Category Archives: वेद विशेष

प्रभु की कृति में उसे देखने वाले का मन विषयों से बचता है

प्रभु की कृति में उसे देखने वाले का मन विषयों से बचता है
डा. अशोक आर्य
ऋग्वेद के पंचम सूक्त में बताया गया था कि हम सोम को शरीर में सुरक्षित कर इशान बनें व सामूहिक रुप से प्रभु की प्रार्थना करें । इन सुरक्षित शरीरों ( जिन में हमारा शरीर , हमारा मन तथा हमारी बुद्धि भी सम्मिलित है ) को हम किन कार्यों में , किन कर्मों में लगावे , व्यस्त करें ? हमारी इस जिज्ञासा का , इस बात को जानने का जो यत्न है , इसका उतर इस मण्डल के सूक्त छ: में दिया है । अत; इसे जानने के लिए सूक्त छ: का स्वाध्याय हम इस छ्टे सूक्त के प्रथम मन्त्र से करते हैं । मन्त्र उपदेश करता है कि : –

युञ्जन्तिब्रध्नमरुषंचरन्तंपरितस्थुषः।
रोचन्तेरोचनादिवि॥ ऋ01.6.1
युन्जन्ति ब्रघ्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुष: ।
रोचन्ते रोचना दिवि ॥रिग्वेद १.६.१ ॥
इस मन्त्र में पाच बातों की और मानव का ध्यान आकर्षित करते हुए इस प्रकार उपदेश किया गया है कि :
१. सूर्य सम्बन्धी ज्ञान :
ऊपर इशान बनने के लिए प्रेरित किया गया है । इशान बनने के लिए , दूसरे शब्दों में इन्द्रियों को विभिन्न प्रकार की वासनाओं से , विषयों से रोकने के लिए अभ्यास करने वाले अपने मन आदि को ब्रध्न में अर्थात आदित्य व सूर्य में लगाते हैं क्योंकि यह ही ब्रध्न हैं । इस प्रकार जब यह अपने मन को सूर्य में लगाते हैं तो यह लोग सूर्य समबन्धी सब ज्ञान को पाने का यत्न करते हैं । सूर्य क्या है ?, इसकी क्या बनावट है ?, इसके क्या लाभ हैं ?, यह कैसे गति करता है ? आदि , इन सब बातों को जानने की यत्न करते हैं । इस प्रकार सूर्य सम्बन्धी सब ज्ञान को पाते हैं तथा यथावश्यक सूर्य से लाभ प्राप्त करते हैं ओर इस से मिलने वाले लाभों में प्रभु की महिमा उन्हें दिखाई देती है , वह उस महिमा को देखते हैं ।
२. अग्नि प्रभु के गुणों का दर्शन :
सूर्य का सम्बन्ध अग्नि से होता है । अत: यह अपना सम्बन्ध अग्नि से जोडने का यत्न करते हैं । अपने मन को अग्नि में लगाते हैं । अब यह अग्नि विज्ञान का भी विषद अध्ययन करते हैं । इस के रहस्यों को भली प्रकार समझ कर अपने मन को इस में लगाते हैं । अग्नि में लगा हुआ यह मन प्रसंगवश जो विष्य आ जाते हैं, उन सब से हमारा यह मन बचा रहता है । जब मन विषयों से दूर होकर अग्नि में लग जाता है तो यह मन अग्नि का ठीक प्रकार से , उत्तम विधि से प्रयोग करता हुआ यह अग्निविद्या – वित पुरुष होने से अग्नि में भी उस प्रभु के महात्म्य का , उस प्रभु की महिमा का , उस प्रभु के गुणों का दर्शन करता है ।
३. वायु में प्रभु की महिमा :
अग्नि के रहस्यों को समझ व उन्हें आत्मसात करने के पश्चात हमारा यह मन वायु को जानने का यत्न करता है । यह वायु विज्ञान के अन्तर्गत वायु के गुणों को भी समझने का प्रयास करता है । वायु के ज्ञान को पाने पर यह इस का जब सदुपयोग काता है तो इससे हमारे स्वास्थ्य को पुष्टि मिलती है । हम स्वस्थ व पुष्ट हो जाते हैं । एसी अवस्था में हमें वायु में भी उस प्रभु की महिमा दिखाई देने लगति है। हम वायु को भी देव स्वीकार कर लेते हैं ।
४. अधिष्ठान्भूत लोकों का ज्ञान :
वायु के रहस्यों को समझने तथा इन्हें आत्मसत करने के पश्चात यह मधुछ्न्दा रुपी जीव अपने मन को अनेक प्रकार के विषयों में फ़ंसने से बचाना चाह्ता है तथा इस हेतु वह इसे इन लोकों के ज्ञान की प्राप्ति में व्यस्त करता है , लगाता है । वह देखता है कि अग्निदेव का निवास पृथिवी पर होता है । जिसे वह वायु रुपि देव स्वीकार कर चुका है , उस देव का निवास अन्तरिक्ष में होता है तथा अग्नि का प्रतीक जिसे उसने सूर्य को स्वीकार किया है , उसका निवास द्युलोक में होता है ।
एक ज्ञानी व्यक्ति अपने मन को जहां अग्नि ,वायु तथा अग्नि के ज्ञान को पाने में लगाता है । इन सब के सम्बन्ध में विस्तार से जानकारी पाने का यत्न करता है वहां वह इन सब के अधिष्ठान्भूत लोकों का , उन लोकों का जो इन सब के अधिष्ठाता कहे जाते हैं , जिनके सहारे यह सब टिके हैं , उन सबका भी ज्ञान पाने का , उन्हें भी विस्तृत रुप से पाने का यत्न करता है । हम जानते हैं कि खाली मन शैतान का घर होता है । जब हमारा मन इन सब प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने में लग जाता है तो इस मन के पास अन्य किसी ओर जाने का समय ही नहीं होता । जो व्यक्ति सदा कर्म में लगा रहता है , अपने आप को किसी न कीसी कार्य में व्यस्त रखता है , उसके सामने से हाथी भी निकल जावे तो उसे पता नहीं चलता । इस प्रकार के व्यस्त मन का ध्यान कभी विषय – विकारों की ओर जावेगा ,यह तो कोई सोच भी नहीं सकता । अत: एसा मन विषयों के दोष से बचा रहता है । कभी विषयों की ओर जाता ही नहीं ।
५. तारों में प्रभु की कांति : मन्त्र का अन्तिम भाग बता रहा है कि जब मन सब प्रकार से व्यस्त रहता है तथा इन सब के गू्ढ रह्स्यों का ज्ञान पाने का यत्न करता है , सदा इस ज्ञान पाने में व्यस्त रहता है तो यह इन देदिप्यमान नक्षत्रों में लगता है । यह सब नक्षत्र द्युलोक में सदा चमकते हुए दिखाई देते हैं । ये नक्षत्र आकाश को अच्छादित करते हैं , आकाश इन नक्षत्रों , इन तारों से भर जाता है । यह तारे भी तो उस प्रभू का ही स्तवन कर रहे हैं , उस प्रभु के ही गुणों का गायन कर रहे हैं । उसका ही कीर्तन करते से दिखाई देते हैं । तारों में भी प्रभु की कांति दिखाई देती है ।
इस प्रकार यह ज्ञानी मन , यह ज्ञानी पुरूष सदा ज्ञान को पाने का यत्न करता रहता है , ज्ञान प्राप्ति में व्यस्त रहता है । इस कार्य के लिए यह सूर्य , अग्नि, वायु , द्युलोक, पृथिवीलोक, अन्तरिक्ष लोक व नक्षत्रों आदि में भी प्रभु की महिमा को देखता है तथा इस महिमा को देखकर , उसकी इस महान कृति को देखकर वह उस पिता के आगे नत हो जाता है , अपना सिर उस पिता की इस कारागरी के आगे झुका लेता है , वह जान जाता है कि वह प्रभु कितना महान है । उसकी महानता के आगे वह नत हो जाता है । जहां वह प्रभु की इस कारागरी को समझने के कारण वह उसके आगे नत हो जाता है , वहां इस ज्ञान को पाने के निरन्तर यत्न से उसका ध्यान वासनाओं की ओर नहीं जा पाता । वासनाओं से बचे रहने के कारण वह इशन भी बना रहता है । कर्मशील का मन विषयों में जाने से बचा रहता है ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु सान्निध्य से प्रभु तुल्य दीप्त बनें

ओउम
प्रभु सान्निध्य से प्रभु तुल्य दीप्त बनें
डा. अशोक आर्य
प्रभु की निकटता पा लेने पर हमारा भय दूर होगा । सब प्रकार के धन एश्वर्यों के हम स्वामी बन जावेंगे । सब प्रकार का सुख – वैभव तथा अनन्द हमें मिलेगा तथा हम प्रभु के ही समान दीप्त हो जावेंगे । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है : –
इन्द्रेणसंहिदृक्षसेसंजग्मानोअबिभ्युषा।
मन्दूसमानवर्चसा॥ ऋ01.6.7
यह मन्त्र चार बातों को इंगित करते हुए कहता है , उपदेश करता है कि :
१. प्रभु के समीप रह ऐश्वर्यों के स्वामी बनें
हे मानव निरन्तर प्रभु स्तवन कर , पिता का स्मरण कर , उसका कीर्तन कर तथा उसकी समीपता प्राप्त कर । तूं उस भय रहित , उस परम एशवर्यशाली प्रभु के मेल को प्राप्त होगा तथा उस की निकटता पाते हुए हे प्राणी तू ! निश्चय से ही उस की उपासना से ,. उस की निकटता से उन्नत होते हुए निरन्तर आगे ही बढता जाता है ।
हम जिस पिता के आराधक है , वह पिता सब प्रकार के भय से , सब प्रकार के डर से रहित होता है । जब हमारा पिता ही भयभीत नहीं होता तो उसके निकट रहने के कारण हमें भी किसी प्रकार का भय सता नहीं सकता । हम भी भय से रहित हो जाते हैं । वह तो भय के लवलेश से भी रहित होता है । उसे किंचित सा भय भी नहीं होता । वह पिता परमैश्वर्यशाली होता है , सब प्रकार के एश्वर्यों का स्वामी होता है । उसकी निकटता के कारण हम भी एश्वर्यों के स्वामी बनते हैं । यह सब उस प्रभु के समीप स्थान पाने से होता है , यह मेल उसकी उपासना का ही परिणाम होता है । जब हम उस पिता से मेल कर लेते हैं , उससे निकटता पा लेते हैं तो हम भी आगे बढने लगते हैं तथा उन्नत होने के अधिकारी बन जाते हैं ।
२. प्रभु के निकट रह भय मुक्त हों
यह एक स्वाभाविक नियम है कि जिस का साथी भय रहित होता है , उसके सान्निध्य के कारण वह भी सब प्रकार के डर से मुक्त हो जाता है । यह भी सत्य है कि जिसका मित्र सब प्रकार के एश्वर्यों का स्वामी होता है उस का यह साथी भी एश्वर्यों को प्राप्त करने में सशक्त हो जाता है । इस लिए हे प्राणी ! तूं उस प्रभु का सान्निध्य प्राप्त कर , उस प्रभु का गुणगान कर , उसकी उपासना ओर उसका कीर्तन कर ताकि तूं भी उस प्रभु के ही समान भय से मुक्त हो जावे तथा धन एशवर्य से सम्पन्न हो जावे ।
३. प्रभि गुणगान से आनंद प्राप्ति
हम जानते हैं कि निर्भय व्यक्ति सदा आनन्दित रहता है । जो आनन्दित रहता है , वह ही धन व एश्वर्य का स्वामी हो सकता है , अधिकारी हो सकता है , अन्य नहीं । हम यह भी जानते हैं कि हमारा वह पिता कभी भयभीत नहीं होता । वह तो है ही भय रहित । वह प्रभु सदा आनन्द मय ही रहता है क्योंकि वह भय से रहित है । वह परम पिता सदा आनन्द मय होता है इसलिए वह एश्वर्य से भरा रहता है । जब हम उस पिता के निकट जा कर उस का चिन्तन करते हैं तो हम भी भय से दूर हो जाते हैं , भय से रहित हो जाते हैं । भय रहित होने से हमारा जीवन भी आनन्द से भर जाता है तथा हम भी आनन्द से सम्पन्न हो कर अनेक प्रकार के धन एश्वर्यों को पाने में सक्षम हो जाते हैं , अनेक प्रकार के एश्वर्यों को पाकर सुखी हो जाते हैं । इस लिए सुख के अभिलाषी प्राणी को सदा प्रभु के समीप जा कर उस का गुणगान करना चाहिये ।
४. प्रभु स्तवन से दीप्ती
जब हम प्रभु की निकटता पाने में सफ़ल हो जाते हैं तो जिस प्रकार वह प्रभु दीप्ति से भर पूर दिखाई देता है , उस प्रकार हम भी दीप्त ही दिखाई देते हैं । प्रभु की आभा तथा हमारे मुख मण्ड्ल की आभा , चमक , दीप्ति एक समान ही दिखाई देती है । जिस प्रकार एक यज्ञकर्ता , एक होता , एक यज्ञमान , जब यज्ञ कर रहा होता है , अग्नि के सम्मुख बैठा होता है , उस समय उस की आभा , उसका मुख मण्डल भी अग्नि का सा ही हो जाता है । जैसा तेज अग्नि का होता है , यज्ञकर्ता भी वैसा ही दिखाई देता है । इस प्रकार अग्नि व उस अग्नि का उपासक दोनों ही समतुल्य दीप्ति वाले दिखाई देते हैं । इस प्रकार ही जब हम उस पिता के समीप आसन लगा लेते है तो हम भी उस पिता के से ही तेज वाले बन जाते हैं ।
यदि वेदान्त दर्शन की मानें तो हम इस प्रकार कह सकते हैं कि प्रभु का सान्निध्य पाने से , उसकी निकटता पाने से प्रभु के निकट जाने वाले प्राणी में भी वैसे ही गुण आने लगते हैं , जैसे उस प्रभु में होते हैं । इस प्रकार वह भी परमात्मा जैसा ही बन जाता है । बस अब प्रभु में ओर जीव में यह अन्तर ही रह जाता है कि प्रभु तो सृष्टि का निर्माण कर सकता है किन्तु जीव यह कार्य नहीं कर सकता क्योंकि सृष्टि के निर्माता होने के लिए उसका निराकार होना तथा सर्वशक्तिमान होना आवश्यक होता है , जो यह गुण है वह जीव कभी प्राप्त नहीं कर सकता । अन्य गुणों में वह प्रभु के बहुत निकट चला जाता है ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु भक्त ज्ञान व दीप्ति बांट उषा वेला में उठता है़

प्रभु भक्त ज्ञान व दीप्ति बांट उषा वेला में उठता है़
डा. अशोक आर्य
जो प्राणी प्रभु भक्त होता है , वह अज्ञानियों में सदा ज्ञान बांटता है , जो प्रसाद व दीप्ति से रहित होते हैं , उन्हें यह दीप्ति पाने में सहायक होता है तथा एसा प्राणी सदा उष:काल में उठ जाता है । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार समझा रहा है : –
केतुंकृण्वन्नकेतवेपेशोमर्याअपेशसे।
समुषद्भिरजायथाः॥ ऋ01.6.3

केतुं क्रण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे ।
समुषद्भिर्जायथा: ॥ रिग्वेद १.६.३ ॥
इस मन्त्र में मुख्य रुप से तीन बातों पर प्रकाश डाला गया है , जो इस प्रकार है :-
१. ज्ञान का प्रसार ही जीवन का ध्येय
जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को अपने शरीर रुपि रथ में जोडता है अर्थात जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को कभी स्वाधीनता से विचरण नहीं करने देता बल्कि इस प्रकार अपने काबू में रखता है ,जिस प्रकार एक उत्तम सारथि अपने घोडों को अपने काबू में रखता है । इस प्रकार इन्द्रियों को बस में रखते हुए वह प्रभु भक्त प्रभु के चिन्तन भजन में लगा रहता है , प्रभु के स्मरण व कीर्तन में लगा रहता है । प्रभु को साक्षात करने का यत्न करता है , प्रभु दर्शन का प्रयास करता है । एसा व्यक्ति उन लोगों के लिए ज्ञान का प्रकाश करने वाला बनता है , जो ज्ञान से रहित होते हैं । भाव यह कि जो व्यक्ति किन्हीं कारणों से ज्ञान नहीं पा सकते , यह व्यक्ति उन्हें उत्तम ज्ञान देकर अपने समकक्ष बनाने का यत्न करता है । इस प्रकार यह ज्ञान का प्रसार ही वह अपने जीवन का उद्देश्य , अपने जीवन का ध्येय बना लेता है ।
२. लडाई झगडों को कम कर दीप्ति बढाना
यह प्रभु भक्त अपने साथ ही साथ अन्यों को भी दीप्त करने वाला होता है । हे मानव ! यह प्रभु भक्त सब को आत्मवत ही , अपने समान ही समझते हुए अपने जैसा ही बनाने का यत्न करता है । जो सफ़लताएं , जो प्राप्तियां इसने पाली होतीहै, उन्हें दूसरों को भी प्राप्त कराने का यत्न यह करता है । जो दीप्ति रहित होते हैं उन्हें दीप्त करने का यत्न करता है । एसे लोगों को वह स्वास्थ्य सम्बन्धी ज्ञान देता है ताकि उस ज्ञान पर चलते हुए वह भी उत्तम स्वास्थ्य पा कर स्वास्थ्य में दीप्त हो सकें । इतना ही नहीं वह उनमें एक दूसरे के साथ व्यवहार कैसा किया जाना चाहिये , इस को भी समझाता है । परस्पर के व्यवहार की विभिन्न विधियों का उन्हें शिक्षण देता है , उन्हें बताता है । एक दूसरे के साथ प्रेम पूर्वक व्यवहार करते हुए रहने का उपदेश देता है । इस प्रकार परस्पर प्रेम में वृद्धि करता है प्रेम की इस वृद्धि से तथा आपसी झगडों में कमी करवा कर, उनके लडाई झगडों को कम करवा कर उन में दीप्ति को बढाने का कारण बनता है ।
३. उष:काल में उठना

मन्त्र में जिस तीसरी बात पर प्रकाश डाला गया है वह है – एसा व्यक्ति सदा ही उष:काल में . ब्रह्म मुहूर्त मे , सूर्य की प्रथम किरण निकलने के साथ ही उठ खडा होता है , शैय्या को त्याग देता है । इस समय कभी भी सोया हुआ दिखाई नहीं देता । वह यह जानता है कि जो प्रात:काल जल्दी उठता है , प्रभु उस पर सदा आशीर्वादों की वर्षा करता है तथा जो सोया रह जाता है , एसे व्यक्ति के तेज को उदय हो रहा सूर्य हर लेता है । यह तेज हीन , तेज रहित हो जाते हैं । इसलिए प्रात:काल उष:काल में निश्चित ही वह उठ खड़ा होता है |

डा. अशोक आर्य

मानव की इन्द्रियां

ओउम
डा. अशोक आर्य
मानव की इन्द्रियां मानव को अनेक पतन से भरे मार्ग पर ले जाकर उस का जीवन ही नष्ट कर देती हैं । जो मानव इन को अपने बस मे कर लेता है , वह उतम सारथी की भान्ति अपने गन्तव्य पर पहुंचने में सफ़ल हो्ता है । इस सूक्त का यह मन्त्र इस प्रकार का ही उपदेश करते हुए कह रहा है कि :-
युञ्जन्त्यस्यकाम्याहरीविपक्षसारथे।
शोणाधृष्णूनृवाहसा॥ ऋ01.6.2
युन्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्शसा रथे ।
शोणा ध्रष्णू न्रवाहसा ॥रिग्वेद १.६.२ ॥
इस मन्त्र में छ: बातों पर उपदेश देते हुए कहा गया है कि: –
१. इन्द्रियों को अपने बस में रखो
जो व्यक्ति अपने मन को सूर्यादि , ईश्वर के बनाए हुए ज्ञान के स्रोतों की प्राप्ति पर अपना ध्यान केन्द्रित कर इन के विज्ञानों को समझने का प्रयास करते हैं , वह अपनी इन्द्रियों को बडी सरलता से अपने बस में करने वाले होते हैं , यह लोग इन्द्रियों पर इस प्रकार काबू कर लेते हैं , जिस प्रकार एक सफ़ल सारथी अपने रथ के घोडों को अपने वश में कर लेता है । एसे लोग ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय रुपी घोडों को अपने शरीर रुपी रथ में सजाते हैं , जो्डते हैं ।
उपर की पंक्तियों से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि मानव जीवन के दो महत्व पूर्ण अंग होते हैं :
क) ज्ञानेन्द्रियां :
ख) कर्मेन्द्रियां :
इन दोनों प्रकार की इन्द्रियों पर उतम पकड बनाए रखने वाला व्यक्ति ही अपने जीवन के उद्देश्यों को सफ़लता से प्राप्त कर सकता है । इन दोनों को वश में रखने के लिए उसे यत्न करना होता है , परिश्रम करना होता है , पुरुषार्थ करना होता है ,मेहनत करना होता है । ज्ञानेन्द्रियां उसे विश्व का सब ज्ञान देती हैं , उसे बताती हैं कि क्या तेरे हित में है तथा क्या नहीं ?, क्या करना है तथा क्या नहीं ? जब भले बुरे का ज्ञान होता है तो ही कर्म सक्रिय होकर इस पर कार्य कर इसे अपना बना पाता है किन्तु यह प्रप्ति होती उसको ही है जो निरन्तर पुरुषार्थ में लगा रहता है । जो आलसी बनकर खटिया में पडा रहता है , उसे कुछ प्राप्त नहीं होता बल्कि जो उसके पास है वह भी धीरे धीरे समाप्त हो जाता है , लुट जाता है । अत: एसे व्यक्ति अपनी इन्द्रिय रुपी घोडों को कभी भी चरने के लिए खुला नहीं छोडते इन्हें सदा ही कर्म में लगाए रखते हैं , कर्म में व्यस्त रखते हैं । अत: इन्द्रियां कभी भी विषयों में ही चरती रहें , विचरण करती रहें , एसा सम्भव नहीं हो पाता ।
२. प्रभु में विचरण करने के लिए इन्द्रियों को काबू में कर
जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों पर काबू रखते हैं , अंकुश लगाए रखते है , उनकी यह इन्द्रियां सदा प्रभु में ही विचरण करती हैं , प्रभु के बताए मार्ग पर ही चलती हैं तथा उसके इंगित पर ही कार्य करती हैं ,कर्म करती हैं । मानव का अन्तिम लक्षय उस परम पिता की प्राप्ति ही होता है तथा उसकी यह इन्द्रियां उसे यह लक्षय पाने मे सफ़ल करती है किन्तु केवल तब जब उनकी लगाम को मजबूती से पकड रखा हो । अन्यथा यह उसे भटका देती हैं । अत: प्रभु में विचरण करने के लिए इन्द्रियों को काबू में कर आगे बटना होता है ।
३. उद्देश्यशील की इन्द्रियां गन्तव्य पावें
मानव के यह इन्द्रियरुप घोडे विशिष्ट परिग्रह से युक्त होते हैं । यह एक निश्चित तथा निर्धारित लक्षय को , ध्येय को लेकर चलते है , आगे बढते हैं तथा तब तक चलते चले जाते हैं , जब तक की गन्तव्य को प्राप्त नहीं कर लेते । जब एक लक्षय निश्चित है तो मार्ग भटकने का इन्द्रियों को दूसरी ओर लगाने का तो इन के पास समय ही नहीं होता । सीधी स्पाट सडक पर जाना होता है ,मार्ग मे कहीं मुडना नहीं होता , इस कारण मार्ग कैसे भटक जावेंगे , एसा तो उसके लिए सम्भव ही नहीं होता । अत: एक निर्धारित उद्देश्य को लेकर चलने वाली यह इन्द्रियां गन्तव्य पर जाकर ही सांस लेती है तथा निश्चित रुप से इसे पा लेती हैं ।
४. तेजस्विता ललाट में दिखाई दे
इनका उद्देश्य एक विशिष्ट उद्देश्य होता है । पूर्व निर्धारित उद्देश्य को इन इन्द्रियों ने प्राप्त करना होता है । इस निर्धारित उद्देश्य के कारण ये तेजस्वी होकर तीव्र गति से चल कर इसे पाने के लिए पुरुषार्थ करती हैं , प्रयास करती हैं । तेजस्वी हो कर कार्य मे लग जाती हैं । इन का रक्त वर्ण यह स्पष्ट कर रहा होता है कि यह तेजस्वी है , यह कर्मशील हैं , यह अपने निर्धारित गन्तव्य को पाने के लिए यत्नशील हैं । इसकी ही आभा , इसकी ही तेजस्विता उनके ललाट में दिखाई देती है ।
५. तेजस्विता ललाट में दिखाई दे
जब एक निर्धारित लक्षय होता है तो मार्ग की बाधाएं इनके मार्ग को रोक नहीं पातीं । इनमें इतनी शक्ति आ जाती है कि मार्ग के सब शत्रुओं को , मार्ग की सब बाधाओं को यह बडी सरलता से नष्ट कर दे्ती हैं । किसी प्रकार का विघ्न , किसी प्रकार की मार्ग की बाधा तथा किसी प्रकार का मार्ग का शत्रु इसके सामने आते ही नष्ट हो जाते है , मारे जाते है ,दूर हो जाते हैं । इस प्रकार यह सदा प्रगति की ओर , उन्नति की ओर अपने उद्देश्य प्रप्ति की ओर निरन्तर तेजस्विता उनके ललाट में दिखाई दे जाते हैं ।
६. इन्द्रियां मानव की अनुगामी हों
इस प्रकार वश में की गई इन्द्रियां जब एक निश्चित लक्षय को पाने के लिए अपने आगे चलने वाले मानव की अनुगामी होती हैं तो वह निरन्तर उसे आगे तथा आगे ही ले जाते हुए ,उसे लक्षय तक ले जाती है । यह बडी सफ़लता से उसे लक्षय तक ले जाने वाली होती हैं । जब मानव में अग्रगति की , आगे बढने की , सफ़लता पाने की , विजयी होने की भावना है तो फ़िर उसकी इन्द्रियां भी उसके पीछे चलने वाली होती हैं । एसे मानव की इन्द्रियां विषयों में भटक ही नहीं सकतीं बल्कि निरन्तर उसके पीछे चलते हुए आगे की ओर बढती ही चली जाती हैं । अन्त में उसे सफ़लता दिलाने वाली बनती हैं ।

डा. अशोक आर्य

हम इस शरीर को असमय नष्ट न होने दें

हम इस शरीर को असमय नष्ट न होने दें
डा. अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा ने हमें यह जीवन , यह शरीर कर्म करने के लिए दिया है । इसलिए हम प्रतिदिन वेद आदि उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय करें तथा जितेन्द्रिय बन विषयों से उपर उठते हुए प्रभु के दिए इस शरीर की रक्षा करें । इसे समय से पूर्व नष्ट न होने दें । इस भावना को ही स्पष्ट करते हुए यह मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
म आ नो मती अभि द्रुहन तनूनामिन्द्र गिर्वाण: ।
ईशानो यवया वधम ॥ रिग्वेद १.५.१० ॥
मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे जितेन्द्रिय मानव ! जिस मनुष्य ने अपनी वासनाओं पर अधिकार स्थापित कर लिया हो , अपनी वासनाओं को पराजित कर दिया हो तथा जिस व्यक्ति ने अपने अन्दर के शत्रुओं को यथा काम , क्रोध, मद , लोभ , अहंकार आदि पर विजय पा ली हो , उसे जितेन्द्रिय कहा जाता है । मन्त्र एसे ही व्यक्ति को सम्बोधन करते हुए उसे कह रहा है कि विगत मन्त्र के अनुसार तूंने सात्विक अन्नों का प्रयोग किया है । इन सात्विक अन्नों के सेवन से तूं सोम का रक्षण करने वाला बन गया है तथा सोम के रक्षण से तूने विषयों को पीछे छोड दिया है तथा कहा भी है कि जो लोग विषयों के पीछे पड़े होते हैं, वासनाओं में दुबे रहते हैं , वासनाओं में डूबे होने के कारण जिन्हें अपनी ही सुध नहीं होती । एसे लोग सदा बिना पुरुषार्थ के सब कुछ पाना चाहते हैं | इस के लिए दूसरों का बुरा ही चाहते हैं , दूसरों के धन पर अधिकार जमाने का यत्न तथा दूसरों की सम्पति पर सदा बुरी नजर रखते हैं ।
विषय वासनाओं के यह गुलाम कभी किसी के हित के लिए तो कार्य कर ही नहिंसकते अपितु दूसरों को मारने में भी आनन्द का ही अनुभव करते है क्योंकि दूसरे को मार कर ही वह उसके धन पा सकते हैं । मन्त्र कहता है कि हम न तो ताम्सिक अन्न का ही सेवन करें तथा न ही एसे अन्न का सेवन करने वालों के हाथों हम अपने नाश को प्राप्त करें कितु तामसिक लोग यह सब नहीं साझ सकते वह तो धन कि लालसा में मरते फ़िरते हैं | अपनी इस कुवृति को , अपनी इस लालसा को कभी छोडते नहीं | मन्त्र हमें यह ही तो उपदेश कर रहा है कि हम दुष्ट वृतियों वाले न बनेंताथा सदैव दुष्ट वृतियों को छोड़ें | उतम अन्न का सेवन करें तथा उतम सोम को सदा अपने शरीर में धारण करें | इस के साथ ही यह भी कहा है कि जो लोग दुष्ट वृतियों वाले होते हैं , वह हमारे इस शरीर का हनन करने की इच्छा कभी न करें ।
इस से एक तथ्य सामने आता है , वह है कि सात्विक आन्न का जो लोग सेवन न कर सदा ताम्सिक अन्न का ही सेवन करते हैं , वह न केवल अपने शरीर में अनेक दोषों को ही स्थान दे देते हैं , अनेक व्याधियों को अपने अन्दर स्थान देते हैं बल्कि एसे दुर्गुण भी भर लेते हैं , जो विनाश कारी होते हैं । इन दुर्गुणों के कारण संसार में उनकी सदा अपकीर्ति होती है | एक मनुष्य तो अपनी कीर्ति पाने के लिए दान , धर्म , पुन्य के कार्य करता है किन्तु यह तामसिक वृति के लोग , यह वासनाओं के गुलाम अपयश में ही अपनी इर्ति समझते हैं , अपना यश समझते हैं |
जो लोग अपकीर्ति के कार्यों को करने में ही अपना यश समझते हैं | इस प्रकार से बुराई के माध्यम से जो उनका नाम दूर तक जाता है | इस में ही अपना यश समझते हाँ , वह नहीं जानते कि वह इस प्रकार कि बुराइयों के कारण निरंतर मृत्यु को आमंत्रित कर रहे हैं | वह निरंतर मन्त्र कि भावना से दूर जा रहे हैं | भाव यह है कि मन्त्र तो हमें उपदेश कर रहा है कि हम यश व कीर्ति को पाने के लिए उतम कर्म करें ताकि हमारा शरीर असमय नष्ट न हो | समय से पूर्व मृत्यु आदि को न प्राप्त हों किन्तु हमारे यह बुरे कर्म हमें निरंतर नष्ट होने की और ले जा रहे हैं | हम निरंतर अपने आप को नष्ट करने कि और जा रहे हैं |
मन्त्र इस सम्बंध में ही उपदेश कर रहा है कि मनुष्य सदा अपनी कीर्ति को बढ़ता हुआ देखे , यश को चारों दिशाओं में फैलता हुआ देखे | इस के लिए वह सदा उतम कार्य करे, पुरुषार्थी बने तथा जितेन्द्रियता पाने के लिए उतम अन्नों का सेवन करने के साथ ही साथ जितेन्द्रिय बनने का प्रयास निरंतर करता रहे | इस से ही वह उतम यश व कीर्ति का अधिकारी बनेगा | इस लिए हम मन्त्र की शिक्षाओं के अनुरूप अपने जीवन को चालते हुए अपने शरीर को समय से पूर्व नष्ट न होने दें |

डा. अशोक आर्य

सोमकण हमें कर्मशील व शान्त रखते हैं

ओउम
सोमकण हमें कर्मशील व शान्त रखते हैं
डा. अशोक आर्य
जब हम अपने शरीर में सोमकणों को संभाल लेते हैं तो हमारा शरीर अत्यधिक क्रियाशील हो उत्तम कर्म करता है । हमारा मन सदा शान्त रहता है । शान्त मन वाले होने से हम प्रकृष्ट चेतना वाले बनते हैं । इस बात की ओर ही यह मन्त्र संकेत करते हुए कह रहा है कि : –
आ त्वा विशन्त्वाशव: सोमास इन्द्र गिर्वण: ।
शं ते सन्तु प्रचेतसे ॥ रिग्वेद १.५.७ ॥
इस मन्त्र में चार बातों पर प्रकाश डालते हुए मन्त्र उपदेश कर रहा है कि
१. सोमकण शरीर में सत्ता स्थापित करें
हे इन्द्रिय विजेता जितेन्द्रिय पुरुष ! , हे आसुरी प्रवृतियों का संहार , नाश करने वाले जीव ! यहां पर जितेन्द्रिय तथा आसुरी प्रवृतियों को नष्ट करने वाला शब्द का सम्बोधन करते हुए जीव को पुकारा गया है । जितेन्द्रीय कौन होता है ?, जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया हो अर्थात जो व्यक्ति सोमकणों की रक्षा कर इन्द्रिय संयम में सक्षम हो गया हो , वह व्यक्ति ही जितेन्द्रीय कहलाता है ।
दूसरी बात जो कही गयी है , वह है आसुरी प्रवृतियों के संहार करने वाले पुरु्ष । अब प्रश्न उठता है कि आसुरी प्रवृतियों का संहारक कौन है ?, यहां भी उपर वाली बात ही आती है । मानव शरिर में काम , क्रोध आदि अनेक प्रकार की आसुरी प्रवृतियां होती हैं , जो सदा उस मानव का नाश करने का यत्न करती रहती हैं किन्तु इन प्रवृतियों को वह व्यक्ति नष्ट कर देता है , जिसने सोम को अपने शरीर में व्याप्त कर इसे पवित्र बनाकर कर्मशील बन गया हो । यहां भी सोम की ही उपयोगित का वर्णन है । अत: मानव जीवन में सोमकणॊं के महत्व को ही प्रतिष्ठित किया गया है ।
अत: मन्त्र कह रहा है कि हे पुरूष तुझे जितेन्द्रिय बनाने के लिए तथा तुम्हें आसुरी प्रवृतियों से बचाने के लिए यह सोमकण तुझ में सदा तथा सामान्य रूप से प्रवेश करें । यह सोमकण तेरे शरीर में केवल प्रवेश ही न करें बल्कि तेरे शरीर में सब ओर फ़ैलकर अपनी शक्ति की सत्ता स्थापित करें ताकि :
२. सोम रक्षक कभी आलसी नहीं बनाता
इन सोम कणों के कारण तूं सदा कर्मशील बन कोई न कोई कर्म अथवा कार्य करता रहे । कभी निठल्ला न रहे । जब यह सोम तेरे शरीर में रक्षित हो जाता है तो तुझे कभी अकर्मण्यता आ कर नहीं घेर सकती । तेरा मन सदा किसी न किसी कर्म में लगना ,किसी कार्य मे लगे रहना ही पसन्द करता है ,कभी खाली व निठला नहीं रहना चाहता । यह सोम कण ही तुझे कर्मशील बनाते हैं । इससे यह तथ्य सामने आता है कि जो व्यक्ति सोम को अपने शरीर मे धारण करने से सोमी बन जाता है वह सदा कर्म में लगा रहता है , इस प्रकार वह कभी आलसी तो हो ही नहीं सकता ।
३. सोम ज्ञान को दीप्त कर शान्ति का कारण
सोमरक्षण का उद्देश्य ज्ञान को एकत्र करना होता है क्योंकि इस की रक्षा से बुद्धि तीव्र हो कर ज्ञान का संग्रह करने में , स्वाध्याय में जुट जाती है । इस प्रकार यह सोम ज्ञान का भण्डार एकत्र करने वाला भी होता है । इस लिए यहां कहा है कि ज्ञान की वाणियों का सेवन करने वाले जीव अथवा पुरुष ! यह जो सोमकण तूंने अपने शरीर में एकत्र किये हैं , रक्षित किये हैं , यह तुझे शान्ति देने वाले हों क्योंकि सोम ही मानवीय शक्तियों का कारण होते हैं तथा शक्ति सम्पन्न व्यक्ति कभी भयभीत नहीं होता ।
जिसमें भय नहीं है , वह ही शान्त रह सकता है । इससे स्पष्ट होता है कि सोम की रक्षा का उद्देश्य बुद्धि को सम्पन्न कर मानव को शान्त बनाना ही है । स्पष्ट है कि सोम से युक्त प्राणी का शरीर सदा निरोग रहता है , उसका मन सब बुराईयों के धुल जाने के कारण निर्मल हो जाता है तथा मस्तिष्क में ज्ञान का दीप जलने लगता है जिससे उसका ज्ञान भी दीप्त हो जाता है । इससे ही यह शान्ति प्राप्त करने वाले बनेंगे ही ।
४. सोमकणों से विचारवान मानव निर्माण
यह सोमकण तेरे अन्दर चेतना पैदा करने वाले हों । मानव शरीर की चेतना का कारण सोम ही तो होते हैं , जो ज्ञान को दीप्त कर उसे चेतन बनाते हैं । अत: मन्त्र कहता है कि यह सोम तेरे लिए भरपूर चेतना देने वाले हों , चेतना को प्रकाशित करने वाले हों । इस सोम की रक्षा से तूं सदा आत्म स्मरण , आत्म चिन्तन करने वाला हो । सदा अपने विषय में विचार करने वाला , चिन्तन करने वाला बन कर इस तथ्य को समझने का यत्न करता रह कि तूं कौन है ? तूं कहां से आया है तथा तूं क्यों आया है ? सदा इन बातों पर विचार करता रह । कभी इन बातों को भूल न जाए क्योंकि इस चेतना को भूलने से ही तो हमारे जीवन का क्रम ऊट – पटांग सा हो जाता है , अस्त व्यस्त सा हो जाता है , जीवन उलझ सा जाता है । इस प्रकार के बिगडे हुए क्रम के जीवन वाले होने से हमारे जीवन में प्रभु का स्थान धन ले लेता है । अब हम प्रभु चिन्तन के स्थान पर धन का चिन्तन करने लगते हैं । अब हमारा धन ही सब कुछ बन जाता है । हम धन संग्रह को ही अपना एक मात्र उद्देश्य बना लेते हैं । हम जीवन मूल्यों को ऊंचा उठाने वाले धन को भूल कर भौतिक धन के पीछे भागने लगते हैं ।
जहां हम इस अवसर पर भौतिक भोगों को ही धन समझने लगते हैं वहां हम योग के स्थान पर भोग प्रधान बन जाते हैं । जब हम ने सोम की रक्षा करने के लिए योग का साधन अपनाना होता है ,वहां हम भोग के द्वारा संकलित किए , एकत्र किये सोम का नाश करने लगते हैं क्योंकि योग तो सोम को जोडने का काम करता है तथा भोग से सोम का क्रम टूट कर एकत्रण के स्थान पर टूटन पैदा करता है । सोम के संग्रह के कारण मानव का जो मन प्रेम वाला होने के कारण सब जगत के प्राणियों को अपनी ओर खैंचता था , वह मन अब भोग के कारण राग , द्वेष में फ़ंस जाता है । इस प्रकार राग – द्वेष में फ़ंसा मन कभी प्रेम की ओर बढ ही नहीं सकता अत: इस में ईर्ष्या व द्वेष का निवास होने से यह लडाई झगडा , कलह व क्लेष का केन्द्र बन जाता है । जो व्यक्ति इस प्रकार की व्याधियों से ग्रसित होता है , वह निरन्तर अपने अन्दर के सोम का नाश करता रहता है । इस प्रकार सोम से मुक्त होने से वह शिथिल पड जाता है ।
सोम के नष्ट होने से मानव में जो नम्रता थी , वह भी नष्ट हो जाती है । इस नम्रता का स्थान अब अभिमान ले लेता है । जिस आध्यात्मिक धन से हम उस पिता से जुडकर उसे पिता मानते थे, उसे दाता मानते थे तथा नम्र होकर उसके सान्निध्य को , उसकी निकटता को पाने का यत्न करते थे , इस भौतिक धन को पाने की लालसा ने हमारी यह सब नम्रता दूर कर दी । हम अत्यधिक भौतिक धन के स्वामी होने पर भी ओर धन एकत्र करना चाहते हैं , हमारी यह धन एकत्रण की भावना ने हमें अभिमानी बना दिया । अब हम अपने धन एशवर्य पर गर्व कर उस परम पिता परमात्मा को भूल गये । अब हम अपने को ही ईश्वर मानने लगे ओर कहने लगे कि यह धन ही है , जिससे हम कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं । हम अपरीमित , असीमित धन के स्वामी हैं । अब हम कुछ भी कर सकते हैं । ईश्वर नाम की कोई वस्तु इस संसार में नहीं है ओर यदि है तो वह है धन , जिसके स्वामी हम हैं ।
इस प्रकार हम ही ईश्वर हैं , हम ही इस संसार को चलाने वाले हैं । इस प्रकार का अभिमान हमारे अन्दर आ जाता है । इस का परिणाम यह होता है कि एक ओर तो हमारा सोम हम से दूर होता चला जाता है दूसरी ओर संसार में धनवान के अत्याचार बढने लगते हैं , बढने लगते ही नहीं निरन्तर बढते चले जाते हैं । इस से इस संसार में अन्याय का घर बन जाता है , यह अन्याय ही अभाव का कारण बनता है । अन्याय से ग्रसित व्यक्ति कर्म को भूल जाता है , अकर्मी के भी सोम कण नष्ट होते हैं , वह भी शिथिल हो जाता है । जब कोई कर्म करने वाला नहीं रहता तो उपभोग के लिए कुछ पैदा भी करने वाला कोई नहीं होता । इससे सब ओर अभाव ही अभाव हो जाता है ओर जो थोडा कुछ होता है , उसे यह धनवान व्यक्ति अपने भण्डारों में भर लेता है जिससे साधारण व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है । परिणाम स्वरूप जिस संसार ने स्वर्गिक आनन्द देना था वह संसार दु:ख रुपा बन कर घोर नरक का चित्र पेश करता है ।

डा. अशोक आर्य

इशान इन्द्रियों के स्वामी हम समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त न हों

ओउम
इशान इन्द्रियों के स्वामी हम समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त न हों
डा. अशोक आर्य
इस सूक्त का प्रारम्भ हम सब मिलकर उस प्रभु का गायन करने के निर्देशन के साथ करते हैं तथा कहते हैं कि हम सामुहिक रुप से मिल कर प्रभु का कीर्तन करें तथा उपदेश किया है कि हमारे यह प्रभु पालकों के भी पालक हैं अर्थात जिस माता पिता ने हमारा पालन किया है , उनके साथ ही साथ हमारा पालन भी उस पिता ने ही किया है ।
जब हम उस पिता के ह्रदय में निवास करते हैं तो हमारे अन्दर काम, क्रोध आदि शत्रु हमारी इन्द्रियों को किसी प्रकार की भी हानि नहीं पहुंचा सकते , पराजित नहीं कर सकते । इस प्रकार के व्यवहार से जो सोम का रक्षन होता है , वह इस की रक्षा करने वाले का सहायक हो जाता है । इस सोम की रक्षा करने वाले प्राणी को सदा सात्विक अन्न का ही सेवन करना चाहिये ।
उसे इन ईशान = इन्द्रियों का स्वामी बनकर उसे हमारे शरीरों को असमय अर्थात समय से पूर्व नष्ट नहीं होने देना चाहिये । इन सुरक्षित शरीरों , जिन में हमारा शरीर , हमारा मन तथा हमारी बुद्धि भी सम्मिलित है, को हम किन कार्यों में , किन कर्मों में लगावे या व्यस्त करे ? इस सम्बन्ध में ऋग्वेद का यह सूक्त इस विषय का ही उपदेश इस प्रकार कर रहा है :
प्रतिदिन सामूहिक रुप से प्रभु स्मरण करें
डा. अशोक आर्य
आज का मानव अकेले ही तो प्रभु के चरणों में बैठकर उसका स्तुतिगान करता है किन्तु सामुहिक रूप में प्रभु के समीप जाने से न जाने क्यों भयभीत सा होता है । ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का यह पांचवा सूक्त अपने प्रथम मन्त्र द्वारा उपदेश कर रहा है कि हम सामुहिक रुप से एक साथ सम्मिलित हो कर उस प्रभु का गुण्गान करें । इस आश्य को इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
आ त्वेता षीदतेन्द्रमभि प्र गायत ।
सखाय: स्तोम्वाहस ॥ ऋग्वेद १.५.१ ॥
इस मन्त्र में उपदेश करते हुए कहा है कि
१ हम एक साथ प्रभु स्तवन करें
हे परमात्मा के स्तोमों को धारण करने वाले मित्रो ! यहां पर न तो उस पिता को सम्बोधन किया है तथा न ही परिवार को । यहां तो केवल मित्रों को सम्बोधन किया गया है । मित्रों से अभिप्राय: उस समूह से लिया जाता है , जो हमारे समीप निवास करता है , हमारा हितचिन्तक है , एक दूसरे का सहायक है अथवा जिन पर वह विशवस करता है , एसे लोगों को वह व्यक्ति आमन्त्रित करते हुए कह रहा है कि आप सब लोग निश्चय से आईये ।
इन शब्दों में उन्हें प्रभु प्रार्थना के लिए आह्वान करते हुए कह रहा है कि आप एक दृढ निश्चय से यहां आवें क्योंकि यहां आने के लिए अधिक सोच -विचार की आवश्यकता नहीं है । मन में एक संकल्प से , एक निश्चय से यहां आईये । यहां आ कर आप सब लोग अपने अपने आसन पर बैठ जावें । आप के बैठने के लिए यहां जो आसन लगा रखे हैं , जो आसन बिछा रखे हैं, उन पर विराजमान हो जाईये । इन आसनों पर बैठते हुए एक बात का ध्यान रखिये कि यहां पर आने वाले को, यहां पर बैठने वाले को नम्र होना , नत होना चाहिये , । इस लिए यहां नम्रता पूर्वक बैठिये । यहां नम्रता पूर्वक केवल गुण्गान नम्र हुए बिना नहीं किया जा सकता क्योंकि अपने से बडे के आगे याचक बन कर ही जाया जाता है , इसलिए यहां याचक बन कर , अपने में नम्रता ला कर ही बैठिये ओर फ़िर उस पिता के गुणों का सामूहिक रुप से गान कीजिए , उसका स्मरण कीजिए , उसका आराधन कीजिए ।
यह सब कैसे करें ? , इस की पद्धति , इस का तरीका , इसका ढ̇ग भी बताते हुए मन्त्र कहता है , आदेश देता है कि उस प्रभु का स्मरण न केवल मन से ही करें अपितु वाणी से भी करें ।
इस प्रकार स्पष्ट किया गया है कि अपने मन से हम सदा प्रभु स्तवन करें तथा जब सामुहिक प्रार्थना मे आते हैं तो इसे हम अपनी वाणी से भी बोल कर प्रभु स्तुति का गायन करें ।
२. प्रार्थनाओं को क्रियाओं में अनूदित करें
मन्त्र के इस दूसरे चरण में एक शब्द ” स्तोमवाहस:” का प्रयोग किया गया है । यह शब्द संकेत कर रहा है कि हम प्रभु के स्तवनों को ,प्रभु के गुण गान में जो प्रार्थनाएं कर रहे हैं , उन प्रार्थनाओं को हम अपनी क्रियाओं में अनूदित करने वाले हों । हम जब प्रभु की सामुहिक रुप से , सम्मिलित रूप से प्रार्थना कर रहे है तो हम इसे अपनी क्रिया में , अपने व्यवहार में , अपनी भाव भंगिमा में बदल देवें । अकेले तो हम केवल मन में ही उसे याद करते हैं , स्मरण करते हैं किन्तु जब हम सामूहिक रुप से उसको याद कर रहे है तो यह सब हमारे भावों में स्पष्ट दिखाई दे , इस रुप में हम इसे बदल दें ।
३. दयालु बनें
यह सम्मिलन प्रभु का स्मरण करते हुए उस प्रभु को दयालु बता कर , उसका स्मरण करते है । स्पष्ट है कि जिस रुप में हम स्मरण करते है ,वैसा ही बनने का हम यत्न भी करते हैं । जब हम प्रभु को दयालु मानकर उसका स्मरण करते है तो हम भी दयालु बनने का यत्न करें । इस का भाव है हम भी दूसरों पर दया करें , दूसरों की सहायता करे , उनके कष्टों को बांटे । जब हम दूसरों के दु:खों के साथी बनते हैं तो ही हम प्रभु को दयालु कहने के सच्चे अर्थों मे अधिकारी होते हैं ।
४. मित्र भाव से प्रभ स्मरण करें
हम मन्त्र मे प्रभु को सखाया अर्थात मित्र भी कहते हैं । एक मित्र अपने दूसरे मित्र को अपने समान ही मानता है । यदि वह नीचे है तो उसे उठाने का यत्न करता है ओर यदि वह उपर है तो स्वयं भी उस जैसा बनने का यत्न करता है । अत: जब हम मित्र भाव से प्रभु का स्मरण करते हैं तो हम निश्चय ही उस प्रभु के गुणों के समान के से गुण अपने में भी लाने वाला बनना चाहते हैं तथा इन गुणों को पाकर हम अपने मित्र उस प्रभु जैसा बनना चाहते हैं । यह हमारी उन्नति का सर्वोत्तम मार्ग है ।
एसे ही साथियों को , एसे ही व्यक्तियों को प्रभु के निकट बिछाए गए इन आसनों पर बैठने का निर्देश यह मन्त्र दे रहा है तथा कह रहा है कि आप सब मिलकर इन आसनो पर बैठो तथा उस पिता की स्तुति का गायन करो । आप ने जो कुछ भी अपने मन में विचार कर रखा है , उस के अनुरूप गीतों से , उसके अनुरूप भाषण से हाथ जोड कर स्तुति गायन करो । यह मित्रता क्या है ? यह सम्मिलित रुप से किया जाने वाला प्रभु स्तवन ही इस मित्रता का मूल है , आधार है , मूल आधार है । इस लिए इन आसनों पर बैठकर मिलकर प्रभु के गुणों का गायन हम नम्रता पूर्वक करते हैं ।
५. सम्मिलित स्तवन से मानव दीप्त होता है
जब हम सम्मिलित होकर , इन आसनों पर बैठकर प्रभु स्तवन करते हैं तो इससे मानव का जीवन दीप्त होता है । इस प्रकार के प्रभु स्तवन से मानव जीवन मे एक प्रकार का प्रकाश पैदा होता है, आभा पैदा होती है , उसमे अनेक प्रकार की उमंगें हिलोरे मारने लगती हैं । इस प्रकार सम्मिलित होने तथा प्रभु स्मरण करने का मूल ही सम्मिलित रुप से प्रभु स्मरण व गायन करना ही होता है ।
६. सफ़लता मे प्रभु का हाथ

यह क्यों ? क्योंकि मन्त्र कह रहा है कि हम अपनी सफ़लताओं को देख कर फ़ूल न जावें । हम अभिमानी न हो जावें । अभिमान विनाश का मार्ग होता है । इस मार्ग पर चलकर हम अपना नाश न कर लें । इस लिए हम अपनी इन सफ़लताओं का श्रेय उस पिता को देंगे तो हम अभिमान से बचे रहेंगे तथा नत हो कर इन सफ़लताओं को प्राप्त कर हम प्रसन्न रहेंगे ।

डा. अशोक आर्य

आध्यात्म संग्राम में विजयी हो धनवान बनें

ओउम
आध्यात्म संग्राम में विजयी हो धनवान बनें
. डा. अशोक आर्य
हम परमपिता परमात्मा के आराधक है । इस कारण ही वह प्रभु हमें हमारे आध्यात्मिक संग्रामों में विजयी बनाते हैं तथा सब प्रकार के धन प्राप्त कराते हैं । इस बात का वर्णन करते हुये यह मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
तं त्वा वाजेषु वाजिन वाजयाम: शतक्रतो ।
धनानामिन्द्र सातये ॥ ऋग्वेद १.४.९ ॥
इस मन्त्र में दो बातों की ओर संकेत किया गया है :-
१. हम अपने आतंरिक शत्रु को पराजित करें : यह मन्त्र प्रथमतया उपदेश करते हुए कहता है कि हे शतक्रतो अर्थात अनन्त प्रज्ञान वाले प्रभो ! ( हे कभी न समाप्त होने वाले उत्तम ज्ञानों से युक्त परमात्मन !) इस का भाव है कि हमारा वह प्रभु सब प्रकार के ज्ञानों , ज्ञान भी वह जिनके अन्त की कोई सीमा ही नहीं है , एसे कभी न समाप्त होने वाले उत्तम ज्ञानों के स्वामी पिता ! आप ही वाजेषु अर्थात हमारे काम , क्रोध , मद, लोभ , अहंकार आदि जो हमारे शत्रु , हमारे अन्दर ही विद्य्मान हैं ,हमारे अन्दर ही निवास कर रहे हैं , उन सब शत्रुओं के साथ युद्ध करने की , संग्राम करने की , उन्हें समाप्त करने के लिए , पराजित करने के लिए आप ही हमें वाजिनम अर्थात प्रशस्त शक्ति , भरपूर ताकत देने वाले हैं । हम एसे प्रभु को अर्चित करते हैं , हम एसे प्रभु की , जो हमे काम , क्रोध आदि हमारे अन्दर के शत्रुओं से लडने की शक्ति देता है , हम उस प्रभु का स्मरण करते हैं , जो प्रभु हमें हमारे आन्तरिक दोष रुपि शत्रुओं को मारने की शक्ति देता है , हम एसे प्रभु की प्रार्थना करते हैं , सदा उसके समीप रहने का यत्न करते हैं ।
मन्त्र का यह प्रथम खण्ड स्पष्ट कर रहा है कि हम एसे आध्यात्मिक यु्द्धों में , जिन में लडने वाले हमारे प्रतिद्वन्द्वी , हमारे शत्रु , हमारे विरोधी कोई बाहरी लोग न होकर हमारे अन्दर के ही दुर्गुण होते हैं , हमारे अन्दर की ही बुराईयां होती हैं । इन बुराईयों को दूर करने के लिए मार्ग – दर्शन , निर्देश , ढंग बताने वाला कोई है तो वह परमात्मा ही है , इन युद्धों में हमें रास्ता देने वाला , ज्ञान देने वाला यदि कोई है तो वह सब ज्ञानों का स्वामी , सब ज्ञानों का मालिक हमारा वह प्रभु ही है । इस लिए हम सदा उस प्रभु का स्मरण करते हुए उस पिता के , उस स्वामी के निकट रहने का यत्न करते हैं ।
वास्तव में मानव अपने इस अध्यात्मिक संग्राम में विजयी होने के लिए जो शक्ति प्राप्त करता है, वह शक्ति उसे उस पिता की उपासना करने से , उस पिता के समीप जाने से ही मिलती है क्योंकि वह पिता हमारा गुरु है । गुरु से यदि हमने कुछ प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करना है तो निश्चित रुप से उसके पास जाकर ही मांगना पडेगा । हम जब अपने आध्यात्मिक युद्ध में रत हैं तथा इसमें निरन्तर सफ़लता पाना चाहते हैं तो हमें उस पिता से मार्ग दर्शन लेना होता है , शक्ति प्राप्त करना होता है , जिसे लेने के लिए हम
उसका उपासन करते हैं , उसके समीप आसन लगाते हैं । एसा हम क्यों करते हैं क्योंकि हमारे पास इतनी शक्ति नहीं है कि हम स्वयं अपनी शक्ति के बल परहमारे इन शत्रुओं पर विजय पा सकें । अत: इस विजय को पाने के लिए हमें उस पिता से शक्ति प्राप्त करना होता है तथा उस शक्ति को पाने के लिए निश्चित रुप से हमें अपना निवास , अपना आसन , उस परमपिता परमात्मा के पास लगाना होता है , उसकी उपासना करना होता है ।
२. हम धन एश्वर्य के स्वामी हों :
इस मन्त्र में जो दूसरा तथ्य स्पष्ट करने का यत्न किया गया है ,वह है कि हे इन्द्र: अर्थात हे परम एश्वर्य शाली प्रभो ! हे सब प्रकार के एश्वर्यों के स्वामी प्रभो ! आप के सहयोग से , आपके मार्ग दर्शन से , आप के निर्देशन से , हम काम, क्रोध आदि , हमारे अन्दर के शत्रुओं पर विजयी होने के पश्चात हमारी अनेक प्रकार के धनों को प्राप्त करने की कामना होती है , इच्छा होती है , इसे पूरा करने के लिए हम आप की निकटता पाने की हमें आवश्यकता होती है क्योंकि सब प्रकार के धनों के स्वामी तो आप ही है , सब प्रकार के धनों से आप के कोष सदा ही भरे रहते हैं । इसलिए आप सब से बडे दाता हैं ,सब से बडे दानी है ,सब से बडे देने वाले है । याचक उसके पास जा कर ही कोई याचना करता है , जो दाता हो , भिखारी सदा उसके आगे ही अपने हाथ फ़ैलाता है , जिसके पास कुछ हो क्योंकि आप सब प्रकार के धनों के स्वामी तथा सब से बडे दानी हो , इसलिए हमें आपकी निकटता की आवशयकता होती है , ताकि हम कु्छ पा सकें । हम अपनी इस अभिलाषा को , इस इच्छा को तब ही पूर्ण कर सकते हैं , जब हम इस याचना को लेकर आप के निकट जावें । इस लिए हम आपकी अर्चना करते हैं , आप की प्रार्थना करते हैं , आपकी साधना करते है तथा यह सब करने के लिए आपके निकट आकर अपना आसन लगाते
हैं ।
हे प्रभु ! याचक , मांगने वाला उसके द्वार पर ही जाकर कुछ मांगता है ,जिसके पास वह वस्तु हो तथा वह कुछ देने वाला हो । हमारे सब प्रकार के धनों को देने की शक्ति आप ही के पास है । आप ही हमारी सब प्रकार की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकते हो । इन सब आश्यकताओं की पूर्ति के लिए हम आपके पास आ कर याचना करते हैं | हम पर दया करते हुए हमें धन ऐश्वर्यों की प्राप्ति कराइये |
डा. अशोक आर्य

प्रभु स्मरण से हम शक्तिशाली हो प्रभु से रक्षित होते हैं

ओउम
प्रभु स्मरण से हम शक्तिशाली हो प्रभु से रक्षित होते हैं
डा. अशोक आर्य
प्रभु का नाम स्मरण करने से हम वासनाओं से बचते हैं , वासनाओंसे ऊपर उठते हैं । इस प्रकार हम शरीर में सोंम को व्यापक करते हैं तथा जब हम इस अवस्था में आकर युद्धों में होते हैं तो प्रभु हमारी रक्षा करते हैं । इस पर ही यह मन्त्र प्रकाश डाल रहा है : –
अस्य पीतवा शतक्रतो घनो व्रत्राणामभव: ।
प्रावो वाजेषु वाजिनम ॥ ऋग्वेद १.४.८ ॥
इस मन्त्र में दो बातों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि
१. सोम वृत्रों के नाश का कारण
हे अनन्त कर्मों तथा प्रज्ञानों वाले प्रभु ! हमारे अन्दर स्थित काम ,क्रोध आदि जो शत्रु हैं , वह हमारे ज्ञान पर आवरण स्वरुप कार्य करते है । यह काम क्रोधादि हमारे ज्ञान के नाशक होने के कारण हमारे भयंकर शत्रु होते हैं । जब हमारे यह शत्रु हम पर हावी होते हैं तो यह हमारे ज्ञान को ढक लेते हैं , इसके आवरण स्वरुप कार्य करते हैं । हमारे ज्ञान का प्रकाश निकलने ही नहीं देते । इन शत्रुओं से घिरे होने के कारण हम ज्ञान की गंगा में गोते लगा ही नहीं सकते । हमारे अन्दर अज्ञान का अन्धेरा बढने लगता है तथा हम धीरे धीरे विनाश की ओर बढते चले जाते हैं ।
इस सब को ध्यान में रखते हुए हे प्रभु ! हमारे शरीर मे इस सोम की रक्षा करके हमारे ज्ञान पर जो काम , क्रोध आदि का आवरण चढा है तथा यह हमारे शत्रु रुप कार्य कर रहे हैं , हमें नष्ट करने मे लगे हैं , आप हमें इतनी शक्ति दो कि आप की दया से हम हमारे शरीर में सोम की रक्षा करने में सफ़ल हों । इस प्रकार हम काम , क्रोधादि शत्रुओं को मारने में सक्षम हों , इसे मारने वाले बनें ।
उत्तम मानव सदा ही प्रभु के नाम स्मरण में रहता है । नाम स्मरण काम , क्रोधादि बुराईयों का शत्रु होता है । जो सदा प्रभु नाम का स्मरण करता रहता है , उस पर हमारे अन्दर के यह शत्रु कभी प्रभावी नहीं हो सकते तथा इन शत्रुओं के विनाश में वह सक्षम होता है । इस प्रकार नाम स्मरण मात्र से ही वासनाओं रुपि शत्रु नष्ट हो जाते हैं क्योंकि प्रभु नाम स्मरण वह ही कर सकता है , जिसके शरीर मे सर्वत्र सोम व्याप्त हो तथा सोम
के मालिक को कभी इस प्रकार के शत्रु हानि नहीं दे सकते । अत: प्रभु भक्त के शत्रुओं का विनाश निश्चय ही होता है ।
वह पिता सोमपान करने वाले तथा इस सोम की रक्षा करने वाले होते हैं। जब सोम की रक्षा एक मानव में हो जाती है तो यह मानव किसी भी अवस्था में काम , क्रोधादि बुराईयों का दास नहीं होता अपितु इन बुराईयों का वह विजेता होता है । इस प्रकार यह सोम वृत्रों के नाश का ,विनाश का साधन बनता है , कारण बनता है ।
२. हे प्रभो ! आप इन वसनाओं के संग्राम मे विजयी उसे ही करते हैं जो प्रशस्त अन्न वाले हों , जो प्रकर्षेण रक्षित हों । आप रक्षा करने वाले तो हैं किन्तु रक्षा उस की ही करते हैं जो अपनी रक्षा स्वयं करता है । जो
पूरा दिन व्यभिचार व बुरे कामों में लगावे, आप उसकी सहायता नहीं करते क्योंकि वह अपना विनाश स्वयं कर रहा होता है , शत्रु उसके दरवाजे पर आहट दे रहा होता है किन्तु तो भी वह निश्चिन्त हो आनन्द भोगों मे लगा रहता है , शत्रु का सामना नहीं करता , एसे को आप विजयी भी नहीं बनाते ।
सात्विक अन्न का सेवन करने वाले व्यक्ति के बुद्धि व मन भी सात्विक हो जाते हैं , स्वच्छ हो जाते हैं । जब उसने सेवन ही सात्विक अन्न का किया है तो शरीर में दुर्बलता या विलासिता आने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता । एसे व्यक्ति में सोम कणॊं की वृद्धि होती है , शक्ति का इस में संचार होता है । इस कारण एसे सात्विक अन्न को ग्रहण करने वाले को ” वाजिन ” कहा जाता है । यह जो वाजिन नामक व्यक्ति होता है , इस प्रकार के व्यक्ति की प्रत्येक प्रकार के संग्राम में विजय निश्चित होती है । इस वाजिनम का अर्थ बलवान् के रुप में भी लिया जाता है । सोमपान से जो वृत्र विनाश होता है , इस से ही वाजी बनना कहा गया है । वाजी का संग्राम में विजयी होना तय है । यह क्रम ही इस मन्त्र के माध्यम से निरन्तर चलता रहता है । यह क्रम ही इससे प्रतिपादित होता है । जो भी बलवान है , जिसने भी सोम की रक्षा की है तथा जो भी वाजी बन गया है , उसकी युद्ध में विजय निश्चित होती है । एसे व्यक्ति के रक्षक होने के कारण वह पिता इस की रक्षा करते हैं , इसे विजयी करते हैं ।
डा. अशोक आर्य

हम श्रमशील बन पभु आनन्द के भागी बनें

ओउम
हम श्रमशील बन पभु आनन्द के भागी बनें
डा. अशोक आर्य
हम सदा क्रोध जैसे दुर्गुणों से दूर रहते हुए भद्र , उत्तम जीवन बितावें तथा शत्रु द्वारा भी सौभाग्यशाली माने जावें । इस प्रकार हम श्रमशील बनकर प्रभु प्रदत आनन्द के भागी बनें । इस प्रकार क उपदेश देते हुए यह मन्त्र कह रहा है कि : –
उत न: सुभगां अरिर्वोचेयुर्दस्म क्रष्तय: ।
स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि ॥ रिग्वेद १.४.६ ॥
इस मन्त्र में मानव मात्र को तीन प्रकार के उपदेश दिए गए हैं :-
१. हमारे गुण हमारे शत्रु को प्रभावित करें
हे शत्रु विनाशक प्रभो ! हम पर एसी कृपा करो कि हमारा जीवन भद्रता से , उत्तम गुणों से इस प्रकार भरपूर हो कि हमारे गुणों के कारण हमारे शत्रु भी सदा हमारी प्रशंसा ही करे । हे प्रभो ! हमारे अन्दर विपुल भद्र भावनाओं को भरे दें , हमारे अन्दर उत्तम ज्ञान का आघान करो , हमें इतना भाग्यशाली बनाओ , तथा हमें इतनी धन सम्पदा दो कि हमारे शत्रु भी सदा हमारी प्रशंसा करें । हमारी भद्रता के कारण , हमारे उत्तम व्यवहार के कारण , हमारे शत्रु भी सदा हमें सौभाग्यशाली समझते हुए हमारी प्रशन्सा ही करें । शत्रु के ह्रदय ,शत्रु के मन हमारी भद्रता के कारण , हमारे उत्तम व्यवहार के कारण सदा प्रभावित रहें ।
जब हम गुणों के स्वामी होंगे , जब हम धन एश्वर्य के स्वामी होंगे ,जब हम उत्तम ज्ञान से प्रकाशित होंगे , जब हम ऊत्तम भावनाओं वाले होंगेतो हमारी प्रजा, हमारे प्रियजन , हमारे मित्र , हमारे पास पडोस के लोगसदा हमारी प्रशंसा करेंगे । जब हम सब ओर से प्रशंसित होंगे तो हमारे शत्रु भी निश्चय ही हमारी प्रशंसा किए बिना न रह सकेंगे , वह हमें उत्तम भाग्य वाला स्वीकार कर, हमारे गुणों की चर्चा करेंगे । एसा कोई कारण ही
नहीं रहेगा कि हमारे शत्रु हमारे इन गुणों से प्रभावित न हों ।
२. हम कर्मशील बनें
जब हम कर्म करेंगे , जब हम कर्म को , श्रम को ही प्रधानता देंगे तथा जब हम कर्मशील हो सदा कर्म में ही लिप्त रहेंगे तो निश्चय ही हम उस परम एशवर्यशाली पिता जो श्रम को ही अपना सब कुछ मानते हुए सदा श्रम के कार्य करने में ही लगे रहते हैं ।
श्रम ओर अकर्म यह दो प्रतिद्वन्द्वी शक्तियां है । जो श्रमशील होता है , वह कभी अकर्मण्य नहीं हो सकता तथा जो अकर्मण्य है वह कभी मेहनत नही करता । जो अकर्मण्य होता है , उसे प्रभु कभी पसन्द नही करता तथा उसे कभी किसी भी प्रकार का आनन्द नहीं देता ।
३. हमारे अन्दर के शत्रु नष्ट हो
यह मन्त्र शत्रुओं के विनाश का भी उपदेश कर रहा है । मानव के अन्दर काम , क्रोध , मद , लोभ , अहंकार आदि अनेक प्रकार के शत्रु निवास करते है । जो व्यक्ति सदा श्रम करता है , सदा मेहनत करता है , उसके पास इतना समय नहीं होता कि इन शत्रुओं की छत्रछाया प्राप्त करे , इन शत्रुओं की आधीनता स्वीकार कर , इन शत्रुओं की इच्छाओं का गुलाम बने । मानव के लिए यह अन्दर के शत्रु उसके सर्वनाश का कारण होते हैं । किन्तु यह मन्त्र शत्रु के विनाश का वाचक बनकर हमारे सामने आया है तथा हमें उपदेश करता है । यह मन्त्र एक स्पष्ट संकेत दे रहा है कि प्रभु के आशीर्वाद से हमारे यह अन्दर के सब शत्रु नष्ट हो जावे । यह नष्ट कैसे होंग ?, जब हम सदा कार्य करते हुए अपने आप को व्यस्त रखेंगे तो यह सब शत्रु हमारे निकट न आ पावेंगे तथा हम सुन्दर जीवन यापन करने वाले , हम उत्तम जीवन यापन करने वाले एश्वर्य से युक्त बनेंगे तथा प्रभु के द्वारा मिलने वाले सुख , वैभव व आनन्द में हमारी भी भागीदारी हो जावेगी व हम सुखी जीवन व्यतीत कर पाने मे सफ़ल होंगे ।

डा. अशोक आर्य