Category Archives: वेद विशेष

हे प्रभु हमें स्वस्थ्य व बलकारक भोजन दो

ओउम
हे प्रभु हमें स्वस्थ्य व बलकारक भोजन दो
डा. अशोक आर्य
भोजन मानव की ही नहीं प्रत्येक प्राणी की एक एसी आवश्यकता है , जिसके बिना जीवन ही sambhav नहीं | इस लिए प्रत्येक प्राणी का प्रयास होता है कि उसे उतम भोजन प्राप्त हो | एसा भोजन वह उपभोग में लावे कि जिससे उस की न केवल क्षुधा की ही पूर्ति हो अपितु उसका स्वास्थ्य भी उतम हो तथा शरीर में बल भी आवे | अत्यंत स्वादिष्ट ही नहीं अत्यंत पौष्टिक भोजन करने की अभिलाषा प्रत्येक प्राणी अपने में संजोये रहता है | इस समबन्ध में वेद ने भी हमें बड़े सुन्दर शब्दों में प्रेरणा दी है | यजुर्वेद के अध्याय ११ के मन्त्र संख्या ८३ में इस प्रकार परमपिता परमात्मा ने हमें उपदेश किया है : –
ओउम अन्नपते$न्नस्य नो देह्यमीवस्य shushmin: |
प्रप्रं दातारं तारिष उर्ज्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे || यजुर्वेद ११.८३ ||
इस मन्त्र में चार बातों की ओर विशेष ध्यान आकृष्ट किया गया है | यह चार बातें इस प्रकार हैं : –
(१) अन्न अर्थात समस्त भोग्य पदार्थों का स्वामी परमपिता परमात्मा है –
हम जो अन्न का उपभोग करते हैं , उस अन्न का अधिपति , उस अन्न का स्वामी, उस अन्न का maalik हमारा वह परम पिता, सब से बड़ा पिता, जो हम सब का जन्मदाता तथा हम सब का पालक है , उस परमपिता की अपार कृपा से ही हमें यह अन्न मिलता है | इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम इसे परमपिता की अपार कृपा मानते हुए स्वीकार करें तथा इसे ख़राब न होने दें , इसमें न्यूनता न आने दें तथा अपनी थाली में उतना ही लें, जिताना हम ने खाना हो, जूठन कभी मत छोडें | यह प्रभु का प्रसाद होता है , इसे जूठन के स्वरूप छोड़ना महापाप होता है | प्रभु की दी हुयी वस्तु का तिरस्कार होता है तथा जो अन्न संसार के दूसरे प्राणी के ग्रहण के योग्य होता है, उसे जूठन स्वरूप छोड़ देना भी एक महाव्याधि ही तो है |
(२) वही अन्न सेवन में लावें जो svasth रखते हुए बल प्रदान करे : –
संसार का प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि वह सदा svasth रहे | उसे जीवन में कभी कोई रोग न आवे | वह सदा निरोग रहे | svasth जीवन में ही मानव प्रसन्न रह सकता है | प्रसन्नता मानव जीवन की प्रथम आवश्यकता होती है | प्रसन्न व प्रफुल्लित व्यक्ति ही न केवल जीवन व्यापार को अच्छे से कर सकता है अपितु उसे ठीक से संपन्न कर धन एश्वर्य को भी प्राप्त कर सकता है | संसार में कौन सा प्राणी एसा मिलेगा, जो धन की अभिलाषा न रखता हो ? अर्थात सब प्राणी मनुष्य धन प्राप्ति की इच्छा , कामना करते हैं | इस के लिए उनका खान पान , आहार विहार एसा होना आवश्यक है, जिस से उसे अच्छा स्वास्थ्य मिल सके तथा वह तीव्र गति से प्रभु प्रार्थना के साथ ही साथ अधिकतम धन अर्जन कर सके |
मानव की यह भी अभिलाषा रहती है कि परमपिता परमात्मा की महती अनुकम्पा उस पर बनी रहे ताकि वह आजीवन svasth रहने के साथ ही साथ बलवान भी रहे | svasth तो है किन्तु शरीर इतना सशक्त नहीं है कि वह अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए खुले रूप से यत्न कर सके तो एसे स्वस्थ्य शरीर का भी कोई विशेष लाभ नहीं होता | इसलिए मन्त्र में यह कहा गया है कि svasth शरीर के साथ ही साथ हमारा यह शरीर बलिष्ठ भी हो, ताकि हम अपनी आवश्यकताओं को स्वयं ही पूर्ण करने में सक्षम हों | svasth शरीर में ही जीवन की खुशियाँ छुपी रहती हैं , svasth शरीर ही सब प्रकार की प्रसन्नताओं को दिलाने वाला होता है | जब शरीर svasth नहीं , बलिष्ठ नहीं तो मन बुझा बुझा सा रहता है | बुझे मन से जीवन का कोई भी कार्य अच्छे से संपन्न नहीं होता | जब कार्य ही अच्छे से नहीं हो रहा तो हम धन अर्जन कैसे कर सकते हैं ? अत: अधिकतम धन की प्राप्ति के लिए, एशवर्य की प्राप्ति के लिए, सुखों की प्राप्ति के लिए हम परमपिता से उतमस्वास्थ्य की प्रार्थना करते हुए एसा भोजन करते है कि जिससे हम न केवल svasth ही रहे अपितु बलवान भी बनें |
(३) जिस साधन से हम अन्न प्राप्त करते है , उसका kratgya हों : –
मानव स्वार्थी होता है | वह साम,दाम, दंड, भेद से धन एशवर्य तो प्राप्त करने का यत्न करता है किन्तु यह सब प्राप्त करने के पश्चात उस प्रभु का धन्यवाद करना भूल जाता है , उस प्रभु का शुक्रिया करने में प्रमाद कर जाता है , जिसकी महती कृपा से यह सब सुख , साधन, धन,एश्वर्य प्राप्त किया होता है | इस लिए मन्त्र कहता है कि हम सब सुखों को पाने की न केवल इच्छा ही करें अपितु यह सब पाने के पश्चात, यह सब कुछ उपलब्ध कराने वाले उस परमपिता परमात्मा को हम भूलें मत अपितु उस दाता को स्मरण रखें , उसका धन्यवाद करें | वह हम सब का दाता है | जीवन में अनेक बार हम ने उस से कुछ न कुछ माँगते ही रहना है | यदि हम उसका धन्यवाद ही न करेंगे तो भविष्य में हम उससे कुछ ओर मांगना चाहेगे तो कैसे मांगेंगे ? अत: उस दाता का धन्यवाद करना कभी न भूलें |
(4) प्रभु से प्रार्थना करें कि हमारे परिजनों व पशुओं को भी बलकारक भोजन मिले : –
मानव अपने स्वार्थ के कारण स्वयं तो उतामोतम भोग्य प्राप्त करना चाहता है किन्तु दूसरों के सुखों की ओर ध्यान ही नहीं देता | यह तो इतना स्वार्थी है कि मन में यहाँ तक सोचता है कि मेरी तृप्ति ही नहीं होनी चाहिए अपितु मेरे पास अतिरिक्त धन भी इतना होना चाहिए कि मेरे कोष के उपर से छलकता हुआ दिखाई दे , इस के लिए चाहे दूसरे के सुखों का अंत ही kyon न करना pade , यहाँ तक कि दूसरों का बढ ही kyon न करना pade | जब हम अपनी संपत्ति को badhane के लिए दूसरों के नाश तक की kamana करेंगे , प्रभु के बनाए अन्य praniyon के जीवन को भी नष्ट करने पर भय नहीं खायेंगे तो वह प्रभु निश्चित रूप से ही हमसे rusht होकर हमें दण्डित करेगा | इससे हमारी सुख सुविधा में baadha आवेगी | इस लिए मन्त्र कहता है की हे प्राणी ! प्रभु की अपार कृपा से tujhe यह atyadhik धन sampati mili है , इसे tu जितना अपने लिए उपयोगी , अपने लिए आवश्यक समझता है , अपने उपभोग के लिए रख तथा शेष धन से न केवल अपनेपरिजनों को बाँट कर उनकी तृप्ति कर अपितु एसे praniyon ko , पशु pakshiyon को भी बाँट दे जिन को abhi भोजन नहीं मिला | इस प्रकार in शब्दों में मन्त्र मानव को दान करने की , दूसरों का सहयोग करने की , sah astitv की भी प्रेरणा देता है | जब मनुष्य दान करेगा , दूसरों की आवश्यकताओं की पूर्ति में लगेगा तो उसे sammaan मिलेगा, yash मिलेगा, kirti milegi | यह सब उस प्रभु की महती कृपा का ही फल है |
अत: मन्त्र हमें यह उपदेश दे रहा है कि हम उस अन्न को ग्रहण करें जो हमें svasth रखे तथा बलवान बनावे, जिस समाज के sahyog से यह अन्न प्राप्त करो उस समाज का धन्यवाद अवश्य करें तथा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ ही साथ अन्य praniyon की सहायता इस अन्न से करें | इस सब के साथ ही साथ यह भी मत भूलें कि यह जी कुछ भी मिला है , वह उस परमात्मा की महती कृपा का ही परिणाम है तथा वह परमात्मा ही इस सब का स्वामी है | इस लिए सदा उस प्रभु को याद रखें |
हमारा जीवन जिस अन्न के कारण बना हुआ है , उस अन्न की सुरक्षा का भी हम सदा ध्यान रखें | आज कल हमारे परिवारों में जिस प्रकार अन्न का तिरस्कार हो रहा है, नाश हो रहा है , वह पहले कभी न होता था | अन्न भंडार में अन्न को जीव नष्ट कर रहे हैं, साफ़ करते समय बहुत सा अन्न कूड़े में डाल देते हैं , पैरों में फैंक देते है | भोजन बनाते समय बहुत सा अन्न नष्ट कर देते हैं तथा खाते समय भी हम एक भाग जूठन के रूप में ही फैंक देते हैं | इतने अन्न से , जो हमने नष्ट कर दिया , अन्य कितने लोग तृप्त हो जाते | इसलिए मन्त्र अन्न की सुरक्षा व बचत के उपाय करने के लिए भी प्रेरित करता है |
उपनिषदों में भी अन्न निंदा को रोकने के लिए इस प्रकार उपदेश किया है :-
अन्नं न निन्द्यात तद वरतम |
अन्न का तिरस्कार न करने का, निंदा न करने का अथवा नष्ट न करने का प्रत्येक मनुष्य को व्रत लेना चाहिए , प्रतिज्ञा करना चाहिए |
पारस्कर सूत्र में भी इस प्रकार कहा गया ही :-
अन्नं साम्राज्यनामअधिपति: | पारस्कर ग्र्ह्यसुत्र १.५.१० |
जिस राजा के राज्य में प्रजा अन्न के अभाव से दुखी नहीं होती , वह राज्य ही स्थिर होता है | अन्न के अभाव में भूखे लोग दुखी हो कर ,शोषण करने वाले बड़े बड़े राज्यों को भो नष्ट करने का कारण बनते हैं | जब व्यक्ति भूखा होता है तो वह किसी भी ढंग से अपने उदर की तृप्ति के साधन धुन्धता है | इस के लिए चोरी , डाका, क़त्ल आदि उसके मार्ग में बाधा नहीं होता | इस प्रकार राज्य में वह अराजकता पैदा कर देता है तथा उस राज्य के नष्ट का कारण बनता है | इस लिए राजा का भी करे यह कर्तव्य हो जाता है कि अपने राज्य को स्थिर बनाए रखने के लिए प्रजा की प्रसन्नता का तथा उसकी तृप्ति का भी भर पूर प्रयास करो |
upanishad तो यहाँ तक कहता है कि अन्न को ही ब्रह्म samajho | अन्न का यथावश्यक प्रयोग करो , उसका दुरुपयोग कभी मत करो | जो भोजनार्थ अन्न तुम्हारी थाली में परोसा गया है , यदि वह दोषपूर्ण नहीं है तो उसे बिना किसी त्रुटी निकाले प्रसन्नता पूर्वक उपभोग करें | अन्न को ब्रह्म कहने का तथा उसकी उपासना करने का यह ही अभिप्राय है | भाहूत से लोग एसे भी hote हैं जो अन्न में dosh निकलते रहते हैं | इस में मिर्च कम है या अधिक है, यह स्वादिष्ट नहीं है आदि अनेक प्रकार से उसका तिरस्कार करते रहते हैं तथा मन मारकर भोजन करते हैं , एसे व्यक्ति को अन्न का पूर्ण लाभ नहीं मिलता, मात्र पेट भरने का कार्य वह अन्न कर पाता है | ठीक से पौषण नहीं कर पाता | अत: अन्न का तिरस्कार मत करो तथा जो मिला है, उसे प्रसन्नता से ग्रहण करो तो वह ठीक से पौषण करेगा |
मन्त्र हमें यह ही उपदेश करता है कि हम svaasthyprad व पौष्टिक भोजन करें | जिस samaj के sahyog से मिला है, उनका धन्यवाद करें, बाँट कर खावें , जो मिला है, उसे प्रभु का उपहार मानकर प्रसन्नता पूर्वक खावें ,उसमें न्युन्तातायें न निकालें तो यह अन्न हमारे लिए शक्तिवर्धक व स्वास्थ्य को बढ़ानेवाला होगा |

डा. अशोक आर्य

हे जीव!तूं सूर्य और चन्द्र के समान निर्भय बन

ओउम

हे जीव!तूं सूर्य और चन्द्र के समान निर्भय बन

डा. अशोक आर्य
इस सृष्टि में सूर्य और चंद्रमा दो एसी शक्तियां हैं, जो कभी किसी से भयभीत नहीं
होतीं | सदैव निर्भय हो कर अपने कर्तव्य की पूर्ति में लगी रहती हैं | यह सूर्य और चन्द्र निर्बाध रूप से निरंतर.अपने कर्तव्य पथ पर गतिशील रहते हुए समग्र संसार को प्रकाशित करते हैं | इतना ही नहीं ब्राह्मन व क्षत्रिय ने भी कभी किसी के आगे पराजित होना स्वीकार नहीं किया | विजय प्राप्त करने के लिए वह सदा संघर्षशील रहे हैं | जिस प्रकार यह सब कभी पराजित नहीं होते उस प्रकार ही हे प्राणी ! तूं भी निरंतर अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ कभी स्वप्न में भी पराजय का वर्ण मत कर | इस तथ्य को अथर्ववेद के मन्त्र संख्या २.१५.३,४ में इस प्रकार कहा है : –
यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च , न विभीतो न रिष्यत: |
एवा में प्राण माँविभे : !! अथर्व. २.१५.३ ||
यथा ब्रह्म च क्षत्रं च , न विभीतो न रिच्यत |
एवा में प्राण माँविभे : !! अथर्व. २.१५.४ ||

यह मन्त्र मानव मात्र को निर्भय रहने की प्रेरणा देता है | मन्त्र कहता है कि हे मानव ! तूं सदा असकता है पने जीवन में निर्भय हो कर रह | किसी भी परिस्थिति में कभी भयभीत न हो | मन्त्र एतदर्थ udaharn देते हुए कहता है कि जिस प्रकार कभी किसी से न डरने के कारण ही सूर्य और चन्द्र कभी नष्ट नहीं होते , जिस प्रकार ब्रह्म शक्ति तथा क्षात्र शक्ति भी कभी किसी से न डरने के कारण ही कभी नष्ट नहीं होती | जब यह निर्भय होने से कभी नष्ट नहीं होते तो तूं भी निर्भय रहते हुए नष्ट होने से बच |
हम डरते हैं डर क्या है ? भयभीत होते हैं , भय क्या है ? जब हम मानसिक रूप से किसी समय शंकित हो कर कार्य करते हैं इसे ही भय कहते हैं | स्पष्ट है कि मनोशक्ति का ह्रास ही भय है | किसी प्रकार की निर्बलता , किसी प्रकार की शंका ही भय का कारण होती है , जो हमें कर्तव्य पथ से च्युत कर भयभीत कर देती है | इससे मनोबल का पतन हो जाता है तथा भयभीत मानव पराजय की और अग्रसर होता है | मनोबल क्यों गिरता है — इस के गिरने का कारण होता है पाप , इसके गिरने का कारण होता है अनाचार , इस के गिरने का कारण होता है मानसिक दुर्बलता | जो प्राणी मानसिक रूप से दुर्बला है , वह ही लोभ में फंस कर अनाचार करता है , पाप करता है , अपराध करता है , अपनी ही दृष्टि में गिर जाता है , संसार मैं सम्मानित कैसे होगा ? कभी नहीं हो सकता |
मेरे अपने जीवन में एक अवसर आया | मेरे पाँव में चोट लगी थी | इस अवस्था में भी मै अपने निवास के ऊँचे दरवाजे पर प्रतिदिन अपना स्कूटर लेकर चढ़ जाता था | चढ़ने का मार्ग अच्छा नहीं था | एक दिन स्कूटर चढाते समय मन में आया कि आज में न चढ़ पाउँगा, गिर जाउंगा | अत: शंकित मन ऊपर जाने का साहस न कर पाया तथा मार्ग से ही लौट आया | पुन: प्रयास किया किन्तु भयभीत मन ने फिर न बढ़ने दिया , तीसरी बार प्रयास कर आगे बढ़ा तो गिर गया | इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि जब भी कोई कार्य भ्रमित अवस्था में किया जाता है तो सफलता नहीं मिलती | इसलिए प्रत्येक कार्य निर्भय मन से करना चाहिए सफलता निश्चय ही मिलेगी | प्रत्येक सफलता का आधार निर्भय ही होता है |
हम जानते हैं की मनोबल गिरने का कारण दुर्विचार अथवा पापाचरण ही होते हैं | जब हमारे ह्रदय में पापयुक्त विचार पैदा होते हैं , तब ही तो हम भयभीत होते हैं | जब हम किसी का बुरा करते हैं तब ही तो हमें भय सताने लगता है कि कहीं उसे पता चल गया तो हमारा क्या होगा ? इससे स्पष्ट होता है कि छल पाप तथा दोष पूर्ण व्यवहार से मनोबल गिरता है , जिससे भय की उत्पति होती है तथा यह भय ही है जो हमारी पराजय का कारण बनता है | जब हम निष्कलंक हो जावेंगे तो हमें किसी प्रकार का भय नहीं सता सकता | जब हम निष्पाप हो जावेंगे तो हमें किसी प्रकार से भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं रहती | जब हम निर्दोष व्यक्ति पर अत्याचार नहीं करते तो हम किस से भयभीत हों ? जब हम किसी का बुरा चाहते ही नहीं तो हम इस बात से भयभीत क्यों हों की कहीं कोई हमारा बुरा न कर दे , अहित न कर दे | यह सब तो वह व्यक्ति सोच सकता है , जिसने कभी किसी का अच्छा किया ही नहीं , सदा दूसरों के धन पर , दूसारों की सम्पति पर अधिकार करता रहता है | भला व्यक्ति न तो एसा सोच सकता हो तथा न ही भयभीत हो सकता है |
इसलिए ही मन्त्र में सूर्य तथा चंद्रमा का udaharn दिया है | यह दोनों सर्वदा निर्दोष हैं | इस कारण सूर्य व चंद्रमा को कभी कोई भय नहीं होता | वह यथाव्स्त अपने दैनिक कार्य में व्यस्त रहते हैं , उन्हें कभी कोई बाधा नहीं आती | इस से यह तथ्य सामने आता है कि निर्दोषता ही निर्भयता का मार्ग है , निर्भयता की चाबी है , कुंजी है | अत: यदि हम चाहते हैं कि हम जीवन पर्यंत निर्भय रहे तो यह आवश्यक है कि हम अपने पापों व अपने दुर्गुणों का त्याग करें | पापों , दुर्गुणों को त्यागने पर ही हमें यह संसार तथा यहाँ के लोग मित्र के समान दिखाई देंगे | जब हमारे मन ही मालिन्य से दूषित होंगे तो भय का वातावरण हमें हमारे मित्रों को भी शत्रु बना देता है , क्योंकि हमें शंका बनी रहती है कि कहीं वह हमारी हानि न कर दें | इस लिए हमें निर्भय बनने के लिए पाप का मार्ग त्यागना होगा, छल का मार्ग त्यागना होगा तथा सत्य पथ को अपनाना होगा | यही सत्य है , यही निर्भय होने का मूल मन्त्र है , जिस की और मन्त्र हमें ले जाने का प्रयास कर रहा है |
वेद कहता है कि मित्र व शत्रु , परिचित व अपरिचित , ज्ञात व अज्ञात , प्रत्यक्ष व परोक्ष , सब से हम निर्भय रहे | इतना ही नहीं सब दिशाओं से भी निर्भय रहे | जब सब और से हम निर्भय होंगे तो सारा संसार हमारे लिए मित्र के सामान होगा | अत: संसार को मित्र बनाने के लिए आवश्यक है कि हम सब प्रकार के पापों का आचरण त्यागें तथा सब को मित्र भाव से देखें तो संसार भी हमें मित्र समझने लगेगा | जब संसार के सब लोग हमारे मित्र होंगे तो हमें भय किससे होगा , अर्थात हम निर्भय हो जावेंगे | इस निमित वेदादेश का पालन आवश्यक है |
डा. अशोक आर्य

ईश्वर सुकृत कैसेः- राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री सुधाकर आर्य कोशाबी गाजियाबाद की दोनों नन्हीं-नन्हीं पुत्रियाँ बहुत कुशाग्र बुद्धि हैं। कभी-कभी ऐसे प्रश्न पूछ लेती हैं कि उनके दादा डॉ. अशोक आर्य सोच में पड़ जाते हैं कि इतनी छोटी-सी आयु की बालिकाओं को कैसे समझाऊँ। बच्चे के स्तर पर उत्तर देना प्रत्येक व्यक्ति के बस की बात नहीं है। एक आर्य बालक ने अपने स्वाध्यायशील पिता से पूछ लिया, वायु क्यों और कैसे चलती है? पिता के लिये समस्या खड़ी हो गई कि इसे क्या उत्तर दूँ?

डॉ. अशोक जी की चार वर्षीय पौत्री ने घर के बड़ों से पूछा, हम सबके घर में काले बाल हैं, दादा जी के काले क्यों नहीं हैं? उनकी दूसरी पोत्री से सन्ध्या के पश्चात् प्रश्न उठाया, मैं आप सबको देाती हूँ, परन्तु भगवान् दिखाई क्यों नहीं देता। मुझे उन्हें सन्तुष्ट करने को कहा गया। मैंने छोटी बालिका से कहा, तुम पहले से बड़ी हो गई हो। हम सबमें व्यापक ईश्वर हमारे शरीरों का परिवर्तन व वृद्धि करता रहता है। जवानी ढलती है, तो शरीर शिथिल हो जाता है। काले बाल श्वेत हो जाते हैं। वह प्रभु सुकृत सुन्दर और विचित्र कला वाला कलाकार या कारीगर है।

कहीं यह प्रसंग सुना रहा था तो किसी को सुकृत शब्द तो बहुत भाया, परन्तु इसे और स्पष्ट करने को कहा। साथ ही एक नया प्रश्न जोड़ दिया सूअर जैसे गन्दे प्राणी तथा सर्प जैसी योनि को बनाने वाले को वेद ‘सुकृत’ कहता है। हम उसे सुकृत कैसे मान लें?
उसे उत्तर दिया, देखो! हमारे बच्चों की आयु बढ़ती है तो पहले वाले मूल्यवान् वस्त्र कोट, स्वैटर आदि काम नहीं आते। वे ठीक होने पर भी बच्चों के काम नहीं आते। हमें बहुत व्यय करके नये मूल्यवान् वस्त्र सिलवाने पड़ते हैं, परन्तु मानव चोला वही का वही काम करता है। छोटा, कोट तो बड़ा नहीं बन सकता, परन्तु प्राु हमारे पैरों, टाँगों, भुजाओं, हाथों व मुख आदि सब अंगों को बिना कतरणी चलाये बढ़ाता जाता है। क्या कोई मानवीय कारीगर ऐसा कर सकता है? उस प्रश्न कर्त्ता तथा सब श्रोताओं का मेरे द्वारा दिया गया उत्तर बहुत जँचा। वे मुग्ध हो गये। अब उन्हें समझ में आ गया कि वेद ने ईश्वर को सुकृत क्यों कहा है।
रही बात सूअर आदि योनियों को क्यों बनाया? सो उन्हें बताया कि जिसने सूअर जैसा आपको गन्दा दिखने वाला जन्तु पैदा किया है। मोर व तोते जैसे सुन्दर प्राणी पक्षी भी उसी ने बनाये हैं। सुन्दर दर्शनीय नगरों में जहाँ स्कूल, कॉलेज, हस्पताल बनाये जाते हैं, वहीं कारागार व फांसी का फँदा भी होता है। ये भी जीवों के कल्याणार्थ आवश्यक हैं।

तप से आयु व ज्ञान बढ़ता है

ओउमˎ
तप से आयु व ज्ञान बढ़ता है
डा. अशोक आर्य
यह एक ध्रुव सत्य है कि इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति लम्बी आयु प्राप्त करने का अभिलाषी है | इस अभिलाषा के अनुरूप लम्बी आयु तो चाहता है किन्तु इस लम्बी आयु को पाने के लिए उसे कठिन पुरुषार्थ करना होता है | वास्तव में मानव बड़ी बड़ी अभिलाषाएं तो रखता है किन्तु तदनुरूप पुरुषार्थ नहीं करता | फिर इन विशाल अभिलाषाओं का क्या प्रयोजन ? कैसे पूर्ण हों ये अभिलाषाएं ? आज का मानव सब प्रकार से निरोग व हृष्ट पुष्ट रहते हुए ज्ञान का स्वामी बनने के लिए इच्छाओं का सागर तो ढोता है किन्तु इस सागर में से एक बूंद भी पाने के लिए , उस का उपभोग करने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , जब कि सब प्रकार की उपलब्धियां पुरुषार्थ से ही पायी जा सकती हैं | पुरुषार्थ ही इस जीवन का आधार है | इस लिए वेदादि महान ग्रन्थ पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा देते हैं | ज्ञान व आयु बढाने के लिए तपोमय जीवन बनाने की प्रेरणा अथर्ववेद के मन्त्र ७.६१.२ मैं इस प्रकार दी गयी है | :-
अग्ने तपस्तप्यामहे , उप तप्यामहे ताप: |
श्रु तानी श्रन्वंतो वयं, आयुष्मंत: सुमेधस: || अथर्व. ७.६१.२ ||
यदि इस मन्त्र का संक्षेप में भाव जानने का प्रयास करते हैं तो हम पाते हैं कि मन्त्र हमें उपदेश दे रहा है कि हे मनुष्य तूं मानसिक व शारीरिक तप कर | इस प्रकार तप द्वारा वेदादि का ज्ञान प्राप्त करते हुए मेधावी व दीर्घ आयु को प्राप्त कर |
भाव से स्पष्ट है कि यह मन्त्र दो प्रकार के तापों का उल्लेख कर रहा है | इन दो प्रकार के तापों का नामकरण इस प्रकार कर सकते हैं : –
१. तप
२. उपतप
मन्त्र कहता है कि इन दो प्रकार के तपों के निरंतर अभ्यास से बुद्धि शुद्ध होती है , निर्मल होती है ,तेजस्वी होती है तथा इस प्रकार के तप से मानव ज्ञान का स्वामी बन जाता है व दीर्घायु को प्राप्त होता है |
यह जो दो प्रकार के तपों का वर्णन इस मन्त्र में आया है इन में से तप को हम मानस तप तथा उपतप को शारीरिक तप का नाम दे सकते हैं | मानस तप उस तप को कहते हैं , जिस के द्वारा शरीर व मन शुद्ध होता है | इस के लिए शरीर को विशेष कष्ट नहीं करना होता | इसे पाने के लिए अधिक परिश्रम अधिक पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं होती | दूसरी प्रकार के तप का नाम उपतप के रूप
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में जो दिया है इस प्रकार के तप को पाने के लिए आसन व प्राणायाम करना होता है | दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि आसन व प्राणायाम को उपतप के नाम से जाना गया है | आसन व प्राणायाम के लिए मनुष्य को प्रयास करना होता है , मेहनत करनी होती है , पुरुषार्थ करना होता है | इस प्रकार शरीर को कुछ कष्ट दे कर इस की शुद्धिकरण का प्रयास आसन व प्राणायाम द्वारा किया जाता है तो इसे उपतप के नाम से जाना गया है | गीता में उपदेश देते हुए श्लोक संख्या १७.१४ तथा श्लोक संख्या १७.१६ के माध्यम से योगी राज श्री कृष्ण जी इस प्रकार उपदेश करते हैं : –
देव्द्विजगुरुप्राग्यपूजनं शौचमार्जवम |
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || गीता १७.१४ ||

मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह: |
भावसंशुद्धिरित्येतत तपो मानसमुच्यते || गीता १७.१६ ||
श्रीमद्भागवद्गीता के उपर्वर्णित श्लोको के अनुसार मानस तप का अति सुन्दर वर्णन किया है | श्लोक हमें उपदेश कर रहा है कि मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मनोनिग्रह, भावशुद्धि तथा जितेन्द्रियता आदि को मानस तप जानों | ब्रह्मचर्य, अहिंसा, शरीर की शुद्धि , सरलता आदि शारीरिक तप हैं | इस प्रकार गीता भी वेदोपदेश का ही अनुसरण कर रही है | इतना ही नहीं योगदर्शन भी इसी चर्चा को ही आगे बढ़ा रहा है | योग दर्शन के अनुसार : –
अहिन्सासत्यास्तेय – ब्रह्म्चर्याप्रिग्रहा यमा: || योग. २.३० ||
शौचासंतोश -ताप – स्वाध्यामेश्वर्प्रनिधानानी नियमा: || योग २.३२.||
इस प्रकार योग दर्शन ने यम को मुख्य ताप तथा नियम को गौण या उपताप बताया है | इस के अनुसार यम पांच प्रकार के होते हैं : –
(१.) अहिंसा
(२.) सत्य
(३.) अस्तेय (चोरी न करना
( ४.) ब्रह्मचर्य का पालन
( ५). विषयों से विकृति अर्थात अपरिग्रह
योग – दर्शन कहता है कि सुखों के अभिलाषी को इन पांच यम पर चलना आवश्यक है | इस के बिना वह सुखी नहीं रह सकता | इस के साथ ही योग – दर्शन नियम पालन को भी इस मार्ग का आवश्यक अंग मानता है | इस के अनुसार नियम भी पांच ही होते हैं : _
(१) स्वच्छता , जिसे शौच कहा है
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(२) संतोष
(३) तप
(४) स्वाध्याय
(५) ईश्वर चिंतन जिसे ईश्वर प्रणिधान का नाम दिया गया है
योग दर्शन ने जहाँ पांच तप माने हैं ,वहां तप को नियम का भी भाग माना है तथा पांच नियमों में एक स्थान तप को भी दिया गया है | इस से ही स्पष्ट है की तप अर्थात पुरुषार्थ का महत्व इस में सर्वाधिक है | फिर पुरुषार्थ के बिना तो कोई भी यम अथवा नियम का पालन नहीं किया जा सकता |
अंत में हम कह सकते हैं कि अग्निरूप परमात्मा के आदेश से जब हम मानसिक व शारीरिक तप करते हैं तथा वेदादि सत्य ग्रंथों का स्वाध्याय कर ज्ञान प्राप्त करते हैं तो हमें अतीव प्रसन्नता मिलती है, अतीव आनंद मिलता है | आनंदित व्यक्ति की सब मनोका – मनाएं पूर्ण होती हैं | जिसकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं , उसकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता | प्रसन्न व्यक्ति को कभी कोई कष्ट या रोग नहीं होता, वह सदा निरोग रहता है | जो नोरोगी है उसकी आयु में कभी ह्रास नहीं होता , उसकी आयु दीर्घ होती है | अत: वेदादेश को मानते हुए वेद मन्त्र में बताये उपाय करने चाहियें , जिससे हम सुदीर्घ आयु पा सकें |
डा. अशोक आर्य

मेरे शरीर व मन पुष्ट हों,मुझे प्रकाश दो

ओ३म
मेरे शरीर व मन पुष्ट हों,मुझे प्रकाश दो
डा. अशोक आर्य ,
ईश्वर सुखों का भंडार है | मानव को मिलने वाले सब सुख उस प्रभु की कृपा का ही परिणाम है | ईश्वर राजा को रंक बना सकता है तथा रंक को राजा | ईश्वर का आदेश है कि हे मनुष्य ! तुकर्म कर , उसका फल तुझे मैं दूंगा | इस से स्पष्ट है कि ईश्वर यूँ ही राजा को रंक नहीं बनाता और न यूँ ही किसी को रंक से राजा बनाता है जो मानव कर्म करता है , पुरुषार्थ करता है , मेहनत करता है, उसे ईश्वर निश्चित ही उपर उठता है | हम भी प्रति क्षण ईश्वरसे हमारे सुखद भविष्य कि प्रार्थना करते हैं | हम सदा चाहते हैं कि हे ईश्वर ! मुझे सदा स्वस्थ रखें, पुष्ट रखें , सुखी रखें , प्रकाशित रखें | इस के लिए हमें तदनुरूप पुरुषार्थ करना होगा ईश्वर पुरुषार्थी का ही रक्षक होता है | यजुर्वेद के अध्याय १४ मन्त्र १७ में इसे ही दर्शाया गया | मन्त्र इस प्रकार है : –

आयुर्मे पाहि , प्राण में पाह्यपान्म में पाहि |
व्यान्म में पाही ,च्क्शुर्मे पाहि , श्रोत्रं में पाहि ,
वाचन में पिन्व ,मनो मे जिन्वात्मान्म में पाःही ,
ज्योतिर्मे यच्छ || यजुर्वेद १४-17 ||
शब्दार्थ : –
(में) मेरी (आयु:) आयु की (पाहि) रक्षा करो (में प्राणं पाहि) मेरे प्राणवायु की रक्षा करो (में अपानं पाहि) मेरी अपां वायु की रक्षा करो(में व्यानाम पाहि( में व्यान वायु की
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रक्षा करो (में चक्षु: पाहि) मेरी आँखों की रक्षा करो(में श्रोत्रं पाहि) मेरे कानो की रक्षा करो (में वाचं पिन्व)मेरी वाणी को पुष्ट करो (में मन: जिन्व ) मेरे मन को प्रसन्न व तृप्त करो(में आत्मानं पाहि) मेरी आत्मा की रक्षा करो (में ज्योति: यच्छ ) मुझे प्रकाश दो |
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भावार्थ : –
हे परमपिता परमात्मन , मेरी आयु की रक्षा करो | हे प्रभु , मेरे प्राण, अपान, व्यान आदि सब वायुओं की रक्षा करो | हे पिता, मेरी आँखों व कानों की रक्षा करो | हे परमेश्वर, मेरी वाणी को पुष्ट करो व मन को तृप्त करो | हे सर्व रक्षक , मेरी आत्मा की रक्षा करो तथा मुझे प्रकाश दो |

ऊपर हमने यजुर्वेद का मूल मन्त्र देकर उसका शब्दार्थ व भावार्थ भी दे दिया है ताकि हम इस मन्त्र की विषद व्याख्या करने तथा समझने मैं समर्थ हो सकें | अत: आओ हम मन्त्र की विवेचनात्मक व्याख्या द्वारा मन्त्र के भाव को समझने का प्रयास करें तथा दूसरों को भी समझाने के लायक बनें |
मन्त्र में कुछ व्यक्तिगत प्रार्थनाओं के द्वारा हम ने प्रभु से हमारे विभिन्न अवयवो की रक्षा, पुष्टि व प्रकाश देने की प्रार्थना की है | परमपिता परमात्मा हमारा पिता होने के कारण हम उस प्रभु से जो कुछ भी माँगते हैं वह हमें देता ही चला जाता है | प्रभु देता तो है किन्तु देता उसे ही है जो लेने के लिए सुपात्र हो | कुपात्रों को वह प्रभु कुछ भी नहीं देता | कहा भी है की जैसा बोवोगे , वैसा ही काटोगे | यदि हम गेहूं का बीज अपने खेत में डालेंगे तो प्रभु उसका फल गेहूं के पौधे के रूप में ही देता है खरबूजा कभी नहीं लगाता, खरबूजे के पौधे पर सदा खरबूजा ही लगाता है , आम कभी नहीं लगाता | इस प्रकार प्रभु का कार्य व न्याय सत्य है | इसे कोई कितना भी प्रयास करे बदल नहीं सकता | प्रभु सहायता उसकी ही करता है जो पुरुषार्थ, परिश्रम से अपनी सहायता करता है | इस आलोक में मन्त्र का अर्थ हम इस प्रकार करते हैं :-
मन्त्र में परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करते हुए मांग की गयी है की वह प्रभु हमारी आयु,प्राण.अपान.व्यान आदि सब प्रकार की वायुओं की रक्षा करो | प्रभु हम सब का रक्षक है, देवों का देव है | इस नाते हम जो कुछ भी उस प्रभु से माँगते है, वह हमें देता है किन्तु कुछ भी देने से पहले प्रभु एक शर्त लगाता है तथा हमें उपदेश देते हुए कहता है कि मैं यह सब तभी दूंगा, जब तुम अपने आप को कुछ लेने का अधिकारी बनोगे | कुछ लेने का अधिकारी बनने के लिए मेहनत करनी होगी , पुरुषार्थ करना होगा | जब मांग के अनुरूप पुरुषार्थ करोगे तब ही कुछ मिलेगा , यदि यह समझो की जो मांगेंगे,वह मिल तो जाना ही है, तो मेहनत की क्या आवश्यकता है ,तो ऐसे व्यक्ति को प्रभु भी कुछ देने वाला नहीं | हम
\ने प्रभु से शरीर की रक्षा करना तो माँग लिया किन्तु शरीर की रक्षा के विरुद्ध शरीर को नस्ट करने का
काम कर रहे हैं तो प्रभु हमारी प्रार्थना कैसे स्वीकार करेगा ? अत: जो हम माँगते हैं वह हमें हमारे पुरुषार्थ करने पर ही प्रभु देता है | इस मन्त्र में हमने प्रभु से हमारे शारीर की विभिन्न प्रकार की वायुओं की रक्षा की मांग की है | वायुओं की रक्षा के लिए प्राणायाम करना होता है | यह प्राणायाम ही है , जिससे हमारी

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सब प्रकार की वायुओं में पुष्टि आती है ,उनमें शक्ति आती है तथा शरीर भी निरोग बनाता है | हम प्राणायाम नहीं करते तो यह शक्तियां हम प्राप्त नहीं कर सकते | अत: प्रभु की प्रार्थना के साथ ही साथ पुरुषार्थ भी आवश्यक है | हमारे शरीर में पांच प्रकार की प्राण आदि वायुओं का निवास है | इन पाँचों वायुओं के स्थान व कार्य भी निश्चित हैं जो एक श्लोक में इस प्रकार बताये गए हैं : –
हृदि प्राणों, गुदे$पान: , सामानों नाभिमंदाले |
उदान: कंठदेशस्थो , व्यान: सर्वशरीरग: ||
हमारे शारीर में जो प्राणवायु चल रहा है, उसे ही प्राण शक्तिभि कहते है | यह दो नहीं हैं ,एक के ही दो नाम हैं | जिस प्रकार किसी रामलाल व्यक्ति को कोई तो रामलाल कहता है तो कोई पिता, मामा ,चाचा, ताया या किसी एनी नाम से संबोधन करता है || इस प्रकार शरीरस्थ वायु भी एक ही है किन्तु कार्य भेद से पांच नाम दिए गए हैं जो इस प्रकार हैं : –
१. प्राण वायु :-
यह वायु ह्रदय की शुद्धि तथा रक्त को निर्धारित स्थान पर पहुँचाने का कार्य करती है | दूसरे शब्दों में हम कह सकते है की यह वायु शरीर की व्यवस्था का मुख्य भार अपने पास रखती है | शरीर का संचालन रक्त से ही होता है | रक्त को शरीर के सब भागों में पहुँचाने का कार्य यह वायु करती है | इस कारण इसे शरीर की संचालक वायु भी हम कह सकते हैं | सब जानते हैं की शरीर का संचालन ह्रदय से ही होता है | अत: हम कह सकते हैं कि इस वायु का मुख्य कार्य एक रसोईये के समान है,जो बनाता भी है तथा सब को बांटने का कार्य भी करता है | अत: हम कह सकते हैं की इस वायु का निवास ह्रदय में ही होता है | ह्रदय ही शरीर का केंद्र होने के कारण यहाँ से सब अवयवों का संचालन सरल हो जाता है | इस लिए यह वायु यहीं पर ही अपना निवास बनाती है |
२. अपान वायु : –
शरीर में एकत्र हो रहे मल – मूत्र आदि शल्य पदार्थों को बाहर निकाल कर शारीर को शुद्ध रखना होता है | यह मल शुद्धि के माध्यम से शरीर की गन्दगी को शरीर से साफ़ कर बाहर निकालने का कार्य करती है | शरीर की मल्शुधि का मुख्य कार्य गुदा मार्ग से ही होता है
, इस कारण इस का निवास स्थान गुदा को अर्थात नाभि के नीच के स्थान को ही माना गया है | यदि हमारे शरीर का शोधन न हो तो हमारे शरीर में रोग के कीटाणुओं की संख्या तेजी

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से बढ़ेगी ,जिससे हम किसी भी भयंकर रोग का ग्रास बन जावेंगे | इस लिए इस वायु का भी हमारे शरीर को स्वस्थ रखने में महत्वपूर्ण योगदान है |
३. समान वायु : –
इस वायु को कन्द्रीय वायु भी कहते हैं | जो भोजन हम करते हैं , यदि वह पचे नहीं तो हमारे शरीर को घोर कष्टों का सामना करना पड़ता है | यह वायु हमारे खाए भोजन को पचाने का कर्तव्य पूर्ण करने के साथ ही साथ इस भोजन से रक्त बना कर उस रक्त को शरीर के विभिन्न अवयवों को बांटने का कार्य करती है | इस का निवास शरीर के केंद्र में होने के कारण ,यह सदा नाभि में निवास करती है |
४. उदान वायु : –
यह वायु मनुष्य को उर्ध्वारेता बनाने का कार्य करती है | यह ही वह वायु है जो ह्रदय तथा मस्तिष्क में सम्बन्ध बनाती है | यह वायु हमारे कंठ को भी शुद्ध करती है तथा मस्तिष्क को शक्ति अर्थात पुष्ट करने का कार्य भी करती है | इस वायु का मुख्य कार्य कंठ से होने के कारण इस का निवास भी कंठ ही होता है |
५. व्यान वायु : –
यह वायु उपर्वर्णित चारों प्रकार की वायुओं में समन्वय बैठाने काम करती है | इस के साथ ही साथ शरीर के प्रत्येक अंग में प्राण का संचार करती है | इस वायु के बिना शरीर में चेतना नहीं आ सकती | सारे शरीर से सम्बन्ध होने के कारण यह वायु पूरे शरीर में व्याप्त रहती है , इस कारण इस का निवास भी पूरे शरीर में होता है|
मन्त्र अंत मैं प्रार्थानाके माध्यम से कहता है की मेरी आत्मा की रक्षा करते हुए ज्योति देने की भी मांग करता है | अब हम देखें की आत्मा की रक्षा कैसे होती है ? जो मनुष्य अच्छे कार्य करताहै , शुभ कर्म करता है, दुसारों की सहायता करता है , उसकी आत्मा को जो ख़ुशी प्राप्त होती है , उसका वर्णन कलम से तो संभव नहीं है | बस ऐसे कार्य करने से ही आत्मा की रक्षा होती है | ऐसे कार्य करने वाले की ख्याति ही उसकी रक्षक बनती है | अत: प्रभु से प्रार्थना के साथ ही साथ अच्छे कार्य भी करते रहना चाहिए ताकि आत्मा भी तृप्त हो तथा उसकी रक्षा भी हो |
यहाँ ज्योति देने या प्रकाश देने की भी मांग की गयी है| जब कोई मनुष्य शुभ काम करता है तो उसकी ख्याति तो दूर दूर तक जाती ही है साथ ही साथ उसके अन्दर एक सुखदायक प्रकाश भी उसे दिखाई देता है | यह ज्योति या प्रकाश ही तो हम प्रभु से माँगते हैं |
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यह ज्योति ही वास्तव में मानव के जीवन को पवित्र, सुखप्रद , प्रशास्तिपूर्ण व उन्नत बनाती है | इस ज्योति को पाने के किये मनुष्य जीवन पर्यंत भटकता रहता है जब कि इसे पाने का साधन उसके अपने ही हाथ में होता है |
इस प्रकार मन्त्र में शरीर के विभिन्न अवयवों को पुष्ट करने व उनकी रक्षा का उपाय वायुओं को बताया है तथा इन वायुओं की रक्षा स्वरूप प्राणायाम को अपनाने की प्रेरणा दी है | साथ ही आत्मा की रक्षा के लिए अच्छे काम कर एक विचित्र प्रकाश देने की प्रार्थना की गयी है , जिससे मानव का जीवन सफल बनता है |
डा. अशोक आर्य ,मंडी डबवाली
१०४ – शिप्रा अपार्टमैंट ,कोशाम्बी ,गाजियाबाद चलभाष :०९७१८५२८०६८, ०९३५४८४५४२६

अजेयता के तप लिए आवश्यक

ओउम
अजेयता के तप लिए आवश्यक

डा. अशोक आर्य ,
यह तप ही है जो मानव को अजेय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को अघर्श्नीय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को सब सुखों की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो ज्ञान आदि की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो सब प्रकार की सफलता का साधन है | इस तथ्य को ऋग्वेद के अध्याय १० मंडल १५४ के मन्त्र संख्या २ मैं इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : तपसा ये अनाध्रिश्यास्तपसा ये स्वर्ययु: |
तपो ये चक्रिरे महास्तान्श्चिदेवापी गच्छतात || ऋग. १०.१५४.२ ||
हे (मर्त्य ) मनुष्य (ये ) जो (तपसा) तपस्या से (अनाध्रिश्या:) अघर्शनीय हैं ( ये) जो (तपसा) तपस्या से (स्व: ) सुख को (ययु:)प्राप्त हुए हैं (ये) जिन्होंने (माह: ) महान (तप: ) तपस्या ( चक्रिरे) की है ( तान चिद एव ) उनके पास ही (अपि गच्छतात) जाओ |
भावार्थ : –
हे मनुष्य इस संसार मे जो अघर्श्नीय हैं , जो तप से सुखों को प्राप्त कर चुके हैं , जिन मनुष्यों ने महान तप किया है , ज्ञान आदि प्राप्त करने के लिए उनके ही समीप जाओ |
मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफल हो | वह जानता है कि सफलता से ही यश मिलता है ,सफलता से ही कीर्ति मिलती है तथा सफलता से ही उस की ख्याति दूर दूर तक जा पाती है , जो कभी सफलता के दर्शन ही नहीं करता , उस को कोंन याद करेगा, उसका उदहारण कोंन अपने बच्चों को देगा | उस का कोंन अनुगामी बनेगा , कोई भी तो नहीं | इस लिए मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा रहती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करे ताकि उसका यश व कीर्ति दूर दूर तक जा पावे | लोग उसके अनुगामी बन उसके पद – चिन्हों पर चलें | इस सब के लिए जीवन की सफलता का रहस्य का ज्ञान होना आवश्यक है | जिसे सफलता के रहस्य का ज्ञान ही नहीं , वह कहाँ से सफलता प्राप्त कर सकेगा | अत: हमें यह जानना आवश्यक है कि हम सफलता के रहस्य को समझें |
जीवन की सफलता का रहस्य : –
जीवन कि सफलता का रहस्य है तप और साधना |
साधना किसे कहते हैं :
जब व्यक्ति अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लेता है तथा उस लक्ष्य को पाने के लिए एकाग्रचित हो निरंतर लग जाता है तो इसे साधना कहते हैं | तप भी इसे ही कहा जाता है |
इससे एक बात सपष्ट है कि मनुष्य को किसी भी प्रकार की साधना के लिए , किसी भी प्रकार का तप करने के लिए सर्व प्रथम एक लक्ष्य निर्धारित करना आवश्यक है | यह लक्ष्य ही है जो हमें निरंतर अपनी और खिंचता रहता है | यदि लक्ष्य ही हमने नहीं निश्चित किया तो किसे पाने के लिए हम प्रयास करेंगे ? जब हमें पता है कि हमने पांच किलोमीटर चलना है तो इस मंजल को पाने के लिए आगे बढ़ते चले जावेंगे तथा कुच्छ दूरी पर ही हमें आभास होगा कि अब हमारा लक्ष्य समीप चला आ रहा है किन्तु यदि हमें अपने लक्ष्य का पता ही नहीं कि हमने कितने किलोमीटर जाना है , तो हम किस लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढेंगे | इससे यह तथ्य सपष्ट होता है कि किसी भी सफलता को पाने के लिए प्रयास आरम्भ करने से पूर्व हमें एक लक्ष्य निश्चित करना होगा |
दृढ संकल्प : –
जब हमने कोई कार्य करने के लिए लक्ष्य निर्धारित कर लिया तो उस लक्ष कि प्राप्ति के लिए दृढ संकल्प का होना भी आवश्यक है , अन्यथा हमारा लक्ष्य केवल हवाई किला ही सिद्ध होगा |
अनुष्ठान : –
जब एक लक्ष्य निर्धारित हो गया तथा इसे पूर्ण करने का दृढ संकल्प भी हो गया तो इसे अनुष्ठान कहते है | दृढ निश्चय से यह एक अनुष्ठान बन जाता है | इस अनुष्ठान या व्रत को विधि पूर्वक संपन्न करने का प्रयास ही या इसे पूर्णता पर पहुंचाना ही साधना है | इस प्रयास को तप भी कहा जाता है | साधना ही तप का वास्तविक रूप होता है |
लक्ष्य तो प्रत्येक व्यक्ति का ही बड़ा उंचा होता है किन्तु वह इसे पाने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , मेहनत नहीं करता , साधना नहीं करता, तप नहीं करता तो यह लक्ष्य उसे कैसे मिलेगा | यह द्रढ संकल्प ही है , जो मनुष्य को साधना करने की प्रेरणा देता है , जो हमें तप करने की प्रेरणा देता है , जो हमें पुरुषार्थ के मार्ग पर ले जाता है | दृढ निश्चय व कतिवद्धता के बिना लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता |
दृढ निश्चय तथा कतिबधता ; –
लक्ष्य की प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति में दृढ निश्चय तथा उसे पूर्ण करने के लिए कटिबद्धता का होना भी आवश्यक है | अन्यथा यदि हम ने बहुत ही उंचा लक्ष्य निर्धारित कर लिया किन्तु उसे प्राप्त करने के लिए हम दृढ संकल्प नहीं कर पाए , अन्यमनसक से हो कर कभी प्रयास किया कभी छोड़ दिया तो उसे कैसे पावेंगे ? और यदि संकल्प भी दृढ कर लिया किन्तु कटिबद्ध होकर कार्य में जुटे ही नहीं तो भी कार्य की सम्पान्नता संभव नहीं | लक्ष्य से भटक कर लक्ष्य को नहीं प्राप्त किया जा सकता | अत: लक्ष्य चाहे छोटा हो यहा बड़ा , उसे पाने के लिए निश्चय का दृढ होना तथा उसे पाने के लिए प्रयास करना या कटिबद्ध होना भी आवश्यक है |
जब मनुष्य दृढ निश्चय से कार्य में जुट जाता है तो वह शनै: शनै: सफलता प्राप्त करते हुए अंत में उन्नति कि पराकाष्ठा तक जा पहुंचेगा | तभी तो कहा है कि जब अभ्यास सत्य ह्रदय से होता है तो उसे करने वाला व्यक्ति सिद्ध तपोनिष्ठ हो कर अजेय व अघर्शनीय बन जाता है अर्थात वह अपने कार्यमें इतना सिद्ध हस्त हो जाता है कि कभी कोई उसका प्रतिस्पर्धी हो ही नहीं पाता | वह अजेय हो जाता है | अब उसे जय करने की क्षमता किसी अन्य में नहीं होती | सब प्रकार कि सीढियां उसे अपने कार्य में धीरे धीर मिलती ही चली जाती हैं | जिस कार्य को वह अपने हाथ में लेता है , उस कार्य में सफलता दौड़े हुए उसके पास चली आती है |
यह मन्त्र इस उपर्युक्त तथ्य पर ही प्रकाश डालता है कि जो व्यक्ति अपना लक्ष्य निर्धारित कर लेता है , उस लक्ष्य को पाने के लिए दृढ संकल्प होता है तथा वहां तक पहुँचने के लिए कटिबद्ध हो पुरुषार्थ करता है तो सब सिद्धियाँ उसे निश्चय ही प्राप्त होती हैं | अपने प्रत्येक कार्य में उसे सफलता मिलती है , मानो सफलता स्वागत के लिए उस के मार्ग पर खड़ी पहले से ही प्रतीक्षा – रत हो | इस तथ्य को ही मन्त्र में स्पष्ट किया है तथा कहा है कि किसी भी प्रकार की सफलता के लिए तप का होना आवश्यक है | बिना तप के कुछ भी मिल पाना संभव नहीं है | अत: हे मानव उठ ! अपना लक्ष्य निर्धारित कर , दृढ संकल्प हो उसे पाने के लिए प्रयास कर , तुझे सफलता निश्चित ही मिलेगी |

डा. अशोक आर्य
१०४- शिप्रा अपार्टमैंट , कौशाम्बी जिला गाजियाबाद उ. प्र चलभाष :०९७१८५२८०६८

हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

ओउम
हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

डा. अशोक आर्य ,
अग्नि तेज का प्रतीक है, अग्नि एश्वर्य का प्रतिक है, अग्नि जीवन्तता का प्रतिक है | अग्नि मैं ही जीवन है , अग्नि ही सब सुखों का आधार है | अग्नि की सहायता से हम उदय होते सूर्य की भांति खिल जाते हैं , प्रसन्नचित रहते हैं | जीवन को धन एश्वर्य व प्रेम व्यवहार लाने के लिए अग्नि एसा करे | इस तथ्य को ऋग्वेद के ६-५२-५ मन्त्र में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
विश्वदानीं सुमनस: स्याम
पश्येम नु सुर्यमुच्चरनतम |
तथा करद वसुपतिर्वसुना
देवां ओहानो$वसागमिष्ठ: || ऋग.६-५२-५ ||
शब्दार्थ : –
(विश्वदानीम) सदा (सुमनस:) सुन्द व पवित्र ह्रदय वाले प्रसन्नचित (स्याम) होवें (न ) निश्चय से (उच्चरंतम) उदय होते हुए (सूर्यम) सूर्य को (पश्येम) देखें (वसूनाम) घनों का (वसुपति: ) धनपति , अग्नि (देवां) देवों को (ओहान:) यहाँ लाता हुआ (अवसा) संरक्षण के साथ (आगमिष्ठा:) प्रेमपूर्वक आने वाला (तथा) वैसा (करत ) करें |
भावार्थ :-
हम सदा प्रसन्नचित रहते हए उदय होते सूर्य को देखें | जो धनादि का महास्वामी है , जो देवों को लाने वाला है तथा जो प्रेम पूर्वक आने वाला है , वह अग्नि हमारे लिए एसा करे |
यह मन्त्र मानव कल्याण के लिए मानव के हित के लिए परमपिता परमात्मा से दो प्रार्थनाएं करने के लिए प्रेरित करता है : –
१. हम प्रसन्नचित हों
२. हम दीर्घायु हों
मन्त्र कहता है की हम उदारचित ,प्रसन्नचित , पवित्र ह्रदय वाले तथा सुन्दर मन वाले हों | मन की सर्वोतम स्थिति हार्दिक प्रसन्नता को पाना ही माना गया है | यह मन्त्र इस प्रसन्नता को प्राप्त करने के लिए ही हमें प्रेरित करता है | मन की प्रसन्नता से ही मानव की सर्व इन्द्रियों में स्फूर्ति, शक्ति व ऊर्जा आती है |
मन प्रसन्न है तो वह किसी की भी सहायता के लिए प्रेरित करता है | मन प्रसन्न है तो हम अत्यंत उत्साहित हो कर इसे असाध्य कार्य को भी संपन्न करने के लिए जुट सकते है, जो हम साधारण अवस्था में करने का सोच भी नहीं सकते | हम दुरूह कार्यों को सम्पन्न करने के लिए भी अपना

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हाथ बढ़ा देते हैं | यह मन के प्रसन्नचित होने का ही परिणाम होता है | असाध्य कार्य को करने की भी शक्ति हमारे में आ जाती है | अत्यंत स्फूर्ति हमारे में आती है | यह स्फूर्ति ही हमारे में नयी ऊर्जा को पैदा करती है | इस ऊर्जा को पा कर हम स्वयं को धन्य मानते हुये साहस से भरपूर मन से ऐसे असाध्य कार्य भी संपन्न कर देते हैं , जिन्हें हम ने कभी अपने जीवन में कर पाने की क्षमता भी अपने अंदर अनुभव नहीं की थी |
मन को कभी भी अप्रसन्नता की स्थिति में नहीं आने देना चाहिए | मन की अप्रसन्नता से मानव में निराशा की अवस्था आ जाती है | वह हताश हो जाता है | यह निराशा व हताशा ही पराजय की सूचक होती है | यही कारण है की निराश व हताश व्यक्ति जिस कार्य को भी अपने हाथ में लेता है, उसे संपन्न नहीं कर पाता | जब बार बार असफल हो जाता है तो अनेक बार एसी अवस्था आती है कि वह स्वयं अपने प्राणांत तक भी करने को तत्पर हो जाता है | अत: हमें ऐसे कार्य करने चाहिए, ऐसे प्रयास करने चाहिए, एसा पुरुषार्थ करना चाहिए व एसा उपाय करना चाहिए , जिससे मन की प्रसन्नता में निरंतर अभिवृद्धि होती रहे |
मन की पवित्रता के लिए कुछ उपाय हमारे ऋषियों ने बताये हैं , जो इस प्रकार हैं : –
१. ह्रदय शुद्ध हो : –
हम अपने ह्रदय को सदा शुद्ध रखें | शुद्ध ह्रदय ही मन को प्रसन्नता की और ला सकता है | जब हम किसी प्रकार का छल , कपट दुराचार ,आदि का व्यवहार नहीं करें गे तो हमें किसी से भी कोई भय नहीं होगा | कटु सत्य को भी किसी के सामने रखने में भय नहीं अनुभव करेंगे तो निश्चय ही हमारी प्रसन्नता में वृद्धि होगी |
२. पवित्र विचारों से भरपूर मन : –
जब हम छल कपट से दूर रहते हैं तो हमारा मन पवित्र हो जाता है | पवित्र मन में सदा पवित्र विचार ही आते है | अपवित्रता के लिए तो इस में स्थान ही नहीं होता | पवित्रता हमें किसी से भय को भी नहीं आने देती | बस यह ही प्रसन्नता का रहस्य है | अत; चित की प्रसन्नता के लिए पवित्र विचारों से युक्त होना भी आवश्यक है |
३. सद्भावना से भरपूर मन : –
हमारे मन में सद्भावना भी भरपूर होनी चाहिए | जब हम किसी के कष्ट में उसकी सहायता करते है , सहयोग करते हैं अथवा विचारों से सद्भाव प्रकट करते हैं तो उसके कष्टों में कुछ कमीं आती है | जिसके कष्ट हमारे दो शब्दों से दूर हो जावेंगे तो वह निश्चित ही हमें शुभ आशीष देगा | वह हमारे गुणों की चर्चा भी अनेक लोगों के पास करेगा | लोग हमें सत्कार देने लगेंगे | इससे भी हमारी चित की प्रसन्नता अपार हो जाती है | अत: चित की प्रसन्नता के लिए सद्भावना भी एक आवश्यक तत्व है |
इस प्रकार जब हम अपने मन में पवित्र विचारों को स्थान देंगे , सद्भावना पैदा करेंगे तथा ह्रदय को शुद्ध रखेंगे तो हम विश्वदानिम अर्थात प्रत्येक अवस्था में प्रसन्नचित रहने वाले बन जावेंगे | हमारे प्राय:
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सब धर्म ग्रन्थ इस तथ्य का ही तो गुणगान करते है | गीता के अध्याय २ श्लोक संख्या ६४ व ६५ में भी इस तथ्य पर ही चर्चा करते हुए प्रश्न किया है कि
मनुष्य प्रसन्नचित कब रहता है ?
इस प्रश्न का गीता ने ही उतर दिया है कि मनुष्य प्रसन्नचित तब ही रहता है जब उसका मन राग , द्वेष रहित हो कर इन्द्रिय संयम कर लेता है |
फिर प्रश्न किया गया है कि प्रसन्नचित होने के लाभ क्या हैं ?
इस का भी उतर गीता ने दिया है कि प्रसन्नचित होने से सब दु:खों का विनाश हो कर बुद्धि स्थिर हो जाती है | अत: जो व्यक्ति प्रसन्नचित है उसके सारे दु:ख व सारे क्लेश दूर हो जाते हैं | जब किसी प्रकार का कष्ट ही नहीं है तो बुद्धि तो स्वयमेव ही स्थिरता को प्राप्त कराती है |
जब मन प्रसन्नचित हो गया तो मन्त्र की जो दूसरी बात पर भी विचार करना सरल हो जाता है | मन्त्र में जो दूसरी प्रार्थना प्रभु से की गयी है , वह है दीर्घायु | इस प्रार्थना के अंतर्गत परमपिता से हम मांग रहे हैं कि हे प्रभु ! हम दीर्घायु हों, हमारी इन्द्रियाँ हृष्ट – पुष्ट हों ताकि हम आजीवन सूर्योदय की अवस्था को देख सकें | सूर्योदय की अवस्था उतम अवस्था का प्रतीक है | उगता सूर्य अंत:करण को उमंगों से भर देता है | सांसारिक सुख की प्राप्ति की अभिलाषा उगता सूर्य ही पैदा करता है | यदि हम स्वस्थ हैं तो सब प्रकार के सुखों के हम स्वामी हैं | जीव को सुखमय बनाने के लिए होना तथा स्वस्थ होना आवश्यक है | अत: हम एसा पुरुषार्थ करें कि हमें उत्तम स्वास्थ्य व प्रसन्नचित जीवन प्रन्नचित मिले |

डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
१०४-शिप्रा अपार्टमेन्ट, कौशाम्बी
जिला गाजियाबाद उ. प्र.
चलभाष ०९३५४८४५४२६

मन का व्यापक कार्यक्षेत्र

मन का व्यापक कार्यक्षेत्र
.. ऋग्वेद १०.१६४.१ अथर्ववेद २०.९६.२४
मन्त्र पाठ : –
अपेहि मंसस्पते$म काम परश्चर |
पारो निर्रित्या आचक्ष्व बहुधा जीवतो मन: ||
ऋग्वेद १०.१६४.१ अथर्ववेद २०.९६.२४
इस मन्त्र में मन के व्यापक कार्यक्षेत्र की चर्चा कि गयी है | मन जागृत अवस्था में नहीं , अपितु स्वप्न आवस्था में भी क्रियाशील रहता है | मन्त्र में दुस्वप्न के नाशन का विधान है |
स्वप्न के भेद : –
स्वप्न के दो भेद हैं — एक- सुखद और दूसरा – दू:खद | दू:खाद स्वप्नों को दू:स्वप्न कहते हैं | दू:स्वप्न के कारण पाप, दुर्विचार, कम, क्रोध आदि हैं | जागृत अवस्था मैं मनोनिग्रह के द्वारा पाप आदि का निरोध होता है , परन्तु स्वप्न अवस्था में बुरे स्वप्न मनुष्य को दू:खित और चिंतित करते हैं | अत: मन्त्र में बुरे स्वप्नों को दूर करने के लिए पाप के देवता को भगाने का उल्लेख है |
पाप का देवता कौन है : –
पाप का देवता भी मन है , अत: उसे मंसस्पति कहा गया है | दुर्विचार, दुर्भाव ,अनिष्ट – चिंतन , कम क्रोध आदि के भावों के निग्रह का कम भी मन करता है , अत: उसके पवित्रीकरण पर बल दिया गया है |
मन्त्र के अंतिम पद में यही बात स्पष्ट की गयी है कि मनुष्य का मन अनेक प्रकार का है | वह कभी बुराई की ओर जाता है , कभी अच्छाई कि ओर | दुर्गुणों के कारण बुरे स्वप्न आ कर मनुष्य को दू:खित करते हैं | उनकी चिकित्सा है कि सद्गुणों को अपना कर सुखी हों और स्वप्न में भी सुख की अनुभूति करें |

आभार  अशोक  आर्य

तप से सब प्रकार के दुर्भावों का नाश होता है : डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली

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ओउम
तप से सब प्रकार के दुर्भावों का नाश होता है
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है ,किन्तु काम एसे करता है कि वह अपनी करनी के कारण सुखी हो नहीं पाता | वास्तव में आज के प्राणी दुर्भावनाओं से भरे हैं | प्रत्येक व्यक्ति अन्यों से किसी न किसी बहाने द्वेष रखता है | वह चाहता है कि उसे स्वयं को कोई सुख चाहे न मिले किन्तु किसी दुसरे को सुख नहीं मिलना चाहिए | इस प्रयास में वह अपने आप को ही भूल जाता है | अपने दु:ख से इतना दु:खी नहीं है , जितना दुसरे के सुख से | इस के दु:ख का मुख्य कारण है किसी दुसरे का सुखी होना | उस को स्वयं को सर्दी से बचने के लिए बिजली के हीटर की आवश्यकता है | वह इस हीटर को खरीदने के स्थान पर इस बात से अधिक दु:खी है कि उसके पडौसी के पास हीटर क्यों है ? बस इस का नाम ही दुर्भाव है | मनुष्य को सुखी रहने के लिए सब प्रकार के दुर्भावों से हटाने की आवश्यकता होती है | इस के लिए तप की आवश्यकता है | यह तप ही है ,जो मनुष्य को दुर्भावों से दूर कर सकता है | मानव को चाहिए की वह दुर्भावों से बचने के लिए तप की ओर लगे | अथर्ववेद के मन्त्र संख्या ८.३.१३ तथा १०. ५.४९ में भी इस भावना पर ही बल दिया गया है | मन्त्र इस प्रकार है : – परा श्रनिही तपसा यातुधानान
पराग्ने रक्षो हरसा श्रीनिही |
परार्चिषा मूरदेवान श्रीनिही
परासुत्रिपा: शोशुचत: श्रीनिही ||
शब्दार्थ : –
( हे अग्ने) हे अग्नि (यातुधानान) राक्षसों अथवा कपट व्यवहार करने वालों को ( तपसा) तप से (परा श्रीनिही ) दूर से ही नाशत करो ( रक्ष: ) राक्षसों या कुकर्मियों को (हरसा) अपनी शक्ति से (परा श्रीनिही) नष्ट करो (मूरदेवान) मूढ़ देवों को अथवा जड़ देवों के उपासकों को (अर्चिषा )अपने तेज से (परा श्रीनिही) नष्ट करो (असुत्रिषा:) दूसरों के प्राणों से अपनी तृप्ति करने वाले ( शोशुचत:) शोकग्रस्त दुर्जनों को (परा श्रीनिही ) नष्ट करो |
भावार्थ :
– हे अग्निरूप प्रभो ! तुम कपट व्यवहार करने वालों को अपने तप से, राक्षसों तथा कुकर्मियों को अपनी शक्ति से , जड़ देवों के उपासकों को अपने तेज से तथा जीव हत्या करने वाले और सदा शोकग्रस्त दुष्टों को नष्ट कर दो |
अथर्ववेद के इस मन्त्र में चार प्रकार के पापियों को नष्ट करने के लिए चार ही प्रकार से नष्ट ल्कराने की व्यवस्था की गयी है | ये चारों इस प्रकार हैं : –
१. यातुधानों को तप से :-
यातुधानों को तप से नष्ट करने का विधान दिया है | जब तक हम यातुधान का अर्थ ही नहीं जानते तब तक इसे समझ नहीं सकते | अत:पहले हम इस के अर्थ को समझाने का प्रयास करते हैं | जो माया , छल , कपट आदि कुटिल व्यवहारों से अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं , उन्हें ” यातु ” कहते हैं ,धान का अर्थ है – रखने वाले | अत: जो छल. कपट,माया आदि कुटिल व्यवहार रखते हैं , उन्हें यातुधान कहते हैं | मन्त्र में उपदेश किया गया है कि हे तपस्वी मानव ! छल , कपट व मायावी व्यवहार रखने वालों को कठोर से कठोर दंड द्वारा संताप दे कर उन्हें नष्ट कर दें | इस में ही भला है |
२. राक्षसों को हरस से :-
जो राक्षस वृति वाले हैं , उन्हें हरस अथवा अपने तेज से नष्ट कर दो , क्योंकि तेज के सम्मुख कभी राक्षस ठहर ही नहीं सकते | प्रश्न यह उठाता है कि राक्षस है कौन , जिसे यहाँ तेज से नष्ट करने को कहा गया है | राक्षस उसे कहते हैं जो सदैव दुसरे का अहित करने वाले तथा उन्हें दू:ख व संताप देने वाले होते हैं | यह लोग दूसरों को संताप देने में ही आनंद का अनुभव करते हैं | ऐसे लोग तेज से ही नष्ट हो जाते हैं | दूसरों को यातना देकर अपना हित साधने वालों को क्रोध कि अग्नि में जला देना चाहिए |
३. मूरदेवों को अर्चिष से :
इस का वर्णन करने से पूर्व मुरदेव का अर्थ भी समझना आवश्यक है | मुर कहते हैं जड़ को | अत: जो जड़ पदार्थों को अपना देवता मानते हैं, उन्हें मुर्देव कहते हैं | इस प्रकार के लोग जड़ कि पूजा करते हैं, अन्धविश्वासी होते हैं, विद्या रहित होने के कारण यह लोग विवेक से भी बहुत दूर होते हैं | होते हैं बुद्धि नाम कि वास्तु इन के पास नहीं होती | ऐसे लोगों को लापत अर्थात तेज से नष्ट करने का इस मन्त्र में विधान किया गया है |
४. असूत्रिप को शोक से :-
असुत्रिप का अभिप्राय: समझाने से पता चलता है कि इस श्रेणी में कौन लोग आते हैं | असू का अर्थ होता है प्राण तथा त्रिप का अर्थ है पिने वाले या हरण करने वाले या मारने वाले | इस से स्पष्ट है जो लोग दूसरों को मार कर खा जाते हैं, उनका खून पि जाते हैं अथवा दूसरों कि जान लेने में जिन्हें आनंद आता है , ऐसे लोग इस श्रेणी में आते हैं | वेड कहता है कि यह लोग सदा भयभीत रहनते हैं, शोक व क्लेश कभी इन का पीछा नहीं छोड़ते , सदा चिंता में ही रहते हैं | न स्वयं सुखी होते हैं न दूसरों को सुल्ही देख सकते हैं | उन कि यह भावना अंत में पर ह्त्या, आत्महनन या आत्म हिंसा के रूप में परिणित होती है | यह सदा दूसरों के मार्ग में कांटे ही पैदा करने का प्रयास करते हैं , इस करना इन्हें समाज के शत्रु कि श्रेणी में रखा जाता है | अत: वेड मन्त्र एइसे लोगों को नष्ट करने का आदेश देता है |
इस प्रकार प्रस्तुत मन्त्र में यह सन्देश दिया गया है कि दुष्ट, छल, कपट व माया से अन्यों को दू:ख देने वाले तथा दूसरों को मार देने कि इच्छा रखने वाले राक्षसी प्रवृति के लोग समाज के शत्रु होते हैं | जब तक यह लोग जीवित रहते हैं, तब तक समाज के मार्ग को काँटों से भारटा रहते हैं, दू:ख , क्लेश खड़े करने के मार्ग खोजते रहते हैं , इन से सुपथगामी लोगों को सदा ही भय बना रहता है | एइसे लोगों का विनाश ही समाज को सुखी
बना सकता है | इओस लिए ओप्रानी को अकारण वह दू:ख न दे सकें | यह सब केवल तप से ही संभव है | अत: यह तप सी है जो दुर्भावों को नष्ट क्रोध से, तेज से एइसे लोगों को नष्ट कर देना चाहिए , उन्हें मार देना चाहिए | जिससे समाज के किसी भी करने कि क्षमता रखता है | ताप से ही सुखों कि वृष्टि होती है | यदि विनाश से बचना है तो हमें तप करना चाहिए |

डा. अशोक आर्य,मण्डी डबवाली
१०४ – शिप्रा अपार्टमेंट ,कौशाम्बी
जिला गाजिया बाद ,उ. प्र.भारत
चल्वार्ता : 09718528068

सभी इन्द्रियां शक्तिशाली हों ..

सभी इन्द्रियां शक्तिशाली हों ..
मन्त्र पाठ : –
वाणम आसन नसों: प्राणश्च्क्शुरक्ष्नो: श्रोत्रं कर्णयो: |
अपलिता: केशा अशोना दंता बहु बाह्वोर्बलम ||१|| || अथर्ववेद १९. ६०, १ ||
ऊर्वोरोजो जन्घ्योर्जव: पादयो: प्रतिष्ठा |
अरिश्तानी में सर्वात्मानिभ्रिष्ट: || || अथर्ववेद १९
व्याख्यान : –
संस्कृत में सुभाषित है कि ” धर्मार्थकामोक्षानामारोग्यम मुलामुत्त्मम “| धर्म ,अर्थ ,काम ,मोक्ष इस चतुर्वर्गारुपी पुरुषार्थ का मूल आरोग्य है | जहाँ निरोगता है, वहां धर्म है , धन है , सांसारिक सुख है और मुक्ति है | मनुष्य का शरीर स्वस्थ होगा तो सभी कार्य सरलता से हो सकेंगे | यदि मनुष्य रोगी या अस्वस्थ है तो न वह यज्ञ , पूजा – पाठ , वेदाध्ययन आदि धर्म कर सकेगा , न वह धन कमा सकेगा , न सुखों का भोग कर सकेगा और न योगसाधना कर सकेगा , जिससे मुक्ति प्राप्त हो | इस लिए शारीरिक स्वास्थ्य कि और ध्यान देना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है | मन्त्र में इसकी और ही ध्यान दिलाया गया है कि वाणी में शक्ति हो, नाक मैं सूंघने कि शक्ति हो, आँखों में देखने की शक्ति हो , बाल सफ़ेद न हों, दन्त दूषित न हों , भुजाओं में बल हो , जंघा पिंडली और पैरों में गति शक्ति और सफुर्ती हो | इस प्रकार शरीर के सारे अवयव सुपुष्ट हों | साथ ही मनुष्य की आत्मा में उत्साह का पूर्ण संचार हो , निराशा का नाम न हो | ह्रदय में कोई दूषित विचार न आवें , जिससे कभी भी पतन हो |

आभार

अशोक आर्य