इशान इन्द्रियों के स्वामी हम समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त न हों

ओउम
इशान इन्द्रियों के स्वामी हम समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त न हों
डा. अशोक आर्य
इस सूक्त का प्रारम्भ हम सब मिलकर उस प्रभु का गायन करने के निर्देशन के साथ करते हैं तथा कहते हैं कि हम सामुहिक रुप से मिल कर प्रभु का कीर्तन करें तथा उपदेश किया है कि हमारे यह प्रभु पालकों के भी पालक हैं अर्थात जिस माता पिता ने हमारा पालन किया है , उनके साथ ही साथ हमारा पालन भी उस पिता ने ही किया है ।
जब हम उस पिता के ह्रदय में निवास करते हैं तो हमारे अन्दर काम, क्रोध आदि शत्रु हमारी इन्द्रियों को किसी प्रकार की भी हानि नहीं पहुंचा सकते , पराजित नहीं कर सकते । इस प्रकार के व्यवहार से जो सोम का रक्षन होता है , वह इस की रक्षा करने वाले का सहायक हो जाता है । इस सोम की रक्षा करने वाले प्राणी को सदा सात्विक अन्न का ही सेवन करना चाहिये ।
उसे इन ईशान = इन्द्रियों का स्वामी बनकर उसे हमारे शरीरों को असमय अर्थात समय से पूर्व नष्ट नहीं होने देना चाहिये । इन सुरक्षित शरीरों , जिन में हमारा शरीर , हमारा मन तथा हमारी बुद्धि भी सम्मिलित है, को हम किन कार्यों में , किन कर्मों में लगावे या व्यस्त करे ? इस सम्बन्ध में ऋग्वेद का यह सूक्त इस विषय का ही उपदेश इस प्रकार कर रहा है :
प्रतिदिन सामूहिक रुप से प्रभु स्मरण करें
डा. अशोक आर्य
आज का मानव अकेले ही तो प्रभु के चरणों में बैठकर उसका स्तुतिगान करता है किन्तु सामुहिक रूप में प्रभु के समीप जाने से न जाने क्यों भयभीत सा होता है । ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का यह पांचवा सूक्त अपने प्रथम मन्त्र द्वारा उपदेश कर रहा है कि हम सामुहिक रुप से एक साथ सम्मिलित हो कर उस प्रभु का गुण्गान करें । इस आश्य को इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
आ त्वेता षीदतेन्द्रमभि प्र गायत ।
सखाय: स्तोम्वाहस ॥ ऋग्वेद १.५.१ ॥
इस मन्त्र में उपदेश करते हुए कहा है कि
१ हम एक साथ प्रभु स्तवन करें
हे परमात्मा के स्तोमों को धारण करने वाले मित्रो ! यहां पर न तो उस पिता को सम्बोधन किया है तथा न ही परिवार को । यहां तो केवल मित्रों को सम्बोधन किया गया है । मित्रों से अभिप्राय: उस समूह से लिया जाता है , जो हमारे समीप निवास करता है , हमारा हितचिन्तक है , एक दूसरे का सहायक है अथवा जिन पर वह विशवस करता है , एसे लोगों को वह व्यक्ति आमन्त्रित करते हुए कह रहा है कि आप सब लोग निश्चय से आईये ।
इन शब्दों में उन्हें प्रभु प्रार्थना के लिए आह्वान करते हुए कह रहा है कि आप एक दृढ निश्चय से यहां आवें क्योंकि यहां आने के लिए अधिक सोच -विचार की आवश्यकता नहीं है । मन में एक संकल्प से , एक निश्चय से यहां आईये । यहां आ कर आप सब लोग अपने अपने आसन पर बैठ जावें । आप के बैठने के लिए यहां जो आसन लगा रखे हैं , जो आसन बिछा रखे हैं, उन पर विराजमान हो जाईये । इन आसनों पर बैठते हुए एक बात का ध्यान रखिये कि यहां पर आने वाले को, यहां पर बैठने वाले को नम्र होना , नत होना चाहिये , । इस लिए यहां नम्रता पूर्वक बैठिये । यहां नम्रता पूर्वक केवल गुण्गान नम्र हुए बिना नहीं किया जा सकता क्योंकि अपने से बडे के आगे याचक बन कर ही जाया जाता है , इसलिए यहां याचक बन कर , अपने में नम्रता ला कर ही बैठिये ओर फ़िर उस पिता के गुणों का सामूहिक रुप से गान कीजिए , उसका स्मरण कीजिए , उसका आराधन कीजिए ।
यह सब कैसे करें ? , इस की पद्धति , इस का तरीका , इसका ढ̇ग भी बताते हुए मन्त्र कहता है , आदेश देता है कि उस प्रभु का स्मरण न केवल मन से ही करें अपितु वाणी से भी करें ।
इस प्रकार स्पष्ट किया गया है कि अपने मन से हम सदा प्रभु स्तवन करें तथा जब सामुहिक प्रार्थना मे आते हैं तो इसे हम अपनी वाणी से भी बोल कर प्रभु स्तुति का गायन करें ।
२. प्रार्थनाओं को क्रियाओं में अनूदित करें
मन्त्र के इस दूसरे चरण में एक शब्द ” स्तोमवाहस:” का प्रयोग किया गया है । यह शब्द संकेत कर रहा है कि हम प्रभु के स्तवनों को ,प्रभु के गुण गान में जो प्रार्थनाएं कर रहे हैं , उन प्रार्थनाओं को हम अपनी क्रियाओं में अनूदित करने वाले हों । हम जब प्रभु की सामुहिक रुप से , सम्मिलित रूप से प्रार्थना कर रहे है तो हम इसे अपनी क्रिया में , अपने व्यवहार में , अपनी भाव भंगिमा में बदल देवें । अकेले तो हम केवल मन में ही उसे याद करते हैं , स्मरण करते हैं किन्तु जब हम सामूहिक रुप से उसको याद कर रहे है तो यह सब हमारे भावों में स्पष्ट दिखाई दे , इस रुप में हम इसे बदल दें ।
३. दयालु बनें
यह सम्मिलन प्रभु का स्मरण करते हुए उस प्रभु को दयालु बता कर , उसका स्मरण करते है । स्पष्ट है कि जिस रुप में हम स्मरण करते है ,वैसा ही बनने का हम यत्न भी करते हैं । जब हम प्रभु को दयालु मानकर उसका स्मरण करते है तो हम भी दयालु बनने का यत्न करें । इस का भाव है हम भी दूसरों पर दया करें , दूसरों की सहायता करे , उनके कष्टों को बांटे । जब हम दूसरों के दु:खों के साथी बनते हैं तो ही हम प्रभु को दयालु कहने के सच्चे अर्थों मे अधिकारी होते हैं ।
४. मित्र भाव से प्रभ स्मरण करें
हम मन्त्र मे प्रभु को सखाया अर्थात मित्र भी कहते हैं । एक मित्र अपने दूसरे मित्र को अपने समान ही मानता है । यदि वह नीचे है तो उसे उठाने का यत्न करता है ओर यदि वह उपर है तो स्वयं भी उस जैसा बनने का यत्न करता है । अत: जब हम मित्र भाव से प्रभु का स्मरण करते हैं तो हम निश्चय ही उस प्रभु के गुणों के समान के से गुण अपने में भी लाने वाला बनना चाहते हैं तथा इन गुणों को पाकर हम अपने मित्र उस प्रभु जैसा बनना चाहते हैं । यह हमारी उन्नति का सर्वोत्तम मार्ग है ।
एसे ही साथियों को , एसे ही व्यक्तियों को प्रभु के निकट बिछाए गए इन आसनों पर बैठने का निर्देश यह मन्त्र दे रहा है तथा कह रहा है कि आप सब मिलकर इन आसनो पर बैठो तथा उस पिता की स्तुति का गायन करो । आप ने जो कुछ भी अपने मन में विचार कर रखा है , उस के अनुरूप गीतों से , उसके अनुरूप भाषण से हाथ जोड कर स्तुति गायन करो । यह मित्रता क्या है ? यह सम्मिलित रुप से किया जाने वाला प्रभु स्तवन ही इस मित्रता का मूल है , आधार है , मूल आधार है । इस लिए इन आसनों पर बैठकर मिलकर प्रभु के गुणों का गायन हम नम्रता पूर्वक करते हैं ।
५. सम्मिलित स्तवन से मानव दीप्त होता है
जब हम सम्मिलित होकर , इन आसनों पर बैठकर प्रभु स्तवन करते हैं तो इससे मानव का जीवन दीप्त होता है । इस प्रकार के प्रभु स्तवन से मानव जीवन मे एक प्रकार का प्रकाश पैदा होता है, आभा पैदा होती है , उसमे अनेक प्रकार की उमंगें हिलोरे मारने लगती हैं । इस प्रकार सम्मिलित होने तथा प्रभु स्मरण करने का मूल ही सम्मिलित रुप से प्रभु स्मरण व गायन करना ही होता है ।
६. सफ़लता मे प्रभु का हाथ

यह क्यों ? क्योंकि मन्त्र कह रहा है कि हम अपनी सफ़लताओं को देख कर फ़ूल न जावें । हम अभिमानी न हो जावें । अभिमान विनाश का मार्ग होता है । इस मार्ग पर चलकर हम अपना नाश न कर लें । इस लिए हम अपनी इन सफ़लताओं का श्रेय उस पिता को देंगे तो हम अभिमान से बचे रहेंगे तथा नत हो कर इन सफ़लताओं को प्राप्त कर हम प्रसन्न रहेंगे ।

डा. अशोक आर्य

2 thoughts on “इशान इन्द्रियों के स्वामी हम समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त न हों”

  1. आपने जो मंत्र की व्याख्या कि है उसमे कही भी वेदमंत्र यह संकेत नही कर रहा इस मंत्र में ईशान से समय पूर्व मृत्यु न हो इसकी प्रार्थना की गई है अपितु वेदमंत्र सामूहिक उपासना पर जोर दे रहा है अतः शीर्षक वेदो मे सामूहिक उपासना होना चाहिए।

    1. alok ji
      yah ashok aarya ji ne likhaa hai aur ham kisi ke aarticle me chhedkhaani nahi karte… jaise likhaa hai waise hi lekh ko post karte hain… aapka sujhab ke liye dhanywaad…

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