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सीता की उत्पत्ति – मिथक से सत्य की और

जनक के हल जोतने पर भूमि के अन्दर फाल का टकराना तथा उससे एक कन्या का पैदा होना और फिर उसी का नाम सीता रखना आदि असंभव होने से प्रक्षिप्त है । इस विषय में प्रसिध्द पौराणिक विद्वान स्वामी करपात्री जी ने स्वरचित ”रामायण मीमांसा’ में लिखा है – “पुराणकार किसी व्यक्ति का नाम समझाने के लिए कथा गढ़ लेते है। जनक पुत्री सीता के नाम को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने वैदिक सीता ( = हलकृष्ट भूमि) से सम्बन्ध जोड़कर उसका जन्म ही भूमि से हुआ

बता दिया” ( पृ ० 89 ) अथवा यह हो सकता है कि किसी ने कारणवश यह कन्या खेत में फेक दी हो और संयोगवश वह जनक को मिल गई हो अथवा किसी ने ‘खेत में पडी लावारिस कन्या मिली है’ यह कहकर जनक को सौप दी हो फिर उन्होंने उसे पाल लिया हो । महर्षि कण्व को शकुन्तला इसी प्रकार मिली थी। और प्राप्ति के समय पक्षियों द्वारा संरक्षित एवं पालित (न कि प्रसूत) होने से उसका नाम शकुन्तला रख दिया था ।

धरती को फोड़कर निकलने बालों की “उद्भिज्ज” संज्ञा है। तृण, औषधि, तरु, लता आदि उद्भिज्ज कहलाते हैं । मनुष्य, पश्वादि, जरायुज, अण्डज और स्वेदज प्राणियों के अन्तर्गत है । मनुष्य वर्ग में होने के कारण सीता की उत्पत्ति पृथिवी से होना प्रकृति विरुध्द होने से असंभव है।

सीता की उत्पति पृथिवी से कैसे मानी जा सकती है, जबकि बाल्मीकि रामायण में अनेक स्थलों में उसे जनक की आत्मजा एवं औरस पुत्री तथा उर्मिला की सहोदरा कहा गया है –

वर्धमानां ममात्मजाम् (बाल० 66/15) ;

जानकात्मजे (युद्ध० 115/18) ;

जनकात्मजा (रघुवंश 13/78)

महाभारत में लिखा है –

विदेहराजो जनक: सीता तस्यात्मजा विभो
(3/274/9)

अमरकोश (2/6/27) में ‘आत्मज’ शब्द का अर्थ इम प्रकार लिखा है –

आत्मनो देहाज्जातः = आत्मजः अर्थात जो अपने शरीर से पैदा हो, वह आत्मज कहाता है। आत्मा क्षेत्र (स्त्री) का पर्यायवाची है ; क्षेत्र और शरीर पर्यायवाची है।

क्षीयते अनेन क्षेत्रम

स्त्री को क्षेत्र इसलिए कहते हैं की वह संतान को जनने से क्षीण हो जाती है। पुरुष बीजरूप होने से क्षीण नहीं होता ।

रघुवंश सर्ग 5, श्लोक 36 में लिखा है –

ब्राह्मे मुहूर्ते किल तस्य देबी कुमारकल्पं सुषुवे कुमारम् ।
अत: पिता ब्रह्मण एव नाम्ना तमात्मजन्मानमजं चकार ।।

महामना पं ० मदनमोहन मालवीय की प्रेरणा से संवत 2000 में विक्रमद्विसहस्राब्दी के अवसर पर संस्थापित अखिल भारतीय विक्रम परिषद द्वारा नियुक्त कालिदास ग्रंथावली के संपादक मण्डल के प्रमुख साहित्याचार्य पं ० सीताराम चतुर्वेदी ने उक्त श्लोक में आये “आत्मजन्मान्म” का अर्थ रघु की रानी की कोख से जन्मा किया हैं । तव जनक की ‘आत्मजा’ का अर्थ पृथिवी से उत्पन्न कैसे हो सकता है ? ब्रह्म मुहुर्त में जन्य लेने के कारण रघु ने अपने पुत्र का नाम अज (अज ब्रह्मा का पर्यायवाची है, क्योंकि ब्रह्मा का भी जन्म नहीं होता) रखा। अज का अर्थ जन्म न लेने वाला होता है। कोई मूर्ख ही कह सकता है कि अज का यह नाम इसलिए रखा गया था, क्योंकि वह पैदा नहीं हुआ था।

आत्मज या आत्मजा उसी को कह सकते हैं जो स्त्री – पुरुष के रज-वीर्य से स्त्री के गर्म से उत्पन्न हो, इसमें सामवेद ब्राह्मण प्रमाण है-

अंगदङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायते ……. आत्मासि पुत्र।
(1.5.17)

है पुत्र ! तू अंग-अंग से उत्पन्न हुए मेरे वीर्य से और हदय से पैदा हुआ है, इसीलिए तू मेरा आत्मा है । खेत से उत्पन्न होने से तो तृण, औषधि, वनस्पति, वृक्ष, लता आदि सभी आत्मज और आत्मजा हो जाएँगे और बाप-दादा की सम्पत्ति में भागीदार हो जाएंगे।

‘जनी प्रादुर्भावे’ से जननी शब्द निष्पन्न होता है। इससे जन्म देने वाली को ही जननी कहते है। पालन-पोषण करने वाली यशोदा माता कहलाती थीं, परन्तु जन्म न देने के कारण जननी देवकी ही कहलाती थी। बनवास काल में अत्रि मुनि
के आश्रम में अनसूया से हुई बातचीत में सीता ने कहा था –

पाणिप्रदानकाले च यत्पुरा तवाग्निसन्निधौ।
अनुशिष्टं जनन्या में वाक्यं तदपि में घृतम् ।।
अयो० 118/8-9

विवाह के समय मेरी जननी ने अग्नि के सामने मुझे जो उपदेश दिया था, उसे मैं किंचित भूली नहीं हूँ । उन उपदेशों को मैंने हृदयंगम किया है ।

क्या यहाँ विवाह के समय उपदेश देने वाली यह ‘जननी’ पृथिवी हो सकती है ?
और क्या बेटी को विदा करते समय बिलख बिलख कर रोने वाली पृथिवी थी ?
यहाँ माता को ही जननी कहकर स्मरण किया है, पृथिवी को जननी नहीं कहा।

तुलसीदास जी ने तो माता = जननी का नाम भी इस चौपाई
में लिख दिया है :-

जनक वाम दिसि सोह सुनयना ।
हिमगिरि संग बनी जिमि मैना ।।
(रामचरितमानस बालकाण्ड 356/2)

(विवाह वेदी पर) सुनयना (महारानी) महाराजा जनक की बाई और ऐसी शोभायमान थी, मानो हिमाचल के साथ मैना (पार्वती की माता) विराजमान हो।

पाणिग्रहण संस्कार के समय जिस प्रकार रामचन्द्र जी की पीढियों का वर्णन किया गया था उसी प्रकार सीता की भी 22 पीढियों का वर्णन किया गया। यदि सीता की उत्पत्ति पृथिवी ये हुई होती तो पृथ्वी से पहले की पीढ़िया कैसे बनती ?
इसे शाखोच्चार कहते है । राजस्थान में विवाह के अवसर पर दोनो पक्षों के पुरोहित आज भी 22 के ही नहीं, 30-40 पीढ़ियों तक के नामो का उल्लेख करते हैं । साधारणतया सौ वर्ष में चार पुरुष समझे जा सकते हैं। इस प्रकार 40 पीढियों में लगभग एक हजार वर्ष बनते है। अर्थात् सर्वसाधारण लोग भी मुहांमुही सैकडों वर्षो के पारिवारिक इतिहास का ज्ञान रख सकते थे। जिसका 22 पीढ़ियों का क्रमिक इतिहास ज्ञात है उसे कीड़े-मकौडों या पेड़-पौधों की तरह पृथिवी से उत्पन्न हुआ नहीं माना जा सकता। वस्तुतस्तु सीता के पृथिवी से उत्पन्न होने

सम्बन्धी गप्प का स्रोत विष्णु पुराण, अंश 4, अध्याय 4, वाक्य 27-28 है जिसका वाल्मीकि रामायण में प्रक्षेप कर दिया गया है। जन्म को पृथ्वी से मानकर सीता का अंत भी पृथ्वी में समाने की कल्पना करके ही किया गया है ।

अयोनिजा – सीता को अनेक स्थलों में अयोनिजा कहा गया है । पृथिवी से उत्पन्न होने का अर्थ माता-पिता के बिना अर्थात स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना उत्पन्न होना है। इसी को अयोनिज सृष्टि कहते है, क्योंकि इसमें गर्भाशय से
बाहर निकलने में योनि नामक मार्ग का प्रयोग नहीं होता । सृष्टि के आदि काल में समस्त सृष्टि अमैथुनी होती हैं –

अमैथुनी सृष्टि से सम्बंधित पोस्ट का लिंक – यहाँ से पढ़े
https://www.facebook.com/Aryamantavya/photos/a.1418444565059896.1073741828.1418437208393965/1618030795101271/?type=1&theater

यहाँ यह तथ्य जरूर जोड़ा जाता है की सृष्टि चाहे मैथुनी हो अथवा अमैथुनी – प्राणियों के शरीरो की रचना परमेश्वर सदा माता पिता के संयोग से ही करता है।
पर दोनों में अंतर केवल इतना है की आदि सृष्टि में माता (जननी) पृथ्वी होती है और वीर्य संस्थापक सूर्य (ऋग्वेद 1.164.3) में कहा है –

“द्यौर्मे पिता जनिता माता पृथ्वी महीयम”

अर्थात सृष्टि के आदि काल में प्राणियों के शरीरो का उत्पादक पिता रूप में सूर्य था और माता रूप में यह पृथ्वी। परमात्मा ने सूर्य और पृथ्वी – दोनों के रज वीर्य के संमिश्रण से प्राणियों के शरीरो को बनाया। जैसे इस समय बालक माता के गर्भ में जरायु में पड़ा माता के शरीर में रस लेकर बनता और विकसित होता है, वैसे ही आदि सृष्टि में पृथ्वी रुपी माता के गर्भ में बनता रहता है। इसी शरीर को साँचा रुपी शरीर भी कहा जाता है जिससे हमारे जैसे मैथुनी मनुष्य उत्पन्न होते रहते हैं।

सीता का जन्म सृष्टिक्रम चालु होने और साँचे तैयार होने के बाद त्रेता युग में हुआ था, अतः सीता के अयोनिजा होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जनक उनके पिता थे और रामचरितमानस के अनुसार सुनयना उनकी माता का नाम था।

मेरी सभी बंधुओ से विनती है, कृपया लोकरीति, मिथक, दंतकथाओं आदि पर आंखमूंदकर विश्वास करने से अच्छा है – खुद अपनी धार्मिक पुस्तको और सत्य इतिहास को पढ़ कर बुद्धि को स्वयं जागृत करते हुए दूसरे हिन्दू भाइयो को भी जगाये – ताकि कोई विधर्मी हमारे सत्य इतिहास और महापुरषो महा विदुषियों पर दोषारोपण न कर सके

आओ लौटे ज्ञान और विज्ञानं की और –

आओ लौट चले वेदो की और

नमस्ते

धर्मात्मा महाराज जटायु कोई पक्षी गिद्ध नहीं – क्षत्रिय वर्ण के मनुष्य थे

महाराज जटायु की वंशावली –

ऋषि मरीचि कुलोत्त्पन्न – ऋषि ताक्षर्य कश्यप

और महाराज दक्ष कुलोत्त्पन्न – विनीता

ताक्षर्य कश्यप और विनीता के दो पुत्र –

गरुड़ और अरुण

अरुण के दो पुत्र हुए –

सम्पात्ति और जटायु

इन सभी महापुरषो का विवरण धीरे धीरे प्रस्तुत किया जायेगा – फिलहाल आज हम चर्चा करेंगे –

धर्मात्मा महाराज जटायु के बारे में –

महाराज जटायु – ऋषि ताक्षर्य कश्यप और विनीता के पुत्र थे, आप गृध्रराज भी कहे जाते हैं, क्योंकि गृध्र एक पर्वत क्षेत्र है – जिसकी आकृति एक गिद्ध की चोंच जैसी है – इनका राज्य – अवध (अयोध्या और मिथिला) के बीच का हिस्सा था – जो एक पहाड़ी क्षेत्र था। ऐसा में कोई भ्रान्ति वश नहीं लिख रहा हु – ना ही मेरी कोई कपोल कल्पना है – आप रामायण में रावण और जटायु का संवाद पढ़े तो स्पष्ट दीखता है – देखिये –

रावण को अपना परिचय देते हुए जटायु ने कहा –

मैं गृध कूट का भूतपूर्व राजा हूँ और मेरा नाम जटायु हैं

सन्दर्भ – अरण्यक 50/4 (जटायुः नाम नाम्ना अहम् गृध्र राजो महाबलः | 50/4)

क्योंकि उस समय में आश्रम व्यवस्था की मान्यता थी जिसकी वजह से समाज और देश व्यवस्थित थे – आज ये वयवस्था चरमरा गयी है जिसके कारण ही देश पतन की और अग्रसर है – खैर – उस समय धर्मात्मा जटायु वानप्रस्थ आश्रम में होंगे – तभी वे अपने राज्य को युवा हाथो में सौंप देश और समाज की व्यवस्था में लग गए – इसका महत्वपूर्ण परिणाम था की माता सीता को रावण से बचाने के लिए अपनी प्राणो की भी बाजी लगा दी –

कुछ लोग धर्मात्मा जटायु को – एक पक्षी – या फिर बहुत बड़ा शरीर वाला गिद्ध समझते हैं – ऐसे लोग केवल वो पढ़ते हैं जिससे उन्हें अपना मनोरथ सिद्ध करना हो – जो सत्य और न्याय से परिपूर्ण हो वो पढ़ना नहीं चाहते – क्योंकि यदि पक्षपात और दुराग्रह त्याग कर – सत्य अन्वेषी बने तो सब कुछ साफ़ और स्पष्ट है की वे एक मनुष्य ही थे – देखिये

1. जैसे की ऊपर वंशावली दी गयी है – धर्मात्मा जटायु – ऋषि मरीचि के कुल में उत्पन्न ताक्षर्य कश्यप ऋषि और महाराज दक्ष के कुल में उत्पन्न विनीता के पुत्र थे – तो भाई क्या एक मनुष्य के गिद्ध संतान उत्पन्न हो सकती है ?

2. प्रभु राम ने धर्मात्मा जटायु को अरण्य काण्ड में “गृध्राज जटायु” अनेक बार बोला है क्योंकि वो उन्हें जान गए थे की वो गृध्र प्रदेश नरेश जटायु हैं।

3. जटायु राज को इसी सर्ग में श्री राम ने द्विज कहकर सम्बोधित किया – जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए ही उपयोग होता है –

4. जटायु राज को श्री राम इसी सर्ग में अपने पिता दशरथ का मित्र बताते हैं।

5. जिस समय रावण सीता का अपहरण कर उसे ले जा रहा था तब जटायु को देख कर सीता ने कहाँ – हे आर्य जटायु ! यह पापी राक्षसपति रावण मुझे अनाथ की भान्ति उठाये ले जा रहा हैं । (सन्दर्भ-अरण्यक 49/38) – यहाँ भी जटायु महाराज को द्विज सम्बोधन है – और यहाँ द्विज किसी भी प्रकार से पक्षी के लिए नहीं हो सकता – क्योंकि रावण को अपना परिचय देते हुए – जटायु महाराज अपने को – गृध्र प्रदेश का भूतपूर्व राजा बता रहे हैं।

6. जटायु राज का इसी सर्ग के बाद अगले सर्ग में दाह संस्कार स्वयं श्री राम ने किया – कुछ लोग ध्यान पूर्वक पढ़ लेवे – क्योंकि बहुत से हिन्दू भाइयो के मन में विचार आता है की जटायु – एक बहुत विशाल – पर्वत तुल्य – और बृहद पक्षी (गिद्ध) थे – तो भाई मुझे केवल इतना बताओ –

यदि जटायु महाराज इतने ही विशाल गिद्ध थे – तो बाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड सर्ग 68 में – प्रभु श्री राम बाल्मीकि के शव को अपनी गोद में रखते हुए बड़े प्रेम से लक्ष्मण को कहते हैं – लक्ष्मण इनका दाह संस्कार हम करेंगे – प्रबंध करो – तब चिता पर जटायु महाराज को चिता पर लेटाकर – उनका दाह संस्कार प्रभु राम ने किया। तो बताओ भाई श्री राम इतने पर्वत तुल्य गिद्ध शरीर – को कैसे उठा कर चिता पर रखकर – दाह किया होगा ?

कुछ भाई अरण्य काण्ड के सर्ग ६७ का एक श्लोक प्रस्तुत करके कहते हैं की – श्री राम ने भी जटायु को गिद्ध ही समझा था – क्योंकि उन्होंने कहा की

“ये पर्वत के किंग्रे के तुल्य ने ही वैदेही सीता खा ली है, इसमें कोई संदेह नहीं।”

यहाँ पर्वत के किंग्रे तुल्य का सही अर्थ ना जानकार व्यर्थ ही आक्षेप करते हैं – पर्वत के किंग्रे तुल्य अर्थ बड़ा डील वाला – यानी औसत शरीर से बड़ा – और यहाँ वैदेही सीता खा ली है से तात्पर्य है की – उस वन में अनेक “जंगली – असभ्य – राक्षस प्रवर्ति के लोग निवास करते थे जो मांसभक्षी थे – इसलिए प्रभु राम ने ऐसी सम्भावना व्यक्त की। भाई कृपया समझ कर पढ़िए –

यदि पर्वत के किंग्रे तुल्य का अर्थ इतना ही बड़ा होगा – तो बताओ कैसे इतने बड़े भरी भरकम शरीर को प्रभु राम ने उठाकर चिता पर रखा होगा ? कैसे अपनी गोद में उस धर्मात्मा जटायु के सर को रखकर लक्ष्मण से वार्ता की होगी ?
इसी दाह संस्कार के बाद प्रभु राम ने – महाराज जटायु के लिए उदककर्म भी संपन्न किया था।

अब जहाँ तक हिन्दुओ को भी पता होगा – ये उदककर्म – मनुष्यो द्वारा – मनुष्यो के लिए ही किया जाता है – अब यदि फिर भी कोई धर्मात्मा जटायु को गिद्ध समझे – तो ये उसकी मूरखता ही सिद्ध होगी।

कृपया अपने महापुरषो के सत्य स्वरुप को जानिये – उनके बल, पराक्रम, शौर्य और वीरता को व्यर्थ ना करे। उनके पुरषार्थ का मजाक न बनाये। उन्हें पशु पक्षी तुल्य जानकार बताकर – समझकर – उनके चरित्र का मजाक ना स्वयं बनाये न किसी को बनाने ही दे।

कृपया वेदो की और लौटिए – सत्य और न्याय की और लौटिए

धन्यवाद

क्या विवाह के समय श्री राम की आयु १६ वर्ष और माता सीता की आयु ६ वर्ष थी ?

शंका निवारण –

कुछ विशिष्ट जनो को भगवान राम और माँ सीता के विवाह के सन्दर्भ में कुछ भ्रान्ति है. कुछ तर्क वाल्मीकि रामायण से लेकर ये निष्कर्ष निकला जा रहा है की विवाह के वक़्त माँ सीता की उम्र मात्र छ साल की थी, जो सही नहीं है.. बाल्मीकि रामायण से एक श्लोक का प्रमाण निकालकर कुछ लोग ऐसा प्रमाणित करना चाहते हैं की श्रीराम और माता सीता का विवाह “बालविवाह” था – अर्थात – श्री राम की आयु १६ और माता सीता की आयु ६ वर्ष थी – जबकि ये सत्य नहीं –

आइये बाल्मीकि रामायण में सबसे पहले इसी श्लोक पर चर्चा कर लेते हैं की वहां क्या लिखा है –

उषित्वा द्वादश समाः इक्ष्वाकुणाम निवेशने |
भुंजाना मानुषान भोगतसेव काम समृद्धिनी ||
(अरण्यकाण्ड ४७: ४)

ध्यान दे की इस श्लोक में द्वा और दश शब्द अलग अलग है. येद्वादश यानि बारह नहीं बल्कि द्वा “दो” को और दश “दशरथ” को संबोधित करता है. इसमें माँ सीता, रावन से, कह रही है की इक्ष्वाकु कुल के राजा दशरथ के यहाँ पर दो वर्ष में उन्हें हर प्रकार के वे सुख जो मानव के लिए उपलब्ध है उन्हें प्राप्त हुए है। क्योंकि इस श्लोक में इक्ष्वाकु कुल का नाम सीता जी बोल रही हैं – लेकिन उस कुल में दशरथ पुत्र राम से उनका विवाह हुआ – स्पष्ट है – पुरे श्लोक में दशरथ नाम कहीं और भी नहीं लिखा है – इसलिए “द्वा” दो को और “दश” – महाराज दशरथ को सम्बोधन है।

इसे पूर्ण रूप से न समझ कर – कुछ ऐसा अर्थ किया जाता है – एक उदहारण –

“उस समय छोटे बच्चो को कमरे में बंद रखा जाता था” –
इसे कुछ इस तरह अर्थ किया गया –

“उस समय छोटे बच्चो को कमरे में बंदर खा जाता था” –

श्लोक का अर्थ थोड़ा गलत करने से पूरा मंतव्य ही बदल गया।

मम भर्ता महातेजा वयसा पंच विंशक ||३-४७-१० ||
अष्टा दश हि वर्षिणी नान जन्मनि गण्यते ||३-४७-११ ॥

इस श्लोक में माँ सीता कह रही है की उस समय (वनवास प्रस्थान के समय) मेरे तेजस्वी पति की उम्र पच्चीस साल थी और उससमय मैं जन्म से अठारह वर्ष की हुई थी. इसे ये ज्ञात होता है की वनवास प्रस्थान के समय माँ सीता की उम्र अठारह साल की थी औरवो करीब दो साल राजा दशरथ के यहाँ रही थी यानि माँ सीता की शादी सोलह साल की उम्र के आस पास हुई थी. ये केवल सोच और समझ का फेर है।

सिद्धाश्रम : श्री राम १४-१६वे वर्ष में ऋषी विश्वमित्र के साथ सिद्धाश्रम को गए थे। इस तथ्य की पुष्टि वाल्मीक रामायण के बाल काण्ड के वीस्वें सर्ग के शलोक दो से भी हो जाती है, जिसमे राजा दशरथ अपनी व्यथा प्रकट करते हुए कहते हैं- उनका कमलनयन राम सोलह वर्ष का भी नहीं हुआ और उसमें राक्षसों से युद्ध करने की योग्यता भी नहीं है।

उनषोडशवर्षो में रामो राजीवलोचन: न युद्धयोग्य्तामास्य पश्यामि सहराक्षसौ॥ (वाल्मीक रामायण /बालकाण्ड /सर्ग २० शलोक २)
चूँकि भगवान राम ऋषि विश्वामित्र के साथ चौदह अथवा सोलह वर्ष की उम्र में गए थे और उसके बाद ही उनका विवाह हुआ था इसे ये सिद्ध हो जाता है की प्रभु रामकी शादी सोलह वर्ष के उपरान्त हुई थी

श्री राम और लक्ष्मण ने – ऋषि विश्वामित्र के आश्रम सिद्धाश्रम में करीब १२ वर्ष तक निवास किया और ऋषि विश्वामित्र ने उन्हें ७२ शस्त्रास्त्रों का सांगोपांग ज्ञान तथा अभ्यास कराया –

यदि श्री राम की आयु ऋषि विश्वामित्र के साथ उनके आश्रम में जाते समय १६ नहीं १४ भी माने तो ऋषि विश्वामित्र के आश्रम में विद्या ग्रहण करते हुए १२ साल व्यतीत हुए जिसका योग २६ वर्ष होता है –

उपरोक्त तथ्यों से सिद्ध है की श्रीराम की आयु मिथिला में स्वयंवर जाते समय २५-२६ वर्ष थी और माता सीता की आयु १६ वर्ष थी।

अब भी यदि कुछ अतिज्ञानी नहीं मानते – तो कृपया बताये –

स्वयंवर के समय श्री राम की आयु यदि १६ वर्ष और माता सीता की आयु यदि ६ वर्ष मानते हो – तो वनवास क्या श्री राम २-४ वर्ष की आयु में गए ?

कृपया सत्य को जाने वेदो की ओर लौटिए –

नमस्ते –

नोट : प्रथम पद में यह द्वी शब्द रहता है – यहाँ पर द्वा द्विवचन का रूप है।

क्या श्री राम ने पशु वध किया था ??

अम्बेडकर वाड़ी दावा :-

राम जी ने मॉस प्राप्त करने के लिए हिरण का वध किया था ….

दावे का भंडाफोड़ :-

प्रश्न-क्या श्री राम ने किसी हिरण की हत्या की थी?
उत्तर-रामायण के अनुसार वो कोई हिरण नही था असल मे वो एक मायावी बहरूपिया मारिच था जिसने सीता जी ओर रामजी को भ्रमित करने के लिए हिरण का छद्म भेष बनाया था।(ये ठीक इसी प्रकार था जैसे कि रात मे रस्सी को साप समझ कर भ्रम मे पड जाना,रेगिस्तान मे प्यासे को पानी नजर आना)
असल मे मारीच भेष बदलने के अलावा तरह तरह की आवाजे(मिमिकरी)निकालने मे भी माहिर था।
उसके इस छल के बारे मे लक्ष्मण जी ओर श्री राम जी को भी पता चल गया था,,
जैसा कि बाल्मिक रामायण मे है-
शड्कमानस्तु तं दृष्टा लक्ष्मणो राममब्रवीत्।
तमेवैनमहं मन्ये मारीचं राक्षसं मृगम् ॥अरण्यकांड त्रिचत्वारिश: सर्ग: 4॥वा॰रा॰
उस मृग को देख लक्ष्मण के मन मे सन्देह उत्पन्न हुआ ओर उनहोने श्री राम जी से कहा-मुझे तो मृगरूपधारी यह निशाचर मारीच जान पडता है।
वास्तव मे वो सब बनावटी था इसके बारे मे लक्ष्मण जी ने श्री राम से कहा-
मृगो ह्मेवंविधो रत्नविचित्रो नास्ति राघव।
जगत्यां जगतीनाथ मायैषा हि संशयः॥अरण्यकांड त्रिचत्वारिशत: सर्ग 7॥वा॰रा.
लक्ष्मण जी कहते है,है पृथ्वीनाथ!है राघव!इस धरतीतल पर तो इस प्रकार का रत्नो से भूषित विचित्र मृग कोई है नही।अत: निस्संदेह यह सब बनावट है ।
अत: इन बातो से यह निश्चत है कि श्रीराम जानते थे कि वो बहरूपिया असुर मारीच था कोई हिरण नही,,
लेकिन बेवकुफ लोग यहा भी प्रश्न करेंगे कि वो एक बहरूपिया था फिर भी श्री राम ने उसे क्यु मारा ओर उसका कसूर किया था,,
उ०-अरे अंध भक्तो राम जी जानते थे कि वो पापी था क्युकि एक बार पहले भी श्री राम ने उसे क्षमा कर दिया था उसका ओर श्री राम जी का पहले भी सामना हुआ था,,
खुद मारीच ने इस बात को रावण से कहा था कि वो कितना पापी था।
“नीलजीतमूतसडँ्काशस्तप्तकाञ्चनकुण्डलः।
भयं लोकस्य जनयन्किरीटी परिघायुधः॥
व्यचरं दण्डकारण्ये ऋषिमांसानि भयक्षन्।
विश्वामित्रोsथ धर्मात्मा मद्वित्रस्तो महामुनिः॥अर॰का॰,अष्टत्रिशः सर्गः,२,३॥
मारीच कहता है कि मेरे शरीर की कांति नीले रंग के बादल के समान थी,कानो मे तपाये हुए सोने के कुण्डल पहिने,मस्तक पर किरीट धारण किये ओर हाथ मे परिघ लिये हुए,तथा लोगो मे भय उपजाता हुआ मै दण्डकवन मे घूम घूम कर ऋषियो का मांस खाता था।धर्मात्मा महान महर्षि विश्वामित्र भी मेरे से भयभीत थे॥
उसके इस वर्णन से पता चलता है कि वो दुष्ट था साथ ही शस्त्र,मुकुट,कुण्डल पहने एक नीच मनुष्य ही था।
प्र०-क्या सीता जी ने उस मृग को मांस के लिए श्री राम जी से पकडने के लिए बोला था?
उ॰-नही! हिरण सीता जी ने मांस के लिए नही बल्कि सीता जी ने खेलने के लिए मंगवाया था।
“आर्यपुत्राभिरामोsसौ मृगो हरति मे मनः।
आनयैनं महाबाहो क्रीडार्थ नो भविष्यति॥
अरण्यकांड,त्रिचत्वारिशः सर्गः॥
सीता जी कहती है-है आर्यपुत्र,यह मृग मेरे मन को हरे लेता है,सो है महाबाहोः इसे तुम ले आओ!मै इसके साथ खेला करूगी॥
इससे पता चलता है कि सीता जी ने उस हिरण को मांस के लिए नही बल्कि खेलने के लिए श्री राम जी को पकडने को कहा था।
अत: रामायण से ही स्पष्ट है कि श्री राम ने किसी मूक पशु का वध नही किया न ही सीता जी ने उसे मांस के लिए मंगवाया था,,,

शम्बूक वध का सत्य

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शम्बूक वध का सत्य 

लेखक – स्वामी विद्यानंद सरस्वती

एक दिन एक ब्राह्मण का इकलौता लड़का मर गया । उस ब्राह्मण के लड़के के शव को लाकर राजद्वार पर डाल दिया और विलाप करने लगा । उसका आरोप था कि अकाल मृत्यु का कारण राजा का कोई दुष्कृत्य है । ऋषी मुनियों की परिषद् ने इस पर विचार करके निर्णय किया कि राज्य में कहीं कोई अनधिकारी तप कर रहा है क्योंकि :-

राजा के दोष से जब प्रजा का विधिवत पालन नहीं होता तभी प्रजावर्ग को विपत्तियों का सामना करना पड़ता है ।  राजा के दुराचारी होने पर ही प्रजा में अकाल मृत्यु होती है ।  रामचन्द्र  जी ने इस विषय पर विचार करने के लिए मंत्रियों को बुलवाया ।  उनके अतिरिक्त वसिष्ठ नामदेव मार्कण्डेय गौतम नारद और उनके तीनों भाइयों को भी बुलाया । ७३/१

तब नारद ने कहा :

राजन ! द्वापर में शुद्र का तप में प्रवृत्त होना महान अधर्म है ( फिर त्रेता में तो उसके तप में प्रवृत्त होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता ) निश्चय ही आपके राज्य की सीमा पर कोई खोटी बुध्दी वाला शुद्र तपस्या कर रहा  है।  उसी के कारन बालक की मृत्यु हुयी है।  अतः आप अपने राज्य में खोज करिये और जहाँ कोई दुष्ट कर्म होता दिखाई दे वहाँ उसे रोकने का यत्न कीजिये ।  ७४/८ -२८,२९ , ३२

यह सुनते ही रामचन्द्र पुष्पक विमान पर सवार होकर ( वह तो अयोध्या लौटते ही उसके असली स्वामी कुबेर को लौटा दिया था  – युद्ध -१२७/६२ )  शम्बूक की खोज  में निकल पड़े (७५/५ ) और दक्षिण दिशा में शैवल  पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर पर तपस्या करते हुए एक तपस्वी मिल गया देखकर राजा श्री रघुनाथ जी उग्र तप करते हुए उस तपस्वी के पास जाकर बोले – “उत्तम तप का पालन करने वाले तापस ! तुम धन्य हो ।  तपस्या में बड़े चढ़े  सुदृढ़ पराक्रमी परुष तुम किस जाती में उत्पन्न हुए हो ? में दशरथ कुमार राम तुम्हारा परिचय जानने के लिए ये बातें पूछ रहा हूँ ।  तुम्हें किस वस्तु के पाने की इच्छा है ? तपस्या  द्वारा संतुष्ट हुए इष्टदेव से तुम कौनसा वर पाना चाहते हो – स्वर्ग या कोई दूसरी वस्तु ? कौनसा ऐसा पदार्थ है जिसे पाने के लिए तुम ऐसी कठोर तपस्या कर रहे हो  जो दूसरों के लिए दुर्लभ है।  ७५-१४-१८

तापस ! जिस वस्तु के लिए तुम तपस्या में लगे हो उसे में सुनना चाहता हूँ ।  इसके सिवा यह भी बताओ  कि तुम ब्राह्मण हो या अजेय क्षत्रिय ? तीसरे वर्ण के वैश्य हो या शुद्र हो ?

क्लेशरहित कर्म करने वाले भगवान् राम का यह वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ तपस्वी बोला – हे श्रीराम ! में झूठ नहीं बोलूंगा देव लोक को पाने की इच्छा से ही तपस्या में लगा हूँ ! मुझे शुद्र ही जानिए मेरा  नाम शम्बूक  है ७६,१-२

वह इस प्रकार कह ही रहा था कि रामचंद्र जी ने तलवार निकली और उसका सर काटकर फेंक दिया ७६/४ |

शाश्त्रीय व्यवस्था है – न ही सत्यातपरो धर्म : नानृतातपातकम् परम ” एतदनुसार मौत के साये में भी असत्य भाषण न करने वाला शम्बूक धार्मिक पुरुष था।  सत्य वाक्  होने के महत्व  को दर्शाने वाली एक कथा छान्दोग्य उपनिषद में इस प्रकार लिखी है – सत्यकाम जाबाल जब गौतम गोत्री हारिद्र मुनिके पास शिक्षार्थी होकर पहुंचा तो मुनि ने उसका गोत्र पूछा । उसने कहा कि में नहीं जनता मेरा गोत्र क्या है मेने अपनी माता से पूछा था ।  उन्होंने  उत्तर दिया था कि युवावस्था में अनेक व्यक्तियों की सेवा करती रही ।  उसी समय तेरा जन्म हुआ इसलिए में नहीं जानती कि तेरा गोत्र क्या है ।  मेरा नाम सतीकाम है।  इस पर मुनि ने कहा – जो ब्राह्मण न हो वह ऐसी सत्य बात नहीं कह सकता।  वह शुद्र और इस कारण मृत्युदंड का अपराधी कैसे हो सकता था ?

शम्बूक में आचरण सम्बन्धी कोई दोष नहीं बताया गया इसलिए वह द्विज ही था।  काठक संहिता में लिखा है – ब्राह्मण के विषय में यह क्यों पूछते हो कि उसके माता पिता कौन हैं यदि उसमें ज्ञान और तदनुसार आचरण है तो वे ही उसके बाप दादा हैं। करण ने सूतपुत्र होने के कारन स्वयंवर में अयोग्य ठहराए जाने पर कहा था कि जन्म देना तो ईश्वराधीन है परन्तु पुरुषार्थ के द्वारा कुछ बन जाना मनुष्य के अपने वश में है।

आयस्तम्ब सूत्र में कहा है –

धर्माचरण से न्रिकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है जिसके वह योग्य हो।  इसी प्रकार अधर्माचरण से पूर्व अर्थात उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे नीचे वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाता है।  मनुस्मृति में कहा है –

जो शूद्रकुल में उप्तन्न होक ब्राह्मण के गुण कर्म स्वभाववाला हो वह ब्राह्मण बन जाता है।  इसी प्रकार ब्राह्मण कुलोत्पन्न होकर भी जिसके गुण कर्म स्वभाव शुद्र के सदृश्य हों वह शुद्र हो जाता है  मनु १०/६५

चारों वेदों का विद्वान किन्तु चरित्रहीन ब्राह्मण शुद्र से न्रिकृष्ट होता है , अग्निहोत्र करने वाला जितेन्द्रिय ही ब्राह्मण कहलाता है ।  महाभारत – अनुगीता पर्व ९१/३७ )

ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शुद्र सभी तपस्या के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं ब्राह्मण और शुद्र का लक्षण करते हुए वन पर्व में कहा है – सत्य दान क्षमा शील अनुशंसता तप और दया जिसमे हों ब्राह्मण होता है और जिसमें ये न हों शुद्र कहलाता है।  १८०/२१-२६

इन प्रमाणो से स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था का आधार गुण कर्म स्वाभाव है जन्म नहीं और तपस्या करने  का अधिकार सबको प्राप्त है।

गीता में कहते हैं – ज्ञानी जन विद्या और विनय से भरपूर ब्राह्मण गौ हाथी कुत्ते और चंडाल सबको समान भाव से देखते अर्थात सबके प्रति एक जैसा व्यवहार करते हैं ।  गीता ५/१८

महर्षि वाल्मीकि को रामचन्द्र  जी का परिचय देते हुए नारद जी ने बताया – राम श्रेष्ठ सबके साथ सामान व्यवहार करने वाले और सदा प्रिय  दृष्टिवाले थे । तब वह तपस्या जैसे शुभकार्य में प्रवृत्त शम्बूक की शुद्र कुल में जन्म लेने के कारन हत्या कैसे कर सकते थे ? (बाल कांड १/१६ ) इतना ही नहीं श्री कृष्ण ने कहा ९/१२- ,मेरी शरण में आकर स्त्रियाँ  वैश्य शुद्र अन्यतः अन्त्यज आदि पापयोनि तक सभी परम गति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करत हें ।

इस श्लोक पर टिप्पणी करते हुये लोकमान्य तिलक स्वरचित गीता रहस्य में लिखत हैं “पाप योनि ” शब्द से वह जाती विवक्षित जिसे आजकल जरायस पेशा कहते हैं । इसका अर्थ यह है कि इस जाती के लोग भी भगवद भक्ति से सिध्दि प्राप्त करते हैं ।

पौराणिक लोग शबरी को निम्न जाती की स्त्री मानते हैं ।  तुलसी दास जी ने तो अपनी रामायण में यहाँ तक लिख दिया – श्वपच शबर खल यवन जड़ पामरकोलकिरात “. उसी शबरी के प्रसंग में वाल्मीकि जी ने लिखा है  – वह शबरी सिद्ध जनों से सम्मानित तपस्विनी थी | अरण्य ७४/१०

तब राम तपस्या करने के कारण शम्बूक को पापी तथा इस कारण प्राणदण्ड का अपराधी कैसे मान सकते थे ?

राम पर यह मिथ्या आऱोप महर्षि वाल्मीकि ने नहीं उत्तरकाण्ड की रचना करके वाल्मीकि रामायण में उसका प्रक्षेप करने वाले ने लगाया है ।

शायद मर्यादा पुरुषोत्तम के तथोक्त कुकृत्य से भ्रमित होकर ही आदि शंकराचार्य ने शूद्रों के लिए वेद के अध्यन श्रवणादि का निषेध करते हुए वेद मन्त्रों को श्रवण करने वाले शूद्रों के कानो में सीसा भरने पाठ करने वालों की जिव्हा काट डालने और स्मरण करने वालों के शरीर के टुकड़े कर देने का विधान किया ।  कालांतर में शंकर का अनुकरण करने वाले रामानुचार्य निम्बाकाचार्य आदि ने इस व्यवस्था का अनुमोदन किया ।  इन्ही से प्रेरणा पाकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में आदेश दिया –

पुजिये विप्र शीलगुणहीना, शुद्र न गुण गण ज्ञान प्रवीना।  अरण्य ४०/१

ढोर गंवार शुद्र पशु नारी , ये सब ताडन के अधिकारी।  लंका ६१/३

परन्तु यह इन आचार्यों की निकृष्ट अवैदिक विचारधारा का परिचायक है ।  आर्ष साहित्य में कहीं भी इस प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता ।  परन्तु इन अज्ञानियों के इन दुष्कृत्यों का ही यह परिणाम है कि करोड़ों आर्य स्वधर्म का परित्याग करके विधर्मियों की गोद में चले गए ।  स्वयं शंकर की जन्मभूमि कालड़ी में ही नहीं सम्पूर्ण केरल में बड़ी संख्या में हिन्दू लोग ईसाई और मुसलमान हो गये और अखिल भारतीय स्थर पर देश के विभाजन का कारन बन गए और यदि शम्बूक का तपस्या करना  पापकर्म था तो उसका फल = दण्ड  उसी को मिलना  चाहिए था ।  परन्तु यहाँ अपराध तो किया शम्बूक ने और उसके फल स्वरुप मृत्यु दण्ड  मिला ब्राह्मण पुत्र को और इकलौते बेटे की मृत्यु से उत्पन्न शोक में ग्रस्त हुआ उसका पिता।  वर्तमान में इस घटना के कारण राम पर शूद्रों पर अत्याचार करने और सीता वनवास के कारण स्त्री जाति पर ही नहीं, निर्दोषों के प्रति अन्याय करने के लांछन लगाये जा रहे हैं ।  कौन रहना चाहेगा ऐसे रामराज्य में ?

शबरी

Shabri

शबरी

लेखक- स्वामी विद्यानंद सरस्वती

लोकोक्ति है कि शबरी नामक भीलनी ने राम को अपने जूठे बेर खिलाये थे । इस विषय में अनेक कवियों ने बड़ी सरस और भावपूर्ण कवितायेँ भी लिख डालीं । परन्तु वाल्मीकि रामायण में न कोई भीलनी है और न बेर फिर बेरों के झूठे होने का तो प्रसंग ही नहीं उठता ।

सीता की खोज करते हुए जिस शबरी से रामचन्द्र जी की भेंट हुयी थी वह शबर जाति की न होकर शबरी नामक श्रमणी थी ७३/२६ ।  उसे ‘धर्म संस्थिता’ कहा गया है ७४/७ । राम ने भी उसे सिद्धासिद्ध और तपोधन कहते हुए सम्मानित किया  था  ७४/१० । सनातन धर्मी नेता स्वामी करपात्री के अनुसार शबरी का शबर जाती का होना और झूठे फल देना आदि प्रमाणिक न होकर प्रेम स्तुत्यर्थ है – मया तू संचितम्वन्यम (७४/१७) मैने आपके लिए विविध वन्य फल संचित किये हैं । यही वस्तु स्तिथि है । रामयण में इस प्रसंग में लिखा है – हे नर केसरी ! पम्पासर के तट पर पैदा होने वाले ये फल मेने आपके लिए संचित कर रक्खे हैं । अरण्य ७४/१७

पदम् पुराण में “स्वयमासाद्य” का अर्थ सभी ने यह किया है कि वह जिस पेड़ के फल तोड़ती थी उस पर के दो एक को चख कर देखती थीं कि वे ठीक हैं या नहीं । इस प्रकार खट्टे मीठे का परीक्षण करके वह मीठों  को अपनी टोकरी में डालती जाती थी और खट्टो को छोड़ती जाती थी । हमें बचपन में अनेक बार आम के बागों में जाकर इसी प्रकार परीक्षण कर करके आम खाने का अवसर मिला है । इस और ऐसे ही किसी अन्य अवतरण का यह अर्थ करना कि शबरी प्रत्येक फल को चख चख कर राम को खिलाती थी सर्वथा असंगत है ।

मनुस्मृति में स्पष्ट  लिखा है ” नोच्छिष्टंकस्यचिददद्यात” २/५६ ।  मनुस्मृति के टीकाकारो में सर्वाधिक प्रमाणिक कुल्लूक भट्ट ने इस पर अपनी टिप्प्णी में लिखा है – अनैन सामान्य निषेधेन ——————-. जब शास्त्र शुद्र को भी जूठा देने का निषेध करता है तो राम और लक्ष्मण जैसे प्रतिष्ठित अतिथियों को झूठाः खिलाने की कल्पना कैसे की जा सकती है ? जैसे किसी को अपना झूठा खिलाने का निषेध है वैसे  ही किसी का झूठाः खाना भी निषिद्ध है ।

विधि निषेध या धर्माधर्म के विषय में राम मनु स्मृति को ही प्रमाण मानते थे । बालि वध के प्रसंग में जब बाली की आपत्तियों का राम से अन्यथा उत्तर न बन पड़ा तो मनु की शरण ली और  कहा -सदाचार के प्रसंग में मनु ने दो श्लोक लिखे हैं ।  धर्मात्मा लोग उनके अनुसार आचरण करते हैं | मैंने  वही किया है | १८/३०-३१

इसलिए यदि शबरी ऐसी भूल कर बैठती तो निश्चय ही राम खाने से इंकार कर देते । अतः शबरी से सम्बंधित यह किवदंती प्रमाण एवं तर्क विरूध्द होने से मिथ्या है ।

अहल्योद्धार

ahilya

अहल्योद्धार

लेखक – स्वामी विद्यानंद सरस्वती

 

धुरिधरत निज सीस पैकहु रहीम केहि काज |

जेहिरज  मुनि पत्नी तरी तेहिढूँढत गजराज ||

कहते हें कि हाथी चलते चलते अपनी सूंड से मिट्टी उठाकर अपने शरीर पर डालता रहता है ।  वह ऐसा क्यों करता है ? रहीम के विचार में वह उस मिट्टी को खोज रहा है जिसका स्पर्श पाकर मुनि पत्नी का उद्धार हो गया था ।  इस दोहे में जिस घटना का संकेत है उसके अनुसार गौतम मुनि की पत्नी अहल्या अपने पति के शाप से पत्थर हो गयी थी और रामचंद्र जी के चरणों की घुलि का स्पर्श पाकर पुनः मानवी रूप में आ गयी थी ।

पौराणिक कथा के अनुसार – एक समय ब्रह्मा जी ने अपनी इच्छा से एक अत्यंत रूपवती  कन्या की सृष्टी की और उसका विवाह गौतम ऋषी से कर दिया ।  एक बार इंद्र गौतम मुनि का रूप धारण करके उनकी स्त्री अहल्या के पास गया और उससे सम्भोग करने लगा ।  उसी समय गौतम वहाँ आ गए इस पर अहल्या ने उस छदमवेषधारी इंद्रा को कुटिया में छिपा दिया ।  तब वह द्वार खोलने गई ।  मुनि ने द्वार खोलने में देरी का कारन पूछा तो अहल्या ने वास्तविकता को छिपा कर बात बना दी ।  परन्तु ऋषी ने अपने तपोबल से सब कुछ जानकर अहल्या को पत्थर बन जाने का शाप दे दिया और यह भी कह दिया कि त्रेता में जब भगवान् राम अवतार लेंगे तो उनके चरणों की धूलि से तेरा उद्धार होगा ।

मनुष्य से पत्थर और लाखों वर्ष बाद पत्थर से मनुष्य बन जाने की गोस्वामी तुलसीदास द्वारा प्रचारित इस कथा का आदि कवी की रचना में कोई उल्लेख नहीं है ।  वाल्मीकि रचित रामायण में अहल्या के प्रसंग में बालकाण्डसर्ग ४८ में इस प्रकार लिखा है ।

इंद्र ने गौतम का वेश  धारण कर और वैसा ही स्वर बनाकर  अहल्या से कहा – अर्थी ” रति की कामना करने वाले ” ऋतू काल की प्रतीक्षा नहीं करते।  इसलिए में तुम्हारा समागम चाहता हूँ ।  दुष्ट बुद्धी अहल्या ने मुनि वेशधारी इंद्र को पहचान कर भी कुतूहलवश उससे समागम किया ।  तत्पश्चात अहल्या ने संतुष्ट मन से इंद्र से कहा – हे इंद्र में संतुष्ट हूँ अब तुम यहाँ से शीघ्र चले जाओ ।  इस पर इंद्र हंसते हुए बोला – में भी संतुष्ट हूँ ।  यह कह कर कुटिया से बहार निकल गया ।  गौतम मुनि ने इंद्र को कुटिया से निकलते हुए देख लिया और अहल्या को श्राप देते हुए कहा ‘ तू यहाँ सहस्त्रों वर्ष तक निवास करेगी आहार रहित केवल वायु का भक्षण करने वाली भस्म में सोने वाली संतप्त और सबसे अदृश्य रहकर इस आश्रम में वास करेगी ।  इससे यह प्रतीत होता है यद्यपि इंद्र ने गौतम का रूप धारण करके छल किया अहल्या के साथ समागम उसने उसके (अहल्या के ) स्वेच्छापूर्वक समर्पण के बाद ही किया ।  अर्थात अहल्या ने यह कुकृत्य जानबूझकर किया ।  हो सकता है कि बाद में अहल्या को अपने इस कुकृत्य पर पश्चाताप हुआ हो और लज्जा के कारन समाज से दूर रह कर अपना जीवन व्यतीत करने लगी हो – न किसी से बोल चाल न ढंग से खाना पीना इत्यादि ।  यही उसका पत्थर हो जाना कहा गया हो ।

उधर इंद्र ने अपने कुकृत्य को “सुरकर्म” बताया है (४९/२)  | परन्तु वहीं श्लोक ६ से स्पष्ट होता है कि इंद्र ने यह कृत्य बिना सोचे समझे काम के वशीभूत होकर किया  था ।  जहाँ इन श्लोकों में इंद्र के अहल्या की इच्छा से समागम करने की बात कही गई है । वहाँ निम्न श्लोक में उसे बलात्कारी बताया गया है ।-

पहले विचार न करके मोह से मुनि पत्नी से बलात्कार करके  मुनि के शाप से उसी स्थान पर वृषण हीन  किया गया ।  इंद्र अब देवों पर क्रोध कर रहा है ।  ४९/६-७

पुनः सर्ग ५१ में गौतम के पुत्र शानंद का वक्तव्य भी दृष्टव्य है ।  उसने अपनी माता को ‘यशस्विनी  (श्लोक ५-६ ) बताया है ।  स्पष्ट है कि अहल्या ने इंद्र के साथ समागम अपनी इच्छा से नहीं किया था ।  इंद्र के छल से ही वह चाल चली  थी ।  आगे कहा है राम और लक्ष्मण ने उसके पैर छुए (४९/१९) यही नहीं अहल्या ने भी दोनों को अतिथि रूप में स्वीकार  किया और उनका स्वागत किया यदि अहल्या का चरित्र संदिग्ध होता तो क्या यह सब कुछ होता ?

इस समस्त वर्णन में अहल्या के शीला रूप होने और राम की चरण रज के स्पर्श से पुनः मानवी रूप में आने का कहीं संकेत तक नहीं है।  रामायण का प्रसिद्ध  टीकाकार गोविंदराज भी इस बात को नहीं मनाता ।  उन्होंने स्पष्ट लिखा है  वाल्मीकि को अहल्या का पाषाण रूप होना अभिमत नहीं है ।

अहल्या सम्बन्धी उस कथा को विश्वामित्र से सुनकर जब राम लक्ष्मण ने गौतम मुनि के आश्रम में प्रवेश किया तो उन्होंने अहल्या को जिस रूप में देखा उसका वर्णन वाल्मीकि ने इस प्रकार किया है – तप से दीप्तमान रूप वाली बादलों से मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान तथा प्रदीप्त अग्निशिखा और सूर्य के तेज के समान – क्या यह शिला  रूप अहल्या का वर्णन हो सकता है ? इतना ही नहीं शाप का अंत हुआ जानकर वह राम के दर्शनाथ आई।  शिलाभूत अहल्या के गमनार्थक “आई ” क्रिया पद का प्रयोग कैसे हो सकता था ? वस्तुतस्तु अहल्या अपने पति गौतम मुनि की भांति तपोनिष्ठ देवी थी |

ब्राह्मण ग्रंथों में इंद्र को ‘अहल्यायैजार’ कहा है ।  इसके रहस्य को न समझने के कारण लोगों ने मनमाने ढंग से कथा गढ़कर  अहल्या पर चरित्र दोष लगाया है ।  इस रहस्य को तंत्र वार्तिक के शिष्टाचार प्रकरण में शंका को पूर्ववर्ती भट्टाचार्य ने इस प्रकार स्पष्ट किया है – इंद्र का अर्थ है परम ऐश्वर्यवान वह कौन अहि ? सूर्य ।  अहल्या दो शब्दों से मिलकर बना है – अह और ल्या।  अह का अर्थ अहि दिन और ल्या  का अर्थ है छिपने वाली।  इस प्रकार दिन में छिपाने वाली या न रहने वाली को अहल्या कहते हैं ।  वह कौन है ? “रात्रि ” जार का अर्थ है जीर्ण करने वाला ।  रात्रि को जीर्ण  क्षीण करने वाला होने से सूर्य ही रात्रि अर्थात अहल्या का जार कहलाता है ।  इस प्रकार यह परस्त्री से व्यभिचार करने वाले किसी पुरुषविशेष (इंद्र ) का कोई प्रसंग नहीं है ।

लव कुश के जन्म की यथार्थ कहानी….

luv and kush

लव कुश के जन्म की यथार्थ कहानी….

 लेखक – स्वामी विद्यानंद जी सरस्वती

राम द्वारा अयोध्या यज्ञ में महर्षि वाल्मीकि  आये  उन्होंने अपने दो हष्ट पुष्ट शिष्यों से कहा – तुम दोनों भाई सब ओर  घूम फिर कर बड़े आनंदपूर्वक सम्पूर्ण रामायण का गान करो। यदि  श्री रघुनाथ  पूछें – बच्चो ! तुम दोनों किसके पुत्र हो तो महाराज से कह देना कि हम  दोनों भाई महर्षि वाल्मीकि के शिष्य हैं । ९३ /५

उन दोनों को देख सुन कर  लोग परस्पर कहने लगे – इन दोनों कुमारों की आकृति बिल्कुल रामचंद्र जी से मिलती है ये बिम्ब से प्रगट हुए प्रतिबिम्ब के सामान प्रतीत होते हैं ।  ९४/१४

यदि इनके सर पर जटाएं न होतीं और ये वल्कल वस्त्र न पहने होते तो हमें रामचन्द्र  जी में और गायन करने वाले इन कुमारों में कोई अंतर दिखाई नहीं देता।  ९४/१४

बीस सर्गों तक गायन सुनाने के बाद श्री राम ने अपने छोटे भाई भरत से दोनों भाइयों को १८ -१८ हजार मुद्राएं पुरस्कार रूप में देने को कह दिया। यह भी कह दिया कि और जो कुछ वे चाहें वह भी दे देना ।  पर दिए जाने पर भी दोनों भाइयों ने लेना स्वीकार नहीं किया । वे बोले – इस धन की क्या आवश्यकता है ? हम वनवासी हैं । जंगली फूल से निर्वाह करते हैं सोना चांदी लेकर क्या करेंगे । उनके ऐसा कहने पर श्रोताओं के मन में बड़ा कुतूहल हुआ । रामचंद्र जी सहित सभी श्रोता आश्चर्य चकित रह गए । रचयिता का नाम पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि हमारे गुरु वाल्मीकि जी ने सब रचना की है । उन्होंने आपके चरित्र को महाकाव्य रूप दिया है इसमें आपके जीवन की सब बातें आ गयी हैं ९४/१८ – २८

उस कथा से रामचंद्र जी को मालूम हुआ कि कुश और लव दोनों सीता के पुत्र हैं ।  कालिदास के दुष्यंत के मन में शकुंतला के पुत्र नन्हे भरत को देखते ही जिन भावों का उद्रेक हुआ था , क्या राम के मन में लव और कुश को देख – सुनकर कुछ वैसी ही प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए थी ? आदि कवि ऐसे मार्मिक प्रसंग को अछूता कैसे छोड़ देते । निश्चय ही यह समूचा प्रसंग सर्वथा कल्पित एवं प्रक्षिप्त है । यह जानकारी सभा के बीच बैठे हुए रामचन्द्र जी ने तो शुद्ध आचार विचार वाले दूतों को बुलाकर इतना ही कहा – तुम लोग भगवन वाल्मीकि के पास जाकर कहो कि यदि सीता का चरित्र शुध्द है और उनमें कोई पाप नहीं है तो वह महामुनि से अनुमति ले यहाँ जन समुदाय के सामने अपनी पवित्रता प्रमाणित करें।

इस प्रकरण के अनुसार रामचन्द्र  जी को यज्ञ में आये कुमारों के रामायण पाठ  से ही लव कुश के उनके अपने पुत्र होने का पता चला था । परन्तु इसी उत्तर काण्ड  के सर्ग ६५-६६ के अनुसार शत्रुघ्न को लव कुश के जन्म लेने का बहुत पहले पता था | सीता के प्रसव काल में शत्रुघ्न वाल्मीकि के आश्रय में उपस्थित थे । जिस रात को शत्रुघ्न ने महर्षि की पर्णशाला में प्रवेश किया था।  उसी रात सीता ने दो पुत्रों को जन्म दिया था । आधी रात के समय कुछ मुनि कुमारों ने वाल्मीकि जी के पास आकर बताया – “भगवन ! रामचन्द्र जी की पत्नी ने दो पुत्रों को जन्म दिया है । ” उन कुमारों की बात सुनकर महर्षि उस स्थान पर गए।  सीता जी के वे दोनों पुत्र बाल चन्द्रमा के सामान सुन्दर तथा देवकुमारों के सामान तेजस्वी थे।

आधी रात को शत्रुघ्न को सीता के दो पुत्रों के होने का संवाद मिला।  तब वे सीता की पर्णशाला में गए और बोले – माता जी यह बड़े सौभाग्य की बात है ” महात्मा शत्रुघ्न उस समय इतने प्रसन्न थे कि उनकी वह वर्षाकालीन सावन की रात बात की बात में बीत गई । सवेरा होने पर महापराक्रमी शत्रुघ्न हाथ जोड़ मुनि की आज्ञा लेकर पश्चिम दिशा की और चल दिए | 66/12-14

यह कैसे हो सकता है कि शत्रुघ्न ने वर्षों तक रामचंद्र जी को ही नहीं । सारे परिवार को सीता के पुत्रों के होने का शुभ समाचार न दिया हो । महर्षि वाल्मीकि का आश्रय भी अयोद्ध्या से कौन दूर था – उनका अयोध्या में आना जाना भी लगा रहता था । इसलिए यज्ञ के अवसर पर लव कुश के सार्वजानिक रूप से रामायण के गाये जाने के समय तक राम को अपने पुत्रों के पैदा होने का पता न चला हो, यह कैसे हो सकता है ? इससे उत्तरकाण्ड के प्रक्षिप्त होने के साथ साथ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वह किसी एक व्यक्ति की रचना भी नहीं है अन्यथा उसमें पूर्वापर विरोध न होता ।

प्रक्षिप्त उत्तरकाण्ड के अंतर्गत होने से लव कुश का राम की संतान होना भी संदिग्ध है । नारद द्वारा प्रस्तुत कथावस्तु के अनुसार ही वाल्मीकि कृत रामायण में उसका कोई उल्लेख नहीं है ।