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“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 1″

“पहले अध्याय का जवाब पार्ट 1″

प्यारे मित्रो व बंधुओ, नमस्ते

अभी कुछ दिन से एक पुस्तक पढ़ रहा था “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा” जिसके लेखक सतीश चंद गुप्ता हैं, कहने को तो उन्होंने महर्षि दयानंद की क़ुरान पर उठाई आपत्तियों और समीक्षाओं पर अपनी समीक्षाएं करने का दावा किया है मगर ये समीक्षाएं कितनी फिट बैठती हैं ये हम इस लेख में समझने का प्रयास करेंगे। अभी इस लेख में इनकी पुस्तक के पहले अध्याय में महर्षि दयानंद की क़ुरान पर उठाई वाजिब और अनूठी शंकाओ और टिप्पणियों पर इनकी समीक्षाओं का जायजा लेंगे बाकी अगले लेखो में भी इनके द्वारा की गयी समीक्षाओं की व्यवहारिकता और सार्थकता पर भी प्रकाश डालने का पूर्ण प्रयास करेंगे ताकि हमारे बंधू सतीश चंद गुप्ता जी ये न कहे की इन्हे जवाब न मिला। आइये इनकी एक एक समीक्षा को देखे और समझे :

सतीश चंद गुप्ता जी (हमारे बंधू) ये बात स्पष्ट तौर पर स्वयं मानते हैं की ऋषि का ज्ञान जो सत्यार्थ प्रकाश में फैला हुआ है वो लगभग ३००० पुस्तको को पढ़ने के बाद का निचोड़ है, मगर अगले ही पल सत्यार्थ प्रकाश को आर्य समाज की रीढ़ की हड्डी बता दिया, हमारे प्रिय बंधू को शायद ये ज्ञात नहीं है की प्रत्येक आर्य समाजी अथवा हिन्दू भाई की रीढ़ की हड्डी और मान्य धार्मिक ग्रन्थ केवल और केवल “वेद” हैं, महर्षि दयानंद ने भी वेदो और आर्ष ग्रंथो तथा पुराण क़ुरान आदि अनार्ष ग्रंथो के गहन अध्यन पश्चात ही “सत्यार्थ प्रकाश” जैसी अमूल्य निधि का निर्माण किया ताकि समस्त मानव जाति सत्य को जानकार असत्य को त्याग देवे, आर्य समाज भी ऋषि के सत्यार्थ प्रकाश को सत्य असत्य के निर्धारण हेतु पढ़ना और पढ़ाना मानता है बाकी स्वाध्याय तो वेद और अन्य आर्ष ग्रंथो का भी करना चाहिए, सत्यार्थ प्रकाश एक निर्देशिका है जो वेद और आर्ष ग्रंथो तथा प्राचीन ऋषियों मुनियो का जो धर्म के प्रति विचार थे उनका प्रकटीकरण करना और सत्य तथा असत्य के भेद को जानने में सहायता लेना।

धयान देने वाली बात है जब किसी मत या सम्प्रदाय की ऐसी बातो पर ध्यान दिलाया जाए जो मानव समाज के लिए हितकर न हो और उसकी समीक्षा समुचित तर्कपूर्ण आधार पर हो तो उस मत व सम्प्रदाय को थोड़ा बुरा लगना अथवा असहज हो जाना, ये सम्बंधित मत व सम्प्रदाय वाले मनुष्यो का स्वाभाव ही होगा, क्योंकि ऋषि ने सत्यार्थ प्रकाश के भूमिका में ही लिखा है :

“मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्य-सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्याऽसत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें।”

महर्षि का बड़ा ही सरल और सहज भाव था की जो सत्यान्वेषी होकर इस ग्रन्थ को पढ़े तो उसे सत्य को ग्रहण करने में कोई परेशानी न होगी,

“परन्तु इस ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है और न किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्याऽसत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।”

ये महर्षि दयानंद कृत सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में ही लिख दिया गया है, पर खेद की जो विद्वान व आप्त लोग जैसे हमारे बंधू सतीश चंद जी महर्षि की उक्त बातो को ठीक से न समझकर केवल पूर्वाग्रह से ही शायद अपनी समीक्षा करते गए।

आइये अब एक एक शंका को देखते हैं की सतीश चंद जी की समीक्षा पर समीक्षा क्या है ?

1. महर्षि को संस्कृत का प्रकांड विद्वान भी मानते हैं और उन्ही महर्षि के द्वारा लिखी गयी समीक्षा को भाषा शैली अनुसार घिनौनी और शर्मनाक भी कहते हैं, पर क्या सच में ऐसा है ? आइये एक नजर डाले :

देखो इन गवर्गण्ड पोपों की लीला : ये शब्द महर्षि ने किस कारण और प्रकरण पर उपयोग किया जरा पूरा देखिये :

“अर्थात् देखो इन गवर्गण्ड पोपों की लीला जो कि वेदविरुद्ध महा अधर्म के काम हैं उन्हीं को श्रेष्ठ वाममर्गियों ने माना। मद्य, मांस, मीन अर्थात् मच्छी, मुद्रा पूरी कचौरी और बड़े रोटी आदि चर्वण, योनि, पात्रधार, मुद्रा और पांचवां मैथुन अर्थात् पुरुष सब शिव और स्त्री सब पार्वती के समान मान कर” (एकादश समुल्लास)

बताइये जो वेद विरुद्ध कर्म हो ऐसे हीन और लज्जामय कर्म को यदि कोई धार्मिक कार्य बतावे तो क्या उसकी बढ़ाई होगी ?

आगे देखिये :

“रक्तबीज के शरीर से एक बिन्दु भूमि में पड़ने से उस के सदृश रक्तबीज के उत्पन्न होने से सब जग्त में रक्तबीज भर जाना, रुधिर की नदी का बह चलना आदि गपोड़े बहुत से लिख रक्खे हैं। जब रक्तबीज से सब जगत् भर गया था तो देवी और देवी का सिह और उस की सेना कहां रही थी? जो कहो कि देवी से दूर-दूर रक्तबीज थे तो सब जगत् रक्तबीज से नहीं भरा था? जो भर जाता तो पशु, पक्षी, मनुष्यादि प्राणी और जलस्थ मगरमच्छ, कच्छप, मत्स्यादि, वनस्पति आदि वृक्ष कहां रहते? यहां यही निश्चित जानना कि दुर्गापाठ बनाने वाले पोप के घर में भाग कर चले गये होंगे!!! देखिये! क्या ही असम्भव कथा का गपोड़ा भंग की लहरी में उड़ाया जिसका ठौर न ठिकाना।” (एकादश समुल्लास)

अब देखिये यहाँ भी सतीश चंद जी ऐसे ही अन्य आक्षेप भी बिना प्रकरण को पूरी तरह से पढ़े केवल पूर्वाग्रह के कारण अपनी समीक्षाओं में लिखते गए यदि पूरी समीक्षाएं इसी प्रकार आपके समक्ष रखता जाउ तो बहुत बड़ा लेख हो जावेगा इसलिए आप एक बार स्वयं भी सत्यार्थ प्रकाश की समीक्षाओं को पढ़कर सतीश चंद जी की समीक्षाओं पर खुद नजर डाले की वो आखिर किस हद तक वाजिब हैं

जबकि महर्षि दयानंद सत्य के कितने बड़े मान्यकर्ता थे वो आपको हम दिखाते हैं :

ऋषि ने जहाँ जहाँ क़ुरान में जो थोड़ा बहुत सत्य पाया है उसपर अपने विचार भी प्रकट किये हैं :

१३७-उतारना किताब का अल्लाह गालिब जानने वाले की ओर से है।। क्षमा करने वाला पापों का और स्वीकार करने वाला तोबाः का।।

-मं० ६। सि० २४। सू० ४०। आ० १। २। ३।।

(समीक्षक) यह बात इसलिये है कि भोले लोग अल्लाह के नाम से इस पुस्तक को मान लेवें कि जिस में थोड़ा सा सत्य छोड़ असत्य भरा है और वह सत्य भी असत्य के साथ मिलकर बिगड़ा सा है। इसीलिये कुरान और कुरान का खुदा और इस को मानने वाले पाप बढ़ाने हारे और पाप करने कराने वाले हैं। क्योंकि पाप का क्षमा करना अत्यन्त अधर्म है। किन्तु इसी से मुसलमान लोग पाप और उपद्रव करने में कम डरते हैं।।१३७।। (चतुर्दश समुल्लास)

“अब इस कुरान के विषय को लिख के बुद्धिमानों के सम्मुख स्थापित करता हूँ कि यह पुस्तक कैसा है? मुझ से पूछो तो यह किताब न ईश्वर, न विद्वान् की बनाई और न विद्या की हो सकती है। यह तो बहुत थोड़ा सा दोष प्रकट किया इसलिये कि लोग धोखे में पड़कर अपना जन्म व्यर्थ न गमावें। जो कुछ इस में थोड़ा सा सत्य है वह वेदादि विद्या पुस्तकों के अनुकूल होने से जैसे मुझ को ग्राह्य है वैसे अन्य भी मजहब के हठ और पक्षपातरहित विद्वानों और बुद्धिमानों को ग्राह्य है।” (चतुर्दश समुल्लास)

७३-मत फिरो पृथिवी पर झगड़ा करते।। -मं० २। सि० ८। सू० ७। आ० ७४।।

(समीक्षक) यह बात तो अच्छी है परन्तु इस से विपरीत दूसरे स्थानों में जिहाद करना काफिरों को मारना भी लिखा है। अब कहो यह पूर्वापर विरुद्ध नहीं है? इस से यह विदित होता है कि जब मुहम्मद साहेब निर्बल हुए होंगे तब उन्होंने यह उपाय रचा होगा और जब सबल हुए होंगे तब झगड़ा मचाया होगा। इसी से ये बातें परस्पर विरुद्ध होने से दोनों सत्य नहीं हैं।।७३।। (चतुर्दश समुल्लास)

उपर्लिखित सभी तथ्यों से ज्ञात हो जाता है की महर्षि दयानंद सत्य के प्रति कितने गंभीर थे, उन्होंने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में केवल सत्य को ग्रहण करवाने हेतु ही पुस्तक का सृजन किया, महर्षि ने अन्य मत मतांतरों, सम्प्रदायों में भी जो जो सत्य देखा उसे अपनी सत्यार्थ प्रकाश में समीक्षा के अंतर्गत लिखा है देखिये :

“और जो आप झूठा और दूसरे को झूठ में चलावे उसको शैतान कहना चाहिये सो यहां शैतान सत्यवादी और इससे उसने उस स्त्री को नहीं बहकाया किन्तु सच कहा और ईश्वर ने आदम और हव्वा से झूठ कहा कि इसके खाने से तुम मर जाओगे।” (त्रयोदश समुल्लास)

(समीक्षक) अब देखिये! ईसाइयों के ईश्वर की लीला कि प्रथम तो सरः का पक्षपात करके हाजिरः को वहां से निकलवा दी और चिल्ला-चिल्ला रोई हाजिरः और शब्द सुना लड़के का। यह कैसी अद्भुत बात है? यह ऐसा हुआ होगा कि ईश्वर को भ्रम हुआ होगा कि यह बालक ही रोता है। भला यह ईश्वर और ईश्वर की पुस्तक की बात कभी हो सकती है? विना साधारण मनुष्य के वचन के इस पुस्तक में थोड़ी सी बात सत्य के सब असार भरा है।।२५।। (त्रयोदश समुल्लास)

“खुदा ने शैतान से पूछा कहा कि मैंने उस को अपने दोनों हाथों से बनाया, तू अभिमान मत कर। इस से सिद्ध होता है कि कुरान का खुदा दो हाथ वाला मनुष्य था। इसलिए वह व्यापक वा सर्वशक्तिमान् कभी नहीं हो सकता। और शैतान ने सत्य कहा कि मैं आदम से उत्तम हूँ, इस पर खुदा ने गुस्सा क्यों किया? क्या आसमान ही में खुदा का घर है; पृथिवी में नहीं? तो काबे को खुदा का घर प्रथम क्यों लिखा? (१३५)” (चतुर्दश समुल्लास)

उपरोक्त शंकाए भी सत्यार्थ प्रकाश से ही उद्धृत हैं जिनमे ऋषि ने सत्य बात को सत्य ही कहा क्योंकि बाइबिल और क़ुरान में शैतान ने सच बोला जिसे ऋषि ने भी सत्य माना, मगर क़ुरानी खुदा और बाइबिल का यहोवा झूठ बोले ऐसा क्यों ?

क्या सतीश चंद गुप्ता जी अब बताने का कष्ट करेंगे की ऋषि ने जो सत्य का मंडन किया उसपर तो आपने समीक्षा की समीक्षा बिनवजह कर डाली मगर जो क़ुरानी खुदा ने झूठ का प्रचार किया आदम और हव्वा से उसपर आपकी चुप्पी क्या पूर्वाग्रह से ग्रसित है अथवा मत सम्प्रदाय की असत्य बात को भी सच मान लेने से आप इस पर समीक्षा न करोगे ?

लेख लिखने को तो बहुत बड़ा हो जावेगा मगर अभी के लिए केवल इतना ही लिखते हैं इस से पाठकगण बहुत कुछ समझ और विचार लेंगे की सतीश चंद गुप्ता जी की सत्यार्थ प्रकाश पर समीक्षाएं कितनी वाजिब हैं और कितनी नहीं।

आइये लौटिए वेदो की और।

नमस्ते

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“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 2″

“पहले अध्याय का जवाब “पार्ट 2″

जैसे की पिछली पोस्ट को आपने पढ़ा, उस पोस्ट में महर्षि दयानंद द्वारा की गयी क़ुरान पर समीक्षाओं और निर्देशो पर सतीश चंद गुप्ता जी द्वारा अपनी ही समीक्षाएं प्रस्तुत की गयी जो किसी भी प्रकार ठीक विदित नहीं होती क्योंकि जो उन्होंने समीक्षाएं की वो समीक्षा कम पूर्वाग्रह द्वारा उठाये गए सवाल ज्यादा मालूम होते हैं क्योंकि बिना पूरा प्रकरण समझे और ऋषि के सत्य सिद्धांत वाली बात को परखे अनजाने में ही शायद समीक्ष्याये की गयी होंगी, क्योंकि ऐसा चतुर विद्वान मेने आज तक नहीं देखा जो एक महर्षि द्वारा रचित सत्य सिद्धांतो पर आधारित पुस्तक पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देवे ?

ये भी हो सकता है की सतीश चंद गुप्ता जी ऋषि की बातो को पूर्ण अर्थ में न समझ सके हो क्योंकि ऋषि ने वेद और आर्ष ग्रंथो को ही मान्य किया लेकिन शायद लेखक सत्य सिद्धांतो की अपेक्षा किसी मत व सम्प्रदाय के पक्ष में ज्यादा झुकाव महसूस करता हो इसलिए ऐसा दोषारोपण करने का प्रयास किया हो, खैर जो भी हो हम पूरी कोशिश करेंगे की लेखक द्वारा उठाई गयी शंकाओ पर अपना मत प्रकट करे ताकि सत्य असत्य का निराकरण होने से ऋषि के सत्य सिद्धांतो की बाते लेखक को समझ आये।

ऐसे ही पहले अध्याय में 15 आक्षेप (समीक्षाएं) की गयी हैं जिनका क्रमगत जवाब इस लेख में दिया जायेगा।

1. प्रसूता छह दिन के पश्चात बच्चे को दूध न पिलाये।

समीक्षा : अब देखिये लेखक ने ऋषि की बात को न समझकर क्या से क्या लिख दिया, ऋषि ने जो लिखा वो देखिये :

“ऐसा पदार्थ उस की माता वा धायी खावे कि जिस से दूध में भी उत्तम गुण प्राप्त हों। प्रसूता का दूध छः दिन तक बालक को पिलावे। पश्चात् धायी पिलाया करे परन्तु धायी को उत्तम पदार्थों का खान पान माता-पिता करावें। जो कोई दरिद्र हो, धायी को न रख सके तो वे गाय वा बकरी के दूध में उत्तम औषधि जो कि बुद्धि, पराक्रम, आरोग्य करने हारी हों उनको शुद्ध जल में भिजा, औटा, छान के दूध के समान जल मिलाके बालक को पिलावें।” (द्वित्य समुल्लास)

अब देखिये ऋषि ने कहीं लिखा की प्रसूता ६ दिन बाद बच्चे को दूध न पिलाये, बल्कि व्यवस्था बताई है की धाई जो उत्तम पदार्थो का खान पान करवाकर उसका दूध बच्चे को पिलावे, अथवा निर्धन हो तो गाय, व बकरी के दूध में औषधि साथ में थोड़ी जल की मात्रा भी बच्चे को पिलाये। क्योंकि शिशु का पाचन कमजोर होता है इसलिए थोड़ा जल मिलाने का विधान किया है।

दूसरी बात यदि लेखक का कहना ये है की प्रसूता यानी माता का दूध बच्चे को न पिलाये तो उसके लिए भी ऋषि ने प्रथम ६ दिन तक माता को बच्चे को दूध पिलाने की बात लिखी है उसके पीछे की वैज्ञानिक बात देखिये :

माता के दूध में जो गुण होता है जिससे बच्चा स्वस्थ, निरोगी और बुद्धिमान बनता है उसे “कोलोस्ट्रम” कहते हैं, ये एक प्रकार से माता के शरीर में दूध ही होता है, जो पहले २४ घंटे में बहुत गाढ़ा, और पीला रंग का निकलता है जिसे बच्चे को पिलाना बेहद जरुरी है, २-४ दिन बाद ये हल्का पीला दूध होता जाता है और ८वे दिन ये पीला रंग यानी “कोलोस्ट्रम” सामान्य लेवल पर आ जाता है। यानी दूध का रंग और गुण दोनों ही सामान्य हो जाते हैं, और जो शुरूआती ६ दिन का गुणवर्धक और बलवर्धक औषधि सामान दूध है वो तो महर्षि ने प्रसूता द्वारा शिशु को पिलाने का विधान ऋषि ने आर्ष ग्रंथो के आधार पर कर ही दिया है।

हालांकि मेडिकल स्टडीज बताती हैं की ६ महीने तक दूध पिलाना चाहिए, लेकिन ऋषि ने जिस महत्वपूर्ण बात की और निर्देश दिया है वो समझने वाला है देखिये :

“क्योंकि प्रसूता स्त्री के शरीर के अंश से बालक का शरीर होता है, इसी से स्त्री प्रसव समय निर्बल हो जाती है इसलिये प्रसूता स्त्री दूध न पिलावे। दूध रोकने के लिये स्तन के छिद्र पर उस ओषधी का लेप करे जिससे दूध स्रवित न हो।” (द्वित्य समुल्लास)

इसलिए क्योंकि स्त्री प्रसव बाद बेहद कमजोर हो जाती है, अतः जितना स्त्री और शिशु की देखभाल और सुरक्षा की जाए वह उत्तम ही है। बाकी तो धायी भी स्तन पान करवाये तो उत्तम उत्तम पदार्थ उसके भक्ष्य हेतु हो, व निर्धन होने पर गाय व बकरी के दूध में उत्तम औषधि से शिशु का लालन हो तो भी श्रेयस्कर है।

2. 24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरूष का विवाह उत्तम है अर्थात् स्वामी जी के मतानुसार लड़के की उम्र लड़की से दूना या ढाई गुना होनी चाहिए। (3-31) (4-20) (14-143)

समीक्षा : अब देखिये हमारे विद्वान बंधू गुप्ता जी का स्वाध्याय जो कभी शरीर शास्त्र पढ़ लिया होता तो ऋषि की बात का यु छोटा सा अंश लेकर समीक्षा न करते, देखिये ऋषि ने क्या लिखा है :

इस शरीर की चार अवस्था हैं। एक (वृद्धि) जो १६वें वर्ष से लेके २५वें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की बढ़ती होती है। दूसरा (यौवन) जो २५ वें वर्ष के अन्त और २६वें वर्ष के आदि में युवावस्था का आरम्भ होता है। तीसरी (सम्पूर्णता) जो पच्चीसवें वर्ष से लेके चालीसवें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की पुष्टि होती है। चौथी (किि ञ्चत्परिहाणि) तब सब सांगोपांग शरीरस्थ सकल धातु पुष्ट होके पूर्णता को प्राप्त होते हैं। तदनन्तर जो धातु बढ़ता है वह शरीर में नहीं रहता, किन्तु स्वप्न, प्रस्वेदादि द्वारा बाहर निकल जाता है वही ४० वां वर्ष उत्तम समय विवाह का है अर्थात् उत्तमोत्तम तो अड़तालीसवें वर्ष में विवाह करना।

आज विज्ञानं सम्मत है, ये चार चरण, बाल्यावस्था, युवावस्था, परिपक्व और वृद्ध ये चार अवस्थाये हैं, ऋषि ने यही समझाने का प्रयास किया है, विज्ञानं भी मानता है की स्त्री का शरीर कम से कम 16-18 वर्ष का होना ही चाहिए और पुरुष का कम से कम 25 वर्ष। अधिक से अधिक विवाह योग्य आयु का ऋषि ने विधान दिया है क्योंकि इस अवस्था में शरीर परिपक्व और बुद्धि मच्योर होती है।

यूके में स्थित नई केस्टल यूनिवर्सिटी के विज्ञानिको द्वारा की गयी शोध से प्रमाणित हुआ की महिलाये पुरुषो के मुकाबले जल्दी यहाँ तक की बहुत जल्दी परिपक्व होती हैं वहीँ “दी नई यॉर्क टाइम्स” में पिछले साल दिसम्बर २०१४ में छपी खबर के मुताबिक ३२ वर्ष की उम्र में विवाह हुए पुरुषो की शादी कम उम्र में हुई शादियों के मुताबिक बेहतर रिजल्ट देती है।

3. गर्भ स्थिति का निश्चय होने पर एक वर्ष तक स्त्री-पुरुष का समागम नहीं होना चाहिए। (2-2) (4-65)

समीक्षा : हमारे शंकाकर्ता बंधू गुप्ता जी शायद समीक्षा करने हेतु ये भूल गए की विवाह का दायित्व संतानोत्पत्ति के साथ साथ अपनी जीवनसंगनी का स्वास्थय और शरीररक्षा भी होती है, शायद हमारे बंधू यौनसुख को ज्यादा महत्त्व देने के कारण ये बुनियादी नियम भी भूल गए की यौन सुख महज कुछ मिनट का होता है जबकि इस यौन सुख के कारण यदि भ्रूण या गर्भ में इस यौनकर्षण के द्वारा कुछ अकस्मात् गंभीर हो गया तो ये बेहद गलत बात होगी। क्योंकि गर्भ में भ्रूण बनने के बाद यदि यौन क्रिया करते रहे तो इससे गर्भ में मौजूद शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऋषि ने ये बात इसलिए भी लिखा है ताकि ब्रह्मचर्य को जीवन में अपनाया जाए, क्योंकि सभी जानते हैं वीर्य की रक्षा जीवन की रक्षा है। अब जो लोग यौनसुख के अभिलाषी हैं उनको ब्रह्मचर्य जल्दी समझ नहीं आ सकता। ये बहुत शोध और समझने का विषय है।

4. जब पति अथवा स्त्री संतान उत्पन्न करने में असमर्थ हों तो वह पुरूष अथवा स्त्री नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकते हैं। (4-122 से 149)

समीक्षा : हमारे शंकाकर्ता बंधू शायद भूल गए की यदि जिसके संतान न हो पाती हो तो उसके पास दो उपाय होते हैं, 1. संतान गोद लेना अथवा नियोग जिसे आज के समय में IVR के नाम से भी जाना जाता है। इस विषय पर विस्तार से आगे के अध्याय में लिखा जायेगा।

5. यज्ञ और हवन करने से वातावरण शुद्ध होता है। (4-93)

समीक्षा : हमारे शंकाकर्ता बंधू गुप्ता जी शायद विज्ञानं और रासायनिक क्रिया को भूल गए, क्योंकि वेद और आर्ष साहित्य को ठीक ढंग से न पढ़ पाने के यही परिणाम होता है, खैर गुप्ता जी ये देखिये आधुनिक विज्ञानं के अनुसार सूर्य की धुप क्षयरोग के लिए बचाव और उपचार दोनों है
http://www.dailymail.co.uk/…/Sunshine-vitamin-helps-treat-p…
अब इस समय पर यज्ञ करना लाभदायक ही होगा क्योंकि यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली सामग्री में मुख्य रूप से गौघृत, खांड अथवा शक्कर, मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फल जिनमे शक्कर अधिक होती है, चावल, केसर और कपूर आदि के संतुलित मिश्रण से बनी होती है।
अब इस विषय पर कुछ वैज्ञानिको के विचार :

१. फ्रांस के विज्ञानवेत्ता ट्रिलवर्ट कहते हैं : जलती हुई शक्कर में वायु – शुद्ध करने की बहुत बड़ी शक्ति होती है। इससे क्षय, चेचक, हैजा आदि रोग तुरंत नष्ट हो जाते हैं।

२. डॉक्टर एम टैल्ट्र ने मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फलो को जलाकर देखा है। वे इस निर्णय पर पहुंचे हैं की इनके धुंए में टायफाइड ज्वर के रोगकीट केवल तीस मिनट तथा दूसरी व्याधियों के रोगाणु घंटे – दो घंटे में मर जाते हैं।

३. प्लेग के दिनों में अब भी गंधक जलाई जाती है, क्योंकि इसमें रोगकीट नष्ट होते हैं। अंग्रेजी शासनकाल में डाकटर करनल किंग, आई एम एस, मद्रास के सेनेटरी कमिश्नर थे। उनके समय में वहां प्लेग फ़ैल गया। तब १५ मार्च १८९८ को मद्रास विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के समक्ष भाषण देते हुए उन्होंने कहा था – “घी और चावल में केसर मिलकर अग्नि में जलाने से प्लेग से बचा जा सकता है।” इस भाषण का सार श्री हैफकिन ने “ब्यूबॉनिक प्लेग” नामक पुस्तक मे देते हुए लिखा है, “हवन करना लाभदायक और बुद्धिमत्ता की बात है।”

महर्षि दयानंद ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है :

“जब तक इस होम करने का प्रचार रहा ये तब तक ये आर्यवर्त देश रोगो से रहित और सुखो से पूरित था अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाए।”
(स. प्र. तृतीय समुल्लास)

यहाँ ऋषि इसी विज्ञानं को समझाने की कोशिश कर रहे हैं जो आज का आधुनिक विज्ञानं मानता है। इस विषय पर विस्तार से आपको आगे के अध्यायों में बताया जायेगा।

5-5 पॉइंट के हिसाब से लेखक की 15 शंकाओ का जवाब दिया जा रहा है जिस विषय को शार्ट में लिखा है उसका पूरा विस्तार उक्त विषय से सम्बंधित अध्याय में पूर्ण रूप से प्रस्तुत करने का ध्येय रहेगा। क्योंकि हमारे बंधू गुप्ता जी लेखन को नहीं जानते होंगे इसलिए जो १५ पॉइंट इन्होने पहले अध्याय में उठाये वही १५ पॉइंट पर पूरी किताब बेस है, इसलिए यहाँ जिन पॉइंट को विस्तार से बताया उनका सम्बन्ध आगे की अध्याय में नहीं है इसलिए यही सम्पूर्ण बता दिया है, क्योंकि बार बार एक ही विषय को बताते रहने से “पुनरुक्ति दोष” होता है जो हम नहीं चाहते, लेकिन हमारे शंकाकर्ता बंधू की तो पूरी पुस्तक ही इस दोष से युक्त है, क्योंकि जगह जगह एक ही विषय को बार बार व्यर्थ ही घसीटा जा रहा है ताकि इनकी पुस्तक बड़ी हो जाए और ऋषि पर लेखक कुछ आपत्ति दर्ज करवा सके, सो ये तो हो नहीं सका उलटे शायद लेखक पर ही अब कुछ सवाल खड़े हो गए हैं जिनमे प्रमुख है “पुनरुक्ति दोष”

ऋषि के लेखन पर तो लेखक ने व्यर्थ ही सवाल खड़े करे मगर जो इनकी पुस्तक में पुनरुक्ति दोष है उसपर लेखक कब विचार करेंगे ?

भागो शैतान आया !

सहीह बुखारी जिल्द ४ हदीस ५२३ पृष्ठ संख्या ३३२

जबीर बिन अद्बुल्लाह  से रिवायत है कि मुहम्मद साहब ने कहा कि रात होने लगे  तो  अपने बच्चों को घर के अन्दर रखें क्योकि रात को शैतान घूमता है . घर का दरवाजा बंद कर लिया जाये और अल्लाह का नाम लें क्योंकि शैतान बंद दरवाजा नहीं खोलता.

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सहीह बुखार्री में यही हदीस जिल्द सात में भी आयी है :

 

सहीह बुखारी जिल्द ७  हदीस ५२७  पृष्ठ संख्या ३६२

जबीर बिन अब्दुल्लाह से रिवायत है कि जब शाम हो अर्थात  जब रात होने लगे तो बच्चों को बाहर जाने से रोकें क्योंकि उस समय शैतान घूमता है .घर के दरवाजे बंद कर लें और अल्लाह का नाम लें . अपनी मसक ( पुराने ज़माने में पानी भरने के काम में आता था जो पशु की खाल से बना होता था . अभी भी रेगिस्तान में भेड़ आदि चराने वाले इसका प्रयोग करते हैं ) का मुंह बाँध दो  और अल्लाह का नाम लो अपने बर्तनों को ढक दो  और अल्लाह का नाम लो और दीपक बुझा दो .

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विचार करने की आवश्यकता यह है मुसलमानों को शैतान का इतना डर क्यों सताता है?

शैतान केवल मुसलमानों को ही तंग क्यों करता है ?

अल्लाह मियां शैतान से अपने सही रास्ते पर चलने वाले मुसलमानों को बचाने के लिए कुछ करते क्यों नहीं हैं ?

इन हदीसों में शैतान से डर केवल बच्चों के लिए लिखा है ? क्या शैतान सर्व्यापक है जो हर बच्चे के पास शैतान के पहुँचने और नुक्सान पहुँचाने का डर रहता है? लेकिन ऐसा आजतक ये सुनने  में भी  नहीं आया कि शैतान ने किसी के बच्चे को नुकसान पहुंचाया हो ? किसी मोमीन ने न तो ये शिकायत की है की उसके बच्चे को शैतान ने नुक्सान पहुँचाया यदि नुकसान पहुंचाया होता तो पुलिस में जाकर इत्तिला करता. यहाँ तक की मुस्लिम देशों की किसी अदालत में भी शैतान के ऊपर कोई मुकदमा दाखिल हुआ .

आतंकवाद के इस युग में जहाँ आतंकवादियों के पास भी एटमी हथियार हैं वहां मुस्लिम देशों के पास तो इनकी भरमार है. यदि शैतान का इतना ही खौफ है, कि अल्लाह मियां को रसूल के माध्यम से लोगों को हिदायत देनी पड़ती है , इन आतंकवादियों और मुस्लिम देशों को चाहिए की इन हथियारों को शैतान के खिलाफ काम में लें ?

एक प्रश्न ये भी जहन में आता है कि शैतान मुसलमान बच्चों को पहचानता कैसे होगा क्या नाम पूछता होगा ? क्या कपड़े उतार के ……….. या कोई और तरीका इस्तमाल करता है .

कमाल की बात है कि शैतान बच्चों को नुकसान  तो पहुंचा सकता है लेकिन बंद दरवाजा नहीं खोल सकता ? ये बड़ी अजीब कहानी है ? फिर अल्लाह मियां ने यहाँ ये भी नहीं बताया की शैतान किस उम्र तक के बच्चों को नुकसान पहुंचा सकता है . बच्चा होने की कुछ उम्र भी तो निश्चित की होगी और फिर उस उम्र की पहचान करने के लिए शैतान क्या उनका जन्म प्रमाण प्रत्र  देखता है ?

 

अब ऊपर दी हुयी दोनों हदीसों के साथ यह हदीस भी पढ़िए :

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सहीह बुखारी हदीस ३९७ जिल्द ८ , पृष्ठ २६४ :

इब्न अब्बास से रिवायत है कि रसूल ने फरमाया यदि तुम में से कोई भी अपनी बेगम से हमबिस्तर हो तो वो कहे “बिस्मिल्लाह अल्लाहुम्मा जन्निब्ना श शैतान वा जन्नीबी श शैतान मा राज़क्ताना “ और यदि किसी  युगल को इस तरह संतान की प्राप्ति होती है तो उसे शैतान कभी हानि नहीं पहुचा पायेगा.

बुखारी   ने इस  हदीस को जिल्द ९ में भी लिखा है. हदीस संख्या ४९३

 

ये हदीस इस बात की तरफ इशारा करती है कि मुसलमान शैतान को लेकर इतने खौफ जदा हैं कि अपनी बेगम के साथ में एकान्त के पलों में भी शैतान को याद करना पड़ता है .

ये देख कर तो ये ही लगता है कि अल्लाह और रसूल पर ईमान क्या लाये चैन से बेगम के साथ कुछ पल गुजारना भी भरी पढ़ गया .

हे अल्लाह ! तुमने अपने बन्दों पर ऐसा अज़ाब क्यों डाला ! कम से कम बेगम के साथ तो चैन से समय गुजारने दिया होता वहां भी शैतान का खौफ …….

 

 

 

क्या बिस्मिल्लाह कुरान में पारसियों की नकल से लिखा गया ?

मुस्लमान कुरान के बारे में दावा करते हैं की कुरआन मुहम्मद साहब पर नाजिल हुआ (उतरा ). ये खुदा का नवीनतम ज्ञान है जो खुदा ने अपनी पुरानी किताबों को निरस्त कर मुहम्मद साहब को दिया .

कुरआन की शुरुआत बिस्मिल्लाह से की जाती है . कुरान के अधिकतर सुरों की शुरुआत बिस्मिल्लाह से ही हुयी है . इस लिहाज़ से ये कुछ खास हो जाता है . अधिकतर कार्यों को करते हुए भी बिस्मिल्लाह पढ़ना शुभ माना जाता है यहाँ तक की सम्भोग करते हुए भी बिस्मिल्लाह पढने की रिवायतें हदीसों में मिलती हैं.

व्यक्ति कुछ लिखना आरम्भ करने से पहले सामान्यतया कुछ न कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं . जैसे भारतवर्ष में जब कोई व्यकित किताब या कोई लेख इत्यादि लिखते हैं तो ॐ, जय श्री राम इत्यादि शब्दों का प्रयोग करते हैं .इसी प्रकार के शब्दों का प्रयोग अरब और उसके आसपास के इलाकों में होता था .

इसी प्रकार पारसी भी अपनी किताबों के साथ ऐसे ही कुछ शब्दों का प्रयोग किया करते थे . जिसके अर्थ बिस्मिल्लाह होते थे . अनेकों विद्वानों का यह मानना है कि बिस्मिल्लाह आयत कुरान के लेखक ने पारसियों की किताबों से लिया है .

क्या बिस्मिल्लाह पारसियों से लिया गया है ?

ये देखिये सेल साहब क्या लिखते हैं :-

प्रत्येक अध्याय के शीर्षक के बाद , केवल नवें अध्याय को छोड़कर , मुसलमान बिस्मिल्लाह लिखते हैं जिसका अर्थ है महानतम दयावान के नाम पर .यह उनकी सामान्य प्रचलित पद्धिति है जिसे जो हर लेख या किताब के प्रारंभ में लिखते हैं . JEWS भी इसी तरह के शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे –भगवान के नाम पर , महान  भगवान् के नाम पर , इसी तरह इसाई महान भगवान् और उसके पुत्र के नाम पर लिखते हैं . लेकिन मुझे लगता है कि ये तरीका मुसलामानों ने पारसीयों से लिया है जैसे कि उन्होंने दूसरी बहुत सी चीजें पारसियों से ली हैं . पारसी अपनी किताबों के आरम्भ में “ BENAM YEZDAN BAKHSHAISHGHER DADAR” लिखते थे जिसका अर्थ बिस्मिल्लाह अर्थात “महानतम दयावान के नाम पर” पर ही होता है .

अब जरा तफसीर जलालैन के लेखक के विचार इस बारे में जानते हैं .

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क्या बिस्मिल्लाह के बाब ( अध्याय ) में आप ने दुसरे मजहब की (तकलीद नक़ल ) की है ?

पारसियों और मज़ुसियों के दसातीर में हर नामह ( किताब ) की शुरुआत भी कुछ इसी किस्म के अलफ़ाज़ से होती है .मसलन मौजूदा इन्जील के बाज ( कुछ ) इफ्ताताई ( प्राकत्थन लिखना ) अलफ़ाज़ भी कुछ इसी तरह के हैं जिससे यह साबित हो सकता है कि आं हजरत ने इन्हीं या दसातीर से استفاده (सुना होगा ) और बिस्मिल्लाह से कुरान ए करीम की इब्तदाई करने में में इनकी तकलीद और इक्त्दा (नक़ल ) की होगी . लेकिन अव्वल तो इन्जील के कदीम (पुराने ) और सहीह नुस्खों में नहीं है जिससे बरअक्स ये साबित होता है कि ईसाईयों ने मुसलामानों की देखा देखी कुरान की तकलीद की है . अलबत्ता पारसियों की दसातीर का जहाँ तक ताल्लुक है तो नहीं कभी आप (हजरत मुहम्मद साहब ) यूनान तशरीफ़ ले गए और  न ही अरब में किसे मजूसी (पारसियों से सम्बंधित ) आलिम या किताब खाना और मदरसा का नामोनिशान था .

इस जमाने में तो मजूस की मजहबी किताबों का अपनी कौम और मुल्क में पूरी तरह ईसायत और रिवाज़ भी नहीं था . खास खास लोग बतौर तबरक (आशीर्वाद ) दूसरों की नज़रों से अपनी मजहबी किताबों को छुपा कर रखते थे ताकि दुसरे लोग नहीं देख लें . मुल्क अरब तक इसकी नौबत कहाँ पहुँचती और फिर आप ( मुहम्मद साहब ) खुद अपनी जुबान के लिखने पढने तक से वाकिफ नहीं थी की नौबत यहाँ तक पहुँचती .

रहा हजरत सलमान फ़ारसी का मामला सुरा एक गुलाम में कोइ मजहबी आलम नहीं थे . अगर आप इनसे (इस्तफादः استفاده) फायदा लेते करते तो वो उलटे वो खुद आप के मोताकित ( भाग , विश्वास करने वाले ) कैसे हो जाते और अपने मुल्क की हर तरह की नाकाबिल बर्दाश्त तकलीफ सहह कर आपकी खिदमत में باعش अनुकूल फखर क्यों समझते .

अलावा इसके दूसरी बात यह कि अगर आप आं हजरत ने दूसरों की तकलीद में ऐसा किया भी है तो इससे आप आं हजरत की محاسن माहानता  अच्छे कार्य में इजाफा होता है और इससे आप आं हजरत की इन्साफ पसंदी   बुलंदी फक्र का अंदाजा होता है कि आप आं हजरत में दूसरों की अच्छाइयों और भलाइयों से किनाराकशी न की जाए   और   उनको अपनाने का जज्बा मौजूद थाबूल . और खुले दिल दिमाग से उनको करने का दूसरों को भी मशवरा देते थे . मुतासिब ( किसी की सहायता करना ) मुआनिद ( बात न मनाने वाला )  शख्स से कभी इस किस्म की तौकह (शर्म) नहीं की   जा सकती है  नहीं इस्लाम ने कभी अछूते और नए होने का ऐलान नहीं किया बल्कि हमेशा आपने पुराने और करीम होने पर फक्र किया है . यानी यह कह इसके तमाम उसूल करीम और पुराने हैं जिनकी तबलीक ( उपदेश ) अलैह्म करते चले आ रहे हैं .इस में कोई नई बात नहीं है बजूज (सिवाय ) इसके कि नादानों ने गलत रस्मों रिवाज की तहों और परतों में छिपा कर असल हकीकत को गम कर दिया था इसने फिर परदे हटा दिए और असल हकीकत को चमका दिया. पस इस तरह खुदा के नाम इफ्तताह करीम ज़माना और करीम मज़हब से चला आ रहा हो और इस्लाम ने भी इस की तकलीद की  हो तो काबिल ऐतराज ब्बत्त क्या रहा जाती है ?

तफसीर जलालैन के लेखक यह स्वीकार करते हैं कि हो सकता है कि बिस्मिल्लाह पारसियों से लिया गया हो और यदि ले लिया तो फिर परेशानी क्या है ये तो मुहम्मद साहब का बढ़प्पन था .

लेकिन कुरान कहता है की कुरान की तरह दूसरी आयत कोई नहीं बना सकता . बिस्मिल्लाह भी कुरान का हिस्सा है . यदि तफसीर ए जलालैन के लेखक के मुताबिक़ यह मान लिया जाये कि बिस्मिल्लाह पारसियों से लिया गया हो सकता है तो यह तो कुरान की तरह की आयत हो गयी जो पारसियों ने खुद बना ली थी . यह आयत को पारसियों को अल्लाह ने नहीं दी थी .

जब पारसी कुरान की तरह की एक आयत बना सकते हैं तो फिर कुरान की तरह की दूसरी आयते क्यों नहीं बनायी जा सकती .

और काफिरों द्वारा बनाई गयी इस आयत का महत्व तो देखिये कि कुरान के अधिकतर सुरों की शुरुआत ही इसी से होती है

मुसलमानों का इस बात को मानना कि यह आयत पारसियों से ली गयी हो सकती है , मुसलमानों के कुरान के खुदाई किताब होने के दावे की धज्जियाँ  उड़ा देती है .

इस्लाम शान्ति का मज़हब!

आज विश्व आतंकवाद से लड़ रहा है. विश्व का प्रत्येक देश किसी न किसी रूप में इस समस्या से ग्रस्त है. आतंकवाद का भयानक रूप आज मुस्लिम देशों में देखने को मिल रहा है . पाकिस्तान अफगानिस्तान इरान ईराक सीरिया इत्यादि देश आतंकवाद के प्रजनन की धुरी बने हुए हैं .ये  सभी देश इस्लामिक मान्यताओं से ताल्लुक रखते हैं और इनमें पनप रहे आतंकवादी संगठन भी इस्लाम को विश्व भर में फैलाने का सपना संजोये हुए तहे दिलो जान से आतंकवाद के माध्यम से विश्व के इस्लामीकरण के सपने को संजोये बेकसूरों के रक्त से होली खेल रहे हैं .

मुस्लिम विद्वानो और प्रचारकों के अनुसार इस्लाम शान्ति का सन्देश देता है और इस्लाम का शाब्दिक अर्थ भी शांती ही है . मुहम्मद साहब इस्लाम के आखिरी नबी ( हालांकि  नबी होने का  दावा मुहम्मद साहब के बाद भी कई लोगों ने किया है ) हैं . और मुहम्मद साहब अल्लाह द्वारा दिए गए शांति के सन्देश के प्रचारक थे . लेकिन इस्लाम की यह शाब्दिक शान्ति व्यावहारिक रूप में कितनी परिवर्तित हो पाई है या केवल एक छलावा है यह एक विचारणीय विषय है .

किसी भी मत की मान्यताएं उसके इतिहास से प्रदर्शित होती हैं . इस्लाम का मूल मुहम्मद साहब और उनका आचरण है. आइये इस्लामिक इतिहास के इस तथ्य पर नज़र डालते हैं कि क्या वास्तव में मुहम्मद साहब का आचरण शान्ति के प्रचार प्रसार को फलीभूत करने वाला था ?

सुरा अल सफ्फात ३३ की आयात १७७ :

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“फिर जब अजाब उनके आँगन में उतरेगा तो उन लोगों को की सजा बड़ी होगी जिन्हें डराया गया था “

सहीह मुल्सिम की व्याख्या में अब्दुल हामिद सिद्दकी साहब ने कुरान की इस आयत को नीचे दी हुयी हदीस के साथ जोड़ा है :

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अनास से रिवायत है कि मुहम्मद साहब ने एक अभियान खैबर की तरफ रवाना किया. हमने सुबह की नमाज अदा की . मुहम्मद साहब और अबु ताल्हा घोड़े पर सवार हो गए. मैं ( अनास ) अबू ताल्हा के पीछे बैठा था. हम  खैबर की तंग गलियों में घुस गए .जैसे ही वो निवास स्थान पर पहुंचे जो अल्लाह हु अबकर जोर बोला. खैबर तबाह हो चूका था .हम लोगों के मध्य में थे जिनको पहले सचेत किया जा चूका था.  लोग जब दैनिक कर्म के लिए बाहर निकले तो पता चला कि मुहम्मद साहब ने अपनी सेना के साथ कब्ज़ा कर लिया है .मुहम्मद साहब ने कहा की खैबर की भूमि अब हमारे स्वामित्व में है हमने बलपूर्वक इसे ले लिया है . लोग अब युद्ध बंदी थे .

हदीस आगे कहती है कि दिह्या मुहम्मद साहब के पास आकर बोला कि अल्लाह के रसूल मुझे बंदियों की लड़कियों में से एक लड़की दे दीजिये. मुहम्मद साहब ने कहा कि जाओ और किसी को भी ले लो . उसने हुयायाय की लड़की साफिया को पसंद किया .

एक व्यक्ति ने मुहम्मद साहब के पास आकर कहा की आपने दिह्या को दे दिया वो केवल आपके लिए है . मुहम्मद साहब ने कहा की साफिया को दिह्या के साथ बुलाया जाए . मुहम्मद साहब के साफिया को देखकर कहा कि दिह्या कोई दूसरी लड़की ले लो और मुहम्मद साहब ने साफिया को मुक्त कर उससे निकाह कर कर लिया .

 

सहीह मुल्सिम की व्याख्या में अब्दुल हामिद सिद्दकी साहब लिखते हैं कि इस्लाम में  युद्ध बंदियों को गुलाम बना के रखा जा सकता है. इन लोगों को फिरोती लेकर  मुक्त किया  जा सकता है.

 

घटना इस  प्रकार है कि खैबर के लोगों को मुहम्मद साहब ने उनके द्वारा पोषित दीन अर्थात इस्लाम कबूल करने की राय दी थी और जब उन लोगों ने इस्लाम नहीं कबूला मुहम्मद साहब को आखिरी नबी मानने से इनकार कर दिया तो मुहम्मद साहब अपनी सेना लेकर उनके घरों  में घुस गए और खैबर पर कब्ज़ा कर लिया . यह है इस्लाम के संस्थापक का शान्ति का पैगाम.

उपर्युक्त घटना के निम्न मुख्य पहलू हैं:

  • मुहम्मद साहब ने खैबर के jews को इस्लाम कबूल करने के लिए परामर्श दिया और एक अवधि निर्धारित कर दी .
  • निर्धारित अवधी में इस्लाम न कबूलने पर ये आयात उतार दी गयी की इस्लाम न कबूलने पर अज़ाब उतारा जायेगा (“फिर जब अजाब उनके आँगन में उतरेगा तो उन लोगों को की सजा बड़ी होगी जिन्हें डराया गया था “सुरा अल सफ्फात ३३ की आयात १७७
  • जब खैबर के लोगों ने इस्लाम नहीं कबूला तो उन पर अचानक आक्रमण कर दिया गया और उन्हें संभलने का मौक़ा तक नहीं दिया गया
  • औरतों को बंदी बना लिया गया और लुट के माल के तरह उनको भी बाँट लिया गया .
  • खैबर की सम्पदा लूट ली गयी

इस्लाम के इतिहास की ये केवल एक घटना है. इतिहास में  अनेकों ऐसी घटनायें हैं.

अपने मत से सहमत न होने पर किसी व्यक्ति या समूह या देश पर आक्रमण कर उसे तबाह कर देना सम्पदा को लूट लेना औरतों को लूट के माल की तरह बाँट लेना और इसको शान्ति का सन्देश करार देना कहाँ तक तर्कसंगत है ?

पाठक गण विचार करें !

पं० लेखराम की विजय: स्वामी श्रद्धानन्द जी

श्री मिर्जा गुलाम अहमद कादयानी ने अप्रेल १८८५ ईस्वी में एक विज्ञापन के द्वारा भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के विशिष्ट व्यक्तियों को सूचित किया कि दीने इसलाम की सच्चाई परखने के लिए यदि कोई प्रतिष्ठत व्यक्ति एक वर्ष के काल तक मेरे पास क़ादयान में आ कर निवास करे तो मैं उसे आसमानी चमत्कारों का उसकी आँखों से साक्षात् करा सकता हूं । अन्यथा दो सौ रुपए मासिक को गणना से हरजाना या जुर्माना दूँगा ।

इस पर पं० लेखराम जी ने चौबीस सौ रुपए सरकार में जमा करा देने की शर्त के साथ स्वीकृति दी । उस समय वह आर्यसमाज पेशावर के प्रधान थे ।

मिर्ज़ा जी ने इस पर टालमटोल से कार्य करते हुए क़ादयान, लाहौर, लुध्याना, अमृतसर और पेशावर के समस्त आर्य सदस्यों की अनुमति की शर्त लगा दी कि वह पं० लेखराम जी को अपना नेता मानकर उनके आसमानी चमत्कार देख लेने के साथ ही उनके सहित ननुनच के बिना दीनें इसलाम को स्वीकार करने की घोषणा करें । जब कि स्वयं मिर्ज़ा जी ने स्वीकार किया है कि “वह आर्यों का एक बड़ा एडवोकेट और व्याख्यान दाता था ।”

“वह अपने को आर्य जाति का सितारा समझता था और आर्य जाति भी उसको सितारा बताती थी ।”

अन्ततः मिर्ज़ा जी ने चौबीस सो रूपये सरकार में सुरक्षित न करा कर केवल पं० जी को दो तीन दिन के लिए कादयान आने का निमन्त्रण दिया और साथ ही चौबीस सौ रूपये सरकार में सुरक्षित कराने की शर्त पं० जी के लिए बढ़ा दी जिससे चमत्कार स्वीकृति से इन्कार की अवस्था में वह रूपए मिर्ज़ा जी प्राप्त कर सकें । पं० जी ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया और लिखा कि जो आसमानी चमत्कार आप दिखायेंगे, वह कैसा होगा ? उसका निश्चय पूर्व हो जाए । क्या कोई दूसरा सूर्य दिखाओगे कि जिस का उदय पश्चिम और अस्त पूर्व में होगा ? अथवा चांद के दो टुकड़े करने के चमत्कार को दोहराएंगे ? अर्थात् पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा के दो खण्ड हो जावें और अमावस्या की रात्रि को पूर्णिमा की भान्ति पूर्ण चन्द्र का उदय हो जावे । इसमें जो चमत्कार दिखाना सम्भव हो, इसकी तिथि और चमत्कार दिखाने का समय निश्चित किया जाए जिसे जनता में प्रसिद्ध कर दिया जाए ।

किन्तु मिर्ज़ा जी इस स्पष्ट और भ्रमरहित नियम को स्वीकार न कर सके । इसका उत्तर देना और स्वीकार करना इनके लिए असम्भव हो गया । स्वीकार किया कि हम यह शर्त पूरी नहीं कर सकते और न ऊपर लिखे चमत्कार दिखा सकते हैं । किन्तु हमें ज्ञात नहीं कि क्या कुछ प्रगट होगा या न होगा ? और इस आकस्मिक आपत्ति से पीछा छुड़ाना चाहा ।”

अन्ततः पं० जी ने मिर्ज़ा जी को लिखा किः—

“बस शुभ प्रेरणा के विचार से निमन्त्रण दिया जाता है …. वेद मुकद्दस पर ईमान लाईये । आप को भी यदि दृढ़ सत्यमार्ग पर चलने की सदिच्छा है तो सच्चे हृदय से आर्य धर्म को स्वीकार करो । मनरूपो दर्पण को स्वार्थमय पक्षपात से पवित्र करो । यदि शुभ सन्देश के पहुंचने पर भी सत्य की ओर (ञ) ध्यान न दोगे तो ईश्वर का नियम आपको क्षमा न करेगा …. और जिस प्रकार का आत्मिक, धार्मिक अथवा सांसारिक सन्तोष आप करना चाहें—सेवक उपस्थित और समुद्यत है ।

पत्र प्रेषकः—

लेखराम अमृतसर ५ अगस्त १८८५ ईस्वी

इस अन्तिम पत्र का उत्तर मिर्ज़ा जी की ओर से तीन मास तक न आया । तब पं० जी ने एक पोस्ट कार्ड स्मरणार्थ प्रेषित किया । उसके उत्तर में मिर्ज़ा जी का कार्ड आया कि क़ादयान कोई दूर तो नही है । आकर मिल जाएं । आशा है कि यहां पर परस्पर मिलने से शर्ते निश्चित हो जाएंगी ।

इस प्रकार से पं० जी की विजय स्पष्ट है जिसे कोई भी नहीं छिपा सकता । मिर्ज़ा जी के पत्रानुसार अन्ततः पं० जी क़ादयान पहुंचे । वहां दो मास तक रहने पर भी मिर्जा जी किसी एक बात पर न टिक सके । क़ादयान में दो मास ठहर कर वहां आर्यसमाज स्थापित करके चले आए । आर्य-समाज कादयान की स्थापना हुई तो मिर्ज़ा जी के चचेरे भाई मिर्ज़ा इमाम दीन और मुल्लां हुसैना भी आर्यसमाज के नियम पूर्वक सदस्य बने । मिर्ज़ा जी ने भी पं० जी को दो मास तक कादयान निवास को स्वीकार किया है ।

पं० जी ने कादयान में रह कर मिर्जा जी को उनके वचनानुसार आसमानी चमत्कार दिखाने के लिए ललकारा और लिखा कि आप अच्छी प्रकार स्मरण रखें कि अब मेरी ओर से शर्त पूरी हो गी । सत्य की ओर से मुख फेर लेना बुद्धिमानों से दूर है । ५ दिसम्बर १८८५ ईस्वी

मिर्ज़ा जी ने आसमानी चमत्कार दिखाने के स्थान पर आर्य धर्म और इसलाम के दो तीन सिद्धान्तों पर शास्त्रार्थ करने का बहाना किया । अन्य शर्ते निश्चित करने का भी लिखा । जिस पर पं० ने लिखा कि मेरा पेशावर से चलकर कादयान आने का प्रयोजन केवल यही था और अब तक भी इस आशा पर यहां रह रहा हूं कि आपके चमत्कार = प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध कार्य, करामात व इलहामात और आसमानी चिह्नों का विवेचन करके साक्षात करूं । और इससे पूर्व कि किसी अन्य सिद्धान्त पर शास्त्रार्थ किया जाए यह चमत्कार दर्शन की बात एक प्रतिष्ठित लोगों की सभा में अच्छी प्रकार निर्णीत हो जानी चाहिए । और इसके सिद्ध कर सकने में यदि आप अपनी असमर्थता बतावें तो शास्त्रार्थ करने से भी मुझे किसी प्रकार का इन्कार नहीं ।

तीसरा और चौथा पत्र

पुनः पं० जी ने तीसरे पत्र में लिखा कि ….. मुझे आज यहां पच्चीस दिन आए हुए हो गए है । मैं कल परसों तक जाने वाला हूं । यदि शास्त्रार्थ करना है तो भी, यदि चमत्कार दिखाने के सम्बन्ध में नियम निश्चित करने है तो भी शीघ्रता कीजिए । अन्यथा पश्चात मित्रों में फर्रे मारने का कुछ लाभ न  होगा । किन्तु बहुत ही अच्छा होगा कि आज ही स्कूल के मैदान में पधारें । शैतान, सिफारिश, चांद के टुकड़े होने के चमत्कार का प्रमाण दें । निर्णायक भी नियत कर लीजिए । मेरी ओर से मिर्ज़ा इमामदीन जी (मिर्जा जी के चचेरे भाई) निर्णायक समझें । यदि इस पर भी आपको सन्तोष नहीं है तो ईश्वर के लिए चमत्कारों के भ्रमजाल से हट जाइए । १३ दिसम्बर १८८५ ईस्वी

पं० जी ने चतुर्थ पत्र में मिर्ज़ा जी को पूर्ण बल के साथ ललकारा और लिखा कि ….. आप सर्वथा स्पष्ट बहाना, टालमटोल और कुतर्क कर रहे है । मिर्ज़ा साहब ! शोक ! ! महाशोक ! ! ! आप को निर्णय स्वीकार नही है । किसी ने सत्य कहा है किः-

 

(ट)

उजुरे नामआकूल साबितमेकुनद तक़स़ीर रा ।

बुद्धिशून्य टालमटोल तो जुर्म को ही सिद्ध करता है ।

इसके अतिरिक्त आप द्वितीय मसीह होने का दावा करते हैं । इस अपने दावा को सिद्ध कर दिखाइए । (लेखराम कादयान ९ बजे दिन के)

अन्ततोगत्वा मिर्ज़ा जी ने समयाभाव और फारिग न होने का बहाना किया । जिससे पं० जी को दो मास कादयान रहकर लौट आना पड़ा ।

जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि मिर्ज़ा  जी ने पं० लेखराम जी की भावना शुद्ध न होने का भी बहाना किया है । यह दोषारोपण हक़ीकतुल्वही पृष्ठ २८८ से खंडित हो जाता है । क्योंकि वहां उनके स्वभाव में सरलता का स्वीकरण स्पष्ट विद्यमान है । इस पर भी अहमदी मित्र यदि पं० लेखराम जी की पराजय और श्री मिर्ज़ा जी की विजय का प्रचार करते और ढ़ोल बजाकर अपने उत्सवों में घोषणा करते है तो यह उनका साहस उनकी अपनी पुस्तकों और मिर्जा जी के लेखों के ही विरुद्ध है । यदि पं० का वध किया जाना आसमानी चमत्कार समझा जाए तो भी ठीक नहीं । क्योंकि आसमानी चमत्कार दिखाने का समय एक वर्ष के अन्दर सीमित था । और इसके साथ पं० लेखराम जी के इसलाम को स्वीकार करने की शर्त बन्धी हुई थी जैसा कि मिर्ज़ा जी के विज्ञापन में लिखा गया था । इन दोनों बातों के पूरना न होने के कारण पं० जी की विजय सूर्य प्रकाशवत् प्रगट है क्योंकि मिर्ज़ा जी ने स्वयं लिखा है किः—

“यह प्रस्ताव न अपने सोच विचार का परिणाम है किन्तु हज़रत मौला करीम (दयालु भगवान्) की ओर से उसकी आज्ञा से है । ………इस भावना से आप आवेंगे तो अवश्य इन्शाअल्लाह (यदि भगवान चाहे) आसमानी चमत्कार का साक्षात् करेंगे । इसी विषय का ईश्वर की ओर से वचन हो चुका है जिसके विरुद्ध भाव की सम्भावना कदापि नहीं ।” तब्लीगे रसालत जिल्द १ पृ० ११-१२

शर्त निश्चित न हो सकने के कारण पं० जो को कादयान से वापिस लौटना पड़ा । इसका प्रमाण पं० जी और मिर्जा जी की पुस्तकों से प्रगट है ।

पं० जी ने लिखा ही तो है किः—

” ……… अन्ततोगत्वा मिर्ज़ा साहब ने एक वर्ष रहने की शर्त को भी धनाभाव के कारण बहाना साजी, क्रोध और छल कपट से टाल दिया । बाधित होकर मैं दो मास कादयान रहकर और वहां आर्य-समाज स्थापित करके चला आया ।”

इशतहार सदाकत अनवार में श्री मिर्ज़ा जी ने पं० लेखराम जी के कादयान में आकर दो मास ठहरने और शर्तें निश्चित न हो सकने का उल्लेख किया है । अतः अहमदी मित्रों को ननुनच के बिना स्वीकार कर लेने में संकोच न करना चाहिए कि आगे के घटना चक्र में हत्या का विषय चमत्कार का परिणाम नहीं किन्तु इस पराजय का परिणाम ही है जिसे भविष्यवाणी का नाम दे दिया गया है । किन्तु सत्य तो अन्ततोगत्वा सत्य ही है कि श्री मिर्ज़ा साहब सुनतानुल्क़लम (मिर्जा जी का इलहाम सुनतानुल्क़लम का है । अतः वह अपने को क़लम का बादशाह मानते थे) की लेखनी से सत्य का प्रकाश हुए बिना न रह सका । और पं० लेखराम जी के वध को केवल हत्या नहीं प्रत्युत बलिदान अर्थात् शहीद मान लिया । देखिये स्पष्ट लिखा है किः—

 

(ठ)

“सो आसमानों और जमीन के मालिक ने चाहा कि लेखराम सत्य के प्रकाश के लिए शहीद हुए हैं । शहीद शब्द अरबी भाषा का है । अतः मिर्ज़ा जी ने इसका पर्यायवाची शब्द बलिदान रखा है । वेद में अंग-२ कटा कर धर्म प्रचार की सच्चाई प्रमाण देने वाले मनुष्य को अमर पदवी की प्राप्ति होती है । इसकी मुक्ति में कोई सन्देह नहीं रहता । क़ुरान शरीफ़ में भी शहीदों, सत्य पर मिटने वालों को जीवित कहा है । जिनके लिए न कोई भय और न कोई शोक है । खुदा के समीप इनका पद उच्च से उच्च है ।

पं० लेखराम की शहादत पर संसार ने साक्षी दी कि उनका धर्म सत्य और वह सत्य के प्रचारक थे । स्वयं श्री मिर्ज़ा जी ने पं० जी के बलिदान से पूर्व वेदों को नास्तिक मत का प्रतिपादक घोषित किया था ।

नास्तिक मत के वेद हैं हामी ।

बस यही मुद्आ (प्रयोजन) है वेदों का ।।

किन्तु पं० लेखराम आर्य पथिक के महा बलिदान के पश्चात् स्पष्ट रूप से घोषणा की जब कि मिर्ज़ा जी के दिवंगत होने में चार दिन शेष थे । अतः यह उनका अन्तिम लेख और अहमदी मित्रों के लिए यह उनकी अन्तिम वसीयत है कि वह भी श्री मिर्ज़ा की भान्ति पं० जी को सच्चा शहीद और वेद मुगद्दस को पूर्ण ईश्वरीय ज्ञान स्वीकार करें ।

मिर्ज़ा जी ने अपनी अन्तिम पुस्तक में घोषणा की है— यह पूज्य पं० जी की ईश्वर से सच्चे मन से की गई प्रार्थना का परिणाम है जो इस प्रकार है किः—

………..हे परमेश्वर ! हम दोनों में सच्चा निर्णय कर और जो तेरा सत्य धर्म है उसको न तलवार से किन्तु प्यार से तर्क संगत प्रकाश से जारी कर और विधर्मी के मन को अपने सत्य ज्ञान से प्रकाशित कर जिस से अविद्या, पक्षपात, अत्याचार और अन्याय का नाश हो । क्योंकि झूठा सच्चे की भान्ति तेरे सम्मुख प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं कर सकता ।” नुसखा (निदान) १८८८ ईस्वी

मिर्जाजी की प्रार्थना असफल

पं० जी की प्रार्थना से पूर्व मिर्ज़ा जी ने भी अपने विचार तथा मन्तव्य़ के अनुसार ईश्वर से प्रार्थना की थी । जो निम्न प्रकार हैः—

“……. ऐ मेरे जब्वारो कहार खुदा ! यदि मेरा विरोधी पं० लेखराम कुरआन को तेरा कलाम (वाणी) नहीं मानता । यदि वह असत्य पर है तो उसे एक वर्ष के अन्दर अजाब (दुःख) की मृत्यु दे ।”             सुरमा सन् १८८६ ईस्वी

मिर्ज़ा जी ने १८८६ ईस्वी में पं० जी के विरुद्ध ईश्वर से उन के लिये दुःखपूर्ण मौत मारने की प्रार्थना की । किन्तु यह प्रार्थना वर्ष भर बीत जाने पर भी स्वीकार नहीं हुई । अतः मिर्ज़ा जी के प्रार्थना के शब्दों में कुरान शरीफ़ ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध न हो सका । किन्तु पं० लेखराम जी ने मिर्जा जी की प्रार्थना का एक वर्ष बीत जाने पर और उस प्रार्थना के विफल सिद्ध होने पर १८८८ ईस्वी में अपनी आर्यों की गौरव पूर्ण प्रार्थना परमात्मा के समक्ष सच्चे एकाग्र मन से लिखी । जिस में एक वर्ष की अवधि की शर्त नही थी । जीवन भर में किसी समय भी इस प्रार्थना की आपूर्ति सम्भव थी जो परमात्मा की कृपा से पूर्ण सफल हुई । अतः वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने तथा पं० जी के सत्य सिद्ध होनेमें कोई सन्देह न रहा ।

इसलमा की परिभाषा में इसी का नाम “मुकाबला” है । जो दो भिन्न विचारवान् व्यक्ति भीड़ के सम्मुख शपथ पूर्वक परमात्मा से प्रार्थना करते हैं । मिर्ज़ा जी ने अन्तिम निर्णय के लिए मुकाबला की प्रस्तावना रखी थी और उस की विस्त़ृत प्रार्थना लिख कर छाप दी थी । चाहे नियम पूर्वक मुकाबला नहीं हुआ । किन्तु उस की रसम पूरी मान ली जाए । तो मिर्ज़ा जी की पराजय और आर्य गौरव पं० जी की विजय स्पष्ट सिद्ध है ।

पं० जी की प्रार्थना यह है कि “विधर्मी (मिर्ज़ा जी) के मन में सत्य ज्ञान का प्रकाश कर ।”

परमात्मा ने इसे स्वीकार किया और मिर्ज़ा जी धीरे-२ वैदिक धर्म के सिद्धान्तों के निकट आते चले गये । प्रथम मिर्ज़ा जी ने जीव तथा प्रकृति को नित्य स्वीकार किया । पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर ईमान लाए । स्वर्ग, नरक के इसलामिक सिद्धांत को परिवर्तित किया । जिहाद की समाप्ति की घोषणा की । अन्त में अपनी मृत्यु से चार दिन पूर्व ” पैगामे सुलह” (शान्ति का सन्देश) नामी पुस्तक लिखी जिस में अपने वैदिक धर्मी होने की घोषणा इन शब्दों में कीः—

(१) “हम अहमदी सिलसिला के लोग सदैव वेद को सत्य मानेंगे । वेद और उस के ऋषियों की प्रतिष्ठा करेंगे तथा उन का नाम मान से लेंगे ।”

(२) “इस आधार पर हम वेद की ईश्वर की ओर से मानते है और उस के ऋषियों को महान् और पवित्र समझते है ।

(३) ” तो भी ईश्वर की आज्ञानुसार हमारा दृढ़ विश्वास है कि वेद मनुष्य की रचना नहीं है । मानव रचना में यह शक्ति नहीं होती कि कोटि मनुष्यों को अपनी ओर खेंच ले और पुनः नित्य का क्रम स्थिर कर दे ।”

(४) “हम इन कठिनाईयों के रहते भी ईश्वर के भय से वेद को ईश्वरीय वाणी जानते हैं और जो कुछ उस की शिक्षा में भूलें हैं वह वेद के भाष्यकारों की भूले समझते हैं ।”

इस से  सिद्ध हुआ कि वेद की कोई भूल नहीं । वेद के वाम मार्गी भाष्यकारों की भूल है ।

(५) मैं वेद को इस बात से रहित समझता हूं कि उस ने कभी अपने किसी पृष्ठ पर ऐसी सिक्षा प्रकाशित की हो जो न केवल बुद्धिविरुद्ध और शून्य हो किन्तु ईश्वर की पवित्र सत्ता पर कंजूसी और पक्षपात का दोष लगाती हो ।”

अतः वेद का ज्ञान ही तर्क की कसौटी पर उत्तीर्ण है और बुद्धि विरुद्ध नहीं तथा ईश्वर की दया से पूर्ण है क्योकि ईश्वर में कंजूसी नहीं । आरम्भ सृष्टि में आया है कि जिस से सब के कल्याण के लिए हो और किसी के साथ ईश्वर का पक्षपात न हो ।

(६) “इस के अतिरिक्त शान्ति के इच्छुक लोगों के लिए यह एक प्रसन्नता का स्थान है कि जितनी इसलाम में शिक्षा पाई जाती है । वह वैदिक धर्म की किसी न किसी शाखा प्रशाखा में विद्यमान है ।”

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अतः सिद्ध हुआ कि इसलाम संसार में कोई पूर्ण धर्म का प्रकाश नहीं कर सकता । क्योंकि उसकी सिक्षा तो अधूरी है । वह तो वैदिक धर्म की शाखा प्रशाखा में पूर्व से लिखी हुई है । वास्तव में तो वेद का धर्म ही पूर्ण और भूलों से रहित होने से परम पावन है ।

परमात्मा आर्यावर्त, पाक, इसलामी देशों और संसार भर के अमहदी  मि6 तथा अन्य सभी लोगों को यह सामर्थ्य प्रदान करें कि वह अपने मनों को पवित्र करके स्वार्थ और पक्षपात की समाप्ति के साथ सत्य सिद्धान्त युक्त वेद के धर्म को पूर्णतः स्वीकार करें । पं० लेखराम जी ने भगवान् से यही प्रार्थना सच्चे हृदय और पवित्र मन से की ।

इस प्रार्थना की पुष्टि के लिए उन्होंने अपना जीवन वैदिक धर्म की बलिवेदी पर स्वाहा कहकर आहुत कर दिया । और सच्चे धर्म की सच्ची शहादत अपने खून से दे दी । जिस का प्रभाव यह हुआ कि मिर्ज़ा गुलाम अहमद के विचार परिवर्तित होते होते उनको वैदिक धर्म का शैदाई बना गए ।

ऐ काश ! हमारी भी शाहदत प्रभु के सम्मुख स्वीकार हो और हमें वीर लेखराम की पदवी प्राप्त हो । पदवी नहीं, गुमनामी ही सही । किन्तु वैदिक धर्म की पवित्र बलिवेदी पर हमारी आहुति भी डाली जाकर उसके किंचित् प्रकाश से संसार में उजाला और वेदों का बोलबोला हो । परमेश्वर सत्य हृदय से की गई प्रार्थना को स्वीकार करें ।

ओ३म् शम्

बिस्मिल्लाह के चमत्कार

अधिकतर कार्यों को आरम्भ करने से पहले मुसलमान  बिस्मिल्लाह का पढ़ना आवश्यक समझते हैं  कुरान के अधिकतर अध्यायों की शुरुआत भी बिस्मिल्लाह से ही हुयी है आइये जानते हैं बिस्मिल्लाह के कुछ चमत्कारों के बारे में

तफसीर ए जलालैन ने इसके बारे में जो दिया है वो पढ़िए :

बिस्मिल्लाह के गुण :

  • मुस्लिम की रिवायत है कि जिस खाने पर बिस्मिल्लाह नहीं पढी जाती उसमें शैतान का हिस्सा होता है .
  • अबू दाऊद की रिवायत है कि आप की मजलिस मै किसी सहाबी ने बगैर बिस्मिल्लाह खाना शुरू कर दिया आखिर में जब याद आया तो बिस्मिल्लाह कहा तो आं हजरत को यह देख कर हंसी आ गयी और फरमाया कि शैतान ने जो कुछ खाया था इनके बिस्मिल्लाह पढ़ते ही खड़े हो कर सब उल्टी कर दिया . अल बल्गाह में अपना वाकया फरमाया है कि एक दोस्त खाना खाने लगे तो उन के हाथ से रोटी का टुकडा छूट कर दूर तक लटकता चला गया जिससे सभी को ताज्जुब हुआ और अगले रोज़ मोहल्ले में किसी के सर पर खबीस आकर बोला कि कल हमने फलां सख्स से एक टुकड़ा छीना था मगर आखिरकार इसने हमसे ले ही लिया .
  • तिर्मज़ी की रिवायत हजरत अली से है कि शौचालय में जाने के वक्त बिस्मिल्लाह पढने से जिन्नात व शैतान की नज़र इसके आवरण (गुप्तांगों ) तक नहीं पहुँचती है .

इमाम राजी ने तफसीर कबीर में लिखा है कि हजरत दुश्मन के मुकाबले जंग में पर जमाए खड़े हैं और जहर हलाहल  की एक शीशी पीस करके …….  दीन की सराकत का इम्तिहान लेना चाहते हैं आपने पूरी शीशी बिस्मिल्लाह पढ़ कर पी ली लेकिन इसकी बरकत से आप पर जहर का मामूली असर भी नहीं हुआ .

लेकिन आप कहेंगे कि इस तरह के ताशीर (प्रभावोत्पादकता) आपका मशाहरा (the act of disagreeing angrily) चूँकि हमको नहीं होता इसलिये यह वाकयात गलत बे बुनियाद खुशफहमी पर बनी मालूम होते  है .सुबात यह है कि किसी चीज की ताशीर के लिए इस बात  व शरायत का मुहैया होना और मुआना व रुकावटों का दूर होना दोनों बातें जरुरी होती हैं .
अजलह मर्ज़ और हसूल सेहत के लिए सिर्फ दो दुआ कारगर  नहीं हो सकतीं ताव कतीकाह नुकसानदेह  चीजों और बद परहेजों से बिलकुल नहीं बचा जाए यहाँ भी साफ़ नीयत ईमान का मिल अगर शरायत ताशीर हैं  तो रयाकारी बद्फह्मी तोहमत व खयालात बद आत्कादी गैर मुआयना भी है दोनों ही मकर मज्मुई तोर पर अगर मौशर होते हों तो भी क्या  इश्काल (संदेह ) रह जाता है (हक्कानी )

  • इब्ने अहमद बन मुसी अपनी तफसीर में जाबर बन से रिवायत करते हैं कि बिस्मिल्लाह जब नाजिल हुयी तो बादल पूर्वी दिशा में दौड़ने लगे हवा रुक गयी समन्दरों में जोश हुआ जानवर कान खड़े करके सुनने लगे और अल्लाह ने अपनी महानता की कसम खायी कि बिस्मिल्लाह जिस चीज पर पढी जायेगी मैं इस में जरुर बरकत दूंगा .
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  • पण्डित देवप्रकाश जी ने जो लिखा जो लिखते हैं :
    पाठकों के मनोरंजन के लिए इस आयत के साथ जोड़े चमत्कार लिख देते हैं :
    इब्ने कसीर ने लिखा हजरत दाउद फरमाते हैं कि जब ये आयत बिस्मिल्लाह उतरी बादल पूर्व की और छंट गए हवा रुक गयी समुद्र ठहर गया ,जानवरों ने कान लगा लिया शिअतान पर आकाश से आग के शोले गिर इत्यादि (इब्ने कसीर जिल्द १ पृष्ट २४)
    अबू दाउद से उद्धृत किया है की नबी (मुहम्मद) के सामने एक व्यक्ति ने बिना बिस्मिल्लाह पढ़े खाना खाया . जब भोजन का एक ग्रास शेष रहा तो उसने बिस्मिल्लाह पढी तो शैतान ने जो कुछ खाया था खड़े होकर उल्टी कर दी .सहीह मुस्लिम से उद्धृत किया है कि जिस भोजन पर बिस्मिल्ल्लाह नहीं पढ़ा जाता उसमें शैतान भागीदार हो जाता है .
    तिरमिजी ने हजरत अली से उद्धृत किया है कि जब कोई व्यक्ति शौचायल में जाकर बिस्मिल्लाह पढता है तो इससे उसके गुप्तांगों व जिन्नों की आँखों के मध्य यह कलाम पर्दा बंद जाता है . तफसीर हक्कानी जिल्द १ पृष्ठ १७ न जाने ये जिन्न पखाने में मुसलामानों के पीछे क्यों जाते हैं .

इस तरह की बातों पर कोई भी विवेकशील व्यक्ति यकीन नहीं कर सकता . इन सब बातें वास्तविकता से परे हैं और अंधविश्वासों को बढ़ाने वाली हैं . पहले भी लोग बिस्मिल्लाह बिना पढ़े खाते थे और आज भी  बिना बिस्मिल्लाह पढ़े खाते हैं लेकिन आज तक तो किसी की रोटी को किसी शैतान ने नहीं छीना  न ही किसी को शौचालय में शैतान के होने का आभास हुआ है . इन सब तत्थ्यों के होते हुए इन सब बातों पर पढ़े लिखे और विवेकशील मुसलामानों का भी विश्वास करना शायद कठिन होता होगा गैर मुस्लिम के बारे में तो क्या कहें .

विवेकशील और बुद्धिमान मौलवियों आलिम फज़िलों को चाहीये की इस तरह की हदीसों के बारे में जो इस्लाम को वास्तविकता से परे रखने का कार्य करती हैं पर अपना मत स्पष्ट करना चाहिए

बुखार होने का कारण : इस्लामी किताबों से

बुखार का होना एक सामान्य रोग है जो कभी न कभी किसी का किसी को जकड ही लेता है . जब जब मौसम बदलते हैं तो अक्सर ये रोग अधिक हो फ़ैल जाता है और अधिक लोगों को अपने चपेटे में ले लेता है .

कई बार यह डेंगू बुखार का रूप ले कर महामारी का कारण भी बन जाता है . इस महामारी कई बार लोगों की जान तक चली जाती है . सामान्यतया चिकत्सक इस समय स्वच्छता पर ध्यान देने के लिए सलाह देते हैं जिसे मक्खियाँ जिन वस्तुओं पर बैठती हैं उन्हें न खाया जाए , पानी भर कर किसी बर्तन या किसी जगह पर न इकठ्ठा होने  दिया जाए जिससे कि  मच्छर इत्यादी न पनपें .

जब डेंगू का बुखार महामारी का रूप ले ले तो बड़ी कठिनाई हो जाती है. विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं और सरकार के लिए यह कठिन समय होता है . बीमार लोगों की अस्पताल में भीड़ इकट्ठी हो जाती हैं जो कई बार अस्पतालों में उपलब्ध सेवाओं से कहीं अधिक होती है. इसलिए सभी लोग इसके बचाव का ही प्रयास करते हैं .

लेकिन जब हम इस्लाम का अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि इसका एक कारण और भी है.

ये हदीसें देखिये :

सहीह बुखारी जिल्द ४ ,हदीस संख्या ४८३ ~४८६ पृष्ट संख्या ३१४ -३१५

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अबू जमरा अब दाब से रिवायत है कि मैं अब्बास के साथ मक्का बैठा करता था एक दिन मुझे बुखार था तो उसने मुझसे कहा कि ज़मज़म के पानी से बुखार को ठंडा कर लो . अल्लाह के रसूल ने कहा था कि बुखार नर्क की गर्मी से आता है इसलिए इसे ज़मज़म के पानी से ठंडा कर लो .

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रफ़ी बिन ख़दीज से रिवायत है कि मैने रसूल का  कहा  सुना कि बुखार नर्क की गर्मी से होता है इसलिए इसे जमजम के पानी से ठंडा कर लेना चाहिए

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आयशा से रिवायत है कि  रसूल ने कहा कि बुखार नर्क की गर्मी से होता है इसलिए इसे जमजम के पानी से ठंडा कर लेना चाहिए

 

इसी प्रकार की दुसरे कई हदीसें इस बार में सहीह बुखारी में दी गयी हैं . इसी तरह सहीह मुस्लिम में भी ये हदीसें आती हैं . सहीह मुस्लिम से ये हदीस देखिये .

सहीह मुस्लिम हदीस २२११, जिल्द -३, पृष्ठ संख्या ४७६

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आस्मा से रिवायत है कि एक औरत को काफी तेज बुखार की हालात में उसके पास लाया गया . उसने पानी मंगाया और उसके वक्ष स्थल के उपरी भाग पर छिड़क दिया और कहा कि बुखार को पानी से ठण्डा कर लो क्यूंकि ये नर्क की तेज़ गर्मी के कारण है .

अब मुहम्मद साहब द्वारा बताये गए बुखार के फायदों पर एक नज़र डालते हैं :

पाप दूर करता है बुखार:

सहीह मुस्लिम हदीस २५७५ जिल्द ४ पृष्ठ संख्या १९४

 

जबीर बी अब्दुल्लाह् से रिवायत है कि मुहम्मद साहब  उम्मा आइब या उम्मा मुसय्य्यिब के यहाँ  गए और उम्मा आइब या उम्मा मुसय्य्यिब को बोला कि तुम क्यूँ  कांप रहे हो . उसने कहा कि मुझे बुखार है और क्या यह अल्लाह की सजा नहीं है ? मुहम्मद साहब ने कहा की बुखार को मत कोसो क्यूंकि ये आदम की भावी पीड़ी के पापों का प्रायश्चित है  जैसे कि भट्टी लोहे से मिश्रित धातुओं को अलग कर देती है .

एक और हदीस देखिये

सहीह मुस्लिम हदीस २५७५ जिल्द ४ पृष्ठ संख्या १९४

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तात्पर्य यह है कि एक दिन अब्दुलाह मुहम्मद साहब के पास गए और देखा की मुहम्मद साहब को बुखार है तो मुहम्मद साहब को पूछा की आपको तो बुखार है तो उन्होंने कहा कि हाँ मुझे आप लोगों से कहीं ज्यादा बुखार होता है . मुहम्मद साहब ने पुनः कहा कि जब कोई मुसलमान बीमार पड़ता है तो उसका परिणामतः उसके कुछ पाप धुल जाते हैं .

 

इसी तरह की कुछ हदीसें बुखारी में भी दी हुयी हैं.

विचार करने की बात ये है कि चूँकि

चूँकि इस्लामिक मान्यता के अनुसार खुदाई किताब कुरान के  अनुसार  मुहम्मद साहब जो कुछ बोलते हैं अल्लाह की तरफ से ही बोलते हैं  जैसे की कुरान की ये आयत कहती है :

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तुम्हारे साथी ( मुहम्मद साहब ) नहीं भूले हैं न ही भटके हैं और वो अपनी ख्वाइश से नहीं बोलते वह तो सिर्फ वही ( ईश्वरीय ज्ञान ) है जो उन की तरफ वही की जाती है .

सूरा अन नज़्म ५३ आयत २ -४

अब यदि इस्लाम ने अनुसार खुदाई किताब को सत्य मानकर विचार किया जाए तो यह बात सत्य होनी चाहिए कि बुखार नर्क की गर्मी की वजह से होता है और पानी से चला जाता है .

लेकिन कोई भी विवेकशील व्यक्ति इस बात को मनाने के लिए तैय्रार नहीं होगी क्यूंकि:

  • नर्क और स्वर्ग आदि का अस्तित्व कहीं भी नहीं.
  • यदि नर्क का अस्तित्व्य दुर्जन्तोशान्य के लिए मान भी लिया जाए तो नर्क की गर्मी के वजह से यदि बुखार होता है तो फिर सभी व्यक्तियों जानवरों पक्षियों आदि को एक साथ होना चाहिए सभी को एक साथ क्यूँ नहीं होता.
  • नर्क की उस गर्मी से पृथ्वी का तापमान भी बढना चाहिए वो क्यों नहीं बढ़ता.
  • यदि बुखार नर्क की गर्मी से होता है तो फिर बाकी की बीमारियाँ किस कारण से होती हैं
  • विज्ञानं ने जो कारण बुखार होने के ढूंढे हैं, जैसे कि मच्छरों का काटना , उनका फिर क्या मूल्य रहा जाता है .
  • बुखार जब महामारी के रूप में फ़ैल जाता है और अनेकों लोगों की जान लेने का भी कारण बनता है उस समय सरकारें पैसा पानी की तरह बहाकर महामारी को रोकती हैं .यदि वह केवल नर्क की गर्मी की वजह से होता तो फिर उपचार से रोकना संभव नहीं था .
  • मुहम्मद साहब ने कहा की बुखार आदम की भावी पीढी के पापों का प्रायश्चित है तो भावी पीडी जब उत्पन्न ही नहीं हुयी तो फिर उसके पाप कैसे उत्पन्न हो गए और फिर पापों का फल तो उस व्यक्ति को मिलना चाहिए जिसने पाप किये हैं जिसने पाप नहीं किये उसे किसी और के कर्मों का फल दे देना कहाँ की बुद्धिमतता है . यह तो खुदा तो अन्यायकारी और नासमझ ही ठहराती है .
  • बुखार की वजह से पाप कैसे दूर हो सकते हैं ? यदि बुखार से पाप दूर होते हैं तो फिर बाकि की बीमारियों से पाप दूर होते हैं या नहीं होते हैं .
  • बाकी लोगों के पापों से मुहम्मद साहब के पाप दुगने दूर क्यों होते हैं. यदि ऐसा है तो क्या यह उस खुदा का पक्षपात नहीं है जो अपनी सन्तति के साथ भेदभाव करता है .
  • हदीस में कहा गया है कि पानी से बुखार दूर हो जाता है यदि ऐसा होता तो फिर उपचार के लिए इतनी औषधियां लेने की क्या आवश्यकता थी . मुसलमान भी बुखार के लिए औषधालयों में दवाई लेते ही देखे जा सकते हैं . उन्हें केवल पानी से बुखार दूर कर लेना चाहिए  और सभी मुस्लिम देशों में बुखार की दवाई बनाने बेचने और लेने पर प्रतिबन्ध कर देना चाहिए क्योंकि वो केवल पानी से दूर किया जा सकता है

 

मौलवियों को चाहिए कि इन हदीसों की वैज्ञानिक सन्दर्भ को सिध्ध करें .

जब इजराइल निवासी चूहे बना दिए गए :  अल्लाह का विचित्र कार्य

सृष्टि के नियम अपरिवर्तित रहते हैं. जब से सृष्टि का सृजन है ये नियम उसी रूप में हैं इन में कोई परिवर्तन नहीं होता है . सभी गृह नक्षत्र उन्हीं नियमों का पालन करते हुए विचरण करते हैं तथा सभी जीव भी ईश्वरीय नियमों का पालन करने के लिए बाध्य हैं. न तो जीव या प्रकृति द्वारा इन नियमों में कोई परिवर्तन किया जा सकता है न ही ईश्वर अपने बनाये इन नियमों में कोई परिवर्तन करता है. यदि इन नियमों में परिवर्तन हो जाये तो विचित्र स्तिथी उत्पन्न हो जायेगी . सारा विज्ञान जो इन अपरिवर्तित नियमों पर आधारित है खोखला हो जायेगा . जैसे पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है यह नियम प्रारंभ से निर्धारित है और विज्ञानं के अनेकों नियम , मौसम का परिवर्तित होना दिन रात का होना जैसे अनेकों नियमों  का यह आधार है यदि यह नियम परिवर्तित हो जाये और सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करने लगे तो ये नियम धराशाही हो जायेंगे .

इसी प्रकार ये भी नियम है जीव जिस योनी में जन्म लेता है उसी योनी में उस जीवन के बाकी काल तक निर्वाह करता है . बिना मृत्यु हुए उस जन्म में उसकी योनी में परिवर्तन नहीं होता है . यह अटल नियम प्रारंभिक काल से है लेकिन इस्लाम के इतिहास में इसके विपरीत बातें आती हैं उनमें से नीचे एक दी हुयी है इस पर विचार करते हैं .

सहीह बुखारी जिल्द ४, हदीस ५२४ , पृष्ठ संख्या ३३३

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अबू हुरैरा से रिवायत है कि मुहम्मद साहब ने कहा कि इजराइलियों का एक समूह खो गया. किसी को नहीं पता कि उन्होंने क्या किया मुझे इसके अलावा नहीं लगता कि उन्हें श्राप दिया गया हो और वे चूहे बना दिए गए .यदि तुम  इन चूहों के  सामने ऊंटनी का दूध रख दो  तो ये नहीं पीयेंगे लेकिन यदि भेड़ का दूध रख दो तो ये पी लेंगे .

मैने काब से पूछा कि क्या तुमने ये “ मुहम्मद साहब “ से सुना  था . मैने कहा कि हाँ . काब ने  मुझसे यही प्रश्न कई बार पूछा .

 

इसकी व्याख्या में लिखा गया है कि इजराइलियों को ऊंट का मांस खाना और दूध पीना अवैधानिक था . वो भेड़ का दूध पी सकते थे और मांस भी खा सकते थे .रसूल ने चूहों की आदतों से अनुमान लगाया कि कुछ इजराइल चूहों में परिवर्तित हो गए हैं .

व्याख्याकार आगे लिखते हैं कि मुहम्मद साहब को यह इजरायलियों के भाग्य के बारे में प्रेरणा से पता चल गया था. और वो सूअर और बन्दर बन गए थे .

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यह हदीस सृष्टि के नियमों के विपरीत है . सृष्टि के नियमों में परिवर्तन नहीं होता इसलिए मनुष्यों का चूहों में परिवर्तित हो जाना असंभव है .

चूँकि इस्लामिक मान्यता के अनुसार खुदाई किताब कुरान के  अनुसार :

 

तुम्हारे साथी ( मुहम्मद साहब ) नहीं भूले हैं न ही भटके हैं और वो अपनी ख्वाइश से नहीं बोलते वह तो सिर्फ वही ( ईश्वरीय ज्ञान ) है जो उन की तरफ वही की जाती है .

सूरा अन नज़्म ५३ आयत २ -४

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अब यदि इस्लाम ने अनुसार खुदाई किताब को सत्य मानकर विचार किया जाए तो यह बात सत्य होनी चाहिए कि मुहम्मद साहब के कहे अनुसार इजराइल के कुछ लोग चूहे बन गए थे .

लेकिन यदि बुद्धि पूर्वक विचार किया जाए तो कोई भी व्यक्ति इस बात को मनाने के लिए तैयार नहीं होगा की श्राप की वजह से मनुष्य चूहों में परिवर्तित हो गए होंगे.

मुसलमानों का यह कर्त्तव्य है कि सत्य का निर्धारण करें कि या तो हदीस गलत है या फिर कुरान की ये आयत गलत है की मुहम्मद साहब जो बोलते हैं वो अल्लाह की तरफ से होता है या फिर दोनों गलत हैं .

 

परमात्मा का शरीर कब बना? किससे बना? – राजेन्द्र जिज्ञासु

बाइबिल के प्रथम वाक्य आकाश (Heaven) को ईश्वर द्वारा बनाया गया, लिखा है और फिर आठवें वाक्य में दोबारा Heaven (आकाश) का सृजन हुआ। आकाश दो बार क्यों रचना पड़ा? पहले जो आकाश बनाया गया था, उसमें क्या दोष था? आश्चर्य है कि बहुत पठित लोग भी इस भूल-भुलैयाँ को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं।

यही नहीं बाइबिल की 26वीं आयत में आता है, ÒLet us make man in our own image.Ó अर्थात् परमात्मा ने अपनी आकृति पर मनुष्य को बनाने का मन बनाया। परन्तु अपने देह को कब और कैसे बनाया- यह बाइबिल में इस से पहले कहीं बताया ही नहीं गया।

उत्पत्ति 2-7 में पुनः God formed man of the dust of the ground.. लिखा मिलता है अर्थात् धरती की धूलि मट्टी से मनुष्य को बनाया गया। प्रश्न उठता है कि जब ईश्वर के सृदश ही मनुष्य को बनाया तो क्या फिर परमात्मा की देह भी धूलि मट्टी से निर्मित होगी। इस शंका का समाधान कैसे हो?

प्रत्येक आर्य को श्री हरिकृष्ण जी की पूना से प्रकाशित पुस्तक पढ़नी व पढ़ानी चाहिये।

श्री विशाल का प्रश्नःदिल्ली के श्री विशाल धर्मनिष्ठ व लगनशील युवक हैं। अभी अनुभवहीन हैं। उन्हें निरन्तर स्वाध्याय करके अपनी योग्यता बढ़ानी चाहिये। आप विधर्मियों को बहुत सुनते व पढ़ते हैं। उनके प्रत्येक आक्षेप का उत्तर देने की योग्यता तो समय पाकर ही आयेगी। आपने एक मुसलमान का यह आक्षेप सुनकर उसका उत्तर माँगा है कि अथर्ववेद के एक मन्त्र में, ‘‘हमारे शत्रुओं को मारने की प्रार्थना है।’’ मैं समझ गया कि किसी मियाँ ने जेहाद की वकालत में उसकी पुष्टि में वेद के मन्त्र का प्रमाण दे दिया। इससे इतना तो पता चल गया कि जेहाद को कुरान से तो न्याय संगत सिद्ध नहीं किया जा सका। जेहाद की पुष्टि में मियाँ लोग वेद को घसीट लाते हैं। कुरान का जेहाद विशुद्ध मजहबी लड़ाई व रक्तपात है। वेद में किसी भी मजहब की चर्चा नहीं, अतः वेद में मजहबी लड़ाई  (Crusade)  की गंध तक नहीं। तब मत पंथ थे ही नहीं। वेद में भले व बुरे, सज्जन व दुर्जन का तो भेद है। अन्यायी दुर्जन से लड़ाई में विजय की प्रार्थनायें हैं।

कुरान व बाइबिल दोनों हमारी इस मान्यता की पुष्टि करते हैं। कुरान की सूरते बकर की आयत संया 213 का प्रामाणिक अनुवाद है “Mankind was [of] one religion [before their deviation], then Allah sent the prophetes as………” अर्थात् धरती के वासियों की एक ही भाषा और एक ही वाणी थी। वह वाणी कौनसी थी? वेदवाणी ही सृष्टि के आरभ में मनुष्य धर्म था। इसी को शद प्रमाण माना जाता था। बाइबिल का घोष विश्व को सुनाना समझाना होगा, In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God.  कितने स्पष्ट शदों में घोषणा की गई है कि आदि में शब्द  (शब्द प्रमाण-वेद) था, शब्द ईश्वर के पास था और शब्द (ज्ञान) परमात्मा था। मित्रो! मत भूलिये बाइबिल में तीन बार आने वाले इस  शब्द Word का W अक्षर Capital बड़ा है। व्यक्तिवाचक जातिवाचक संज्ञाओं में धर्म ग्रन्थों का पहला अक्षर सदैव कैपिटल ही होता है। यहाँ Word संज्ञा होने से W कैपिटल है। निर्विवाद रूप से यहाँ शब्द Word वेद के लिये प्रयुक्त हुआ है। आयत का सीधा सा भाव सृष्टि के आदि में अनादि वेद का आविर्भाव हुआ। गुण-गुणी के साथ ही रहता है, सो ईश्वर का वेद ज्ञान ईश्वर के साथ था। ईश्वर ज्ञान स्वरूप माना जाता है, सो शद ज्ञान वेद का परमात्मा ब्रह्म कहा जाता है। हिन्दू समाज घर-घर में बाइबिल के इस घोष को गुञ्जा कर मार्गभ्रष्ट जाति बन्धुओं का उद्धार करे।

मैंने विशाल से कहा, अरे भाई विधर्मी से वार्ता करते हुए सदा अपना पक्ष वैज्ञानिक ढंग से रखो। प्रभु निर्मित किसी वस्तु व नियम में कुछ भी दोष आज तक नहीं पाया गया। सूर्य चाँद नये नहीं बने। मनुष्य, पशु-पक्षियों की निर्माण विधि (Design) विधि पुराना है। अग्नि, जल, वायु और सृष्टि के सब वैज्ञानिक नियम  (Laws) न घटे, न घिसे और न बढ़े, फिर ईश्वरीय ज्ञान, मानव धर्म नया (इलहाम) कैसे आ गया। यह मान्यता हठ, दुराग्रह व अन्धविश्वास है।

नन्दकिशोर जी के अनुरोध को शिरोधार्य करके मैं नये सिरे से एक ऐसी पुस्तक अवश्य लिखूँगा। मुसलमानों व ईसाइयों के साहित्य में जो वेदानुकूल नई-नई शिक्षायें व मान्यतायें मिलती है, सूझबूझ से आर्य युवकों को उनको संग्रहीत करके प्रचारित करना चाहिये।