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सद्गुणों से सजने व प्रभु दर्शन के लिये सोमकणों की रक्शा करें

औ३म
सद्गुणों से सजने व प्रभु दर्शन के लिये सोमकणों की रक्शा करें
डा.अशोक आर्य
रिगवेद के प्रथम मण्डल के प्रथम अध्याय का प्रथम सूक्त नॊ मन्त्रों से युक्त था , जिसके माध्यम से हमने अग्नि के नाम से प्रभु का स्मरण किया था । अग्नि आगे ले जाने का कार्य करती है । परमपिता परमात्मा भी तो जीवात्मा की उन्नति का कारण होता है , इस लिये उसे हमने अग्नि के नाम से जानने का यत्न किया ।
अब हम इस दूसरे सूक्त के नॊ मन्त्रों के माध्यम से उस पिता को वायु के नाम से स्मरण करते हैं । वायु का कार्य गति करना होता है । परमपिता परमात्मा भी गति के माध्यम से ही सब बुराईयों का नाश करता हैं । बिना गति के किसी भी बुराई का नाश नहीं हो सकता । इस कारण यहां प्रभू को वायु के नाम से स्मरण करते हुये कहा है कि हम इस शरीर में सोम की रक्शा करें । यह सोम कण हमारे जीवन को गुणॊं से भरेंगे तथा इससे हम प्रभू के दर्शन के योग्य बन सकेंगे । इस तथ्य को इस सूक्त का प्रथम मन्त्र इस प्रकार स्पष्ट करने का यत्न करता है : –
वायवा याहि दर्श्तेमे सोमा अरंक्रिता:।
तेषां पाहिश्रुधी हवम ॥ रिग्वेद १.२.१ ॥
हे गति करने वाले पभो ! हे बुराईयों का नाश करने वाले प्रभो ! आप आकर हमारे ह्रिदय आसन पर विराजिये । वास्तव में आप सचमुच ही दर्शनीय हैं । इस लिये हे प्रभो ! मेरा ह्रिदय आप के निवास के लिए उत्तम स्थान है तथा वहीं पर ही मैं आपके दर्शन का सॊभाग्य प्राप्त करता हुं । हमारे शरीर में ह्रिदय ही एक एसा स्थान होता है , जिसे सब से पवित्र कहा जाता है । इस पवित्रता के ही कारण प्रभॊ का निवास इस ह्रिदय को माना गया है । इस लिए प्रभु को ह्रिदय रुपी आसन पर बैटाने की इच्छा व्यक्त की गई है ।
हे प्रभू मैं कभी भी आप की द्रिश्टि से ऒझल न होकर सदा आप की द्रिष्टि में ही रहूं । इस प्रकार मैं पवित्र बना रहूं । वह प्रभु जिस के साथ होगा, वह व्यक्ति पवित्रता से परिपूर्ण रहेगा । इस लिए जीव ने प्रभु की समीपता पाने के लिए प्रार्थना के साथ हीसाथ इस मन्त्र के माध्यम से प्रबू कीद्रिष्टी में रहने का यत्न भी किया गया है । इस प्रकार प्रभु कि क्रिपा में रहते हुये पवित्र बनने क यत्न इस मन्त्र के माध्यम से जीव ने किया है ।
मन्त्र आगे बता रहा है कि मानव का सदा ही यत्न रहता है कि वह अपने शरीर में अधिक से अधिक सोमकणॊं की रक्शा करे । इतना ही नहीं रोके गये यह सोमकण शरीर में ही समा जावें, फ़ैल जावें । क्योंकि इस प्रकार रोके गये यह सोमकण शरीर में ग्यान रुपी अग्नि प्राप्त करने का ईंधन बनते हैं । ग्यान की इस अग्नि को दीप्त करने का कारण बनते हैं , साधन बनते हैं । इस प्रकार जो अग्नि दीप्त होती है , प्रकाशित होती है , उस ग्यान अग्नि से हम प्रभु के दर्शन पाने के योग्य बनते हैं ।
हे प्रभॊ ! हमारे इन सोमकणॊं की रक्शा भी तो आप के स्मरण करने से ही होती है । यदि हम आप का स्मरण नहीं करते तो यह सोमकण नष्ट हो जाते हैं । हम क्योंकि सदा आप का स्मरण करते रहते हैं, इसलिए हे प्रभो ! आप हमारे इन सोमकणों की रक्शा कीजिये । जहां महादेव अर्थात आप होते हैं, वहां काम रूपि शत्रु कभी प्रवेश करने का साहस भी नहीं कर सकता । कहा भी गया है कि ” जहां महादेव वहां कामदेव भस्म ” । यह काम ही है जो शरीर के सोम की रकशा में सदा ही बाधक बना रहता तथा इस काम के नाश से ही सोमकण शरीर में सर्वत्र फ़ैल जाते हैं । इस लिये हे प्रभो हम आपका स्मरण करते हैं , हमें काम रुपी दोष से मुक्त कीजिये तथा सोम इस शरीर में स्थान प्राप्त कराईये ।
अत: हे प्रभो ! आप हमारी इस प्रार्थना को सुनें , आप हमारी पुकार को सुनें , आप हमारी विनय को सुनें आपके यह सब भक्त प्रभो ! अपनी सोम्यता के कारण से सम्पन्न है । सोम्यता के यह सब गुण आप के भक्तों में भरे हुये हैं , रमे हुये हैं । सोम्यता के इन सब गुणों से अलंक्रित हैं । इस के बिना प्रभु से हम रक्शित नहीं हो सकते । इस लिए हम इन सब से अलंक्रित होने के कारण प्रभु से रक्शा के सचमुच ही पात्र हैं ।

डा. अशोक आर्य