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भारतीय इतिहास-परपरा में मनु का काल एवं आदिपुरुष: डॉ. सुरेन्द कुमार

आदिसृष्टि कहते ही बहुत-से लोग चौंकते हैं, किन्तु चौंकने की कोई बात नहीं है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि सृष्टि उत्पन्न होते ही मनु उत्पन्न हो गये। इसका अभिप्राय यह है कि सृष्टि के या मानव सयता के ज्ञात इतिहास में जो आरभिक काल है, वह मनु का स्थिति काल है। मनु स्वायंभुव या मनुवंश से पूर्व का कोई इतिहास उपलध नहीं है। जो भी इतिहास मिलता है वह मनु या मनुवंश से प्रारभ होता है, अतः मनु ऐतिहासिक दृष्टि से आरभिक ऐतिहासिक महापुरुष हैं। वैदिक परपरा में यह सारा इतिहास क्रमबद्ध रूप से उपलध होता है। कुछ बिन्दुओं पर संक्षिप्त चर्चा की जाती है-

(क) उपलध वैदिक साहित्य में वेद सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। विश्व के सभी लेखक इस शोध पर एक मत हैं कि ‘‘ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ है।’’ वेदों के पश्चात् क्रमशः संहिता ग्रन्थों, ब्राह्मण ग्रन्थों, उपनिषदों, सूत्रग्रन्थों का रचनाकाल माना जाता है। लौकिक संस्कृत में मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, पुराण आदि उपलध हैं। इन सब ग्रन्थों में मनु का इतिवृत्त, वंशविवरण, उद्धरण, उल्लेख, श्लोक आदि मिलते हैं। यह इस तथ्य को पुष्ट करता है कि वेदों के बाद के इस समस्त साहित्य से पूर्व मनु स्वायभुव हुए हैं, अतः वे उपलध साहित्य और इतिहास से पूर्व के महापुरुष हैं। इस साहित्यिक विवरण को कोई नहीं झुठला सकता। कालनिर्धारण के आंकड़ों में भले मतान्तर हो किन्तु इस मन्तव्य में कोई मतान्तर नहीं है कि मनु उक्त साहित्य-रचना काल से पूर्व हो चुके हैं। भारतीय मतानुसार उपलध संहिता ग्रन्थों का संकलन-काल कम से कम 10-12 हजार वर्ष पूर्व का है। उससे पूर्व भी वैदिक साहित्य बनता-बिगड़ता रहा है। वैदिक साहित्य के प्रमाण इसी अध्याय में विषयानुसार प्रदर्शित हैं।

(ख) वैदिक साहित्य में, और चमत्कारिक रूप से विश्व के साी धार्मिक ग्रन्थों में, सृष्टि का आदितम पुरुष ब्रह्मा अथवा आदम को माना गया है। ब्रह्मा का वंश मनु का पूर्वजवंश है। संस्कृत भाषा में ब्रह्मा को ‘आदिम’ ‘आत्मभूः’ ‘स्वयभूः’ कहा है। बाइबल और कुरान में वर्णित ‘आदम’ संस्कृत के ‘आदिम’ का अपभ्रंश है और नूह, मनु (मनुस् के स को ह होकर और फिर म का लोप होकर) का अपभ्रंश है। इस प्रकार विश्व का सारा साहित्य ब्रह्मा को आदितम पुरुष मानता है।

वैदिक इतिहास के गवेषक पं0 भगवद्दत्त जी के अनुसार मानव सृष्टि के आदि में ब्रह्मा का वंश चला अर्थात् इस वंश में अनेक प्रसिद्ध ब्रह्मा हुए। वैदिक साहित्य में इनको ‘प्रजापति’ कहा गया है अर्थात् ये ‘प्रजाओं के संरक्षक’ या ‘प्रजाप्रमुख’ मानने जाते थे जिनके निर्देश पर प्रजाएं व्यवहार-निर्वाह करती थीं। ब्रह्मा (अन्तिम) का पुत्र (कहीं-कहीं पौत्र) मनु हुआ। क्योंकि ब्रह्मा का एक नाम ‘स्वयभू’ भी प्रचलित था, अतः वंश के आधार पर पहले मनु का ‘मनु स्वायंभुव’ नाम प्रसिद्ध हुआ। मनु के साथ ही ब्रह्मा नामक वंश का लोप हो गया और अतिप्रसिद्धि तथा प्रमुखता के कारण मनु का वंश प्रचलित हुआ। इस प्रकार आदितम पुरुष का वंशज-पुत्र होने के कारण मनु आदिपुरुष सिद्ध होता है (वंशावली अग्रिम पृष्ठों में प्रदर्शित है)। आगे चलकर मनु स्वायभुव के वंश में अनेक वंशधर हुए जिनमें मनु उपाधिधारी अन्य तेरह व्यक्ति प्रजापति महापुरुष के रूप में मान्य हुए। प्रजाप्रमुख राजर्षि होने के कारण उन्हें मनु की उपाधि प्राप्त हुई। इस प्रकार चौदह मनु इतिहास-प्रसिद्ध हैं।

स्वायंभुव मनु ‘प्रजापति’ अर्थात् ‘प्रजाप्रमुख’ भी थे और आदिराजा भी थे। पिता ब्रह्मा के कहने पर वे विधिवत् प्रथम राजा बने। इस प्रकार वे ब्राह्मण से क्षत्रिय बन गये। प्राचीन इतिहास के अनुसार वे सप्तद्वीपा पृथ्वी के चक्रवर्ती शासक थे तथा ब्रह्मावर्त प्रदेश (वर्तमान हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, उत्तरप्रदेश, राजस्थान का जुड़ा भाग) में ‘बर्हिष्मती’ नामक राजधानी से राज्य संचालन करते थे।

(ग) जैसा कि कहा गया है कि स्वायभुव मनु के वंश में इस मनु सहित चौदह मनु राजर्षि हुए जिनका वंशक्रम आगे दिया गया है। इनमें सातवां वैवस्वत मनु अतिवियात और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था। मनु वैवस्वत के पुत्र और एक पुत्री थी। इनके बड़े पुत्र इक्ष्वाकु से क्षत्रियों का सूर्यवंश चला और पुत्री इला से चन्द्रवंश चला। इनकी प्रसिद्धि के कारण बाद में सभी क्षत्रिय वंश इन दो वंशों में समाहित हो गये। आज तक भारत और निकटवर्ती देशों के क्षत्रियों में यही दो वंश मिलते हैं। बाइबल और कुरान में वर्णित नूह (मनु) के दो वंश भी यही हैं-1. हेम (=सूर्य) वंश, 2. सेम (=सोम अर्थात् चन्द्र) वंश। इस प्रकार क्षत्रियों का पूर्वज वैवस्वत मनु था और उसका भी पूर्वज मनु स्वायंभुव था।

(घ) स्वायंभुव मनु राजा के साथ वेदशास्त्रों के ज्ञाता और धर्म (वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक) के विशेषज्ञ तथा राजनीतिवेत्ता थे। उनसे अनेक ऋषियों ने धर्मों की शिक्षा ग्रहण की, ऐसे उल्लेख महाभारत, पुराण आदि में आते हैं। आरभिक गोत्रप्रवर्तक ब्राह्मण ऋषि उनके शिष्य रूप पुत्र थे, अतः मनुस्मृति में उन ऋषियों को मनु के पुत्र कहा है। प्राचीन काल में वंश दो प्रकार से चलते थे-एक, जन्म से; दूसरा, विद्या से। प्रतीत होता है कि मनुस्मृति के श्लोकों में वर्णित ऋषिगण मनु के विद्यावंशीय पुत्र थे। वे हैं-

मरीचिमत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।

प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च॥ (1.35)

मनु ने इन प्रजापतियों का निर्माण किया-मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वसिष्ठ, भृगु और नारद।

आरभ में मनु के इन्हीं विद्यापुत्रों से ब्राह्मण वंश चले। कालान्तर में इन्हीं ब्राह्मण और क्षत्रिय वंशों में वर्णपरिवर्तन, वर्णविकास अथवा वर्ण-विकार होने से अन्य वर्ण बने। प्राचीन काल में समय-समय पर वर्णों में परस्पर परिवर्तन होता रहता था। (द्रष्टव्य अ0 3 में वर्णपरिवर्तन के उदाहरण)। इस ऐतिहासिक वंशक्रम के आधार पर मनु मानवों के या चारों वर्णों के आदिपुरुष सिद्ध होते हैं।

(ङ) मनु स्वायाुव के वंश का संक्षिप्त विवरण-

अन्य सात मनु सूर्यसावर्णि, दक्षसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, रौच्य और भौत्य भी इसी वंश-परपरा में हो चुके हैं। ये चौदह मनु इतने वियात हुए हैं कि सृष्टि-स्थिति की सपूर्ण काल-अवधि

(4,32,00,00,000) को भारतीय ज्योतिष में चौदह मन्वन्तरों में विभाजित किया है और प्रत्येक मन्वन्तर की कालावधि का नाम क्रमशः इन्हीं मनुओं के नाम पर रखा गया है। इस समय सप्तम ‘वैवस्वत मन्वन्तर’ चल रहा है। पहला स्वायंभुव मन्वन्तर था। इस वंशक्रम के आधार पर भी स्वायंभुव मनु मानवसृष्टि के आदि पुरुष सिद्ध होते हैं।

सृष्टि-उत्पत्ति के इस समय को सुनकर पाश्चात्य और आधुनिक लोग अत्यधिक आश्चर्य करते हैं और विश्वास भी नहीं करते। उन्हें यह जिज्ञासा होती है कि कालगणना का इतना हिसाब कैसे रखा गया? इसके उत्तर में उन्हें एक व्यवहार में प्रचलित प्रमाण सपूर्ण देश में उपलध हो जायेगा। भारतीयों ने वर्षों की बात तो छोड़िये पल और प्रहर तक का हिसाब रखा है। ज्योतिषीय पंचांगों में यह आज भी उपलध है। विवाह आदि धार्मिक कृत्यों में संस्कार के समय एक संकल्प की परपरा है। उसमें ‘आर्यावर्ते वैवस्वतमन्वन्तरे कलियुगे अमुक प्रहरे’ आदि बोलकर विवाह का संकल्प किया जाता है। इस प्रकार परपराबद्ध रूप से समय का हिसाब सुरक्षित है।1

उपलध भारतीय वंशावलियों में ब्रहमा को आदि वंशप्रवर्तक माना जाता है और मनु उससे दूसरी पीढ़ी में परिगणित है। इस प्रकार इस सृष्टि में जब से मानवसृष्टि का प्रारभ हुआ है; स्वायंभुव मनु उस आदिसृष्टि या आदिसमाज के व्यक्ति सिद्ध होते हैं।2

मनुस्मृति प्रवक्ता और प्रवचनकाल बाह्य साक्ष्य के आधार पर:डॉ. सुरेन्द कुमार

(1) आधुनिक समीक्षकों द्वारा वेदों के बाद सबसे प्राचीन माने गये तैत्तिरीय संहिता और ताण्ड्य ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में मनु के वचनों को औषध के समान कल्याणकारी माना है। यह कथन इस बात का संकेत है कि उस काल तक मनु की धर्मशास्त्रकार के रूप में याति और प्रामाणिकता सुस्थापित हो चुकी थी-

(क) ‘‘मनुर्वै यत्किञ्चावदत् तद् भेषजं भेषजतायै।’’

(तैत्ति0 सं0 2.2.10.2, 3.1.9.4; तां0 ब्रा0 23.16.7)

(ख) ऐतरेय ब्राह्मण में मनुवंशी राजा शर्यात मानव के राज्या-भिषेक का वर्णन है (8.11)। यह सातवें मनु वैवस्वत के पुत्र इक्ष्वाकु का वंशज है। उसी ब्राह्मण में एक श्लोक आता है जो प्रायः मनु के श्लोक का रूपान्तर है या भावानुवाद है-

मनु–     कलिः प्रसुप्तो भवति स जाग्रद् द्वापरं युगम्।

         कर्मस्वयुद्यतःत्रेता   विचरंस्तु कृतं   युगम्॥ (9.302)

तैत्तिरीय ब्राह्मण में

         कलिः शयानो भवति सञ्जिहानस्तु द्वापरः।

         उत्तिष्ठन् त्रेता भवति कृतं सपद्यते चरन्॥     (7.15)

(ग) इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में मनु के श्लोक का यथावत् भाव वर्णित है-

मनु–     आ हैव   स   नखाग्रेयः परमं   तप्यते   तपः।

         यः स्रग्व्यपि द्विजोऽधीते स्वाध्यायः शक्तितोऽन्वहम्॥

(2.167)

    शतपथ में-‘‘अलंकृतः सुहितः सुहितः सुखे शयने शयानः स्वाध्यायमधीते आ हैव स नााग्रेयस्तप्यते। य एवं विद्वान् स्वाध्यायमधीते।’’ (11.5.7.4) इससे सिद्ध होता है कि मनुस्मृति ब्राह्मण आदि ग्रन्थों से प्राचीन है और वह मानव सृष्टि के आदिकाल की है।

    (2) इसी मान्यता को निरुक्त ने मनु का मत उदृत करते हुए एक श्लोक से पुष्ट किया है-

    अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।

    मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्॥ 3। 4॥

    अर्थात्-‘दायभाग में पुत्र और पुत्री, दोनों का समान अधिकार होता है’, यह विसर्गादौ=मानव सृष्टि के आदि काल में स्वायभुव मनु ने कहा है। यह मत वर्तमान मनुस्मृति के 9.130, 192 श्लोकों में निर्दिष्ट है। यहां ‘‘विसर्गादौ=मानव सृष्टि के आदिकाल’’ शद विशेष ध्यान देने योग्य हैं।

(3) विभिन्न स्मृतियों में तो मनु का उल्लेख भी है और प्रशंसा भी। अनेक सूत्रग्रन्थों में भी मनु के नाम का तथा उसके मत का उल्लेख प्राप्त होता है। इनमें आश्वलायन श्रौतसूत्र [9.7.2; 10.7.1], आपस्तब श्रौतसूत्र [3.1.7; 3.10.35], वासिष्ठ धर्मसूत्र [1.17] आपस्तब धर्मसूत्र [2.14.11] बौधायन धर्मसूत्र [4.1.14, 4.2.16] गौतम धर्मसूत्र [21.7] आदि उल्लेखनीय हैं।

(4) वाल्मीकि-रामायण किष्किन्धा काण्ड 18.30, 32 में मनु के नामोल्लेख पूर्वक दो श्लोक उद्धृत पाये जाते हैं-‘श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चरित्रवत्सलौ’ [वा0रामा0किष्कि0 18.30] यहां स्पष्टतः गीतौ=‘मनु द्वारा गाये’ पद पठित हैं।

(क) वे दोनों श्लोक अग्रिम प्रसंग में है। बालि-सुग्रीव

द्वन्द्व-युद्ध में राम दूर खड़े होकर छुपकर बालि की हत्या कर देते हैं। मरणासन्न बालि राम के इस कृत्य को अधर्मानुकूल बताता है। राम उसका उत्तर देते हुए मनु के निन दो श्लोक प्रमाण रूप में प्रस्तुत करते हुए अपने कृत्य को धर्मानुकूल सिद्ध करते हैं। ये दोनों श्लोक वर्तमान मनुस्मृति में किंचित् पाठभेदपूर्वक 8.316, 318 में पाये जाते हैं-

राजभिर्धृतदण्डाश्च कृत्वा पापानि मानवाः।

निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा॥

शासनाद्वापि मोक्षाद् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते।

राजात्वशासन् पापस्य तदवाप्नोति किल्विषम्॥

(ख) इनके अतिरिक्त वाल्मीकीय रामायण अयो0 107.12 में एक और श्लोक मिलता है, जो मनु0 9.138 में प्राप्त है। चतुर्थ पाद में पाठभेद के अतिरिक्त यह ज्यों का त्यों है। वहां यह श्लोक मनु के नाम के बिना उद्धृत है-

पुनानो नरकाद् यस्मात् पितरं त्रायते सुतः।

तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः पितृन् यः पाति सर्वतः॥

भारतीय प्राचीन मान्यता के अनुसार वाल्मीकि-रामायण राम के समकालीन है और राम का काल लाखों वर्ष पूर्व माना जाता है। पाश्चात्य एवं आधुनिक भारतीय विद्वान् रामायण का रचनाकाल ई. पू. तीसरी शतादी से छठी ईस्वी पूर्व तक मानते हैं, जो कल्पित है।

इनकेअतिरिक्त, रामायण में वर्णित राज्यव्यवस्था और चातुर्वर्ण्यव्यवस्था मनुस्मृति के अनुसार मिलती है। मनुस्मृति के समान रामायण में आठ अमात्यों की नियुक्ति का उल्लेख है। (बाल0 7.2)। चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की रक्षा का दायित्व राजा का विहित है

(सुन्दर0 35. 11)।

  1. महाभारत में, कई स्थलों पर स्वायंभुव मनु को एक धर्मशास्त्रकार के रूप में उद्धृत किया है और कुछ स्थलों पर उनके नामोल्लेख के साथ उनके मत और श्लोकों को भी उद्धृत किया है। वे सभी मत और श्लोक प्रचलित मनुस्मृति में पाये जाते है-

(क) दुष्यन्त-शकुन्तला प्रेम-प्रसंग में आठ-विवाहों का विधानकर्त्ता स्वायंभुव मनु को बताया है। जो मनु0 3.20-34 में वर्णित हैं-

‘‘अष्टावेव समासेन विवाहा……..मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्’’

(आदि0 73.8-9)

(ख) शान्ति. 36 अध्याय में, मनु0 1। 1-4 श्लोकों की घटना का यथावत् वर्णन करते हुए बताया है कि ऋषि लोग धर्मजिज्ञासा के लिए स्वायंभुव मनु के पास पहुंचे। वहां मनु द्वारा दिये गये उत्तर में कुछ श्लोक ऐसे प्राप्त होते हैं जो वर्तमान मनुस्मृति में भी हैं, उनमें कोई-कोई तो यथावत् है, कोई किंचित् पाठान्तर से है, तो कोई यथावत् भाव वाला है।1

(ग) शान्ति0 67। 15-30 में, आदिकाल में लूटपाट, अराजकता आदि से तंग हुई प्रजा द्वारा मनु को राजा के रूप में वरण करने की घटना दी हुई है। वह मनु ब्रहमा का पुत्र है, अतः वह भी स्वायंभुव मनु की घटना है।2 मनु को राजा बनाने के बाद प्रजा द्वारा जो करनिर्धारण किया गया है, यथा-‘पशु और सुवर्ण का पचासवां भाग कर देंगे’ यह करव्यवस्था वर्तमान मनुस्मृति 7। 130 में मिलती है- ‘‘पञ्चाशद् भाग आदेयो राजा पशुहिरण्ययोः।’’

(घ) शान्ति0 335। 44, 46 में एक धर्मशास्त्रकार के रूप में स्वायभुव मनु का ही वर्णन है-‘‘तस्मात् प्रवक्ष्यते धर्मान् मनुः स्वायभुवः स्वयम्’’ (44) ‘‘स्वायभुवेषु धर्मेषु’’ (46) आदि।3

इसके अतिरिक्त महाभारत में अनेक स्थलों पर केवल मनु का नाम देकर उसके श्लोक या भाव उद्धृत किये हैं। उनमें से बहुत-से श्लोक वर्तमान मनुस्मृति में यथावत् मिलते हैं और भाव तथा उनका गठन भी यथावत् है। यथा – शान्तिपर्व 56.24 (मनु0 9.321), आदिपर्व 73.9-10 (मनु0 3.21 में) आदि। वहां मनु का नाम इस प्रकार स्मृत है- ‘‘मनुना चैव राजेन्द्र गीतौ श्लोकौ महात्मना।’’

(शान्ति0 56.33)

  1. महात्मा बुद्ध के प्रवचनों में मनुस्मृति के श्लोकों का यथावत् अनुवाद मिलता है, जो यह सिद्ध करता है कि बुद्ध के लिए मनुस्मृति समान्य थी। बुद्ध लगभग 2550 वर्ष पूर्व जीवित थे। (द्रष्टव्य है प्रमाण गत अ0 1.3 में ‘भारत में मनुस्मृति की प्रतिष्ठा और प्रामाणिकता’ शीर्षक में प्रमाण ‘च’)
  2. बौद्ध महाकवि अश्वघोष ने अपनी ‘वज्रकोपनिषद्’ रचना में अपने विचारों की पुष्टि के लिए मनु के श्लोकों को उद्धृत किया है। यह राजा कनिष्क [78 ई.] का समकालीन था।1
  3. ईस्वी पूर्व के ग्रन्थों पर दृष्टिपात करते हैं तो, यद्यपि, याज्ञवल्क्य स्मृति में विषयों का वर्गीकण नये ढंग से किया है और बहुत सारे नये विषय भी अपनाये हैं, किन्तु मनु से मिलते हुए जो भी विषय हैं उनमें ऐसा लगता है जैसे मनुस्मृति को सामने रखकर ही उनका अपने शदों में संक्षेपीकरण किया हो।2 इसका काल 102 ई. पू. माना जाता है। इस विषय में सभी विद्वान् एकमत हैं कि मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति से पर्याप्त प्राचीन रचना है।
  4. इसी प्रकार आचार्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र को [100-300 ई.पू.] पढ़ने पर प्रतीत होता है कि अपने बहुत-से नये विषयों के प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ प्राचीन बातों के वर्णन में मनुस्मृति को आधार बनाकर वर्णन किया है।3 बहुत-से स्थलों पर मनु के मत का नामपूर्वक उल्लेख है।4 वर्तमान मनुस्मृति में 7.105 पर पाया जाने वाला निन श्लोक कौटिल्य अर्थशास्त्रप्र 10.अ. 14 में लगभग उसी रूप में पाया जाता है-

नास्य छिद्रं परो विद्यात् विद्याच्छिद्रं परस्य तु।

गूहेत्कूर्म   इवांगानि   रक्षेद्विवरमात्मनः॥

  1. भासकृत ‘प्रतिमानाटक’ [200-300 ई.पू., कुछ के मत में 400-500 ई.पू.] में रावण के मुख से उच्चारित वाक्य से यह संकेत मिलता है कि मास से पूर्व ‘मानवधर्म शास्त्र’ एक प्रसिद्धिप्राप्त शास्त्र था। वह वाक्य है-

‘‘रावणः- काश्यपगोत्रोऽस्मि सांगोपांगवेदमधीये मानवीयं

धर्मशास्त्रं, माहेश्वरं योगशास्त्रम्……….च’’ (पृ. 79)

  1. शूद्रकरचित ‘मृच्छकटिकम्’ नाटक को इतिहासकार ई. पू. तीसरी शतादी की रचना मानते हैं। इसमें मनु के किसी ग्रन्थ का श्लोक उद्धृत करते हुए ‘ब्राहमण अवध्य है’ मनु का यह मत मनु के नामोल्लेखपूर्वकदियाहै –

अयं हि पातकी विप्रो न वध्यो मनुरब्रवीत्।        

राष्ट्रादस्मात्तु निर्वास्यो विभवैरक्षतैः सह॥ मृच्छ. 9। 39॥

  1. विश्वरूप [790-850 ई.] ने अपने याज्ञवल्क्य स्मृति-भाष्य और यजुर्वेदभाष्य में मनुस्मृति के लगभग दो सौ श्लोक उद्धृत किये है।1
  2. इससे परवर्ती मिताक्षरा के लेखक विज्ञानेश्वर [1040-1100 ई.] ने भी अपने भाष्य में मनुस्मृति के सैंकड़ों श्लोक उदृत किये हैं।2
  3. शंकराचार्य ने अपने वेदान्तसूत्र भाष्य में मनुस्मृति के कई श्लोक अपने विचारों की पुष्टि के लिए ग्रहण किये और कुछ श्लोकों के साथ तो मनु के नाम का स्पष्ट उल्लेख है।3
  4. 500 ई. में [कुछ के मतानुसार 200-400 ई.] जैमिनिसूत्र भाष्य में शबरस्वामी द्वारा मनु के मतों का उल्लेख किया मिलता है।

मनुस्मृति प्रवक्ता और प्रवचनकाल अन्तःसाक्ष्य के आधार पर: डॉ. सुरेन्द कुमार

  1. मनुस्मृति की शैली-मनुस्मृति के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मनुस्मृति की रचनाशैली ‘प्रवचनशैली’ है, अर्थात् मनुस्मृति मूलतः प्रवचन है। बाद में मनु के शिष्यों ने उनका संकलन करके उसे एक शास्त्र या ग्रन्थ का रूप दिया है। मनुस्मृति के ‘भूमिकारूप’ प्रथम अध्याय के पहले चार श्लोकों के ‘‘मनुम्…..अभिगय महर्षयः …….वचनमब्रुवन् (1। 1),‘‘ भगवन् सर्ववर्णानां……धर्मान्नो वक्तुमर्हसि’’ (1। 2) ‘‘त्वमेको अस्य सर्वस्य…..कार्यतत्त्वार्थवित् प्रभो’’ (1। 3) ‘‘प्रत्युवाच….महर्षीन् श्रूयताम् इति’’ (1। 4) आदि वचनों से ज्ञात होता है कि अपने मूलरूप में मनुस्मृति महर्षियों की जिज्ञासा का महर्षि मनु दिया गया उत्तर है, जो प्रवचनरूप में है। ये सभी श्लोक और विशेषरूप से ‘‘सः तैः पृष्टः’’ (1। 4) पदप्रयोग यह सिद्ध करता है कि इसे बाद में अन्य व्यक्ति ने संकलित किया है। मनुस्मृति की प्रवचन शैली और 1। 1-4 श्लोकों में वर्णित घटना, जिसमें कि महर्षि लोग केवल मनु के पास धर्मजिज्ञासा लेकर आते हैं और फिर मनु ही उसका उत्तर देते हैं, तथा सपूर्ण मनुस्मृति में प्रारभ से अन्त तक मनु द्वारा 1। 4 से प्रारभ की गई कहने-सुनाने की क्रियाओं का उत्तम पुरुष के एकवचन में प्रयोग, ये बातें यह सिद्ध करती हैं कि मनुस्मृति का प्रवक्ता मनु नामक राजर्षि और महर्षि है।
  2. प्राचीन काल से अद्यावधि पर्यन्त इस ग्रन्थ का मनुस्मृति ‘या’ ‘मानवधर्मशास्त्र’ नाम प्रचलित होना भी इसे मनुप्रोक्त सिद्ध करता है।
  3. यह मनु स्वायभुव ही है। इस बात को मनुस्मृति में स्पष्ट भी किया है और विभिन्न स्थलों पर मनु के साथ स्वायभुव विशेषण का प्रयोग भी किया है। प्रचलित मनुस्मृति में बीच-बीच में लगभग तीस स्थलों पर मनु का नामोल्लेखपूर्वक वर्णन है। उनमें छह स्थलों पर स्पष्टतः ‘स्वायभुव’ विशेषण का प्रयोग कियाहै।1 ये उल्लेख भी मनुस्मृति का प्रवक्ता स्वायभुव मनु को ही सिद्ध करते हैं।
  4. निन श्लोकों में मनुस्मृति का रचयिता स्वायंभुव मनु को बतलाया गया है-

    (क)   इदं शास्त्रं तु कृत्वाऽसौ मामेव स्वयमादितः।

          विधिवद् ग्राहयामास मरीच्यादींस्त्वहं मुनीन्॥

          स्वायभुवस्यास्य मनोः षडवंश्या मनवोऽपरे॥

(1॥ 58,61॥

    (ख)   स्वायभुवो मनुर्धीमानिदं शास्त्रमकल्पयत्॥ 1। 102॥

यतोहि भृगु स्वायभुव मनु का शिष्य था। (1। 34-35,3। 194, 12। 2) अतः उसके शिष्य भृगु के वचनों में उल्लिखित मनु भी स्वायभुव मनु ही है, जिसको शास्त्र का कर्त्ता कहा है-

    (ग)   यथेदमुक्तवान् शास्त्रं पुरा पृष्टो मनुर्मया॥ 1। 119॥

    (घ)   एवं स भगवान् देवो लोकानां हिकायया।

          धर्मस्य परमं गुह्यं ममेदं सर्वमुक्तवान्॥12। 117॥

    (ङ)   ‘‘मानवस्यास्य शास्त्रस्य’’ 12। 107॥

    (च)   ‘‘एतन्मानवं शास्त्रम् भृगुप्रोक्तम्’’ 12। 126।

यद्यपि मेरे अनुसन्धानकार्य के आधार पर ये सभी श्लोक प्रक्षिप्त सिद्ध हुए हैं, अतः मौलिकवत् प्रामाणिक नहीं है; किन्तु फिर भी इन्हें ऐतिहासिक सन्दर्भ में पारपरिक जनश्रुति के समान पोषक आधार के रूप में ग्रहण किया है। इन सबमें मनु स्वायभुव को मनुस्मृति का रचयिता कहा गया है।

  1. ऐतिहासिक ग्रन्थ, ब्रह्मावर्त प्रदेश में स्थित बर्हिष्मती नगरी को स्वायभुव मनु की राजधानी मानते हैं। मनुस्मृति में ब्रह्मावर्त प्रदेश को धर्मशिक्षा, सदाचार का केन्द्र घोषित करके सर्वोच्च महत्त्व दिया गया है। [1। 136-139 (2।17-20)]। इसी क्षेत्र में मनुस्मृति का प्रवचन-प्रणयन हुआ था। इससे भी मनुस्मृति का रचयिता स्वायभुव मनु होने का संकेत मिलता है।
  2. मनु के काल का अनुमान लगाने में मनुस्मृति तथा मनुस्मृति से भिन्न भारतीय साहित्य में प्राप्त वंशावलियां भी सहायक हैं। मनुस्मृति में तीन स्थानों पर मनु के वंश की चर्चा है-(क) ब्रह्मा से विराज, विराज से मनु, मनु से मरीचि आदि दश ऋषि उत्पन्न हुए (1। 32-35)। (ख) ब्रह्मा से मनु ने धर्मशास्त्र पढ़ा, मनु से मरीचि, भृगु आदि ने। यह विद्यावंश के रूप में वर्णन है। (1। 58-60)

(ग) हिरण्यगर्भ=ब्रह्मा के पुत्र मनु हैं और मनु के मरीचि आदि। (3। 194)। यद्यपि मनुस्मृति के प्रसंगों में ये तीनों ही स्थल प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, किन्तु पारपरिक जनश्रुति के रूप में यदि इन्हें स्वीकार करें तो स्वायभुव मनु, पुत्र के रूप में ब्रह्मा से दूसरी पीढ़ी में वर्णित है। यही तथ्य इसके स्वायंभुव (स्वयंभू=ब्रह्मा, उसका पुत्र) विशेषण से स्पष्ट होता है।

महाभारत तथा पुराणों में भी वंशावलियां प्राप्त हैं। उनमें भी मनु को ब्रह्मा का पुत्र बताया गया है अथवा शिष्य के रूप में उसका सीधा सबन्ध ब्रह्मा से वर्णित है (आदि0 1.32; शान्ति0 335.44)।

प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक मान्यताओं के अनुसार ब्रह्मा को आदि सृष्टि में माना जाता है और भारत का प्रत्येक ज्ञात जन्म-वंश तथा विद्या-वंश ब्रह्मा से ही प्रारभ होता है। इस प्रकार मनु और मनुस्मृति का काल भी आदिसृष्टि में स्थिर होता है।

  1. मनुस्मृति और उसकी भाषा – यह कहा जाता है कि मनुस्मृति की भाषा बड़ी सुबोध, सरल लौकिक भाषा है। वह पाणिनि के व्याकरण का अनुगमन करती है। अतः वर्तमान मनुस्मृति पर्याप्त अर्वाचीन है।

यह ठीक है कि मनुस्मृति की भाषा सुबोध और सरल लौकिक भाषा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इस कारण इसको अर्वाचीन भाषा कहा जाये। मनुस्मृति एक धर्मशास्त्र है, जिसका सबन्ध सर्वमान्य रूप से सभी जनों से है। इसमें लोगों के आचार-विचार से सबन्धित निर्देश हैं। अतः ऐसे ग्रन्थ की भाषा का सुबोध, सरल होना स्वाभाविक भी है, और आवश्यक भी। प्राचीन काल में साहित्यिक भाषा के रूप में वैदिक भाषा का प्रयोग था तो व्यवहार में लौकिक संस्कृत का प्रयोग था।

मनुस्मृति में कुछ पूर्वपाणिनीय प्रयोग भी मिलते हैं। इसमें पाये जाने वाले वैदिक प्रयोग और वैदिक प्रयोगशैली, इसे मूलतः पाणिनि पूर्व एवं वैदिकालीन संकलन सिद्ध करते हैं। यथा

    (क) ‘‘मेत्युक्त्वा’’ [8। 57] मे + इत्युक्त्वा’ सन्धि पाणिनीय नहीं है। इसमें इकार का पूर्वरूप छान्दस (वैदिक) है।

(ख) ‘‘हापयति’’ [3.71] का ‘छोड़ता है’ अर्थ है। यहां प्रेरणार्थक न होकर प्रकृत्यर्थ (मूल अर्थ) में ‘णिच्’ छान्दस है।

(ग) 2.169-171 श्लोकों में ‘मौञ्जीबन्धन’ और ‘‘मौञ्जिबन्धन’’ पदों के प्रयोग में विकल्प से ह्रस्व छान्दस प्रयोग है।

(घ) ‘उपनयनम्’ के अर्थ में ‘‘उपनायनम्’’ प्रयोग [2.36] पूर्व पाणिनीय है। यहां दीर्घ को, पाणिनि ने व्याकरणसमत न होते हुए भी शिष्टप्रयोग मानकर ‘‘अन्येषामापि दृश्यते’’ [अष्टा0 6.3.137] सूत्र में स्वीकार कर लिया है।

(ङ) 1.20 में ‘‘आद्याद्यस्य’’ प्रयोग है। यह ‘‘आद्यस्य-आद्यस्य’’ होना चाहिये था, किन्तु पहले ‘आद्यस्य’का सुप् लुक् छान्दस प्रयोग के कारण माना गया है (‘सुपां सुलुक्……’ अष्टा0 7.1, 39)।

    (च) वैदिक भाषा की प्रयोग शैली-‘‘आ हैव स नखाग्रेय :’’ [2.167], ‘‘पुत्रका इति होवाच’’ [2.151] ‘‘पितृणामात्मनश्च ह’’ [9.28] आदि प्रयोग वैदिक शैली के हैं।

इसकी भाषा के विषय में एक संभावना यह भी दिखायी पड़ती है कि पहले इसमें वैदिक प्रयोगों की अधिकता थी, जो धीरे-धीरे बदली जाती रही। क्योंकि यह सर्वसामान्य जनों से सबन्ध रखने वाला ग्रन्थ था, अत : इसकी भाषा में भी समयानुसार परिवर्तन होता रहा। ऐसे उदाहरण हमारे सामने विद्यमान हैं, जिनसे यह संभावना पुष्ट होती है। वाल्मीकि-रामायण के दाक्षिणात्य, वंगीय और पश्चिमोत्तरीय, ये तीन संस्करण प्रसिद्ध हैं एवं प्रचलित हैं। इनमें दाक्षिणात्य पाठ में अभी भी वैदिक प्रयोगों का बाहुल्य है, जबकि अन्य संस्करणों में अधिकांश को बदलकर लौकिक कर दिया गया है। यही स्थिति मनुस्मृति के साथ भी संभव है। ऐसा इसलिए भी संभव प्रतीत होता है कि कालक्र म की दृष्टि से मनु सब ऋषियों से प्राचीन हैं और उनकी स्मृति सर्वाधिक प्रसिद्ध रही है।

  1. मनुस्मृति में केवल वेदों [1। 21, 23; 3। 2; 11। 262-264; 12। 111-112 आदि] और वेदांगों [2। 140, 241] का ही उल्लेख मिलता है। यह उल्लेख भी एक विद्या के रूप में है न कि किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा रचित ग्रन्थ के रूप में। इसकी पुष्टि के लिए दो तर्क दिये जा सकते हैं-(क) इन विद्याओं के साथ न तो कहीं रचयिता का संकेत है और न ग्रन्थरूप का। (ख) 12। 111 में इन विद्याओं के ज्ञाताओं का ‘हेतुक : ‘तर्की’ ‘नैरुक्तः धर्मपाठकः’ आदि विद्याविशेषणों से परिगणन किया है, न कि किसी ग्रन्थविशेष के ज्ञाता के रूप में। एक-एक विद्या पर विभिन्न आचार्यों के ग्रन्थ प्राप्त हो रहे हैं। किसी भी ग्रन्थ का उल्लेख न होना और अन्य ब्राह्मण, उपनिषद् आदि विधाओं का उल्लेख न मिलना यह सिद्ध करता है कि यह स्मृति उन सबसे पूर्व की रचना है।

मनुस्मृति का आधार केवल वेद ही हैं। मनु सीधे वेद से विज्ञात बातों को ही धर्मरूप में वर्णित करते हैं और उसी को आधार मानने का परामर्श देते हैं [1.4, 21, 23; 2.128, 129, 130, 132; 12.92-93, 94, 97, 99, 100, 106, 110-112, 113 आदि]। वेद और मनुस्मृति के बीच अन्य किसी ग्रन्थ का उल्लेख न मिलना यह इंगित करता है कि यह मूलतः उस समय की रचना है जब धर्म में केवल वेदों को ही आधारभूत महत्त्व प्राप्त था, अन्य ग्रन्थों को इस योग्य प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं थी। यह समय अत्यन्त प्राचीन ही था।

मनुस्मृति प्रवक्ता और प्रवचनकाल: डॉ. सुरेन्द कुमार

मनुस्मृति के प्रवक्ता और उसके काल-निर्धारण सबन्धी प्रश्न का यह समाधान आज के लेखकों को सर्वाधिक चौंकाने वाला है। कारण यह है कि वे पाश्चात्य लेखकों द्वारा कपोलकल्पित कालनिर्धारण के रंग में इतने रंग चुके हैं कि उन्हें परपरागत सत्य, असत्य प्रतीत होता है; और कपोलकल्पित असत्य, सत्य प्रतीत होता है। आंकड़ों के अनुसार, परपरागत और पाश्चात्यों द्वारा निर्धारित मनुस्मृति के काल-निश्चय में दिन-रात या पूर्व-पश्चिम का मतान्तर है। यह तथ्य है कि भारतीय मत की पुष्टि एक सपूर्ण परपरा करती है। परपरागत सपूर्ण वैदिक एवं लौकिक भारतीय साहित्य ‘मनुस्मृति’ या ‘मानवधर्मशास्त्र’ को मूलतः मनु स्वायभुव द्वारा रचित मानता है और मनु का काल वर्तमान मानवसृष्टि का आदिकाल मानता है। इस प्रकार आदिकालीन स्वायभुव मनु की रचना होने से मनुस्मृति का काल भी वेदों के बाद वर्तमान मानवसृष्टि का आदिकाल है।

कुछ पाश्चात्य लेखक और उनकी शिक्षा-दीक्षा से अनुप्राणित उनके अनुयायी आधुनिक भारतीय लेखक मनुस्मृति का रचनाकाल 185-100 ई0 पूर्व ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुङ्ग के जीवनकाल में मानते हैं। यह मत प्रो0 यूलर द्वारा निर्धारित है और तत्कालीन पाश्चात्य लेखकों द्वारा मान्य है। इस मतान्तर पर अपना निर्णय देने से पूर्व मैं यहा पाश्चात्यों द्वारा स्थापित मान्यताओं एवं कालनिर्धारण के मूल में उनकी मानसिकता, लक्ष्य एवं उसकी अप्रामाणिकता पर कुछ चर्चा विस्तार से करना अत्यावश्यक समझता हूं।

यह स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने अपने राजनीतिक और धार्मिक निहित लक्ष्य की पूर्ति हेतु, हजारों वर्ष पुराने भारतीय इतिहास और साहित्य की घोर उपेक्षा करके, केवल 150 वर्ष पूर्व, कपोलकल्पना द्वारा कुछ नयी मान्यताएं गढ़ीं और नये सिर से एक काल्पनिक कालनिर्धारण प्रस्तुत किया। भारतीय इतिहास को अपने स्वार्थ के अनुरूप परिवर्तित, विकृत और अस्त-व्यस्त किया। भारतीय इतिहास, संस्कृति, सयता, ऐतिहासिक व्यक्ति आदि प्राचीन सिद्ध न हों, इस कारण उन्हें ‘माइथोलॉजी’ ‘मिथक’ कहकर अप्रामाणिक बनाने का प्रयास किया। मैक्समूलर ने स्वयं स्वीकार किया है कि वैदिक साहित्य और वेद आदि का काल आनुमानिक है। आगे चलकर तो उन्होंने इनके कालनिर्धारण में असमर्थता भी प्रकट कर दी थी। फिर भी आज हम उनके कालनिर्धारण को प्रमाणिक मान रहे हैं और परपरागत भारतीय कालनिर्धारण को अप्रामाणिक कह रहे हैं, जबकि तटस्थ अंग्रेज और यूरोपियन लेखकों ने उनको प्रमाणिक नहीं माना है। वर्तमान में प्रचलित मनु और मनुस्मृति का कालनिर्धारण (185-100 वर्ष ई0 पू0) उपनिवेशवादी अंग्रेजों की ही कपोल-कल्पित देन है।

वास्तविकता यह है कि ज्यों-ज्यों पुरातत्व-विज्ञान, भाषाविज्ञान, भूगोल, ज्योतिष-संबंधी नवीन खोजें हुई हैं, त्यों-त्यों उन अंग्रेज लेखकों द्वारा स्थापित मान्यताएं एक-एक करके ढही हैं और भारतीय स्थापनाओं में बहुत की समग्रतः या अधिकांशतः पुष्टि हुई है। अंग्रेजों और उनके अनुयायियों ने बाइबल तथा डार्विन के विकासवाद के आधार पर मनुष्य की उत्पत्ति कभी दस हजार वर्ष पूर्व बताई थी और भारतीय साहित्य में वर्णित लाखों वर्ष पूर्व मानव के अस्तित्व विषयक संदर्भों को गप्प कहा था। आज के वैज्ञानिक दस हजार से हटकर दो लाख वर्ष पूर्व तक की मान्यता पर पहुंच गये हैं। पचास से पैंतीस हजार वर्ष पूर्व की तो अस्थियां भी पायी गई हैं। उन्होंने एक अरब छियानवे करोड़ के भारतीय सृष्टिसंवत् को सुनकर उसे महागप्प कहकर मखौल उड़ाया था। मैडम क्यूरी की रेडियम की खोज ने उसकी पुष्टि कर दी। अमेरिका की उपग्रह-संस्था ‘नासा’ ने पिछले दिनों उपग्रह के द्वारा भारत-श्रीलंका के बीच समुद्र में डूबे पुल को खोजा और उसका काल लाखों वर्ष पूर्व निर्धारित किया। एक गणना के अनुसार, यह रामायण के काल से मिलता है। महाभारत को काल्पनिक मानने वाले लोगों को, पाश्चात्य ज्योतिषी बेली ने ग्रहयुति के ज्योतिषीय आधार पर बताया कि महाभारत युद्ध 3102 ईसा पूर्व हुआ था।

महाभारत में वर्णित श्रीकृष्ण की ‘द्वारका’ नगरी को पुरातत्वविद् डॉ0 एस.आर. राव ने खोज निकाला। अमेरिका के मैक्सिको में मिले ‘मय-सयता’ के अद्भुत अवशेषों ने वैदिक काल के मय वंश को प्रमाणित कर दिया। ‘इंडिया इन ग्रीस’ में मिस्र के प्राचीन इतिहास के आधार पर बताया गया है कि वहां के निवासी हेमेटिक लोग ‘मनु वोवस्वत्’ (वैवस्वत) के वंशज हैं और उनके पिरामिडों में मिलने वाला सूर्यचिन्ह उस आदि पुरुष के सूर्यवंश का प्रतीक है। तुर्की और भारत में खुदाई में मिले वैदिक सयता के सूचक विभिन्न पुरावशेषों का काल पन्द्रह हजार वर्ष ईस्वी पूर्व तक आंका गया है।

कहने का अभिप्राय यह है कि नवीन खोजों के सन्दर्भ में, कुछ अंग्रेजों द्वारा प्रस्तुत कालनिर्धारण अर्थहीन और मूल्यहीन हो चुका है। आज वे कल्पित स्थापनाएं धराशायी हो चुकी हैं। ऐसे में उनको स्वीकार करने का औचित्य ही नहीं बनता। हां, यह कटु सत्य है कि कुछ लोग और वर्ग अपने नकारात्मक पूर्वाग्रहों, निहित स्वार्थों और निहित सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए उपनिवेशवादी अंग्रेजों द्वारा कल्पित मान्यताओं एवं काल-सीमाओं को बनाए रखना चाहते हैं।

अधिकांश विचारक इस मत से सहमत हैं कि मनुस्मृति का मूल प्रवक्ता मनु है और वह भी आदिकालीन ब्रह्मा का पुत्र स्वायभुव मनु ही है। इस मत को वर्णित करने वाली एक सपूर्ण साहित्यिक परपरा मिलती है। मैं भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं। इस सबन्ध में प्राप्त सामग्री के आधार पर दो प्रकार से विचार किया जा सकता है-

आदिकालीन विश्व में मनु, मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था के प्रमाण-डॉ. सुरेन्द कुमार

आगे हम सप्रमाण यह पढ़ेंगे कि आदि मानवसृष्टि-कालीन ऋषि ब्रह्मा का पुत्र मनु स्वायंभुव इस सृष्टि का आदिराजा बना। वह चक्रवर्ती सम्राट् था। ब्रह्मर्षि ब्रह्मा ने वेदों से ज्ञान प्राप्त करके जो वर्णाश्रम व्यवस्था का प्रतिपादन किया था, उसको मनु ने अपने शासन में क्रियात्मक रूप दिया और आवश्यकतानुसार उसमें नयी व्यवस्थाओं का समन्वय किया। इस कारण वर्णाश्रमव्यवस्थाधारित समाज-व्यवस्था के सर्वप्रथम संस्थापक मनु स्वायंभुव कहलाये। आदि सृष्टि का प्रमुख पुरुष होने के कारण और ‘मानव’ वंश का प्रतिष्ठापक होने के कारण उसे ‘आदि-पुरुष’ भी माना गया है। धर्मविशेषज्ञ और धर्मप्रवक्ता होने के कारण उसे धर्मप्रदाता और आदिविधिप्रदाता का सम्मान प्राप्त है। मनु को यह श्रेय भारत ही नहीं अपितु अपने समय के सम्पूर्ण आवासित विश्व में प्राप्त था, इस तथ्य का ज्ञान हमें संस्कृत के प्राचीन इतिहासों और विश्व के इतिहासों से मिलता है।

मनु ‘आदि-राजा’ अथवा ‘आदि-राजर्षि’ थे। प्राचीन इतिहास में प्राप्त विवरण के अनुसार, मनु के दो पुत्र हुए – प्रियव्रत और उ    ाानपाद; दो पुत्रियां हुईं-आकृति और प्रसूति। मनु सप्तद्वीपा पृथ्वी के शासक थे। अपने बाद उन्होंने राज्य को दोनों पुत्रों में बांट दिया। प्रियव्रत को राज्य का मुख्य क्षेत्र मिला। प्रियव्रत के कुल दस पुत्र हुए। उनमें से तीन ब्राह्मण बन गये। सातपुत्रों को निम्न प्रकार सात देशों/द्वीपों का राज्य प्रदान किया। प्रियव्रत के इतिहास में पहली बार सात देशों का भौगोलिक विवरण मिलता है। इतिहासकारों द्वारा अनुमानित उन देशों की आधुनिक पहचान के साथ उनका विवरण इस प्रकार है –

देश/द्वीप (आदिकालीन)            आधुनिक क्षेत्र    प्रियव्रत के पुत्र

                                 से साम्य     जो उस देश के

                                                राजा बने

.  जम्बू द्वीप (जम्बू नदी व     एशिया महाद्वीप      अग्नीघ्र

जम्बू वन के कारण नामकरण)   (दक्षिण पूर्वी)      (ज्येष्ठ पुत्र)

.  प्लक्ष द्वीप (प्लक्ष वृक्षों के     यूरोपीय भूभाग     इध्मजिह्व

वन के कारण)

.  शाल्मलि द्वीप (शाल्मलि   वर्तमान अटलांटिक क्षेत्र   यज्ञबाहु

वृक्ष के वन के कारण)      जहां अब समुद्र ही है

.  कुशद्वीप                    अफ्रीकी भूभाग     हिरण्यरेतस्

(कुश घास के वन के कारण)

.  क्रौंच द्वीप                       उ         ारी अमेरिका     घृतपृष्ठ

(क्रौंच नामक पर्वत के कारण)

.  शाक द्वीप                  दक्षिण अमेरिका      मेधातिथि

(शाक=सागौन वन के कारण)

.  पुष्कर द्वीप                दक्षिणी ध्रुव खण्ड     वीतिहोत्र

(जल-बहुल प्रदेश होने      (तब वहां बर्फ नहीं थी)

के कारण नाम पड़ा)

ये आदिकालीन ज्ञात आवासित देश थे। इनमें से जम्बूद्वीप, शाकद्वीप और कुशद्वीप की भौगोलिक, ऐतिहासिक और प्रामाणिक खोज आधुनिक इतिहासकारों ने कर ली है। शेष द्वीपों की खोज अभी अपेक्षित है। इन द्वीपदेशों की खोज से यह प्रमाण मिल गया है कि अन्य द्वीपदेश भी भौगोलिक एवं ऐतिहासिक अस्तित्व रखते थे। खोजे गये तीन-द्वीप देशों का संक्षिप्त ऐतिहासिक एवं भौगोलिक विवरण प्रामाणिकता की दृष्टि से दिया जा रहा है, जिससे पाठक उनकी सत्यता को जान सकें और वहां की अन्य सांस्कृतिक वस्तुस्थितियों को स्वीकार करें।

(क) जम्बू द्वीप की पहचान

    प्रियव्रत का ज्येष्ठ पुत्र अग्नीध्र था जिसे जम्बूद्वीप (एशिया खण्ड) का राज्य मिला था। पृथ्वी का व्यापक क्षेत्र होने के कारण तत्कालीन भारतीय इतिहासकारों के लिए अन्य द्वीपों का विवरण जुटाना संभव नहीं हो सका, अतः भारत में इसी द्वीप से सम्बन्धित इतिहास प्रमुखता से प्राप्त होता है। अग्नीध्र के नौ पुत्र हुए। सभी राज्य के इच्छुक थे, अतः सबमें जम्बुद्वीप का राज्य निम्न प्रकार बांट दिया गया। उन्हीं पुत्रों के नाम पर उन देशों का नामकरण भी हुआ-

१.   नाभि (ज्येष्ठ पुत्र)   को     हिमालयपर्वत सहित नाभिवर्ष या आर्यावर्त मिला जिसका बाद में भारतवर्ष नाम पड़ा।

२.   किम्पुरुष           को     किम्पुरुषवर्ष, हेमकूट (कैलास पर्वत) युक्त।

३.   हरिवर्ष             को     हरिवर्ष, निषधपर्वतयुक्त।

४.   इलावृत            को     इलावृतवर्ष, मेरुपर्वतयुक्त।

५.   रम्यक            को     रम्यवर्ष, नीलपर्वतयुक्त।

६.   हिरण्य            को     हिरण्यकवर्ष, श्वेपर्वतयुक्त।

७.   कुरु               को     उ    ारकुरुवर्ष, शृंगवान्पर्वतयुक्त।

८.   भद्राश्व            को     भद्राश्ववर्ष, मेरु के पूर्वी भाग में माल्यवान् पर्वत से आगे।

९.   केतुमाल           को     केतुमालवर्ष, गन्धमादन पर्वतयुक्त। मेरु से पश्चिम का प्रदेश

    (उ) प्राचीन द्वीपों और वर्षों (देशों) की पहचान

    इनमें से जम्बूद्वीप का वर्णन भारतीय इतिहास में विस्तार से मिलता है क्योंकि भारतवर्ष इसी भूभाग से सम्बद्ध है। जम्बूद्वीप के आगे आठ वर्ष (देश) वर्णित हैं। उनकी पहचान इस प्रकार की गयी है –

१.   भारतवर्ष      (दक्षिण समुद्र से हिमालय तक, ईरान से बर्मा तक विस्तृत प्राचीन बृहत् भारत)।

२.   किम्पुरुष      (हिमालय से हेमकूट अर्थात् कैलास पर्वत तक विस्तृत किन्नौर, कश्मीर आदि का भाग)।

३.   हरिवर्ष        (कैलास से मेरुपर्वत=पामीर तक का प्रदेश ति  बत आदि। मतान्तर से सुग्द=बोखारा प्रदेश)

४.   इलावृत वर्ष    (मेरु=पामीर पर्वत के चारों ओर आसपास का क्षेत्र, रूस की बालखश झील जहां इलि नदी झील में गिरती है)।

५.   भद्राश्व वर्ष    (मेरु पर्वत से पूर्व में स्थित चीन देश। वहां का जातीय चिह्न आज तक भद्राश्व = सफेद ड्रैगन अर्थात् कल्याणकारी अश्वमुख-मकर या सर्प है)।

६.   केतुमाल वर्ष   (मेरु के पश्चिम का वह प्रदेश जहां चक्षु= वक्षु=आक्सस नदी बहकर अराल सागर में गिरती है। रूस, ईरान, अफगानिस्तान के सीमाक्षेत्र का प्रदेश)।

७.   रम्यक वर्ष    (अनुमानतः रमि या रम्नि टापुओं का पूर्ववर्ती प्रदेश, मेरुदेश से नीलपर्वत तक का क्षेत्र)।

८.   हिरण्मय      (नील पर्वत से शृंगवान् पर्वत तक का प्रदेश। (पहचान अनिश्चित)।

९.   उ   ारकुरु   (तोलोमी द्वारा वर्णित ओ   ाोरी कोराई, चीनी, तुर्किस्तान की तारिम घाटी। मतान्तर से रूस का साइबेरिया प्रदेश)।

इस प्रकार जम्बूद्वीप अर्थात् एशिया खण्ड का भूगोल प्रायः ज्ञात है। जम्बू नदी और उसके आसपास फैले विशाल जम्बू वन के कारण इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा था, जैसे पश्चिमी देशों में सिन्धु नदी के आधार पर अरबी-फारसी में स का ह होकर भारत का हिन्दुस्तान और यूनान में ‘ह’ का ‘इ’ होकर सिन्ध का इण्डस् और देश का नाम इंडिया पड़ा।

(ख) शाक द्वीप की पहचान-जम्बू द्वीप के साथ शाकद्वीप का वर्णन है और इसे क्षीरसागर से आवृत बताया है। कभी यह क्षीर सागर पश्चिम के वर्तमान कृष्णसागर से आरम्भ होकर साइबेरिया के उ       ारी भाग में फैले हुए आर्कटिक समुद्र तक एक महासागर के रूप में फैला था। इसने शाकद्वीप को घेर रखा था। अब उसके कृष्णसागर, कैस्पियन सागर, बाल्कश झील अवशेष बचे हैं। बाल्कश झील अब भी मीठे पानी की झील है। इस कारण कैस्पियन को तथा इसे ‘क्षीर सागर’ कहते थे। संस्कृत का क्षीर = (दूध) विकृत होकर फारसी में शीर हुआ है। ईरानी इसे शीरवान् कहते हैं। यूनानी यात्री मार्कोपोलो ने भी इसे शीर सागर लिखा है। इसमें प्रवाहित होने वाली नदियों का भी अर्थ इसके नाम से सम्बन्धित है। ईरान की एक नदी का नाम शीरी है और रूस की नदी का नाम मालोकोन्या (मा-लो-को) है जो अंग्रेजी श   द मिल्क=दूध से अर्थ व ध्वनिसाम्य रखती है। पुराने समय में ईरानी में शकस्थान को ‘शकान्बेइजा’=शकानां बीजः=शकों का मूलस्थान कहा गया है। यह स्थान यूरेशिया में दुनाई (डेन्यूब) नदी से त्यान्शान् अल्ताईपर्वत श्रेणी तक था। बाद में कभी ये लोग ईरान के पूर्वी भाग में आकर बस गये तो उस स्थान को शकस्थान=सीस्तान या सीथिया कहा जाने लगा। धीरे-धीरे बढ़ते हुए ये भारत में आ गये और कुषाण साम्राज्य के रूप में इनका शासन प्रसिद्ध हुआ।

श्री नन्दलाल दे ने अपनी पुस्तक ‘रसातल ओर दि अंडर वर्ल्ड’ में शोधपूर्वक बताया है कि वहां भारतीय ऐतिहासिक ग्रन्थों में वर्णित जातियों के नाम भी यथावत् मिलते हैं। वहां मग ब्राह्मण, मगग और मशक क्षत्रिय, गानग वैश्य और मन्दग नाम के शूद्र हैं। शक भाषा में शक का सग, मग का मगुस् या मगि, मगग का मगोग या गोग, गानक का गनक, मन्दग का माद अपभ्रंश प्रचलित है। ग्रीक इतिहासकार हैरोडोटस् ने भी वहां की इन चार जातियों का उल्लेख किया है। भविष्यपुराण में मगों को ‘‘आर्यदेश समुद्भवाः’’ (ब्राह्म० १३६.५९) कहा है। बहुत से इतिहासकार शकों को वैवस्वत मनुपुत्र इक्ष्वाकु के पुत्र नरिष्यन्त के वंशज मानते हैं। शकों की भाषा पूर्वकाल में संस्कृत रही है, अतः उनकी भाषा में संस्कृत के अपभ्रंश श       द मिलते हैं। शकस्थान के पर्वतों व जनपदों का संस्कृत भाषा के नामों से साम्य इस प्रकार है –

शकद्वीप = सीदिया = सीथिया         कुमुद =कोमेदेई (पर्वत)

कुमार = कोमारोई (पर्वत)              जलधार = सलतेरोई (पर्वत)

इक्षु=आक्सस (नदी)                  सीता = सीर दरिया

मूग = मरगियाना (वर्तमान मर्व प्रदेश)   मशक = मस्सगेताइ (प्रदेश)

श्यामगिरि=मुस्तामूग अर्थात् कालापर्वत

(ग) कुशद्वीप की पहचान

इसी प्रकार कुश द्वीप का भी शिलालेखों में उल्लेख मिला है। डॉ. डी. सी. सरकार ने अपनी पुस्तक ‘जियाग्राफी आफ एन्सिएंट एण्ड मैडिवल इंडिया’ पृ० १६४ पर दारयबहु (अंग्रेजी में डैरियस, ५२२ से ४८६ ईस्वी पूर्व) नामक फारस राजा के हमदान से प्राप्त शिलालेख का विवरण देते हुए बताया है कि उसकी राज्य-सीमा कुश देश तक है। उसने विवरण देते हुए लिखा है कि उसके राज्य की सीमा सोग्दियाना (शीर दरिया और आमू दरिया के पार स्थित) शक स्थान से कुरु देश तक, सिन्धु देश से स्वर्दा (एशिया माइनर में सारडिस नामक स्थान) तक है। इस प्रकार कुश द्वीप की स्थिति इथोपिया, अफ्रीका के पूर्वो      ार भाग के आसपास अनुमानित होती है। शेष द्वीपों की खोज अपेक्षित है।

(इ) सात द्वीपों में वर्णव्यवस्था के प्रमाण

संस्कृत के प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों में यह उल्लेख आता है कि पूर्वोक्त उन देशों में मनु की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था प्रचलित थी और उन देशों के समाजों में चार वर्णों से समाजिक व्यवहार सम्पन्न किये जाते थे-

(क) पुष्करद्वीप की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था-विष्णुपुराण के अनुसार सात द्वीपों में से एक पुष्कर द्वीप ऐसा था जहां वर्णाश्रम-व्यवस्था के अन्तर्गत निम्न वर्णस्थों की जनसंख्या नहीं थी। उसका कारण यह था कि वहां अधिकतः देवस्वरूप ब्राह्मण-आचरणधारी जन ही रहते थे-

    ‘‘सप्तैतानि तु वर्षाणि चातुर्वर्ण्ययुतानिच।’’ (२.४.१२)

अर्थ-ये सभी सात देश चातुर्वर्ण्यव्यवस्था से युक्त हैं।

भागवत्पुराण कहता है –‘‘तद्वर्षपुरुषा भगवन्तं ब्रह्मरूपिणं सकर्मकेण कर्मणाऽराधयन्ति’’ (५.२०.३२)=पुष्कर देशवासी ब्रह्मस्वरूप परमात्मा को अपने श्रेष्ठ आचरण से प्रसन्न रखते हैं।

    (ख) कुश द्वीप की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का विवरण-

वर्णास्तत्रापि चत्वारो निजानुष्ठानतत्पराः।

दमिनः शुष्मिणः स्नेहाः मन्देहाश्च महामुनेः।

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्रश्चानुक्रमोदिताः॥

                (विष्णुपुराण २.४.३८, ३९, ४.३८, ३९)

अर्थात्-कुशद्वीप में भी चार वर्ण हैं जो अपने-अपने वर्णकर्   ाव्यों के पालन में प्रयत्नशील रहते हैं। वहां ब्राह्मणों को दमिन् (=दमनशील इन्द्रियों वाले), क्षत्रियों को शुष्मिन् (=बलशाली), वैश्यों को स्नेह (=विनम्रशील) और शूद्रों को मन्देह (=निम्न बौद्धिक स्तर या व्यवसाय वाले) कहा जाता है।

भागवतपुराण में चार वर्णों का पर्यायनाम क्रमशः कुशल=बुद्धिमान्, कोविद=धनुर्धारी, अभियुक्त=परिश्रमी या चतुर और कुलक= श्रमिक या शिल्पी दिया है। (५.२०.१६)

    (ग) शाक द्वीप की चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का विवरण-

तत्र पुण्याः जनपदाः, चातुर्वर्ण्यसमन्विताः।

मगाः ब्राह्मणभूयिष्ठाः, मागघाः क्षत्रियास्तु ते।

वैश्यास्तु मानसाः ज्ञेयाः शूद्रास्तेषां तु मन्दगाः॥

(विष्णुपुराण २-४-२३-२५, ६४, ७० के श्लोकांश)

अर्थात्-शाकद्वीप में अनेक पुण्यशाली जनपद हैं जहां चातुर्वर्ण्य व्यवस्था प्रचलित है। वहां ब्राह्मणों का मग (=विद्याध्ययन में रत), क्षत्रियों को मगध या मगग (=गतिशील योद्धा), वैश्यों को मानस या गानक (=बहुत बुद्धिवाला, चतुर), और शूद्र को मन्दग (=मन्द बुद्धि या निम्न व्यवसाय वाला) कहा जाता है।

भागवत पुराण में चार वर्णों का पर्याय नाम क्रमशः ऋतव्रत =वेदाक्त आचरण वाले, सत्यव्रत = सत्य प्रतिज्ञा वाले, दानव्रत = दान देने की प्रतिज्ञा करने वाले, और अनुव्रत= आज्ञाकारी या आदेशपालक दिया है (५.२०.२७)।

(घ) प्लक्षद्वीप की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का विवरण-

धर्माः पञ्चस्वथैतेषु वर्णाश्रमविभागजाः।

वर्णास्तत्रापि चत्वारस्तान् निबोध गदामि ते॥

आर्यकाः कुरवश्चैव विवाशाः भाविनश्च ते।

विप्र-क्षत्रिय-वैश्यास्ते शूद्राश्च मुनिस    ामः॥

(विष्णुपुराण २.४.८, १५, १९)

अर्थात्-प्लक्ष द्वीप में वर्णाश्रम धर्मों का पालन करने वाले चार वर्ण हैं। उन्हें वहां क्रमशः आर्यक=उ     ाम आचरण वाले, कुरु=युद्ध में गर्जना करने वाले, विवाश=धनादि की कामना वाले और शूद्रों को भाविन्= निर्देशपालक व्यक्ति, कहा जाता है।

भागवतपुराण में चार वर्णों का पर्यायवाची नाम क्रमशः हंस = विवेकी, पतङ्ग=आक्रामक, ऊर्ध्वायन=उन्नतिशील, सत्याङ्ग = निष्ठावान् दिया है। कहा है कि ये चारों वर्ण तीन वेदों के मन्त्रों द्वारा परमात्मा का यजन करते हैं (५.२०.४)।

(ङ) क्रौंच द्वीप की वर्णव्यवस्था का विवरण –

पुष्कराः पुष्कलाः धन्याः तिष्याख्याश्च महामुने।

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चानुक्रमोदिताः॥

(विष्णुपुराण २.४.५३, ५६)

अर्थ-क्रौंच द्वीप में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को क्रमशः पुष्कर=बौद्धिक पुष्टि करने वाले, पुष्कल=प्रजा का पालन-पोषण करने वाले, धन्य=धनी और तिष्य=सेवा से प्रसन्न करने वाले नाम से पुकारा जाता है।

भागवतपुराण में चार वर्णों का नाम पर्यायवाची रूप में क्रमशः पुरुष=आत्म-परमात्मचिन्तक उ   ाम पुरुष, ऋषभ=बल में श्रेष्ठ, द्रविण=धनवान् और देवक=सेवक, दिया है (५.२०.२२)।

(च) जम्बू द्वीप की वर्णव्यवस्था का विवरण-

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः मध्ये शूद्राश्च भागशः।

इज्यायुधवाणिज्याद्यैः वर्तयन्तो व्यवस्थिताः॥

(विष्णुपुराण २.३.९, २९)

अर्थ-जम्बू द्वीप (भारत सहित एशिया द्वीप में) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य निवास करते हैं। उनके साथ स्थान-स्थान पर शूद्र बसे हैं। वे वर्ण क्रमशः यज्ञ, शस्त्र, वाणिज्य आदि से अपनी आजीविका करते हुए चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में व्यवस्थित हैं।

(छ) शाल्मलि द्वीप की वर्णव्यवस्था का वर्णन –

सप्तैतानि तु वर्षाणि चातुर्वर्ण्ययुतानि च।

शाल्मले ये तु वर्णाश्च वसन्ति ते महामुने।

कपिलाश्चारुणाः पीताः कृष्णाश्चैव पृथक् पृथक्।

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चैव यजन्ति ते॥

(विष्णुपुराण २.४.१२-१३)

अर्थ-‘ऊपर वर्णित सभी सात देश चातुर्वर्ण्य व्यवस्था से युक्त हैं। शाल्मलि द्वीप में जो वर्ण हैं वे इन नामों से प्रसिद्ध हैं। ब्राह्मणों को कपिल, क्षत्रियों को अरुण, वैश्यों को पीत और शूद्रों को कृष्ण कहा जाता है।’ ये वर्णों के रंगवाची प्रतीक नाम हैं। (इनका प्रतीकार्थ विवरण अ० ३.१ में ‘ऊ’ शीर्षक में द्रष्टव्य है।)

भागवतपुराण में चार वर्णों का पर्याय नाम क्रमशः श्रुतधर=वेदों को धारण करने वाले, वीर्यधर=बलधारक, वसुन्धर=धनधारक और इषुन्धर=बाण आदि बनाने वाले, दिया है। (५.२०.११)।

यह स्वायम्भुव मनु के पौत्रों के समय का इतिहास सौभाग्य से प्राप्त है जो हमें यह जानकारी दे रहा है कि आदि मानवसृष्टि काल में केवल वर्णाश्रम व्यवस्था ही समाज की व्यवस्था थी, जो विश्वव्यापी थी। इस प्रकार यह विश्व की सर्वप्रथम समाज-व्यवस्था थी और इसके सर्वप्रथम व्यवस्थापक स्वायम्भुव मनु थे।

 

मनुस्मृति पर विदेशी विद्वानों का शोधकार्य और भाष्य: डॉ. सुरेन्द कुमार

विश्वभर में मनुस्मृति के प्रभाव और भारत एवं आसपास के देशों में उसकी मह     ाा को देखकर अनेक विदेशी विद्वान् मनुस्मृति की ओर आकृष्ट हुए। उनके द्वारा मनुस्मृति-विषयक अनेक ग्रन्थ रचे गये। उनमें से प्रमुख का विवरण इस प्रकार है, जिनमें मनुस्मृति की प्रतिष्ठा को स्वीकार किया है-

सन् १७८६ में मनु-आधारित हिन्दू कानूनों के फारसी अनुवाद का अंग्रेजी रूपान्तरण प्रकाशित हुआ। १७९४ में मनुस्मृति का सर विलियम जोन्स कृत अंग्रेजी अनुवाद छपा। विलियम जोन्स न्यायाधीश के रूप में भारत आये थे। यहां के समाज में मनुस्मृति के मह  व को देखकर उन्होंने उसको विद्यार्थी बनकर पढ़ा। १८२५ में जी०सी० हॉगटन रचित अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ। फ्रैंच भाषा में १८३३ में पार०ए० लॉअसलयूर डैसलांगचैम्पस का ग्रन्थ ‘LOIS DE MANOU’ ग्रन्थ छपा, जो मनुस्मृति का भाष्य तथा विवेचन था। १८८४ में हापकिन्ज का ‘The Ordinances of Manu’छपा। १८८६ में ऑक्सफोर्ड से The sacred books of the east

series’ के अन्तर्गत २५ वें खण्ड में मैक्समूलर और      यूहलर के भाष्य एवं समीक्षायुक्त मनुस्मृति का अनुवाद प्रकाशित हुआ। १८८७ में जे.जौली द्वारा कृत जर्मन भाषा का अनुवाद छपा। इन प्रकाशनों से विदेशों में मनु और मनुस्मृति खूब प्रचार-प्रसार हुआ।

उपर्युक्त विवरणों से हमें जानकारी मिलती है कि मनुस्मृति का विश्व में प्रसार था। उस पर विदेशी विद्वानों को भी गर्व है। भारत के लिए तो यह महान् गौरव का विषय है ही। स्पष्ट है कि मनुस्मृति आज अन्तरराष्ट्रीय स्तर के अध्ययन का विषय बन चुका है। भारत की धरोहर विश्व की धरोहर बन चुकी है। मनु और मनुस्मृति पर कोई भी टिप्पणी करने से पूर्व हमें यह विचारना पड़ेगा कि उसका विश्वस्तर पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

मनु और मनुस्मृति की विश्व में प्रतिष्ठा : डॉ. सुरेन्द कुमार

मनु और मनुस्मृति का विषय केवल भारत का ही नहीं है, यह अधिकांश विश्व से सम्बन्ध रखता है। इनका प्रभाव केवल भारत ही नहीं अपितु विश्व के अधिकांश सभ्य देशों में रहा है। प्राचीनकाल में ही मनुस्मृति का प्रसार दूर-दूर तक हो चुका था। अनेक देशों की संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, इतिहास आदि को मनुस्मृति ने प्रभावित किया है। इस प्रकार मनु और मनुस्मृति का अन्तर-राष्ट्रीय या विश्वस्तरीय मह     व है। मनु और मनुस्मृति सम्बन्धी मान्यताएं विश्व के विद्वानों में मान्यताप्राप्त (Recognised) और स्थापित (Established) हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी आदि से प्रकाशित ‘इन्सा-इक्लोपीडिया’ में, ‘द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ और श्री केबल मोटवानी द्वारा लिखित ‘मनु धर्मशास्त्र : ए सोशियोलोजिकल एण्ड हिस्टोरिकल स्टडी’ नामक पुस्तक में विस्तार से उक्त तथ्यों का वर्णन है। इन लेखकों ने दिखाया है कि मनु और मनुस्मृति का प्रभाव कि सी-न-किसी रूप में इन देशों में पाया जाता है- चीन, जापान, बर्मा, फिलीपीन, मलाया, स्याम (थाईलैंड), वियतनाम, कम्बोडिया, जावा, चम्पा (दक्षिणी वियतनाम), इंडोनेशिया, मलेशिया, बाली, श्रीलंका, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, रूस, साइबेरिया, तुर्कीस्तान, स्केडीनेविया, स्लेवनिक, गौलिक, टयूटानिक, रोम, यूनान, बेबिलोनिया, असीरिया, तुर्की, ईरान, मिश्र, क्रीट, सुमेरिया, अमेरिका तथा अमरीकी द्वीप के देश।

दक्षिणी-पूर्वी एशिया के देशों के संविधान तो मनुस्मृति पर आधारित थे और उनके लेखकों को ‘मनु’ की उपाधि प्रदान कर गौरवान्वित किया जाता था। यहां मनु और मनुस्मृति की प्रशंसा और प्रभाव विषयक कुछ विदेशी उल्लेख प्रस्तुत किये जाते हैं-

(क) चीन में प्राप्त पुरातात्विक प्रमाण-विदेशी प्रमाणों में मनुस्मृति की काल-सम्बन्धी जानकारी उपल    ध कराने वाला एक मह  वपूर्ण पुरातात्विक प्रमाण हमें चीनी भाषा के हस्तलेखों में मिलता है। सन् १९३२ में जापान ने बम विस्फोट द्वारा जब चीन की ‘ऐतिहासिक दीवार’ को तोड़ा तो उसमें लोहे का एक ट्रंक मिला, जिसमें चीनी पुस्तकों की प्राचीन पांडुलिपियां भरी थीं। वे हस्तलेख सर अॅागुत्स फ्रित्स (Auguts fritz Geogre) को मिल गये। वह उन्हें लंदन ले आया और उनको ब्रिटिश म्यूजियम में रख दिया। उन हस्तलेखों को प्रो० एन्थनी ग्रेमे (Prop.Anthony Graeme)) ने चीनी भाषा के विद्वानों से पढ़वाया। उनमें यह जानकारी मिली कि चीन के राजा चिन-इज-वांग (Chin-ize-wang) ने अपने शासनकाल में यह आज्ञा दे दी थी कि सभी प्राचीन पुस्तकों को नष्ट कर दिया जाये जिससे चीनी सभ्यता के सभी प्राचीन प्रमाण नष्ट हो जायें। तब उनको किसी विद्याप्रेमी ने ट्रंक में छिपा लिया और दीवार बनते समय उस ट्रंक को दीवार में चिनवा दिया। संयोग से वह ट्रंक बम विस्फोट में निकल आया। उन हस्तलेखों में से एक में यह लिखा है-‘मनु का धर्मशास्त्र भारत में सर्वाधिक मान्य है जो वैदिक संस्कृत में लिखा है और दस हजार वर्ष से अधिक पुराना है।’ यह विवरण केवल मोटवानी की पुस्तक ‘मनु धर्मशास्त्र : ए सोशियोलोजिकल एण्ड हिस्टोरिकल स्टडी’ (पृ० २३२, २३३) में दिया है।

यह चीनी प्रमाण मनुस्मृति के वास्तविक काल विवरण को तो प्रस्तुत नहीं करता किन्तु यह संकेत देता है कि मनु का धर्मशास्त्र बहुत प्राचीन है। फिर भी, पाश्चात्य लेखकों द्वारा कल्पित काल निर्णय को यह प्रमाण झुठला है।

(ख) ‘द कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया’ में अंग्रेज इतिहासकारों ने लिखा है कि अंग्रेज जब भारत में आये तो भारत और समस्त दक्षिणी तथा दक्षिणपूर्वी एशिया के बर्मा, कम्बोडिया, थाइलैंड, जावा, बालिद्वीप, श्रीलंका, वियतनाम, फिलीपन, मलेशिया, इंडोनेशिया, चीन और रूस के कुछ क्षेत्रों में संविधान के रूप में मनुस्मृति को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त थी। इन देशों के संविधान मनुस्मृति पर आधारित थे। वहां के राजा और संविधान-प्रणेता गौरव के साथ ‘मनु’ उपाधि धारण किया करते थे। वहां के प्राचीन शिलालेखों में मनुस्मृति के श्लोक उद्धृत मिलते हैं। बर्मा के संविधान का नाम ही ‘धम्मथट्’ और ‘मानवसार’ तथा कम्बोडिया के संविधान का ‘मानवनीतिसार’ या ‘मनुसार’ नाम था। कम्बोडिया के प्राचीन इतिहास में आता है कि कम्बोडियावासी मनु के वंशज हैं। इसी प्रकार ईरान, इराक के प्राचीन इतिहास स्वयं को आर्य और आर्यवंशी घोषित करते रहे हैं। मिस्र के वासी स्वयं को सूर्यवंशी मानते हैं। उनके पिरामिडों में सूर्य का चित्र अंकित मिलता है। जो सूर्यवंशी होने का प्रतीक है।

(ग) संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध इतिहासकार पाश्चात्य लेखक ए.बी. कीथ ने स्वरचित ‘ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर’ में मनुस्मृति के प्रभाव और प्रशंसा का उल्लेख इस प्रकार किया है-

‘‘The influence of the text is attested by its acceptance in Burma, siam (Thailand) and Java as authoritative and production of works based on it.’’ (P.445)

अर्थात्-बर्मा, थाईलैंड, जावा आदि देशों में मनुस्मृति का प्रभाव और स्वीकार्यता एक प्रामाणिक, अधिकारिक और वहां के संविधान के स्रोतग्रन्थ के रूप में है। वहां के संविधान मनुस्मृति को आधार बनाकर लिखे गये हैं।

The smriti of manu not to guide the life of any single community, but to be a general guide for all

the classes of the state.’’ (P. 404)

 

अर्थात्-मनुरचित स्मृति (मनुस्मृति) किसी एक समुदाय के लिए ही जीवनपथ प्रदर्शक नहीं है, अपितु वह विश्व के सभी समुदायों के लिए समान रूप से जीवन का पथ प्रदर्शन करने वाली है।

(घ) जर्मन के विख्यात दार्शनिक फ्रीडरिच नीत्से ने ‘वियोंड निहिलिज्म नीत्शे, विदाउट मार्क्स’ में मनुस्मृति और बाइबल की तुलना करके मनुस्मृति को बाइबल से उतम शास्त्र माना तथा बाइबल को छोड़कर मनुस्मृति को पढ़ने का नारा दिया। नीत्से ने कहा-

‘‘How wretched is the new testamant compared to manu. How faul it smalls!’’ (P.41)‘‘Close the bible and open the cod of manu.’’ (The will to power’, Vol. I, Book II, P.126)

अर्थात्-मनुस्मृति बाइबल से बहुत उत्तम ग्रन्थ है। बाइबल से तो अश्लीलता और बुराइयों की बदबू आती है। बाइबल को बंद करके रख दो और मनुस्मृति को पढो।

(ङ) भारतरत्न श्री पी.वी. काणे, जो धर्मशास्त्रों के प्रामाणिक इतिहासकार व शोधकर्ता हैं, ने भी अपने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ नामक बृहद्ग्रन्थ में ऐसी ही जानकारी दी है। वे लिखते हैं-

‘मनुस्मृति का प्रभाव भारत के बाहर भी गया। चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) के एक अभिलेख में बहुत-से श्लोक मनु से मिलते हैं। बर्मा में जो ‘धम्मथट्’ है, वह मनु पर आधारित है। बालिद्वीप का कानून मनुस्मृति पर आधारित था।’ (भाग १, पृ० ४७.)

(च) एशिया के इतिहास पर पेरिस यूनिवर्सिटी से डी.लिट् उपाधिप्राप्त और अनेक पुरस्कारों से सम्मानित इतिहासज्ञ डॉ० सत्यकेतु विद्यालंकार ने ‘दक्षिण-पूर्वी और दक्षिणी एशिया में भारतीय संस्कृति’ पुस्तक में प्रस्तुत विषय से सम्बन्धित अनेक जानकारियां दी हैं। जो इस प्रकार हैं-

१. ‘‘फिलीप्पीन के निवासी यह मानते हैं कि उनकी आचार-संहिता मनु और लाओत्से की स्मृतियों पर आधारित है। इसलिये वहां की विधानसभा के द्वार पर इन दोनों की मूर्तियां भी स्थापित की गई हैं।’’ (पृ० ४७)

२. ‘‘चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) के अभिलेखों, राजकीय शिलालेखों से सूचित होता है कि वहां के कानून प्रधानतया मनु, नारद तथा भार्गव की स्मृतियों तथा धर्मशास्त्रों पर आधारित थे। एक अभिलेख के अनुसार राजा जयइन्द्रवर्मदेव मनुमार्ग (मनु द्वारा प्रतिपादित मार्ग) का अनुसरण करने वाला था।’’ (पृ० २५४)

३. ‘‘चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) का जीवन वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था।……..राजा वर्णाश्रम-व्यवस्था की स्थापना के आदर्श को सदा अपने सम्मुख रखते थे। १७९९ ईस्वी के राजा इन्द्रवर्मा प्रथम के अभिलेख में उसकी राजधानी के सम्बन्ध में यह लिखा गया है…….वहां वर्ण तथा आश्रम भली-भांति सुव्यवस्थित थे।’’

(=निरुपद्रववर्णाश्रम-व्यवस्थिति)’’ (पृ० २५७)

४. ‘‘धम्मथट् या धम्मसथ नाम के ग्रन्थ वर्मा देश की आचार-संहिताएं और संविधान हैं। ये मनु आदि की स्मृति पर आधारित हैं। ‘सोलहवीं’ सदी में बुद्धघोष ने उसे ‘मनुसार’ नाम से पालि भाषा में अनूदित किया। इस धम्मथट् का ‘मनुसार’ नाम होना ही यह सूचित करता है कि ‘मनुस्मृति’ या ‘मानव संहिता’ के आधार पर इसकी रचना की गई थी। धम्मसथ वर्ग के जो अनेक ग्रन्थ सतरहवीं और अठाहरवीं सदियों में बरमा में लिखे गये, उनके साथ भी मनु का नाम जुड़ा है।’’ (पृ० २९७)

५. ‘‘कम्बोडिया के लोग मनुस्मृति से भली-भांति परिचित थे। राजा उदयवीर वर्मा के ‘सदोक काकथेम’ से प्राप्त अभिलेख में ‘मानव नीतिसार’ का उल्लेख है, जो मानव सम्प्रदाय का नीतिविषयक ग्रन्थ था। यशोवर्मा के ‘प्रसत कोमनप’ से प्राप्त अभिलेख में मनुसंहिता का एक श्लोक भी दिया गया है। जो आज मनुस्मृति अ.२, श्लोक १३६ पर प्राप्त है।’’ इसमें सम्मान-व्यवस्था का विधान है। (पृ० १९८)

६. ‘‘६६८ ईस्वी में जयवर्मा पंचम कम्बुज (कम्बोडिया) का राजा बना……..एक अभिलेख में इस राजा के विषय में लिखा है कि उसने ‘वर्णों और आश्रमों को दृढ़ आधार पर स्थापित कर भगवान् को प्रसन्न किया।’’ (पृ० १४९)

७. ‘‘राजा जयवर्मा प्रथम के अभिलेख में दो मन्त्रियों का उल्लेख है, जो धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे। ‘मनुसंहिता’ सदृश ग्रन्थों को धर्मशास्त्र कहा जाता था…। जो धर्मशास्त्र कम्बुज (कम्बोडिया) देश में विशेष रूप से प्रचलित थे, उनमें मनुसंहिता का विशिष्ट स्थान था।’’ (पृ० १९८)

८. बालि द्वीप (इंडोनेशिया) के समाज में आज भी वर्णव्यवस्था का प्रचलन है। वहां अब भी वैदिक वर्णव्यवस्था के प्रभाव से उच्चजातियों को ‘द्विजाति’ तथा शूद्र का नाम ‘एकजाति’ प्रचलित है जो कि मनु ने १०.४ श्लोक में दिया है। वहां शूद्रों के साथ कोई भेदभाव तथा ऊंच-नीच, छुआछूत आदि का व्यवहार नहीं है। यही मनु की वर्णव्यवस्था का वास्तविक रूप था। (दक्षिणपूर्वी और दक्षिणी एशिया में भारतीय संस्कृति : डा० सत्यकेतु विद्यालंकार, पृ० १९, ११४)

(छ) यूरोप के प्रसिद्ध लेखक पी. थामस अपनी पुस्तक च्‘Hindu

religion, customs and mannors’में मनुस्मृति का मह    व वेदों के उपरान्त सबसे अधिक बतलाते हैं-

‘‘The code of manu is of great autiquity, only less

ancient then the three vedas.’’ (P.102)

अर्थात्-मनु का संविधान (मनुस्मृति) सर्वोच्च स्थान रखती है। वेदों के बाद उसी का सर्वोच्च मह व है।

(ज) अमेरिका से प्रकाशित ‘दि मैकमिलन फैमिली इन्साइक्लो-पीडिया’ में भी मनु को मानवजाति का आदिपुरुष और आदि-समाज-व्यवस्थापक बताया है-

‘‘Manu is the progenitor of the human race. He is thus the lord and guardian of the living.’’ (P. 131)

अर्थात्-‘मनु मानवजाति का आदिपुरुष है। वह आदिसमाज का व्यवस्थापक या आदि सभ्यता का पथप्रदर्शक राजा है।’

(झ) रूस के विचारक पी.डी. औसमेंस्की ने कहा है कि मनुस्मृति की सर्वश्रेष्ठ समाजव्यवस्था के अनुसार मनुष्य समाज की पुनः संरचना होनी चाहिये (ए न्यू मॉडल आफ यूनिवर्स)।

(ञ) इंगलैंड के प्रसिद्ध लेखक डॉ. जी.एच.मीज ने वर्णव्यवस्था के पहले तीन वर्णों में समाज को बांटते हुए कहा है कि इस व्यवस्था के होने पर धरती स्वर्ग में बदल जायेगी (वर्क, वैल्थ एण्ड हैप्पिनैस आफ मैनकाइंड)।

(ट) विश्व में इस व्यवस्था के प्रसार के सम्बन्ध में डॉ० अम्बेडकर का कथन है-

‘‘चातुर्वर्ण्य पद्धति………यह संपूर्ण विश्व में व्याप्त थी। वह मिस्र के निवासियों में थी और प्राचीन फारस के लोगों में भी थी। प्लेटो इसकी उत्कृष्टता से इतना अभिभूत था कि उसने इसे सामाजिक संगठन का आदर्श रूप कहा था।’’ (डॉ. अम्बेडकर वाङ्मय खंड, ७, पृ० २१०)

(ठ) मैडम एनी बीसेन्ट (जर्मनी) ने मनुस्मृति की प्रशंसा करते हुए कहा है कि ‘‘यह ग्रन्थ भारतीय और अंग्रेज सभी के लिए समान रूप से उपयोगी है, क्योंकि आज के समस्यापूर्ण दैनिक प्रश्नों के समाधानात्मक उ   ारों से यह परिपूर्ण है। ’’(द साइंस एण्ड सोशल आर्गनाइजेशन,भूमिका,पृ० 331द्बद्ब ,भगवानदास)

(ड) बैलजियम के विद्वान् लेखक मनुस्मृति को अध्यात्म ज्ञान एवं वैधानिक प्रमाण में सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ मानते हैं। उनका कहना है कि यह जीवन के सत्यों को प्रतिपादित करता है। (द ग्रेट सीक्रेट, पृ० ९५)

(ढ) मैडम एच० पी०     लेवैट्स्की ने अपनी कृति “Isis UnVeiled” में मनुस्मृति को आदित्म ज्ञानस्रोत प्रतिपादित किया है। पुरातत्ववे    ाा वी० गार्डन चाईल्ड ने इस मत का समर्थन किया है। (केवल मोटवानी रचित, पूर्वोद्धृत ग्रन्थ, पृ० १९७-२०१)

डॉ० अम्बेडकर के मतानुसार मनुस्मृति और मनु की प्रतिष्ठा एवं प्रामाणिकता: डॉ. सुरेन्द कुमार

.   मनुस्मृति धर्मग्रन्थ एवं विधिग्रन्थ है

भारतीय साहित्य और डॉ. अम्बेडकर इस बात पर एकमत हैं कि ‘मनु मानव-समाज के आदरणीय आदि-पुरुष हैं।’ अब यह विचारणीय रहता है कि उस मनु ने कैसी समाज-व्यवस्था प्रदान की है। मनुस्मृति का अध्ययन करने के उपरान्त डॉ० अम्बेडकर ने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है-

(क) ‘‘स्मृतियां अनेक हैं, तो भी वे मूलतः एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं।………इनका स्रोत एक ही है। यह स्रोत है ‘मनुस्मृति’ जो ‘मानव धर्मशास्त्र’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। अन्य स्मृतियां मनुस्मृति की सटीक पुनरावृ     िा हैं। इसलिए हिन्दुओं के आचार-विचार और धार्मिक संकल्पनाओं के विषय में पर्याप्त अवधारणा के लिए मनुस्मृति का अध्ययन ही यथेष्ट है।’’ (डॉ० अम्बेडकर वाङ्मय, खंड ७, पृ० २२३)

(ख) ‘‘अब हम साहित्य की उस श्रेणी पर आते हैं जो स्मृति कहलाता है। जिसमें से सबसे मह   वपूर्ण मनुस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति हैं।’’ (वही, खंड ८, पृ० ६५)

(ग) ‘‘मैं निश्चित हूं कि कोई भी रूढिवादी हिन्दू ऐसा कहने का साहस नहीं कर सकता कि मनुस्मृति हिन्दू धर्म का धर्मग्रन्थ नहीं है।’’ (वही, खंड ६, पृ० १०३)

(घ) ‘‘मनुस्मृति को धर्मग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।’’ (वही, खंड ७, पृ० २२८)

(ङ) ‘‘मनुस्मृति कानून का ग्रन्थ है, जिसमें धर्म और सदाचार को एक में मिला दिया गया है। चूंकि इसमें मनुष्य के कर्    ाव्य की विवेचना है, इसलिए यह आचार शास्त्र का ग्रन्थ है। चूंकि इसमें जाति (वर्ण) का विवेचन है, जो हिन्दू धर्म की आत्मा है, इसलिए यह धर्मग्रन्थ है। चूंकि इसमें कर्      ाव्य न करने पर दंड की व्यवस्था दी गयी है, इसलिए यह कानून है।’’ (वही खंड ७, पृ. २२६)

इस प्रकार मनुस्मृति एक संविधान है, धर्मशास्त्र है, आचार शास्त्र है। यही प्राचीन भारतीय साहित्य मानता है। सम्पूर्ण साहित्य में मनुस्मृति को सबसे प्राचीन और सर्वोच्च स्मृति घोषित किया है। डॉ० अम्बेडकर की उपर्युक्त यही मान्यता स्थापित होती है।

.   मनुस्मृति का रचयिता मनु आदरणीय है

डॉ० अम्बेडकर उक्त मनुस्मृति के रचयिता को आदर के साथ स्मरण करते हैं-

(क) ‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में मनु आदरसूचक संज्ञा थी।’’ (वही, खंड ७, पृ० १५१)

(ख) ‘‘याज्ञवल्क्य नामक विद्वान् जो मनु जितना महान् है।’’ (वही, खंड ७, पृ० १७९)

जहां डॉ० अम्बेडकर का साहित्य-समीक्षक का रूप होता है वहां वे मनु और मनुस्मृति को सम्मान के साथ स्मरण करते हैं। इस स्थिति में प्रश्न उठता है कि मान्यताओं की एकरूपता होने पर भी मनु का विरोध क्यों?

मनुवाद का सही अर्थ: डॉ. सुरेन्द कुमार

‘मनुवाद’ का शाब्दिक अर्थ है-‘महर्षि मनु की विचारधारा।’ मनुस्मृति में वर्णित मौलिक सिद्धान्तों के अनुसार मनु की विचारधारा है- ‘गुण, कर्म, योग्यता के श्रेष्ठ मूल्यों पर आधारित वर्णाश्रम-व्यवस्था। मनु की वर्णव्यवस्था ऐसी समाजव्यवस्था थी जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रुचि, गुण, कर्म एवं योग्यता के आधार पर किसी भी वर्ण का चयन करने की स्वतन्त्रता थी और वह स्वतन्त्रता जीवनभर रहती थी। उस वर्णव्यवस्था में जन्म का मह    व उपेक्षित था, ऊंच-नीच, छूत-अछूत का कोई भेदभाव नहीं था, व्यक्ति-व्यक्ति में असमानता नहीं थी, पक्षपातपूर्ण और अमानवीय व्यवहार सर्वथा निन्दनीय था। एक ही श द में कहें तो ‘मनुवाद’ मानववाद का ही दूसरा नाम था।

इसके विपरीत, गुण, कर्म, योग्यता के मानदण्डों की उपेक्षा करके जन्म, असमानता, पक्षपात और अमानवीयता पर आधारित विचारधारा ‘गैर मनुवाद’ कहलायेगी।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘मनुवाद’ श    द का प्रयोग आज जान-बूझ कर गलत अर्थ में किया जा रहा है और इसे सोची-समझी रणनीति के अन्तर्गत किया जा रहा है, ताकि एक बहुत बड़े जनसमुदाय को भारत के अतीत और अन्य समुदायों से काटकर अलग-अलग किया जा सके। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि स्वयं को कोई कितना ही विद्वान्, लेखक, समीक्षक, विचारक या इतिहासवे   ाा कहे, ‘मनुवाद’ को जातिव्यवस्था के संदर्भ में प्रयुक्त करने वाला व्यक्ति मनुस्मृति का मौलिक, गम्भीर, विश्लेषणात्मक और यथार्थ अध्येता नहीं माना जा सकता। उसने जो कुछ पढ़ा है वह छिछले तौर पर, और दूसरों के दृष्टिकोण से पढ़ा है; क्योंकि, मौलिक रूप से ‘मनुस्मृति’ उस ब्रह्मापुत्र स्वायंभुव मनु की रचना है जो भारतीय इतिहास का क्षत्रियवर्णधारी आदिराजा था। ऐतिहासिक दृष्टि से उस समय जाति-व्यवस्था का उद्भव ही नहीं हुआ था। जब जाति-व्यवस्था का उद्भव ही नहीं हुआ था, तो ‘मनुवाद’ का जाति-व्यवस्थापरक अर्थ करना ऐतिहासिक अज्ञानता, मनुस्मृति-ज्ञान की शून्यता और दुराग्रह मात्र ही है? मेरी इस आपत्ति का उत्तर वे लेखक दें जो ‘मनुवाद’ का जातिव्यवस्थापरक अर्थ करते हैं। मैं उन लेखकों के समक्ष यह चुनौती उपस्थित करता हूं। क्या वे इसका प्रामाणिक ऐतिहासिक   उत्तर  देना स्वीकार करेंगे?

मनुस्मृति और मनुवाद : भ्रांतियों का जन्म : डॉ. सुरेन्द्र कुमार

विगत सहस्त्राब्दी के लगभग आठ सौ वर्षों तक भारत विदेशी शासकों के अधीन रहा। इस अवधि में उन विदेशी शासकों के साहित्य, संस्कृति, आचार-व्यवहार और सम्प्रदायों का भारतीय जनमानस पर गम्भीर प्रभाव पड़ा। उनके प्रभाव से भारतीय संस्कृति, साहित्य, धर्म, परम्परा आदि का ह्रास हुआ। उनके कारण हमारे चिन्तन-मनन, आचार-विचार, आहार-विहार आदि में परिवर्तन आया, और आज भी आ रहा है।

विदेशी शासनों में भी सर्वाधिक गम्भीर और दूरगामी प्रभाव पड़ा अंग्रेजी शासन और अंगेजियत का। उन्होंने भारतवासियों को राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं अपितु बौद्धिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी गुलाम बनाने का षड्यन्त्र किया। इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों ने पादरीपुत्र लॉर्ड बेबिंगटन मैकाले द्वारा प्रस्तावित शिक्षा पद्धति को लागू किया। इस शिक्षा पद्धति का लक्ष्य जहां अंग्रेजी शासन के लिए क्लर्क तैयार करना था वहीं भारतीयों को भारतीयता से काटकर ईसाइयत के लिए आधारभूमि तैयार करना था। इसी लक्ष्य को आगे बढ़ाने के अनेक अंग्रेज लेखकों ने भारतीय धर्म, धर्मशास्त्र, साहित्य, इतिहास आदि का अंग्रेजियत के अनुकूल लक्ष्य को सामने रखकर मूल्यांकन किया और प्रत्येक विषय में भ्रान्ति, शंका तथा हीनता का भाव उत्पन्न किया। उन्होंने सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास और परम्परा को अमान्य करते हुए नये सिरे से उसका पक्षपातपूर्ण विश्लेषण करके उसके अधिकांश भाग को मिथक तथा प्राचीन को नवीन घोषित किया।

अंग्रेजी शासन काल में उच्च शिक्षा के नाम पर अनेक लोगों को भारत से इंग्लैंड भेजा गया और वहां वही पढ़ाया गया जो अंग्रेज कूटनीतिक दृष्टि से चाहते थे। वहां से लौटने पर उन्हीं लोगों को सता में भागीदारी दी। उन्होंने जो पढ़ा था, भारत में आकर मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षापद्धति के अन्तर्गत वही बताया, पढ़ाया, लिखाया। इस तरह अंग्रेजी मान्यताओं से प्रभावित उनके मानसपुत्रों का एक पूरा वर्ग तैयार हो गया जिसकी विचार-वंश-परम्परा आज तक चली आ रही है।

१५ अगस्त १९४७ को भारत के राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र होने पर अंग्रेज तो चले गये किन्तु अंग्रेजियत यहीं रह गयी। मैकाले की शिक्षापद्धति से भारत आज तक भी मुक्त नहीं हो पाया है। अंग्रेजों द्वारा स्थापित मान्यताएं आज भी गौरव के साथ पढ़ाई और मानी जा रही हैं। उनके बोये विष के बीज कहीं भाषावाद, कहीं नस्लवाद, कहीं क्षेत्रवाद, कहीं घृणावाद के रूप में आज भी फलित हो रहे हैं और विडम्बना तो यह है कि हम भारतीय ही आज उन मान्यताओं के ध्वजवाहक बने हुए हैं।

मनुस्मृति के स्वरूप को विकृत करने वाला तो वह पूर्वज भारतीय ब्राह्मण-वर्ग था जिसने अपने विकृत आचरण, स्वार्थपूर्ण मानसिकता और पक्षपातपूर्ण लक्ष्यों को शास्त्रसम्मत सिद्ध करने के लिए मनुस्मृति में समय-समय पर मनचाहे प्रक्षेप किये, किन्तु मनुस्मृति और मनुवाद के विषय में प्रायोजित रूप में भ्रान्ति-जाल फैलाने वाले पहले लेखक अंग्रेज ही थे। उसके पश्चात् भारतीयों की वह पीढ़ी है जिन्होंने अंग्रेज लेखकों के निष्कर्षों को स्पंज की तरह सोखा और फिर ज्यों की त्यों उगल दिया। उसी परम्परा में डॉ० भीमराव रामजी अम्बेडकर भी थे जो अंग्रेजी परम्परा के निष्कर्षों के बौद्धिक अनुसरणक र्ाा के साथ-साथ मनु और मनुस्मृति के तीव्र विरोधी भी बने। क्योंकि वे दलित वर्ग से सम्बद्ध नेता थे, अतः दलितों के बहुत बड़े वर्ग ने उन्हीं की मान्यताओं का अन्धानुकरण किया। इस प्रकार एक बहुत बड़ा वर्ग मनु और मनुस्मृति विषयक भ्रान्तियों का शिकार हो गया, और आज भी है।

अंग्रेजों के बाद उनकी विचार-परम्परा को वामपन्थी लेखकों ने हाथों-हाथ अपना लिया। उसका कारण यह था कि अंग्रेज लेखकों के निष्कर्ष वामपन्थियों के राजनीतिक लक्ष्य के अनुकूल और उसके साधक थे। आज स्थिति यह है कि भारत से शासन उठने के उपरान्त अंग्रेज लेखक अपनी पूर्वाग्रही मान्यताओं को छोड़कर तटस्थ निष्कर्ष प्रस्तुत करने लगे हैं जबकि वामपन्थी लेखक उन्हीं विकृत निष्कर्षो पर अडिग हैं; क्योंकि वामपन्थियों का राजनीतिक स्वार्थ तो उन्हीं निष्कर्षों से पूरा हो सकता है।

इन सब कारणों से आज भारत में ऐसा वातावरण बना हुआ है कि कोई भी राजनीतिक दल किसी भी मुद्दे को पकड़कर, चाहे वह संस्कृति, भाषा एवं धर्म-विरोधी है अथवा राष्ट्रीय एकता-विरोधी है, उसके माध्यम से वोट पाने की अपवित्र कोशिश करता रहता है। मनु और मनुवाद आज कुछ राजनीतिक दलों के लिए राजनीतिक शस्त्रास्त्र हैं, तो कुछ वर्गों के लिए सांस्कृतिक शस्त्रास्त्र हैं। जिस देश का वामपंथ प्रभावित केन्द्रीय शिक्षामन्त्री (या मानव संसाधन मन्त्री) प्राचीन भारत के वास्तविक इतिहास को कल्पित कहे और अवास्तविक एवं कल्पित इतिहास को वास्तविक कहे, कहे ही नहीं अपितु उस पर दुराग्रह करे; उस देश का रखवाला केवल ईश्वर ही हो सकता है! इससे सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है कि अंग्रेज और वामपन्थी लेखकों द्वारा फैलायी गयी भ्रान्तियां कितने व्यापक और गम्भीर स्तर तक पैठ बना चुकी हैं। यही स्थिति मनु, मनुस्मृति और मनुवाद की है। निहित स्वार्थी राजनीतिक दलों और दुराग्रही इतिहासकारों द्वारा आज जान-बूझकर ‘मनुवाद’ का गलत अर्थ लोगों के मन-मस्तिष्क में डाला जा रहा है। वे वर्ग और लेखक इस श       द का अर्थ ‘जन्मना जाति-पांति, छूत-अछूत, नीच-ऊंच, छुआछूतयुक्त समाजव्यवस्था और रूढ़िवादी ब्राह्मणवादी विचारधारा’ के अर्थ में करते हैं। इस भ्रान्ति से आज के समीक्षक, बुद्धिजीवी और राजनेता भी भ्रमित हैं। यों समझिए कि ‘मनु, मनुस्मृति और मनुवाद’ का भ्रान्त अर्थ और विरोध एक सुनियोजित अफवाह के समान फैला हुआ है। इस अफवाह को फैलाने में कितने ही ऐसे लोग हैं जिनके द्वारा मनुस्मृति के गम्भीर-अगम्भीर अध्ययन की बात तो छोड़ दीजिए, उन्होंने मनुस्मृति को देखा तक नहीं होता। उसका दुष्परिणाम यह है कि आज हम मनु के वंशज भारतीयों को ही भारतीय इतिहास के आदिपुरुष, आदिविधिप्रणेता, आदिसमाज-व्यवस्थापक, आदि-धर्मशास्त्रकार और आदिराजा को अभिमान के साथ अपश      द कहते हुए पाते हैं; प्रशंसा के स्थान पर निन्दा करते हुए देखते हैं। भारतीय अतीत को पिछड़ा और भारतीय प्राचीन इतिहास तथा महापुरुषों को कल्पित कहने के लिए आज किसी पूर्वाग्रही अंग्रेज लेखक को भारत में आकर अगुवाई करने की आवश्यकता नहीं है। आज उनके मानसपुत्र भारतीय स्वयं झंडा उठाकर अपने अतीत को पिछड़ा कहने और अपने प्राचीन इतिहास तथा महापुरुषों को कल्पित कहने की रट अफीमचियों के समान लगाते मिलेंगे। देखिए, कूटनीति की कैसी विडम्बना को हम भोग रहे हैं!!