Category Archives: वेद विशेष

हवियों से यज्ञ अग्नि को बढावें कभी बुझने न दें

ओउम॒
हवियों से यज्ञ अग्नि को बढावें कभी बुझने न दें
यज्ञकर्ता जिस यग्य अग्नि को जलाते हैं ,जिस को अपनी अनेक प्रकार की आहुतियां देकर बढाते हैं, वह यज्ञाग्नि हमारे परिवार से , हमारे घर से कभी बुझने न पावे । यह तथ्य ही इसके दूसरे मन्त्र का मुख्य विशय है , जो इस प्रकार है : –
तमग्निमस्तेवसवोन्यृण्वन्सुप्रतिचक्षमवसेकुतश्चित्।
दक्षाय्योयोदमआसनित्यः॥ ऋ07.1.2
अपने निवास को जो लोग उत्तम बनाना चाहते हैं, श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं , वह लोग इस यज्ञ की अग्नि को अपने निवास पर , अपने घर में स्थापित करते हैं । यज्ञ की यह अग्नि हम सब का पूरा ध्यान रखती है । यज्ञ की यह अग्नि हमारे संकटों को दूर करने का सदा यत्न करती रहती है । यदि हमारे घर में कहीं रोग के कीटाणु छुपे हैं , निवास कर रहे हैं , तो यह अग्नि उन किटाणुओं को नष्ट करके बाहर निकालने का कार्य करती है, यदि हमारे घर में दुर्गन्ध है तो यह अग्नि उसे दूर कर पवित्रता लाती है तथा यदि घर का वातावरण अशुद्ध है तो यह यज्ञ की अग्नि उसे शुद्ध कर वातावरण को शुद्ध , पवित्र करती है । घर में होने वाले सब प्रकार के भय को दूर कर हमें निर्भय बनाती है ।
यज्ञ की यह अग्नि हवियों से बढती है। हम जो आहुतियां इस आग मे देते हैं , वह आहुतियां इस अग्नि को तीव्र करती हैं । अग्नि की इस तीव्रता से हमारी रक्षा के कार्य, हमें निर्भय करने के कार्य, हमें रोगों से मुक्त करने के कार्य ओर भी तीव्रता से होते हैं ।
जिस यज्ञाग्नि के इतने लाभ हैं , जो यज्ञाग्नि हमें इतने लाभ देती है , वह यज्ञाग्नि हमारे घरों में निरन्तर जलती रहे , हम, कभी भी इसे बुझने न दें |

डा. अशोक आर्य

प्रभु हमें अक्षीण आयु तथा उत्तम सन्तान रुपी धन दे

ओउम
प्रभु हमें अक्षीण आयु तथा उत्तम सन्तान रुपी धन दे
(मण्डल ७ का सम्पूर्ण वर्णन )
डा, अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा ने वेद के इस सूक्त में उपदेश किया है कि हे पिता हमें वह धन दे जो हमे आक्षीण आयु वाला तथा उत्तम सन्तानों वाला बनावें । वह धन कौन सा है ?, इस की चर्चा इस सूक्त के इन पन्द्रह मन्त्रों में बडे ही सुन्दर ढंग से की गयी है , जो कि इस प्रकार है : –
यज्ञ की अग्नि से घर की रक्षा होती है
हम प्रतिदिन दो काल यज्ञ करें । यज्ञ भी एसे करें कि इस के लिए आग को दो अरणियों से रगड़ कर पैदा किया जावे । इस प्रकार की अग्नि से किया गया यज्ञ , इस प्रकार की प्रशस्त अग्नि से किया गया यज्ञ घर की रक्षा करता है । इस तथ्य का वर्णन ऋग्वेद के सप्तम मंडल के प्रथम सूक्त के प्रथम मंत्र में इस प्रकार मिलता है :

अग्निंनरोदीधितिभिररण्योर्हस्तच्युतीजनयन्तप्रशस्तम्।
दूरेदृशंगृहपतिमथर्युम्॥ ऋ07.1.1

मनुष्य सदा उन्नति को ही देखना चाहता है । अवन्ती को तो कभी देखना ही नहीं चाहता । मानव सदा आगे बढना चाह्ता है । पीछे लौटने की कभी उस की इच्छा ही नही होती । वह सदा ऊपर ही ऊपर उठना चाहता है नीचे देखना वह पसंद नहीं करता । इस लिए मन्त्र भी यह उपदेश करते हुए मानव को संबोधन कर रहा है कि हे उन्नति की इच्छा रखने वाले मानव ! तू अपने को आगे बढ़ने की चाहना के साथ अपनी अभिलाषा को पूरा करने के लिए , अपने हांथों को गति दे , इन्हें सदा गतिशील रख , कार्य में व्यस्त रख, इन्हें आराम मत करने दे , निरंतर कार्यशील रह ।
१ यज्ञ से रोगाणुओं का नाश
इस प्रकार अपने हांथों को गतिशील रखते हुए , क्रियाशील रखते हुए अपनी अंगुलियों से अरनियों अथवा काष्ठविशेषो में यज्ञ अग्नि को प्रदीप्त कर , यज्ञ को आरम्भ कर । यज्ञ की उस अग्नि को प्रदीप्त कर जो प्रशस्त हो , उन्नत हो अथवा उन्नति की और ले जाने वाली हो । । यह अग्नि इतनी तेजस्वी होती है कि इस के प्रकाश मात्र से , गर्मी मात्र से यह रोग के किटाणुओं के नाश का कारण बनती है अथवा युं कह सकते हैं कि यह अग्नि अपनी तेजस्विता से हानिकारक किटाणुओ का नाश कर देती है । यज्ञ की अग्नि से रोग के कीटो का अंत होता है । अत: यह यज्ञ रोग के कृमियों के संहार का कारण होता है ।
२. यज्ञ से वर्षा
यह यज्ञ वर्षा आदि लाभ देने का भी कारण होता है । वर्षा से ही हमारी वनस्पतियां बडी होती हैं तथा हमें फल देती हैं । यदि वर्षा न हो तो हमारी खेतियां लहलहा नही सकती । जब खेती ही नही रहेगी तो हम खावेंगे क्या ? हमारे वस्त्र कहा से आवेंगे ? हमारे जीवन की आवश्यकता कैसे पूर्ण होगी ? इस लिए जब हम यज्ञ करते है तो वर्षा समय पर होती है । अत: वर्षा आदि का कारण होने से भी यज्ञ प्रशंसनीय होते हैं ।
३ यज्ञ से घर की सुरक्षा
जब कहीं पर यज्ञ हो रहा होता है तो इसे बडी दूर के लोग भी होता हुआ देख लेते हैं । क्यों ? क्योंकि इस की लपटें ऊपर को अच्छी उंचाइयों तक उठती हैं । इस कारण यज्ञग्य स्थान से दूर निवास करने वाले लोग भी इस की अग्नि को देख सकते हैं । इस प्रकार दूर के लोग भी देखते हैं कि अमुक स्थान पर यज्ञ हो रहा है , जिससे उसे यह ज्ञान होता है कि इस स्थान पर निश्चित रूप से किसी का निवास है , निवास ही नही है , वहां निवास करने वाला व्यक्ति जागृत अवस्था में है , इस लिए ही यज्ञ की अग्नि जला रखी है ,। यह सब जानते हुए वह किसी दुर्भावाना से उस घर में प्रवेश करने का साहस नहीं करता ।
४ यज्ञ से उन्नति
इस सब से स्पष्ट होता है कि यह यज्ञ घर की रक्षा करने का साधन है, जहां यज्ञ होता है वह स्थान सदा सुरक्षित रहता है । उस स्थान पर , उस घर में सदा निरोगता बनी रहती है , कोई बीमारी उस घर में नहीं आती , इससे भी वह घर सुरक्षित हो जाता है । इस सब के साथ ही साथ यह घर गति वाला भी होता है । इस घर में सदा उन्नति होती रहती है । सीधी सी बात है , जिस घर में सुरक्षित वातावरण के कारण चोर आदि आने का साहस नहीं करता, रोग का प्रवेश नहीं होता, उस घर में धन का बेकार के कार्यों में प्रयोग नहीं होता , इस कारण इस घर में जीवन रक्षा के उपाय अर्थात रोटी , कपडा आदि की आवश्यकतायें थोड़े से धन से ही पूर्ण हो जाती हैं । शेष जो धन बच जाता है , वह परिवार की समृद्धि को बढाने का कार्य करता है । इससे परिजन उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, उत्तम वस्तुओ को खरीद सकते हैं तथा दान देकर अन्य साधनहीन लोगों की सहायता कर अपना यश व कीर्ति को बढा सकते हैं , सर्वत्र सम्मानित स्थान प्राप्त कर सकते हैं ।
अत: जिस यज्ञ के मानव जीवन में इतने लाभ हैं , उस यज्ञ को तो प्रत्येक मानव को अपने परिवार में प्रतिदिन दो काल अवश्य करना चाहिए तथा यश प्राप्त करना चाहिये ।

डा.अशोक आर्य

जीवन रक्षा के लिए आत्मबल को बनाए रखें

ओउम
जीवन रक्षा के लिए आत्मबल को बनाए रखें
डा. अशोक आर्य
जिस व्यक्ति का आत्मबल मजबूत है , उसे कोई पराजित नहीं कर सकता | आत्मबल ही सब सुखों का आधार है | जिस में आत्म बल नहीं, वह जीवित रहते हुए भी
मृतक के सामान है | कुछ लोग एसे होते हैं , जो प्रति क्षण अपनी ही निंदा करते दिखाईदेते हैं | उनका यह स्वभाव उनमें आत्मबल की कमीं ही दिखाता है | अपने पास
बलवान सेना होते हुए भी आत्मबल विहीन योद्धा रणक्षेत्र में विजयी नहीं होता , जब की आत्मबल का धनी कम सेना होते हुए भी विशाल सेना को नष्ट कर देता है | इस लिए जीवन की उन्नति के लिए , सफलता के लिए आत्म बल को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए | इस समबन्ध में यजुर्वेद तथा सामवेद में मन्त्र इस प्रकार हमें आदेश दे रहा है : –
योनःस्वोअरणोयश्चनिष्ट्योजिघांसति।
देवास्तंसर्वेधूर्वन्तुब्रह्मवर्मममान्तरम्॥ ऋ06.75.19
ऋग्वेद ६.७५.१९ सामवेद १८७२ ||
जब भी कोई हमारा अपना मित्र या कोई परकीय अथवा बाहरिय व्यक्ति हमें नष्ट करना चाहता है तो समस्त देवता उसे नष्ट करें | आत्मबल युक्त में सुरक्षित रहूँ |
ऊपर मन्त्र के भावार्थ से स्पष्ट होता है कि मन्त्र दो बातों की ओर संकेत करता है |
१) जो व्यक्ति दूसरों की हानि करते हैं अथवा दूसरों को मारते हैं , देवता एसे लोगों को नष्ट करें |
अपने स्वार्थ को सम्मुख रखते हुए तथा उसकी पूर्ति के लिए अनेक समय पराये तो पराये अपने भी हानि पहुँचाने के लिए क्रियमाण होते हैं | लोभ मनुष्य का सब से बड़ा शत्रु है | लोभ के कारण शत्रु तो प्राय: विनाश का खेल खेलते ही हैं , अनेक बार यह लोभ अपने मित्रों को , परिजनों को भी शत्रु बना देता है | परिवार की धन सम्पति के प्रश्न पर अनेक बार भाईयों को लड़ते व एक दूसरे को काटते देखा है | भारत में एक जाति तो माता पिता तक को भी नहीं छोड़ती | लोभ के ही कारण औरन्गजेब ने अपने ही जनक , अपने ही पिता बादशाह शाहजहाँ को बंदी बनाकर , उसकी सत्ता को छीन लिया | क्या कमीं थी सत्ता विहीन रहते हुए भी ? सब प्रकार क़ी सुख , संपदा , नौकर ,चाकर उसके पास थे | सब प्रकार के सुख उसे प्राप्त थे किन्तु फिर भी अपने ही पिता को जेल में डाल कर उससे सत्ता छीन कर अपना आधिपत्य स्थापित करने की | यह सब लोभ का ही तो परिणाम है | आज हमारे देश की भी यह ही अवस्था हो रही है | देश के उच्च स्थानों पर बैठे अनेक मंत्रीगण आज जेल की सींखचों में बंद हैं क्योंकि लोभ ने उनका पीछा नहीं छोड़ा | अपार धन के स्वामी होते हुए भी लोभवश धन को प्राप्त करने के लिए गलत मार्ग पर चले व चल रहे हैं | तभी तो माननीय अन्ना हजारे तथा बाबा रामदेव को सरकार के सम्मुख दीवार की भाँती खड़ा होना पड़ रहा है | श्री अरविन्द केजरीवाल जैसे लोगों को कहना पड़ता है कि जो संसद लोकतंत्र का मंदिर होनी चाहिए थी , वह आज भ्रष्टाचारियों का अड्डा बनती चली जा रही है , इसे रोकने का कर्तव्य (जिम्मा) जनता का है | जनता अपने अधिकारों का ठीक प्रयोग कर इसकी अस्मिता की रक्षा करे |
पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे के समय आज भाई अपने ही भाई के अधिकार पर कब्जा जमाने के लिए लड़ता हुआ देखा जा सकता है | इस अवसर पर अनेक संकट खड़े होते हैं | अनेक बार तो कुछ लोग इस अवसर पर अपने जीवन को भी खो बैठते हैं | यह सब क्या है ? यह हमारे अन्दर दुर्गुणों की , दुवासनाओं की सता का ही परिणाम है | जब हम दुर्गुणों को अपने जीवन का अंग बना लेते हैं तो हम उसके एसे ही परिणाम पाते हैं | इन दुर्गुणों के ही कारण हम अपने ही परिजनों के लिए कष्टों का कारण बनते हैं | जब पर्जन ही धन के लोभ में एक दूसरे के विनाश को तत्पर हो सकते हैं तो अन्यों की क्या चर्चा करें ?
अन्य तो होते ही अन्य हैं | वह तो प्रतिक्षण अवसर की ही खोजा में होते है | अवसर पाते ही महाविनाश का कारण बनते हैं | अत: अन्य लोग शत्रु भावना से अथवा लोभ की भावना से दूसरों की धन सम्पदा व भूमि पर बलात अधिकार कर उन्हें हानि पहुँचाने का यत्न करते हैं | मन्त्र कहता है कि जहाँ भी इर्ष्या – द्वेष की भावना है , जहाँ भी लोभ प्रभावी है , वहां एक मनुष्य दूसरे की हानि करने में कभी संकोच नहीं करता | जो व्यक्ति दुर्गुणों तथा दुर्व्यसनों से ग्रसित है , वह कभी दूसरे की सहायता नहीं कर सकता , वह तो दूसरे का विनाश कर उसकी धन सम्पदा का स्वामी बनने का प्रयास करता है | तभी ही तो प्रतिदिन लूटपाट , आगजनीं व कत्लेआम की घटनाएं हमें सुनने को मिलती हैं | कर्मों से नष्ट – भ्रष्ट एसा व्यक्ति ओर कर भी क्या सकता है ? विनाश ही उसका उद्देश्य होता है , विनाश ही उसका जीवन होता है तथा विनाश ही उसका कर्तव्य होता है |
२) ब्रह्म ही आतंरिक शक्ति है
मन्त्र का दूसरा भाग रक्षा का मार्ग बताते हुए कहता है कि वह प्यारा प्रभु ही मेरा आतंरिक कवच है | परमात्मा का अभिप्राय : उस महान प्रभु से है उस ज्ञान से है , उस सत्य से है , उस आत्मबल से है , उस आस्तिकता से है , जिस की शरण में रहते हुए हम अनेक सुखों के स्वामी बन अपने जीवन को रक्षित करते हैं | परमात्मा से रक्षित हो जब हम आत्मबल के स्वामी बन जाते हैं तो सब प्रकार की सम्पति की रक्षा की शक्ति हम में आ जाती है , जब कि आस्तक व्यक्ति सब प्रकार के पापों से स्वयं को रक्षित करने में सक्षम होता है | यह आत्मबल तथा आस्तिकता ही मनुष्य का आतंरिक बल है | जो मानव इन दो शक्तियों का धनी है , उसकी आतंरिक शक्तियां इतनी शक्तिशाली हो जाती हैं कि वह बड़े से बड़े संकट का सामना भी बड़ी सरलता से कर सकता है | जब इन दोनों के साथ ज्ञान और सत्य मिल जाते हैं तो सोने पर सुहागे का काम होता है | ज्ञान और सत्य मानव को बल प्रदान करने वाले होते हैं | इस प्रकार आत्मबल तथा
आस्तिकता के साथ जब सत्य व ज्ञान का मिश्रण हो जाता है तो यह मिल कर मानव का आतंरिक कवच बन जाता है | यह आतंरिक कवच मानव को अन्दर की अनेक बुराईयों से रक्षा का कार्य करता है |

इस प्रकार आतंरिक कवच को धारण कर मानव को उचित रूप से कर्तव्य का बोध होता है , कर्तव्यबोध से मानव सत्य व्यवहार को अपनाता है , सत्याचरण करता है | सत्याचरण से उसके अन्दर आस्तिकता का प्रवेश होता है | यह आस्तिकता ही है , जो मनुष्य को लोभ से बचाती है , यह आस्तिकता ही है जो मानव को द्वेष से रक्षित करती है तथा यह आस्तिकता ही है , जो मानव में लोभ की भावना को बलवती नहीं होने देती , इस कारण ही कहा गया है कि ज्ञान ओर सत्य आत्मा को बल देते हैं तथा यह आत्मबल मनुष्य को आस्तिक बनाता है | इस कारण ही इसे रक्षा कवच कहा गया है | अत: हम आतंरिक इर्ष्या, द्वेष से बचते हुए आत्मबल, आस्तिकता, ज्ञान व सत्य को धारण कर आत्मबल को बलवान बना कर सकल सुखों को प्राप्त करें |
डा. अशोक आर्य

हम सदा सद्गुणों को ग्रहण करें

ओउम
हम सदा सद्गुणों को ग्रहण करें
डा. अशोक आर्य
आज के युग में गुणों से भरे मार्ग पर चलने वाले लोग उँगलियों पर गिने जा सकते हैं | गुणों के ह्रास से ही संसार आज अध्:पतन की ओर जा रहा है | अपने अधिकार पाने की एक दौड़ सी लगी हुयी है | किसी को भी कर्तव्य की ओर देखने व उसे
समझने तथा उस पर चलने की भावना ही नहीं रही | आज स्थिति यहाँ तक पहुंच गयी है
कि एक बालक , जिसे पाल – पोस कर बड़ा किया जाता है, पढ़ाया – लिखाया जाता है | अच्छी प्रकार से उस का भरण – पोषण किया जाता है तथा उत्तम वस्त्र उसे पहनने को दिए जाते हैं | यह सब कर्तव्य पूर्ण करने में माता पिता जीवन भर की कमाई लगा देता है | जब उस की आयु ढल जाती है , वह बुढ़ापे की अवस्था में पहुंचता है , अनेक रोग उसे घेर लेते हैं , इस अवस्था में उसे सहारे की आवश्यकता होती है | इसी अवस्था में वही संतान, जिसे बनाने के लिए उसने अपना जीवन खपा दिया, आज उसे दुत्कारती है तथा यह कहने पर कि माता पिता ने तेरा पालन किया है तो उतर देती है कि यह तो उनका कर्तव्य था , हमारे लिए नहीं अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए यह सब किया था, अपनी नाक बचाने के लिए यह सब किया था | जब कहा जाता है की तुम्हारा भी इन के लिए कुछ कर्तव्य बनता है , तो उतर होता है कि हमारा अपने बच्चों के लिए भी कर्तव्य है, उसे पूरा करें या इन को संभालें |
जिस माता पिता ने उसे यह संसार दिखाया, आज उनकी देख रेख करने वाला कोई नहीं , क्योंकि हम ने संतान का पालन तो किया किन्तु उसे सुसंतान न बना पाए | अच्छे गुण उनमें नहीं-भर सके | ऋग्वेद के मन्त्र ५.८२.५ में प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि हे प्रभु, हमें अच्छे गुण ग्रहण करने की शक्ति दो | मन्त्र मूल रूप में इस प्रकार है :
विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुवा |
यद् भद्रं तन्न आ सुव || ऋग्वेद ५.८२.५ ||
हे संसार के उत्पादक ,कल्याणकारी परमेश्वर , आप हमारे सारे दुर्गुण, दुर्व्यसन तथा दुर्गुणों को दूर कीजिये ओर जो कल्याणकारी गुण, कर्म, पदार्थ हैं , वह हमें दीजिये |
इस मन्त्र में वैदिक संस्कृति के लक्षण बताये गए हैं | संस्कृति क्या है ?, इस का अर्थ क्या है ? आओ पहले इसे जाने , फिर हम आगे बढ़ेंगे | संस्कृति नाम है
संस्कार का | संस्कार से परिष्कार होता है तथा तथा परिष्कार से संशोधन होता है | अत: संस्कार, परिष्कार व संशोधन को ही हम संस्कृति कह सकते हैं | बालक का जन्म
होता है, उसे कुछ भी ज्ञान नहीं होता | माता , पिता उसे संस्कार देते हैं, विगत संस्कारों को परिष्क्र्त कर , उनका संशोधन करते हैं , तब कहीं जा कर वह बालक एक उत्तम मानव की श्रेणी में आ पाता है | इस लिए हमारी संस्कृति के आधार हैं संस्कार, परिष्कार तथा संशोधन | इसे समझाने के लिए हम कृषि या खेती का बड़ा ही सुन्दर उदाहरण देख सकते हैं : –
किसान अपने खेतों में से अनावश्यक घास फुंस, जो स्वयं ही उग आता है तथा भूमि की उर्वरक शक्ति का शोषण करने लगता है , को खोद कर निकाल बाहर
करता है | तत्पश्चात अपने खेत को समतल कर इस में उत्तम प्रकार के बीजों को डालता है | इस खेती में समय समय पर खाद व पानी दे कर इसे पुष्ट भी किया जाता है | इससे उगने वाले पोधों में अच्छे गुणों का आघान होता है तथा अच्छे फल स्वरूप इस का परिणाम किसान को मिलता है | कुछ एसा ही कार्य संस्कृति करती है | बालक के अन्दर जितने भी अवाच्छ्नीय तत्व होते हैं , जितने भी दुर्गुण होते हैं या किसी भी प्रकार की कमियां बालक में होती है, संस्कृति उन सब को दूर कर , उनके स्थान पर अच्छे गुणों को प्रतिस्थापित करती है | बस इस कार्य को ही हम संस्कृति कहते हैं | हम संस्कृति को संक्षेप में इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं ” दुर्गुण निवारण और सद्गुण स्थापन
ही संस्कृति है |”
ऊपर के प्रकाश को सम्मुख रखते हुए इस मन्त्र में कहा गया है कि जितने दुर्गुण, दुर्विचार या जितने भी दू:ख देने वाले तत्व हैं , हे प्रभू, वह सब हम से दूर कीजिये तथा जितने भी सद्गुण, सद्विचार अथवा शुभ तत्व हैं ,वह सब हमें प्रदान कीजिये |
इस प्रकार गुणों को प्राप्त करने व दुर्गुणों को दूर करने का कार्य यह संस्कृति मानव के जीवन पर्यंत करती रहती है, यह क्रम चलता रहता है | तब ही तो मानव दुराचारों तथा पापाचारों से अपने को बचाते हुए सद्गुणों कि प्राप्ति की और बढ़ता है , इन में प्रवृत होता है , इन्हें ग्रहण करता है | जब सद्गुणों में यह प्रवृति बद्धमूल हो जाती है , समा जाती है , तब मानव में से सब प्रकार की दुर्भावनाओं, दुराचारों का नाश हो जाता है तथा अच्छे
गुण, अच्छे संस्कारों में निरंतर वृद्धि होती रहती है | इस प्रकार अच्छे गुणों को प्राप्त करते हुए मानव मानवता से देवत्व की और बढ़ता ही चला जाता है |जिस मानव में ऐसे गुणों की प्रचुरता आ जाती है , संसार उन्हें युगों युगों तक याद करता है, उसके पदचिन्हों पर चलने का प्रयास करता है तथा उसे देवता तुल्य
आदर सत्कार देने लगता है |
अत: हम मन्त्र की भावना को अपनाते हुए संसकृति के भाव को आत्मसात करते हुए अपने दुर्गुणों को त्यागें तथा अच्छे गुणों को गृहन कर संसार के सम्मुख अच्छा
उदहारण रखें |

डा. अशोक आर्य

प्रभु प्रकाश को देखें

औ३म
प्रभु प्रकाश को देखें
प्रभु क प्रकश अपने ही ह्रिदय में होता है । इसे देखने के लिये अपने ही ह्रिदय को टटोलना होता है । हमारे औरस पुत्र हमे अपने आचरण से सुखि करते हुये दिर्घायु हो । इस्बात क प्रकव्ह रिग्वेद के सप्तम मन्दल के प्रथम सुक्त के अन्तर्गत २१वें मन्त्र मे इस प्रकर किया ग्या है : –
त्वमग्ने सुहवो रण्वसद्रि॒वसुदीति सूनो सहसो दिदीह ।
मा त्वे सचा तनये नित्या आ धडमा वीरो अस्मत्रर्योवि दसीत ॥ रिग्वेद ७.१.२१ ॥
हे बल पुत्र, अत्यन्त बलवान, अगेणी प्रभु ! आप को हम सुगमता से पुकार सके, एसे होइये । प्रत्येक प्राणी की सदा ही यह इच्छा रही है कि वह परमपिता की समीपता प्राप्त कर किन्तु पिता उसे सरलता से मिल जावे । इस भाव को ही इस मन्त्र में व्यक्त किया गया है । हे प्रभु आप रमणीय सन्दर्शन वाले होने के कारण आप उत्तम दीप्ति से , उत्तम प्रकाश से दीप्त होयिये । हमारी यह ही प्रार्थना है प्रभु कि हम सदा आप के उत्तम प्रकाश को अपने ह्रिदयों में देख सकें ।
हमारे सहायक होकर आप हमें हमारे औरस पुत्र के समबन्ध मे दग्ध न करें । हम इस औरस सन्तान के व्यवहर से कभी द्ग्ध न हों, दु:खी न हों , परेशान न हों तथा न ही उसके विक्रित व्यवहार से परेशान हों । हमारी यह जो औरस सन्तान है , वह सुशील, सदाचारी तथा योग्य हो तथा हमारे से यह नरहितकारी ,यह वीर सन्तान उपक्शीन मत हो जावे । यह सन्तान दीर्घ जीवी हो , अल्पायु मे ही हमारे से छिन न जावे ।
हम यग्याग्नि को दीप्त करें कभी दुर्मति न हों
इस मन्त्र मे प्रभु से प्रार्थना करते हुये कहा है कि हमें कभी भरण पोषण की कमीं न आवे, यग्यग्नि के माध्यम से देते रहे तथा हम कभी दुर्मति न हों । इस बात को मन्त्र इन शब्दों में कह रहा है : –
मा नो अग्ने दुर्भ्रितये सचैव देवेद्धेष्वग्नि प्र वोच ।
मा ते अस्मान्दुर्मतयो भ्रिमाच्चिद्देवस्यसूनो सहसो नशन्त ॥ रिग्वेद ७.१२२ ॥
यह मन्त्र उपदेश करते हुये कहता है कि हे प्रभु ! हम अपने भरण पोषण के लिये कभी कष्ट में न पडे । हमें कभी दुर्भति के अवस्था में न डालें । भाव स्पष्ट है कि हमें सदा यथावश्यक अन्न आदि प्राप्त होता रहे । इस के साथ ही मन्त्र बता रहा है , उपदेश कर रहा है कि प्रभु आप ही हमारे सहाय भूत हैं , हमारे सहायक हैं , अत: इस नाते आप हमें देवों के द्वारा जलायी गयी इस अग्नि के विष्य में हमें बतायिये, ग्यान करायिये, उपदेश किजिये ताकि हम भी उन देवों की ही भान्ति यग्य की अग्नि को जलाने वाले, प्रज्वलित करने वाले बनें ।
मन्त्र उस पिता को बल का पुन्ज मानते हुये उपदेश करता है, मन्त्र कह रहा है कि हे बल , शक्ति के प्रकाश पुन्ज प्रभु ! हम आप के प्रकाश से प्रकाशित हैं , इस लिये हमें कभी भ्रम से भी किसी प्रकार की दुर्मति न हो , बुरा न सोचें तथा न ही करें । हम सदा उत्तम मतिवाले, उत्तम बुद्धिवाले, उत्तम ग्यान वाले होते हुये यग्य आदि उत्तम कार्यों में व्यस्त रहे, लगे रहें ।

यग्य करते हुये इन्द्रियों को विश्यमुक्त कर पवित्र बनें

यग्य करते हुये इन्द्रियों को विश्यमुक्त कर पवित्र बनें
हम सदा प्रतिदिन दो काल यग्य करें। यग्य से हमारे घर का वातावाण स्वच्छ होता है, अनुशासन आता है, बडों का आग्यापालन करने की भावना बलवती होती है तथा सब इन्द्रियां वश में होती हैं । जब सब इन्द्रियों के घोडे वश में हो जाते हैं , नियन्त्रित होने से हम पवित्र होते हैं । इस प्रकार का आश्य रिग्वेद के सप्तम मण्ड्ल के सुक्त संख्या एक के मन्त्र संख्या १७ में इस प्रकार बताया गया है : –
त्वे अग्नाहवनानि भूरीशानास आ जुहुयाम नित्या ।
उभा क्रण्वन्तोवहतू मियेधे ॥ रिग्वेद .१.१ ॥
हे यग्य की अग्नि ! हम प्रतिदिन दो काल तेरे में आहुतियां देते रहें , आहुत करते रहे । यह सब हम एश्वर्यशाली होते हुये भी करें । हमारे पास धन एश्वर्य है या नहीं किन्तु हम अपने निवास पर यग्याग्नि को जलाने तथा एश्वर्य रूपि आहुतियों को देने का कार्य प्रतिदिन दो काल निरन्तर करते रहें ।
हे अग्नि देवे आप की यग्य अग्निको जलाते हुये हम प्रतिदिन यग्य काते हुये हम अपनी इन दोनों इन्द्रियों के घोडों को मार लेने वाले हों अर्थात हम अपनी इन्द्रियों को सब प्रकार की विष्य वासनाओं से अपनी इन इन्द्रियों को अलग कर लेम, दूर कर लें । इन्हें किसी प्रकार केरग आदि से कुच भी चस्का न रह जावे । इस प्रकार हमारी इन्द्रियों के यह गोडे पवित्र बन जावें ।
नियमित अग्निहोत्र से वायुमण्डल शुद्ध होता है
जब हम अपने यहां प्रतिदिन नियमित रुप से दो काल हवन करते हैं , यग्य करते हैं तो हमारे घर तथा आसपास का वायु मन्डल शुद्ध , पवित्र हो जाता है । इस बात पर इस मन्त्र में इस प्रकार विचार किया ग्या है : –
इमो अग्ने वीततमानि हव्याजस्त्रो वक्शि देवतातिमच्छ ।
प्राति न ई सुरभीणि व्यन्तु ॥ रिग्वेद ७.१.१८ ॥
हे यग्याग्नि देव ! तुं निरन्तर जलता रह, अन्वरत जलते हुये कभी न बुझे । इस प्रकार निरन्तर जलते हुये अग्नि देव तुझे जो हव्य पदार्थ दिये जाते हैं , तुझ में डाले जाते हैं , भेंट किये जाते हैं , उन सुन्दर पदार्थों को तुं ग्रहण कर तथा इन्हें वायु आदि देवों को पहुंचा , दे अथवा भेण्ट कर दे । हे यग्याग्नि देव ! आप को जो जो आहुति भेंट की गयी है , वह सब आप सीधे ही सुर्य देव को दे देते हो । इस प्रकार आप को भेट की गयी यह आहुतियां अग्नि के योग से सूक्शम कणॊं में बंट जाती हैं । इस प्रकार सूक्शम कणॊं में बंटे यह हव्य पदार्थ आकाश मण्डल में सर्वत्र , सब ओर फ़ैल कर सारे के सारे वायु मण्ड्ल का शोधन करते हैं । वायु मण्डल को शुद्ध कर देते हैं ।
हे अग्नि देव ! हम यह जो प्रतिदिन यग्य करते हैं , उससे निकलने वाले यह सूक्शम कण प्रतिदिन यग्य के द्वारा उन सब देवों के पास पहुंचे , जो इन के द्वारा वायुमण्डल के शोधन का कार्य करते हैं ,पवित्र करने का कार्य करते हैं , स्वच्छ करने का कार्य करते हैं , पर्यावरण को शुद्ध करते हैं ।
हम सुस्न्तान, वस्त्र,बुद्धि आदि दिव्य्भावों से युक्त सर्वत्र सुरक्शित हों
हम प्रतिदिन यग्य करते हुये उत्तम सन्तान वाले बनें , प्रतिदिन शुभ व पवित्र वस्त्रों को धारण करें, हमारी बुद्धि भी शुभ हो , हम सदा त्रिप्त रहें ,दिव्य्भावों को प्राप्त करें । हमारे रित की प्रभु रक्शा करें तथा हमारी सब स्थानों पर रक्शा हो। इस भाव को मन्त्र ने इस प्रकार प्रकट किया है :
मा नो अग्ने॓वीरते परा दादुर्वाससे॓मतये मा नो अस्यै ।
मा न: शुधे मा रक्शस रितावो मा नो दमे मा वना जुहूर्था:॥ रिग्वेद ७.१.१९ ॥
हे परम्पिता परमात्मा ! हम नि:सन्तान न हो , हमें अपुत्रत्व को न दें । हमें सन्तान्युक्त करें । हमें मैले कुचैले कपडों में मत डालिये, हम सदा स्वच्छ व सुन्दर कपडों क वर्ण करें, पह्नें । इअतना ही नहीं हे प्रभु हमें निर्धन्मत बनाएये, एश्वर्य से युक्त बनाइये । हमा कभी निर्बुधि न हों , प्रभो हमें उत्तम बुद्धि भीदो । इस के साथ ही साथ हमें भूख को मत देवेम , हम सदा उत्तम भोजन करें, क्भी भूखे न हों । इस के साथ ही साथ हे प्रभो हम में रक्श्सीप्रव्रितियों क प्रवेश मत करायिये , हम सदा देवत्व की ओर बधें । हे रित तथा सत्य क रक्शण करने वाले अग्ने ! हम अपने घर मेम क्भी हिसित न हों, केवल्घर में हीनहीं हम वन में भी अर्थात बाहर भी क्भी हिसक न बनें । इस प्रकार आप की उपासना करते हुये , आप की समीपता में रहते हुये हम सब स्थानों पर सर्वदा सुरक्शित रहें ।
हम प्रभु से ग्यानोपदेश ले यग्य्शील के कश्तों को दूर कर शुभ मार्ग पर चलें
प्रभु से हमें ग्यान क उपदेश मिलता रहे । हे प्रभु हम यग्य्शीलों के कश्टों को दुर कीजिये । हम अभ्युदय व निश्रेयस को सिद्ध करते हुये सदा सन्मार्ग पर, शुभ मार्ग पर चलें । इस क वर्णन इस मन्त्र मे मिलता है : –
नू मे ब्रह्माण्यग्न उच्छशाधि त्वं देव मघवद्भय: सुषूद: ।
रातॊ स्यामोभयास आ ते यूयं पात स्वस्तिभि: सदा न:॥ रिग्वेद ७.१.२० ॥
हम प्रभु से ग्यानोपदेश ले यग्य्शील के कश्तों को दूर कर शुभ मार्ग पर चलें
प्रभु से हमें ग्यान क उपदेश मिलता रहे । हे प्रभु हम यग्य्शीलों के कश्टों को दुर कीजिये । हम अभ्युदय व निश्रेयस को सिद्ध करते हुये सदा सन्मार्ग पर, शुभ मार्ग पर चलें । इस क वर्णन इस मन्त्र मे मिलता है : –
नू मे ब्रह्माण्यग्न उच्छशाधि त्वं देव मघवद्भय: सुषूद: ।
रातॊ स्यामोभयास आ ते यूयं पात स्वस्तिभि: सदा न:॥ रिग्वेद ७.१.२० ॥
हे प्रभो ! आप मेरे लिये ग्यान की जितनी भी वाणियां हैं , उनका उपदेश कीजिये । हे प्रभो ! आप पतिदिन यग्य करने वालों को उत्तम प्रेर्णा को प्राप्त कराने के लिये उन्हें उत्साहित कीजिये , उन्के दु:खों को दूर कीजिये । आप के जितने भीदान हैं , उन में अभ्युदय तथा नि:श्रेयस्दोनों को सिद्ध करने वाले हों । इन सब देवों के साथविनाशी मंगलों के माध्यम से, के द्वारा हमारा राक्श्ण किजिये , हमारि रक्शा करेम । इस प्रकार आप की क्रपा हमारे उपर बनी रहे तथा हम क्ल्याण मार्ग पर निरन्तर चलते रहें ।

हम उत्तम सन्तानों वाले तथा वीर बनें

औ३म
हम उत्तम सन्तानों वाले तथा वीर बनें
हम सब मिलकर पर्मपिता के उपासक बने , उस पिता के समीप आसन लगावें , उस के निकट बैथें । हम अपने कर्म से कुछ प्राप्त कर उसका उपभोग करं , किसी आश्रित न हों , किसी पर बोझ न बनें । अपने घरों में भी दरिद्रता न आने देम , द्रिद्रता से र्हित हो तथा इस प्रकार हम उत्तम सन्तान्को प्राप्त करें । इस घर मेम हम वीरता से युक्त होकर निवास करें । इस तथ्य को रिग्वेद के इस सप्तम मण्डल के प्रथम सूक्त में आये एकादश मन्त्र में इस प्रकार उप्देश किया गया है : –
मा शूने अग्ने नि शदाम न्रिणां माशेश्सो॓वीरता परित्वा ।
प्रजावतीशु सुर्यमु दुर्य ॥ रिग्वेद ७.१.११ ॥
हे प्रभि ! आप की उपासना करते हुये हम चाह्ते हैं कि हम सद अपने निवास पर हि आ कर विश्राम करें, अपने घर मेही रहें, अन्य लोगों के घर पर हीन बैथे रहें । जिन घरों में धन क अभाव हो , जो घर शून्य कि स्थिति में हों , जिन घरों में आर्थिक अभाव हो, एसे घरों मेम हम निवास न करें । धन वैभव की हमें कमीं न हो । हम अभाव से टूटे हुये होकर दूसरों के घरों में ही न बैथे रहेण, दूसरों पर बोझ हीन बने रहेण । हमार निवास शून्य स्से भरे घरों में , जिन्घरों में धनाभाव हो, एसे घरों मं कभी भी न हो । जो हमारे सम्पन्न घर हैं , उनमें भी हम भर पूर परिवार सहित हों , उत्तम सन्तान सहित हों । सन्तान्क हमें अभाव न हो । इतना ही नहिं अपने घरों में उत्तम सन्तान के साथ ही साथ हम वीरता से युक्त हों, भर्पूर वीरता के स्वामी हों । हमारी वीरता में कभी कमीं न आव्द ।
हमारे घरों के रक्शक हे पिता ! हम सदा आप के निकट बैथ्ने वाले हों, आप की उपासना करने वाले हों , आप की सदा स्तुति पूर्वक प्राथना करते हुये आप ही के निकत बैथें । इस प्रकार आप के पास रहते हुये भी हम उत्तम व वॊर सन्तानों वाले हों ।

हमारा घर दतक सन्तान से भी सदा व्रिद्धि को ही बधे
हम प्रशतेन्द्रिय होकर ही उस पिता की अपने घर में उपासना करें , उस पिता के पास बैथें । हमारे घर उत्तम सन्तान से युक्त हों यदि किन्ही कारण से हमें दतक सन्तान लेनी पडती है तो भी हम व्रिद्धि को उन्नति को ही प्राप्त हों । इस बात को इस मन्त्र मे इस प्रकर प्रकाशित किया गया है : –
यमश्वी नित्यमुपयाति यग्यं प्रजावन्तं स्वपत्यं क्शैये न: ।
स्वजन्मना शेशसा वाव्रिधानम ॥ रिग्वेद ७.१.१२ ॥
हे प्रभो ! हम प्रतिदिन प्रात: सायं प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला पुरुश आप की उपासना के लिये आप के चरणों में उपस्थित होते हैं । इस लिये हे प्रभु ! आप हमें एसा ग्रह दें, जो उत्तम प्रकार के पुरूशों से भरा हो, उत्तम सन्तानों से भरा हो । इस का भाव यह है कि इस घर में जो बडे लोग अर्थात माता पिता आदि निवास करते हैं ,वह उत्तम जीवन मूल्यों से भरपूर हो , उत्तम मार्ग पर चलने वाले तथा उत्तम कार्य करने वाले हों । इतना ही नहीं इस प्रकार के मुखिया से युक्त इस घर की सन्तानें भी उत्तम ही हों ।
यहां प्रभु से इस मन्त्र के माध्यम से यह भी प्रार्थना की गयी है कि हमें जो घर प्राप्त हो , वह घर अपने से उत्पन्न सन्तानों से उन्नति पावे तथा ऒरस सन्तानों से भी व्रिद्धि को , उन्नति को, सफ़लताओं को प्राप्त करे ।

शुभ धन एश्वर्य की प्राप्ति जागृत को ही होती है

शुभ धन एश्वर्य की प्राप्ति जागृत को ही होती है

डा. अशोक आर्य
आज का मनुष्य जीवन में अतुल धन सम्पति की अभिलाषा रखता है | धन सम्पति की अभिलाषा ने उसका जीवन क्रम ही बादल दिया है | इस जीवन क्रम के परिवर्तन के साथ ही उसकी आवश्यकताएं भी निरंतर बढती व बदलती ही चली जा रही हैं | एक सामूहिक परिवार में जहाँ एक रसोई में केवल एक चाक़ू होता था ,वहां आज परिवारों के विभाजन के पश्चात भी एक रसोई में कम से कम बीस प्रकार के तो केवल चाक़ू ही हो गए हैं | एक छीलने वाला, एक काटने वाला , एक डबल रीती पर जैम लगाने वाला ………. इस प्रकार जहाँ केवल चाकुओं की ही इतनी संख्या बढ़ गयी है, वहां शेष सामग्री की गणना करें तो आज एक छोटे से परिवार के पास आकूत सामग्री की आवश्यकता हो गयी है | आवश्यकता की क्या कहें आज तो अनावश्यक सामग्री पर धन पानी की भाँती बहाया जा रहा है | इसी सामग्री की एक प्रतिस्पर्धा सी चल रही है | एक के पास एक कपडे धोने की मशीन है तो उसके पडौसी का प्रयास होता है कि वह ऐसी मशीन लावे, जिस में कपडे सूख भी जावे ताकि वह पडौसी को पीछे छोड़ सके | इस अवस्था में अन्य पडौसी चाहता है कि वह उसे भी पीछे छोड़ कर ऐसी मशीन लावे जो न केवल कपड़ों की धुलाई व सुखाने का कार्य करे अपितु प्रैस भी कर देवे | इस अंधी दौड़ ने धन की आवश्यकता को ओर भी बढ़ा दिया है | धन की इस अंधी दौड़ ने परिवार , पास – पडौस व रिश्तों को भी भुला दिया है | आज का मानव साम ,दाम , दंड , भेद का प्रयोग केवल धन प्राप्ति में ही करना चाहता है | धन की इस अंधी दौड़ के कारण संसार में आपसी लडाई, झगडा, कलह क्लेश में निरंतर वृद्धि हो रही है | इस से बचने का एकमेव उपाय है पवित्र धन | यदि हम ऋग्वेद व साम वेद में वर्णित विधि से शुद्ध धन को अपने उपभोग के लिए एकत्र करेंगे तो हम निश्चय ही शांत व सुखी जीवन व्यतीत कर सकेंगे | आओ हम वेद की इस भावना का अध्ययन करें | वेद मन्त्र का मूल पाठ इस प्रकार है : –
अगिर्जागार तमृच: कामयन्ते , अग्निर्जागार समु सामानी यन्ति |
अग्निर्जागार तमयं सोम आह, तवाह्मस्मी सख्ये न्योका: || ऋग्वेद ५.४४.१५ सामवेद १८२७ ||
वेद की ऋचाएं ऐसे व्यक्ति को ही पसंद करती हैं जो जागृत अवस्था में है | अग्नि जागता है तो उसके पास सामवेद कि रचाएं आती हैं | इस जागृत अग्नि को ही सोम कहता है कि मैं तेरी मित्रता में प्रसन्नचित व सुखपूर्वक निवास करूँ |
मन्त्र तथा इसके भावार्थ से एक बात स्पष्ट होती है कि वह सोम रूप परमात्मा उसके साथ ही सम्बन्ध रखना चाहता है , जो सदा जागृत रहता है | जो दिन में भी सोया रहता है , उसका कोई साथी नहीं बनना चाहता | इस का कारण भी है | जो दिन में सोया रहता है अर्थात जो पुरुषार्थ से भागता है , मेहनत से भागता है, वह कभी धन एश्वर्य नहीं पा सकता | जिसके पासा धन एश्वर्य नहीं है ,उसके मित्र कभी प्रसन्न व सुखी नहीं रह सकते | इस कारण उसकी मित्र मंडली बन ही नहीं पाती | आज के युग में तो मित्र होते ही धन के स्वामी के हैं , गरीब को कौन चाहता है ? हितोपदेश्ब में भी यही बात बतायी गयी है कि :-
उद्योगिनं पुरुशासिन्हामुपैती लक्ष्मी: | हितोपदेशे प्रस्ता.३१
इसका भाव है कि संसार में वही सफल होता है, वही उन्नत होता है, वही आगे बढ़ता है, जो उद्योग करता है, जो पुरुषार्थ करता है | पुरुषार्थ ही सुखी जीवन का आधार है | जो पुरुषार्थी नहीं उसके पास धन नहीं , जिस के पास धन नहीं उसके पास मित्र नहीं , यह बात भी संस्कृत के शलोक में स्पष्ट कही गयी है :-
आलसस्य कुतो विद्या , अविदस्य कुतो धनं |
अधनस्य कुतो मित्रं अमित्रस्य कुतो सुखं ||
श्लोक से स्पष्ट है कि आलसी कभी अच्छी विद्या नहीं पा सकता | विद्या के बिना शुद्ध धन कि प्राप्ति नहीं होती , जिसके पास धन नहीं, उसके मित्र भी नहीं बनते तथा जिस के सुख़- दु:ख में साथ देने के लिए मित्र ही नहीं हैं, वह सुखी कैसे रह सकता है ? अर्थात वह सुखी कभी नहीं हो सकता | इस लिए हे मनुष्य ,उठ ! पुरुषार्थ कर तथा आकूत धन कमा | शुद्ध धन ही तुझे सच्चा सुख़ देगा | इस तथ्य का रामचरित मानस में भी बड़े ही सुन्दर शब्दों में इस प्रकार बताया गया है :-
सकल पदार्थ हैं जग माहीं ,
करमहीन नर पावत नाहीं | रामचरित मानस
रामचरित मानस भी तो यही ही क ह रही है कि धन ऐश्वर्यों का स्वामी वही व्यक्ति बन सकता है , जो कर्म करता है | बिना कर्म के, बिना पुरुषार्थ के कोई धन ऐश्वर्यों का स्वामी नहीं बन सकता | यहाँ भी कर्म करने, मेहनत करने , पुरुषार्थ करने पर बल दिया गया है | बिना मेहनत के हम कुछ भी नहीं पा सकते | यहाँ तक कि भोजन सामने पड़ा है, जब तक पुरुषार्थ कर हम उसे अपने मुंह में नहीं रख लेते तब तक हम उस भोजन से तृप्त नहीं हो सकते |
हम जानते हैं कि मनुष्य उस परम प्रभु की सन्तान है | जिस परमात्मा की यह मानव सन्तान है, वह परमात्मा संसार के समस्त धन ऐश्वर्यों का स्वामी है , मालिक है, अधिपति है | इस आधार पर यह मानव उत्तराधिकार नियम के आधीन अपने पिता कि सर्व सम्पति को पाने का अधिकारी है | मानव केवल उतराधिकार के नियम के अधिकार को ही न समझे अपितु इस अधिकार के साथ उसका कुछ कर्तव्य भी जुड़ा है , उसे भी समझे | जब तक वह अपने कर्तव्य को नहीं समझता, तब तक उतराधिकार से प्राप्त इस सम्पति से उसका कुछ भी कल्याण नहीं होने वाला क्योंकि वह पुरुषार्थ से यदि इस सम्पति को नहीं बढाता, उस की यथोचित सुरक्षा नहीं करता तो कुछ ही समय में वह पुन: सम्पति विहीन हो जावेगा | इसलिए सम्पति देते हुए प्रभु ने मनुष्य को यह भी उपदेश दिया है कि यदि तूं ठीक ढंग से इस सम्पति का रक्षक बनेगा तथा इसे बढ़ाने के लिए परिश्रम करेगा तो तेरा व तेरे परिवार का जीवन सुखी होगा, यदि तू एसा पुरुषार्थ नहीं करेगा तो यह अतुल धन तेरे पास बहुत समय तक रहने वाला नहीं |
मन्त्र के इस भाव से जो एक तथ्य उभर कर सामने आता है वह है की मनुष्य जन्म के साथ ही अपार धन एश्वर्य का स्वामी बन जाता है | उस परमपिता परमात्मा ने जन्म के साथ ही उसे जो धन दिया है , उसकी व्रद्धि करना इस मनुष्य का परम कर्तव्य भी है | इस सम्पति को वह कैसे सुरक्षित रखे, इस का भी उपाय इस वेद मन्त्र में दिया है | मन्त्र कहता है की इस सम्पति को सुरक्षित रखने के लिए उसे शद्ध वृतियों को अपनाना होगा, क्योंकि शुभ वृतियां धन को सुरक्षित रखती हैं तथा अशुभ वृतियां इस का नाश भी कर देती हैं | हम प्रतिदिन देखते भी हैं की जिस मनुष्य के पास उतराधिकार में कुछ सम्पति है, वह शुभ वृतियों में रहते हुए उस धन की रक्षा करने में सक्षम होता है तथा पुरुषार्थ से इसे बढाने में भी सफल होता है किन्तु धन पा कर जो व्यक्ति अभिमानी हो जाता है, इस धन से किसी की सहायता नहीं करता तथा रक्षक के स्थान पर भक्षक बनाकर बुरी वृतियों में लिप्त हो जाता है, मांस शराब का सेवन, वैश्या गमन आदि दुराचारों में फंस जाता है तो न केवल उसके परिवार में कलह बढती है अपितु कुछ ही समय में धन उसका साथ छोड़ जाता है | इस लिए ही तो मन्त्र कहता है की हे मानुष ! तुझे जो आकूत धन दिया है तू उस की रक्षा करते हुए उसे बढाने के भी उपाय कर, पुरुषार्थ कर |
अत: इश्वर की इस दी सम्पति को, धन , को बचाए रखने के लिए तथा इसे बढ़ाने के लिए हमें अपने में शभ वृतियों को, अच्छी आदतों को बढ़ाना होगा , जितने भी शुभ विचार हैं , उन्हें अपने जीवन में धारण करना होगा | शुभ विचार, सत्य कर्म तथा शुभ वृतियां जहाँ हैं वहां ही लक्ष्मी अर्थात धन एश्वर्य का निवास है | पापाचरण, कुमार्ग गमन,मद्य मांस सेवन आदि अशुभ वृतियां लक्ष्मी अर्थात धन एश्वर्य के नाश का कारण होती हैं | यही कारण है की वेद हमें आदेश देता है कि हे मनुष्य ! अपने जीवन में पाप वृतियों को प्रवेश न करने देना शुभ वृतिओं को खूब फलने फूलने का अवसर देना | यदि तू अपने जीवन में एसा करेगा तो तू इश्वर से प्राप्त आकूत धन एश्वर्य से सुखी जीवन व्यतीत करेगा तथा तेरा परिवार व तुझ पर आश्रित लोग भी सुखी रहेंगे | यह धन सम्पदा पूर्णत: सुरक्षित रहेगी तथा यह निरंतर बढती ही चली जावेगी, जिससे तेरे सुख़ भी बढ़ते ही जावेंगे | यदि तू एसा नहीं कर इस के उलट पापाचरण की और बढेगा तो धीरे धीरे तू इस सम्पति से वंचित हो दु:खों के सागर में डूब जावेगा | अत: उठ शुभ विचारों को अपना, शुभ आचरण कर तथा इश्वर से प्राप्त इस सम्पति की वृद्धि के उपाय कर सुख़ का मार्ग पकड़ |

डा. अशोक आर्य,

प्रभु उपासक को पोषण को,यशस्वी बनाने को तथा वीरता बटाने वाला धन मिलता है

औ३म
प्रभु उपासक को पोषण को,यशस्वी बनाने को तथा  वीरता बटाने वाला धन मिलता है

डा अशोक आर्य
जो मानव परमपिता के समीप बैट कर उस प्रभु का स्मरण करता है , प्रभु उसे अनेक प्रकार के धनों को देता है । यह धन पोषण को बनाने वाला होता है , उसको यश दे कर यशस्वी बनाता है तथा उपासक में वीरता का संचार करता है । यह मन्त्र इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुये उपदेश करता है कि : –
अग्निना रयिमश्रवत पोषमेव दिवे दिवे ।
यशसं विरत्तमम ॥ रिग्वेद १.१.३ ॥
यह मन्त्र अग्नि स्तवन पर बल देते हुये कहता है कि मनुष्य प्रभु की उपासना करने से कभी सांसारिक द्रिष्टि स्वे असफ़ल नहीं होता । प्रभु स्तवन से ही वह निरन्तर आगे बटता है । वास्तव में प्रभु स्तवन से ही लक्श्मी के दर्शन होते हैं । स्पष्ट है कि जहां प्रभु स्तवन है, वहां लक्श्मी तो है ही, तब ही तो कहा जाता है कि मानव अग्नि से धन को प्राप्त करता है अर्थात जो प्रतिदिन यग्य करता है, उसे धन एश्वर्य के नियमित रुप से दर्शन होते रहते हैं ।
सामान्यत:; लोग इस बात को जानते हैं कि जिसके पास अपार धन सम्पदा होती है , उसके लिये अवनति का मार्ग खुला रहता है । इस धन की सहायता से वह अपनी इन्दियों को सुखी बनाने का यत्न करता है ,शराब, जुआ आदि अनेक प्रकार की बुराइयां उस में आ जाती हैं किन्तु जो धन प्रभु स्मरण से मिलता है,जो धन प्रभु स्तवन से मिलता है, जो धन अग्निहोत्र से मिलता है, जो धन यग्य से मिलता है, उस धन की एक विशेषता होती है , इस प्रकार से प्राप्त धन प्रतिदिन हमारे पोषण का कारण होता है । इससे हमारा किसी प्रकारका नाश, किसी प्रकार का ह्रास नहीं होता । इस प्रकार प्राप्त धन हमें कभी विनाश की ओर , म्रित्यु की ओर नहीं ले जाता अपितु यह् तो हमें व्रिद्धि की ओर , उन्नति की ओर ले जाता है , जीवन को जीवन्त बनाने व उंचा उटाने की ओर ले जता है ।
इस प्रकार यग्यीय विधि से हमें जो धन मिलता है , यह धन हमें यश्स्वी बनाता है, यश से युक्त करता है । इस धन में परोपकार की भावना भरी होने से हम इसे दान में लगाते हैं , दूसरों की सहायता में लगाते हैं । इस कारण हम निरन्तर यशस्वी होते चले जाते हैं । हमारा यश व कीर्ति दूर दूर तक जाती है । मानव अनेक बार अपार धन सम्पदा पा कर इसके अभिमान में मस्त हो जाता है । इस मस्ती में वह अनेक बार एसे कार्य भी कर लेता है , जो उसे अपयश का कारण बनाते हैं । किन्तु यग्य आदि में धन का प्रयोग करने से उस का यश व कीर्ति बटते हैं ।
प्रभु उपासना से प्राप्त धन हमें अत्यधिक सशक्त करने वाला होता है, हमारी शक्ति बटाने वाला होता है । जब अत्यधिक धन के अभिमान में व्यक्ति अनेक नोकर – चाकरों को रख कर आलसी बन जाता है , कोइ कार्य नहीं करता, निट्ला हो जाता है तो स्वाभाविक रूप से शारीरिक कार्य वह स्वयं नहीं करता, इस कारण निर्बल हो जाता है । क्रिया अर्थात मेहनत ही सब प्रकार की शक्तियों का आधार होती है , जो व्यक्ति क्रियाशील रहता है , उसमें शक्ति की सदा व्रिद्धि होती रहती है, ह्रास नहीं होता । यह क्रिया शीलता ही शक्ति की जन्मदाता होती है । जब क्रिया का क्शय हो जाता है तो शक्ति का नाश होता है । हम अपने शरीर को ही देखे , हमारे दो हाथ हैं , एक दायां तथा दूसरा बायां । प्रत्येक व्यक्ति का बायां हाथ उसके अपने ही दायें हाथ से कमजोर होता है । एसा क्यों , क्योंकि मानव अपना सब काम दायें हाथ से ही करता है, बायें हाथ से वह बहुत कम कार्य करता है । इस कारण बायां हाथ दायें की अपेक्शा कमजोर रह जाता है । यही कारण है कि क्रियाशीलता के बिना तो प्रभु स्मरण भी नहीं होता । अत: प्रभु स्मरण हमें क्रियाशील बना कर बलवान बनाता है । क्रियाशील होने से हमारा शरीर पुष्ट होता है, पुष्टी से हम अधिक कार्य करने में सक्शम होते हैं, धनेश्वर्य के स्वामी बनते हैं। हमें यश व कीर्ति मिलतै हैं तथा हम में शक्ति का संचय होता है , जिससे हम वीर बनते हैं ।

डा. अशोक आर्य

घरों में सब लोग मिलकर यग्य कर अपनी आहुति देते हैं

ओउम्
घरों में सब लोग मिलकर यग्य कर अपनी आहुति देते हैं
डा.अशोक आर्य
प्रत्येक घर में, प्रत्येक परिवार में प्रति दिन यज्ञ होता है तथा इस घर के सब लोग, इस परिवार के सदस्य लोग इस यज्ञ में मिल कर बैठते हैं तथा इस यज्ञ में मिलकर ही अपनी आहुति देते हैं । घर की पवित्र अग्नि से यज्ञ की अग्नि को प्रदीप्त कर , उस अग्नि में यथावश्यक आहुति डालते हैं । इस प्रकर के यज्ञों के द्वारा इस घर के लोग महानˎ अग्नि का पूजन करते हैं । इस तथ्य को इस चोथे मन्त्र में इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
प्रतेअग्नयो॓Sग्निभ्योवरंनि:सुवीरस:शोशुचन्तद्युमन्त: ।
यत्रानर:समासतेसुजाता: ॥ रिग्वेद ७.१.४ ॥
गार्हपत्य अग्नि अर्थातˎ घर की अग्नि , सदा हम उस अग्नि को प्रणयन करते हैं, हम सदा उस अग्नि को बुलाते हैं , सदा उस अग्नि को जलाते हैं , जिस अग्नि का हमने आह्वान करना होता है । इस लिये ही कहा जाता है कि हे गार्हपत्य अग्नियों ! तुझ से ही य यज्ञ की अग्नियां जला करें । यह अग्नियां अच्छे से ज्योतित हो कर , यह अग्नियाँ तेज को धारण कर, यह अग्नियाँ तीव्र होकर अच्छी प्रकार से , ठीक से रोग के कृमियों को , रोग के कीटाणुओं को कम्पित करने वाली, भयभीत करने वाली हों, यह अग्नियाँ रोगाणुओं को मारने वाली हों । इस प्रकार यह यज्ञ की अग्नि सब प्रकार के भूत आदि को पीछे धकेल दे , भगा दे । किसी प्रकार के भय को रहने ही न दे ।
इस अग्नि अर्थात इस यज्ञ की अग्नि के पास सदा ही उत्तम प्रकृति वाले अथवा कुलीन लोग ही रहते हैं, इस यज्ञ की अग्नि के पास सदा अच्छे लोग ही निवास करते हैं । यह सब लोग बडे प्रेम से इस अग्नि के समीप अपना आसन लगा कर रहते हैं । यह लोग ,जिस प्रकार नाभि के आरे होते हैं , वैसे ही इस यज्ञाग्नि के चारों ओर मिलकर गति करते हुये , कर्म करते हुये, यज्ञ सम्बन्धी व्यवहार करते हुये यज्ञ के आसन पर आसीन होते हैं । इस प्रकार यह लोग यज्ञ की इस अग्नि का पूजन करते हैं तथा इस में यथावश्यक घी तथा सामग्री की आहुति देते हैं ।
इस मन्त्र परमपिता परमात्मा प्राणी मात्र को उपदेश करते हुए बता रहे हैं कि यज्ञ के क्या लाभ्होते है ?, यज्ञ के क्या आभ होते हैं, जिस परिवार में नित्य प्रति यज्ञ होता है, उस परिवार में सदा सुखों की वर्षा क्यों होती रहती है ? परिवार क्यों रोग रहित होकर धनधान्य से भर जाता है ? इन सब गुणों का , इन लाभों का वर्णन करने का अभिप्राय यह है कि जो परिवार सुखों की अभिलाषा करता है , जो परिवार चाहता है कि ए सब सदस्य सदा इरोग रहें , जो परिवार चाहता है कि हमारे परिवार में कभी कोई कष्ट न आवे तथा सदा उनके पास धन धान्य के भण्डार भरे रहें तो इस परिवार में प्रतिदिन दो समय यज्ञ किया जाना चाहिये |

डा. अशोक आर्य