क्या बिस्मिल्लाह कुरान में पारसियों की नकल से लिखा गया ?

मुस्लमान कुरान के बारे में दावा करते हैं की कुरआन मुहम्मद साहब पर नाजिल हुआ (उतरा ). ये खुदा का नवीनतम ज्ञान है जो खुदा ने अपनी पुरानी किताबों को निरस्त कर मुहम्मद साहब को दिया .

कुरआन की शुरुआत बिस्मिल्लाह से की जाती है . कुरान के अधिकतर सुरों की शुरुआत बिस्मिल्लाह से ही हुयी है . इस लिहाज़ से ये कुछ खास हो जाता है . अधिकतर कार्यों को करते हुए भी बिस्मिल्लाह पढ़ना शुभ माना जाता है यहाँ तक की सम्भोग करते हुए भी बिस्मिल्लाह पढने की रिवायतें हदीसों में मिलती हैं.

व्यक्ति कुछ लिखना आरम्भ करने से पहले सामान्यतया कुछ न कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं . जैसे भारतवर्ष में जब कोई व्यकित किताब या कोई लेख इत्यादि लिखते हैं तो ॐ, जय श्री राम इत्यादि शब्दों का प्रयोग करते हैं .इसी प्रकार के शब्दों का प्रयोग अरब और उसके आसपास के इलाकों में होता था .

इसी प्रकार पारसी भी अपनी किताबों के साथ ऐसे ही कुछ शब्दों का प्रयोग किया करते थे . जिसके अर्थ बिस्मिल्लाह होते थे . अनेकों विद्वानों का यह मानना है कि बिस्मिल्लाह आयत कुरान के लेखक ने पारसियों की किताबों से लिया है .

क्या बिस्मिल्लाह पारसियों से लिया गया है ?

ये देखिये सेल साहब क्या लिखते हैं :-

प्रत्येक अध्याय के शीर्षक के बाद , केवल नवें अध्याय को छोड़कर , मुसलमान बिस्मिल्लाह लिखते हैं जिसका अर्थ है महानतम दयावान के नाम पर .यह उनकी सामान्य प्रचलित पद्धिति है जिसे जो हर लेख या किताब के प्रारंभ में लिखते हैं . JEWS भी इसी तरह के शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे –भगवान के नाम पर , महान  भगवान् के नाम पर , इसी तरह इसाई महान भगवान् और उसके पुत्र के नाम पर लिखते हैं . लेकिन मुझे लगता है कि ये तरीका मुसलामानों ने पारसीयों से लिया है जैसे कि उन्होंने दूसरी बहुत सी चीजें पारसियों से ली हैं . पारसी अपनी किताबों के आरम्भ में “ BENAM YEZDAN BAKHSHAISHGHER DADAR” लिखते थे जिसका अर्थ बिस्मिल्लाह अर्थात “महानतम दयावान के नाम पर” पर ही होता है .

अब जरा तफसीर जलालैन के लेखक के विचार इस बारे में जानते हैं .

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क्या बिस्मिल्लाह के बाब ( अध्याय ) में आप ने दुसरे मजहब की (तकलीद नक़ल ) की है ?

पारसियों और मज़ुसियों के दसातीर में हर नामह ( किताब ) की शुरुआत भी कुछ इसी किस्म के अलफ़ाज़ से होती है .मसलन मौजूदा इन्जील के बाज ( कुछ ) इफ्ताताई ( प्राकत्थन लिखना ) अलफ़ाज़ भी कुछ इसी तरह के हैं जिससे यह साबित हो सकता है कि आं हजरत ने इन्हीं या दसातीर से استفاده (सुना होगा ) और बिस्मिल्लाह से कुरान ए करीम की इब्तदाई करने में में इनकी तकलीद और इक्त्दा (नक़ल ) की होगी . लेकिन अव्वल तो इन्जील के कदीम (पुराने ) और सहीह नुस्खों में नहीं है जिससे बरअक्स ये साबित होता है कि ईसाईयों ने मुसलामानों की देखा देखी कुरान की तकलीद की है . अलबत्ता पारसियों की दसातीर का जहाँ तक ताल्लुक है तो नहीं कभी आप (हजरत मुहम्मद साहब ) यूनान तशरीफ़ ले गए और  न ही अरब में किसे मजूसी (पारसियों से सम्बंधित ) आलिम या किताब खाना और मदरसा का नामोनिशान था .

इस जमाने में तो मजूस की मजहबी किताबों का अपनी कौम और मुल्क में पूरी तरह ईसायत और रिवाज़ भी नहीं था . खास खास लोग बतौर तबरक (आशीर्वाद ) दूसरों की नज़रों से अपनी मजहबी किताबों को छुपा कर रखते थे ताकि दुसरे लोग नहीं देख लें . मुल्क अरब तक इसकी नौबत कहाँ पहुँचती और फिर आप ( मुहम्मद साहब ) खुद अपनी जुबान के लिखने पढने तक से वाकिफ नहीं थी की नौबत यहाँ तक पहुँचती .

रहा हजरत सलमान फ़ारसी का मामला सुरा एक गुलाम में कोइ मजहबी आलम नहीं थे . अगर आप इनसे (इस्तफादः استفاده) फायदा लेते करते तो वो उलटे वो खुद आप के मोताकित ( भाग , विश्वास करने वाले ) कैसे हो जाते और अपने मुल्क की हर तरह की नाकाबिल बर्दाश्त तकलीफ सहह कर आपकी खिदमत में باعش अनुकूल फखर क्यों समझते .

अलावा इसके दूसरी बात यह कि अगर आप आं हजरत ने दूसरों की तकलीद में ऐसा किया भी है तो इससे आप आं हजरत की محاسن माहानता  अच्छे कार्य में इजाफा होता है और इससे आप आं हजरत की इन्साफ पसंदी   बुलंदी फक्र का अंदाजा होता है कि आप आं हजरत में दूसरों की अच्छाइयों और भलाइयों से किनाराकशी न की जाए   और   उनको अपनाने का जज्बा मौजूद थाबूल . और खुले दिल दिमाग से उनको करने का दूसरों को भी मशवरा देते थे . मुतासिब ( किसी की सहायता करना ) मुआनिद ( बात न मनाने वाला )  शख्स से कभी इस किस्म की तौकह (शर्म) नहीं की   जा सकती है  नहीं इस्लाम ने कभी अछूते और नए होने का ऐलान नहीं किया बल्कि हमेशा आपने पुराने और करीम होने पर फक्र किया है . यानी यह कह इसके तमाम उसूल करीम और पुराने हैं जिनकी तबलीक ( उपदेश ) अलैह्म करते चले आ रहे हैं .इस में कोई नई बात नहीं है बजूज (सिवाय ) इसके कि नादानों ने गलत रस्मों रिवाज की तहों और परतों में छिपा कर असल हकीकत को गम कर दिया था इसने फिर परदे हटा दिए और असल हकीकत को चमका दिया. पस इस तरह खुदा के नाम इफ्तताह करीम ज़माना और करीम मज़हब से चला आ रहा हो और इस्लाम ने भी इस की तकलीद की  हो तो काबिल ऐतराज ब्बत्त क्या रहा जाती है ?

तफसीर जलालैन के लेखक यह स्वीकार करते हैं कि हो सकता है कि बिस्मिल्लाह पारसियों से लिया गया हो और यदि ले लिया तो फिर परेशानी क्या है ये तो मुहम्मद साहब का बढ़प्पन था .

लेकिन कुरान कहता है की कुरान की तरह दूसरी आयत कोई नहीं बना सकता . बिस्मिल्लाह भी कुरान का हिस्सा है . यदि तफसीर ए जलालैन के लेखक के मुताबिक़ यह मान लिया जाये कि बिस्मिल्लाह पारसियों से लिया गया हो सकता है तो यह तो कुरान की तरह की आयत हो गयी जो पारसियों ने खुद बना ली थी . यह आयत को पारसियों को अल्लाह ने नहीं दी थी .

जब पारसी कुरान की तरह की एक आयत बना सकते हैं तो फिर कुरान की तरह की दूसरी आयते क्यों नहीं बनायी जा सकती .

और काफिरों द्वारा बनाई गयी इस आयत का महत्व तो देखिये कि कुरान के अधिकतर सुरों की शुरुआत ही इसी से होती है

मुसलमानों का इस बात को मानना कि यह आयत पारसियों से ली गयी हो सकती है , मुसलमानों के कुरान के खुदाई किताब होने के दावे की धज्जियाँ  उड़ा देती है .

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