Tag Archives: somkan hame karmsheel va shaant rakhate hain

सोमकण हमें कर्मशील व शान्त रखते हैं

ओउम
सोमकण हमें कर्मशील व शान्त रखते हैं
डा. अशोक आर्य
जब हम अपने शरीर में सोमकणों को संभाल लेते हैं तो हमारा शरीर अत्यधिक क्रियाशील हो उत्तम कर्म करता है । हमारा मन सदा शान्त रहता है । शान्त मन वाले होने से हम प्रकृष्ट चेतना वाले बनते हैं । इस बात की ओर ही यह मन्त्र संकेत करते हुए कह रहा है कि : –
आ त्वा विशन्त्वाशव: सोमास इन्द्र गिर्वण: ।
शं ते सन्तु प्रचेतसे ॥ रिग्वेद १.५.७ ॥
इस मन्त्र में चार बातों पर प्रकाश डालते हुए मन्त्र उपदेश कर रहा है कि
१. सोमकण शरीर में सत्ता स्थापित करें
हे इन्द्रिय विजेता जितेन्द्रिय पुरुष ! , हे आसुरी प्रवृतियों का संहार , नाश करने वाले जीव ! यहां पर जितेन्द्रिय तथा आसुरी प्रवृतियों को नष्ट करने वाला शब्द का सम्बोधन करते हुए जीव को पुकारा गया है । जितेन्द्रीय कौन होता है ?, जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया हो अर्थात जो व्यक्ति सोमकणों की रक्षा कर इन्द्रिय संयम में सक्षम हो गया हो , वह व्यक्ति ही जितेन्द्रीय कहलाता है ।
दूसरी बात जो कही गयी है , वह है आसुरी प्रवृतियों के संहार करने वाले पुरु्ष । अब प्रश्न उठता है कि आसुरी प्रवृतियों का संहारक कौन है ?, यहां भी उपर वाली बात ही आती है । मानव शरिर में काम , क्रोध आदि अनेक प्रकार की आसुरी प्रवृतियां होती हैं , जो सदा उस मानव का नाश करने का यत्न करती रहती हैं किन्तु इन प्रवृतियों को वह व्यक्ति नष्ट कर देता है , जिसने सोम को अपने शरीर में व्याप्त कर इसे पवित्र बनाकर कर्मशील बन गया हो । यहां भी सोम की ही उपयोगित का वर्णन है । अत: मानव जीवन में सोमकणॊं के महत्व को ही प्रतिष्ठित किया गया है ।
अत: मन्त्र कह रहा है कि हे पुरूष तुझे जितेन्द्रिय बनाने के लिए तथा तुम्हें आसुरी प्रवृतियों से बचाने के लिए यह सोमकण तुझ में सदा तथा सामान्य रूप से प्रवेश करें । यह सोमकण तेरे शरीर में केवल प्रवेश ही न करें बल्कि तेरे शरीर में सब ओर फ़ैलकर अपनी शक्ति की सत्ता स्थापित करें ताकि :
२. सोम रक्षक कभी आलसी नहीं बनाता
इन सोम कणों के कारण तूं सदा कर्मशील बन कोई न कोई कर्म अथवा कार्य करता रहे । कभी निठल्ला न रहे । जब यह सोम तेरे शरीर में रक्षित हो जाता है तो तुझे कभी अकर्मण्यता आ कर नहीं घेर सकती । तेरा मन सदा किसी न किसी कर्म में लगना ,किसी कार्य मे लगे रहना ही पसन्द करता है ,कभी खाली व निठला नहीं रहना चाहता । यह सोम कण ही तुझे कर्मशील बनाते हैं । इससे यह तथ्य सामने आता है कि जो व्यक्ति सोम को अपने शरीर मे धारण करने से सोमी बन जाता है वह सदा कर्म में लगा रहता है , इस प्रकार वह कभी आलसी तो हो ही नहीं सकता ।
३. सोम ज्ञान को दीप्त कर शान्ति का कारण
सोमरक्षण का उद्देश्य ज्ञान को एकत्र करना होता है क्योंकि इस की रक्षा से बुद्धि तीव्र हो कर ज्ञान का संग्रह करने में , स्वाध्याय में जुट जाती है । इस प्रकार यह सोम ज्ञान का भण्डार एकत्र करने वाला भी होता है । इस लिए यहां कहा है कि ज्ञान की वाणियों का सेवन करने वाले जीव अथवा पुरुष ! यह जो सोमकण तूंने अपने शरीर में एकत्र किये हैं , रक्षित किये हैं , यह तुझे शान्ति देने वाले हों क्योंकि सोम ही मानवीय शक्तियों का कारण होते हैं तथा शक्ति सम्पन्न व्यक्ति कभी भयभीत नहीं होता ।
जिसमें भय नहीं है , वह ही शान्त रह सकता है । इससे स्पष्ट होता है कि सोम की रक्षा का उद्देश्य बुद्धि को सम्पन्न कर मानव को शान्त बनाना ही है । स्पष्ट है कि सोम से युक्त प्राणी का शरीर सदा निरोग रहता है , उसका मन सब बुराईयों के धुल जाने के कारण निर्मल हो जाता है तथा मस्तिष्क में ज्ञान का दीप जलने लगता है जिससे उसका ज्ञान भी दीप्त हो जाता है । इससे ही यह शान्ति प्राप्त करने वाले बनेंगे ही ।
४. सोमकणों से विचारवान मानव निर्माण
यह सोमकण तेरे अन्दर चेतना पैदा करने वाले हों । मानव शरीर की चेतना का कारण सोम ही तो होते हैं , जो ज्ञान को दीप्त कर उसे चेतन बनाते हैं । अत: मन्त्र कहता है कि यह सोम तेरे लिए भरपूर चेतना देने वाले हों , चेतना को प्रकाशित करने वाले हों । इस सोम की रक्षा से तूं सदा आत्म स्मरण , आत्म चिन्तन करने वाला हो । सदा अपने विषय में विचार करने वाला , चिन्तन करने वाला बन कर इस तथ्य को समझने का यत्न करता रह कि तूं कौन है ? तूं कहां से आया है तथा तूं क्यों आया है ? सदा इन बातों पर विचार करता रह । कभी इन बातों को भूल न जाए क्योंकि इस चेतना को भूलने से ही तो हमारे जीवन का क्रम ऊट – पटांग सा हो जाता है , अस्त व्यस्त सा हो जाता है , जीवन उलझ सा जाता है । इस प्रकार के बिगडे हुए क्रम के जीवन वाले होने से हमारे जीवन में प्रभु का स्थान धन ले लेता है । अब हम प्रभु चिन्तन के स्थान पर धन का चिन्तन करने लगते हैं । अब हमारा धन ही सब कुछ बन जाता है । हम धन संग्रह को ही अपना एक मात्र उद्देश्य बना लेते हैं । हम जीवन मूल्यों को ऊंचा उठाने वाले धन को भूल कर भौतिक धन के पीछे भागने लगते हैं ।
जहां हम इस अवसर पर भौतिक भोगों को ही धन समझने लगते हैं वहां हम योग के स्थान पर भोग प्रधान बन जाते हैं । जब हम ने सोम की रक्षा करने के लिए योग का साधन अपनाना होता है ,वहां हम भोग के द्वारा संकलित किए , एकत्र किये सोम का नाश करने लगते हैं क्योंकि योग तो सोम को जोडने का काम करता है तथा भोग से सोम का क्रम टूट कर एकत्रण के स्थान पर टूटन पैदा करता है । सोम के संग्रह के कारण मानव का जो मन प्रेम वाला होने के कारण सब जगत के प्राणियों को अपनी ओर खैंचता था , वह मन अब भोग के कारण राग , द्वेष में फ़ंस जाता है । इस प्रकार राग – द्वेष में फ़ंसा मन कभी प्रेम की ओर बढ ही नहीं सकता अत: इस में ईर्ष्या व द्वेष का निवास होने से यह लडाई झगडा , कलह व क्लेष का केन्द्र बन जाता है । जो व्यक्ति इस प्रकार की व्याधियों से ग्रसित होता है , वह निरन्तर अपने अन्दर के सोम का नाश करता रहता है । इस प्रकार सोम से मुक्त होने से वह शिथिल पड जाता है ।
सोम के नष्ट होने से मानव में जो नम्रता थी , वह भी नष्ट हो जाती है । इस नम्रता का स्थान अब अभिमान ले लेता है । जिस आध्यात्मिक धन से हम उस पिता से जुडकर उसे पिता मानते थे, उसे दाता मानते थे तथा नम्र होकर उसके सान्निध्य को , उसकी निकटता को पाने का यत्न करते थे , इस भौतिक धन को पाने की लालसा ने हमारी यह सब नम्रता दूर कर दी । हम अत्यधिक भौतिक धन के स्वामी होने पर भी ओर धन एकत्र करना चाहते हैं , हमारी यह धन एकत्रण की भावना ने हमें अभिमानी बना दिया । अब हम अपने धन एशवर्य पर गर्व कर उस परम पिता परमात्मा को भूल गये । अब हम अपने को ही ईश्वर मानने लगे ओर कहने लगे कि यह धन ही है , जिससे हम कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं । हम अपरीमित , असीमित धन के स्वामी हैं । अब हम कुछ भी कर सकते हैं । ईश्वर नाम की कोई वस्तु इस संसार में नहीं है ओर यदि है तो वह है धन , जिसके स्वामी हम हैं ।
इस प्रकार हम ही ईश्वर हैं , हम ही इस संसार को चलाने वाले हैं । इस प्रकार का अभिमान हमारे अन्दर आ जाता है । इस का परिणाम यह होता है कि एक ओर तो हमारा सोम हम से दूर होता चला जाता है दूसरी ओर संसार में धनवान के अत्याचार बढने लगते हैं , बढने लगते ही नहीं निरन्तर बढते चले जाते हैं । इस से इस संसार में अन्याय का घर बन जाता है , यह अन्याय ही अभाव का कारण बनता है । अन्याय से ग्रसित व्यक्ति कर्म को भूल जाता है , अकर्मी के भी सोम कण नष्ट होते हैं , वह भी शिथिल हो जाता है । जब कोई कर्म करने वाला नहीं रहता तो उपभोग के लिए कुछ पैदा भी करने वाला कोई नहीं होता । इससे सब ओर अभाव ही अभाव हो जाता है ओर जो थोडा कुछ होता है , उसे यह धनवान व्यक्ति अपने भण्डारों में भर लेता है जिससे साधारण व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है । परिणाम स्वरूप जिस संसार ने स्वर्गिक आनन्द देना था वह संसार दु:ख रुपा बन कर घोर नरक का चित्र पेश करता है ।

डा. अशोक आर्य