की स्थिति से नहीं गुजरना पड़ता। मोक्ष की यह अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों की होती है। यह मोक्ष की अवस्था भी जीवात्मा का श्रेष्ठतम परलोक है। जिन जीवात्माओं के मनुष्य जन्म में वेद व वैदिक मान्यताओं के अनुसार श्रेष्ठ कर्म नहीं होते उनकी गीता के श्लोकों के अनुसार पुर्नजन्म होता है। मृत्यु के बाद जीवात्मा की आकाश व वायुमण्डल में स्थिति, उसके बाद पिता व माता के शरीरों में प्रवेश, गर्भावस्था में शरीर के निर्माण के बाद जन्म व जन्म से आगे मृत्यु का समय किसी भी जीवात्मा का परजन्म व परलोक होता है। हम इस संसार में मनुष्यों की सुख-दुःख व सुविधा व असुविधाओं सहित शरीर के सौन्दर्य व शक्तियों के अनुसार भिन्न-भिन्न स्थितियों को देखते हैं। इनमें से कुछ संसार व समाज निर्णीत हैं और कुछ ईश्वर द्वारा निर्धारित हैं। ईश्वर व संसार द्वारा निर्धारित हमारी परिस्थितियां ही हमारे पूर्वजन्म का परजन्म या परलोक है। जिस प्रकार हमारा यह जन्म व स्थिति हमारे पूर्वजन्म का परलोक है उसी प्रकार से हमारा अगला जन्म इस जन्म के कर्मानुसार श्रेष्ठ व निम्न मनुष्य योनि व गो आदि वा सर्प आदि योनियों में भी हो सकता है। यही हमारे इस जन्म का परलोक होगा।

 

मुक्ति भी जीवात्मा का परलोक ही होती है। मुक्ति विषयक महर्षि दयानन्द के यथार्थ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। (प्रश्न) मुक्ति किस को कहते हैं? (उत्तर) जिस में छूट जाना हो उस का नाम मुक्ति है। (प्रश्न) किस से छूट जाना? (उत्तर) जिससे छूटने की इच्छा सब जीव करते हैं। (प्रश्न) किससे छूटना चाहते हैं? (उत्तर) दुःख से। (प्रश्न) छूट कर किस को प्राप्त होते हैं और कहां रहते हैं? (उत्तर) सुख को प्राप्त होते और ब्रह्म में रहते हैं। (प्रश्न) मुक्ति और बन्धन किन किन बातों से होता है? (उत्तर) परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने, और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने, वैदिक पद्धति के अनुसार परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने-पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने, सब से उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करे वह सब पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार ही करे, इत्यादि साधनों से मुक्ति और इनसे विपरीत ईश्वर की आज्ञा भंग करने आदि काम से बन्ध अर्थात् जन्म-मरण रूपी बन्धन होता है। (प्रश्न) मुक्ति में जीव का लय होता है वा विद्यमान रहता है? (उत्तर) विद्यमान रहता है। (प्रश्न) कहां रहता है? (उत्तर) ब्रह्म में। (प्रश्न) ब्रह्म कहां है और वह मुक्त जीव एक ठिकाने रहता है वा स्वेच्छाचाचरी होकर सर्वत्र विचरता है? (उत्तर) जो ब्रह्म सर्वत्र पूर्ण है, उसी में मुक्तजीव अव्याहतगति अर्थात् उस को कहीं रुकावट नहीं, विज्ञान, आनन्द पूर्वक स्वतन्त्र विचरता है। (प्रश्न) मुक्त जीव का स्थूल शरीर रहता है वा नहीं? (उत्तर) नहीं रहता। (प्रश्न) फिर वह सुख और आनन्द का कैसे भोग करता है? (उत्तर) उसके सत्य संकल्पादि स्वाभाविक गुण, सामथ्र्य सब रहते हैं, भौतिक संग नहीं रहता, उनसे भोग करता है।

 

मोक्ष में भौतिक शरीर वा इन्द्रियों के गोलक जीवात्मा के साथ नहीं रहते किन्तु अपने स्वाभाविक शुद्ध गुण रहते हैं। जब सुनना चाहता है तब श्रोत्र, स्पर्श करना चाहता है तब त्वचा, देखने के संकल्प से चक्षु, स्वाद के अर्थ रसना, गंध के लिये घ्राण, संकल्प-विकल्प करते समय मन, निश्चय करने के लिये बुद्धि, स्मरण करने के लिये चित्त और अहंकार के अर्थ अहंकाररूप अपनी स्वशक्ति से जीवात्मा मुक्ति में हो जाता है और संकल्पमात्र शरीर होता है। जैसे शरीर के आधार रहकर इन्द्रियों के गोलक के द्वारा जीव स्वकार्य करता है वैसे अपनी शक्ति से मुक्ति में सब आनन्द भोग लेता है। (प्रश्न) उस की शक्ति कितने प्रकार की और कितनी है? (उत्तर) मुख्य एक प्रकार की शक्ति है, परन्तु बल, पराक्रम, आकर्षण, प्रेरणा, गति, भीषण, विवेचन, क्रिया, उत्साह, स्मरण, निश्चय, इच्छा, प्रेम, द्वेष, संयोग, विभाग, संयोजक, विभाजक, श्रवण, स्पर्शन, दर्शन, स्वादन और गंध ग्रहण तथा ज्ञान इन 24 चैबीस प्रकार के सामथ्र्ययुक्त जीव हैं। इन शक्तियों से मुक्ति में भी आनन्द की प्राप्ति व भोग करता है। जो मुक्ति में जीवात्मा का लय होता तो मुक्ति का सुख कौन भोगता? और जो जीव के नाश ही को मुक्ति समझते हैं वे तो महामूढ़ हैं क्योंकि मुक्ति जीव की यह है कि दुःखों से छूट कर आनन्द स्वरूप सर्वव्यापक अनन्त परमेश्वर में जीव का आनन्द में रहना।

 

मुत्यु और परलोक का संक्षिप्त विवरण हमने प्रस्तुत किया है। विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश का नवम समुल्लास द्रष्टव्य है। महर्षि दयानन्द वेदों व वैदिक साहित्य के महान ज्ञाता-विद्वान और योग की सिद्धि ब्रह्म वा ईश्वर साक्षात्कार को प्राप्त योगी थे। हमारा ज्ञान व अनुभव उनसे बहुत निम्न व अनेकानेक भ्राान्तियों से युक्त है। जिस प्रकार हम ज्ञान व विज्ञान में प्रमाणित विद्वानों की पुस्तकों पर विश्वास करते हैं उसी प्रकार हमें महर्षि दयानन्द के वचनों के अनुसंधान युक्त वा स्वानुभूत होने पर भी विश्वास करना चाहिये। उन्होंने केवल भाषण व ग्रन्थ ही नहीं लिखे अपितु अपनी समस्त शिक्षाओं को अपने जीवन में चरितार्थ भी कर दिखाया था। अतः मानवता के आदर्श महर्षि दयानन्द के मार्ग व शिक्षाओं को यदि हम अपनायेंगे तो लाभ में रहेंगे अन्यथा वर्तमान व भावी जन्मों में दुःखों से बच नहीं सकते। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

            –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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