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बड़ोदरा के आर्यनरेश द्वारा श्री अम्बेडकर को छात्रवृत्ति: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

पिताजी के देहावसान के बाद शोकाकुल अवस्था में श्री अम्बेडकर जब मुम्बई में ही थे, तब अकस्मात् बड़ोदरा के आर्यनरेश सयाजीराव गायकवाड़ का मुम्बई में आगमन हुआ। बड़ोदरा रियासत की ओर से उच्च शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति देकर चार विद्यार्थियों को अमेरिका भिजवाने का उनका विचार था। मुम्बई में जब अम्बेडकर बड़ोदरा नरेश से मिले तो, उन्होंने उक्त छात्रवृत्ति के अनुबन्ध-पत्र पर हस्ताक्षर किये। इस अनुबन्ध के अनुसार अमेरिका में अध्ययन पूर्ण होने के बाद बड़ोदरा रियासत में कम से कम दस वर्ष तक श्री अम्बेडकरजी को अनिवार्य रूप से नौकरी करनी थी।

पं0 आत्माराम और श्री अम्बेडकर की द्वितीय भेंट (1917)

बड़ोदरा नरेश ने उन्हें 15 जून 1913 से 14 जून 1916 तक के लिए विदेश जाकर उच्च अध्ययन प्राप्त करने हेतु छात्रवृत्ति प्रदान की थी। उक्त कालावधि समाप्त होने के बाद 1917 में डॉ0 अम्बेडकरजी जब पुनः बड़ोदरा रियासत में नौकरी करने पधारे तो सबसे पहले पं0 आत्मारामजी अमृतसरी के निवास स्थान पर ही पहुँचे। पं0 आत्मारामजी से हुई पहली मुलाकात के समय डॉ0 अम्बेडकर बी0 ए0 परीक्षा उत्तीर्ण लगभग 22 वर्ष के नवयुवक थे। चार वर्ष बाद अब जब वे पं0 आत्मारामजी से मिलने आये तो ’प्राचीन भारत का व्यापार‘ इस शोध-प्रबन्ध पर एम0 ए0 की उपाधि प्राप्त कर चुके थे। लंदन तथा वाशिंगटन (अमेरिका) के बन्धनमुक्त उदात्त, स्फूर्तिदायक, अधुनातन जीवन के अनुभव से भी वे समृद्ध हो चुके थे। सम्प्रति उनकी आयु लगभग 26 वर्ष थी।

बड़ोदरा आने से पूर्व श्री अम्बेडकरजी ने प्रशासन को अपनी नौकरी के साथ निवास-भोजनादि का प्रबन्ध करने के लिए लिखा था। प्रत्युत्तर में उन्हें त्वरित बड़ोदरा आकर अपनी सेवा शुरू करने का आग्रह किया गया था, पर निवास-भोजनादि की व्यवस्था के विषय में उसमें किसी प्रकार का उल्लेख नहीं था, अतः इससे पूर्व के आत्मीयता पूर्ण व्यवहार को ध्यान में रखते हुए डॉ0 अम्बेडकर जब बड़ोदरा आये तो सबसे पहले पं0 आत्माराम जी अमृतसरी के पास ही पहुंचे। उन्होंने ही अपने परिचय से डॉ0 अम्बेडकरजी की निवास, भोजन की व्यवस्था एक पारसी सज्जन के यहाँ पर करवा दी। इस समय पं0 आत्मारामजी के सुपुत्र श्री आनन्दप्रिय आगरा में बी0 ए0 कर रहे थे। उनके परिवार के अन्य सदस्य भी बड़ोदरा में नहीं थे। अकेले पं0 आत्मारामजी ही आर्यसमाज में रह रहे थे।

 

पं0 आत्माराम और डा0 अम्बेडकर का तृतीय सम्पर्क (1924)

पं0 आत्माराम और डॉ0 अम्बेडकर के सम्पर्क का तीसरा उल्लेख दूसरी मुलाकात के सात वर्ष बाद मिलता है। दूसरी मुलाकात सन् 1917 में हुई थी और तीसरा सम्पर्क प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष पत्र द्वारा सन् 1924 में स्थापित हुआ था। इस सम्पर्क का कारण डॉ0 अम्बेडकरजी द्वारा बड़ोदरा सरकार से अमेरिकी उच्च शिक्षा हेतु लिया हुआ कर्ज और उससे मुक्त होने की उनकी छटपटाहट था।

संकीर्ण मानसिकता ने अम्बेडकरजी की नौकरी छुड़ाई

बड़ोदरा प्रशासन के अनुबन्ध पर हस्ताक्षर करके श्री अम्बेडकरजी ने उच्च शिक्षा अध्ययन हेतु बीस हजार रुपये का ऋण लिया था। इस ऋण से बड़ोदरा प्रशासन में नौकरी करके उऋण होने की बात तय हुई थी। निश्चयानुसार डॉ0 अम्बेडकर नौकरी करने के लिए बड़ोदरा भी आ चुके थे, पर इस समय बड़ोदरा का कोई भी भोजनालय दलित होने के कारण उन्हें भोजन देने के लिए तैयार न था। जिस पारसी सज्जन के पास उनके निवास-भोजनादि की व्यवस्था की गई थी, वहाँ से भी उन्हें रूढ़िवादियों ने जबरदस्ती निकाल दिया था। उन दिनों शहर में प्लेग की बीमारी भी फैली हुई थी। ऐसी स्थिति में शहर का कोई भी व्यक्ति उन्हें जगह देने को तैयार नहीं था। विशेष कठिनाई भोजन की कोई सुविधा न होने के कारण थी। अन्त में भूख-प्यास से व्याकुल डॉ0 अम्बेडकरजी एक पेड़ के नीचे बैठकर बिलख-बिलखकर रो पड़े। एक उच्च शिक्षा विभूषित व्यक्ति को केवल इसलिए नकारा जा रहा था कि वह जन्म से दलित हैं। बड़ोदरा नरेश तो उन्हें अर्थमन्त्री बनाना चाह रहे थे, परन्तु इस क्षेत्र का उन्हें कोई अनुभव न होने के कारण सेना में सचिव के रूप में उनकी नियुक्ति की गई थी। सेना का सचिव पद भी एक प्रतिष्ठित पद था। इस नियुक्ति से भी उच्चवर्गीय व्यक्ति भीतर ही भीतर कुढे हुए थे। केवल दलित होने के कारण ’विद्वान् सर्वत्र पूज्यते‘ की बात खटाई में पड़ रही थी। इनके अधीनस्थ कर्मचारी भी जब उन्हें फाइल देते तो दूर से फेंककर देते थे। कार्यालय में रखा पानी भी वे नहीं पी सकते थे। परिणामतः ऐसी असह्म अपमानजनक स्थिति में बड़ोदरा प्रशासन की नौकरी छोड़कर उन्हें मुम्बई वापस लौट जाने के लिए विवश होना पड़ा।

 

छत्रपति शाहू महाराज की अम्बेडकरजी पर छत्रछाया

सन् 1917 से 1924 तक की कालावधि में डॉ0 अम्बेडकर विद्याध्ययन के अतिरिक्त विविध सार्वजनिक कार्यों में भी तल्लीन रहे। सन् 1923 में जब वे लन्दन में विद्याध्ययन कर रहे थे, तब उन्होंने कोल्हापुर नरेश शाहू महाराज से दो सौ पौंड का आर्थिक सहयोग देने का अनुरोध किया था। लन्दन में रहते हुए उन्होंने ’एम0 एस0 सी0‘ ’बैरिस्टर‘, ’पी0 एच0 डी0‘ और ’डी0 एस0 सी0‘ की उपाधियाँ प्राप्त कीं। 1923 से पूर्व श्री शाहू महाराज श्री अम्बेडकरजी को विद्याध्ययन हेतु डेढ़ हजार रुपये की सहायता दे चुके थे। नागपुर (1917) व कोल्हापुर (21 मार्च 1920) में सम्पन्न दलित परिषदों की अध्यक्षता भी राजर्षि शाहू महाराज ने की थी। इन दोनों परिषदों में श्री अम्बेडकर जी भी उपस्थित थे। इसी कालावधि में श्री अम्बेडकर और शाहू महाराज की सर्वप्रथम भेंट कहीं न कहीं हुई होगी। 31 जनवरी, 1920 को अम्बेडकरजी द्वारा शुरु किये गये साप्ताहिक ’मूकनायक‘ पत्र को शाहू महाराज ने एक हजार रुपये का दान दिया था। सितम्बर 1920 में विद्याध्ययन के लिए श्री अम्बेडकर लन्दर गये थे। इससे पूर्व वे ’बहिष्कृत समाज परिषद‘, ’अस्पृश्य समाज परिषद‘, बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना और संचालन कर चुके थे। बहिष्कृत समाज परिषद की स्थापना तो उन्होंने मई 1920 में नागपुर में ही की थी।

बाबासाहब अम्बेडकर का आर्यसमाज बड़ोदरा में निवास (1913): डॉ कुशलदेव शाश्त्री

श्री भीमराव अम्बेडकर ने सन् 1907 में मैट्रिक और 1912 में पर्शियन और अंग्रेजी विषय लेकर बी0 ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी दौरान पं0 आत्मारामजी सन् 1908 से 1917 तक बड़ोदरा रियासत में दलितोद्धार का कार्य कर रहे थे। इसी कालावधि में बी0 ए0 उत्तीर्ण होने के उपरान्त सन् 1913 में श्री भीमराव अम्बेडकर बड़ोदरा आये और वहाँ की दलित बस्ती में रहने लगे। इस घटना का वर्णन करते हुए डॉ0 अम्बेडकरजी के चरित्र लेखक श्री चांगदेव भवानराव खैरमोडे ने लिखा है –

  ”भीमराव बड़ोदरा में 23 जनवरी 1913 के आस-पास पधारे थे। वहाँ प्रशासन की ओर से उनके निवास और भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाई थी, अतः वे सबसे पहले वहाँ की दलित बस्ती (महारवाड़े) में दो-तीन दिन रहे। वह जगह हर प्रकार से असुविधाजनक थी। वहीं पर उनका पं0 आत्मारामजी से परिचय हुआ। पण्डितजी पंजाबी आर्यसमाजी थे, वे बड़ोदरा रियासत की दलितों की पाठशाला के इन्स्पैक्टर थे। वे ही भीमराव को अपने साथ आर्यसमाज के कार्यालय में ले गये। जब तक अन्यत्र कहीं व्यवस्था नहीं होती, तब तक भीमराव ने वहीं रहने का निश्चय किया। वह जगह श्री भीमराव को जिस कार्यालय में काम करना था, वहाँ से डेढ़ मील की दूरी पर थी।“

इस अवसर पर श्री अम्बेडकर एक सप्ताह से भी कुछ अधिक समय तक आर्यसमाज बड़ोदरा में आर्यविद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी के साथ रहे।

भीमरावजी को बड़ोदरा नरेश की सेना में लैफ्टिनेन्ट पद पर नियुक्त किया गया था, परन्तु सन् 1913 की इस यात्रा में श्री अम्बेडकर अधिकतम दो सप्ताह ही बड़ोदरा में रह पाये। एक दिन उन्हें मुम्बई से तार मिला कि पिताजी बहुत बीमार हैं। जब वे मुम्बई पहुँचे तो पिताजी अन्तिम सांसें गिन रहे थे। छह वर्ष की आयु में उनकी माताजी का देहान्त हो चुका था, तो अब 21 वर्ष 9 महीने की अवस्था में पिताजी की छत्र छाया भी उनके ऊपर से उठ गई।

मास्टर आत्माराम अमृतसरी और डॉ0 अम्बेडकर : डॉ कुशलदेव शाश्त्री

बात अंग्रेजों के शासनकाल की है। डॉ0 अम्बेडकरजी (1891-1956) दलितों के नेता के रूप में उभर चुके थे। दलितों के पृथक् निर्वाचन क्षेत्र की भी उन्होंने माँग की थी। इस माँग के विरोध में 20 सितम्बर, 1932 को महात्मा गान्धीजी ने आमरण अनशन किया था। अनशन विषयक इस प्रसंग का विश्लेषण करते हुए पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने लिखा था कि-‘ डॉ0 अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी। (जीवन चक्र प्रकाशक-कला प्रेस इलाहाबाद, संस्करण-1954)। पर उपाध्यायजी ने वहाँ उन घटना-प्रसंगों या काल का उल्लेख नहीं किया है, जिससे इस जिज्ञासा की तृप्ति हो कि ’बाबासाहब अम्बेडकर जीवन में पहली बार कब और कैसे आर्यसमाज के सम्पर्क में आये ?‘

लगभग पन्द्रह साल तक डॉ0 अम्बेडकर के सम्पर्क में रहने वाले श्री चांगदेव भवानराव खैरमोडे ने सन् 1952 में डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का चरित्र लिखा था। उस चरित्र का अध्ययन करते समय पता चला कि सर्वप्रथम सन् 1913 में बड़ोदरा निवास-काल में डॉ0 अम्बेडकर आर्य विद्वान पं0 आत्मारामजी अमृतसरी और आर्यसमाज बड़ोदरा के सम्पर्क में आये थे।

पं0 आत्मारामजी (1866-1938) मूलतः अमृतसर के निवासी थे। आर्य विद्वान् पं0 गुरुदत्तजी विद्यार्थी की प्रेरणा से उन्होंने अंग्रेज सरकार की नौकरी न करने का संकल्प किया था। सन् 1811 में उन्होंने दयानन्द हाईस्कूल लाहौर में अध्यापन किया और उसी समय वे पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा, लाहौर के उपमन्त्री (1894) भी बने। सन् 1897 में हुतात्मा पं0 लेखरामजी का बलिदान हो जाने के पश्चात् पं0 आत्मारामजी ने उनके द्वारा पूरे भारवर्ष में घूमकर संकलित की गई स्वामी दयानन्द विषयक जीवन सामग्री को सूत्रबद्ध कर एक बृहद् ग्रन्थ का रूप प्रदान किया। तथाकथित शूद्रों को वैदिकधर्मी बनाकर भरी सभा में उनके कर-कमलों से उन्होंने अन्न और जल भी ग्रहण किया था। समय-समय पर उन्होंने पौराणिकों और मौलवियों से शास्त्रार्थ भी किए थे। (आर्यसमाज का इतिहास: सत्यकेतु विद्यालंकार)। बड़ोदरा राज्य की ओर से न्याय विभाग के लिए विविध भाषाओं में कोश बनाये गये थे। उसके हिन्दी विभाग की जिम्मेदारी आपको ही सौंपी गई थी। यह ग्रन्थ ’श्री सयाजी शासन कल्पतरु‘ के नाम से प्रकाशित हुआ था। (डॉ0 बाबासाहेब अम्बेडकर: डॉ0 सूर्यनारायण रणसुभे: राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली संस्करण/1992)। मौलिक और अनूदित कुल मिलाकर उन्होंने लगभग बीस ग्रन्थ लिखे थे।

जब दलितों को विधर्मी बनते देख बड़ोदरा नरेश ने अपनी रियासत में दलितोद्धार के कार्य को प्रभावशाली बनाने का संकल्प किया, तब उन्होंने स्वामी दयानन्द के शिष्य आर्य सन्यासी स्वामी नित्यानन्द ब्रह्मचारी (1860-1914) से ऐसे व्यक्ति की माँग की जो उच्चवर्णीय होते हुए भी दलितों में ईमानदारी से कार्य कर सके, तो उस समय स्वामी नित्यानन्द जी ने मास्टर आत्माराम जी से अनुरोध किया। तदनुसार पं0 आत्मारामजी ने सन् 1908 से 1917 तक बड़ोदरा रियासत में और तत्पश्चात् कोल्हापुर रियासत में दलितोद्धार का कार्य किया। दलितों में उनके द्वारा किये गये कार्य की महात्मा गाँधी, कर्मवीर विट्ठल रामजी शिंदे, श्री जुगल किशोर बिड़ला, इन्दौर नरेश तुकोजीराव होल्कर आदि ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। (आदर्श दम्पत्ति: सुश्री सुशीला पण्डिता)।

बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ को दलितोद्धार के कार्य में सफलता उस समय से प्राप्त हुई जब उन्होंने पं0 आत्मारामजी को अपनी रियासत के छात्रावासों का अध्यक्ष और पाठशालाओं का निरीक्षक नियुक्त किया था। बड़ोदरा रियासत में शूद्रातिशूद्रों के लिए जो सैकड़ों पाठशालाएँ स्थापित की गई थीं, उनमें लगभग बीस हजार बालक बालिकाओं ने शिक्षा ग्रहण की थी। बड़ोदरा में उन्होंने आर्य कन्या महाविद्यालय की भी स्थापना की थी।

कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू महाराज जब बड़ोदरा पधारे तो पं0 आत्मारामजी के कार्यों से बहुत ही प्रभावित हुए और उन्हें शीघ्र ही कोल्हापुर आने का निमन्त्रण दे गये। 1918 में जब पं0 आत्माराम कोल्हापुर पधारे तो शाहू महाराज ने उन्हें अपना मित्र ही नहीं, अपितु धर्मगुरु भी माना और अपनी रियासत को आर्यधर्मी बनाने के लिए उनके कर-कमलों से जनवरी 1918 में आर्यसमाज की स्थापना की। कोल्हापुर की राजाराम महाविद्यालय आदि शिक्षण संस्थाओं को भी उन्होंने संचालन हेतु आर्य संस्थाओं को सौंप दिया। इस प्रकार गुजरात की बड़ोदरा और महाराष्ट्र की कोल्हापुर रियासत के माध्यम से पं0 आत्माराम जी ने सामाजिक और शैक्षिक क्षेत्र में कार्य करते हुए दलितोद्धार की दृष्टि से उल्लेखनीय भूमिका निभायी थी।

मास्टर आत्माराम अमृतसरी और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

बात अंग्रेजों के शासनकाल की है। डॉ0 अम्बेडकरजी (1891-1956) दलितों के नेता के रूप में उभर चुके थे। दलितों के पृथक् निर्वाचन क्षेत्र की भी उन्होंने माँग की थी। इस माँग के विरोध में 20 सितम्बर, 1932 को महात्मा गान्धीजी ने आमरण अनशन किया था। अनशन विषयक इस प्रसंग का विश्लेषण करते हुए पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने लिखा था कि-‘ डॉ0 अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी। (जीवन चक्र प्रकाशक-कला प्रेस इलाहाबाद, संस्करण-1954)। पर उपाध्यायजी ने वहाँ उन घटना-प्रसंगों या काल का उल्लेख नहीं किया है, जिससे इस जिज्ञासा की तृप्ति हो कि ’बाबासाहब अम्बेडकर जीवन में पहली बार कब और कैसे आर्यसमाज के सम्पर्क में आये ?‘

लगभग पन्द्रह साल तक डॉ0 अम्बेडकर के सम्पर्क में रहने वाले श्री चांगदेव भवानराव खैरमोडे ने सन् 1952 में डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का चरित्र लिखा था। उस चरित्र का अध्ययन करते समय पता चला कि सर्वप्रथम सन् 1913 में बड़ोदरा निवास-काल में डॉ0 अम्बेडकर आर्य विद्वान पं0 आत्मारामजी अमृतसरी और आर्यसमाज बड़ोदरा के सम्पर्क में आये थे।

पं0 आत्मारामजी (1866-1938) मूलतः अमृतसर के निवासी थे। आर्य विद्वान् पं0 गुरुदत्तजी विद्यार्थी की प्रेरणा से उन्होंने अंग्रेज सरकार की नौकरी न करने का संकल्प किया था। सन् 1811 में उन्होंने दयानन्द हाईस्कूल लाहौर में अध्यापन किया और उसी समय वे पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा, लाहौर के उपमन्त्री (1894) भी बने। सन् 1897 में हुतात्मा पं0 लेखरामजी का बलिदान हो जाने के पश्चात् पं0 आत्मारामजी ने उनके द्वारा पूरे भारवर्ष में घूमकर संकलित की गई स्वामी दयानन्द विषयक जीवन सामग्री को सूत्रबद्ध कर एक बृहद् ग्रन्थ का रूप प्रदान किया। तथाकथित शूद्रों को वैदिकधर्मी बनाकर भरी सभा में उनके कर-कमलों से उन्होंने अन्न और जल भी ग्रहण किया था। समय-समय पर उन्होंने पौराणिकों और मौलवियों से शास्त्रार्थ भी किए थे। (आर्यसमाज का इतिहास: सत्यकेतु विद्यालंकार)। बड़ोदरा राज्य की ओर से न्याय विभाग के लिए विविध भाषाओं में कोश बनाये गये थे। उसके हिन्दी विभाग की जिम्मेदारी आपको ही सौंपी गई थी। यह ग्रन्थ ’श्री सयाजी शासन कल्पतरु‘ के नाम से प्रकाशित हुआ था। (डॉ0 बाबासाहेब अम्बेडकर: डॉ0 सूर्यनारायण रणसुभे: राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली संस्करण/1992)। मौलिक और अनूदित कुल मिलाकर उन्होंने लगभग बीस ग्रन्थ लिखे थे।

   जब दलितों को विधर्मी बनते देख बड़ोदरा नरेश ने अपनी रियासत में दलितोद्धार के कार्य को प्रभावशाली बनाने का संकल्प किया, तब उन्होंने स्वामी दयानन्द के शिष्य आर्य सन्यासी स्वामी नित्यानन्द ब्रह्मचारी (1860-1914) से ऐसे व्यक्ति की माँग की जो उच्चवर्णीय होते हुए भी दलितों में ईमानदारी से कार्य कर सके, तो उस समय स्वामी नित्यानन्द जी ने मास्टर आत्माराम जी से अनुरोध किया। तदनुसार पं0 आत्मारामजी ने सन् 1908 से 1917 तक बड़ोदरा रियासत में और तत्पश्चात् कोल्हापुर रियासत में दलितोद्धार का कार्य किया। दलितों में उनके द्वारा किये गये कार्य की महात्मा गाँधी, कर्मवीर विट्ठल रामजी शिंदे, श्री जुगल किशोर बिड़ला, इन्दौर नरेश तुकोजीराव होल्कर आदि ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। (आदर्श दम्पत्ति: सुश्री सुशीला पण्डिता)।

बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ को दलितोद्धार के कार्य में सफलता उस समय से प्राप्त हुई जब उन्होंने पं0 आत्मारामजी को अपनी रियासत के छात्रावासों का अध्यक्ष और पाठशालाओं का निरीक्षक नियुक्त किया था। बड़ोदरा रियासत में शूद्रातिशूद्रों के लिए जो सैकड़ों पाठशालाएँ स्थापित की गई थीं, उनमें लगभग बीस हजार बालक बालिकाओं ने शिक्षा ग्रहण की थी। बड़ोदरा में उन्होंने आर्य कन्या महाविद्यालय की भी स्थापना की थी।

कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू महाराज जब बड़ोदरा पधारे तो पं0 आत्मारामजी के कार्यों से बहुत ही प्रभावित हुए और उन्हें शीघ्र ही कोल्हापुर आने का निमन्त्रण दे गये। 1918 में जब पं0 आत्माराम कोल्हापुर पधारे तो शाहू महाराज ने उन्हें अपना मित्र ही नहीं, अपितु धर्मगुरु भी माना और अपनी रियासत को आर्यधर्मी बनाने के लिए उनके कर-कमलों से जनवरी 1918 में आर्यसमाज की स्थापना की। कोल्हापुर की राजाराम महाविद्यालय आदि शिक्षण संस्थाओं को भी उन्होंने संचालन हेतु आर्य संस्थाओं को सौंप दिया। इस प्रकार गुजरात की बड़ोदरा और महाराष्ट्र की कोल्हापुर रियासत के माध्यम से पं0 आत्माराम जी ने सामाजिक और शैक्षिक क्षेत्र में कार्य करते हुए दलितोद्धार की दृष्टि से उल्लेखनीय भूमिका निभायी थी।

 

लाला लाजपतराय और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी का मराठी में बृहद् जीवन चरित्र लिखने वाले डॉ0 चांगदेव भवानराव खैरमोडे के मतानुसार राष्ट्रीय नेताओं में लाला लाजपतराय डॉ0 अम्बेडकरजी को अपने बहुत नजदीक प्रतीत होते थे। उनकी दृष्टि में तिलक, गोखले और गान्धी अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण थे, पर वे उन्हें उतने नजदीक के महसूस नहीं होते थे, जितने कि लाला लाजपतराय। इसका एक कारण यह था कि लालाजी और अम्बेडकरजी का सन् 1913 से 1916 की कालावधि में अमरीका निवासकाल में घनिष्ठ सम्बन्ध आ चुका था तथा उन्हें इस बात का विश्वास हो चुका था कि लालाजी जैसे राजनीति में गरम दल से सम्बद्ध हैं, वैसे ही धार्मिक और समाज-सुधार के क्षेत्र में भी कट्टर क्रियाशील सुधारक हैं। सन् 1914 में लालाजी ने अपना अधिकांश समय कोलंबिया विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में बिताया था। तब उन्हें अपने सामने की मेज पर उनसे भी पहले आकर बैठा और उनके बाद ग्रंथालय से बाहर जानेवाला एक भारतीय विद्यार्थी दिखलाई दिया। उन्होंने जब उत्सुकतावश स्वयं उसका परिचय प्राप्त किया, तब उन्हें यह पता चला कि वह विद्यार्थी भीमराव अम्बेडकर था। उसका परिचय पाकर तथा उसके गहन ज्ञान को देखकर उन्हें अतिशय आनन्द हुआ था।

खैरमोडेजी ने अपने चरित्र ग्रन्थ में अम्बेडकरजी द्वारा लिखा-‘स्वर्गीय लाला लाजपतराय‘ लेख उद्धृत करने से पूर्व इस श्रद्धांजलि परक लेख लिखने से पहले डॉ0 अम्बेडकरजी की जो मनोदशा थी उसका वर्णन करने हुए लिखा है कि-

लाला लाजपतराय जी (1865-1928) की मृत्यु का समाचार सुनकर डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर अत्यन्त ही व्यथित हो गये। (स्वामी श्रद्धानन्द के बलिदान को छोड़कर अन्य) किसी भी राष्ट्रीय नेता की मृत्यु से पूर्व और पश्चात् वे इतने व्यथित नहीं हुए थे। उसी रात उन्होंने ’बहिष्कृत भारत सभा‘ की ओर से सार्वजनिक शोक सभा का आयोजन किया था। उसमें लालाजी पर भाषण करते समय उनकी आँखों से आँसू टपक रहे थे। उन्होंने अपने समस्त सार्वजनिक जीवन में किसी भी राष्ट्रीय नेता की मृत्यु के बाद शोक सभा का आयोजन नहीं किया था और न ही श्रद्धांजलि परक शोक सभा में भाषण दिया था। नत्थूराम गोड़से की तीन गोलियों से दि0 30-1-1948 को महात्माजी का खून हुआ, तब भी डॉ0 बाबासाहब गान्धीजी के विषय में या उनकी मृत्यु के विषय में एक शब्द भी नहीं बोले थे।”

लालाजी के बलिदान पर डॉ0 बाबासाहबजी ने जो श्रद्धांजलि लिखित रूप में अभिव्यक्त की थी, उसे इसी पुस्तक के परिशिष्ट चार में यथावत् अविकल रूप से दिया गया है

स्वामी श्रद्धानन्द और डॉ0 अम्बेडकर : डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

जातिनिर्मूलन और दलितोद्धार के सन्दर्भ में आर्यसमाज के प्रामाणिकतापूर्ण ठोस-क्रियाकलापों से डॉ0 अम्बेडकर अत्यन्त ही प्रभावित थे। स्वामी दयानन्द के अनुयायी गुरुकुल कांगड़ी के संस्थापक स्वामी श्रद्धानन्द (1856-1926) के सन्दर्भ में वे अपनी रचना ’व्हासॉट कांग्रेस एण्ड गाँधी हैव डन टू दि अन्टचेबल्स‘ में लिखते हैं कि ’स्वामी श्रद्धानन्द दलितों के सर्वश्रेष्ठ सहायक और समर्थक थे।‘ अस्पृश्यता-निवारण से सम्बन्धित (कांग्रेस की) समिति में रहकर यदि उन्हें स्थिरता से काम करने का अवसर मिल पाता तो निःसन्देह एक बहुत बड़ी योजना आज हमारे सामने विद्यमान होती।“

स्वामी श्रद्धानन्दजी के निधन का समाचार पाकर डॉ0 अम्बेडकर जी की उपस्थिति में जो शोक प्रस्ताव पारित हुआ, उसकी शब्दावली इस प्रकार है-”स्वामी श्रद्धानन्दजी की अमानवीय हत्या का समाचार पाकर इस सभा को (अर्थात्-बहिष्कृत वर्ग, कुलाबा जिला परिषद्, प्रथम अधिवेशन, 19-20 मार्च 1927 को) अतिशय दुःख हुआ है। हमारा यह अनुरोध है कि उनके द्वारा बनाई गई योजना के अनुसार हिन्दू जाति अस्पृश्यता का निर्मूलन करे।“

जात-पाँत तोड़क मण्डल का आर्यसमाज से आत्मीय सम्बन्ध: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

शायद बहुत ही कम लोगों को यह मालूम हो कि आर्यसमाज के जो प्रमुख कार्यकत्र्ता थे, वे जातपाँत तोड़क मण्डल के भी कार्यकत्र्ता थे। वैधानिक दृष्टि से हमारे कुछेक मित्रों का यह कथन ठीक है कि जात-पाँत तोड़क मण्डल एक स्वतन्त्र संस्था है और उसका आर्यसमाज से कोई सम्बन्ध नहीं है। पर गहराई से देखा जाए तो जात-पाँत तोड़क मण्डल और आर्यसमाज का अविभाज्य सा आत्मीय सम्बन्ध था। इस मण्डल के अधिकांश सभासद वैदिक मतावलम्बी थे।

मण्डल के संस्थापक सन्तराम बी0 ए0 (1887-1988) स्वामी दयानन्द की लकीर के फकीर या पूर्णतः दयानन्द के अनुयायी न भी हों, पर दयानन्द के व्यक्तित्व और कृतित्त्व के ˗प्रति वे नतमस्तक थे। सन् 1971-72 में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में संतराम बी0 ए0 लिखित स्वामी दयानन्द नामक एक प्रदीर्घ चरित्र लेख पढ़ाया जाता था। संतराम बी0 ए0 के लिए अपने ’मण्डल के बाद सबसे निकटतम और आत्मीय अगर कोई संस्था थी, तो वह आर्यसमाज थी।‘

श्री संतराम बी0 ए0 की ओर से डॉ0 अम्बेडकर के साथ जो 27.3.1937 को पत्र व्यवहार हुआ, उसमें डॉ0 अम्बेडकर के अध्यक्षीय भाषण पर तीव्र असन्तोष करने वाले जो चार या पाँच व्यक्तियों के नाम दिये गये हैं, उनमें क्रमशः प्रथम तीन व्यक्ति तो मेरी जानकारी के अनुसार सुप्रसिद्ध अखिल भारतीय आर्यसमाजी नेता हैं। जिनके नाम हैं-भाई परमानन्द (1876-1947), महात्मा हंसराज (1864-1938) और डॉ0 गोकुलचन्द नारंग एम0 ए0, पी0 एच0 डी0, डी0 लिट् (1878-1969)।

भाई परमानन्द बचपन में ही आर्यसमाजी बन गये थे, लाहौर के दयानन्द हाईस्कूल व कॉलेज के वे स्नातक थे। दयानन्द कॉलेज लाहौर में आप प्राध्यापक भी रहे और दयानन्द एँग्लो वैदिक (डी0 ए0 वी0) शिक्षण संस्था के आदेश पर आप प्रचारक के रूप में विदेश गये और आर्यसमाज का प्रचार-प्रसार किया ये वे ही भाई परमानन्द हैं, जिन्हें आजन्म काले पानी की सजा हुई थी। जो सरदार भगत सिंह के दादापिता के आत्मीय सखास्नेही थे, तथा लाहौर के राष्ट्रीय महाविद्यालय में सुखदेवभगतसिंह आदि क्रान्तिकारियों के प्राध्यापक थे।

दूसरा नाम है महात्मा हंसराज का, जो दयानन्द कॉलेज (डी0 ए0 वी0) लाहौर के प्राचार्य थे और जिन्होंने किसी प्रकार का पारिश्रमिक न लेते हुए 26 वर्ष (1886-1912) तक उक्त शिक्षण संस्था की सेवा की थी और जीवन के 26 वर्ष आर्यसमाजी आन्दोलन के लिए समर्पित किये थे।

तीसरे महानुभाव डॉ0 गोकुलचन्द नारंग भी भाई परमानन्द के शिष्य और डी0 ए0 वी0 शिक्षण संस्था के विद्यार्थी थे। आप स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा स्थापित ’भारतीय शुद्धि सभा‘ (1923) की कार्यकारिणी के सभासद थे। पं0 इन्द्र विद्यावाचस्पति लिखित ’आर्यसमाज का इतिहास‘ का आपने प्राक्कथन लिखा है। इन्द्रजी ने इन्हें

आर्यजाति का ज्ञानवृद्ध-वयोवृद्ध नेता कहा है। आप डी0 ए0 वी0 कॉलेज लाहौर और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भी प्राध्यापक रहे।

20 फरवरी 1925 में मुम्बई के डॉ0 कल्याणदास देसाई की अध्यक्षता में जातपाँत तोड़क मण्डल का जो वार्षिक अधिवेशन हुआ था। उस अधिवेशन को सम्बोधित करने वाले अधिकांश व्यक्ति आर्यसमाजी ही थे। जिनमें स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 घासीराम (1873-1934), स्वामी मुनीश्वरानन्द, स्वामी सत्यदेव आदि उल्लेखनीय हैं। इस अधिवेशन में जो प्रस्ताव पास हुआ था, उससे भी इस मण्डल पर आर्यसमाज की छाप या प्रभुत्व की बात स्पष्ट होती है, प्रस्ताव निम्न प्रकार है

”इस मण्डल की सम्मति में आजकल जो वर्ण-व्यवस्था प्रचलित है, वह बुरी है, इसलिए आवश्यक है कि खान-पान और विवाह विषयक बन्धनों को उठा दिया जाए, इसलिए यह मण्डल प्रत्येक आर्य युवक-युवती को प्रेरणा देता है कि विवाह आदि के कार्यों में जो मौजूदा बन्धन है, उन्हें जान-बूझकर तोड़ें और जात-पाँत के बाहर विवाह करें।“

 

आर्यसमाज और जात-पाँत तोड़क मण्डल के आपसी सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए डॉ0 सत्यकेतु विद्यालंकार लिखते हैं-’बीसवीं सदी के प्रथम चरण (सन् 1921) में लाहौर में जात-पाँत तोड़क मण्डल की स्थापना हुई, जिसके ˗प्रमुख नेता सन्तराम बी0 ए0 थे। यद्यपि यह मण्डल आर्यसमाज के संगठन के अन्तर्गत नहीं था, पर इसका संचालन आर्यसमाजियों द्वारा ही किया जा रहा था। यह मण्डल जातपाँत तोड़कर विवाह सम्बन्ध स्थापित करने के लिए आन्दोलन करता था।

स्पष्ट है कि आर्यसमाज और जात-पाँत तोड़क मण्डल वैधानिक दृष्टि से दो स्वतन्त्र संस्थाएँ होते हुए भी विचारधारा की दृष्टि से जात-पाँत तोड़क मण्डल आर्यसमाज का ही पर्यायवाची या एक पोषक भाग था। आर्यसमाज ने अपने प्रारम्भिक काल से ही जातिनिर्मूलन और दलितोद्धार में विशेष दिलचस्पी ली थी। डॉ0 अम्बेडकर भी अपने ढंग विशेष से इन अभियानों में विशेष अभिरुचि रखते थे। इन कार्यक्रमों के सन्दर्भ में विचार साम्य होने के कारण ही जात-पाँत तोड़क मण्डल के माध्यम से श्री संतराम जी बी0 ए0 ने डॉ0 अम्बेडकरजी को ’मण्डल‘ के वार्षिक अधिवेशन (1936) की अध्यक्षता के लिए आमन्त्रित किया था। लेकिन ने जाने वे कौन से कारण रहे कि तत्कालीन कतिपय आर्यसमाजी डॉ0 अम्बेडकरजी के विचारों को यथावत् सुनने की सहनशीलता का भी परिचय नहीं दे सके। काश यदि वे डॉ0 अम्बेडकरजी के विचारों को धीरज से सुन लेते। मतभेदों के बावजूद अपनी आग्रही भूमिका को एक ओर रखकर उदारमतवादियों के लिए खुलकर चर्चा करने का वातावरण बनाना जरूरी होता है, पर तत्कालीन आर्यसमाजी उस प्रकार की खुली चर्चा का वातावरण बनाने में असमर्थ रहे। यदि वे समर्थ होते तो, आज उन्हें कमसेकम इस बात का तो श्रेय मिलता कि डॉ0 अम्बेडकरजी को अपने अधिवेशन की अध्यक्षता करने का पहला अवसर सर्वप्रथम उन्होंने ही दिया था। अब तो इतिहास में आर्यसमाज केवल एक अयशस्वी निमन्त्रक या संयोजक बनकर रह गया है। इतिहासकार इतना ही कह सकेगा कि डॉ0 अम्बेडकरजी को अपने वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता करने का एकमात्र निमन्त्रण यदि किसी ने दिया था तो वह आर्यसमाजियों ने, पर वह भी मूर्तरूप धारण न कर सका, अयशस्वी रहा। डॉ0 अम्बेडकरजी के शब्दों में-”मेरा विश्वास है-यह पहला अवसर है जबकि स्वागत समिति ने अध्यक्ष की नियुक्ति को समाप्त कर दिया, क्योंकि वह अध्यक्ष के विचारों को स्वीकार नहीं करती थी।“

चर्चित अध्यक्षीय भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने शास्त्रों के साथ वेद की भी आलोचना की थी, जो तत्कालीन वेद प्रामाण्यवादी आर्यसमाजियों को सहन नहीं हुई। सम्भवतः इसीलिए आर्यसमाज बच्छोवाली लाहौर के पूर्व प्रधान श्री हरभगवान् ने अपने 14 अप्रैल, 1937 के पत्र में डॉ0 अम्बेडकरजी को लिखा था कि-”हममें से कुछ हैं, जो चाहते हैं कि अधिवेशन बगैर किसी अप्रिय घटना के साथ सम्पन्न हो, इसलिए वे चाहते हैं कि-कम-से-कम वेद शब्द इस समय के लिए छोड़ दिया जाए।“ स्मरण रहे इस अध्यक्षीय भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने अपने भावी धर्मांतरण का संकेत देते हुए यह घोषणा कर दी थी कि ’हिन्दू के रूप में मेरा यह अन्तिम भाषण होगा।‘ वेद की तथाकथित आलोचना और भविष्य में धर्मांतरण का संकेत, ये दोनों ही तथ्य ऐसे थे कि जिन्हें सहजता से सहन कर पाना आर्यसमाज के लिए असम्भव था। दोनों पक्ष अपने-अपने स्थान पर अडिग रहे। डॉ0 अम्बेडकर अपने विचारों पर दृढ़ थे और किसी प्रकार के समझौते के लिए तैयार न थे और उन्होंने बिना लाग लपेट के स्पष्ट कर दिया था-“मैं अल्पविराम तक परिवर्तित करने के लिए तैयार नहीं हूँ, मैं अपने भाषण पर किसी प्रकार के सेंसर की अनुमति नहीं दूँगा।” इसके अतिरिक्त जात-पाँत तोड़क मण्डल के प्रतिनिधि को उन्होंने यह भी लिखा था कि-”यदि आप में से कोई भी थोड़ा संकेत करता कि आप मुझे अध्यक्ष चुनकर जो सम्मान दे रहे हैं। उसके बदले मुझे धर्मांतरण (हिन्दू से बौद्ध) के कार्यक्रम में अपने विश्वास का परित्याग करना होगा, तो मैं आपसे स्पष्ट शब्दों में कह देता कि मैं आपसे मिलनेवाले सम्मान से अधिक अपने विश्वास की परवाह करता हूँ।“

कर्मफल और मुक्ति का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से कर्मफलों का विचार किया जाता है। धर्म वा अधर्म का संचय कराने वाले शास्त्रों में कर्त्तव्य बुद्धि से विधान किये वा छोड़ने के लिये निषिद्ध किये शुभ-अशुभ अच्छे-बुरे दो प्रकार के कर्म हैं। उनके फल भी वैसे ही शुभ-अशुभरूप होते हैं। वे कर्म मन, वाणी और शरीर में उत्पन्न होने से तीन प्रकार के हैं। मानस कर्मों का फल मन से, वाचिकों का वाणी से और शरीर से होने वाले कर्मों का फल शरीर से ही इस जन्म में वा जन्मान्तर में मनुष्य भोगता है। इन्द्रियादि साधन और भोग के आधार शरीर के साथ रहने पर ही जीवात्मा का कर्त्ता-भोक्ता होना विद्वान् लोग स्वीकार करते हैं और इसी से केवल आत्मा के भोक्ता होने का निषेध भी करते हैं। वात्स्यायन ऋषि ने न्यायभाष्य में लिखा है कि- ‘शरीररहित आत्मा को कुछ भोग नहीं होता’१ और केवल शरीरादि भी सुख-दुःखादि के   साधन नहीं हो सकते अर्थात् इन्द्रिय और शरीर के द्वारा मनुष्य को सुख-दुःख का भोग प्राप्त होता है। जब धर्म का अधिक सेवन करता है तो सर्वोत्तम स्वर्गनामक सुख को प्राप्त होता और अधर्म के अधिक सेवन से नरकनामक विशेष दुःख पाता है। कर्मों से ही प्राणियों के शरीरों में प्रधान सत्त्वादि गुण और उनके अवयवरूप अवान्तर भेद प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। इसीलिये मनु ने बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘ज्ञानरूप सत्त्वगुण अज्ञानस्वरूप तमोगुण और रागद्वेषरूप रजोगुण माना है। अर्थात् इस शरीर में कर्मभेद से न्यूनाधिकभाव को प्राप्त हुए सत्त्वादिगुण व्याप्त रहते हैं।’२ कर्म के भेद से ही ऊंच-नीच अधिकारों और ऊंच-नीच योनियों में लिग्शरीर के सहित जीवात्मा प्रतिक्षण भ्रमते रहते हैं। इसीलिये मनु ने बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘इस जीवात्मा की अपने कर्म से ही अनेक प्रकार की दशा संसार में देख तथा धर्म और अधर्म के मेल को छोड़कर केवल धर्म में मन को धारण करे।’३ जिन-जिन शुभ वा अशुभ कर्मों का सेवन मनुष्य वर्त्तमान जन्म में करता है, उन कर्मों का यदि उसी शरीर में फलभोग नहीं होता तो उसको जाति कि कैसे कुल में जन्म होना, अवस्था कितनी और कैसा भोग हो यह तीन प्रकार का फल जन्मान्तर में होता है। इन्हीं फलरूप जाति आदि का विशेष विस्तार मनु आदि महर्षियों ने अपने अनुभव से किया है कि ऐसा-ऐसा कर्म करने से जन्मान्तर में अमुक-अमुक जाति वा योनि में जन्म होता है। सो यह बुद्धि के पार पहुंचे ज्ञान से देखने वाले लोकोत्तर पण्डित लोगों को वर्त्तमान प्रत्यक्ष शरीरों में किन्हीं लक्षण वा चिह्नों को देखकर भूतपूर्व उनके कारणों का यथार्थ अनुमान कर लेना कुछ आश्चर्य नहीं है कि- यह जीवात्मा इससे पूर्वजन्म में अमुक योनि वा जाति में रहकर अमुक कर्म करता रहा उस कर्म का यह जाति आदि रूप इस समय फल प्राप्त हुआ है। ऐसे परोक्ष विषयों का ठीक-ठीक अनुभव योगी लोग ही कर सकते हैं। कोई सन्ध्या वा पढ़ाने आदि ब्राह्मणादि के नित्य कर्म हैं और कोई गर्भाधानादि नैमित्तिक हैं। भोजन से नित्य क्षुधा की निवृत्ति के समान नित्यकर्म का फल भी नित्य-नित्य ही प्राप्त होता जाता है और नैमित्तिक गर्भाधानादि कर्मों का पुत्रोत्पत्ति आदि नैमित्तिक ही फल होता है। उत्तम, मध्यम, निकृष्ट इन तीन प्रकार के कर्मों का फल भी वैसा ही त्रिविध होता है। उत्तम कोटि के कर्मों का फल स्वर्गनामक, निकृष्ट का नरक और मध्यम का सुख-दुःख मिला हुआ रजोगुणसम्बन्धी फल होता है। तमोगुण में पड़ने वाले कृमि- कीटादि नीच कर्मों के नरक फल गामी होते और सत्त्वगुणी प्राणियों को प्रायः स्वर्गसुख के भागी वा निवासी जानना चाहिये।

कोई लोग संसारी प्रत्यक्षदशा से विलक्षण अदृश्य और परोक्ष नरक-स्वर्ग हैं अर्थात् किसी निज स्थान का नाम नरक और स्वर्ग है, ऐसा मानते हैं। हम लोग उन नरक-स्वर्गों के परोक्ष होने का खण्डन न करके प्रत्यक्ष भी नरक-स्वर्गों का ग्रहण करते हैं। वैसे बहुत लोक और उनके विशेष स्थान परोक्ष हैं वहां सुखविशेष के हेतु स्वर्गस्थान और दुःखविशेष के हेतु नरकस्थान भी हैं कि जैसे पृथिवी पर स्वर्गनाम सुखविशेष के हेतु और नरकनाम दुःखविशेष के भोगस्थान प्रत्यक्ष दीखते हैं। इसी प्रकार अन्य सब परोक्ष लोक-लोकान्तरों में भी स्वर्ग-नरक होना बन सकता है परन्तु यह नहीं हो सकता कि स्वर्ग-नरक किसी एक ही स्थल में हों और सर्वत्र न हों। जैसे सम्प्रति प्रत्येक नगर वा जिलों में बन्धागार (जेलखाना) बनाये जाते हैं वैसे ही सुख-दुःख की सामग्री सर्वत्र जानो। सब सुखों के भोगों की सामग्री जहां विद्यमान है ऐसे स्थानों में बसते स्वर्गरूप सुख का अनुभव करने वाले विद्याबुद्धिसम्पन्न पुरुष देव कहाते हैं। इसी से कहा है कि- ‘यज्ञ करने वा वेद पढ़ने वाले ज्ञानी लोग जो कि सत्त्वगुण की मध्यावस्था में रहते हैं वे ही देवता हैं। मुक्ति भी कर्मों से ही सिद्ध होती है।’१ इससे मुक्ति पाने के लिये भी मनुष्य को फलभोग की आशा छोड़कर धर्म का ही सेवन करना चाहिये। फलप्राप्ति की इच्छा छोड़कर सेवन किये कर्मों से उत्पन्न होने पर भी मुक्ति कर्मफल से पृथक् नहीं रह सकती क्योंकि अकस्मात् भी कर्मों का फल मिलता है। चाहना का बन्धन मानें तो बुरे कर्म के दुःखफल की चाहना कोई नहीं रखता। यद्यपि मुक्ति में दुःख के विरोधी किसी सुख का भोग नहीं है तो भी दुःख के अभाव का नाम सुख होने से मुक्त को अत्यन्त सुख होना कह सकते हैं। जैसे प्रक्षालन- धोने आदि कर्म से वस्त्रादि के मल की निवृत्ति और निर्मलता की प्राप्ति कर्म का ही फल है, ऐसा शिष्ट लोग मानते हैं। वैसे ही अन्तःकरण में रहने वाली पाप की वासना और उनसे होने वाले दुःख की विशेष निवृत्ति भी मनु आदि धर्मशास्त्र में कहे वर्णाश्रम धर्म का बहाना और कामना को छोड़कर सेवन करने से हो सकती है। इसी सर्वोत्तम मनुष्य की दशा को विचारशील मुक्ति कहते हैं। सो इसी धर्मशास्त्र के बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘वेदोक्त कर्म दो प्रकार का है- संसार में वा जन्मान्तर में जिसके फल की इच्छा हो जिससे देवाधिकार प्राप्त हो सके वह प्रवृत्त कर्म और द्वितीय केवल निष्काम ज्ञानपूर्वक ईश्वर की उपासनादि कर्म निवृत्त कहाता है, इसी का फल मुक्ति है।’१ ऐसा होने पर जो लोग मुक्ति को कर्म का फल नहीं मानते उनका उत्तर आ जाता है। वेद का अभ्यास करने में यत्न करता रहे इस कथन से उस संन्यासदशा के उपयोगी कर्मों के करने का विधान और अतिवृद्ध होने वा गृहादि के न होने से अग्निहोत्रादि कर्मों का त्याग सूचित किया है। यहां कर्मफलों का विवेचन संक्षेप से किया गया और विद्वानों को थोड़ा कथन ही बहुत होता है।

जो विषय हमने उपोद्घात के आरम्भ में उद्देशमात्र गिनाये हैं उन सबका क्रमानुसार संक्षेप से विचार किया। अब उपोद्घात समाप्त किया जाता है। बारहवें अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोक कोई नहीं दीखता। अब आगे प्रतिज्ञा के अनुसार मानव धर्मशास्त्र के

एकादश अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब ग्यारहवें अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। इसमें पहले चालीसवां श्लोक प्रक्षिप्त है। इस पद्य में ‘बहुत धन के व्यय से पूरा होने योग्य यज्ञ को थोड़े धन से आरम्भ नहीं करना चाहिये’ इस विधिवाक्य का अर्थवाद कहा है। सो असम्भव है और अर्थवाद सम्भव होना चाहिये। क्योंकि यज्ञ कोई चेतन पदार्थ नहीं किन्तु जड़ है इससे इन्द्रियादि का नाश नहीं कर सकता और इस अर्थवाद में कहा यही है कि- इन्द्रिय, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्त्ति, प्रजा-सन्तान और पशुओं को थोड़ी दक्षिणा वाला यज्ञ नष्ट कर देता है।’१, सो ठीक नहीं। यद्यपि यज्ञादि कर्मों में जो दक्षिणा ऋत्विजादि को दी जाती है वह परिश्रम का फल (मेहनताना) है उसका लेन-देन नियमानुसार होना चाहिये। जैसे वकील आदि का मेहनताना उस काम और वकीलादि की योग्यतानुसार नियत होता है। किन्तु यह दान में नहीं गिना जायेगा। दान में दान लेने वाले से दाता का उपकार कुछ भी अपेक्षित नहीं किन्तु दक्षिणा में पूरा अपेक्षित है इसी से जहां-जहां ब्राह्मण को दान लेना बुरा कहा है, उससे दक्षिणा का निषेध नहीं हो सकता। इसी कारण जिस कार्य में परिश्रम का फल ठीक नहीं दिया जाता उसमें विघ्न होते हैं तथापि वह यज्ञादि कर्म जड़ होने से यजमान की कुछ हानि नहीं कर सकता किन्तु जिनका परिश्रम का फल ठीक नहीं मिलता वे ही विघ्न करते और कर सकते हैं। तथा उक्त श्लोक में यश और कीर्त्ति दोनों पर्यायवाचक पद एक साथ पढ़े हैं इस पुनरुक्ति दोष से भी उक्त श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। यद्यपि इस पुनरुक्ति का समाधान कुल्लूकभट्ट ने किया है तथापि वह सन्तोषजनक नहीं। और जब ऋत्विज् आदि को दक्षिणा देना उनके परिश्रम का फल है तो उसके दिये बिना उस कार्य की पूर्ति वा उससे फलप्राप्ति होना भी असम्भव है। यदि कोई वर्त्तमान समय में वकीलादि को इतना द्रव्य न देवे जितना उनको राजद्वार (अदालत) में कार्यसिद्ध होने के लिये देना चाहिये तो उस पुरुष का वह कार्यसिद्ध हो जावे, यह सम्भव नहीं है। अर्थात् जैसी और जितनी सामग्री वा व्यय से जो कार्य सिद्ध हो सकता है तो उस      अधूरे सामान वा व्यय से वह कार्य कदापि ठीक सिद्ध नहीं हो सकता। इसी प्रकार अल्पदक्षिणा वाला यज्ञ भी ठीक सुफल नहीं होता है, इस कारण अल्पदक्षिणा वाला यज्ञ नहीं करना चाहिये, यही अर्थवाद ठीक है। और जब यह अर्थवाद ठीक है तो वह इन्द्रियादि के नाश का अर्थवाद विरुद्ध हो गया। इसी से वह श्लोक प्रक्षिप्त है। इसके आगे बयालीसवां और तैतालीसवां (४२,४३) दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन श्लोकों में शूद्र से धन लेकर अग्निहोत्र करने वाले की निन्दा है। परन्तु ध्यान देकर देखा जावे तो धनाभाव में अग्निहोत्र न करने की अपेक्षा शूद्रादि नीच पुरुषों से भी धन लेकर अग्निहोत्र का सेवन करना चाहिये, यह निन्दित काम नहीं किन्तु जो इस ग्यारहवें अध्याय के उन्नीसवें (१९) श्लोक में कहा है कि- ‘जो नीचों से धन लेकर और श्रेष्ठों को देता है वह अपने को पवित्र करके उन दोनों को दुःख के पार कर देता है।’१ इस कथन से भी वह विरुद्ध है। अर्थात् शूद्र भी असाधु है उससे धन लेकर अग्निहोत्ररूप श्रेष्ठकर्म में लगाना शुभ काम है। अग्निहोत्र सबका उपकारक होने से महोत्तम कर्म है उसमें लगाया धन क्यों नीच वा निन्दित काम हुआ। जो कोई जिससे मांगने आदि द्वारा धनादि को लेकर कार्य करता है, वह काम उसी कर्त्ता का होता है किन्तु द्रव्यदाता का नहीं। और जब    धनदाता पुरुष धनादि देकर भृत्यों के तुल्य पुरोहितादि से काम कराता है तब वे पुरोहितादि शूद्रों के ऋत्विज् हो सकते हैं। शूद्र से धन लेकर यज्ञ करने में यदि धनदाता शूद्र को भी कुछ थोड़ा फल प्राप्त हो तो हमारी क्या हानि है ? अर्थात् अन्य की सुखसामग्री का उदय नहीं सह सकने वाले ही मत्सरता के दोष से दूषित होते हैं। शूद्र के धन से यज्ञ करने में शूद्र का भी कल्याण हो तो और भी अच्छा है कि एक काम से दो फल हुए।

आगे ११८,११९,१२१ ये तीन श्लोक प्रक्षिप्त हैं। अवकीर्णी का लक्षण ही जब एक सौ बीसवें श्लोक में कहा है फिर उसका असम्बद्ध व्रत करना पहले से ही कैसे हो जावे ? जिस ब्रह्मचारी ने जानकर व्यभिचार कर लिया हो उसको अवकीर्णी कहते हैं, उसका मुख्य प्रायश्चित्त १२२,१२३ श्लोकों में ठीक-ठीक कहा है। और होम करने आदि के सामान्य नियम तो आगे इसी ग्यारहवें अध्याय में कहे अनुसार मानने चाहियें। वहां जो-जो जप-होमादि प्रायश्चित्त में कहे हैं वे ग्रहण करने चाहियें। काणे गदहे को मारकर उसके मांस का होम करना तो राक्षसों का ही काम है उसका वेदमतानुयायियों को सदा ही त्याग कर देना चाहिये।

आगे १७४वां श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ता है। क्योंकि स्नान करना नित्य का काम होने से प्रायश्चित्त नहीं है। सो स्नान तो मनुष्य को करना ही चाहिये, सामान्यकर शास्त्र की आज्ञानुसार अपनी स्त्री से मैथुन करने वाले को चाहिये कि मैथुन के पश्चात् स्नान करे तभी शुद्धि होती है। इसी प्रयोजन से यदि यह भी श्लोक हो तो पुनरुक्त है। और जो महानीच शास्त्रविरुद्ध वा जिसके लिये शास्त्र में विधान नहीं, ऐसा पुंसिमैथुनादि दुष्ट कर्म है उसकी स्नान कर लेने मात्र से शुद्धि नहीं हो सकती। और इस १७४वें श्लोक से पूर्व १७३वें श्लोक में अयोनि पद करके पुंसिमैथुनादि का सम्भव प्रायश्चित्त कहा ही है। इससे वह श्लोक प्रक्षिप्त ही है।

आगे १८२,१८३ दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। यहां शुद्धि करने वा मानने का प्रकरण नहीं है किन्तु आगे और पीछे केवल प्रायश्चित्त का प्रकरण है। शुद्धिप्रकरण पञ्चमाध्याय में है वहां यथासम्भव सब कहा ही है। पतितों की जीवितदशा में ही मरे के तुल्य क्रिया करना ठीक नहीं, क्योंकि महापातकी आदि पतित लोग यदि अपनी इच्छा से प्रायश्चित्त का आचरण नहीं करते तो वे राजदण्ड भोगने योग्य हैं अर्थात् राजा उनको बलात्कार पूर्वक दण्ड देवे, उस राजदण्ड से जब वे चिह्नयुक्त हो जावेंगे तो उनको मरा समझना नहीं हो सकता सो कहा भी है कि- ‘राजा के शासन से दण्ड के चिह्न को प्राप्त होकर सर्वत्र घूमा करें।’१ इस प्रकरणविरुद्ध और असम्भव होने आदि कारण से ये उक्त दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं। आगे २०६,२०७ ये दो पद्य प्रक्षिप्त हैं, इसी आशय के दो श्लोक चतुर्थाध्याय में हैं। उनको भी हम ने प्रक्षिप्त ही ठहराया है। और यह अन्याय है कि जो किसी के गाली देने पर मार डालने का दण्ड दिलाना वैसे यहां भी अतिसूक्ष्म अपराध का अधिक दण्ड कहा है। इसी अध्याय में २०८वें श्लोक में उसी अपराध का सम्भव प्रायश्चित्त कहा है। इसलिये उक्त दोनों पद्य प्रक्षिप्त हैं। आगे २६१वां पद्य प्रक्षिप्त है। यह विषय जो इसमें कहा है, असम्भव है। यदि सब हत्या का ऋग्वेद पढ़नामात्र प्रायश्चित्त हो जावे तो ब्रह्महत्यादि महापातकों के अधिक कर बड़े-बड़े पृथक् प्रायश्चित्त कहना व्यर्थ हो जावे। और यह कहना असम्भव वा असग्त भी है कि वेद पढ़ लेने से सब पाप छूट जावें। इसलिये उक्त पद्य प्रक्षिप्त ही है। इस प्रकार इस ग्यारहवें अध्याय के दो सौ पैंसठ श्लोकों से १२ श्लोक प्रक्षिप्त हैं और शेष दो सौ त्रेपन श्लोक शुद्ध जानने चाहियें।

प्रायश्चित्त का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से प्रायश्चित्तविषय का विवेचन किया जाता है। प्रायश्चित्त यह शब्द कर्मविशेष का नाम है कि दुष्ट कर्मों के सेवन से उत्पन्न हुई व्याकुलता वा विषमता की निवृत्ति के लिये वेदवेत्ता विद्वानों की आज्ञा से मनुष्य जिसका सेवन करते हैं वह प्रायश्चित्त कर्म कहाता है। प्राय शब्द से परे चित्त या चित्ति शब्द को वार्त्तिक१ से सुट् का आगम होकर यह प्रायश्चित्त शब्द बनता है। सो इसका ऐसा ही विद्वानों ने लाक्षणिक अर्थ भी माना है कि- ‘प्रायः नाम तप और चित्त नाम निश्चय करके युक्त कर्म का नाम प्रायश्चित्त है। चित्त को सम करने के लिये अर्थात् चित्त की विषमता मेटने के लिये जो दिया वा बताया जाता और जिसका सेवन विशेष आन्दोलन के साथ विद्वानों की सभा कराती है वह कर्म प्रायश्चित्त कहाता है।२ इन श्लोकों में सभा के द्वारा कराने की आज्ञा दिखाने से ज्ञात होता है कि राज्यसभा के तुल्य वेदवेत्ता विद्वानों की सभा ने देश-कालादि का विचार करके करने को कहा कर्म प्रायश्चित्त कहाता है। अर्थात् राजदण्ड के तुल्य प्रायश्चित्त भी एक प्रकार का दण्डभोग है। इसी कारण यदि न्यायपूर्वक अपराधानुकूल ही दुष्ट कर्म का फल राजदण्ड भोग लिया हो तो पीछे इस जन्म वा जन्मान्तर में दुष्ट कर्म का बुरा फल नहीं मिलेगा। किन्तु वह अपराधी उस पाप से फिर छूट जाता है। वैसे ही यथार्थ रीति से प्रायश्चित्त कर लेने पर वह अपराधी उस पाप से छूट जाता है जो चोर, डाकू आदि पापकर्म करके उसका दुःख फल भोगना नहीं चाहते उनको राजा बलपूर्वक दण्डादि द्वारा वश में रखकर निर्बल धर्मात्माओं की रक्षा करे। और जो धर्मात्मा हैं वे किसी प्रकार अज्ञान वा दुःसग् में पड़ के भ्रम से पाप कर लेवें अर्थात् उनसे बुरा काम बन पड़े तो पीछे उसकी बुराई को सोचने से यदि मन ग्लानि को प्राप्त हो तो विद्वानों की सम्मति से उनको स्वयमेव दण्डभोगरूप प्रायश्चित्त का सेवन कर लेना चाहिये वा यों कहिये कि धर्मात्मा लोग बुरा काम बन जाने से स्वयमेव उसका दुःख फल भोगकर शुद्ध होना पसन्द करते हैं। यही प्रायश्चित्त और राजदण्ड में भेद है।

प्रायश्चित्त किस दशा में वा किसको करना चाहिये सो दिखाते हैं कि-  ‘वेदादिशास्त्रों में ब्राह्मणादि वर्णों के जो सन्ध्यादि कर्म विहित हैं उनको न करने वाला तथा निन्दित वा जिनके लिये वेदादि में निषेध किया है कि ऐसा काम न करना वैसे पापकर्म का आचरण करने वाला और इन्द्रियों के भोगविषय में लम्पट वा आसक्त, ये तीन प्रकार के मनुष्य ही विशेषकर प्रायश्चित्त करने योग्य होते हैं।’१ इस प्रायश्चित्त के दो भेद हैं- ‘एक तो बिना इच्छा किये स्वभाव से वा अज्ञान से दुष्ट कर्म का सेवन किया जाता अथवा कर्त्तव्य का त्याग किया जाता है, वहां द्वितीय ज्ञानपूर्वक किये की अपेक्षा प्रायश्चित्त थोड़ा किया जाता है। और जो इच्छापूर्वक वा जानकर बुरा काम किया जाता है उसमें पूर्व की अपेक्षा शास्त्रकारों ने अधिक प्रायश्चित्त कहा है।’२ तात्पर्य यह है कि ज्ञानपूर्वक किया कर्म जितना संस्कार को बिगाड़ने वाला होता है वैसा अज्ञान से किया कर्म नहीं हो सकता। क्योंकि अज्ञान से किये काम का हृदयादि के साथ वैसा पूरा प्रवेश नहीं होता जैसा कि ज्ञान से किये का होता है। इसी कारण इन दोनों प्रकार के कर्मों में भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त कहा है, सो ठीक ही मन्तव्य है।

इस मानव धर्मशास्त्र के इसी ग्यारहवें अध्याय में एक-एक ब्रह्महत्यादि महापातक वा उपपातक के अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त दिखाये हैं। उसमें      अधिकारियों का भेद, देश का भेद और काल का भेद भी कारण हैं। सब अवस्थाओं, सब काल वा सब देश में सब लोग एक प्रकार का प्रायश्चित्त नहीं कर सकते। जवान, बलवान् और स्वस्थ मनुष्य जैसा दुःख सह सकता है वैसा वृद्ध, निर्बल और रोगी वा बालक नहीं सह सकता। इस कारण इनके प्रायश्चित्त वा दण्ड में भेद होना चाहिये। लक्षाधीश मनुष्य पर एक सहस्र मुद्रा का दण्ड जितना उसको दुःखदायी होगा उतना ही सहस्रपति को दस मुद्रा के दण्ड से क्लेश हो जायेगा और सर्वथा निर्धन दरिद्री मनुष्य को एक मुद्रा का दण्ड भी लक्षाधीश की अपेक्षा विशेष दुःखदायी होगा। इसी प्रकार लोक में अनेक प्रकार के अधिकारी हैं, उनकी योग्यता देखकर जैसे राजदण्डादि की न्यूनाधिक व्यवस्था करनी चाहिये वैसे ही प्रायश्चित्त में भी जानो, परन्तु यह काम सामयिक विद्वानों का है। सब देशों और सब कालों में भी सब काम नहीं हो सकते, इस कारण भी प्रायश्चित्तों में भेद किया है और करना ही चाहिये। जहां ब्रह्महत्या वा सुरापानादि महापातकों में आत्मघातरूप वधदण्ड ही प्रायश्चित्त लिखा है, वह उत्सर्ग है। कहीं किसी ब्रह्महत्या करने वाले के शरीर का बना रहना कई कारणों से अत्यन्त उपयोगी वा उचित है तो वहां वधदण्डरूप प्रायश्चित्त न कर, करा के अन्य प्रकार का प्रायश्चित्त करा लेना चाहिये। इत्यादि प्रकार एक-एक अपराध पर अनेक प्रायश्चित्त कहना सार्थक ही है।

मनुष्य जैसे कर्म का सेवन करता है वैसी ही उसके हृदय में वासना संचित होती है, उन्हीं वासनाओं का नाम संचित पाप वा पुण्य है अर्थात् पाप-पुण्यों का आधार मन ही है। जैसे ओषधि के सेवन से रोगों की निवृत्ति हो सकती है वैसे ही प्रायश्चित्त से निकृष्टसंस्काररूप पापों की निवृत्ति हो जाती है। अथवा जैसे दीपक से अन्धकार की, राग से द्वेष की और विद्या से अज्ञान वा मोह की निवृत्ति होती है वैसे प्रायश्चित्त से पापों की निवृत्ति जानो। सो योगभाष्य में कहा भी है कि- ‘जिस जन्मान्तर में फल देने वाले संचित कर्म का फल नियत नहीं कि अमुक देश, काल वा अवस्था में ऐसा फल अमुक पुरुष को अवश्य होगा। वैसे अनियतविपाककर्म की तीन दशाएं होती हैं। एक तो फलीभूत होने से उस संचितकर्म का नाश हो जाना, द्वितीय अपने साथी प्रधान पाप वा पुण्य के साथ मिल जाना और तृतीय नियत जिसका फल है ऐसे संचितकर्म के साथ दबा रहना, इनके उदाहरण ये हैं कि जैसे विद्याध्ययन कर लेने से जड़ता वा मूर्खता छूट जाती है विद्वत्ता और मूर्खता दोनों एक काल में एक शरीर में नहीं ठहर सकती वैसे जब प्रायश्चित्तादिरूप शुभ, पुण्य सूर्य का उदय हृदय में होता है तब अन्धकाररूप पाप का तत्काल नाश हो जाता है। द्वितीय जैसे जौ आदि अन्न के साथ घास के दाने पड़े रहते हैं परन्तु जौ बोया, जौ काटा, जौ धरा है इत्यादि व्यवहार जौ का ही होता है उसमें घास के दाने मिल कर पड़े रहने पर भी कुछ हानि नहीं करते इसी प्रकार थोड़ा पाप वा पुण्य अपने विरोधी पुण्य वा पाप के साथ मिला पड़ा रहता है कुछ हानि नहीं कर सकता केवल प्रधान का ही भोग वा व्यवहार होता है। तथा तृतीय प्रधान अपने विरोधी कर्म से तब तक दबा पड़ा रहे जब तक विरोधी की निर्बलता और उसकी प्रबलता देश-काल-वस्तु भेद से न हो।’१ इस प्रकार अनियतफल वाले दुष्ट कर्म के दण्डभोगरूप औषध से निवारण के लिए ही विशेषकर प्रायश्चित्तों की प्रवृत्ति है। और जो जन्मान्तर में नियत फल देने वाला संचितकर्म है उसकी असाध्य रोग के तुल्य प्रायश्चित्त से भी निवृत्ति नहीं हो सकती। पर वहां भी प्रायश्चित्त करना इस कारण निष्फल नहीं कि जब शुभकर्मरूप प्रायश्चित्त से उसके मन का सन्तोष वा दृढ़ता हो जाने से पाप का फल भोगने के समय में दुःख कम व्यापेगा। जैसे वही दुःख निर्बल और बलवान् को न्यूनाधिक व्यापता है। अथवा जैसे विद्वान्, अविद्वान् दो पुरुषों पर एक ही दुःख आकर पड़े तो अविद्वान् की अपेक्षा विद्वान् बहुत कम क्लेशित होता है, वैसे ही जिसने प्रायश्चित्त कर लिया है उसका मन प्रबल वा दृढ़ हो जाने से बड़े-बड़े दुःखों को छोटा-छोटा मानकर सहज में भोगकर पार हो जाता है।

तथा पाप न छूटने में प्रायश्चित्त करना इसलिये भी सार्थक है कि पुण्य कर्म के साथी प्रायश्चित्त के संचित हो जाने से शुभ फल होगा ऐसा विचारकर यथावसर सबको प्रायश्चित्त करना चाहिये, यही धर्मशास्त्रकारों का आशय है। सो यह प्रायश्चित्त दण्डभोगरूप ही है। यदि कोई पुरुष किन्हीं ऐसे नवीन दुष्ट कर्मों को करे जिनका प्रायश्चित्त धर्मशास्त्र में विशेष कुछ नहीं कहा तो वहां सामयिक विद्वानों को चाहिये कि देश, काल और वस्तु के अनुकूल नवीन प्रायश्चित्त की कल्पना कर लेवें। इसीलिये इस मानव धर्मशास्त्र के ग्यारहवें अध्याय में कहा भी है कि- ‘जिनके प्रायश्चित्त नहीं कहे गये ऐसे पापों से मुक्त होने के लिये शक्ति और पाप को देखकर प्रायश्चित्त की व्यवस्था बांध लेनी चाहिये।’१ इसीलिये बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘दस वा तीन वेदवेत्ता सदाचारी धर्मात्मा विद्वानों की सभा जिसको निश्चित करे उसको प्रायश्चित्तादिरूप से सभी लोग कर्त्तव्य निश्चित धर्म मानें कोई भी उसका उल्लंघन न करे।’२ इत्यादि। और धर्मशास्त्रकारों ने जिस अपराध में जो प्रायश्चित्त कहा हो वह भी विद्वानों की सभा की सम्मति से ही सबको सेवना चाहिये। इस प्रकरण में यह कोई न समझे कि प्रायश्चित्त से पाप छूटने का सिद्धान्त खड़ा करने से बिना भोग किये पाप छूट जायेंगे तो ‘मनुष्य के द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।’३ यह सिद्धान्त कट जावे क्योंकि प्रायश्चित्त भी एक प्रकार का दण्डभोग है, यह लिख चुके हैं। इसलिये कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है, यही सिद्धान्त ठीक है। जल और स्थलादिक में स्नान वा दर्शन करना मानव धर्मशास्त्र के अनुकूल प्रायश्चित्त नहीं है किन्तु वह शास्त्र के सिद्धान्त से विरुद्ध नवीन कल्पना है। यहां संक्षेप से प्रायश्चित्त के विषय में कहा गया है, इसकी विशेष व्याख्या भाष्य में देखनी चाहिये।