Category Archives: वेद विशेष

‘मैं इष्ट वरदान देने वाली वेदमाता की स्तुति करता हूं’

ओ३म्

मैं इष्ट वरदान देने वाली वेदमाता की स्तुति करता हूं

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

अथर्ववेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। सृष्टि के आरम्भ में अंगिरा ऋषि को ईश्वर ने अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। 20 काण्डो वाले अथर्ववेद में कुल 731 सूक्त और 5977 मन्त्र हैं। उन्नीसवीं शताब्दी व उसके बाद अथर्ववेद के हिन्दी भाष्यकारों में पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी, पण्डित विश्वनाथ विद्यालंकार, पं. जयदेव शर्मा विद्यालंकार, पद्मविभूषण डा. दामोदर सातवलेकर  आदि भाष्यकार प्रमुख हैं। स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती और स्वामी ब्रह्ममुनि जी ने भी अर्थववेद का आंशिक भाष्य किया है। अथर्ववेद का अंग्रेजी में अनुवाद डा. सत्यप्रकाश सरस्वती और पंडित उदयवीर विराज ने संयुक्त रूप से किया है। अथर्ववेद के पाश्चात्य अंग्रेजी अनुवादकों में व्हिटनी, ब्लूमफील्ड और ग्रिफीथ महानुभाव सम्मिलित हैं। आज हम इस लेख में अथर्ववेद के उन्नीसवें काण्ड के इकहत्तरवें सूक्त का प्रथम वा एकमात्र मन्त्र प्रस्तुत कर उसका हिन्दी मे पदार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। वेदों के अनेक शब्द हिन्दी में ज्यों के त्यों व कुछ पाठ व प्रकार भेद से प्रचलित हैं जो अत्यन्त सरल एवं सुबोध हैं। यदि संस्कृत का व्याकरण जान लिया जाये तो वेद के मन्त्रों का अर्थ जानना व समझना सरल हो जाता है। हिन्दी भाष्यों के माध्यम से भी प्रत्येक हिन्दी पठित व्यक्ति वेदों का अध्ययन कर सकता है। अथर्ववेद का 19/71/1 मन्त्र निम्न हैः

 

ओ३म् स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।

आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्।

मह्यं दत्तवा व्रजत ब्रह्मलोकम्।।

 

इस मन्त्र के प्रत्येक पद वा शब्द का पं. विश्वनाथ विद्यालंकार कृत अर्थ हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। (मया) मैंने (वरदा) इष्टफल देनेवाली (वेदमाता) वेदरूपी माता का (स्तुता) स्तवन अर्थात् अध्ययन कर लिया है। (प्र चोदयन्ताम्) हे गुरुजनो ! इस का मुझे और प्रवचन कीजिये। (द्विजानाम् पावमनी) द्विजन्मों वा द्विजों को यह वेदमाता पवित्र करती है। (आयुः) स्वस्थ और दीर्घ आयु, (प्राणम्) प्राणविद्या, (प्रजाम्) उत्तम सन्तानों, (पशुम्) पशुपालन, (कीर्तिम्) पुण्य और यश, (द्रविणम्) धनोपार्जनविद्या, (ब्रह्मवर्चसम्) ब्रह्म के तेजस्वरूप का परिज्ञान इनका सदुपदेश (मह्यं दत्तवा) मुझे देकर, हे गुरुजनों ! (ब्रह्मलोकम्) आलोकमय ब्रह्म तक (व्रजत=वाज्रयत) मुझे पहुंचाइये।

 

पण्डित विश्वनाथ जी ने मन्त्रस्थ वेदमाता पद पर विचार करते हुए लिखा है कि ‘‘वेदमाता शब्द द्वारा वेदरूपी माता अर्थात् ‘‘वेदवाणी ही अभिप्रत है। वेदवाणी मातृसदृश उपकारिणी है। इस वेदमाता का ही स्तवन अर्थात् अध्ययन अथर्ववेद के 1 से 19 काण्डों तक अभिप्रत प्रतीत होता है जिसकी ओर कि निर्देश ‘‘स्तुता मया वरदा वेदमाता द्वारा किया गया है। उनके अनुसार मन्त्रस्थ शब्द ब्रह्मलोकम् का अर्थ ब्रह्म का दर्शन है। दर्शन शब्द का अर्थ साक्षात् ज्ञान लेना समीचीन है। आंखों से निराकार वस्तुओं को नहीं देखा जा सकता। इसी प्रकार सूर्यसम व उससे अधिक प्रकाशवान् पदार्थों को भी आंखों से समुचित रूप से नहीं देखा जा सकता व देखें तो आंखों को हानि की सम्भावना होती है। अतः ब्रह्म का साक्षात् ज्ञान ही ब्रह्मलोकम् शब्द से अभिप्रेत प्रतीत होता है। पं. विश्वनाथ जी ने यह भी लिखा है कि अभी तक मन्त्र के स्तोता वा उपासक ने आयुः, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, द्रविणं का प्रवचन गुरुमुख से सुना है। बह्मदर्शन (=ब्रह्मलोक) का वह मुख्यरूप से प्रवचन अभी तक नहीं सुन पाया, जिसका कि वर्णन अथर्ववेद के बीसवें काण्ड में है।

 

मन्त्र को साधारण व्यक्ति की भाषा मे इस प्रकार भी कह सकते कि मैंने वरदान देने वाली वेदमाता की स्तुति अर्थात् उसका यथोचित गुण कीर्तन व अध्ययन किया है। यह वेदवाणी अध्ययन करने वालों को प्रेरणा देने वाली है और उन अध्ययनकर्ता द्विजों को पवित्र करती है। इस वेदमाता वेदवाणी के अध्ययन से अध्येता को लम्बी आयु, स्वस्थ प्राण वा जीवन, प्रकृष्ट योग्य सन्तानें, दुग्ध देने वाली गाय, भेड़, बकरी व अश्व आदि पशु, यश व कीर्ति, भौतिक व आध्यात्मिक साधना रूपी धन सहित ब्रह्मवर्चस प्राप्त होता है। ब्रह्मवर्चस् हमें सब प्रकार के ज्ञान जिसमें आध्यात्मिक ज्ञान प्रमुख है, प्रतीत होता है जो कि वेदमाता के अध्ययनकर्ता को ही प्राप्त होता है। अन्त में वेदमाता के स्तोता की मृत्यु के समय वेदमाता अर्थात् परमात्मा अपने उस प्रिय अध्ययनकर्ता पुत्र को अपने पास ब्रह्लोक वा मोक्ष में ले जाती है। हमने यह अर्थ साधारण लोगों के लिए किया है। इतने अधिक लाभ वेदों को पढ़ने, अध्ययन, स्वाध्याय व स्तुति आदि प्रशंसा करने से मनुष्यों को प्राप्त होते हैं। अतः संसार के प्रत्येक मनुष्य को वेदमाता का स्वाध्याय नित्य प्रति अधिक से अधिक समय करना चाहिये जिससे उसे मन्त्रस्थ सभी प्रकार के लाभों व धनों की प्राप्ति हो।

 

इन पंक्तियों को लिखने का हमारा प्रयोजन वेदमाता विषयक वेदमन्त्र के अर्थ को पाठकों को परिचित कराना है जिससे पाठक वेदमन्त्र निहित विचारों से लाभान्वित हो सकें। अपनी जन्मदात्री माता से भी इसी प्रकार के अनेकानेक लाभ सन्तान को प्राप्त होते हैं। अतः हमें अपनी माता की भी सेवा व प्रशंसा तथा उसको अपना सर्वस्व अर्पण कर उसकी स्तुति करनी चाहिये। आशा है कि पाठक इससे लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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सृष्टि का आरम्भ और कृषि विज्ञान

ओ३म्

सृष्टि का आरम्भ और कृषि विज्ञान

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ज्ञान और विज्ञान परस्पर पूरक शब्द हैं। वस्तुओं का साधारण ज्ञान सामान्य ज्ञान के अन्तर्गत आता है और उनका विशेष ज्ञान विज्ञान कहलता है। कृषि का तात्पर्य मनुष्यों के आहार के पदार्थो यथा फल, वनस्पतियां व अन्न आदि का अच्छा व गुणवत्तायुक्त प्रचुर मात्रा में उत्पादन करने को कह सकते हैं। सृष्टि के आरम्भ मे जब प्रथम मनुष्यों अर्थात् स्त्री व पुरुषों का जन्म हुआ होगा तो उन्हें श्वांस के लिए वायु, पिपासा की शान्ति के लिए शुद्ध जल व क्षुधा निवृत्ति के लिए भोजन की आवश्यकता पड़ी होगी। हम वेदादि ग्रन्थों के अध्ययन से यह समझ पायें हैं कि सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य युवावस्था में उत्पन्न हुए थे। इसका कारण यह है कि यदि वह बच्चे होते तो उनका पालन-पोषण करने के लिए माता-पिता की आवश्यकता होती जो कि आरम्भ में नहीं थी और यदि वह वृद्ध उत्पन्न होते तो उनसे सन्तानों आदि के न होने से सृष्टि का क्रम आगे नहीं चल सकता था। अतः यह मानना होगा और यही सत्य है कि सृष्टि क आरम्भ में मनुष्य युवावस्था में पृथिवी माता के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। दूसरा प्रश्न यह है कि पृथिवी की आरम्भ अवस्था कैसी थी और सृष्टि कहां उत्पन्न हुई थी। इसका उत्तर यह मिलता है कि मानवोत्पत्ति के समय पृथिवी पूर्णतयः निर्मित होकर सामान्य स्थिति में आ चुकी थी। इस पर वायु सर्वत्र बह रही थी, शुद्ध जल भी यत्र-तत्र वा स्थान-स्थान पर नदियों, नहरो व जल स्रोतों में उपलब्ध था। मनुष्यों के निकट ही फलों के वृक्ष थे जिनमें नाना प्रकार के फल लगे हुए थे। आस पास गौवें भी थी जो दुग्ध देने वाली थी। मनुष्यों के उत्पत्ति स्थान तिब्बत वा त्रिविष्टिप के पास की समतल भूमि पर खाद्य अन्न व वनस्पतियां भी लहलहा रहीं थी। सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को चार वेदों का ज्ञान ईश्वर से मिला। इस वेद ज्ञान को ईश्वर ने चार ऋषियों के अन्तःकरणों में स्थापित किया। वेदों की भाषा व वेदों के अर्थ का ज्ञान भी ऋषियों को प्राप्त हुए ज्ञान में सम्मिलित था। हम समझते हैं कि ऋषियों से इतर स्त्री व पुरुषों को भी आवश्यकतानुसार परस्पर व्यवहारार्थ भाषा ज्ञान सहित भोजन आदि करने कराने का ज्ञान भी सृष्टिकत्र्ता द्वारा अवश्य दिया गया होगा। जिस ईश्वर ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड वा सृष्टि सहित मनुष्य आदि सभी प्राणियों को बनाया वह आदिकालीन मनुष्यों को भोजन व परस्पर व्यवहार का ज्ञान उनके अन्तःकरण वा आत्मा में न दे, ऐसा मानना यथार्थ को झुठलाने के समान है। यह ज्ञान भी अवश्य ही दिया गया था। इस तथ्य को मानने पर सृष्टि के आदि काल संबंधी सारी गुत्थियां सुलझ जाती है। विधि वा कानून का सिद्धान्त है कि वह Benefit of doubt का लाभ पीडि़त व्यक्ति को देता है। सृष्टि के आरम्भ में जिन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते उसका लाभ ईश्वर विषयक सिद्धान्त को मानकर ही करना होगा। संसार के प्राचीनतम ग्रन्थ वेद और वैदिक साहित्य इस विषय में प्रमाण हैं और इसका अन्य कोई विकल्प हमारे व किसी के पास नहीं है। संशय पालने व नाना कल्पनायें करने से कोई लाभ नहीं है। इस प्रकार ईश्वर से वेदों का ज्ञान, मनुष्यों को व्यवहार व भोजन आदि का ज्ञान तथा सृष्टि में उत्पन्न व उपलब्ध भोज्य व अन्य पदार्थों का ज्ञान आरम्भ में ईश्वर वा वेदों से ही मिला था जिसमें कृषि का ज्ञान भी सम्मिलित है।

 

वेद मन्त्रों के अर्थ जानने की अपनी प्रक्रिया है। इसके लिए अध्येता को संस्कृत की आर्ष व्याकरण पद्धति से मन्त्र का पदच्छेद कर उसके सम्भावित अर्थों पर विचार करना पड़ता है। वर्तमान में निरुक्त एवं निघण्टु ग्रन्थ हैं जिससे पदों के अर्थ व उनके निर्वचन देख कर सार्थक अर्थ ग्रहण किये जाते हैं। अर्थ जानने के लिए बुद्धि की ऊहा शक्ति से चिन्तन, मनन कर व ध्यान द्वारा अर्थ में प्रवेश करना होता है। यदि पूर्व ऋषियों व विद्वानों के लिए हुए अर्थ उपलब्ध हो तो उनका भी सहयोग लेकर यथार्थ अर्थ ग्रहण किया जाता है। ऐसा ही कुछ-कुछ वेदार्थ का प्रकार सृष्टि के आरम्भ व उसके बाद रहा है। वेद के अध्येता को यह भी निश्चय करना चाहिये कि वेद ईश्वरीय ज्ञान होने सहित सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इसमें सृष्टि क्रम वा ज्ञान-विज्ञान विरुद्ध कोई बात नहीं है। यदि कहीं भ्रम हो तो उसे अपनी ऊहा व चिन्तन-मनन आदि से दूर करना चाहिये। विचार व चिन्तन करने पर यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने कुछ सौ या कुछ हजार की संख्या में स्त्री व पुरुषों को उत्पन्न किया होगा। उस ईश्वर ने चार ऋषियों को वेद ज्ञान दिया तथा इन चार ने अन्य ऋषि ब्रह्मा को इन चारों वेदों का ज्ञान दिया। परस्पर संवाद व संगति से पांचों ऋषि वेदों के पूर्ण ज्ञानी हो गये थे, यह अनुमान होता है। इन पांच ऋषियों ने शेष मनुष्यों को एकत्र कर भाषा व वेदों का आवश्यकतानुसार ज्ञान दिया होगा। इस कार्य के अतिरिक्त इन पांच ऋषियों के पास अन्य कोई कार्य करने के लिए था ही नहीं। यह भी ज्ञात होता है कि यह पांचों ऋषि योगी थे। यह प्रातः व सायं ईश्वर का घंटों ध्यान व चिन्तन करते थे। इस अवस्था में इन्हें ईश्वर से अपने सभी प्रश्नों व शंकाओं के उत्तर मिल जाते थे। इससे कृषि कार्य सम्पादित करने में इन्हें किसी विशेष समस्या से झूझना नहीं पड़ा होगा। आज भी हम यही तो करते हैं कि हमें जिस बात का ज्ञान नहीं होता उसके लिए हम अन्य अनुभवी व वृद्धों की शरण में जाकर पूछताछ कर व निजी ध्यान-चिन्तन-मनन से समस्या का हल करते हैं। इसी प्रकार से कृषि विज्ञान विकसित हुआ और महाभारत काल तक उन्नति को प्राप्त होता गया।

 

आईये ! कुछ वेद प्रमाणों पर भी विचार करते हैं। यजुर्वेद 23/46 में कहा गया है भूमिरावपनं महत् अर्थात् (बीज) बोने काकृषि कामहान् स्थान भूमि ही है। इससे हमारे प्रथम पीढ़ी के पूवर्जों को यह ज्ञान मिल गया कि अन्न आदि खाद्य पदार्थ प्राप्त करने के लिए उन्हें पृथिवी में बीज वपन करने होंगे। यजुर्वेद के मन्त्र 4/10 में कहा गया है सुसस्याः कृषीस्कृधि अर्थात् उत्तम अन्नों की कृषि करें एवं करावें। मंत्र में सुसस्या कहकर खराब अन्न उत्पन्न करने का निषेध किया गया है। खराब अन्न की उत्पत्ति का समाज के जीवन पर प्रतिकूल ही प्रभाव पड़ता है। अन्नं वै प्राणिनां प्राणाः कहकर बताया गया है कि अन्न प्राणियों का जीवन है अर्थात् प्राण है। प्राण ही जीवन एवं जीवन ही प्राण होता है। प्राण नहीं तो जीवन नहीं और जीवन नहीं तो प्राण नहीं।अन्नं प्राणस्य षड्विंशः अन्न हमारे प्राण का छब्बीसवां भाग बनता है, अतः यदि हम खराब-दूषित या मलिन अन्न का सेवन करेंगे तो उसका प्रभाव हमारे जीवन पर अनिवार्य रूप से खराब ही पड़ेगा। जिस प्रकार विषयुक्त अन्न के सेवन से शरीर विषाक्त हो जाता है और जीवन की हानि होती है उसी प्रकार दूषित अन्न के सेवन करने से समाज के व्यक्तियों के शरीर एवं मन के संस्कार भी दूषित हो जाते हैं। बुद्धि भी दूषित हो जाती है। अतः कृषि के कार्य को उत्तम रीति से एवं सुसंस्कारपूर्वक करना चाहिए। यहां यह भी ध्यातव्य है कि वर्तमान समय में अधिकाधिक कृषि उत्पादन पर ही ध्यान दिया जाता है न कि अन्न की गुणवत्ता, पवित्रता, शुद्धता व विषमुक्तता पर जिसके बुरे परिणाम रोगों व अल्पायु के रूप में हमारे सामने हैं।

 

कृषि को अच्छी प्रकार करने के वेदों ने अनेक उपाय बतायें हैं वा मनुष्यों का मार्गदर्शन किया है। वेद के अनुसार कृषि कार्य में यज्ञ का उपयोग करना चाहिये। यजुर्वेद 18/9 में कहा है कृषिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् अर्थात् कृषि के लिए भूमि को उपयोगी बनाते समय यज्ञ का प्रयोग करो। यज्ञ से भूमि कृषि कार्य में समर्थ शक्तिशाली बनेगी। यज्ञ करने से भूमि की उत्पादन सामर्थ्य में वृद्धि होगी। कृषि कार्य में असमर्थ भूमि में यज्ञ करने से वह कृषि के लिए समर्थ होगी और कृषि भूमि में यज्ञ करने से उसकी उर्वरा शक्ति में वृद्धि होगी। यज्ञ से भूमि माता कृषि के लिए समर्थ बने, यह प्रार्थना यजुर्वेद 18/22 मन्त्र पृथिवी मे यज्ञेन कल्पन्ताम्। में की गई है। यज्ञ किए बिना पृथिवी को जीवन नहीं मिलेगा। यज्ञ करने से भूमि में विद्यमान तत्व एवं द्रव्य शक्ति सम्पन्न होते हैं। कृषि का वृष्टि वा वर्षा से गहरा सम्बन्ध है। यजुर्वेद 18/9 मन्त्र में कहा गया है वृष्टिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् कृषि के लिए वर्षा जल की आवश्यकता है वह वर्षा जल भी यज्ञ के द्वारा समर्थ होना चाहिये। कृषि के लिए जो जल वृष्टि से प्राप्त हो वह यज्ञ से सुसंस्कृत हो और उसी वृष्टि जल से पूर्ण नदी, तालाब, कूवे, बावड़ी, रूीलें भी हों जिससे वृक्ष, वनस्पतियों को सदा यज्ञ का जल प्राप्त होता रहे। प्रकृतिस्थ वृक्ष वनस्पतियों को जो वायु प्राप्त हो वह भी यज्ञ द्वारा सुसंस्कृत हो। इस विषयक यजुर्वेद मन्त्र 18/17 मरुतश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्। अर्थात् वायु भी यज्ञ के द्वारा समर्थ हो। कृषि कार्यों से संबंधित यजुर्वेद का एक मन्त्र 9/22 नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्या ….. कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा रय्यै त्वा पोषाय त्वा।। भी महत्वपूर्ण है। इसमें कहा गया है कि हे भूमि माता ! तुझे प्रणाम हो। हे भूमि माता ! तुझे शतशः वन्दन है। तुझे कृषि के लिए हम स्वीकार करते हैं। तुझे अपनी रक्षा के लिए ग्रहण करते हैं। तुझे ऐश्वर्य के लिए हम चाहते हैं और तुझे अपने पोषण के लिए माता तुल्य वन्दनीय समझते हैं।

 

इस लेख में हमने जो विवरण प्रस्तुत किया है उसके आधार पर यह निश्चित है कि कृषि का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा के मिले वेदों के ज्ञान वा उनकी शिक्षा से हुआ। वेदों के आधार पर सृष्टि के आरम्भ में हमारे पूर्वजों ने कृषि करके कृषि विषयक अपने ज्ञान व अनुभव को बढ़ाते हुए प्रगति करते रहे। महाभारतकाल के बाद आलस्य व प्रमाद के कारण वैदिक ज्ञान का सूर्य लुप्त हो गया जिससे सभी क्षेत्रों में अवनति हुई। कृषि क्षेत्र में भी ज्ञान की न्यूनता आई। आज सौभाग्य से सभी क्षेत्रों में ज्ञान की निरन्तर वृद्धि हो रही है अर्थात् विलुप्त ज्ञान का प्रकाश हो रहा है। आज भी कृषि के क्षेत्र में शुद्ध, पवित्र तथा दूषित अन्न के परस्पर भेद का हमारे कृषकों व देशवासियों को ज्ञान नहीं है। यज्ञ व कृषि का परस्पर गहरा सम्बन्ध है, इससे भी विश्व अनभिज्ञ है। यज्ञ व कृषि पर अनुसंधान कर वेद वर्णित विज्ञान को समझना आज के समय की मुख्य आवश्यकता है। यदि हमें वेदानुसार यज्ञ का अनुष्ठान करते हुए कृषि करेंगे तो हमें शुद्ध अन्न प्राप्त होगा जिससे रोग न्यूनातिन्यून होंगे। कृषि कार्यों में वेदों से मार्गदर्शन लिया जाना चाहिये। हमने इस लेख में आर्यजगत के विद्वान स्व. श्री वीरसेन वेदश्रमी जी के ग्रन्थ वैदिक सम्पदा की सामग्री का उपयोग किया है। उनका धन्यवाद कर इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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‘सृष्टि उत्पत्ति विषयक वैदिक सिद्धान्त और महर्षि दयानन्द’

ओ३म्

सृष्टि उत्पत्ति विषयक वैदिक सिद्धान्त और महर्षि दयानन्द

 

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में महाभारत काल के बाद उत्पन्न मत-मतान्तरों के साहित्य में अनेक प्रकार की अवैज्ञानिक व अविश्वनीय विचार पायें जाते हैं। महर्षि दयानन्द इन सबमें अपवाद हैं। उनके जीवन में शिवरात्रि को घटी चूहे की घटना बताती है कि उन्होनें किशोरावस्था में ही जीवन की सभी बातों को तर्क व युक्ति के आधार पर सिद्ध होने पर ही स्वीकार करने का मन बना लिया था। यही कारण था कि वइ ईश्वर, जीव, प्रकृति व सृष्टि विषयक सत्य ज्ञान की खोज में अनेक वर्षों तक अध्ययन व अनुसंधान आदि करते रहे। उन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति विषयक अपने विचार मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में व्यक्त किये हैं जिनका आधार वेद, दर्शन व उपनिषद आदि ग्रन्थ हैं। हमनें भी महर्षि दयानन्द के इस विषय के विचारों का अनेक बार पाठ व मनन किया है और हमारा विश्वास है कि आने वाले समय में विज्ञान इन विचारों को पूर्णतः स्वीकार कर लेगा जिसका कारण वेदों का ईश्वर प्रदत्त होने से निर्भ्रांत होना व वैदिक साहित्य अल्पज्ञ वैज्ञानिकों से भी कहीं अधिक उच्च ज्ञान व विज्ञान के उच्च कोटि के चिन्तक मनीषी ऋषियों की देन है।

 

सत्यार्थप्रकाश में ऋग्वेद 12/129/7 मन्त्र के आधार पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि यह विविध सृष्टि इस जगत के स्वामी ईश्वर से प्रकाशित हुई है। वह इस जगत् का धारण व प्रलयकर्त्ता है। इस सृष्टि को बनाने वाला ईश्वर इस जगत में व्यापक है। उसी से यह सब जगत उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय को प्राप्त होता है। मनुष्य अर्थात् आत्मा को उस परमात्मा को जानना चाहिये और उसके स्थान पर किसी अन्य को सृष्टिकर्त्ता नहीं मानना चाहिये। ऋग्वेद के मन्त्र 10/29/3 में बताया गया है कि जगत की रचना से पूर्व सब जगत् अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सम्मुख एकदेशी आच्छादित था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से इस कारणरूप जगत् को कार्यरूप कर दिया अर्थात् बना दिया। ऋग्वेद के मन्त्र 10/129/1 में कहा गया है कि सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थो का आधार और जो यह जगत् हुआ है और होगा उस का एक अद्वितीय पति परमात्मा इस जगत् की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था और जिस ने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त जगत् को उत्पन्न किया है, हे मनुष्य ! उस परमात्म देव की प्रेम से भक्ति किया करें। यजुर्वेद के मन्त्र 31/2 में ईश्वर ने बताया है कि जो ईश्वर सब सृष्टिगत पदार्थों में पूर्ण पुरुष है, जो नाशरहित कारण जड़ प्रकृति और जीव का स्वामी है तथा जो पृथिव्यादि जड़ और जीव से अतिरिक्त है, हे मनुष्य ! वही पुरुष इस सब भूत, भविष्यत् और वर्तमानस्थ जगत् का बनाने वाला है, ऐसा सब मनुष्यों को जानना चाहिये। तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया है कि जिस परमात्मा द्वारा रचना करने से ये सब पृथिव्यादि भूत पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जिस से जीते और जिससे जिसमें प्रलय को प्राप्त होते हैं, वह ब्रह्म है। उस को जानने की इच्छा सभी मनुष्यों को करनी चाहिये। शारीरिक सूत्रों में कहा गया है कि इस जगत् का जन्म, स्थिति और प्रलय जिस से होता है, वह ब्रह्म है और वह जानने के योग्य है।

 

प्राचीन वैदिक सिद्धान्तों के अनुसार यह समस्त जगत् इसको बनाने वाले निमित्त कारण परमेश्वर से उत्पन्न हुआ है। परमेश्वर ने इस जगत् को उपादान कारण अर्थात् सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म व मूल प्रकृति से बनाया है। इस मूल प्रकृति को ईश्वर ने उत्पन्न नहीं किया। यह भी जानने योग्य है कि संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति, यह तीन पदार्थ अनादि व नित्य हैं। इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है वह इस संसार में पापपुण्यरूप फलों को अच्छे प्रकार भोक्ता है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को न भोक्ता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर व बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप व तीनों अनादि हैं। उपनिषद् में बताया गया है कि प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज अर्थात् जिन का जन्म कभी नही होता और न कभी यह तीन पदार्थ जन्म लेते हैं अर्थात् ये तीन पदार्थ सब जगत् के कारण हैं। इन का कारण कोई नहीं। इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ शुभ व अशुभ कर्म के बन्धनों में फंसता है और उस में परमात्मा नहीं फंसता क्योंकि वह प्रकृति व उसके पदार्थों का भोग नहीं करता।

 

प्रकृति क्या है, इसका वर्णन सांख्य दर्शन में है। इसके अनुसार प्रकृति (सत्व) शुद्ध (रजः) मध्य (तमः) जाड्य अर्थात् जडता गुणों से युक्त है। यह तीन गुण मिलकर इनका जो संघात है उस का नाम प्रकृति है अर्थात् सत्व, रज व तम गुणों का संघात प्रकृति के सूक्ष्तम कण की एक इकाई के समान है। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर इस प्रकृति के सूक्ष्म सत्व, रज व तम कणों में अपनी मनस शक्ति से विकार व विक्षोभ उत्पन्न कर इनसे महत्तत्व बुद्धि, उससे अर्थात् उस महतत्व बुद्धि से अहंकार, उस से पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये चौबीस पदार्थ बनते हैं। पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर हैं। इनमें से सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति अधिकारिणी और महतत्व बुद्धि, अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य हैं। यही पदार्थ इंद्रियों, मन तथा स्थूल भूतों के कारण हैं। पुरुष अर्थात् जीवात्मा न किसी की प्रकृति, न किसी का उपादान कारण और न किसी का कार्य है। एक उपनिषद वचन में कहा गया है कि हे श्वेतकेतो ! यह जगत् सृष्टि के पूर्व सत्, असत्, आत्मा और ब्रह्मरूप था। वही परमात्मा अपनी इच्छा से प्रकृति जीवों के द्वारा बहुरूप वा जगतरूप हो गया।

 

जगत् की उत्पत्ति के तीन कारण क्रमशः निमित्त, उपादान तथा साधारण, यह तीन कारण होते हैं। निमित्त कारण उसको कहते हैं कि जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने, आप स्वयं बने नहीं और दूसरे को प्रकारान्तर बना देवे। दूसरा उपादान कारण उस को कहते हैं जिस के बिना कुछ न बने, वही अवस्थान्तर रूप होकर बने व बिगड़े भी। तीसरा साधारण कारण उस को कहते हैं कि जो बनाने में साधन और साधारण निमित्त हो। निमित्त कारण दो प्रकार के होते हैं। एक-सब को कारण से बनाने, धारण करने और प्रलय करने तथा सब की व्यवस्था रखने वाला मुख्य निमित्त कारण परमात्मा। दूसरा-परमेश्वर की सृष्टि में से पदार्थों को लेकर अनेकविध कार्यान्तर बनाने वाला साधारण निमित्त कारण जीव। सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति को कहते हैं। प्रकृति वा परमाणुरूप प्रकृति जिस को सब संसार के बनाने की सामग्री कहते हैं। वह जड़ होने से अपने आप बन और बिगड़ सकती है किन्तु दूसरे के बनाने से बनती और बिगाड़ने से बिगड़ती है। कहींकही जड़ के निमित्त से जड़ भी बन और बिगड़ भी जाता है। जैसे परमेश्वर के रचित बीज पृथिवी से गिरने और जल पाने से वृक्षाकार हो जाते हैं और अग्नि आदि जड़ के संयोग से बिगड़ भी जाते हैं। परन्तु इनका नियमपूर्वक बनना और वा बिगड़ना परमेश्वर और जीव के आधीन है।

 

जब कोई वस्तु बनाई जाती है तब जिन-जिन साधनों का प्रयोग करते हैं वह ज्ञान, दर्शन, बल, हाथ और नाना प्रकार के साधन कहलाते हैं और दिशा, काल और आकाश साधारण कारण होते हैं। जैसे घड़े का बनाने वाला कुम्हार निमित्त कारण, मिट्टी उपादान कारण और दण्ड चक्र आदि सामान्य कारण। दिशा, काल, आकाश, प्रकाश, आंख, हाथ, ज्ञान, क्रिया आदि साधारण और निमित्त कारण भी होते हैं। इन तीन कारणों के बिना कोई भी वस्तु नहीं बन सकती और न बिगड़ सकती है।

 

इस प्रकार से यह समस्त जगत् जिसमें सूर्य, चन्द्र, तारें, पृथिवी व पृथिवी के सभी पदार्थ तथा प्राणी जगत सम्मिलित है निमित्त कारण ईश्वर द्वारा उपादान कारण परमाणु रूप प्रकृति से बनाये गये हैं। परमात्मा के सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, अनादि, नित्य आदि गुणों से युक्त होने से उसके द्वारा सृष्टि बनाने व उसे संचालित करने में असम्भव जैसा कुछ भी नहीं है। यह वर्णन पूर्णतः सत्य, वैज्ञानिक, तर्क संगत, विश्वसनीय, निभ्र्रान्त व वेदों के प्रमाणों से पुष्ट है। अतः इस सिद्धान्त को सभी आध्यात्मवादियों व भौतिक विज्ञान के वैज्ञानिकों को मानना चाहिये। इसके विपरीत वैज्ञानिकों के पास अभी तक सृष्टि उत्पत्ति का कोई सन्तोषजनक उत्तर इसलिए नहीं है कि यह सृष्टि अनादि निमित्त कारण ईश्वर द्वारा अनादि उपादान कारण प्रकृति से निर्मित की गई है जिसका उद्देश्य अनादि जीवात्माओं को उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का सुख व दुःखरूपी फल प्रदान करना है। सृष्टि रचना विषयक इस ज्ञान के विस्तार व संशयों के निवारण के लिए महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश का आठवां समुल्लास व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के सृष्टि की रचना व उत्पत्ति के प्रकरणों को देखना चाहिये। वेद, उपनिषदों व दर्शनों का अध्ययन भी इस विषय की सभी शंकाओं को दूर करता है। योग का अभ्यास, ध्यान व समाधि से भी ईश्वर द्वारा सृष्टि रचना का यह गुप्त व सूक्ष्म विषय जाना जा सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख से लाभान्वित होंगे। इसी के साथ लेखनी को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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ईश्वर अवतार नहीं लेता

ईश्वर अवतार नहीं लेता

– डॉ. ब्रजेन्द्रपाल सिंह

ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, अनादि व अनन्त अजन्मा आदि गुणों वाला है, ऐसा वेद में वर्णन है, परन्तु पौराणिक भाई मानते हैं कि ईश्वर जन्म लेता है, जिसे अवतारवाद कहते हैं। राम को ईश्वर का अवतार मानते हैं, कृष्ण को भी ईश्वर का अवतार मानते हैं। यह भी मानते हैं कि किसी भी रूप में ईश्वर धरती पर जन्म लेकर आता जाता है।

अवतारवाद पूर्णतः वेद विरुद्ध है। वेद में ईश्वर के जन्म लेने व अवतार का कहीं वर्णन नहीं, अपितु वह अजन्मा है, जन्म नहीं लेता, अनादि है। उसका न आदि है, न अन्त है। वह एक स्थान पर नहीं रहता, सर्वव्यापक है, कण-कण में समाया है। हमारे अन्दर बाहर है, आकाश- जल- थल- पृथ्वी- चन्द्रमा- सूर्य और उससे आगे तक भी है, जहाँ हमारा मन नही पहुँचता, वहाँ भी है। पहले से है, सृष्टि की उत्पत्ति से पहले भी रहता है, प्रलय के बाद भी रहता है, सर्वशक्तिमान् है, अपनी शक्ति से ग्रह, तारों को घुमा रहा है। यह सब जगत् उसी का है, उसने ही तो बनाया है, नियम से चला रहा है-

ईशावास्यमिदं सर्वयत्किञ्च जगत्यां जगत्।

तेन व्यक्तेन भुञ्जीथा मा ग्रधः कस्यस्विद्धनम्।।

ईशोपनिषद्

अर्थात् इस संसार में जो भी यह जगत् है, सब ईश्वर से आच्छादित है, अर्थात् ईश्वर सृष्टि के कण-कण में बसा है, सर्वव्यापक है। यह सब धनादि जिसका हम उपयोग कर रहे हैं, सब उसका ही है। हम यह सोच कर प्रयोग करें कि यह हमारा नहीं है। जो कुछ हमें उस प्रभु ने दिया है, उस सबका त्याग के भाव से प्रयोग करें।

सृष्टि में जो कुछ भी है, उसी का है। ग्रह, उपग्रह, पृथ्वी व चन्द्रमा आदि निश्चित वेग से घूम रहे हैं, एक नियम से चक्कर काट रहे हैं, गति कर रहे हैं। समय पर ऋतुएँ आती है, जाती हैं। वह जगत् को नियम में चला रहा है।

वह बिना जन्म लिए ही सब काम कर रहा है। उसे जन्म लेने की क्या आवश्यकता है? कहते हैं, रावण को मारने के लिए राम के रूप में ईश्वर ने अवतार लिया या जन्म लिया- ये सब बातें काल्पनिक हैं, मन गढ़न्त हैं। पूरी सृष्टि को चलाने वाला बिना जन्म लिये ही सब कार्य कर रहा है, सब पर उसकी दृष्टि है, सब देख रहा है। ब्रह्माण्ड में ग्रह तारे सब गति कर रहे हैं, कभी किसी से टकराते नहीं, जैसे कि चौराहे पर ट्रैफिक कण्ट्रोलर यातायात को कण्ट्रोल करता रहता है। यदि यातायात को नियन्त्रण न किया जाय तो यातायात अवरुद्ध हो जाएगा, गाड़ियाँ आपस में टकराएँगी, परन्तु यातायात नियंत्रक के कारण सब ओर की गाड़ियाँ बिना अवरोध के ही आती-जाती रहती हैं। यही प्रक्रिया सृष्टि को चलाने वाले उस परमात्मा की है, वह सबको देखने वाला है, कर्मों के अनुसार फल देने वाला है, जो हम सोचते हैं वह सब जानता है, परन्तु वह भोक्ता नहीं, वह सत्य चेतन आनन्द स्वरूप है। यहाँ जन्म तो वही लेगा, जिसे कर्मों का फल भोगना है। जीव बार-बार जन्म लेता है, मोह माया में बँधा हुआ है। ईश्वर मोह माया में बँधा नहीं, वह तो जगत् नियन्ता है, जगत् को चला रहा है, सबको देख रहा है, अनादि है, अनन्त है। तीन तत्त्व अनादि अनन्त है- परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति –

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नवन्यो अभिचाक शीतिः।

– ऋग्वेद 1/164/20

यहाँ यही बताया है कि एक वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं, उनमें एक उस वृक्ष के खट्टे-मीठे फलों का स्वाद चख रहा है, दूसरा उस पक्षी को देख रहा है, स्वाद नहीं चख रहा। आलंकारिक भाषा में यहाँ त्रिविध अनादि तत्त्व ईश्वर, जीव व प्रकृति का वर्णन है। वृक्ष प्रकृति के रूप में दर्शाया है, देखने वाले पक्षी का संकेत ईश्वर के लिए तथा फल खाने वाला पक्षी का जीव की ओर संकेत है। ईश्वर इस प्रकृति में जीव के कर्मों को देख रहा है। वह कर्मों का भोक्ता नहीं है। जब भोक्ता नहीं तो जन्म किसलिए? वह तो सर्वव्यापक विभु है, सर्व शक्तिमान् है, अपनी शक्ति से सृष्टि को चला रहा है। रावण हो या दुर्योधन, सबने अपने कर्मों को भोगा। ईश्वर के अवतार से राम का कोई समबन्ध नहीं। वे कौशल्या के गर्भ से पैदा हुए, संसार में आए और उन्होंने अपने कर्म किए। उनका कर्म उनके साथ था। वे दशरथ के पुत्र थे। ईश्वर किसी का पुत्र नहीं, अपितु सबका पिता है। कर्मफल भोक्ता तो गर्भ में भी रहेगा, जन्म भी लेगा, दुःख भी सहेगा, क्लेश भी सहेगा, माया-मोह के बन्धन में भी रहेगा, मृत्यु भी होगी। यह गुण कर्मफल भोक्ता जीव के तो हैं, ईश्वर के नहीं, अतः राम को ईश्वर बताना न तर्कसंगत है, न युक्ति युक्त। राम दशरथ नन्दन थे, राजा मर्यादा पुरुषोत्तम थे। वेदानुसार चलने वाले थे। उनका जीवन हमारे लिए प्रेरणा प्रदान करता है।

एक ओर हम महापुरुषों को अवतार बताते हैं, दूसरी ओर उनके चरित्र पर लांछन लगाते हैं। जिन राम का हम सुबह-शाम, उठते-बैठते जागते-सोते समय नाम लेते हैं, उनके आचरणों का पालन नहीं करते, उनके जीवन से शिक्षा नहीं लेते। मुँह में पान, तबाकू, बीड़ी, सिगरेट, हुक्का लगा रहता है और राम का नाम लेते हैं। उससे क्या लाभ? राम तो धूम्रपान नहीं करते थे, मद्य नहीं पीते थे, हुक्का, तमबाकृ नहीं लेते थे, फिर हम क्यों करते हैं? हमें इन मादक द्रव्यों को त्याग कर जैसा आचरण राम का भाइयों के साथ माताओं के साथ प्रजा के साथ था, वैसा करना चाहिए। राम मनुष्य थे, राजा थे, कर्त्तव्य परायण थे, माता पिता के आज्ञाकारी थे, धर्म व मर्यादा पालक थे, निराभीमानी थे, प्रजा वत्सल थे, जन-जन के प्यारे थे, वह ईश्वर नहीं थे, अवतार नहीं थे।

हमें सत्यासत्य का विवेकपूर्ण निर्णय लेना चाहिए और अपने सत्याचारी वेदानुयायी महापुरुषों को जैसे थे वैसा ही मानकर उनके सद्गुणों को जीवन में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए।

– चन्द्रलोक कॉलोनी खुर्जा (बुलन्दशहर)

मो. 8979794715

सरमा पणि संवाद – एक विवेचन

सरमा पणि संवाद – एक विवेचन

– उदयन आर्य

विश्व के पुस्तकालय में उपलबध प्राचीनतम ग्रन्थ वेद है। प्राचीन भारतीय ऋषियों का मन्तव्य है कि सृष्टि के आदि में परमपिता परमात्मा ने ऋषियों के माध्यम से यह ज्ञान मनुष्यों को प्रदान  किया। ये वेद परम पिता के निःश्वास के समान हैं। इन ऋचाओं का मुखय विषय स्तुति है और इस स्तुति के माध्यम से ऋषि परमात्मा के गुणों को अपने अन्दर धारण करने का प्रयास करते हैं। मंगलेच्छुक मनुष्य परम पवित्र इन ऋचाओं का अध्ययन करता है और स्वयं परमात्मा से ऋचाओं में स्थापित रस का आनन्द लेता है।1

कालान्तर में जब वेदों का साक्षात् दर्शन कठिन हो गया तो अन्य ग्रन्थ लिखे गये2। ब्रह्मा का (वेद) व्याखयान ही ब्राह्मण कहलाता है। इन ब्राह्मणों में वेदों के भावों को योगों में विनियोग के साथ-साथ मन्त्रों की व्याखया को रोचक बनाने के लिए नाटक का रूप दिया गया और इन नाटकों को जन तक पहुँचाने के लिए आखयान के रूप में व्याखयायें की गईं।

सरमा तथा पणि संवादसरमा शबद निर्वचन प्रसंग में उद्धृत ऋग्वेद 10/108/01 के व्याखयान में प्राप्त होता है। आचार्य यास्क का कथन है कि इन्द्र द्वारा प्रहित देवशुनी सरमा ने पणियों से संवाद किया।3पणियों ने देवों की गाय चुरा ली थी। इन्द्र ने सरमा को गवान्वेषण के लिए भेजा था। यह एक प्रसिद्ध आखयान है।

आचार्य यास्क द्वारा सरमा माध्यमिक देवताओं में पठित है। वे उसे शीघ्रगामिनी होने से सरमा मानते हैं। वस्तुतः मैत्रायणी संहिता के अनुसार भी सरमा वाक् ही है।4 गाय रश्मियाँ हैं।5 इस प्रकार यह आखयान सूर्य रश्मियों के अन्वेषण का आलंकारिक वर्णन है। निरुक्त शास्त्र के अनुसार ‘‘ऋषेः दृष्टार्थस्य प्रीतिर्भवत्यायानसंयुक्ता’’6अर्थात् सब जगत् के प्रेरक परमात्मा अद्रष्ट अर्थों को आखयान के माध्यम से उपदिष्ट करते हैं। वेदार्थ परमपरा के अनुसार मन्त्रों के तीन प्रकार के अर्थ होते हैं- आधिभौतिक, आदिदैविक, आध्यात्मिक। तीनों दृष्टियों से इस सूक्त के पर्यालोचन से सिद्ध होता है कि यह सूक्त किन्हीं विशेष अर्थों को कहता है। विश्लेषण के लिए इस समवाद में प्रयुक्त शबदों के अर्थों को व्याकरण और निरुक्त के अनुसार समझने की आवश्यकता है।

क्रमशः एक-एक शबद पर विचार करते हैं।

  1. पणयः- ऋग्वेद में 16 बार प्रयुक्त बहुवचनान्त पणयः शबद तथा चार बार एकवचनान्त पणि शबद का प्रयोग है। पणि शबद पण् व्यवहारे स्तुतौ च धातु से अच् प्रत्यय करके पुनः मतुबर्थ में अत इनिठनौ से इति प्रत्यय करके सिद्ध होता है। यः पणते व्यवहरति स्तौति स पणिः अथवा कर्मवाच्य में पण्यते व्यवहियते सा पणिः’’। अर्थात् जिसके साथ हमारा व्यवहार होता है और जिसके बिना हमारा जीवन व्यवहार नहीं चल सकता है, उसे पणि कहते हैं । इस प्रकार यह पणि शबद मेघ का वाचक है अथवा वायु का वाचक है। इस पणि को वृत्र अथवा ‘असुर’ कहा गया है। आचार्य यास्क के वृत्रं वृणोतेः कहकर जो आवरण करता है, ढक लेता है, उसे वृत्र कहते हैं। वही वृत्र वरण कर लेने वाला मेघ जब वारिदान करता है, तब देव कहलाता है, किन्तु जब जल को सुरक्षित कर लेता है बरसने नहीं देता, तब वह असुर कहलाता है। इसकी व्याखया इस प्रकार कर सकते हैं- राति ददाति इति रः सु शोभनं रति ददाति इति सुरः नु सुरः असुरः अर्थात् इस यौगिक अर्थ के अनुसार असुर शबद पणि के प्रसंग में अवरोधक मेघ है। (2) इन्द्र, निरुक्तकार यास्क के अनुसार इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति इति इन्द्रः इराम् जलानां आनेता इन्द्रः= सूर्य। इसी तरह आदि दैविक अर्थ में इन्द्र सूर्य का वाचक है, आध्यात्मिक अर्थ में इन्द्र जीवात्मा और परमात्मा को कहते हैं। इन्द्र सूर्य की गावः = रश्मयः गावः इति रश्मि नामसु पठितम् (निरुक्त)। अब इस कथा का भाव हुआ कि इन्द्र= सूर्य की गावः, रश्मियों को जल न देने वाले असुरों= मेघों ने आच्छन्न कर लिया है। इन्द्र के बार-बार सूचना देने पर भी पणियों ने इन्द्र की गायों को नहीं छोड़ा और जिससे प्रजा व्याकुल होने लगी, जब इन्द्र ने दूती भेजी। दूती को यहाँ पर देवशुनी सरमा कहा गया है। सरति गच्छति सर्वत्र इति सरमा, देवानां सुनी सूचिका दूती वा देवसूनी सरमा कही गई है। इस प्रकार देवशुनी बादल की गड़गड़ाहट रूपी ध्वनि के साथ पणियों से संवाद करती है और कहती है कि हमारे राजा की गौओं को छोड़ दो, नहीं तो हमारा बलवान राजा दण्ड देगा। पणियों ने देवशुनी की बात नहीं मानी, तब इन्द्र ने वज्र प्रहार कर अर्थात् वायु के प्रहार के माध्यम से पणियों को मारकर धरती पर सुला दिया और अपनी गायों को मुक्त करा लिया। सारा संसार वृष्टि से सुखी हुआ और सूर्य की किरणें चारों ओर फैल गईं। वैदिक आखयानों को सामान्य अर्थों में ग्रहण न करके विशिष्ट एवं यौगिक अर्थों में ही ग्रहण करना चाहिए। शबदों के यौगिक अर्थों के आलोक में इन आखयानों को देखने पर वेदार्थ की उत्तम, आदर्श, नव्य और दिव्य प्रक्रिया का ज्ञान होता है।

अन्त में प्रश्न आता है कि वैदिक आखयानों की वास्तविकता स्वीकरणीय है अथवा अस्वीकरणीय? तो इसका संक्षेप में उत्तर यह है कि यदि रूपकालंकार की दृष्टि से वे आखयान मन्त्रार्थ से संगत होते हैं तो वे आलंकारिक रूप से अथवा शाश्वत घटित होने वाली घटनाओं के ऐतिहासिक शैली के चित्रण के रूप में ग्राह्य एवं स्वीकरणीय हैं, परन्तु यदि मन्त्र सूक्त गत संवादादि का समबन्ध किसी अवरकालिक पुराण महाभारतादि ग्रन्थों में वर्णित अनित्य इतिहास से बलात् जोड़ा गया है और वह गठजोड़ असंगत और अटपटा लग रहा है तो उसे वास्तविक रूप में स्वीकार न करके  सर्वथा अवास्तविक ही मानना चाहिए। तत्र नामान्यायातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च7 तथा नाम च धातुजमाह निरक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकम्8 के धातुज वैयाकरणों में विशेषः शाकटायनाचार्य तथा सपूर्ण नैरुक्त समुदाय वेद के शबदों को धातुज अर्थात् यौगिक मानते हैं। इस दृष्टि से वेद मन्त्रों से कोई रुढ़ि अर्थ या मानवीय अनित्य इतिहास के वर्णन की समभावना वहाँ नहीं हो सकती है, अतः सारमेयाश्वानी, यम-यमी, अश्विनी, देवापि, सरमा, पणि, विश्वामित्र, गृस्तमद इन्द्र आदि पदों से किसी लौकिक कथानक की कल्पना वेदों में करना अन्धाधुन्ध है। ऐसे शबदों और उनसे अभिव्यक्त होने वाले कथोपकथन से किसी अन्य प्राकृतिक व वैज्ञानिक तथ्य का अनुसन्धान करना ही युक्ति संगत होगा। यदि कोई आखयान मन्त्रार्थ को स्पष्ट करने के लिए कल्पित किये गये हैं तो उनको आलंकारिक दृष्टि से संगत मानना चाहिए। मन्त्रों में उपमा, रूपक, श्लेषादि अलंकारों का प्रयोग प्राचीन और अर्वाचीन प्रायः सभी भाष्यकारों ने स्वीकार किया। वैदिक आखयानों में प्राकृतिकता, अलोकिकता आदि का वर्णन मिलता है। उर्वशी आखयान में मेघों का और विद्युत और मेघ के युद्ध का वर्णन है। वैदिक ग्रन्थों ने इनका प्राकृतिक अर्थ किया है।

उपरिगत विवेचन से यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि मन्त्रगत इतिहास अथवा आखयान तत्त्वतः औपचारिक, अर्थवादात्मक, उपमार्थक अथवा आलंकारिक हैं, आधुनिक अर्थ में ऐतिहासिक नहीं, अतः उनके समयक् अवगम एवं विश्लेषण में अतीव सावधानी तथा चिन्तन की अपेक्षा है।

पाद टिप्पणी

  1. यः पावमानीरध्येतृषिभिः सभतं रसम्-ऋग्वेद 9.67.31
  2. साक्षात्कृतधर्माण ऋ षयो बभूवुः तेऽवरेयोऽसाक्षात् कृत धर्मय उपदेशेन मंत्रान् सप्रादुः।

उपदेशाय ग्लायन्तोऽवरे बिल्म ग्रहणाय ग्रन्थं समाम्नासिषु वेदं च वेदांगानि च। निरुक्त। 1.21

  1. निरुक्त 11.25 देवशुनीन्द्रेण प्रहिता पणिभिरसुरैः समूढ इत्यायानम्।
  2. वाग् वै सरमा।
  3. निरक्त 2.7 सर्वेऽपि रश्मयो गाव उच्यते।
  4. निरुक्त 10.46
  5. निरुक्त 1/12
  6. पातंजल महाभाष्य 3.31

– दयानन्द वैदिक अध्ययन पीठ, पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़।

प्राणोपासना-2

प्राणोपासना-2

– तपेन्द्र कुमार

महर्षि दयानन्द जी महाराज ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि मुनष्य प्राण द्वार से प्राण को परमात्मा में युक्त करके तथा योगाभयास द्वारा प्राण नाड़ियों में ध्यान करके परमानन्द मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। महर्षि यह भी घोषणा करते हैं कि हृदय देश के अतिरिक्त दूसरा परमेश्वर के मिलने का कोई उत्तम स्थान व मार्ग नहीं है। पूर्व उल्लेख अनुसार प्राण अचेतन भौतिक तत्त्व है, शुद्ध ऊर्जा है तथा हृदय प्राण का केन्द्र है। यह हृदय स्थूल इन्द्रिय नहीं है। प्राणों में जीवात्मा प्रतिष्ठित है तथा परमात्मा हृदयाकाश में रहने वाले जीवात्मा के मध्य रहता है।

  1. श्वास-प्रश्वास एवं प्राण- जो वायु बाहर से भीतर को जाता है, उसको श्वास और जो भीतर से बाहर आता है, उसको प्रश्वास कहते हैं। परन्तु श्वास के द्वारा जो वायु शरीर में जाती है तथा जो वायु बाहर आती है, वह प्राण नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास प्राणाऽपान-निमेषजीवन………चात्मनो लिङ्गानि। (वैशेषिक) की व्याखया करते हुए महर्षि लिखते हैं, ‘‘(प्राण) जो भीतर से वायु को बाहर निकालना, (अपान) बाहर से वायु को भीतर लेना…….।’’ सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में प्राणमय कोश के समबन्ध में लिखा है, ‘‘दूसरा’’ ‘प्राणमय’ जिसमें ‘प्राण’ अर्थात् जो भीतर से बाहर आता, ‘अपान’ जो बाहर से भीतर आता……प्रच्छर्दनविधारणायां वा प्राणस्य। योग के भाषार्थ में भी भीतर के वायु को बहार निकालकर सुखपूर्वक रोकने का अभयास बार-बार करने से प्राण उपासक के वश में होने जाने का उल्लेख महर्षि ने किया है। स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के अनुसार ये (श्वास-प्रश्वास की) क्रियाएँ शरीर में प्राणों का कथित ऊपर व नीचे की गति कराने का एक मात्र साधन है। जब प्राणी श्वास लेता है तो वायु शरीर में जाती है तथा शरीर की प्राण नाड़ियों में प्राण की गति नीचे की ओर हो जाती है- यह अपानन क्रिया है। जब प्राणी प्रश्वास लेता है, अर्थात् दूषित वायु बाहर निकालता है तो शरीर की प्राण नाड़ियों में प्राण की गति उर्ध्व गति होती है-यह प्राणन क्रिया है। इस प्रकार श्वास-प्रश्वास प्राण क्रियाओं का साधन है। श्वास-प्रश्वास में शरीर के भीतर जाने वाली वायु तथा बहार आने वाली वायु प्राण नहीं है, वह आक्सीजन आदि गैसों का मिश्रण है। प्राण किन्हीं गैसों आदि का मिश्रण नहीं है बल्कि शुद्ध ऊर्जा है।
  2. प्राण के पाँच भेद-एषोऽणुरात्मा चेतसा विदितव्यो यस्मिन्प्राणः पञ्चधा संविवेश। मुण्डकोपनिषद् 3.1.9 के भाषार्थ में पण्डित भीमसेन शर्मा लिखते हैं, ‘‘(यस्मिन्) जिस शरीर में (प्राणः) प्राण (पञ्चधा) प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान नाम पाँच प्रकार के भेदों से (संविवेश) अच्छे प्रकार प्रविष्ट हो रहा है…..।’’

यथा सम्राद्रेवाधिकृ तन्विनियुङ्क्ते एतान्ग्रामानेतान्ग्रामानधितिष्ठस्वेष्मेवैष प्राण इतरान्प्राणान्पृथक्पृथगेव संनिधत्ते। (प्रश्न 3.4) का अर्थ करते हुए डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार लिखते हैं, ‘‘जैसे सम्राट् अपने अधीन कर्मचारियों को अपने-अपने काम में नियुक्त करता है, किसी को इस तथा किसी को उस ग्राम में अधिष्ठाता बनाता है, इसी प्रकार यह प्राण अन्यप्राणों को पृथक्-पृथक् अपने-अपने काम में नियुक्त करता है।’’ स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के अनुसार जीवों के शरीरों में प्राणतत्त्व तो एक ही है, कार्य भेद से उसके अनेक नाम हो जाते हैं। -प्र+अन=प्राण, उप+अन=अपान, सम+आ+अन =समान, उद+आ+अन= उदान, वि+आ+अन= व्यान। इस प्रकार प्र, अप आदि उपसर्गों को ‘अन’ के साथ जोड़ने से प्राण, अपान, समान,उदान और व्यान शबद सिद्ध हो जाते हैं।

वृहदारण्यक उपनिषद् 1.5.3………प्राणोऽपानोव्यान उदानः समानोऽन इत्येत्सर्व प्राण एव…… का अर्थ करते हुए महात्मा नारायण स्वामी जी महाराज लिखते हैं, ‘‘(प्राणः अपानः व्यानः उदानः) प्राण, अपान, व्यान, उदान, (समानः अनः इति) और समान ‘अन’- प्राण है। (एतत् सर्वं प्राणः एव) ये सब (पाँचों) प्राण ही हैं।’’ इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राणतत्त्व एक ही है जो शरीर में अपने को पाँच भागों में विभक्त कर पाँच प्रकार के कार्यों को समपादित करता है। प्राण का शास्त्रीय नाम ‘अन’ ही है।

  1. प्राणों की स्थिति एवं कार्य- प्रश्नोपनिषद् त्रितीय प्रश्न में ‘‘पायूपस्थेऽपानं चक्षुः श्रोत्रेमुखनासिकायां प्राणः स्वयं प्रतिष्ठते मध्ये तु समानः। …….अत्रैतदेकशातं नाडीनां…… भवन्त्यासु व्यानश्चरति। अथैकयोर्ध्वम् उदानः पुण्येन पुण्यंलोकं नयति पापेन पापयुभायामेव मनुष्यलोकम्।।शांकरभाष्यार्थ में उक्त की व्याखया इस प्रकार है- यह प्राण अपने भेद अपान को पायूपस्थ में – पायु (गुदा) और उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय) में मूत्र और पुरीष (मल) आदि को निकालते हुए स्थित यानी नियुक्त करता है तथा मुख नासिका इन दोनों से निकलता हुआ सम्राट् स्थानीय प्राणचक्षुः श्रोत्रे – चक्षु और श्रोत्र में स्थित रहता है। प्राण और अपान के स्थानों के मध्य नाभि देश में समान रहता है। ……..इस हृदय देश में एक शत यानी एक ऊपर सौ (एक सौ एक) प्रधान नाड़ियाँ हैं। उनमें से प्रत्येक प्रधान नाड़ी के उन सौ-सौ भेदों में से प्रत्येक से बहत्तर बहत्तर सहस्र अर्थात् दो ऊपर सत्तर सहस्र प्रतिशाखा नाड़ियाँ हैं। …..इन सब नाड़ियों में व्यान वायु संचार करता है तथा उन एक सौ एक नाड़ियों में से जो सुषुमणा नाम्नी एक उर्ध्वगामिनी नाड़ी है, उस एक के द्वारा ही ऊपर की ओर जाने वाला तथा चरण से मस्तक पर्यन्त सञ्चार करनेवाला उदान वायु (जीवात्मा को) पुण्य कर्म यानी शास्त्रोक्त कर्म से देवादि-स्थान रूप पुण्य लोक को प्राप्त करा देता है……।’’

महर्षि सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में प्राणमय कोश के समबन्ध में लिखते हैं, ‘‘दूसरा ‘प्राणमय’ जिसमें ‘प्राण’ अर्थात् जो भीतर से बाहर जाता, ‘अपान’ जो बाहर से भीतर आता, ‘समान’ जो नाभिस्थ होकर सर्वत्र शरीर में रस पहुँचाता, ‘उदान’ जिससे कण्ठस्थ अन्न-पान खैंचा जाता और बल पराक्रम होता, ‘व्यान’ जिससे सब शरीर में चेष्ठा आदि कर्म जीव करता है।’’ महात्मा नारायण स्वामी जी अनुसार अपान नामक प्राण मल और मूत्रेन्द्रिय विभाग में रहकर अपना काम करता है। मुख, नासिका, आँख और कान के क्षेत्र में प्राण स्वयं रहकर उनके कार्यों का साधन बनता है। शरीर के मध्य नाभि क्षेत्रादि में समान नामक प्राण रहता है और खाये हुए अन्न को पचाता है। हृदय की प्राण नाड़ियों में व्यान नामक प्राण परिभ्रमण करता है तथा हृदय की एक सौ एक नाड़ियों में से एक के द्वारा ऊपर जानेवाले प्राण का नाम उदान है, जो मृत्यु समय जीव को कर्मानुसार भिन्न-भिन्न स्थानों को पहुँचाया करता है।

स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के शबदों में, ‘‘मुखय प्राण हृदय (यह हृदय रक्त प्रेषण करने वाले अवयव से भिन्न है) में स्थित होकर मुख नासिका पर्यन्त प्राण नाड़ियों में ऊर्ध्व गति करता है। ‘अपान’ पायु तथा उपस्थ इन्द्रियों में स्थित होकर नासिका, मुख, कण्ठ, हृदय, नाभि से लेकर पायु इन्द्रिय तक प्राण नाड़ियों में नीचे की ओर संचरण करता है। ‘नाभि जो प्राण और अपान का सन्धि स्थल है, में स्थित होकर भुक्त आहार के रस आदि धातुओं को शरीर के समस्त अवयवों में पहुँचाने का काम करता है। ‘उदान’ पाद तल से लेकर शिर के शीर्ष पर्यन्त नाड़ियों में उर्ध्व गति का हेतु है। ‘व्यान’ समस्त शरीर में नाड़ियों में व्याप्त पवन को कहते हैं।’’ उपरोक्त उद्धरणों से शरीर में प्राणों की स्थिति तथा कार्य स्पष्ट है। उदान प्राण के द्वारा, उदान वृत्ति होने पर आत्मा/परमात्मा का साक्षात्कार संभव है, अतः उदान प्राण के बारे में पृथक् से विचार किया जावेगा।

  1. प्राण की उत्पत्ति –

स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीमिन्द्रियम्।

मनोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपोमन्त्राः कर्मलोका लोकेषु च नाम च।।

– प्रश्न.6.4

परमेश्वर ने प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, इन्द्रियाँ, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्मलोक और नाम-इन सोलह कलाओं की रचना की।

एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वोन्द्रियाणि च।

खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीविश्वस्य धारिणी।।

– मुण्डक 2.13

द्वितीय मुण्डक प्रथम खण्ड में चेतन सत्ता रूप विराट पुरुष की व्याखया करते हुए कहा गया है कि

 

प्राण, मन, सब इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, ज्योति, जल, विश्व को धारण करने वाली पृथिवी उसी से उत्पन्न होती है।

 

ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रपगस्यति।

मध्ये वामनासीनं विश्वे देवा उपासते।।कठो. 2.2.3

जो प्राण को ऊपर की ओर ले जाता है और अपान को नीचे की ओर ढकेलता है, हृदय के मध्य में हरने वाले उस वामन-भजनीय की सब देव उपासना करते हैं।

यः प्राणे तिष्ठन्प्राणादन्तरो यं प्राणो न वेदयस्य प्राणः शरीरं।

यः प्राणमन्तरोय मयत्येष स आत्मान्तर्यायमृतः।

– वृहद्. 3.7.16

जो प्राण में रहता हुआ भी प्राण से अलग है, जिसको प्राण नहीं जानता, परन्तु प्राण ही जिसका शरीर है, जो प्राण के भीतर रहता हुआ उसका नियमन कर रहा है, वही सर्वान्तर्यामी परमात्मा है।

इस प्रकार प्राण चेतन सत्ता नहीं है, अपितु भौतिक तत्त्व है जो परमात्मा से उत्पन्न होता है तथा परमात्मा ही जिसका नियमन करता है। परमात्मा प्राण में रहता हुआ भी प्राण से अलग है तथा प्राण उसको नहीं जानता है। प्राण पाँच प्रकार से विभाजित हो जिन क्रियाओं को करता है, उनका कराने वाला परमात्मा है। बाह्य प्राण जीवों को सूर्य रश्मियों के माध्यम से नेत्रों द्वारा प्राप्त होता है तथा सर्वत्र व्याप्त है । इसको विद्वान् आधिदैविक प्राण के नाम से कहते हैं। दूसरा- जीवों के शरीर में स्थित परमात्मा वैश्वानराग्नि रूप से अन्नपानादि आहार को पचाता है, जैसा कि वृहदारण्यक उपनिषद् 5.11 में कहा गया है-

अयमग्निवैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषेयेनेदमन्नं पच्यते सदिदमद्यते।।

परम पिता परमात्मा ही अन्न, जल और घृतादि तैजस् आहार के अणुतम भाग से मन, प्राण और वाग् बलों को उत्पन्न करता है।

अन्नमयं हि सोमय मन आपोमयः प्राणस्तेजोमयी वागिति।

– छान्दोग्य.6.5.4

अन्न से मन की शक्ति के अतिरिक्त स्थूल बल की भी प्राप्ति होती है जो प्राणबल का अधिष्ठान है-

प्राणः स्थूणाऽन्नं दाम। वृहद.2.2.1

इस प्राण को आध्यात्मिक प्राण भी कहा जाता है, यह प्राण ऊपर उठकर हृदय में आधिदैविक प्राण से मिल जाता है-

अपां सौमय पीयमानानां योऽणिमा स ऊर्ध्वः समुदिशति स प्राणो भवति।

इस प्रकार प्राण परमात्मा से ही उत्पन्न होता है तथा परमात्मा से ही इसका नियमन होता है।

– 53/203, वी.टी.रोड, मानसरोवर, जयपुर, राज.

पुरी में रहने वाले ‘पुरुष’ दो हैं

पुरी में रहने वाले  ‘पुरुष’ दो हैं

– इन्द्रजित् देव

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी अपने क्रान्तिकारी ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ के प्रथम समुल्लास में लिखते हैं कि ईश्वर के अनेक नाम हैं। ये नाम गुणवाचक, सबन्धवाचक, कर्मवाचक हैं। इनके अतिरिक्त एक नाम मुखय व निज (= ओ3म्) है। इसी समुल्लास में एक नाम ‘पुरुष’ भी है। इस नाम के आधार पर एक पौराणिक विद्वान् प. गिरिधर शर्मा ने एक शास्त्रार्थ में तत्कालीन आर्य प्रतिनिधि सभा, पञ्जाब के प्रधान महात्मा मुंशीराम (=स्वामी श्रद्धानन्द जी) से एक शास्त्रार्थ में प्रश्न किया था-   ‘‘स्वामी दयानन्द ने ईश्वर को पुरुष घोषित किया है। यह प्रमाण वेद में नहीं है तो स्वामी जी ने क्यों ऐसा घोषित किया?’’ इस प्रश्न के उत्तर में महात्मा मुंशीराम जी ने कहा कि वेद में ईश्वर को पुरुष कहा गया है-

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्य वर्णं तमसः परस्तात्

तमेवविदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।

– यजुर्वेद 31-18

अर्थात् मैं ऐसे महानतम् पुरुष को जानता हूँ जो आदित्य-सूर्य के समान तेजस्वी, अन्धकार से परे है। वे ब्रह्माण्ड रूपी नगरी में निवास करने वाले प्रभु पुरुष हैं, सर्वव्यापक हैं, सर्वाधिक महान् हैं ,विभू हैं अथवा ‘मह पूजायाम्’ पूजा के योग्य हैं। उस ज्योतिर्मय प्रभु को जानकार ही मनुष्य मृत्यु को लाँघ जाता है तथा मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अन्य कोई उपाय या मार्ग नहीं है।

वेद से कुछ अन्य मन्त्रों में भी ईश्वर को पुरुष कहा गया है। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।

स भूमिंविश्वतो वृत्वात्यतिष्ठदशाङ्गुलम्।

– ऋ. 10-90-1

भावार्थःवे पुरुष विशेष प्रभु ‘अनन्त सिरों, आँखों व पाँव’ वाले हैं। सारे ब्रह्माण्ड को आवृत करके इसको लाँघ कर रह रहे हैं।

पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यज्ज भव्यम्।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिहति।

– ऋ. 10-90-2

भावार्थःब्रह्माण्ड नगर में निवास व शयन करने वाले प्रभु सब प्राणियों पर शासन करने वाले हैं। इनके जो कर्मानुसार जन्म को ग्रहण कर चुके हैं तथा जो समीप भविष्य में ही जन्म ग्रहण करेंगे, इन प्राणियों के भी वे प्रभु ईश हैं।

एतावानस्य  महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।

– ऋ. 10-90-3

भावार्थःसमस्त ब्रह्माण्ड पुरुष विशेष प्रभु की महिमा का प्रतिपादन कर रहा है। वे प्रभु इस ब्रह्माण्ड से बहुत बड़े हैं। यह ब्रह्माण्ड तो प्रभु के एक देश में ही है।

त्रिपादूर्ध्व उदैत्युपुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः।

– यजुर्वेद 31/4

भावार्थःयह पूर्वोक्त परमेश्वर कार्य जगत् से पृथक् तीन अंश से प्रकाशित हुआ।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षण पुरुषं जातमग्रतः

– यजुर्वेद 31/9

भावार्थःहम अपने हृदयों को पवित्र बना वहाँ प्रभु की ज्योति को जगाएँ।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।

– य. 31/3

भावार्थःसारा ब्रह्माण्ड प्रभु के एक देश में है।

ततो विराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः।

– य. 31/5

भावार्थःयह संसार प्रभु द्वारा प्रारमभ में एक विराट् पिण्ड के रूप में उत्पन्न किया जाता है।

पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्।

– ऋ. 1-90-2

भावार्थःयह जो कुछ भूत, वर्तमान और भविष्य है, यह सब उपलबध जगत् इस जगत् के आधार सनातन भगवान् में ही है।

वेदों में अन्य प्रमाण भी उपलबध हैं, परन्तु विस्तार भय से वेद-प्रमाण और न देकर दर्शनों के कुछ प्रमाण उद्धृत हैं-

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुष विशेष ईश्वरः।

– योगदर्शनम् 1/24

अर्थः- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश- इन पाँच क्लेशों, शुभाशुभ कर्मों, कर्मफल तथा वासनाओं से असमबद्ध पुरुष विशेष ईश्वर कहलाता है।

आत्मा का भी यत्र-तत्र पुरुष अर्थ में प्रयोग किया गया हैं-

उद्यानं ते पुरुष नावयानम्। – वेद

अर्थः हे जीव! तुम ऊर्ध्वगतिवाला हो। तेरा नाम ‘पुरुष’ है। तेरी सार्थकता पुरुषार्थ करने में है।

अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः।

– सांखयदर्शन 1/1

अर्थःआध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक- इन तीन प्रकार के दुःखों से अतिशय निवृत्ति परम पुरुषार्थ (=पुरुष का प्रयोजन) है। इसका प्रतिपादन करने वाले शास्त्र का प्रारमभ करते हैं।

न सर्वोच्छित्तिरपुरुषार्थत्वादि दोषात्।

– सांखयदर्शन 5/74

अर्थःआत्मा और अनात्मा सबका उच्छेद (= नाश) भी मोक्ष नहीं है, अपुरुषार्थता होने आदि दोष से।

पुरुषबहुत्वं व्यवस्थातः।     – सांखयदर्शन 6/45

अर्थःपुरुष (= आत्माएँ) बहुत हैं, व्यवस्था के कारण ।

न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात्।

– सांखयदर्शन 5/46

अर्थःशबद राशि वेद भी पौरुषेय नहीं है (=किसी पुरुष अर्थात् आत्मा द्वारा रचे नहीं गए) उसकी रचना करने वाले पुरुष के न होने से।

ना पौरुषेयत्वान्नित्यत्वमङ्कुरादिवत्।

– सांखयदर्शन 5/48

अर्थःकिसी पुरुष (= आत्मा) द्वारा न लिखे होने से वेदों का नित्य होना नहीं कहा जा सकता, अङ्कुरादि के समान।

यस्मिन्नदृष्टेऽपिकृतबुद्धिरुपजायते तत् पौरुषेयम्।

– सांखयदर्शन 5/50

अर्थःजिस वस्तु में कर्त्ता के द्वारा अदृष्ट होने पर भी यह रची गई है, ऐसी बुद्धि होती है, वह वस्तु पौरुषेय (= आत्मा द्वारा रची गई) कही जाती है।

सत्व पुरुषयोः शुद्धिसामये कैवल्यम्।

– योगदर्शनम् 3/54

अर्थःसत्व और पुरुष (= आत्मा, जीव) की शुद्धि समान होने पर कैवल्य (= मोक्ष) हो जाता है।

ब्राह्मणः पुरं वेदेति पुरष उच्यते।

-अर्थववेद 10/2/30

अथर्व. की दृष्टि से ‘‘पुरं वेत्तीति पुरुषः’ ’ऐसा पुरुष निर्वचन है। श्रुति की दृष्टि से यह निर्वचन जीव (= आत्मा) का ही प्रतीत होता है, क्योंकि ब्रह्मपुर का ज्ञान वही करेगा। जहाँ ब्रह्म ओत-प्रोत है, वह सब ही ब्रह्म का पुर हुआ तथा वह है सर्व जगत्, उसे समपूर्णतः प्रभु ही जानते हैं, इस दृष्टि से वे भी पुरुष कहे जा सकते हैं।

आत्मा को ‘पुरुष’ क्यों कहते हैं? वह पूः अर्थात शरीर में रहता है, अतः पुरिषादः कहाता हुआ पुरुष कहा जाने लगा अथवा उसमें सोता है, वह पुरिशय होता हुआ ‘पुरुष’ हो गया- पुरुषः पुरिषादः पुरिशयः।

पूरयति अन्तः अन्तर पुरुषम् अभिप्रेत्य- अर्थात् अन्दर से समपूर्ण जगत् को भरपूर कर रहा है, अन्तर्यामी होने से सर्वत्र व्याप्त है, ऐसा विग्रह परमेश्वर को लक्ष्य करके ही किया जाता है।

इससे सिद्ध होता है कि ‘पुरुष’ शबद का अर्थ प्रसंग व परिस्थिवशात् आत्मा तथा परमात्मा – इन दोनों में से कोई भी अर्थग्रहण किया जाना चाहिए।

आत्मा रूपी ‘पुरुष’ और परमात्मा रूपी ‘पुरुष’ में अन्तर भी समझना अपेक्षित है। इस विषय में निवेदन यह है परमात्मा विशेष महान्तम् पुरुष है। यह यजुर्वेद के मन्त्र 31/18 में तथा योगदर्शन के सूत्र 1/24 में इस लेख में उद्धृत किया जा चुका है, जबकि आत्मा सामान्य है। परमात्मा व आत्मा काल की दृष्टि से अनन्त हैं, परन्तु व्यापकता की दृष्टि से परमात्मा सर्वत्रव्यापक है और आत्मा की व्यापकता सीमित है। आत्मा सत्वचित् है तो परमात्मा सत्, चित्त था आनन्द स्वरूप है। आत्मा सर्वशक्तिमान् नहीं है, अर्थात् उसे करणीय कार्य करने के लिए दूसरे व्यक्तियों तथा परमात्मा से सहायता लेनी पड़ती है, जबकि परमात्मा अपने कार्य करने के लिए किसी की भी सहायता की आवश्यकता नहीं समझता। परमात्मा अनुपम है, परन्तु आत्मा अनुपम नहीं है। परमात्मा सृष्टिकर्त्ता है, परन्तु आत्मा ऐसा नहीं है।

ईश्वर अभय है तो जीव अधिकतर भयशील ही रहता है। परमात्मा सर्वान्तर्यामी है, परन्तु आत्मा अन्तर्यामी हो नहीं सकता। परमात्मा सर्वज्ञ है, परन्तु आत्मा अल्पज्ञ है। आत्मा शरीर को प्राप्त करता है, परन्तु परमात्मा ने कभी शरीर धारण नहीं किया तथा न ही ऐसा करेगा। परमात्मा अकाम है, परन्तु आत्मा ऐसा नहीं हो सकता। कुछ अन्य भी परस्पर भेद हैं।

– चूनाभट्ठियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर (हरियाणा)

हृदय की साक्षी-सद्ज्ञान वेदः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

हृदय की साक्षी-सद्ज्ञान वेदः- पं. गंगाप्रसाद जी चीफ जज की पुस्तक ‘धर्म का आदि स्रोत’ की कभी धूम थी। मेरे एक कृपालु मौलाना अदुल लतीफ प्रयाग ने भी इसे पढ़ा है। निश्चय ही वह इससे प्रभावित हैं। ईश्वर सर्वव्यापक है। उसके नियम तथा ज्ञान वेद भी सर्वव्यापक हैं। कोई ऋषि की बात माने अथवा न माने, परन्तु ‘‘दिल से मगर सब मान चुके हैं योगी ने जो उपकार कमाये।’’

देखिये, इस समय मेरे सामने लण्डन की ईसाइयों की सन् 1871 की एक पत्रिका है। इसमें लिखा है, The land is honestest thing in the world, whatever you give it you will get back again:. So in a far more certain sense, is it with the sowing of moral seed the fruit is certain   अर्थात्- भूमि संसार में सबसे प्रामाणिक (सत्यवादी) वस्तु है। आप इसे जो कुछ देंगे, यह आपको उपज के रूप में वही लौटायेगी। इससे भी बड़ा अटल सत्य यह है कि जो नैतिक बीज (कर्म) आप बोओगे, उसका फल भी अवश्य भोगोगे, पाओगे। इस अवतरण का प्रथम भाग वहाँ के कृषकों की लोकोक्ति है। पूरे कथन का अर्थ या सार यही तो है, जो करोगे सो भरोगे। वेद की कई ऋचाओं में कर्मफल सिद्धान्त को कृषि के दृष्टान्त से ही समझाया है। पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय ने वेद प्रवचन में एक मन्त्र की व्याया में लिखा है कि ईश्वर के कर्म फल के अटल नियम का साक्षी, सबसे बड़ा साक्षी और विश्वासी किसान होता है। जुआ व लाटरी में लगे लोग इससे उलट समझिये। ईसाइयों की पत्रिका का यह अवतरण वैदिक कर्मफल सिद्धान्त की गूञ्ज नहीं तो क्या है? धर्म का, सत्य का स्रोत वेद है- यह इससे प्रमाणित होता है। ऐसी-ऐसी कहावतें वैदिक धर्म की दिग्विजय हैं।

हमारी विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज जी ने टी.वी. पर एक करवा चौथ उपवास की बड़े लुभावने शदों में वकालत की थी। दैनिक पत्र-पत्रिकायें भी इसे सुहागनों का त्यौहार प्रचारित करती हैं। पत्नी के कर्मकाण्ड से पति की आयु बढ़ जाती है। कर्म पत्नी ने किया, फल पति को मिलता है। इन्हीं सुषमा जी ने गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करके तालियाँ बटोरी थीं। गीता कर्मफल सिद्धान्त का सन्देश देती है। करवा चौथ जैसे कर्मकाण्ड या इस प्रकार के अंधविश्वासों से गीता के मूल सिद्धान्त का खण्डन है या नहीं? इसी प्रकार पापों के क्षमा होने या क्षमा करवाने की मान्यता का उपरोक्त अवतरण से घोर खण्डन होता है । इस कथन में तो कर्म के फल की प्राप्ति Certain (सुनिश्चित) बताई गई है। कोई मत इस वैदिक सिद्धान्त के सामने नहीं टिकता । इसके अनुसार कुभ स्नान, तीर्थ यात्रायें व हज आदि सब कर्मकाण्ड ईश्वरीय आज्ञा के विपरीत हैं।

योग रहस्य

                       योग रहस्य

– स्वामी वेदानन्द सरस्वती

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूत् विजानतः।

तत्र कः मोह कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः।।

– यजु. 40.7।।

शदार्थः (यस्मिन्) जिस (विजानतः) ज्ञानी के ज्ञान में (सर्वाणि भूतानि)सभी प्राणी (आत्मा) परमात्मा (एवं) ही (अभूत्) हो गए, ऐसे (एकत्वमनुपश्यतः) एकत्व दर्शी व्यक्ति को (तत्र) वहाँ (कः मोह) किस का मोह और (कः शोकः) किस का शोक रहेगा, अर्थात् वहाँ न मोह रहता है, न ही शोक रहता है |

यह असमप्रज्ञात समाधि अवस्था का चित्रण खींचा गया है, जहाँ योग युक्त आत्मा को सर्वत्र एक ब्रह्म ही नजर आता है। असमप्रज्ञात समाधि में आत्मा रूप को भी विस्मृत कर सर्वत्र एक विभु आत्मा का ही दर्शन करता है। इस अवस्था को पाने के लिये जिज्ञासु जनों के लिये हम एक क्रम का दिग्दर्शन कराते हैं।

  1. योग परिभाषा- ‘योगश्चित्त वृत्ति निरोधः। योगः समाधि।’अर्थात् चित्तवृत्तियों का निरोध कहें या समाधि कहें, वह योग ही है।
  2. समाधि प्राप्ति का फल- (क) इससे साधक का मन पूर्णतया निर्मल और स्थितप्रज्ञता को प्राप्त होता है। (ख) सब कषायों का क्षय हो जाता है। (ग) व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है। (घ) व्यक्ति को अपार आनंद की अनुभूति होती है। (ङ) मन और इन्द्रियों पर पूर्ण संयम हो जाता है। (च) सुन्दर स्वास्थ्य और कुशाग्र बुद्धि प्राप्त होती है। (छ) प्रसुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती हैं। (ज) आत्म साक्षात्कार और प्रभु दर्शन होता है। (झ) मृत्यु विजय की उपलबधि होती है।

समाधि प्राप्ति के लिये प्रक्रियाः

  1. 1. वर्तमान में जीना सीखें। अतीत की स्मृतियों में और भविष्य की कल्पनाओं में समय न खोवें।
  2. 2. जो भी कर्म करें, पूरे मनोयोग से करें। सब काम धर्मानुसार ही करें।
  3. 3. सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने के लिये सदैव तैयार रहें। प्रमादी न बनें।
  4. 4. शुद्ध सात्विक आहार और मित भाषण करें।
  5. 5. सज्जनों से मैत्री और दुर्जनों से उपेक्षा का भाव रखें।
  6. 6. यम-नियमों का नियमित पालन करें। उससे मन स्वच्छ और स्वस्थ होगा।
  7. 7. योगासनों का नित्य अभयास करें। इससे शरीर स्वस्थ निरोग बनेगा। ध्यान के समय किसी स्थिर आसन पर बैठें जिस आसन पर दो घंटे तक स्थिरता पूर्वक बैठ सकें।
  8. प्राणायाम- स्थिर आसन पर बैठ कर प्राणायाम का अभयास करें। लमबे और गहरे श्वास-प्रश्वास का अभयास करें। प्राणायाम से मन को एकाग्रता मिलती है। शरीर को आरोग्यता प्राप्त होती है।
  9. प्रणव ध्वनि- लमबा गहराश्वास अन्दर लेकर ऊँचे स्वर से ओङ्कार का नाद करें। इस क्रिया को 9 से 11 बार दोहराएँ।

प्रणव ध्वनि के लाभ– 1. आस्तिक भावना की दृढ़ता होती है। 2. इष्ट की स्मृति होती है। 3. तनावों से मुक्ति मिलती है। 4. रोगों का शमन होता है। 5. आनन्द की अनुभूति होती है। 6. मन की एकाग्रता बढ़ती है। 7. बुद्धि की शुद्धि होती है। 8. प्राणशक्ति प्राप्त होती है। 9. स्मरण शक्ति की वृद्धि होती है। 10. नाद से उत्पन्न प्रकपनों से भीतरी अवयवों की मालिश होकर वे स्वास्थ्य लाभ करते हैं। 11. सूक्ष्म उत्तकों तक भी रक्त का संचार सहज गति से होने लगता है।

प्रणव ध्वनि करते समय अपने अन्दर-बाहर शुक्ल वर्ण के परिचक्र की भावना करें।

  1. 10. मन की एकाग्रता को पाने के उपाय-
  2. 1. मन की स्थिरता या एकाग्रता के लिये शरीर की स्थिरता अनिवार्य है। शरीर से जैसे वस्त्र को निकाल अलग कर देते हैं, वैसे ही मन से शरीर को पृथक्देखें। शरीर के थकान रहित, शान्त, स्वस्थ होने की भावना करें।
  3. 2. फिर शरीर के नाड़ीतन्त्र पर ध्यान लगायें। सुषुम्ना के निचले छोर से लेकर ऊर्ध्वगमन करते हुए सहस्रसारचक्र तक ध्यान करें। इससे शरीर की प्राण ऊर्जा ऊर्ध्वगमन करने लगती है, जिसे कुछ लोग कुण्डलिनी जागरण का नाम देते हैं।
  4. 3. प्राणायाम मन की एकाग्रता का एक प्रधान साधन है। विधिवत् रूप से नियमित प्राणायाम का अभयास करें। इस विषय पर विस्तार से जानने के लिये हमारी ‘संध्या से समाधि’ पुस्तक पढ़ें।
  5. 4. शरीर की कोशिकाओं में होने वाले सूक्ष्म प्रकमपनों की भी अनुभूति करें। पैर से लेकर सिर तक ध्यानपूर्वकदेखेंगे तो यह प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है। फिर ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान लगाने पर सारे शरीर का स्पंदन एक साथ देखा जा सकता है। इस प्रकार के अभयास से शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है।
  6. 5. इससे अगले क्रम में शरीर के अन्दर अन्तःस्रावी और बहिस्रावी ग्रंथियों का भी अवलोकन करें। इन ग्रंथियों में रसायनों का निर्माण होता है। नाड़ीतन्त्र में उन रसायनों का प्रभाव देखा जाता है। इन रसायनों के बदलने से व्यक्ति का स्वभावभी बदल जाता है। हृदयदेश में तथा आज्ञाचक्र में ध्यान केन्द्रित करने से रसायनों के स्राव बदल जाते हैं।
  7. 6. रंगों का ध्यान-मानसिक विचारों के भी अपने रंग होते हैं। जैसे सूरज की रष्मियों के सात रंग इन्द्रधनुष में देखे जाते हैं, वैसे ही मानसिक भावों के कृष्ण, नील, जामुनी, लाल, गुलाबी, शुक्ल और हरा रंग भेद होते हैं। शुभ भावों के रंग पृथक् होते हैं। अशुभ भावों के रंग पृथक्होते हैं। अपने-अपने रंगों के साथ मन के भाव व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। उज्जवल व्यक्तित्व के निर्माण के अभिलाषी व्यक्ति को शुभ विचारों के शुक्ल रंग का ध्यान करना चाहिए। ओङ्कार के जाप के साथ भी शुक्ल रंग का ध्यान करें।
  8. 7. क्लेशों से मुक्ति-मानसिक भावों के साथ जब राग-द्वेष पैदा हो जाते हैं तो वे ही क्लेशों को जन्म देते हैं। राग-द्वेष पैदा ही न हो इसके लिये आत्मा-परमात्मा का ध्यान करें। चेतन की भावना से राग-द्वेष पैदा नहीं होते।
  9. 8. श्रद्धा- व्यक्ति को अपनी श्रद्धा के अनुसार ही फल मिलता है। ईश्वर की भक्ति श्रद्धापूर्वक ही करें। वेद शास्त्रों, ऋषिमुनियों और गुरुजनों के प्रति की गयी श्रद्धा व्यक्ति को उसके लक्ष्य तक पहुँचा देती है।
  10. आत्म-संयम- आत्मा में परमेश्वर ने अद्भुत शक्तियाँ रखी हैं, किन्तु जनसामान्य उनसे अनभिज्ञ बना रहता है। शक्तियों का जागरण योगाङ्गों के अनुष्ठान से हो जाता है। शक्ति प्राप्त करके भी साधक व्यक्ति मन की धाराओं में नहीं बहता। आत्म-संयम के द्वारा शक्तियों का सदुपयोग ही करता है। शक्तियों का सदुपयोग लक्ष्य-प्राप्ति के लिये ही होना चाहिए।
  11. आत्म-दर्शन- आत्मा ही द्रष्टा, श्रोता, वक्ता, मन्ता और सभी भावों का साक्षी होता है। जब आत्मा स्वयं को भावों से अलग देखने लगता है तो वह उस अभयास से अपने आत्म-स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। ‘द्रष्टा शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।’आत्मा अपने स्वरूप में शुद्ध होते हुए भी बुद्धि के ज्ञान का साक्षी मात्र होता है।
  12. असमप्रज्ञात समाधि- योगाङ्गों के अनुष्ठान से जब बुद्धि में सत्त्व गुण की प्रबलता हो जाती है तो वह राग-द्वेष से ऊपर उठ कर आनन्द की अनुभूति करने लगती है। उसमें स्थैर्य उत्पन्न होता है, जो आत्मा की कैवल्य प्राप्ति में सहायक बनता है। समप्रज्ञात समाधि की अवस्था में आत्मा अपने को मन, बुद्धि, आदि से पृथक् देखने लगता है, किन्तु असमप्रज्ञात् समाधि में अपने स्वरूप को पृथक् नहीं देखता, उसे सर्वत्र एक विभु परमपिता परमेश्वर के ही दर्शन होते हैं। उस अवस्था में द्रष्टा और दृश्य का भेद भी समाप्त हो जाता है। इसी अवस्था का उल्लेख यजु. 40.7 मन्त्र कर रहा है। उस अवस्था में द्वैत कुछ देखने या सुनने के लिये शेष नहीं रह जाता। जिस स्थिति में एकमात्र ब्रह्म रह जाये वहाँ भय, शोक, मोह कैसा?
  13. मुक्तावस्था- जब मन में कोई कामना शेष नहीं रहती, तब सभी राग-द्वेष, मोह, आदि क्लेश समाप्त हो जाते हैं। अन्तःकरण में ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। सभी विषयों से पूर्णतया वैराग्य हो जाता है, उस अवस्था में योगी पुरुष जीवन मुक्त होकर जीने लगता है। प्रारबध अभी शेष हैं, उसके अनुसार जीवन की गाड़ी चल रही होती है, किन्तु अपने जीवन से दूसरों को कोई कष्ट न हो तथा दूसरे भी अपनी साधना में बाधक न बन सकें, इसलिये योगी पुरुष घर परिवार से दूर एकान्त स्थान में जाकर रहने लगता है। प्रारबध समाप्ति पर वह आत्मा मुक्त अवस्था को प्राप्त होकर मुक्ति का आनन्द लेती है। यही योग मार्ग की अंतिम मंजिल है। – उत्तरकाशी

क्या ईश्वर के दर्शन होते हैं?: अभिषेक कुमार

प्रश्न: क्या ईश्वर के दर्शन होते हैं?

उत्तर : अवश्य होते हैं पर वैसे नहीं जैसे आप इस समय सोच रहे हैं!

* ईश्वर स्वभाव से चेतन है और चेतन तत्त्व निराकार होता है इसलिए ईश्वर का दीदार, देखना या दर्शन करने का तात्पर्य होता है – उसकी सत्ता का ज्ञान होना, उसकी अनुभूति (feeling) होना! इसी feeling को दार्शनिक भाषा में ‘ईश्वर साक्षात्कार’ कहते हैं।

* “दृश्यन्ते ज्ञायन्ते याथातथ्यत आत्मपरमात्मनो बुद्धिन्द्रियादयोतिन्द्रियाः सूक्ष्मविषया येन तद दर्शनम् “||
अर्थात् जिससे आत्मा, परमात्मा, मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि सूक्ष्म विषयों का प्रत्यक्ष = ज्ञान होता है, उसको दर्शन कहते हैं। इसलिए कहते हैं कि ईश्वर को देखने के लिए ज्ञान-चक्षुओं की आवश्यकता होती है, चरम-चक्षुओं (भौतिक नेत्रों) की नहीं!।

* पदार्थ दो प्रकार के होते हैं – 1) जड़ और 2) चेतन। जड़ वास्तु ज्ञानरहित होती है और चेतन में ज्ञान होता है। प्रकृति तथा उससे बनी सृष्टि की प्रत्येक वास्तु जड़ होती है। परमात्मा और आत्मा दोनों चेतन हैं।

* चेतन (आत्मा) को ही चेतन (परमात्मा) की अनुभूति होती है। चेतनता अर्थात् ज्ञान।

* हमारे नेत्र जड़ होते है, देखने के साधन हैं और जो उनके द्वारा वस्तुओं को देखता है वह चेतन (जीवात्मा) होता है। जह वस्तुचेतन को नहीं देख सकती क्योंकि उसमें ज्ञान नहीं होता पर चेतन वास्तु (आत्मा और परमात्मा) जड़ और चेतन दोनों को देख सकती है।

* अतः ईश्वर का साक्षात्कार आत्मा ही कर सकता है शर्त यह है कि आत्मा और परमात्मा के बीच किसी भी प्रकार का मल, आवरण या विक्षेप न हो अर्थात् वह शुद्ध, पवित्र और निर्मल हो अर्थात् वह सुपात्र हो।

* ईश्वर की कृपा का पात्र (सुपात्र) बनाने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अमूल्य जीवान को वैदिक नियमों तथा आज्ञाओं के अनुसार बनाए, नियमित योगाभ्यास करे और अष्टांग योग के अनुसार समध्यावस्था को प्राप्त करे। समाध्यावास्था में ही ईश्वर के साक्षात्कार हो सकते हैं, अन्य कोई मार्ग नहीं है।

* इस स्थिति तक पहुँचने के लिए साधक को चाहिए कि वह सत्य का पालन करे और किसी भी परिस्थिति में असत्य का साथ न दे। जब तक जीवन में सत्य का आचरण नहीं होगा ईश्वर की प्राप्ति या उसके आनन्द का अनुभव (feeling) नामुमकिन है जिस की सब को सदा से तलाश रहती है।

See translation:-

योग के सन्दर्भ में, स्वस्थ जीवन, आध्यात्मिक ज्ञान, तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिये आवश्यक यम- नियम:–
The 5 (यम)Yamas listed by Patañjali in Yogasūtra are:
Ahiṃsā (अहिंसा): Nonviolence, non-harming other living beings.
Satya (सत्य): truthfulness, non-falsehood.
Asteya (अस्तेय): non-stealing.
Brahmacharya (ब्रह्मचर्य): chastity, marital fidelity or sexual restraint.
Aparigraha (अपरिग्रहः): non-avarice, non-possessiveness.

The 10 (यम) Yamas listed in Śāṇḍilya Upanishad, are:
Ahiṃsā (अहिंसा): Nonviolence.
Satya (सत्य): truthfulness.
Asteya (अस्तेय): not stealing.
Brahmacharya (ब्रह्मचर्य): chastity, marital fidelity or sexual restraint.
Kṣamā (क्षमा): forgiveness.
Dhṛti (धृति): fortitude.
Dayā (दया): compassion.
Ārjava (आर्जव): non-hypocrisy, sincerity.
Mitāhāra (मितहार): measured diet.
Sauch (शौच): purity, cleanliness.

The 5 (नियम) Niyamas listed by Patañjali in Yogasūtra are:
Śaucha(शौच): purity, clearness of mind, speech and body.
Santoṣha(सन्तोष): contentment, acceptance of others and of one’s circumstances as they are, optimism for self.
Tapas(तपस): accepting and not causing pain.
Svādhyāya(स्वाध्याय): study of self, self-reflection, introspection of self’s thoughts, speeches and actions.
Īśvarapraṇidhāna(ईश्वरप्रणिधान): contemplation of the Ishvara (God/Supreme Being, True Self, Unchanging Reality).

The 10 (नियम) Niyamas listed in Śāṇḍilya Upanishad/Varuha Upanishad/ Hatha Yoga Pradipika are:
Tapas(तपस): persistence, perseverance in one’s purpose, austerity.
Santoṣa(सन्तोष): contentment, acceptance of others and of one’s circumstances as they are, optimism for self
Āstika(आस्तिक्य): faith in Real Self (jnana yoga, raja yoga), belief in God (bhakti yoga), conviction in Vedas/Upanishads (orthodox school).
Dāna(दान): generosity, charity, sharing with others.
Īśvarapūjana(ईश्वरपूजन): worship of the Ishvara (God/Supreme Being, Brahman, True Self, Unchanging Reality).
Siddhānta vakya śrāvaṇa(सिद्धान्तवाक्यश्रवण): listening to the ancient scriptures.
Hrī(हृ): remorse and acceptance of one’s past, modesty, humility.
Mati(मति): think and reflect to understand, reconcile conflicting ideas.
Japa(जाप): mantra repetition, reciting prayers or knowledge.
Huta(हुत): rituals, ceremonies such as yajna sacrifice.

[REGVEDA–1-164-44–N —1-164-1–N 10-5-7–N 164-22 N 10-177-1 N 10-177-2 N ATHARWAVED KA PARMAN –10-8-17 AND 1-164-20 YA]

धन्यवाद।

आर्य समाज द्वारा वैदिक धर्म के उत्थान के लिए।

 

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