Category Archives: वेद विशेष

हम दान देने में आनन्दित हों

हम दान देने में आनन्दित हों
डा. अशोक आर्य
हमारा जीवन यग्य के समान हो । हम सदा सोम का पान करते रहें तथा दूसरों को दान देने में हम आनन्द का अनुभव करें । इस की चर्चा इस मन्त्र में इस प्रकार की गई है : –
उप न: सवना गहि सोमस्य सोमपा: पिव ।
गोदा इन्द्रेवतो मद: ॥ रिग्वेद १.४.२ ॥
विगत मन्त्र में प्रभु भक्त ने अत्यन्त तथा मधुर इच्छाओं वाले बन कर अपने प्रभु से एक प्रार्थना की थी । इस मन्त्र में चार बातों पर विचार देते हुए अपने भक्त की प्रार्थना को सुनकर प्रभु भक्त से कह रहे हैं कि हे भक्त ! तूं हमारे यग्यों को समीपता से प्राप्त होकर निरन्तर वेद में प्रतिपादित , वेद में वर्णित यग्य आदि कर्मों को कर ।
१.. प्रभु का आदेश है कि हम यग्यों को समीपता से करें तथा इन्हें वेदादेश के अनुरुप करे । इससे स्पष्ट है कि हम जिन यग्यों को करते हैं , उनमें अपनी भागीदारी बनाए रखें , इन्हें दूसरों पर न छोडें । जिस प्रकार आजकल नौकर प्रव्रिति परिवारों में चल रही है । उस प्रव्रिति का अवलम्बन करते हुए नौकर अथवा परिवार के किसी सद्स्य से यह यग्य न करवायें अपितु स्वयं को यग्यों का भाग बना कर करें । स्वयं इन यग्यों को करने में संलिप्त हों ।
मन्त्र यह भी आदेश दे रहा है कि हम जो भी यग्यादि कर्म करें वह इस प्रकार करें जैसे कि वेद के माध्यम से परम पिता ने करने का आदेश दिया है । इस का भाव है कि हम पहले वेद के माध्यम से स्वाध्याय कर वेद में दिए अर्थ समझें फ़िर तदनुरुप यग्य करें । यग्य का मुख्य अर्थ है दान व परोपकार । दूसरों की सहायता करना , दूसरों को उपर उटाने के लिए अपने अर्थ संग्रह का कुछ भाग उनकी सहायतार्थ देना ,दान काना ,प्रभु से संगतिकरण करना , प्रभु के बनाए संसार को वैसा ही स्वच्छ व सुन्दर बनाए रखना , जैसा कि उस पिता ने हमें दिया था ,जिसके लिए अग्निहोत्र करना । यह ही तो यग्य की भावना है । इस भावना को सम्मुख रखते हुए हम जो दानादि कर्म करें , उसमें स्वयं को इस प्रकार लिप्त करें कि दान तो हम करें किन्तु यह देते हुए हम किसी पकार का एहसान या प्रतिफ़ल न चाहें । परमपिता प्रमात्मा बता रहे हैं कि हे यग्यिक पुरुष ! जब तूं यह सब कार्य कर रहा है तो मैं समझता हूं कि तूं सच्चे मन से मेरी आराधना कर रहा है ।
२. मन्त्र जिस दूसरी बात पर प्रकाश डाल रहा है , वह है सोम कणों की रक्शा । पिता कह रहा है कि हे सोमकणों की रक्शा करने वाले आराधक ! तु अपने इस शरीर में सोमकणों की रक्शा कर । भाव यह है कि वेद ने शक्ति को सोम स्वीकार किया है । जिस मानव के पास शक्ति है , जिसका शरीर स्वस्थ है , जिस के शरीर से कान्ति छ्लक रही है , वह पूर्णतया निरोग होता है । जिस के पास शक्ति ही नहीं है , रोग निरोधक तत्व ही नहीं है , वह रोग से मुक्त कैसे रह सकता है ? जब वह रोगों से ही ग्रसित है तो दु:ख ही उसके जीवन का मुख्य भाग बन कर रह जाते हैं । दु:खी व्यक्ति अपने आप को ही नहीं सम्भाल सकता , ग्यान का अर्जन ही नहीं कर सकता दूसरों का क्या ध्यान करेगा । इस लिए मानव का सशक्त होना आवश्यक है । जो सशक्त होगा वह ग्यान आदि को प्राप्त कर उत्तम कर्म कर सकेगा ।
इस लिए पिता ने अपने भक्त को आशीर्वाद देते हुए उपदेश किया है कि हे मेरे आराधक ! तूं अपने शरीर में शक्ति का संचय कर , शरीर में सोमकणों का संग्रह कर । फ़िर हम इन सोम कणों की ग्यान की अग्नि में आहुति दें अर्थात हम अपने जीवन में एकत्र की इस शक्ति को ग्यान प्राप्त करने में लगावे । उत्तम से उत्तम , उच्च से उच्च ग्यान प्राप्त करने के लिए सदा प्रयास करें तथा हम ने जो शक्ति, जो सोम अपने शरीर में एकत्र किया है उसे इस सर्वश्रेट यग्य अर्थात ग्यान को प्राप्त करने मे व्यय करें । यह सोम कण ही हैं जो ग्यानग्नि में घी का कार्य करते हैं , इसे प्रचण्ड करते हैं , इसे तीव्र करते हैं ।
३. मन्त्र के तीसरे भाग में वह पिता आदेश कर रहे हैं , उपदेश कर रहे हैं कि हे पवित्र मानव ! तुने सोमकणॊं को तो अपने शरीर में रक्श्ति कर लिया तथा इन कणों को यग्यादि कर्मों में प्रयोग कर उत्तम ग्यान भी प्राप्त कर लिया , अब इस बात को याद रख कि जो धन तू ने अपने यत्न से एकत्र किया है , जो गौ आदि का संग्रह तूं ने किया है उसके दान में ही तुझे हर्ष है , तुम्हे इस सब के दान में ही आनन्द की अनुभूति है । जब तक तूं दिल खोल कर इस धन का सदुपयोग दानादि कार्यों में नहीं करता , तब तक तुझे अपार आनन्द नहीं मिलने वाला है । अत: दिल खोल कर दान कर । दान में ही धनवान का आनन्द छुपा है । इस आनन्द को पाने के लिए दान कर ।
४. मन्त्र के इस चतुर्थ व अन्तिम भाग में परम्पिता परमात्मा अपने आराधक को , अपने भक्त को तीन निर्देश देते हुए कह रहे हैं कि :-
क) हे भक्त ! तूं यग्यादि परोपकार के कार्यों में निरन्तर व्यस्त रहते हुए अपने अन्दर के क्रोध का दमन कर । क्रोध सब प्रकार के यग्यों का शत्रु है । एक व्यक्ति दान कर रहा है ओर दान करते हुए भी उसे क्रोध आ रहा है । क्रोध में जलते हुए वह कह रहा है कि मुफ़्त में यह सब मिल रहा है किन्तु फ़िर भी इन्हें सबर नही ,लेने का टंग नही , एक पंक्ति में खडे हो कर ले भी नहीं सकते । इस प्रकार वह क्रोधित हो कर अनाप शनाप बोल रह है तो उसका यह दान किया भी बेकार हो जाता है । दान देकर भी उसे शान्ति नहीं मिलती। इस लिए दान दाता को क्रोध को अपने निकट नहीं आने देना चाहिये , उसक क्रोध से दूरी बनाए रखना आवश्यक है ।
ख) मानव का ध्येय सोमपान हो । सोम शक्ति का साधन है । अत: वह जीवन में निरन्तर इस सोम का पान करते हुए अपने शरीर में शक्ति का संचार करता रहे । इस सोम की शरीर में रक्शा करने के लिए उसका संयमी होना भी आवश्यक है। यदि वह अपनी इन्द्रियों को संयमित नहीं कर सकता , अपने काबू में नहीं कर सकता तो वह काम आदि में इस सोम को नष्ट करने लगे गा । जो सोम शरीर में ग्यान का प्रकाश करने के लिए एकत्र किया गया था ,संयम के अभाव में वह काम आदि में नष्ट हो जाता है । इस लिए मन्त्र आदेश दे रहा है कि शरीर मे सोम को एकत्र कर संयम में रहते हुए कामादि दुर्गुणों से बचना चहिए ।
ग) जब मानव लोभ से उपर उट कर दानादि कर्म करता है तो उसे आनन्द की अनुभूति होती है । इस लिए मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हम कभी लोभ न करें । जब हम लोभी होते हैं तो यदि हम दान भी करने लगते हैं तो उसमें भी या तो कुछ बचाने की इच्छा रखते हैं या फ़िर जिस को हम दान दे रहे हैं, उस पर बहुत बडा एह्सान दिखाते हुए , उससे कुछ प्रतिफ़ल की भी आशा करते हैं । यह दान नहीं माना जा सकता । तब ही तो मन्त्र कह रहा है कि हम लोभ से ऊपर ऊटकर दान करें तो हमें आनन्द आवेगा ।
हम दान देते समय क्रोध न करें । दान दया की भावना से होता है किन्तु जब दान देते हुए भी हम क्रोध करते हैं तो इसमें दया की भावना नहीं रह पाती क्योंकि क्रोध से उपर उटने को ही दया कहा गया है । अत; हम जो भी दनादि कर्म करें, वह सब दया भाव से करें ।
दान के समय हम अपने अन्दर की वासनाओं का भी दमन करें । काम एक एसा तत्व है जो हमार सोमकणों का नाश करता है । अत; काम को हम अपने निकट भी न आने दें । जब तक हमारे अन्दर काम की भावना है , तब तक हम दानशील हो ही नहीं सकते क्योंकि काम सब शक्तियों को नष्ट करता है । कामी व्यक्ति शक्ति की कमीं के कारण खुलकर मेहनत नहीं कर सकता । बिना मेहनत के धनार्जन नहीं होता ओर जब हमारे पास धन का ही अभाव है तो हम दान कैसे कर सकते हैं ? अत: काम से बचना आवश्यक है । जब हम काम से उपर उटते हैं तो इसे ही “दमन” कहते हैं ।
मानव जीवन में लोभ भी उसका एक बहुत बडा शत्रु है । यह देखा गया है कि लोभी व्यक्ति अपने पास अपार धन सम्पदा होते हुए भी जीवन के सुखों से ,दानादि कर्म से वंचित ही रहता है । यहां तक कि कई बार तो एसे लोग भी देखने को मिलते हैं , जो रुग्ण होते हैं , पास में अपार धन सम्पदा होते हुए भी लोभ वश वह अपने का स्वयं के रोग का निदान करने में भी कुछ भी व्यय नही करने को तैयार होते , दूसरे की सहायता तो क्या करेंगे ? एसा धन तो मिट्टी के टेले के समान ही होता है । इसलिए मन्त्र कहता है कि हम अपने जीवन में लोभ को स्थान न दे । जो लोभ से ऊपर उट जाता है , वह ही दानी हो सकता है ।
ये परमपिता परमात्मा के तीन आदेश हैं । इन तीन आदेशों को उस पिता ने असुरों , मानवों तथा देवों को समान रुप से दिया है । समान रुप से आदेश देने का भाव यह है कि उस पिता ने बिना किसी भेदभाव के सब को समान अवसर देते हुए उत्तम बनने के लिए प्रेरित किया है । उपअनिषद मे भी तीन ” द ” दिए हैं । इन तीन “द” के माध्यम से दया , दमन तथा दान का आदेश उपनिषद ने किया है । इन तीनों का ही इस मन्त्र में उपदेश है । तीनों पर चलने के लिए ही तीनों प्रकार के प्राणियों को आदेश प्रभु ने दिया है । जो इन पर चलता है वह आनन्द विभोर हो जाता है, जो नहीं चलता वह जीवन प्रयन्त दु:खों में डूबा रहता है ।

डा. अशोक आर्य

हमारा घर दतक सन्तान से भी सदा फूले

ओउम्
हमारा घर दतक सन्तान से भी सदा फूले
डा.अशोक आर्य
हम प्रशतेन्द्रिय होकर ही उस पिता की अपने घर में उपासना करें , उस पिता के पास बैठें । हमारे घर उत्तम सन्तान से युक्त हों | यदि किन्ही कारण से हमें दतक सन्तान लेनी पडती है तो भी हम वृद्धि को, उन्नति को ही प्राप्त हों । इस बात को इस मन्त्र मे इस प्रकार प्रकाशित किया गया है : –
यमश्वीनित्यमुपयातियज्ञंप्रजावन्तंस्वपत्यंक्षयंनः।
स्वजन्मनाशेषसावावृधानम्॥ ऋ07.1.12
१ प्रशास्तिन्द्रिय हो प्रभु के उपासक बनें
हे प्रभो ! हम प्रतिदिन प्रात: सायं प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला पुरूष आप की उपासना के लिये आप के चरणों में उपस्थित होते हैं । सब जानते हैं कि हमारी इन्दियाँ घोड़ों से भी तेज भागती हैं | मानव जीवन में गति का विशेष महत्व होता है और आज के युग में तो मंद गति वाले व्यक्ति को बेकार समझा जाता है | यह ही कारण है कि यह मन्त्र प्रशस्त अश्वों वाला पुरुष कहते हुए इश्वर की उपासना का , इश्वर के पास जाने का , उस प्रभु के पास आसन लगाने का उपदेश देते हुए मानव से यह प्रकट करवा रहा है कि हम अश्वों सरीखी प्रशस्त इन्द्रियों वाले होकर आपके निकट आते हैं | इस लिये हे प्रभु ! आप हमें एसा गृह दें, जो उत्तम प्रकार के पुरूषों से भरा हो, उत्तम सन्तानों से भरा हो । इस का भाव यह है कि इस घर में जो बडे लोग अर्थात माता पिता आदि निवास करते हैं ,वह उत्तम जीवन मूल्यों से भरपूर हो , उत्तम मार्ग पर चलने वाले तथा उत्तम कार्य करने वाले हों । इतना ही नहीं इस प्रकार के मुखिया से युक्त इस घर की सन्तानें भी उत्तम ही हों ।
मानव सदा उतम की ही प्राप्ति चाहता है | उतम जीवन , उतम विचार , उतम व्यवहार ही उस के यश व कीर्ति को बढाते हैं और उसे धन ऐश्वर्यों का स्वामी बनाते हैं | इस उतम को पाने के लिए उसे अपनी गति को ग्जोदों के समान तीव्र करना होता है | इतना ही नहीं हम यह भी इच्छा करते हैं कि हमारी संतान भी उतम हो | हमारी संतान भी हमारे जैसी ही नहीं अपितु हमारे से भी अधिक तीव्रगामी हो | इस लिए हम सदा अपनी संतानों को भी अधिक से अधिक योग्य बनाने का प्रयास करते है और कसी कारण हमें दतक संतान लेनी पड़ती है तो उसमें भी अह सब गुण देखना चाहते हैं | इस सब की प्राप्ति ए लिए ha तीव्रगामी हो कर प्रभु की उपासना करते हैं |
यहां प्रभु से इस मन्त्र के माध्यम से यह भी प्रार्थना की गयी है कि हमें जो घर प्राप्त हो , वह घर अपने से उत्पन्न सन्तानों से उन्नति पावे तथा ऒरस सन्तानों से भी वृद्धि को , उन्नति , को, सफ़लताओं को प्राप्त करे ।
२ शत्रुओं को नष्ट करें
जो परिवार उतम होता, उस परिवार का घर सदा धन धान्य से भरा रहता है | धन ऐश्वर्यों की इस परिवार में सदा वर्षा होती रहती है | जहाँ धन ऐश्वर्यों की वर्षा हो,वहां सम्पन्नता न हो , एसा तो कभी सोचा ही नहीं जा सकता ओर संपन्न परिवार के भरे खजानों के कारण उस की ख्याति दूर दूर तक फ़ीस जाती है | इस खायाती के कारण अनेक लोग इस परिवार का आदर करते हैं तो अनेक लोगों की बुरी दृष्टि भी इस परिवार पर पड़ती है | यह बुरे लोग इस परिवार के प्रति इर्ष्या रखने लगते हैं तथा शाम , दम ,दंड , भेद से इस परिवार की सम्पति को प्राप्त करना चाहते हैं | इस प्रकार के लोगों की यह चाहत ही इस परिवार के लिए शत्रुता का कारण बनती है | इन शत्रुओं से परिवार की , अपने घर की रक्षा करने के लिए अनेक बार हमें जूझना होता है | इसके लिए अतुलित शक्ति की भी आवश्यकता होती है | इसलिए प्रभु चरणों में बैठ कर जहाँ हम उतम संतान कि मांग करते हैं वहां हम उस परम पिता से यह भी प्रार्थना करते हैं कि हम इतने बलशाली हों , हम इतनी शक्ति से संपन्न हों कि मन शत्रु सेनाओं को बड़ी सरलता से नष्ट कर सकें |
डा. अशोक आर्य

सद्गुणों से सजने व प्रभु दर्शन के लिये सोमकणों की रक्शा करें

औ३म
सद्गुणों से सजने व प्रभु दर्शन के लिये सोमकणों की रक्शा करें
डा.अशोक आर्य
रिगवेद के प्रथम मण्डल के प्रथम अध्याय का प्रथम सूक्त नॊ मन्त्रों से युक्त था , जिसके माध्यम से हमने अग्नि के नाम से प्रभु का स्मरण किया था । अग्नि आगे ले जाने का कार्य करती है । परमपिता परमात्मा भी तो जीवात्मा की उन्नति का कारण होता है , इस लिये उसे हमने अग्नि के नाम से जानने का यत्न किया ।
अब हम इस दूसरे सूक्त के नॊ मन्त्रों के माध्यम से उस पिता को वायु के नाम से स्मरण करते हैं । वायु का कार्य गति करना होता है । परमपिता परमात्मा भी गति के माध्यम से ही सब बुराईयों का नाश करता हैं । बिना गति के किसी भी बुराई का नाश नहीं हो सकता । इस कारण यहां प्रभू को वायु के नाम से स्मरण करते हुये कहा है कि हम इस शरीर में सोम की रक्शा करें । यह सोम कण हमारे जीवन को गुणॊं से भरेंगे तथा इससे हम प्रभू के दर्शन के योग्य बन सकेंगे । इस तथ्य को इस सूक्त का प्रथम मन्त्र इस प्रकार स्पष्ट करने का यत्न करता है : –
वायवा याहि दर्श्तेमे सोमा अरंक्रिता:।
तेषां पाहिश्रुधी हवम ॥ रिग्वेद १.२.१ ॥
हे गति करने वाले पभो ! हे बुराईयों का नाश करने वाले प्रभो ! आप आकर हमारे ह्रिदय आसन पर विराजिये । वास्तव में आप सचमुच ही दर्शनीय हैं । इस लिये हे प्रभो ! मेरा ह्रिदय आप के निवास के लिए उत्तम स्थान है तथा वहीं पर ही मैं आपके दर्शन का सॊभाग्य प्राप्त करता हुं । हमारे शरीर में ह्रिदय ही एक एसा स्थान होता है , जिसे सब से पवित्र कहा जाता है । इस पवित्रता के ही कारण प्रभॊ का निवास इस ह्रिदय को माना गया है । इस लिए प्रभु को ह्रिदय रुपी आसन पर बैटाने की इच्छा व्यक्त की गई है ।
हे प्रभू मैं कभी भी आप की द्रिश्टि से ऒझल न होकर सदा आप की द्रिष्टि में ही रहूं । इस प्रकार मैं पवित्र बना रहूं । वह प्रभु जिस के साथ होगा, वह व्यक्ति पवित्रता से परिपूर्ण रहेगा । इस लिए जीव ने प्रभु की समीपता पाने के लिए प्रार्थना के साथ हीसाथ इस मन्त्र के माध्यम से प्रबू कीद्रिष्टी में रहने का यत्न भी किया गया है । इस प्रकार प्रभु कि क्रिपा में रहते हुये पवित्र बनने क यत्न इस मन्त्र के माध्यम से जीव ने किया है ।
मन्त्र आगे बता रहा है कि मानव का सदा ही यत्न रहता है कि वह अपने शरीर में अधिक से अधिक सोमकणॊं की रक्शा करे । इतना ही नहीं रोके गये यह सोमकण शरीर में ही समा जावें, फ़ैल जावें । क्योंकि इस प्रकार रोके गये यह सोमकण शरीर में ग्यान रुपी अग्नि प्राप्त करने का ईंधन बनते हैं । ग्यान की इस अग्नि को दीप्त करने का कारण बनते हैं , साधन बनते हैं । इस प्रकार जो अग्नि दीप्त होती है , प्रकाशित होती है , उस ग्यान अग्नि से हम प्रभु के दर्शन पाने के योग्य बनते हैं ।
हे प्रभॊ ! हमारे इन सोमकणॊं की रक्शा भी तो आप के स्मरण करने से ही होती है । यदि हम आप का स्मरण नहीं करते तो यह सोमकण नष्ट हो जाते हैं । हम क्योंकि सदा आप का स्मरण करते रहते हैं, इसलिए हे प्रभो ! आप हमारे इन सोमकणों की रक्शा कीजिये । जहां महादेव अर्थात आप होते हैं, वहां काम रूपि शत्रु कभी प्रवेश करने का साहस भी नहीं कर सकता । कहा भी गया है कि ” जहां महादेव वहां कामदेव भस्म ” । यह काम ही है जो शरीर के सोम की रकशा में सदा ही बाधक बना रहता तथा इस काम के नाश से ही सोमकण शरीर में सर्वत्र फ़ैल जाते हैं । इस लिये हे प्रभो हम आपका स्मरण करते हैं , हमें काम रुपी दोष से मुक्त कीजिये तथा सोम इस शरीर में स्थान प्राप्त कराईये ।
अत: हे प्रभो ! आप हमारी इस प्रार्थना को सुनें , आप हमारी पुकार को सुनें , आप हमारी विनय को सुनें आपके यह सब भक्त प्रभो ! अपनी सोम्यता के कारण से सम्पन्न है । सोम्यता के यह सब गुण आप के भक्तों में भरे हुये हैं , रमे हुये हैं । सोम्यता के इन सब गुणों से अलंक्रित हैं । इस के बिना प्रभु से हम रक्शित नहीं हो सकते । इस लिए हम इन सब से अलंक्रित होने के कारण प्रभु से रक्शा के सचमुच ही पात्र हैं ।

डा. अशोक आर्य

राजा गर्भस्थ माता के सामान प्रजा का पालन करे

राजा गर्भस्थ माता के सामान प्रजा का पालन करे
डा. अशोक आर्य
राजा अपनी प्रजा का पिटा के समान पालन करता है इस लिए पिटा कहा गया हैकिन्तु राजा अपनी प्रजा का पालन माता के सामान भी करता है | वह बाल्याकालसे ही माता के सां प्रत्येक कदम पर अपनी प्रजा के प्रत्येक अंग रूप नागरिक को अपनी अंगुली पकड़ने के लिए देता है तथा पग पग पर उसका मार्ग दर्शन करता है | यहाँ तक कि जिस प्रकार माता अपनि संतान को नोऊ महीने तक अपने गर्भमें रखती है | उस प्रकार ही प्रजा के लिए राजा माता के सामान होता है तथा यह सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र उसके गर्भके समान्ही होता है , जिसमें रहते हुए उसकी प्रजा ठीक उस प्रकार विकास कराती है जिस प्रकार माता के गर्भ में उसकी संतान विकास को प्राप्त होती है | इस सम्बन्ध में वेद का मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है :-
विश्वस्य केतुर्भुवनस्य गर्भSआ रोदसीSअपृणाज्जायमान: |
विडू चिदद्रिमभिनत् परायञ्जाना यदग्निमयजंत || यजु.१२.२३ ,ऋग्. १०.८५.६ ||
मन्त्र इस सम्बन्ध में उपदेश करते हुए कह रहा है कि हमारे इस जगत् रूपी ब्रह्माण्ड में सूर्य अपने आकर्षण का केंद्र होता है | इस कारण ही वह सब का धारक होता है अर्थात् सब लोग उसे धारण करते हैं | सब लोग सूर्य को क्यों धारण करते हैं ? इस का कारण है कि सूर्य प्रकाश का स्रोत होता है | जिस प्रकाश में हमारी आंख देखने की शक्ति प्राप्त करती है , वह प्रकाश हमें सूर्य से ही मिलता है | यदि सूर्य न हो तो हमारी आँख चाहे

कितनी भी सुन्दर हो , साफ़ हो, उसमें देखने की शक्ति हो किन्तु सूर्य के प्रकास्श के बिना यह आँख देख ही नहीं पाती | मानो उसमें देखने की शक्ति ही न हो | सूर्य के प्रकाश के बिना आँख कुछ भी तो नहीं देख सकती | इसलिए ही मन्त्र कह रहा है कि सूर्य अपने प्रकाश से सब के लिए धारक है |
मन्त्र कहता है कि प्रजा में से जिस व्यक्ति में सूर्य के सामान गुण हों , उसेही राजा के पद पर आसीन करना चाहिए | अर्थात् जो व्यक्ति सूर्य के सामान तेजस्वी हो | ब्रह्मचारी से जिसने अपने शरीर को खूब तपा लिया हो | उस के मुख से,उसके आभा मंडल से एक विशेष प्रकार की आभा , एक विशेष प्रकार का तेज टपक रहा हो | एक एसा तेज टपक रहा हो , जिस के पास आने से सब प्रकार के दुरित इस प्रकार सूर भाग जावें जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में आने से सब प्रकार के रोगों के कीटाणु जला कर भस्म हो जाते हैं | इस प्रकार के व्यक्ति को ही अपना राजा चुनना चाहिए |
मन्त्र आगे कहता है कि राजा पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का सेवन करते हुए सब प्रकार की विद्याओं को पा गया हो अर्थात् वह सब प्रकार की विद्याओं का ज्ञाता हो | कोई एसी विद्या न हो जिसका उसे ज्ञान न हो | उसने इतने विशाल राज्य की प्रजा का पालन करना होता है और प्रजा भी वह जो अलग अलग विषयों को जानती हो , अलग अलग कार्य करती हो तथा राजा से यह आशा करती हो कि राजा उसके क्षेत्र को उन्नत करने , विकसित करने का कार्य करे ताकि उसका व्यवसाय आगे बढ़ सके | यदि राजा किसी एक विद्या को नहीं जानता होगा तो वह उस एक विद्या को उन्नत करने का कार्य कैसे कर सकेगा ? इसलिए मन्त्र के अनुसार राजा सब विद्याओं का ज्ञाता हो तथा उन विद्याओं के प्रसार में उसकी रूचि हो |
राजा के लिए यह भी आवश्यक है कि वह राज्य का धारक हो | इसका भाव यह है कि जिस व्यक्ति को हम राज सत्ता सौंपने जा रहे हैं उस में इतनी शक्ति हो कि वह जब इस सत्ता को धारण करे तो उसका कोई विरोधी न हो ,उसे सता ग्रहण करते समय कोई ललकारने वाला न हो | वह शक्ति से संपन्न हो | यदि कोई व्यक्ति उसकी सत्ता को ललकारने का दुस्साहस करे तो उसमें इतनी शक्ति होनी चाहिए , इतना साहस होना चाहिए की वह इस प्रकार के व्यक्ति कुचल कर रख दे | सब प्रकार के शत्रुओं का नाश करने की


उसके पास शक्ति का होना आवश्यक होता है | इसा प्रकार की शक्ति के बिना उसका शासक रह पाना संभव हिनहिन होता |
इस शक्ति से ही राजा सब प्रकार के सोखों का उत्पादक तथा सब प्रकार के सुखों की वर्षा कर सकता है | यदि शत्रु को देख कर राजा चूहे के सामान अपने बिल में घुस जावे तो शत्रु का सामना , शत्रु का मुकाबला कौन करेगा | राजा के अभाव में प्रजा छिन्न भिन्न हो जावेगी तथा शत्रु इस राज्य पर अपना अधिपत्य जमा लेगा | जब राज्य पर शत्रु आसीन हो जावेगा तो प्रजा सुखों के लिए तरसने लगेगी | सुख उसके लिए दिया स्वपन बन जावेंगे | जिस प्रकार मुगलों तथा अंग्रेज के राज्य के समय भारत की जनता दू:खों से भर गयी थी उस प्रकार की अवस्था आ जावेगी | इसलिए राजा के पास इतनी शक्ति होना आवश्यक है कि जिस से वह अपनी प्रजा के सुखों को बढ़ा कर उसे प्रसन्न रख सके |
इस सब के प्रकाश में मन्त्र कहता है कि माता अपने गर्भस्थ शिशु का पालन करने के लिए बड़ी सावधानी से चलती है , बड़ी सावधानी से बोलती है तथा बड़ी सावधानी से अपने जीवन का सब व्यापार करती है ताकि उसके गर्भ में पल रहे बालक को किसी प्रकार का कष्ट न हो तथा समय आने पर पूर्ण स्वास्थ्य के साथ इस संसार को देखे , इस संसार में जन्म ले | ठीक इस प्रकार ही राजा की प्रत्येक क्रिया प्रजा के सुख के लिए होती है | वह अपना प्रत्येक कार्य आराम्भ करने से पूर्व ही सोच लेता है कि उसके इस कार्य से प्रजा के किसी अंग को कष्ट तो नहीं होगा | किसी का अहित तो नहीं होगा | इसलिए प्रजापालक राजा का विद्वान्, गुणों से सपन्न होना आवश्यक होता है ताकि वह अपनी प्रजा के हितों के अनुसार कार्य करे तथा मातृवत ही गर्भस्थ शिशु के समान अपनी प्रजा का रक्षक हो |
मन्त्र स्पष्ट संकेत करता है कि अपने राजा का चुनाव करते समय प्रजा यह अवश्य देख परख ले कि जिस व्यक्ति को वह अपना राजा चुनने जा रही है , उसमें कितनी मातृत्व शक्ति है ? वह माता के समान कितने गुणों का धारक है ? उसमें अपनी प्रजा से माता के समान स्नेह होगा या नहीं ? इस प्रकार के गुणों की परख करने के पश्चात यदि वह उसकी कसौटी पर खरा उतरता है , तब ही उसे राजा चुना जावे अन्यथा जनता को कभी सुख प्राप्त नहीं होगा |
डा. अशोक आर्य

राजा अपनी प्रजा के पिता समान हो

राजा अपनी प्रजा के पिता समान हो
डा. अशोक आर्य
राजा और प्रजा दोनों ही एक दुसरे को यशस्वी, तेजस्वी बनाने वाले होते हैं | वेद का आदेश है कि राजा अपनी प्रजा का पालक होता है | प्रजा अपने राजा का चुनाव कर बनती है | अपने राजा को स्थिर बनाती है | इसलिए राजा के लिए भी बहुत से कर्तव्य हो जाते हैं | जिस प्रजा ने बड़ी श्रद्धा से, बड़े आदर से , बहुत सा सम्मान देते हुए उसे सिंहासनारूढ़ किया है , उस प्रजा के लिए राजा ने भी कुछ कर्तव्यों का पालन करना होता है | इन कर्तव्यों में मुख्य रूपा से प्रजा के भरण पोषण की व्यवस्था, मकान कपडे की आवश्यकता की पूर्ति , प्रजा की शिक्षा की व्यवस्था, प्रजा की सुरक्षा की व्यास्था आदि अनेक कार्य होते हैं , जो राजा को अपनी प्रजाके लिए करने होते हैं | इन सब क्लार्ताव्यों को जब राजा पूर्ण करने का यत्न करता है तो उसे हम प्रजा के पिता स्वरूप जानते हैं | इसलिए वेद ने राजा को पिता के सामान ही स्वीकार करते हुए कहा है कि : –
त्वामग्ने प्रथाममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषम्य विश्वपतिम् |
इळ मकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जयति || ऋग्वेद १.३१. ||
राजा की नियुक्ति प्रजा के चुनाव से होती है | हम किसी भी सभा के सभापति को भी राजा कह सकते हैं और शासन के मुखिया को बी कह सकते हैं | यह ही वेद की भावना होती है | वेद जब राजा के कर्तव्यों की व्याक्ल्ह्या कर रहा है तो इसके अन्दर इन सब को समाविष्ट किया जाता है | अत: राजा के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए मन्त्र कह रहा है कि हे विज्ञान युक्त सभाध्यक्ष ! अर्थात् ससब प्रकार की शिक्षाओं का संचालक इन्हें मानने वाला तथा इन शिक्षाओं का विस्तारक होने के कारण मन्त्र राजा को विग्यन्युक्त सभाध्यक्ष कहते हुए उपदेश करता है कि :-


हे सब प्रकार की विज्ञानों को उन्नत करने वाले विज्ञान से युक्त हमारी सभा के सभाद्यक्ष अर्थात् राजन् ! आप विद्वानों में सस्बा से अग्रणी हो , सबके अग्रगंता हो | आप अपने उत्तम न्याय से , अपनी न्यायशीलता से दोषियों को दण्डित करने वाले होने से इस प्रजा के आप ही नियंत्रण करने वाले हो | हम सब प्रजा ने मिलकर आप को अपना स्वामी बनाया है | यह सब इसलिए किया गया है कि आप हम सब की उन्नति के साधन हमें उपलब्ध करावें |
इतना ही नहीं मनुष्य मात्र की विज्ञान सम्बन्धी उन्नति के लिए , प्रजा की प्रगति के लिए आप ने वेदवाणी के स्वाध्याय की व्यवस्था की है , अनेक प्रकार के गुरुकुल, विद्यालय तथा महा विद्यालय आराम्भ्किये हैं , जीना में जा कर यह प्रजा वेदवाणी का स्वाध्याय कर सके अपने सब प्रकार की विज्ञान सम्बन्धी क्षुधा को दूर कर सके | इस प्रकार यह प्रजा भी आप ही के सामान ससब प्रकार के ज्ञानों को प्राप्त कर उन्नति की और अग्रसर हो सके |
वेदवाणी सब सत्यों को आगे बढाने वाली होती है | वेदवाणी का प्रकाशन अर्थात् मानव मात्र केकल्याण के लिए परमपिता परमात्मा ने व्दवानी का प्रकाश किया | इसा ज्ञान को सामान्य मानव तक पहुंचाया ताकि वह इस सत्य ज्ञान को पाकर अपना तथा जन जन का कल्याण करने में समर्थ हो सके | हे राजन् प्रभु के इस ज्ञान का न केवल तूं ही स्वाध्याय कर अपितु अपनी प्रजा में भी इस सत्य ज्ञान को बांटने की व्यवस्था कर इससे तेरा तो कल्याण होगा ही तेरे साथ तेरी प्रजा का भी यश फैलेगा | प्रजा तेरे लिए अपने ह्रदय में आदर पूर्ण स्थान देगी , जो तेरी शक्ति बनेगा | यह ही मानव की सत्य निति है | सका प्रकाशन भी पिटा ने ही किया है | इसा सत्य निति को अपना |
जिस प्रकार मानव अपनी संतान का पिता होता है | अह अपनी संतान का पालन पौशन करता है | अपनी संतान के लिए वह खाने पिने की व्यवास्था अर्थात् उसके भरण – पौषण की व्यवस्था करता है | वह उसके वस्त्राभूषण की भी व्यवशा करता है , उसे निवास के लिए एक भवन भी बनाता है , उसकी उत्तम शिक्षा के साधन भी उसे देता है | सदा उससे से प्यार , उससे स्नेह बनाए रखता है |
ठीक इस प्रकार ही राजा भी प्रजा का पिता होता है | जिस प्रकार से एक परिवार का पिता अपनी संतान के पालन पौषण तथा उन्नति की सब व्यवस्था काटा है , उस प्रकार

भी राजा भी अपनी प्रजा की सब सत्य आवश्यकताएं पूर्ण करने में सदा लगा रहता है | वह अपनी प्रजा के खाने पीने की , उसके पहनने , खेलने , व्यायाम करने के स्थान , निवास करने के लिए मकान , भरण पौषण , वेद स्वाध्याय या उतम शिक्षा आदि के अतिरिक्त शत्रुओं से भी रक्षा का कार्य करता है |
जब राजा अपनी प्रजा की ससब प्रकार की आवह्याकताओं को पूर्ण करते हुए अपने राज्य में अनेक प्रकार के उद्योग लगाता है , गुरुकुल, विद्यालय व महाविद्यालयों की व्यवस्था करता है , उन्नत खेती तथा गाय आदि की व्यवस्था करता है और कभी किसी वास्तु का उस के देश में अभाव हो जावे तो उस वास्तु को विदेश से मंगवा कर भी इस अभाव को पूर्ण करने का कार्य करता है | जब राजा इस प्रकार के कार्य करता हो जो एक परिवार में एक पिता किया करता है तो स्पष्ट है कि जिस प्रकार एक परिवार का मुखिया पिटा होता है तो एक देश , एक राष्ट्र भी तो एक परिवार ही तो है | इस राष्ट्र रूपी परिवार का मुखिया होने के कारण राजा भी अपनी प्रजा का पिता ही तो हुआ | अत: स्पष्ट है कि राजा अपनी प्रजा का पिता होता है | वह अपनी प्रजा का पालन पानी ही संतान के सामान करता है | इस प्रकार भी प्रजा भी उसे अपने ही पिटा के समान आदर देती है |

डा. अशोक आर्य

आसुरीभाव दूर करने को हम आध्यात्मिक बनें

ओउम्
आसुरीभाव दूर करने को हम आध्यात्मिक बनें
डा.अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा को स्मरण करने से, उस प्रभु का स्तवन करने से अधयात्म संग्राम में मानव विजयी होता है तथा उसमें आसुरी प्रवृतियां प्रवेश नहीं करतीं । इस बात पर ही यह मन्त्र प्रकाश डालते हुये उपदेश करता है कि : -=
इमेनरोवृत्रहत्येषुशूराविश्वाअदेवीरभिसन्तुमायाः।
येमेधियंपनयन्तप्रशस्ताम्॥ ऋ07.1.10
१ प्रभु भक्त से शत्रु भयभीत
इस मन्त्र मे प्रभु उपदेश करते हुये कहते हैं कि मन जो भी प्राणी ज्ञान पूर्वक मेरी प्रशस्त स्तुति का उच्चारण करता है , जो भी मुझे स्मरण करता है, जो भी मेरा स्तवन सच्चे मन से करता है ,एसे मानव विभिन्न प्रकार के संग्रामों में , युद्धों मे शत्रुओं को दहला देने वाले, कम्पा देने वाले, परास्त कर देने वाले होते हैं ।
हम जानते हैं कि मनोबल अर्थात् का बल मानव जीवन में विशेष महत्त्व रखता है | जिस का यह मानसिक बल द्दृढ है , वह आने वाले बड़े से संकट , आने वाली भयंकर से भयंकर विपति में भी घबराता नहीं , अपने मनोबल को छोड़ता नहीं | बड़े साहस से उस का सामना करता है | शक्ति कम होते हुए भी वह अपने मन की अपार शक्ति , जो उस ने प्रभु भक्ति से प्राप्त की होती है , के कारण उस संकट से पार पा लेता है |
मनोबल से हम अपनी आन्तरिक शक्तियों को भी विजय करने में साल होते हैं | हम कभी किसी भी प्रकार के संकट में घबराते नहीं बड़े साहस से संकट का प्रतिरोध करते हैं, इसका मुकाबला करते हैं | हमारे यह पुरुषार्थ उतम परिणाम दी हैं और इस संकट से पार पाने में हम सफल होते हैं | संकट के समय यदि हमारा मन साथ नहीं देता | हमारा मन कठोर नहीं होता , साहस खो बैठता है तो हम बुद्धि विहीन से हो जाते हैं | कुछ सोचने की शक्ति हमारे पास नहीं रहती | हम कुछ भी उपाय विचारने से रहत हो जाते हैं | इस कारण हम पुरुषार्थ कर ही नहीं पाते तो फिर संकट से पार कैसे हों | बस कुछ भी नहीं कर पाते और हाथ पर हाथ धर कर सब कुछ प्रभु हाथ सौंप कर बैठ जाते हैं जबकि यह पुरुषार्थ ही है जो सब कामनाओं को पूर्ण करने वाला है | हम ने इस पुरुषार्थ को ही छोड़ दिया तो फिर प्रभु सफलता ही कैसे दे सकता है ? अर्थात हमें किसी कार्य में फिर सफलता नहीं मिल पाती | हम निराश हो जाते हैं , हताश होआ जाते हैं और जीवन के युद्धों में निरंतर पराजित होते चले जाए हैं |
निरन्तर पराजित होता रहता है | हम जानते हैं कि मुग़ल बादशाह अकबर के पास अपार सेना थी | उसे गर्व था अपनी इस टीडी दल सरीखी सेना के भण्डार पर किन्तु दृढ मनोबल से लबालब महाराणा प्रताप को वह परस्त करने में सफल होने के स्थान पर निरंतर उस वीर योद्धा से मार खाता रहा और रण छोड़ कर भागता रहा | इस का कारण क्या था ? यही कि वह प्रताप सरीखा मनोबल अपने अन्दर उत्पन्न न कर सका | चाहे महाराणा अनेक बार युद्ध में परस्त भी हुए , अपने बहुत से क्षेत्र मुगलों के हाथों खो बैठे किन्तु उन्होंने अपने साहस ,अपनी वीरता ,अपने शोर्य के आधार इस मनोबल को कभी नहीं खोया | इस मनोबल का ही परिणाम था कि मुट्ठी भर सेना की सहायता से विशाल सेना के छक्के छुडाते रहे , उसे परास्त कर पाने में सफल होते रहे |
२ आसुरी प्रवृतियों का नाश
इतना ही नहीं जितनी भी असुरी मायायें होती हैं ,आसुरी प्रवृतियां होती हैं , राक्षसी व्यवहार होते हैं , उन सब को छ्ल छिद्र कर देते हैं , परास्त कर देते हैं, जीर्ण शीर्ण कर देते हैं । कमजोर मन से किसी भी कार्य की सिधी नहीं हो पाती | जब आसुरी प्रवृति वाले व्यक्ति से सामना होता है तो क्या होता है ?
आसुरी प्रवृति के लोगों की यह विशेषता होती है कि शक्तिशाली के सामने झुक कर अपना काम निकालने के लिए उसकी दया के पात्र बनाने का प्रयास करो और यदि सामने वाले का मन दुर्बल हो तो उस पार बाज कि भाँति टूट पडो , उसे संभलने
का अवसर ही न दो और एक दम से दबोच लो | बस यह ही तो है जीवन का व्यवहार ! जीवन के इस व्यवहार में सफलता का एकमेव मार्ग है मनोबल की अपार शक्ति ! मनोबल की शक्ति के सामने आसुरी प्रवृतियां टिक ही नहीं पाती | इस लिए जीवन में कभी मनोबल को गिराने न दो | बड़े से बड़े संकट काल में भी मनोबल को बनाए रखो | यदि मनोबल दृढ है तो रक्षसी प्रवृति के लोग हमारा कुछ बिगाड़ न पावेंगे और हम बिना किस भय के समाज की सेवा करने में सदा सक्षम रहेंगे |
वास्तव में जो लोग प्रभु से प्रेम करते हैं , इस प्रभु प्रेम के ही कारण वह तेजस्वी हो जाते हैं , उनमें विशेष प्रकार का तेज आ जाता है । इस तेज से ही उन्हें एक विषेश प्रकार की अमोघ शक्ति प्राप्त हो जाती है, एक विशेष प्रकार का अमोघ अस्त्र मिल जाता है तथा वह सब प्रकार के आसुरीभावों , आसुरी प्रवृतियों का विनाश कर देते हैं तथा अपने जीवन को पवित्र कर लेते हैं ।
इसलिए ही यह मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हमें अल को कभी नहीं छोड़ना चाहिए | इसे निरंतर आए रखना चाहिए | इस मनोबल की प्राप्ति प्रभु भक्त को सरलता से हो जाती है | इस लिए हमें सदा परम पिता परमात्मा का आशीर्वाद पाने का प्रयास करते रहना चाहिए |

डा. अशोक आर्य

प्रभु भक्त का मन उतम

ओउम्
प्रभु भक्त का मन उतम डा.अशोक आर्य
प्रभु का सदा बडों की सेवा रहते हुये उनकी आज्ञा का पालन करता हुआ उनकी सेवा करता है तथा तेजस्वी बनकर प्रभु स्तवन करता है व उत्तम मन वाला बनता है । इस पर प्रकाश डाला है इस वेद की इस ऋचा के नवम मन्त्र मे, जो इस प्रकार है : –
वियेतेअग्नेभेजिरेअनीकंमर्तानर:पित्र्यास:पुरुत्रा ।
उतोनएभि:सुमनाइहस्या:॥ ऋग्वेद७.१.९ ॥
१ प्रभु भक्त तेजस्वी होता है
सदा सबसे आगे रहने वाले अग्रणी प्रभो ! जो मनुष्य आप के सेवक बनते हैं , आप कि सेवा में दिन रात लगाते हैं , आप की उपासना में अपना जीवन लगा देते हैं ,वे अपने से बडों के , अपने पितरों के, अपने पूर्वजों के मत के अनुकूल चलते हैं , उनके विचार के अनुसार चलते हैं । इस प्रकार के मनुष्य शरीर के विभिन्न प्रदेशों में , विभिन्न भागों मे बल , तेज व शक्ति को धारण करते हैं , प्राप्त करते हैं, ग्रहण करते हैं ।
२. उतम मन के लिए प्रभु स्तवन
हे प्रभु ! आप के यशोगान में गाये जाने वाले स्तवन गान में, आप के कीर्ति गान के स्तोत्र में उत्तम जीवन प्राप्त कर हम उत्तम मन वाले होवें । आप की उपासना के बिना हमें उत्तम मन की प्राप्ति नहीं हो सकती। हम उत्तम मन पाने के अभिलाषी हैं । इसे पाने के लिये यथावत् आपका स्तवन करते रहें ।
इन दो बिन्दुओं से यह तथ्य सामने आता है कि एक तो प्रभु भक्त तेजस्वी होता है और दूसरे उतम मन से उस पिता का स्मरण करने से ही उतम मन की प्राप्ति होती है |
इस लिए हम निरंतर प्रभु की उपासना करते हैं | हम निरंतर प्रभु की उपासना करते हुए उसकी सदा प्रशंसा करते हैं | सम सदा प्रभु को प्रसनन करने के लिए उस प्रभु सम्बन्धी स्तोत्रों का गायन करते हैं | हम अपना समय प्रभु के भजन गाने में लगाते हैं | जब हम प्रभु के पास बैठ कर , उस प्रभु का यशोगान करते हुए उस का आशीर्वाद पाने का प्रयास करते हैं , सच्चे ह्रदय से यह प्रयास करते हैं तो निश्चय ही वह पिता हम पर प्रसन्न होकर हमें आशीर्वाद देने के लिए अपना हाथ हमारे सिर पर रख देते हैं |
परमपिता परमात्मा हमारा अग्रणी है | अग्रणी सदा मार्ग दर्शक होता है | वह सदा अपने अनुगामियों का , वह सदा अपने पीछे चलने वालों का मार्ग दर्शन करता है | जिस प्रकार प्रभु हमारा मार्ग दर्शक होता है , उस प्रकार ही हमारे पूर्वज भी अपने अनुभवों के आधार पर हमारा मार्ग दर्शन निरंतर करते रहते हैं | जो पूर्वजों के मार्ग दर्शन को प्राप्त कर तदनुरूप अपने जीवन को चलाते हुए अपने पूर्वजों को सुख देते हुए उनके बताए मार्ग का अनुसरण करता है , वह निश्चय ही सब प्रकार की खुशियों को प्राप्त करते हुए धन धान्यों का स्वामी बनता है | इस प्रकार के जीवों के शरीर सब प्रकार से पुष्ट होते हैं , सदा स्वस्थ रहते हुए उतम स्वास्थ्य को प्राप्त करते हैं |
हम प्रभु का स्तवन इसलिए भी करते हैं ताकि हमारा मन उतम बन सके क्योंकि प्रभु भक्त ही उतम मन वाला होता है | प्रभु भक्ति के बिना , प्रभु स्मरण के बिना , प्रभु के लिए स्तवन गायन के बिना , प्रभु की प्रार्थना के बिना , प्रभु का स्मरण करते हुए , उसके लिए स्तोत्रों के गायन के बिना प्रभु हमें कभी नहीं अपनाता | इस लिए हम प्रभु के पास अपना आसन लगा कर उस के लिए अनेक प्रकार की प्रार्थनाओं से भरपूर स्तोत्रों का गायन करते हुए उस प्रभु की प्रसन्नता प्राप्त करने का प्रयास करते हैं | जब प्रभु हम पर प्रसन्न हो जाते हैं तो निश्चय ही वह हमारे ऊपर सुखों की वर्षा करते हैं | इस प्रकार हम प्रभु का आशीर्वाद पा कर अपने जीवन को न केवल उतम ही बनाते है अपितु प्रभु के आदेश अनुसार अन्य लोगों के जीवनों को भी उतम बनाने के लिए उन का सहयोग करते हैं , उनका मार्ग दर्शन करते हैं |
इस प्रकार हम निरंतर प्रभु की भक्ति करते हुए उसका आशीर्वाद पाकर स्वयं को उन्नत बनाते हुए दूसरों को भी उतम बनाने का यत्न निरंतर , अहोरात्र करते हैं |
डा. अशोक आर्य

उपासक प्रभु के तेज से तेजस्वी हो दूसरों को भी तेजस्वी करता है

ओउम्
उपासक प्रभु के तेज से तेजस्वी हो दूसरों को भी तेजस्वी करता है
डा. अशोक आर्य
जो मनुष्य सदा प्रभु की उपासना करता है, वह प्रभु के तेज से अत्यधिक तेजस्वी हो जाता है । प्रभु प्रार्थना से वह वसुमान व पवित्र हो जाता है, वह दीप्त हो जाता है तथा दूसरों को भी पवित्र करता है । इस तथ्य पर ही ऋग्वेद क यह मन्त्र प्रकाश डाल रहा है : –
आयस्तेअग्नइधतेअनीकंवसिष्ठशुक्रदीदिवःपावक।
उतोनएभिस्तवथैरिहस्याः॥ ऋ07.1.8

हे वासिष्ट अर्थात् अतिश्येन वसुओं में उत्तम | वसुओं को उतम माना गया है किन्तु इस मन्त्र में वसुओं से भी उतम के रूप में सम्बोधन करते हुए कहा है कि हे सब वस्तुओं से सम्पन्न ,अत्यन्त पवित्र , दीप्त व सब को पवित्र करने वाले सब के अग्रणी प्रभो ! जो आप का बनता है अथवा जो आप को अपना मानता है अथवा जो आप का भक्त होता है ,वह ही बल व तेज को सदा दीप्त करता है , उसका ही बल व तेज दीप्त होता है , बढता है । वास्तव में तेजस्वी व्यक्ति सदा आप ही के तेज को प्राप्त करता है तथा उस तेज से ही वह स्वयं भी तेजस्वी बनता है ,दीप्त होता है ।
इस से स्पष्ट होता है कि मन्त्र परमपिता को सब प्रकार के वसुओं भी उतम बताया है तथा कहा है कि प्रभु उसे पूरी तरह से अपना बना लेता है , जो उस प्रभु को अपना बनाने का यत्न करता है | प्रभु भक्त को इश्वर सदा अपने पास स्थान है |
परम पिता परमात्मा के आशीर्वाद से ही प्रभु भक्त सशक्त होता है , उसका बल व तेज निरंतर दीप्त होता चला जाता है , प्रचंड होता चला जाता है | इससे प्रभु भक्त का बल और तेज बढ़ करा अन्यतम दीप्ती को प्राप्त होता है |
२ स्तवन में प्रभु को पुकारें
हम जो आप के लिये स्तोत्रों का प्रयोग करते हैं , आपके स्तवन में जो गाते हैं, उन के माध्यम से , उनके द्वारा आप यहां हमारे जीवन में आइये, प्रवेश करिये । हे प्रभॊ ! हम आप को जितना ही अपने जीवन में धारण कर सकेंगे, उतना ही हम तेजस्वी बनेंगे । इस लिये हम आप को अधिकतम धारण करने के यत्न करते हैं । जब हम आप को अधिकतम धारण कर लेंगे तो हम वसुमान बनेंगे , हम पवित्र बनेंगे तथा हम दीप्त होंगे । इस के साथ ही साथ ओरों को भी हम एसा ही बनाने का प्रयास करेंगे, यत्न करेंगे । इस लिये हमारी यह ही प्रार्थना है कि हम आपका स्तवन करते हुये, आप का गुणगान करते हुये, आपका स्मरण करते हुये आपको अपने मे धारण करें ।
इसा सब से एक बात जो स्पष्ट होती है कि प्रभु स्तवन ही सब शक्तियों का आधार है , प्रभु स्तवन से ही सब शक्तियां प्राप्त होती हैं , सब प्रकार के तेज व सब प्रकार की शक्तियों को हम प्राप्त करते हैं और वसुकों से भी उतम बनाते हैं |

डा. अशोक आर्य

यज्ञाग्नि से रोगों का नाश होता है

ओउम्
यज्ञाग्नि से रोगों का नाश होता है
डा. अशोक आर्य
यज्ञ करने से ,वातावरण में विचरण कर रहे तथा छुपे हुए रोग के कीट नष्ट हो जाते हैं । इन जीवों के नष्ट होने से, इस से उत्पन्न होने वाले रोग भी नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार जो शक्ति रोग पैदा करने वाली होती है, वह नष्ट होने से रोग भी नष्ट हो जाते हैं । इस पर मन्त्र प्रकाश डालते हुए कह रहा है कि : –
विश्वाअग्नेऽपदहारातीर्येभिस्तपोभिरदहोजरूथम्।
प्रनिस्वरंचातयस्वामीवाम्॥ ऋ07.1.7
इस मन्त्र में प्रभु से प्रार्थना करते हुए यज्ञ की अग्नि को संबोधन किया गया है तथा प्रार्थना की गयी है कि
१. यज्ञ से कष्टों का नाश
मन्त्र उपदेश करते हुए कहता है कि हे यज्ञग्ने ! आप ही अपनी तेज अग्नि के बल पर, तेज गर्मी के बल पर सब कष्टों को दूर करते हैं ।
हम जानते हैं कि यज्ञ की अग्नि को तीव्र करने के लिए , अग्नि को प्रचंड करने के लिए इस में उतम घी तथा उतम औषधियों से युक्त सामग्री की आहुतियाँ दी जाती है | इन में पौष्टिकता होती है , यह सुगंध से भरपूर होती है , इस में उतम उतम रोग नाशक बूटियाँ डाली जाती हैं और इस के साथ ही साथ इसमें डाली जाने वाली घी व सामग्री में अग्नि को तीव्र करने की शक्ति भी होती है | यज्ञ करते समय हम कुछ वेद मन्त्रों का भी गायन करते हैं | यह मन्त्र गायन भी सुस्वास्थ्य के लिए उपयोगी होते है |
इस प्रकार मन्त्र के माध्यम से हम प्रभु से प्रार्थना है करते हैं कि हे प्रभु ! इस वायुमण्ड्ल में जितने भी प्राणी हमें हानि देने वाले हैं, जितने भी प्राणी हमें रोग देने वाले हैं, उन्हें भस्म कर दो, नष्ट कर दो । , उन्हें अपनी अग्नि में भस्म करदो । अर्थात् जब हम यज्ञ करते हैं तो इस में डाली जाने वाली सामग्री में एसे पदार्थ डाल कर इसे करते हैं, जिन की ज्वाला निकलने वाली गैसों से यह रोग के कीटाणु स्वयमेव ही नष्ट हो जाते हैं । यदि कोई कीटाणु बच भी जाता है तो यज्ञ की इस अग्नि में जल कर नष्ट हो जाता है ।
२. यज्ञ से तापक शक्ति का नाश
हमारे अन्दर समय समय पर अनेक कारणों से रोगाणु पैदा होते रहते हैं | जब यह रोगाणु हमारे शरीर की शक्तियों से कहीं अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं | इन की शक्ति हमारे अन्दर की शक्तियों से अधिक हो जाती हैं तो इस का परिणाम जो हम जानते हैं वही होता है अर्थात् हम रुग्ण हो जाते हैं |
हम जानते हैं कि शल्य सदा कमजोर पर अथवा शक्ति विहीन पर एसा भयंकर आक्रमण करता है , ( राक्षसी वृति के लोगों के सम्बन्ध में भी कुछ एसा ही कहा जाता है कि जब वह सामने वाले को कमजोर पाते हैं तो वह उस पर चारों और से एसा भयंकर आक्रमण करते हैं कि सामने वाला जब तक उसे कुछ समझ में आता है और वह संभलने की सोचता है तब तक वह राक्षसों से इस प्रकार घिर जाता है कि उससे निपट पाना उसके लिए कठिन हो जाता है , उनका प्रतिरोध उस की शक्ति में रहता ही नहीं | इस कारण वह या तो नष्ट हो जाता है और या फिर आत्म समर्पण कर देता है |)कि हमारा शारीर इस कष्ट से तप्त हो जाता है |
कुछ एसी ही अवस्था शरीर में पल रहे रोगाणुओं की , शरीर में पल रहे शल्य की होती है | ज्यों ही यह शरीर को कमजोर पाते हैं तो वह इस शरीर पर एसा आक्रमण करते हैं कि हम संभल ही नहीं पाते | इनके दिए ताप से तप्त होकर हम स्वयं को शक्ति विहीन सा अनुभव करते हैं और शीघ्र ही शिथिल होकर बिस्तर को पकड़ लेते है | अनेक बार तो यह रोग हमारी मृत्यु का कारण भी बनते हैं |
इसलिए रोग की जो तापक शक्ति होती है , उससे बचने के लिए जब हम यज्ञ करते हैं तो यज्ञ करते हुए इस के साथ हम यज्ञ देव से यह प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे अग्निदेव ! उस को तूं नष्ट करके हमें स्वस्थ कर अर्थात् हे यज्ञाग्नि इन रोगाणुओं की तापक शक्ति को नष्ट कर हमें स्वस्थ बना ।
इस सब का भाव यह है कि यह यज्ञ की अग्नि रोग की तापक शक्ति को नष्ट कर देता है । इस अग्नि के तेज से रोग के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं तथा जो जन प्रतिदिन दो काल यज्ञ करते हैं अथवा जो लोग यज्ञ स्थल के समीप निवास करते हैं , यह यज्ञ की अग्नि उनके अन्दर बस रहे रोग के कीटाणुओ का भी नाश कर देती है । इस प्रकार उसके शरीर के अन्दर के कीटाणुओं के नष्ट होने से वह निरोग हो जाता है । इस यज्ञ से उस के अन्दर इतनी प्रतिरोधक शक्ति आ जाती है कि रोग के कीटाणु भयभीत हो कर इस शरीर से दूर भागने लगते हैं और अब रोग के यह कीटाणु किसी रोग की उत्पति के लिए यज्ञकर्ता पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं कर पाते । इससे धीर धीरे यह रोग ओझल ही हो जाता है ।
इस सब से यह तथ्य सामने आता है कि यज्ञ और इसकी अग्नि हमारे शरीर को सदा स्वस्थ रखने का एक बहुत बड़ा साधन है | स्वास्थ्य लाभ के लिए हम प्रतिदिन दो काल उतम सामग्रियों से यज्ञ करें |

डा. अशोक आर्य

हे यज्ञ अग्नि ! हम सदा तुझे आहुति देते रहें

ओउम्
हे यज्ञ अग्नि ! हम सदा तुझे आहुति देते रहें
हम परमपिता से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! यह यज्ञ अग्नि हमारे घरों में सदा जलती रहे | हम इसे कभी मंद न होने दें तथा हम सदा इसे बढाने के लिये पुरुषार्थ करते हुए इस यज्ञ में आहुती देते रहें । इस तथ्य पर ऋग्वेद के इस तीसरे मन्त्र में विचार करते हुए इस प्रकार प्रकार प्रकाश डाला है : –
प्रेद्धोअग्नेदीदिहिपुरोनोऽजस्रयासूर्म्यायविष्ठ।
त्वांशश्वन्तउपयन्तिवाजाः॥ ऋ07.1.3
हे अग्नि ! खूब प्रकार से दीप्त होकर , अपनी लपटों को खूब उंचा उठा | इस प्रकार अत्यंत तेज होकर तू हमारे सामने प्रकट हो । हे अग्नि ! तूं सब प्रकार के रोगों को दूर करने वाली है , तूं सब प्रकार के रोगाणुओं को भस्म कर इन सब रोगाणुओं का नाश करने वाली है | तूं ही सब प्रकार की गन्दी वायु को शुद्ध कर वातावरण को शुद्ध करने वाली है , सम्पूर्ण पर्यावरण को तूं ही शुद्ध – पवित्र कराती है | एसी अत्यधिक पवित्र अग्नि ! तूं कभी भी क्षीण होने वाली नहीं है , कभी दुर्बल होने वाली नहीं है , कभी न बुझने वाली तेरी ज्वाला से हम निरन्तर दीप्त होते रहें, निरन्तर तेज होती रह, निरन्तर प्रचण्ड होती रह ।
हे अग्नि ! तुम्हें अनेक प्रकार की भोजन सामग्री मिलती है ( अग्नि का भोजन समिधा के रूप में लकड़ी होती है | इसे प्रचंड करने के लिए इस में घी डाला जाता है | इसे धित बनाने के लिए इस में सुगंदित पदार्थ डालते हैं | शक्ति वर्धन के लिए इस अग्नि में पुष्टिक पदार्थ यथा घी , मेवे आदि डालते हैं | यह रोगों का नाश करे इसलिए इस अग्नि में गुग्गल जैसी औषधियां डालते हैं ) , अनेक प्रकार के अन्न हवि रुप में , आहुति रुप में इस अग्नि को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार हे अग्नि ! तेरे में अनेक प्रकार के , विविध प्रकार के अन्नों की आहुतियां डाली जाती हैं । यह जो अनेक प्रकार की वस्तुओं की आहुतियां तुझ में डाली जाती हैं , इन को ही तूं ने बढाना है , इन सब को बड़ा कर आगे ले जाते हुए इसे हमारे ई पुरे वायु मण्डल में फ़ैलाना है ।
इन शब्दों से एक तथ्य जो सबके सामने आता है , वह यह कि यज्ञ की अग्नि प्रत्येक प्राणी के जीवन की रक्षा रक्षा करने वाली होती है क्योंकि इस अग्नि में वह लकड़ी समिधारूप में प्रयोग की जाती है जिस समिधा में कीटाणुओं का नाश करने की शक्ति होती है, जो समिधा सुगंध वाली होती है, जो शक्ति व पौष्टिकता लाने वाली होती है | हम इतने से ही शांत नहीं होते अपितु हम इस प्रकार के गुणों वाली और
भी वस्तुएं सामग्री स्वरूप इस अग्नि को भेंट करते हैं इस प्रकार की वस्तुओं में :
घी , बादाम ,किशमिश , अखरोट , काजू आदि सूखे मेवे , सेब ,केला आदि एक प्रकार के फल फूल , चन्दन जैसे सुगन्धित पदार्थ तथा अगर – तगर ,गुग्गल, गिलोय जैसे रोगनाशक बूटियाँ | इन सब के प्रयोग से हम सदा इस अग्नि को तीव्र करने का प्रयास करते हैं | इस यज्ञ की अग्नि को कभी मंद नहीं होने देते | जब यह यज्ञ की अग्नि अच्छे से प्रचंड रहती है तो इस का सेवन करने वाले किसी भी प्राणी को कोई कष्ट नहीं होता | इस प्रकार के प्राणी सदा रोगों से मुक्त रहते हैं | इन का शारीर पूर्णतया पौष्टिक तत्वों से भरा रहता है | इन प्राणियों की बुधि तीव्र होती है | पूर्णतया स्वस्थ रहते हुए यह प्राणी समाज के अन्य प्रणियों को भी सुखी, सुशल, पुरुषार्थी व परोपकारी बनाने का प्रयास करते हैं |
यह मन्त्र इस लिए ही उपदेश कर रहा है कि यज्ञ की अग्नि कभी भी बुझाने न पावे | यह अग्नि निरंतर ऊपर उठती रहे , सदा उन्नत रहे , प्रज्वलित रहे | यह जीतनी तीव्र होगी उतना ही अधिक हितकारक होगी | इस लिए हम इस अग्नि की सदा उपासना करते हुए इसे आगे बढाते जावें | इस में ही हम सब का हित है | इस में ही हम सबका कल्याण है |
डा. अशोक आर्य