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आर्य समाज और इस्लाम: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

आर्य समाज इस्लाम नही है और इस्लाम भी आर्य समाज नहीं है किन्तु फिर भी दोनों में काफी समानता है। 

  • इस्लाम के आगमन के पूर्व लाखों वर्ष व्यतीत हो चुके थे | अरब ने भी मोहम्मद,जो इस्लाम के महान पैगम्बर थे, उनके
    वहाँ अवतार लेने के पूर्व मनुष्य की सहस्त्रों पीढियों को देखा था । कुरान का मनुष्य के पास अवतरण होने से पहले क्या ये दीर्घकाल
    बिना रौशनी के था ? कम से कम इस्लाम के समर्थक ऐसा कहते हैं। वे पूर्व इस्लामिक काल को जमाना-ए-जहालत अर्थात् अज्ञानता
    वाला काल कहते हैं । यह कल्पना से परे है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा ने जो प्रकाशों का प्रकाश है संसार को इतने दीर्घकाल तक
    अंधकार में रहने दिया होगा । हमारी सृष्टि के बहुपूर्व पृथ्वी पर दो महान प्रकाश पुँज प्रदान किये गये थे सूर्य एवं चन्द्र, एक वह
    जिसके चारों और हमारी पृथ्वी चक्कर काटती थी, और दूसरा वह जो पृथ्वी के चक्कर काटता था । यदि सूर्य अथवा चन्द्र नहीं होते, तो
    हमारी भौतिक दृष्टि व्यर्थ होती या यूँ कहें कि अस्तित्व में ही नही होती । प्राकृतिक सूर्य एवं चन्द्र के विषय में जो सत्य है वही
    आध्यात्मिक प्रकाशपुंजों के समान ही सत्य है। 

भौतिक जगत आध्यात्मिक जगत का ही प्रतिरूप है । क्या आप यह सोचते हैं कि ईश्वर जो यह सहन नहीं कर सका
कि हमारी प्राकृतिक आँखें सूर्य के प्रकाश के बिना एक पल भी रह सकें, उसने चाहा होगा कि करोडों वर्षों तक मनुष्य की
करोडों पीढियां आयें और जाएं,जन्म लें और मरे बिना किसी आध्यात्मिक अथवा नैतिक प्रकाश के। किस प्रकार के पुरूष एवं
स्त्रियां वे थीं जो पूरा अध्यात्मिक अथवा नैतिक अंधकार में विचरण करती रही । और किस प्रकार का वह ईश्वर, था जो उन्हें
प्रकाश दे सकता था पर दिया नहीं ? क्यों वह इतनी देर उपेक्षा करता रहा? क्यों उसने करोडों वर्षों को व्यतीत होने दिया
इसके पहले कि वह मानवता को प्रकाश का उपहार प्रदान कर सके ? 

  • इस्लाम इन प्रश्नों का उत्तर नही दे सकता है पर आर्य समाज दे सकता है|आर्य समाज एक शताब्दी पुरानी
    संस्था है । परन्तु वे सिद्धान्त जिन्हे यह मन में बैठाती है किसी भी प्रकार नये नही हैं। यह मौलिकता का कोई दावा नही पेश
    करती है । यह कहती है कि संसार में प्रारम्भ से ही ईश्वर ने मानव जाति को वेदों के नाम से पुकारे जाने वाले अपने ज्ञान का
    प्रकाश प्रदान किया है । वैदिक शिक्षायें हमारी पीढियों को सीधी अथवा माध्यम द्वारा, दृश्य अथवा अदृश्य व्यक्त अथवा
    समाविष्ट रूप से अनेको मार्गो से प्राप्त हुई हैं । बहुधा हम उपलब्ध प्रकाश के उदगम स्थान को खोज पाने में असमर्थ होते हैं और
    अधिकतर ऐसा ही होता है । पर फिर भी हम बिना प्रकाश के कभी भी नही छोड दिये जाते हैं। 

जिस प्रकार इस्लाम के संस्थापक मोहम्मद साहब थे ठीक उसी प्रकार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी
दयानन्द थे । परन्तु जबकि अगले ने मानव जाति के श्रेष्ठों में विशिष्ट स्थान पर होने का ईश्वर का पैगम्बर होने का जिसके समान
न कोई हुआ और न कोई होगा, का दावा पेश किया परन्तु पिछले ने ऐसा कोई भी दावा प्रस्तुत नहीं किया। उन्होने केवल पुराने
वैदिक सिद्धान्तों को पुनर्जिवित करना चाहा जिन्हें कुछ समय पूर्व से भूला दिया गया था। जबकि मोहम्मद ने ईश्वर एवं मनुष्य के
बीच मध्यस्थ होने का दावा किया,स्वामी दयानन्द ने उपदेश दिया कि मनुष्य को किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नही है। 
मोहम्मद की महानता कहाँ पायी जाती है ? निश्चित रूप से वे महान थे, क्योकि यही वे थे जिन्होने असभ्य एवं बर्बर अरबियों
को नियन्त्रित किया तथा उन्हें विश्व प्रसिद्ध शक्ति के रूप में परिणित किया । इस्लाम की लहर एक बार इतनी शक्तिशाली थी कि
इसने पूरब अथवा पश्चिम में इसके मार्ग में आने वाली सभी वस्तुओं को बहा दिया । यह सम्पूर्ण दक्षिणी यूरोप उत्तरी अफ्रिका
तथा एशिया के बृहत भाग में प्रसार पाया इसने भारत पर भी आक्रमण किया इसे अनेकों शताब्दियों तक अपनी दासता में रखा ।
पर भारतीय सभ्यता की विशेषता ने भारत को तोड़ने मे एक कठोर शिला बना दिया । निसन्देह इसने भारत की दुर्बलता का
अत्याधिक शोषण किया । परन्तु हिन्दु समाज तथा हिन्दु सभ्यता में अन्तर्भूत शक्तियां हैं जो इसे सभी 
आँधी-तूफानों को झेल पाने में समर्थ बनाती हैं। जबकि अफगानिस्तान फारस, अरब एवं मिश्र देश शत-प्रतिशत
इस्लामिक है। केवल एक चौथाई भारतीयों ने इसे अपनाया । और अभी उनमें वृद्धि की सम्भावना कमतर होती जा रही है ।
किस वस्तु ने इस्लाम को अरब में सफल बनाया ? वह तीन वस्तुएं हैं। 
१. उस विशाल रेतीले प्रायद्वीप के वासियों की घोर अज्ञानता।
२. अरबी समाज कीअत्याधिक अव्यवस्थित अवस्था ।
३. मोहम्मद की युद्धरत जातियों को प्रभावित तथा नियंत्रित करने की असाधारण योग्यता।

एक बार अरब में सफल होकर मोहम्मद के अनुयायियों ने पडोसी देशों पर आक्रमण किया और
आक्रमणकारियों का प्रहार इतना शक्तिशाली था और आक्रामित लोग इतने असंगठित थे कि वे इस्लामिक प्रभावों के आगे
तुरन्त झुक गये। पर भारत में इस्लाम आंशिक रूप में सफलीभूत था । भारत पूर्णतया असंगठित था जब इस्लामिक आक्रमण
हुए थे । यद्यपि शारीरिक रूप में अधिक दुर्बल नहीं वरन कुछ विषयों में निश्चित रूप से सबल,भारतीय शासकों तथा भारतीय
जनता ने उस वैधानिक शक्ति को खो दिया था जो एक मात्र इस्लामिक लहर को झेल सकता था । परन्तु भारत को एक स्पष्ट
लाभ था । वह था भारत का उच्च स्तरीय दर्शन एवं नैतिकता जिसने बाहरी दुर्बलता का विरोध न कर अपना वर्चस्व बनाये
रखा । ऐसे बहुधा होता है कि अति सुसंस्कृत लोग कुछ दुर्बलताओं को समय के साथ समाहित कर लेते हैं और इस प्रकार अल्प
सभ्य पर शारीरिक रूप से दृढ, शत्रु के हाथों पराभव स्वीकार करते है । भारत के साथ ठीक ऐसी ही स्थिति थी । इसका दर्शन
तथा धर्म यद्यपि प्रत्येक अत्युत्कृष्ट होकर भी निहित शक्ति को खो चुके थे। पुरोहित समाज अत्यन्त बलशाली था । अन्धविश्वास,
मूर्तिपूजा एवं जाति गर्व ने भारतीय सभ्यता के मूल तत्वों को ग्रास बना लिया था । मुसलमानों का धर्म नया था । इस्लामी
खलीफों ने अफगान आक्रमणकारियों की गृद्ध दृष्टि भारत की सम्पदा पर पाकर इसे एक वरदान के रूप में देखा और इसलिए
एक पत्थर से दो शिकार करने के उद्देश्य से उन्होने उन पर धर्म के रक्षक का सम्मान प्रदान किया। 
अब यही मोहम्मद-बिन-कासिम तथा गजनी के महमूद जैसे धर्मरक्षकों ने भारत पर आक्रमण किया, हिन्दु मन्दिरों को धूल-
धुसरित किया, भारतीय सम्पदा को उड़ा ले गये और बदले में यहाँ इस्लाम को छोड गये । भारतीय राजकुमार एवं जनता इस
प्रकार असंगठित थे और उन दिनों का हिन्दू धर्म इस प्रकार स्वांगी कर्मकाण्डपरक था कि वनिस्पत कि अनेकों शताब्दियों तक
अविराम संघर्ष चले, इस्लामिक लहर के थपेड़ों को रोक भी नहीं सका । इस सम्बन्ध में दो वस्तुएं विचारणीय हैं – 
प्रथम -कि हिन्दु धर्म इस्लाम का विरोध नहीं कर सका । 
द्वितीय-कि इस्लाम, हिन्दु धर्म को समूल नष्ट नहीं कर सका, दोनों तथ्यों की अपनी व्याख्या है और इसी के प्रकाश में आर्य समाज
एवं इस्लाम के सम्बन्ध की गवेषणा करनी है । भारत पर इस्लामी आक्रमण अपने प्रकार के प्रथम नहीं थे । उनसे अनेकों शताब्दियों
पूर्व ग्रीकों, हूणों तथा अन्य विदेशियों ने हिन्दुओं के साथ अपनी शक्ति का प्रयास किया था । महान ग्रीक मेसिडोनिया के
अलेक्जेन्डर ने १२ अथवा १३ वीं शताब्दी पूर्व हिन्दु राजकुमार पोरस को परास्त किया था । यह पराभव हिन्दु राजकुमारों के
ईर्ष्या तथा असंगठित होने के कारण था । पर हिन्दुधर्म स्वयं में इतना ठोस था कि एक विजय ग्रीकों के लिए कुछ विशेष स्थान नहीं
बना सका और बिना समय व्यर्थ किए हिन्दु सभ्यता ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया । हूण आए तथा भारत में बस गये, पर शीघ्र
ही हिन्दु राष्ट्रीयता के अपने में आत्मसात कर लेने के गुण के कारण उन्होने अपनी पहचान विलय कर दी । हिन्दु धर्म एवं हिन्दु
दर्शन, हिन्दु आदर्श एवं हिन्दु समाजशास्त्र इतने शक्तिशाली थे कि विदेशियों को अपना मस्तक उनके समक्ष सम्मानपूर्वक झुकाना
ही पड़ा और उनके गले-लगाने वाले प्रभाव के आधीन होना ही पडा। 

यही इस्लाम की पूर्वकाल की कहानी है । पर उस समय तक जबकि इस्लाम ने उत्थान किया, हिन्दु
समाज विखण्डित हो गया था। हिन्दु धर्म कुछ चयनित व्यक्तियों का एकाधिकार बनकर रह गया । हिन्दुओं का आत्मसात कर लेने
का गुण दुर्बल हो गया। हिन्दु समाज की ठोस दीवारों में दरारें पड गयी । हिन्दुओं के अधिसंख्य भाग को मुख्य अधिकारों से वंचित
कर दिया गया । उच्च वर्णो एवं दलित वर्णो ने आपस में सम्बन्ध विच्छेद कर लिया । सम्बन्धों में आये ढीलेपन ने पूरी हिन्दु समाज
की रचना को ही क्षीण बना दिया । मुसलमानों में इतनी कुरीतियां नहीं थीं बल्कि वे अधिक दृढ थे और शक्तिशाली थे। उनका
भ्रातृत्व अधिक ठोस था और इसी कारण उन्होने जब हिन्दुओ पर आक्रमण किया तो वे पिछले आक्रमण का सफलता पूर्वक विरोध
नही कर सके और इस्लाम किसी प्रकार भारत में प्रवेश कर ही गया। पर इस्लाम ने विजय को सहज नही पाया यद्यपि शारीरिक
रूप से और कुछ स्थितियों में समाजिक रूप से दृढतर उनकी नैतिकता तथा धर्म एवं दर्शन अत्यन्त दुर्बल थे । इसी कारण यद्यपि
अस्थायी रूप में विजयी होकर भी वे डुबते हुए हिन्दु धर्म के बीच भी अधिक प्रगति नहीं कर सके । जहाँ कही भी एवं जब कभी भी
मुस्लिम वशंज उदार एवं संयत हुए हिन्दुधर्म ने उन्हे प्रभावित करना प्रारम्भ किया । एवं जब कभी भी एक मुस्लिम राजकुमार
कट्टर हुआ तभी आत्मोत्सर्ग का हिन्दु आदर्श ने प्रतिक्रिया प्रस्तुत की, एवं हिन्दु धर्म की ज्वाला को प्रज्वलित रहने दिया । यह
हिन्दुओं के त्रुटिपूर्ण समाजिक रीति-रिवाज ही थे जिन्होनें अकबर महान एवं दारा को खुले तौर पर हिन्दु बनने से रोका । पर यह
हिन्दु धर्म के आन्तरिक गुण थे जिन्होनें विचारवान एवं उदार मुस्लिमों को आकर्षित होने से नहीं रोक सके । यदि रिवाजों की
अपार खाडी नही होती जैसा कि ग्रीको एवं हूणों के दिनों में नही था भारत में एक भी मुसलमान नहीं रहा होता तथा यवन विजेता जो अफगानिस्तान, फारस,अरब अथवा तुर्की से यहां आये थे वे स्पष्टतया हिन्दुओं में मिल गये होते। पर इस प्रकार की
घटनायें नियति में नही थीं । और भारत आज जो है सो है। हिन्दु उच्च आदर्शों एवं उच्च दर्शनशास्त्र परन्तु भयानक दुर्बलताओं के
पोशक हैं । कुछ मुसलमान अनेकों समाजिक सुविधाओं सहित पर अगणित आध्यात्मिक वरदानों से रहित हैं । ये दो महान
सम्प्रदाय एक दूसरे के नजदीकी तथा सहयोगी बन सकती थी। परन्तु इनमें से प्रत्येक की अपनी-अपनी भिन्न मानसिकता है जो इस
खाई को पटने नहीं देता । प्रत्येक अपने को देवताओं का प्रिय, कुलीनतम तथा भव्यतम तथा दूसरों से अधिक उच्चकोटि का सोचता
है। हिन्दु मुस्लिमों को निरर्थक धर्म त्यागी समझते है जिनमें से किसी के भी पास सदगुण नही रह गया हो और उनके पुनः अवतार
के पश्चात ही उद्धार की सम्भावना रह गयी हो मुसलमान हिन्दुओं को केवल जो काफिर अथवा विधर्मी समझते हैं शीघ्र अथवा
विलम्ब से धर्मान्तरण के ही योग्य हैं। आर्य समाज मध्य में स्थित रहकर खाई को पाटने का प्रयास करती है । प्रथमतः आर्य समाज
ने हिन्दु समाज में ऐसे परिवर्तन लाये है जिसने मुसलमानों के अवगुणों को या तो 
आंशिक रूप से अथवा पूर्णरूप से दूर कर दिया है । पहले कोई भी हिन्दु अपने पवित्र ग्रन्थों, विशेषकर वेदों को, अहिन्दुओं को
पढने की अनुमति नहीं देते थे । आर्यसमाज प्रत्येक पवित्र पुस्तकों का सभी मुसलमानों अथवा अन्यों को स्वछन्दभाव से शिक्षा
देती है।। 
द्वितीयतः कोई भी मुसलमान किसी भी परिस्थिति में हिन्दु धर्म को गले नही लगा सकता था । आर्य समाज ने सभी बन्धनों को
तोड दिया और वैदिक आस्था का दरवाजा सभी के लिए खुला छोड दिया। 

‘तृतीयतः आर्य समाज ने निःसन्देह यह सिद्ध कर दिया है कि मूर्तिपूजा जिससे इस्लाम इतनी घृणा करता
है वह वैदिक विचारधारा के अन्तर्गत नहीं है प्रत्युत विलम्बित उदगम का अन्ध विश्वास है और इसलिए त्याज्य है । पर इस्लाम
के लिए भी इसका एक सन्देश है । यह इस्लाम के साथ सहमत है कि मूर्तिपूजा अनुचित  है । परन्तु यह बल देती है कि इस्लाम
एकदम से मूर्ति पूजा ट्रा नहीं कर सकती है जब तक कि यह पैगम्बर को ईश्वर एवं मनुष्य के बीच मध्यस्थ के रूप में देखती है। 
यह शैक्षिक हित का प्रश्न है कि कौन सा स्थान इस्लाम में पैगम्बर को प्राप्त है ? पवित्र इस्लामिक
धर्मग्रन्थ के विद्यार्थी इस बिन्द पर विभिन्न मत के हो सकते हैं । सम्भवतया मुहम्मद ने पूजा की विषय वस्तु पर स्वयं को इतना
महत्वपूर्ण बनना पसन्द नहीं किया होता । सम्भवतया उनकी यह हार्दिक इच्छा रहती कि ईश्वर के सिवाय किसी अन्य की पूजा हो
परन्तु तथ्य यह है कि अनुयायियों तथा उत्तराधिकारियों ने अन्य महान पुरूषों के अनुयायियों तथा उत्तराधिकारियों की ही तरह
ईश्वर को पष्ठभमि में रखकर पैगम्बर को प्रधानता दी । यदि हम घटनाओं में इतिहास को जिन्होने महान पैगम्बर की मृत्यु का
अनुसरण आज तक किया, गम्भीरता से अध्ययन करें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी अर्थात पैगम्बर का नाम एवं महत्ता ने सभी
विचारों को ग्रहण लगा दिया होता । कलमा अथवा पूजा का प्रारूप अन्य कर्मकाण्डों के साथ जो धर्म के मुख्य तथ्यों का निर्माण
करता है । पैगम्बर को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान देता है । मुसलमानों द्वारा बहुधा उच्चारित की गयी आयत देखिये 
गर मौहम्मद की जलवा नुमाई न होती। तो हार्गिज खुदा की खुदाई न होती ॥ 

यदि मोहम्मद की महिमागान न हुई होती तो भले -मानव कभी भी प्रमुखता में नही आते यही एक
विशिष्ट मुस्लिम मस्तिष्क का सच्चे अर्थों में प्रतिनिधित्व है । तार्किक अथवा आध्यात्मिक रूप से मोहम्मद ने पैगम्बर शब्द का क्या
अर्थ निकाला यह एक प्रश्न है । पर पैगम्बर के विषय में आधुनिक इस्लामिक विचारधारा ने इस्लाम को व्यक्तिपूजक के रूप में
कमतर कर दिया है जो किसी भी तरह श्रेष्ठ नहीं है और अनेकों विषयों में मूर्ति पूजा से भी निम्नतर है । यह अवश्य स्मरण किया
जाना चाहिये कि व्यक्ति पूजा ही मूर्तिपूजा की पूष्ठ भूमि में रहा है । मूर्तिपूजा सर्वदा व्यक्ति पूजा का परिणाम रहा है। इसी कारण
मूर्तिपूजा के विरूद्ध भंयकर धर्मयुद्ध के बदले इस्लाम इसे मिटा नही सका और इसका अवतरण बार बार दस सहस्त्रों विभिन्न रूपों
में जैसे समाधि पूजा काला पत्थर पूजा, कागज पूजा (ताजियाओं) और इसी प्रकार अनेकों वस्तुओं की पूजा में हुआ। 

धर्म के क्षेत्र में व्यक्ति पूजा से अधिक विनाशकारी कुछ भी नहीं है । यह दासत्व तथा कट्टरपन की मानसिकता
उत्पन्न करती है जो सच्चे धर्म के प्रबल शत्र हैं । फिर भी श्रेष्ठ कितना भी महान हो उसके अच्छे गुण शीध्र ही पृष्ठभूमि में विलीन हो
जायेंगे और उसकी दुर्बलताएं उसके अनुयायियों के लिए पूजा की वस्तुएं हो जायेंगी । इस्लाम से सम्बन्ध के सिवा यह और कहीं
अधिक सत्य नहीं है । मोहम्मद एक महान पुरूष थे पर फिर भी एक व्यक्ति थे । उनके अपने दृढ अभिप्राय साथ ही दुर्बलता से
भरे हुए थे । ईश्वर के सिवा कोई भी पूर्ण नहीं है और चूंके मोहम्मद ईश्वर नहीं थे, उनमे अपूर्णतायें थी। उनके श्रेष्ठ गुणों की खोज
कोई बुद्धिमान व्यक्ति ही कर सकता है जबकि उनकी त्रुटियों का अनुकरण जन समुदाय द्वारा किया जाता है।

आर्य समाज के संस्थापक ने इस बन्धन से सुरक्षा के उपाय किये हैं । उनके उद्देश्य की श्रेष्ठता तथा जीवन की शुद्धता ने स्वामी
दयानन्द को अनुयायियों द्वारा आराध्य बनाया । परन्तु एक विषय पर उन्होने अधिक बल दिया कि वह उतने भले थे जितना कि
एक व्यक्ति हो सकता है फिर भी उनके विचार अन्धविश्वास की वस्तु न बनें । 
इन्ही शिक्षाओं के माध्यम से ईश्वर के अतिरिक्त अन्य उपासनाओं को समूल नष्ट किया जा सकता है । मनुष्य ईश्वर के अलावा अन्य
वस्तुओं की उपासना क्यों करता है ? मानवीय इतिहास तथा मानवीय दर्शन शास्त्र बताते हैं कि समय के अन्तराल में नायक अर्द्धदेव
तथा अर्द्धदेव देवता का रूप धारण कर लेते है । किसी भी पुराण विद्या से सम्बन्धित प्रतिभाये अर्द्धदेवों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो
अपने समय में अन्ध विश्वास से प्रतिपादित रहस्यों से घिरे हुए थे । यही अर्द्धदेवों ने , कुछ धर्मो में पैगम्बर के नाम से पुकारे गये ,
लोगो को सत्य ईश्वर के उपासना से भटकाया है । यद्यपि तथ्य यह है कि प्रारम्भ में उन्होने अपने को ईश्वर का सच्चा उपासक होने का
दावा पेश किया । इन्ही मुख्य विचारों पर इस्लाम एवं आर्य समाज के मध्य अपसरण है, देखिये 
१. आर्य समाज का मत है कि दैवी शक्तियाँ संसार के आरम्भ में ही प्रकट होती हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य का अवतरण
सांसारिक प्रकाश का उदगम स्त्रोत । इस्लाम का विश्वास है कि दैवी प्रेरणा अन्य मानवीय संहिताओं की तरह निराकरण तथा
परिवर्तन के आधीन है । परन्तु उच्चतम असंगति जिसे इस्लाम परिवर्तन तथा प्रगति के समय अनुमति देता है वह है कि प्रेरणायें
कुरान में पूर्णता प्राप्त करती हैं और मोहम्मद अन्तिम पैगम्बर थे । ऐतिहासिक खोज साधारणतया सिद्ध करते हैं कि कुरान में
अनेकों गुण है केवल यह छोडकर कि यह नया है । इसकी शिक्षायें विद्युतीय प्रभावकारी हैं । पैगम्बर के व्यक्तित्व के अतिरिक्त कुछ
भी नही ऐसा है जिसका अन्य धार्मिक पौराणिक गाथाओं में चिन्ह भी नहीं पाया जा सकता । आर्य समाज कुरान के सभी उपदेशों
को अस्वीकृत नही करता है । ये बातें अधिक पुरानी पुस्तकों में भी उपलब्ध हैं यह उसका मानना है और अनेकों ऐसी बातें हैं जो
प्राचीन काल में अस्तित्व में थी पर उनका कुरान में अथवा कुरान की आधुनिक व्याख्या में स्थान नही है । 
२. इस्लाम में जीवात्मा का कोई महत्व नहीं है यहाँ तक कि स्वतंत्र आस्तित्व भी नही ईश्वर शून्य से आत्मा की सृष्टि करता है। क्यों
? ईश्वर जानता हैं । कैसे? ईश्वर जानता है । किस सीमा तक ? ईश्वर जानता है । आर्य समाज आत्मा को स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान
करता है । यह अनन्त है और जगत का केन्द्र बिन्दु है । आत्मा के हित में ही ईश्वर विश्व की रचना करता है यह दैवी हाथों की
कठपुतली नही है। 
यह हमारी नियति को साचें में ढालता है । यह उत्तरदायी है। इस्लाम आत्मा के अस्तित्व को केवल संयोग मानता है । परन्तु आर्य
समाज की धारणा है कि वर्तमान जीवन उस प्रारम्भहीन एवं अन्तहीन जीवन का केवल अंश मात्र है । कर्म विधान तथा पुनर्जन्म
का सिद्धान्त इसी तथ्य पर निर्भर है। 
३. आर्य समाज आस्था एवं तर्क में समन्वय करता है जबकि इस्लाम पहले को दूसरे से वर्चस्व देती है । इस्लाम का अर्थ आस्था
है जो धर्मान्धता की और अग्रसारित करता है । इस्लाम का दूसरे धर्मो के प्रति धारणा अथवा धार्मिकता इस तथ्य का ज्वलन्त
उदाहरण है। 

क्या आर्य समाज इस्लाम विरोधी है ? उतना नहीं जितना लगता है । प्रत्येक संस्था के कुछ उद्देश्य हैं।

यह सहयोगी के प्रति मित्रवत हैं और उनके प्रति विरोधी हैं जो इसके कार्यो में बाधा डालते 

यह केवल आर्य समाज के ही लिए सत्य नहीं है प्रत्यत इस्लाम ईसाईयत तथा औरों के लिए भी क्या
इस्लाम आर्य समाज का विरोधी है आर्य समाज स्वतंत्र अभिव्यक्ति स्वतंत्र कर्म का पोषक है । क्या इस्लाम भी इनका समर्थन
करता है ? तब कितना भी अन्य विषयों पर मतभेद हो, इस्लाम को आर्य समाज से अथवा एक दूसरे से भय नही है। 
परन्तु दुर्भाग्यवश इस्लाम इसका अनुसरण नहीं करता है । पिछले दिनों में इस्लाम के अनुयायियों ने पुस्तकालयों को इस आधार
पर जला डाला कि उनमें कान के विरूद्ध वस्तुएं हैं, वे अवांछित हैं और यदि कुरान से सम्बन्धित भी हैं तो अनावश्यक हैं। 
इस्लाम की यही धारणा अभी भी स्पष्ट है विशेष कर भारत में आर्य समाज वास्तव में उन सभी का विरोधी है जो
वैयक्तिक अन्तरात्मा को स्वतंत्र नहीं छोडते हैं । ॥ इति ।।

अनवर जमाल को जवाब -१ “आर्यसमाज पर १०८ प्रश्नों का धारदार जवाब”

लेखक- सी.ए.ए CAA (Pt. Chamupati Ki Atma)

अनवर जमाल जी की भूमिका-१ (लेख १)

∆ भूमिका-

मुस्लिम पक्षकारों व प्रचारकों में से के एक लेखक डॉ अनवर जमाल जी ने आर्यसमाज व महर्षि दयानंद पर एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है ‘स्वामी दयानंद ने क्या पाया क्या खोया: आर्यसमाज से १०८ सवाल’। यह पुस्तक पहले संक्षिप्त ब्लॉग व पुस्तक रूप में थी। श्री राजवीर आर्य जी ने उस पुस्तक का जवाब ‘किताबुल्ला वेद या कुरान’ में दिया था। आज तक इस पुस्तक पर जमाल जी की लेखनी चली हो, ऐसा अब तक देखने में नहीं आया। इसी तरह ब्लॉग रूप में तत्कालीन संक्षिप्त पुस्तक के अनुसार इनका खंडन श्री अनुज जी ने किया था। परंतु उसके बाद जमाल साहब ने अपनी पुस्तक का विस्तृत संस्करण लाया। यह ब्लॉग रूप में भी उपलब्ध है। अब तक आर्यसमाज के किसी लेखक ने इस पुस्तक पर लेखनी नहीं उठाई है। दरअसल इनकी पुस्तक में उत्तर देने लायक विशेष कुछ नया न था। वही पौराणिकों और मुसलमान की १५० सालों से चल रहे घिसे-पिटे आक्षेपों का संकलन है। इसलिये आर्यसमाज के शीर्षस्थ विद्वानों ने इसकी प्रायः उपेक्षा ही की है। परंतु मुसलमानों को इस पुस्तक पर ऐसा दंभ जाग गया, मानो आर्यसमाजी इनसे पूरी तरह निरुत्तर ही हो गये हैं! अतः हमने इस पुस्तक पर लेखनी उठाने की सोची। लगभग चार माह के लगातार परिश्रम से यह पुस्तक अब पाठकों के समक्ष है।श्री अनुज जी ने कुछ आरंभिक आक्षेपों का जवाब दिया है, उन्हीं के अनुसार हमने विस्तार कर हमने समाधान दिया है।
बाकी कई समाधान हमने अलग से दिये हैं। पुस्तक में स्थान-स्थान पर इस्लाम पर भी आलोचना की गई है ताकि आर्यसमाज पर वार करने वाले मुसलमानों को इस्लाम की असली तस्वीर दिहो।
ऐसी आपत्तियाँ पहले डॉ अली सीना, इब्ने वराक,अली असगर,एम.ए खान,अबुल कासिम,अनवर शेख प्रभृति पूर्व मुस्लिम विद्वानों ने भी उठाई हैं। हम उनके शोध का भी आभार व्यक्त करते हैं। श्री बृजनंदन शर्मा जी के ‘भंडाफोडू’ ब्लॉग की भी सामग्री का प्रयोग किया गया है। ये ऐसी आपत्तियाँ हैं, जिनसे मुसलमान सदा ही दूर भागते हैं। इन सभी लेखकों को हम धन्यवाद देते हैं।

हमने कई जगह अनवर जमाल जी के लेख का पूरा भाग लिया है,तो सहीं केवल उसका सारांश लिखकर उत्तर दिया है,ताकि पाठकों को सुविधा हो।बाकी वे डॉ अनवर जमाल जी के ब्लॉग पर उनकी पुस्तक पीडीएफ व पोस्ट रूप में देख सकते हैं। आलोच्य विषय, जोकि जमाल जी की पुस्तक में हैं, वे रोमन क्रमांकों में हैं और जो क्रमांक देवनागरी में हैं,वे हमने दिये हैं ताकि पुस्तक के विषयों में तारतम्यता हो तथा पाठकों को पढ़ने में सरलता हो।

प्रश्न-१-
सच्चा योगी गुरू न मिला, नशे की लत पड़ी-

वह स्वयं कहते हैं-
‘दुर्भाग्य से इस स्थान पर मुझे एक बड़ा व्यसन लग गया अर्थात् मुझको भंग सेवन करने का अभ्यास पड़ गया और प्रायः उसके प्रभाव से मैं मूर्च्छित हो जाया करता था।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित्र, पृ.50, षष्टम् संस्करण, मूल्यः250 रुपये, प्रकाशकः आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट 455 खारी बावली, दिल्ली 110006, दूरभाषः 23958360)
   
उत्तर-
आपने यहां पर ईमानदारी से काम नहीं लिया। महर्षि दयानंद को सच्चे परमात्मा की खोज में कई संप्रदायों व गुरुओं की शरण में जाना पड़ा। इसी तरह एक बार उनको भांग पीने की लत लग गई थी। इस भूल को उन्होंने सहर्ष स्वीकार भी किया था। यह एक महापुरुष की निष्पक्षता को ही दर्शाता है। अनवर जी बिना पूरी बात बताये असूया वृत्ति से आक्षेप कर रहे हैं।
आपने यह नहीं बताया कि महर्षि दयानंद ने उसके बाद सदा के लिये नशा करना छोड़ दिया था,देखिये:-
“आगे कोे भांग का सेवन बिलकुल त्याग दिया।”
( पं लेखराम कृत महर्षि जीवनचरित्र पेज नंबर ३८, प्रथम पैराग्राफ अंतिम पंक्ति)

मेरे पास जो महर्षि दयानंद का सम्पूर्ण जीवन चरित्र, पं लक्ष्मण जी कृत रखा है, उसमें यों लिखा है:-

“फिर स्वामी जी ने भांग का प्रयोग सर्वथा त्याग दिया।”

श्री स्वामीजी ने वाणी व लेखनी से सब मादक पदार्थों के सेवन के विरुद्ध प्रबल आंदोलन चलाया ।आप ने सरकार से कहा -“इससे तो यह उचित है कि मध्य अफीम गांजा भांग इनके ऊपर चौगुना कर ( यानी चार गुना टैक्स लगाया जाये) स्थापन किया जाए क्योंकि नशादिकों का कि छूट जाना ही अच्छा है और जो मद्य आदि बिल्कुल ही छूट जाए तो मनुष्य का बड़ा अहोभाग्य ।(सत्यार्थ प्रकाश प्रथम संस्करण समुल्लास 11)

( महर्षि दयानंद सरस्वती:- सम्पूर्ण जीवनचरित्र, भाग-१, पेज ८३, पैराग्राफ २, अंतिम पंक्ति)

यहां साफ है कि महर्षि दयानंद भांग के नशे को गलत मानते थे। इसलिये इसे लत कहा, और कहा कि ये दुर्भाग्य से ऐसा हुआ। फिर संकल्प करके इस लत को छोड़ दिया।
पाठकगण! आर्यसमाज तो स्पष्ट रूप से मानता है कि महर्षि दयानंद को कुछ समय के लिये भांग पीने की लत लगी थी, जो बाद में सदैव के लिये खत्म हो गई। आपने जबरन पाठकों ते सामने यह तथ्य न रखकर उनकी आंखों में धूल झोंकने का काम किया है।

और फिर आप खुद ही लिखते हैं कि सत्य खोजने में कुछ छद्म गुरु भी हमें मिल जाते हैं-

“मक़सद और तरीक़ा, दोनों ग़लत” शीर्षक से-

“जब कोई मनुष्य गुरू की खोज में निकलता है तो उसे ऐसे बहुत से नक़ली गुरु मिलते हैं जिन्हें खुली आँखों से नज़र आने वाली चीजों तक की सही जानकारी नहीं होती लेकिन वे ईश्वर और आत्मा जैसी हक़ीक़तों के बारे में अपने अनुमान को ज्ञान बताकर लोगों को भटका देते हैं।”

अतः बहुत समय तक वे भ्रमित रहे,पर अंततः उनको सत्य का ज्ञान हो ही गया।

प्रश्न-२-
“क्या दयानंद जी ने अधूरे में शिक्षण छोड़ दिया?”

योगी गुरू की खोज में असफल होने के बाद वह मथुरा में विरजानन्द स्वामी जी से मिले। विरजानन्द स्वामी जी कहते थे कि ‘तीन वर्ष में व्याकरण आता है’। स्वामी दयानन्द जी ने उनसे व्याकरण भी पूरे तीन साल नहीं पढ़ा। यहां रहने के दौरान भी स्वामी जी को सत्य-असत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाया।

उत्तर-
महर्षि दयानंद ने व्याकरण पूरे तीन साल नहीं पढ़ा,बीच में ही छोड़ दिया- ऐसा आपने कोई प्रमाण नहीं दिया। उन्होंने उपदेश मंजरी में अपना स्वकथित जीवनचरित्र सुनाया था,उसमें उन्होंने कहा है-

“….मैं मथुरा में आया। वहाँ मुझे एक धर्मात्मा संन्यासी गुरु
मिले । उनका नाम स्वामी विरजानन्द था, वे पहले अलवर में रहते थे।इस समय उनकी अवस्था ८१ वर्ष की हो चुकी थी। उन्हें अभी तक वेद,शास्त्र आदि आर्ष ग्रन्थों में बहुत रुचि थी। ये महात्मा दोनों आँखो से अन्धे थे और इनके पेट में शूल रोग था। ये कौमुदी और शेखर आदि नवीन ग्रन्थों को नहीं अच्छा समझते थे और भागवत आदि पुराणों का भी खण्डन करते थे। सब आर्ष ग्रन्थों के वे बड़े भक्त थे। उनसे भेंट होने पर उन्होंने कहा कि तीन वर्ष में व्याकरण आ जाता है । मैंने उनके पास पढ़ने का पक्का निश्चय कर लिया। …….
विद्या समाप्त होने पर मैं आगरे में दो वर्ष तक रहा, परन्तु पत्रव्यवहार के द्वारा या कभी-कभी स्वयं गुरु की सेवा में उपस्थित होकर अपने सन्देह निवृत्त कर लेता था। आगरे से मैं ग्वालियर को गया, वहाँ कुछ-कुछ वैष्णव मत का खण्डन आरम्भ किया, वहाँ से भी स्वामी जी को पत्रादि भेजा करता था। “
( उपदेश मंजरी, उपदेश १५, पृ.१०९)

यहाँ पर स्वामीजी के लेख से तो इतना समझ में आ रहा है कि,प्रथम तो, उनका शिक्षण पूरा हो चुका था,यानी तीन सालों तक उनका अध्ययन हुआ ही!यदितीन वर्ष न भी मानो, तो महर्षि दयानंद एक प्रतिभावान छात्र थे। वे पहले ही कौमुदी आदि क्रम से व्याकरण पढ़ चुके थे। ऐसे विद्यार्थी को महाभाष्य जल्दी हस्तगत हो ही जाता है। यदि आपको विश्वास नहीं तो आर्यसमाज के गुरुकुलों में पूछ आइये। रोजड़,रेवली और तेलंगाना में ऐसे गुरुकुल बहुत प्रसिद्ध हैं।
कई छात्र कम आयु में आईएएस व आईआईटी जैसी परीक्षायें उत्तीर्ण कर लेते हैं। ऐसी असाधारण प्रतिभा महर्षि में भी थी।
उपरोक्त प्रमाण से यह भी पता चला कि विद्या पूरी होने के बाद भी वे गुरु के सान्निध्य में ही रहे। तब उनकी विद्या कैसे पूरी न बुई होगी?

दूसरे, वे बराबर पत्राचार व प्रत्यक्ष उपदेश सुन कर शंकासमाधान आदि कर भी लेते थे, अर्थात् उनका अध्ययन तब सतत् चल रहा था।असल में व्यक्ति जीवनभर कुछ न कुछ सीखते ही रहता है। फिर भी, व्याकरण का अध्ययन उन्होंने पूरा कर ही लिया था। व्याकरण के विषय में उनकी टक्कर का कोई विद्वान उनके गुरु के सिवा उस काल में न था।

∆ मुहम्मद साहब की विद्या-

इस्लाम वालों के अनुसार मुहम्मद साहब एक अनपढ़ व्यक्ति थे—

क्यों जी! महर्षि दयानंद तो आपके रसूल से अधिक ही जानते थे,जो वो कई सालों तक व्याकरण,वेद,योग आदि विद्या पढ़ते रहे और जीवनभर स्वाध्यायशील रहे। कम-से-कम आपके उम्मी रसूल से तो बेहतर ही थे।
( वो बात अलग है कि बाद में मुहम्मद साहब कुछ लिख पढ़ लिये थे,ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं।)

प्रश्न-३-
विद्या पाकर स्वामी जी ने शैव की स्थापना की?

मथुरा के बाद वह 2 वर्ष आगरा में रहे। इसके बाद वह ग्वालियर और करौली पहुंचे और फिर वह जयपुर पहुंच गए। इतनी लंबी यात्रा करने और इतनी विद्या पाने के बाद भी स्वामी जी को धर्म और सत्य का कुछ पता न चल पाया था। स्वामी जी कहते हैं-
‘वहां से आगे जयपुर को गया-वहां एक हरिश्चन्द्र विद्वान पंडित था। वहां मैंने प्रथम वैष्णवमत का खंडन करके शैवमत की स्थापना की। जयपुर के राजा महाराजा रामसिंह ने भी शैवमत को ग्रहण किया। इससे शैवमत का विस्तार हुआ और सहस्रों मालाएं मैंने अपने हाथ से दीं। वहां शैवमत इतना पक्का हुआ कि हाथी, घोड़े आदि सबके गले में भी रूद्राक्ष की मालाएं पड़ गईं।’ (म.द.स. का जी.च., पृ.53-54)
    विदा होते समय विरजानन्द स्वामी जी द्वारा उन्हें आर्ष ग्रन्थों के प्रचार की आज्ञा देना बताया जाता है, उसका क्या हुआ?

उत्तर-

महोदय! महर्षि दयानंद जी पहले शैव,वाममार्ग,योग,अद्वैत आदि कई मत-सम्प्रदायों में रहे और उन्होंने उनको पढ़ा भी। धीरे-धीरे शुद्ध वेदोक्त धर्म की ओर अग्रसर हुये। ऐसे में बचपन में शैव मत के संस्कारों का उनपर कुछ-कुछ प्रभाव रहा होगा। परंतु हम ऊपर स्पष्ट कर चुके हैं, विरजानंद जी से उनका संवाद बाद में भी होता था और वे शंकासमाधान भी किया करते थे। इसी प्रकार उन्होंने अपने विचारों में परिष्कार किया और बाद में शैवमत का भी खंडन किया-

“शैवमत के फैलने पर हजारों रुद्राक्ष की मालायें मैंने अपने हाथों से लोगों को पहनाई। वहाँ शैवमत का इतना प्रचार हुआ कि हाथी घोड़ों के गले में भी रुद्राक्ष की माला पहनाई गई।
जयपुर से मैं पुष्कर को गया, वहाँ से अजमेर आया। अजमेर
पहुँचकर शैवमत का भी खण्डन करना आरम्भ किया। इसी बीच में जयपुर के महाराजा साहब लाट साहब से मिलने के लिए आगरे जाने वाले थे। इस आशंका से कि कहीं वृन्दावन निवासी प्रसिद्ध रंगाचार्य से शास्त्रार्थ न हो जावे, राजा रामसिंह ने मुझे बुलाया और मैं भी जयपुर पहुँच गया, परन्तु यह मालूम होने पर कि मैंने शैवमत का खण्डन आरम्भ
कर दिया है, राजा साहब अप्रसन्न हुए। इसलिए मैं भी जयपुर छोड़कर मथुरा में स्वामीजी के पास गया और शंका-समाधान किया। वहाँ से फिर हरद्वार को गया, वहाँ अपने मठ पर पाखण्ड-मर्दन लिखकर झण्डा खड़ा किया। वहाँ वाद-विवाद बहुत-सा हुआ। फिर मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि सारे जगत् से विरुद्ध होकर भी गृहस्थों से बढ़कर
पुस्तक आदि का जंजाल रखना ठीक नहीं है। इसलिए मैंने सब कुछ छोडकर केवल एक कौपीन (लंगोट) लगा लिया और मौन धारण किया। इस समय जो शरीर में राख लगाना शुरू किया था, वह गत वर्ष बम्बई मे आकर छोड़ा। वहाँ तक लगाता रहा था।”
( उपदेश मंजरी, प्रवचन १५, स्वामीजी की आत्मकथा, पृ.११०)

यह पढ़कर स्पष्ट होता है कि स्वामीजी ने वैष्णवमत की तरह शैवमत का भी खंडन किया। हाँ, उनको कुछ शंका होने के कारण उनको यह शैवमत सही लगा होगा,पर बाद में उन्होंने इसका भी मिथ्यात्व जाना व इसका भी खंडन किया। यदि ऐसा भी मान लें तो महर्षि दयानंद की परिष्कार वृत्ति ती सराहना होनी चाहिये।
यह भी सिद्ध होता है कि वे बीच-बीच में अपने गुरु से शंका समाधान आदि करते रहते थे। इसी से उनकी विचारधारा में परिष्कार आया।

महर्षि दयानंद के जीवनी-ग्रंथ के लेखक पं लक्ष्मण जी के अनुसार, ऋषि ने शैवमत स्थापन वैष्णव मत के पाखंड के खंडन में किया था। यह एक तरह की कूटनीति थी-

“१६. कूटनीति (पालिसी) धर्म विरुद्ध है
थियासोफिकल सोसाइटी वालों को जब स्वामी जी ने नई
पोलिसी पर कार्य करते हुए समझा तो उनसे सम्बंध विच्छेद की घोषणा करने लगे परन्तु सामाजिक सदस्य चाहते थे कि आप नीति से कार्य लेवें। स्वामी जी ने कहा, “मैं अब तुम्हारी बात नहीं मानूँगा। पालिसी से कार्य करना धर्म विरुद्ध है।पहले जयपुर में महाशयों की प्रेरणा पर हमने वैष्णव के सामने शैवमत को अच्छा सिद्ध किया तो वहाँ सब मनुष्यों तथा राजगृह के हाथी घोड़ों तक को रुद्राक्ष पहनाय गए। अब तक पुराना कोई कोई व्यक्ति जब मिलता है तो रुद्राक्ष दिखाकर चिढ़ाता है कि यह वहीं है जिसके गुण आपने गाये थे। अत: धर्म विषय में अब तो हम कदापि पालिसी का हस्तक्षेप न होने देंगे। और शुद्ध सत्य ही कहेंगे।”
( महर्षि दयानंद के प्रेरक प्रसंग, लेखक- पं लक्ष्मण जी आर्योपदेशक,प्रथम खंड,पाँचवाँ सर्ग, पृ.७७)

अतः इसके बाद स्वामीजी ने कूटनीति के अनुसार चलना छोड़ दिया। मेला चांदापुर में भी कुछ लोग उनके साथ मुसलमानों के साथ मिलकर ईसाइयों के खंडन करने का प्रस्ताव रखा था।पर स्वामीजी ने केवल सत्य बोलना ही उचित समझा और यहां पर कूटनीति नहीं अपनाई। यह विवरण उक्त पृष्ठ ७७ की पादटिप्पणी में है।

रही बात आपके आर्ष ग्रंथों के प्रचार की,तो स्वामीजी शैवमत में रुद्राक्ष धारण व भस्मधारण आदि को कदाचित् कालाग्निरुद्रोपनिषद व यजुर्वेद के कुछ मंत्रों के अनुसार सही मान रहे थे। यानी उनको लगता था कि शैवमत की यह परंपरा आर्ष ही है। परंतु बादमें उनको सत्य का ज्ञान हुआ, और उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में लिखा-

(प्रश्न) कालाग्निरुद्रोपनिषद् में भस्म लगाने का विधान लिखा है। वह क्या झूठा है? और ‘त्र्यायुषं जमदग्नेः०’ यजुर्वेदवचन। इत्यादि वेदमन्त्रें से भी भस्म धारण का विधान और पुराणों में रुद्र की आंखों के अश्रुपात से जो वृक्ष हुआ उसी का नाम रुद्राक्ष है। इसीलिये उसके धारण में पुण्य लिखा है। एक भी रुद्राक्ष धारण करे तो सब पापों से छूट स्वर्ग को जाय। यमराज और नरक का डर न रहै।

(उत्तर) कालाग्निरुद्रोपनिषद् किसी रखोड़िया मनुष्य अर्थात् राख धारण करने वाले ने बनाई है। क्योंकि ‘याऽस्य प्रथमा रेखा सा भूर्लोक ’ इत्यादि वचन उस में अनर्थक हैं। जो प्रतिदिन हाथ से बनाई रेखा है वह भूलोक वा इस का वाचक कैसे हो सकते हैं। और जो ‘त्र्यायुषं जमदग्नेः०’ इत्यादि मन्त्र हैं वे भस्म वा त्रिपुण्ड्र धारण के वाची नहीं किन्तु ‘चक्षुर्वै जमदग्नि ’ शतपथ। हे परमेश्वर! मेरे नेत्र की ज्योति (त्र्यायुषम्) तिगुणी अर्थात् तीन सौ वर्ष पर्यन्त रहै और मैं भी ऐसे धर्म के काम करूँ जिससे दृष्टिनाश न हो। भला यह कितनी बड़ी मूर्खता की बात है कि आंख के अश्रुपात से भी वृक्ष उत्पन्न हो सकता है? क्या परमेश्वर के सृष्टिक्रम को कोई अन्यथा कर सकता है? जैसा जिस वृक्ष का बीज परमात्मा ने रचा है उसी से वह वृक्ष उत्पन्न हो सकता है अन्यथा नहीं। इससे जितना रुद्राक्ष, भस्म, तुलसी, कमलाक्ष, घास, चन्दन आदि को कण्ठ में धारण करना है वह सब जंगली पशुवत् मनुष्य का काम है। ऐसे वाममार्गी और शैव बहुत मिथ्याचारी, विरोधी और कर्त्तव्य कर्म के त्यागी होते हैं। उन में जो कोई श्रेष्ठ पुरुष है वह इन बातों का विश्वास न करके अच्छे कर्म करता है। जो रुद्राक्ष भस्म धारण से यमराज के दूत डरते हैं तो पुलिस के सिपाही भी डरते होंगे!! जब रुद्राक्ष भस्म धारण करने वालों से कुत्ता, सिह, सर्प्प, बिच्छू, मक्खी और मच्छर आदि भी नहीं डरते तो न्यायाधीश के गण क्यों डरेंगे?

( सत्यार्थप्रकाश, एकादश समुल्लास, शैवमतखंडन विषय)

यहाँ पर भी स्वामीजी का परिष्कार सिद्ध है।
ऐसा कभी नहीं होता कि आप गुरु के पास कुछेक साल रहें, और आपके आचरण और ज्ञान में तुरंत परिष्कार आ जाये। यह सैद्धांतिक परिपक्वता धीरे-धीरे, साधना,स्वाध्याय व सत्संग से आती है। एक रात में ऐसा ब्रह्मज्ञान नहीं मिल जाता।

अनवर साहब! आपको महर्षि के सत्याग्रही चरित्र की प्रशंसा करनी चाहिये,कि सत्य जानकर वे तुरंत झूठ को त्याग देते थे।परंतु आप तो आलोचना करने बैठ गये!

∆ मुहम्मद साहब का हलाल-हराम विषयक भ्रांति ∆

रसूलुल्लाह को हराम और हलाल विषयक भ्रांति थी। खैबर के युद्ध में वे कभी गधा खाने से मना करते थे,कभी घोड़ा खाने से।कभी दोनों को ही एक साथ खाते थे।

गधा मार कर खाया-
“अब्दुल्लाह  बिन अबू   कतदा ने  कहा  कि खैबर    के  समय  हम  लोग  इहराम   की  हालत  में ,  और  दुश्मन  छुपे  हुए थे   तभी हमारी   नजर एक   गधे  पर  पड़ी  हमने उसे  भाले  से   मार   दिया  और काट कर  उसका गोश्त  पका  कर रसूल  के साथ  मिल  कर   खा  लिया “
” we saw a  ass. and  attacked It with a spear and we ate its meat.”
सही मुस्लिम – किताब 7 हदीस 2710

गधा नही घोड़ा  खाओ-
“जबीर  बिन  अब्दुल्लाह  ने  कहा  कि  खैबर  की लड़ाई   के समय रसूल  ने कहाथा कि गधे   का  गोश्त खाना  गैर कानूनी   है इसलिए  तुम घोड़े का  गोश्त  खाया  करो। “
“Allah’s Messenger  made donkey’s meat unlawful and allowed the eating of horse flesh “

सही बुखारी – जिल्द 7 किताब 67 हदीस 429

गधे  के साथ  घोड़ा  भी   खाया-
“अबू  जुबैर   और  जबीर  बिन अब्दुल्लाह  ने   बताया  कि  खैबर  में  हमने  गधे  के साथ घोड़े  का गोश्त भी  खाया था। 
“At the time of Khaibar we ate horses and  donkeys.”

 सुन्नन  इब्ने  माजा (अरबी संदर्भ)- किताब 27   हदीस 3312(दारुस्सलाम के अनुसार सही हदीस)
English reference : Vol. 4, Book 27, Hadith 3191
Arabic reference : Book 27, Hadith 3312

प्रतीत होता है कि रसूल साहब खुद पता नहीं लगा पाये कि हलाल और हराम असल में है क्या? ये वही मुहम्मद साहब हैं, जिनके जीवन की सेक्स-लाइफ़ तक पर अल्लाह आयतें उतारता था परंतु उनको हलाल-हराम का भी ठीक-ठीक ज्ञान न दे सका! इससे पता चला कि हजरत विषमस्थबुद्धि थे। आप अपने ‘कयामत तक सर्टिफाइड रसूल’ के चरित्र की मीमांसा कर लीजिये,फिर महर्षि पर कुछ लिखिये। महर्षि जी कोई सृृष्टि बनने से पहले ही सर्टिफाइड एकमात्र गुरु नहीं थे जिनके ‘अगले और पिछले पाप माफ हो गये थे’।

देखिये-
अबू हुरैरा कहते हैं सहाबा ने कहा अल्लाह के रसूल आप नबूवत के मनसब ( नबी के पद में ) से कब नवाज़े गए ( या कब से आसीन हैं ) ? रसूल ने फरमाया जब आदम शरीर और आत्मा के बीच में थे।

यहां पर अबू हुरैरा ने कहा कि आदम के जन्म से पहले मुहम्मद साहब को नबूवत मिल गई थी। मगर किस कर्म के अनुसार उनको यह फल मिला? बिना कर्म के किसी को भी नबी बना दो, कैसा न्याय है?
( मिश्काल अल मसाबीह, हदीस ५७५८)

जबकि इसके विपरीत महर्षि दयानंद एक आम इंसान थे, जिन्होंने मूलशंकर से लेकर महर्षि दयानंद तक का सफर तय किया और निरंतर परिष्कार करते रहे।

प्रश्न-४-

स्वामी जी की राय शैवमत के बारे में

(आगे सत्यार्थप्रकाश से शैवमतखंडन विषय का उद्धरण देकर कहा है-)

स्वामी जी ने स्वयं भी एक शैव परिवार में जन्म लिया था। विजानन्द स्वामी जी से व्याकरण पढ़ने के बाद भी उन्हें यह पता नहीं चला था कि ‘मैं कौन हूँ’, जो कि उनके द्वारा विरजानन्द जी से पूछना बताया जाता है।

उत्तर-
डॉक्टर साहब! क्या आपको लगता है कि ‘मैं कौन हूँ’ का ज्ञान इतनी आसानी से व्यक्ति के आचरण में आ जाता है? जी नहीं। यह एक जटिल प्रक्रिया है। केवल उपनिषद आदि पढ़कर तो यह सिद्धांत पता लग जाता है, पर आत्मसाक्षात्कार योगी स्वयं ही योगसाधना व यथार्थ ज्ञान के द्वारा करता है। इस ज्ञान को निरंतर श्रवण,मनन और निदिध्यासन से साधा जाता है।तब कहीं जाकर यह ज्ञान व्यक्ति के आचरण में आता है। उपनिषद कहते हैं कि विरला ही व्यक्ति उस परमात्मा तक पहुंचने के मार्ग पर चल पाता है और विरला आदमी ही उसका साक्षात्कार कर पाता है।
महर्षि दयानंद ने यह ज्ञान पाया,परंतु एक रात में नहीं। सतत् स्वाध्याय,शंकासमाधान,साधना आदि से इसे प्राप्त किया। इस बीच कुछ गलतियां उनसे हुईं , उन्होंने उनको सुधारा और आगे बढ़े।
हाँ, आपके हजरत मुहम्मद भले ही सृृष्टि बनने के पहले से सर्टिफाइड नबी थे, उसके बाद भी ४० साल की अवस्था तक उन पर नबूवत नाजिल न हुई। इसका क्या कारण हा?

∆ मुहम्मद साहब के अगले और पिछले गुनाह ∆

‘ताकि अल्लाह तुम्हारे अगले और पिछले गुनाहों को क्षमा कर दे और तुमपर अपनी अनुकम्पा पूर्ण कर दे और तुम्हें सीधे मार्ग पर चलाए।’
( कुरान सूरा फतह ४८/२)

Indeed, We have given you, [O Muhammad], a clear conquest.That Allah may forgive for you what preceded of your sin and what will follow and complete His favor upon you and guide you to a straight path.
( Sahih International Quran translation 48:1,2)

आयशा ने कहा कि -“रसूलुल्लाह (स.) जब भी मुसलमानों को कुछ करने का आदेश देते थे,तब वे उनको ऐसे कर्म करने का आदेश देते थे जो उनके लिये आसान थे (उनके शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार) । वे बोले-‘ऐ रसूलुल्लाह! हम आपकी तरह नहीं हैं। अल्लाह ने आपके अगले और पिछले पाप क्षमा कर दिये हैं।’ तो रसूल क्रुद्ध हो गये और यह उनके चेहरे पर स्पष्ट दिख रहा था। उन्होंने कहा-‘मैं अल्लाह से सबसे अधिक डर रखने वाला हूं और तुमसे बेहतर अल्लाह को जानता हूं।”
[( सही बुखारी, जिल्द १ किताब २ हदीस १९)
Reference : Sahih al-Bukhari 20In-book reference : Book 2, Hadith 13USC-MSA web (English) reference : Vol. 1, Book 2, Hadith 20  (deprecated numbering scheme)]

महर्षि दयानंद ऐसा दावा कभी नहीं करते थे कि उनको ईश्वर ने मुहर लगाकर ऋषि-मुनि के रूप में भेजा है। उन्होंने अपनी विद्या और तपःसाधना से ऋषित्व प्राप्त किया। कठोर परिश्रम के बाद ही उनको सच्चे शिव व ‘मैं कौन हूँ’ का ज्ञान मिला। महोदय! छांदोग्योपनिषद में श्वेतकेतु भी गुरुकुल से ब्रह्मविद्या सीखकर भी ब्रह्मज्ञानी न बने। उनको अपने पिता से उपदेश लेना पड़ा। महाभारत, मोक्षधर्मपर्व में शुकदेव जी भी व्यास मुनि से पहले विद्या पढ़ते हैं। जब उनकी संतुष्टि नहीं हुई, तब उनको राजा जनक के पास उपदेश हेतु भेजा गया। इससे पता चला कि मात्र गुरुमख से सुनकर ब्रह्मज्ञान नहीं होता। तदनुकूल आचरण व कठोर परिश्रम भी जरूरी होता है।

∆ इस्लाम की सस्ती मुक्ति-

हाँ, इस्लामी जन्नत बहुत आसानी से प्राप्त हो जाती है।कोई व्यक्ति चाहे कितना ही पापी हो, रसूलुल्लाह पर ईमान लाकर मुक्ति मिल जाती है। ध्यान से पढ़िये-

अबू ज़र ने कहा कि रसूलुल्लाह ने कहा- मेरे अल्लाह की ओर से कोई आया और उसने मुझे यह खुशखबरी दी कि,” मेरे अनुयायियों में से यदि कोई अल्लाह को छोड़कर किसी की उपासना नहीं करता,वो हर तरह से जन्नत जायेगा।” मैंने पूछा, “तब भी जन्नत जायेगा यदि उसने नियमविरुद्ध संभोग ( व्यभिचार) और चोरी की हो ?” उन्होंने जवाब दिया,” हाँ,तो भी जन्नत जायेगा यदि व्यभिचार और चोरी की हो।”
( सही बुखारी, जिल्द २ किताब २३ हदीस ३२९)

Narrated Abu Dhar:

Allah’s Messenger (ﷺ) said, “Someone came to me from my Lord and gave me the news (or good tidings) that if any of my followers dies worshipping none (in any way) along with Allah, he will enter Paradise.” I asked, “Even if he committed illegal sexual intercourse (adultery) and theft?” He replied, ” Even if he committed illegal sexual intercourse (adultery) and theft.”

Sahih al-Bukhari 1237 /In-book : Book 23, Hadith 1 /USC-MSA web (English) : Vol. 2, Book 23, Hadith 329  (deprecated)

इसका अर्थ यह है कि मात्र अल्लाह पर ईमान लाकर जन्नत मिल सकती है। चाहे कोई मोमिन व्यभिचारी और चोर ही क्यों न हो! वाह! इससे सस्ता सौदा क्या होगा!! जमाल साहब! वैदिक धर्म के अनुसार मुक्ति के लिये बहुत परिश्रम करना होता है,कई नियम पालन करने होते हैं; यह नहीं कि रसूल और अल्लाह पर ईमान ले आओ और मुक्ति हो जाये।
ऊपर वाली हदीस के अनुसार ही आतंकवादी चोर,बलात्कारी होकर भी जन्नत जायेंगे। ओसामा बिन लादेन,याकूब मेमन और बगदादी जैसे नरपिशाच भी जन्नती होंगे, क्योंकि वो कुरानी अल्लाह पर ईमान रखते थे।

अनवर जमाल की भूमिका-१ (लेख २)

प्रश्न-५-स्वामी जी ने जिस उद्देश्य के लिए घर छोड़ा उसे पूरा न कर पाए । न उन्हें शिव मिला और न ही मृत्यु से बच पाए ।

जवाब :-
स्वामी जी के घर छोड़ने के दो कारण थे-एक तो सच्चे शिव की खोज ,दूसरा था कि मृत्यु से कैसे तरा जाए ।दयानंद जी ने अपने दोनों लक्ष्य को प्राप्त किया और उसके बाद ही समाज सुधार और पाखंड खंडन में लगे ।
उनका पहला लक्ष्य सच्चे शिव की खोज करना था । वह शिव कैसा है ,क्या-क्या उसके गुण हैं? गुरु विरजानंद जी से वेदादि शास्त्रों की विद्या प्राप्त करके उन्हें सच्चे शिव का बोध हुआ,जिसका वर्णन वेदों में है कि वह शिव तो निराकार,निर्विकार,अजन्मा,अजर,अमर,सर्वव्यापक,न्यायकारी और चेतन सत्ता है।वह ईंट पत्थर की मूर्तियों की पूजा करने से नहीं मिलता,बल्कि योग समाधि से प्राप्त होता है ।स्वामी दयानंद जी ने उस सच्चे शिव को जानकर योग समाधि द्वारा उस सच्चे शिव की उपासना की ।
उनका घर छोड़ने का दूसरा कारण मृत्यु आदि दुखों से बचना था । मृत्यु का दुःख मनुष्य को तब होता है जब वो शरीर को ही सब कुछ मान बैठता है और आत्मा के स्वरूप को नहीं जान पाता । मूलशंकर जी भी उस अबोध आयु में समय शरीर को ही सब कुछ समझते थे इसलिए उन्होंने मृत्यु से बचने का उपाय ढूँढने के लिए घर छोड़ा ,लेकिन जब उन्हें आत्मा के सत्य स्वरूप बोध हुआ ;तब उन्होंने जाना की ये शरीर मैं नहीं हूँ ,मैं तो इस शरीर के अंदर वास करने वाली आत्मा हूँ –जो अजर- अमर है ,मुझे कोई मार नहीं सकता ,मुझे कोई जला नहीं सकता । तब उनको समझो मृत्यु के दुःख से छुटकारा मिल गया । इसीलिये ऐसी मौत के बावजूद भी उनके चेहरे पर दुःख नहीं था कोई पीड़ा नहीं थी और उन्होंने मुस्कुराते हुए प्राण त्याग दिए । अर्थात् जिन दो कारणों से उन्होंने घर छोड़ा उन दोनों को उन्होंने प्राप्त किया । इसलिए डॉ.अनवर साहब का ये दावा बिलकुल मिथ्या है की स्वामी जी ने जिस चीज के लिए घर छोड़ा उसे पा न सके । भला जो व्यक्ति अपने लक्ष्य के लिए अपना सब कुछ त्याग देता है वो बिना लक्ष्य प्राप्त किये आराम से बैठ सकता था ? जिसने हजारों मील की पैदल यात्रायें सत्य की खोज के लिए की हो,वो बिना लक्ष्य प्राप्ति के चैन से बैठ सकता था ?

महर्षि दयानंद ने गृहत्याग करके ईश्वरप्राप्ति का मार्ग चुना।यह मार्ग बहुत जटिल है।यदि वे गृहत्याग व वैराग्य धारण न करते,तो मुक्ति पा न सकते। इस पर उपनिषद भी कहता है-

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिंगात् ।
एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वान्स्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ।।4।।
( मुंडकोपनिषद , मुंडक ३ खंड २)

अर्थ – यह आत्मा बलहीन को प्राप्त नहीं होती है, न ही धनसंपदा, परिवार के विषयों में लिप्त रहने वाले को, और न तपस्यारत किंतु संन्यासरहित व्यक्ति को । जो विद्वान एतद्विषयक उपायों को प्रयास में लेता है उसी की आत्मा परब्रह्मधाम में प्रवेश करती है ।

अतः ब्रह्म को पाने हेतु उन्हें संन्यास लेना जरूरी था। एक मुमुक्षु को जब वैराग्य हो जाता है, तब मां-बाप,घर-परिवार आदि का मोह उसे छोड़ना पड़ता है।यही काम महर्षि दयानंद ने किया।

∆ मुहम्मद साहब क्या दुःखों से बच पाये?∆

अब एक नजर हजरत पैगम्बर मुहम्मद जी के जीवन पर भी डाल लेते है।
हजरत तो स्वयं को अल्लाह का एजेंट होने का दावा करते थे। यहाँ तक की जन्नत की रिजर्वेशन का जिम्मा भी हजरत के हाथों में था वे भी दुखों से न बच पाए । अपने पुत्र की मृत्यु पर फूट-फूट कर रोना हजरत के दुखों को साफ़ दर्शाता है।आप तो ऊपर उनके संबंधियों की मृत्यु होने के विषय में लिख ही चुके हैं,दयानंद जी तो बालक होने के बावजूद भी अपने परिवार वालों की मौत पर नहीं रोये । हजरत मुहम्मद साहब ये जानते हुए भी की उनका बेटा जन्नत मे मौज करेगा ,तब भी फूट-फूट कर रोये । इसका क्या कारण हो सकता था ? यही कि हजरत को अंदाजा था ,कि जन्नत एक कोरी कल्पना है । वरना मुहम्मद साहब अल बुराक अर्थात् उड़ने वाले गधे ( या शायद खच्चर!) पर बैठ के जन्नत में अपने बेटे से मिल के आ सकते थे,फिर वो आँसू किस लिए बहाते थे?

यहाँ तक हजरत स्वंय की मृत्यु के समय रो रहे थे ,दर्द से । उन्हें शायद इस बात का दुःख रहा होगा की हजरत आयशा को भरी जवानी में तन्हा छोड़ के जा रहे है थे!यदि हजरत ने भी शरीर को सब कुछ न समझ कर आत्मा के अमरत्व को जाना होता, तो ऐसे पुत्र और मृत्यु दुःख के कारण आँसू न बहाते । इससे पता चला कि मुहम्मद साहब खुद ही न अमरत्व (मोक्ष) पा सके और न ही मृत्यु आदि दुखों से बच पाये।तब भला उन पर ईमान लाना और नमाजों में उनके नाम से प्रार्थना करना– यह मुसलमानों को आखिर क्या देगा?

प्रश्न-६-
स्वामी दयानंद जी का मकसद और तरीका दोनों गलत थे ।

जवाब :-
अनवर साहब पेशे से डॉक्टर हैं,इसलिए हमें उनसे ऐसे आक्षेप की उम्मीद बिलकुल न थी । अनवर साहब!जब मूलशंकर ने गृह त्याग किया उस समय उनकी आयु बहुत कम थी।वो इस गूढ़ रहस्य को नहीं जानते थे।वे उस समय अबोध थे।जिसके समक्ष दो परिचितों को मृत्यु हो चुकी थी । एक अनजान व्यक्ति के समक्ष ये प्रश्न खड़ा होना लाजिमी है कि वो मृत्यु से कैसे बच पाए ? जिसने घर त्यागा था ,वो मूलशंकर थे, न की महाविद्वान दयानंद जी । एक जिज्ञासु वही करता है जो उस समय मूलशंकर ने किया । अर्थात् सत्य की खोज के लिए गृह त्याग । ऐसा केवल मूलशंकर के साथ नहीं हुआ बल्कि इतिहास के बहुत से महापुरुषों के साथ ये घटना घटित हुई जैसे सिद्धार्थ , शंकराचार्य जी इत्यादि ।
यदि आपने वैदिक मान्यताओं और सिद्धांतों को पढ़ा होता तो आपको पता चलता की मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही जन्म- मरण के बंधन से छूटना अर्थात् मोक्ष है।वही मकसद स्वामी जी का था । लेकिन न मालूम आपको क्या सूझी की बिना वैदिक मान्यताओं को जाने लेखनी चला दी और अतिरिक्त समय की बर्बादी के कुछ न किया ।
आप स्वंय लिखते है की ” जिन्दगी का मकसद और उसे पाने का तरीका सच्चा गुरु ही बता सकता है ” तो क्या मूलशंकर ने सच्चे गुरु की खोज नहीं की ? क्या मूलशंकर ने 10 सालों से ज्यादा तक सच्चे गुरु की खोज नहीं की ? और अंत में उनकी वो खोज भी पूरी हुई स्वामी विरजानंद जी के आश्रम पहुँच कर । उस सच्चे गुरु ने ही दयानंद जी को वेदों के यथार्थ शिव का बोध कराया उसे वेदों की सत्य विद्याओं से अवगत कराया। जिन्हें मूलशंकर ने केवल बचपन में पढ़ा था,लेकिन समझा नहीं था, उन विद्याओं को उन्होंने जिया!
इससे स्पष्ट है की स्वामी जी का उद्देश्य भी सही था और तरीका भी क्योंकि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है । वैराग्य से बड़ा कोई तप नहीं होता । मूलशंकर ने सब सुख सम्पन्न होते हुये भी वैराग्य का रास्ता अपनाया इससे बढ़कर उनकी श्रेष्ठता ,क्या हो सकती थी?

महर्षि दयानंद ने जो मुक्ति का मार्ग अपनाया,वो बिलकुल सत्य व वेदशास्त्र सिद्ध था-

“अब मुक्ति बन्ध का वर्णन करते हैं-

(प्रश्न) मुक्ति किसको कहते हैं?
(उत्तर) ‘मुञ्चन्ति पृथग्भवन्ति जना यस्यां सा मुक्तिः’ जिस में छूट जाना हो उस का नाम मुक्ति है।
(प्रश्न) किस से छूट जाना?
(उत्तर) जिस से छूटने की इच्छा सब जीव करते हैं?
(प्रश्न) किस से छूटने की इच्छा करते हैं?
(उत्तर) जिस से छूटना चाहते हैं?
(प्रश्न) किस से छूटना चाहते हैं।
(उत्तर) दुःख से।
(प्रश्न) छूट कर किस को प्राप्त होते और कहां रहते हैं?
(उत्तर) सुख को प्राप्त होते और ब्रह्म में रहते हैं।
(प्रश्न) मुक्ति और बन्ध किन-किन बातों से होता है?

(उत्तर) परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने; पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने; विद्या पढ़ने, पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने; सब से उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करे वह सब पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार ही करे। इत्यादि साधनों से मुक्ति और इन से विपरीत ईश्वराज्ञाभंग करने आदि काम से बन्ध होता है।”

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयँ्सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।।
-यजुः० अ० ४०। मं० १४।।

जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ ही साथ जानता है वह अविद्या अर्थात् कर्मोपासना से मृत्यु को तर के विद्या अर्थात् यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है।

( सत्यार्थप्रकाश, नवम समुल्लास, मुक्ति विषय)

इससे पता चला कि स्वामी को लक्ष्य और उसे प्राप्त करने का तरीका यथावत् पता था और उसके अनुसार आचरण(जो हम ऊपर लिख चुके हैं) करके सफल भी हुये।

मृत्यु के समय में उन्होंने योगविद्या से ब्रह्मरंध्र से प्राण छोड़ दिये। उपनिषद इसे मुक्ति पाने का लक्षण कहता है।

प्रश्न- ७-
क्या स्वामी जी ने सीधे संन्यास लेकर मुक्ति की सीढ़ियों को तोड़ा?

¤ सीढ़ी तोड़ने के कारण स्वामी जी को न परमेश्वर मिला और न सुयोग्य शिष्य
माता, पिता, आचार्य, अतिथि और पुरुष के लिए पत्नी की अहमियत बताते हुए स्वामी जी कहते हैं- ‘ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से मनुष्‍यदेह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश को प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त होने की सीढ़ियाँ हैं।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृष्‍ठ 216 30वां संस्करण प्रकाशक : आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली 6)
माता-पिता को छोड़कर तो वह खुद ही निकल गए थे। विवाह उन्होंने किया नहीं इसलिए पत्नी भी नहीं थी। वह ख़ुद दूसरों पर आश्रित थे और न ही कभी उन्होंने कुछ कमाया। इस तरह उन्होंने अतिथि सेवा का मौक़ा भी खो दिया। सीढ़ी के चार पाएदान तो उन्होंने खुद अपने हाथों से ही तोड़ डाले। आचार्य की सेवा उन्होंने ज़रुर की, लेकिन वह उनके नियम भंग कर देते थे तब आचार्य  इतने ज़ोर से उन्हें डण्डा मारता था कि उसका निशान उनके शरीर पर हमेशा के लिए छप जाता था। एक बार तो विरजानन्द जी ने अपनी अवज्ञा के कारण अपनी पाठशाला से उनका नाम ही काट दिया था। इसी सीढ़ी के टूटे होने के कारण न उन्हें परमेश्वर मिला, न गुरू का प्यार मिला और न ही कोई अच्छा शिष्‍य मिल पाया। वह स्वयं कहा करते थे-
‘मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्‍य नहीं मिलेगा। इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था।’  (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121, प्रथम संस्करण जुलाई 1994, मूल्य:  20 रुपये, लेखक : डा. नरेन्द्र कुमार, गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर उत्तराखण्ड में अध्यापक, प्रकाशक: मधुर प्रकाशन 2804 गली आर्य समाज, बाज़ार सीताराम नई दिल्ली 110006, दूरभाष : 3268231, 7513206)

अपनी सीढ़ी तोड़ डालने वालों को नादान समझना चाहिए, गुरु नहीं। भारत को विश्वगुरु के महान पद से गिराने में ऐसे अज्ञानियों का बहुत बड़ा हाथ है, जो पहले अपनी सीढ़ी तोड़ बैठे और फिर जीवन भर भटकते रहे और दूसरों को भी भटकाते रहे। स्वामी जी जैसे लोगों के जीवन से यही शिक्षा मिलती है कि लोगों को अपनी सीढ़ी की रक्षा करनी चाहिए अर्थात् अपने माता-पिता और अपने आश्रितों की सेवा करते रहना चाहिए। जो कि स्वामी जी नहीं कर पाए।

उत्तर-
आपने केवल एक पक्ष को उठा लिया और महर्षि दयानंद पर ‘सीढ़ियाँ तोड़ने’ का कल्पित आरोप लगा दिया। आपने सत्यार्थप्रकाश आदि महर्षि कृत ग्रंथों को भी ढंग से न पढ़ा।यदि पढ़ा भी है तो हठ व दुराग्रह से बस हृदय की अग्नि शाँत करने के लिये आक्षेप किये हैं।

देखिये, महर्षि ने क्या लिखा है-

“….यह नियम विवाह करने वाले पुरुष और स्त्रियों का है जो विवाह करना ही न चाहैं वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते हों तो भले हीे रहैं परन्तु यह काम पूर्ण विद्या वाले जितेन्द्रिय और निर्दोष स्त्री और पुरुष का है। यह बड़ा कठिन काम है कि जो काम के वेग को थाम के इन्द्रियों को अपने वश में रखना।”
( सत्यार्थप्रकाश, चतुर्थ समुल्लास, ब्रह्मचर्य प्रकरण)

संन्यास विषय पर भी ऋषि का लेख देखिये-

“यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेद्वनाद्वा गृहाद्वा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्।।
-ये ब्राह्मण ग्रन्थ के वचन हैं।
जिस दिन वैराग्य प्राप्त हो उसी दिन घर वा वन से संन्यास ग्रहण कर लेवे। पहले संन्यास का पक्षक्रम कहा। और इस में विकल्प अर्थात् वानप्रस्थान न करे, गृहस्थाश्रम ही से संन्यास ग्रहण करे और तृतीय पक्ष है कि जो पूर्ण विद्वान् जितेन्द्रिय विषय भोग की कामना से रहित परोपकार करने की इच्छा से युक्त पुरुष  हो, वह ब्रह्मचर्याश्रम ही से संन्यास लेवे । “
( सत्यार्थप्रकाश,पंचम समुल्लास, संन्यास प्रकरण)

इससे स्पष्ट होता है कि जितेंद्रिय और वैराग्यवान व्यक्ति बिना विवाह के सीधे संन्यासी बन सकता है। इसलिये पंचमहायज्ञ व पंचदेव पूजा आदि विधान उनके लिये सीढ़ी नहीं थे। इनका पालन आम लोगों को करना होता है, संन्यासी को इनकी बाध्यता नहीं होती।
इसी के अनुसार महर्षि को माता-पिता की सेवा की बाध्यता न थी। न ही उनको विवाह करने की जरूरत थी। रही बात अतिथि सेवन की,तो संन्यासी खुद ही अतिथि होता है और राजा,गृहस्थी आदि को ऐसे वैरागी ,सदुपदेशक, धर्मप्रचारक संन्यासी का पालन खुद करना पड़ता है, नाकि संन्यासी को किसी अतिथि का सेवन करना पड़ता है। रही बात आचार्य की,तो विरजानन्द जी त्रुटि होने, पाठ भूल जाने आदि के कारण अनुशासित करने हेतु दंड तो देंगे ही। ऐसा तो हर विद्यालय में होता है कि गुरु शिष्य को अनुशासित करने हेतु डाँट-मार का प्रयोग करता है।इसमें कुछ आपत्तिजनक नहीं है। विद्यार्थी जीवन में हमने भी दंड पाया है,आपने भी पाया होगा।फिर दयानंद जी पर आपत्ति क्यों?
विरजानन्द जी महर्षि दयानंद को राष्ट्र में फैले पाखंड का खंडन व वैदिक ग्रंथों के मंडन करने का महान् दायित्व सौंपते हैं। उन्होंने स्वामीजी से गुरुदक्षिणा में भी जीवनभर आर्षविद्या के प्रचार करने का वचन मांगा। यदि विरजानन्द जी उन पर इतना ढृढ़ विश्वास न होता,तो फिर उन पर इतना भरोसा ही नहीं करते कि यह व्यक्ति धर्म प्रचार करेगा। इसलिये वे स्वामी जी को तन,मन,विद्या – हर तरह से परिपक्व करने में लगे रहते थे। अतः स्वामी जी ने बखूबी आचार्य की सेवा की और इसलिये वे उनके इतने विश्वासपात्र बने। यह मार-पीटकर दंड देना आदि तो बहुत छोटी बातें हैं।

महर्षि ने तो अपनी व आर्ष ग्रंथों की परिपाटी अपनाई, अपना सीढ़ी नहीं तोड़ी– बल्कि उस पर चढ़कर अपने परमलक्ष्य को प्राप्त किया। परंतु आपने बिना पूरी तरह महर्षि दयानंद के ग्रंथ व आर्ष साहित्य को पढ़े उनको ‘नादान’ व ‘अज्ञानी’ लिख मारा,इसे आपकी नादानी क्यों न माना जाये?

∆ मुहम्मद साहब की मातृभक्ति ∆

मुहम्मद साहब ने अपनी माता की मृत्यु के बाद भी उनके लिये प्रार्थना नहीं की। उनको कभी अपनी माँ की सेवा करने का मौका तो न मिला,मगर प्रतीत होता है कि बचपन में वो उन्हें पर्याप्त माँ का प्रेम न दे सकीं थीं इसलिये मुहम्मद साहब का उनके प्रति ऐसा रवैया था। ऐसा लगता है कि मृत्यु के बाद भी अपनी माँ को वे क्षमा नहीं कर पाये थे न अपनी जननी के प्रति उनमें कुछ कृतज्ञता थी। अतः न तो उन्होंने अपनी माँ से कोई विशेष प्रेम किया , न कभी सेवा की और न ही उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। शायद इसलिये क्यों कि वो बिना मुसलमान रहे मरी थीं। जबकि स्वामीजी ने कभी वेदविरुद्ध या पौराणिक विचारों वाला होने के कारण अपने माता-पिता को कहीं नहीं कोसा।
सच पूछो तो मुहम्मद साहब को यह पता ही नहीं था कि उनका असली पिता कौन है! पाठकों को आश्चर्य हो रहा होगा, परंतु इस पर हम किसी और लेख/पुस्तक में विस्तार से लिखेंगे। फिलहाल तो सही बुखारी में देखिये,कि मुहम्मद साहब अपनी माँ के प्रति कितने भक्त थे—

मुहम्मद साहब अपने सहाबों से कहते हैं,कि मैंने अपनी माँ के लिये दुआ करनी चाहिये,परंतु अल्लाह ने मेरी दुआ कबूल नहीं की।
(Tabaqat Ibn Sa’d p. 21 )

हाँ, वो अलग बात है कि उनकी माँ काफिरा थीं, उसके बाद भी उन्होंने कुरान के विरुद्ध जाकर उनके लिये दुआ पढ़ने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि बचपन में पर्याप्त प्रेम न मिलने के कारण मुहम्मद साहब ने जीवनभर अपनी माँ को माफ नहीं किया था। अपने पूरे बचपन में उनको एक माँ का प्यार पूपी तरह नसीब न हो सका। रही बात पिता की, तो उनके तथाकथित पिता अब्दुल्ला उनके जन्म के चार साल पहले मर चुके थे। वे तो कुल मिलाकर दोनों की सेवा न कर सके। शायद इसलिये उनका कोई वंशधर न हुआ!

प्रश्न-८-

प्रकरण-१
¤ स्वामी जी की असफलता का कारण  –

माता पिता आदि को छोड़कर और झूठ बोलकर सन्यास लेने वाले एक उपदेशक के मत की पोल खोलते हुए स्वामी जी कहते हैं-
‘देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृ.251)
स्वामी जी को उनके पिता जी ने ‘कुल को कलंक लगाने वाला’ और ‘निर्मोही’ आदि जो कुछ कहा है। वह तो स्वामी जी ने बता दिया है लेकिन धोखा देकर पुनः भाग जाने पर जो कुछ कहा होगा, उसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। पिता का विश्वास भंग करने वाले को विश्वस्त सेवक न मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं है। स्वामी जी के अन्तिम दिनों के दुखद हालात का वर्णन इस प्रकार मिलता है-
    ‘हमने सुना है कि स्वामी जी पहरे वालों और दारोगा आदि पर जब ताड़ना करते थे तो ये स्वामी जी के सामने हाथ जोड़ ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहते थे, पश्चात् परस्पर हंसते थे। स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
(1) माँ-बाप को जीते जी ही मार डालने वाला आदमी समाज को जीने की सही राह कैसे दिखा सकता है?
(2) स्वामी जी ने सत्य की खोज का आरम्भ ही असत्य से किया तो वह असत्य के सिवा और क्या पा सकते थे?
जिस काम की शुरूआत असत्य और धोखाधड़ी से की जाती है, उसमें असफलता ही मिलती है। अपनी असफलता और उसके कारण के विषय में स्वामी जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि
‘मैंने अनेक पाठशालाएं खोलीं। पंडितों को शिष्य बनाया। पर वे लोग मेरे सामने वेद मार्ग पर चलते हैं। तत्पश्चात् पौराणिक बन जाते हैं। वे मेरे प्रतिकूल ताना-बाना बुनते हैं। मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्‍य नहीं मिलेगा।
इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था। माँ की ममता का मैंने ध्यान नहीं किया। पितृऋण भी नहीं उतार सका। यही ऐसे कर्म हैं, जो मुझे सच्चे शिष्य मिलने में बाधक हैं।’  (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121)

उत्तर-
महर्षि दयानंद ने जिस उपदेशक को झूठा और कपटी कहा है, वो व्यक्ति घर से भागकर ,समाज को धर्म के नाम पर लूटने का कार्य करता था । जबकि महर्षि दयानंद बिना भेदभाव के सत्य धर्म व देशभक्ति का प्रचार करते थे। स्वामी जी ने कन्या शिक्षा,विधवाविवाह,दलितोद्धार आदि कार्य किये।उनका कोई भी कार्य कुत्सित भोगों के लिये न था। इसलिये उनका गृहत्याग करना उचित ही था।

आपने जिस उपदेशक के विरुद्ध महर्षि का वचन लिखा है, उससे उन पर कोई दोष नहीं आता। स्वामीजी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था उस उपदेशक से मिलता-जुलता हो। देखिये, स्वामीजी ने गोकुलिये गोसाइयों के मत का खंडन करते हुये तैलंगी लक्ष्मणभट्ट की कथा लिखी है-

“यह मत ‘तैलंग’ देश से चला है। क्योंकि एक तैलंगी लक्ष्मणभट्ट नामक ब्राह्मण विवाह कर किसी कारण से माता पिता और स्त्री को छोड़ काशी में जा के उस ने संन्यास ले लिया था और झूठ बोला था कि मेरा विवाह नहीं हुआ। दैवयोग से उस के माता, पिता और स्त्री ने सुना कि काशी में संन्यासी हो गया है। उसके माता-पिता और स्त्री काशी में पहुंच कर जिस ने उस को संन्यास दिया था उस से कहा कि इस को संन्यासी क्यों किया?

देखो! इस की यह युवती स्त्री है और स्त्री ने कहा कि यदि आप मेरे पति को मेरे साथ न करें तो मुझ को भी संन्यास दे दीजिये। तब तो उस को बुला के कहा कि-तू बड़ा मिथ्यावादी है। संन्यास छोड़ गृहाश्रम कर क्योंकि तूने झूठ बोल कर संन्यास लिया। उसने पुनः वैसा ही किया। संन्यास छोड़ उस के साथ हो लिया। देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा।”
( सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास, गोकुलिये गोसाइयों के मत के खंडन में)

पूरा प्रकरण पढ़कर स्पष्ट है कि लक्ष्मणभट्ट ने विवाहित होकर भी खुद को अविवाहित बताकर संन्यास दीक्षा ली। वो अपनी युवती पत्नी को गृहस्थाश्रम में छोड़कर संन्यासी बन गया था। परंतु महर्षि ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने झूठ बोलकर किसी संन्यासी दीक्षागुरु से संन्यास नहीं ग्रहण किया। अतः उन पर दोष नहीं आता। आप ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा जोड़कर’ आक्षेप लगा रहे हैं।

(१)- माता-पिता को जीते-जी मारने वाला व्यक्ति मूलशंकर था, नाकि योगिराज महर्षि दयानंद । युवापन में बिना उचित मार्गदर्शन और तीव्र वैराग्य के कारण उन्होंने गृहत्याग कर दिया। भले उन्होंने अपने माता -पिता को दुख दिया हो, परंतु देश के हजारों माता-पिताओं व उनकी संतानों तो धर्म और देशभक्ति का पाठ पढ़ाया। सोई हुई आर्यजनता को जगाया, स्वतंत्रता हेतु विद्रोह करने की अलख जगाई, समाज में व्याप्त कुरीतियों का खंडन किया इस पर तो आप भी सहमत हैं, कि उनका कार्य बहुत महान् था। एक तरफ उनके कार्य को अच्छा बता रहे हैं, और दूसरी तरफ यह आरोप लगा रहे हैं वह व्यक्ति समाज को राह कैसे दिखा सकता है? क्या आपके लेख में व्याघात दोष नहीं है।

(२)- स्वामीजी तब अबोध थे, अतः धोखा देकर गृहत्याग कर आये। उनको इस कार्य का फल ईश्वर ने यथायोग्य दिया ही होगा। यह भी कोई बात नहीं है,कि महान् कार्य करने हेतु उन्होंने असत्य का सहारा लिया तो जीवनभर सत्य न पा सके। महोदय! उन्होंने पूरा जीवन सत्य जानने हेतु बिता दिया। सत्य की खोजमें वे दर-बदर भटके। अंततः उनको वेद विद्या व ब्रह्मसंबंधी ज्ञान मिल ही गया। तभी वे आर्ष पद्धति से वेदभाष्य, संस्कार विधि, व्याकरण आदि पर प्रामाणिक लेखन कर सके। सत्य के लिये उन्होंने कई बार विष पिया, डंडे-पत्थर खाये और अपमानित हुये। परंतु वे सत्य बोलने व करने से पीछे नहीं हटे। अतः आपका यह हेतु गलत है कि उनको असत्य ही मिला।

रही बात सच्चे शिष्य मिलने की बात,तो यह बात उन्होंने अपने प्रयास व्यर्थ होते देख कही थी। जरूरी नहीं कि यह पितृऋण न चुका पाने का फल हो, किसी और कर्म का भी फल हे सकता है। दरअसल उस समय स्वार्थी लोग छद्मवेष धरकर बाहर से आर्य,पर अंदर से घोर विरोधी लोग उनके शिष्य बन जाते थे। वे उनके लेखन में मिलावट भी कर देते थे। ऐसे धोखेबाज छली-कपटी शिष्य शंकराचार्य जी के भी बन गये थे। परंतु महर्षि को आगे चलकर आर्यसमाज में पं गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानंद, स्वामी श्रद्धानंद, पं लेखराम, पं युधिष्ठिर मीमांसक, पं ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं चमूपति, पं शिवशंकर शर्मा ‘काव्यतीर्थ’ आदि सुयोग्य शिष्य भी मिले। यही नहीं, १९० वर्षों से भी अधिक समयकाल में कई प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सफल शिष्य आर्यसमाज में ऋषि दयानंद के हुये हैं।
यहाँ पर ऐसा लग रहा है,मानो आप केवल शिष्य बनाना ही उनकी सफलता का पैमाना मान रखा है। जबकि उनकी सफलता सत्यधर्म के ज्ञान व ईश्वरप्राप्ति के साथ-साथ धर्म प्रचार आदि में निहित थी। उन्होंने जिस कार्य हेतु गृहत्याग किया, उसे भली-भाँति निभाया।
आप बस उनकी निराशाजनक टिप्पणी को इतना बढ़ा-चढ़ाकर बता रहे हैं।

∆ मुहम्मद साहब के सहाबी ∆

हाँ, मुहम्मद साहब के भी कई सहाबी इस्लाम छोड़ मुर्तद हो गये । उस पर क्या विचार है?

अबू हुरैरा ने कहा कि रसूलुल्लाह ने फ़रमाया कि जब वे सो रहे थे, तब फरिश्ते ने आकर उन्हें सहाबाओं के विषय में बताया कि वे नरक में हैं। रसूल ने पूछा कि ऐसा क्यों? इस पर फरिश्ते ने कहा कि यह सहाबा इस्लाम से विमुख हो जायेंगे और बिना चरवाहे के ऊंट की तरह हो जायंगे
“They turned apostate as renegades after I left, who were like camels without a shepherd.”

( सही बुखारी, जिल्द ७ ,किताब ७६, हदीस ५८७)

यह बात शिया हदीस रज्जल कशी ( رجال ‏الكشي ) में इस तरह बयान की गयी है ” रसूल की मौत के बाद सहाबा सहित सभी लोग काफिर हो गए थे ,सिवाय सलमान फ़ारसी ,मिक़दाद और अबू जर के , लोगों ने कहा कि हमने सोच रखा था अगर रसूल मर गए या उनकी हत्या हो गयी तो हम इस्लाम से फिर जायेंगे-
“All people (including the Sahaba) became apostates after the Prophet’s death except for three.” Al-Miqdad ibn Aswad, Abu Dharr (Zarr), and Salman (Al-Farsi,When asked they replied, “. ‘If he (Muhammad) dies or is killed, we will turn from Islam ‘

– أبو الحسن و أبو إسحاق حمدويه و إبراهيم ابنا نصير، قالا حدثنا محمد بن عثمان، عن حنان بن سدير، عن أبيه، عن أبي جعفر (عليه السلام) قال : كان الناس أهل الردة بعد النبي (صلى الله عليه وآله وسلم) إلا ثلاثة.

منهم سلمان الفارسي و المقداد و أبو ذر

(Rijal Al-Kashshi – رجال ‏الكشي – p.12-13)

ये सहाबी अल्लाह के आखिरी पैगंबर के अनुयायी थे। वो पैगंबर, जो ‘संसार भर के आदर्श व दया की मूर्ति’ कहे जाते थे।फिर भी,उनके सीथ रहकर वे कभी एक न रह सके।
मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद इस्लाम शिया और सुन्नी में बँट गया और इनमें बहुत मारकाट हुई। प्रथम चार सर्वश्रेष्ठ खलीफा आपस में सत्ता पाने हेतु लड़ते थे। इन सबका विवेचन इस्लामी ग्रंथों के अनुसार पं देवप्रकाश,मौलवी फाजिल जी ने ‘कुरान परिचय-भाग-३'( अमर स्वामी प्रकाशन, गाज़ियाबाद उ.प्र) ने किया है। अधिक जानकारी हेतु श्री Silas की पुस्तक “Islam’s Royal family” पढ़िये।
सोचिये! आखिरी पैगंबर के करीबी लोगों में से कोई भी निःस्वार्थ व निर्लोभी व्यक्ति न हुआ। सब नंबर एक के अय्याश,हत्यारे,लंपट और लुटेरे थे। उसका एक उदाहरण देखिये-

~हजरत उमर दासी से संभोग करते थे-

“उमर एक औरत को सम्भोग के लिए बुलाये ,लेकिन वह इस के लिए अग्रिम पैसा चाहती थी .जब उमर ने उसके साथ सम्भोग करना चाहा तो वह बहाने करने लगी ,की मेरा मासिक चल रहा है .उमर को पता चल गया कि औरत झूठ बोल रही है .तो वह रसूल के पास गए और शिकायत की ,रसूल ने कहा औरत को पचास दीनार अधिक दे दो।”

Umar bin al-Khatab may Allah be pleased with had a slave girl who used to hate men. Whenever Umar wanted to have sexual intercourse with her, she apologized by advancing an excuse that she was having a period, hence Umar thought that she was telling lie, then (when he had sexual intercourse with her) he found that she was telling the truth. He then he went to the prophet (pbuh) and He ordered him to pay fifty dinars as charity.
( Tabaqat Ibn Saad, Volume 6 page 195:
तबकाते इब्ने साद -जिल्द 6 पेज 195)

~ इस्लाम विरोधी-

इतिहास की किताबों में सहबियों की आपसी लड़ाइयों के बारे में जो प्रामाणिक हदीसों में रावियों द्वारा बयान की हैं ,उसके अनुसार अधिकांश सहाबी मुख्य मार्ग से हट गए थे .और जालिम और फासिक बन गए थे .क्योंकि वह इर्ष्या ,नफ़रत ,और लालच से भर गए थे .कई लोगों ने तो रसूल को देखा भी नहीं था .यह सभी पूरी तरह से निष्पाप नहीं थे .
The battles (between the Sahaba) as its recorded in history books & narrated by reliable narrators serve as proof that some companions left the right path and became Zaalim and Fasiq because they became affected by jealousy, hatred, stubbornness, a desire for power and indulgence because the companions were not infallible , nor was every individual that saw Rasulullah (s), good”.
Imam Dhahabi stated in his book Marifat al-Ruwah, page 4:
अल सियूती ने कहा कि वह एकदूसरे को काफ़िर कहते थे .
Al-Suyuti writes:
“Some of the Sahaba issued Takfeer against one another”
(Al-Dur al-Manthur, Volume 2 page 361)

बड़े अचरज की बात है! ये सब उनके निकटतम लोग थे। इनमें अली उनके दामाद व अबू बकर उनके ससुर थे। महर्षि दयानंद से मात्र एकाध बार दर्शन पाने के बाद पं लेखरामजी जैसा व्यक्ति आर्यपथिक बन गया। उनके सान्निध्य में पं गुरुदत्त विद्यार्थी जी महापंडित बन गये। इन आर्यविद्वानों के जीवनचरित्र भी उनकी सच्चरित्रता,त्याग,तप,विद्या अादि से पटे पड़े हैं । पर मुहम्मद साहब का हाल देखकर नहीं लगता कि वे कोई असाधारण योगी या तपस्वी थे,वरना उनके परिवार में ही ऐसा अनाचार न होता।

¤ विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले-

आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ने भी उनके विश्वस्त सेवकों के विषय में यही बताया है-
‘विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले-स्वामी जी के पास जितने मनुष्य भरोसे के थे, सब निकम्मे निकले।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
‘स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (हवाला उपरोक्त)
स्वामी जी को विश्वस्त और कर्मठ सेवक न मिल पाने का कारण भी माता-पिता के विश्वास को भंग करना है।

उत्तर—उत्तर उपरोक्त समान ही है। यह भी माता-पिता की आज्ञा का भंग करने का फल है या नही्, यह ईश्वर ही सही-सही बता सकता है। बाकी इसका कारण उनका कर्म है, तो यह भी ईश्वर की न्याय व्यवस्था है। चाहे उन्होंने माता-पिता का विश्वास तोड़ा हो, इससे उनका योगदान व्यर्थ नहीं कहा जा सकता।

क्रमशः…

पण्डित चमूपति जी की कुरआन-विषयक एक भविष्यवाणी

      “हम भविष्यवाणी करते हैं कि कुरान की जो नई व्याख्या लिखी जायेगी उसके ठीक (दुरुस्त) होने की कसौटी ऋषि दयानन्द की समीक्षा होगी। कुछ अहले इस्लाम अपनी कम फ़हमी (भूल भ्रान्तियों) के कारण सत्यार्थप्रकाश के चौदहवें समुल्लास: का विरोध कर तो बैठते हैं, परन्तु उन्हें ज्ञान ही नहीं कि सत्यार्थप्रकाश का चौदहवाँ समुल्लास: यात्रियों का वह मार्गदर्शक शंखनाद है, जो इस्लाम के काफिले को ठीक मान्यताओं की ओर तेज पग उठाने की प्रेरणा दे रहा है।

      काफ़िले वालो ! शंखनाद की ध्वनि को सुनो तथा ध्येयधाम की ओर पग उठाओ।”

[द्रष्टव्य, चौदहवीं का चाँद (उर्दू पुस्तक) लेखक पण्डित चमूपति, पृष्ठ १८७]

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰

[📖 साभार ग्रन्थ – कवीर्मनीषी पण्डित चमूपति – राजेंद्र जिज्ञासु]

प्रस्तुति –  🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

कुरान का प्रारम्भ ही मिथ्या से : चमूपति जी

प्रारम्भ ही मिथ्या से

वर्तमान कुरान का प्रारम्भ बिस्मिल्ला से होता है। सूरते तौबा के अतिरिक्त और सभी सूरतों के प्रारम्भ में यह मंगलाचरण के रूप में पाया जाता है। यही नहीं इस पवित्र वाक्य का पाठ मुसलमानों के अन्य कार्यों के प्रारम्भ में करना अनिवार्य माना गया है।

ऋषि दयानन्द को इस कल्मे (वाक्य) पर दो आपत्तियाँ हैं। प्रथम यह कि कुरान के प्रारम्भ में यह कल्मा परमात्मा की ओर से प्रेषित (इल्हाम) नहीं हुआ है। दूसरा यह कि मुसलमान लोग कुछ ऐसे कार्यों में भी इसका पाठ करते हैं जो इस पवित्र वाक्य के गौरव के अधिकार क्षेत्र में नहीं।

पहली शंका कुरान की वर्णनशैली और ईश्वरी सन्देश के उतरने से सम्बन्ध रखती है। हदीसों (इस्लाम के प्रमाणिक श्रुति ग्रन्थ) में वर्णन है कि सर्वप्रथम सूरत ‘अलक’ की प्रथम पाँच आयतें परमात्मा की ओर से उतरीं। हज़रत जिबरील (ईश्वरीय दूत) ने हज़रत मुहम्मद से कहा—

‘इकरअ बिइस्मे रब्बिका अल्लज़ी ख़लका’

पढ़! अपने परमात्मा के नाम सहित जिसने उत्पन्न किया। इन आयतों के पश्चात् सूरते मुज़मिल के उतरने की साक्षी है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ—

या अय्युहल मुज़म्मिलो

ऐ वस्त्रों में लिपटे हुए!

ये दोनों आयतें हज़रत मुहम्मद को सम्बोधित की गई हैं। मुसलमान ऐसे सम्बोधन को या हज़रत मुहम्मद के लिए विशेष या उनके भक्तों के लिए सामान्यतया नियत करते हैं। जब किसी आयत का मुसलमानों से पाठ (किरअत) कराना हो तो वहाँ ‘इकरअ’ (पढ़) या कुन (कह) भूमिका इस आयत के प्रारम्भ में ईश्वरीय सन्देश के एक भाग के रूप में वर्णन किया जाता है। यह है इल्हाम, ईश्वरीय सन्देश कुरान की वर्णनशैली जिस से इल्हाम प्रारम्भ हुआ था।

अब यदि अल्लाह को कुरान के इल्हाम का आरम्भ बिस्मिल्लाह से करना होता तो सूरते अलक के प्रारम्भ में हज़रत जिबरील ने बिस्मिल्ला पढ़ी होती या इकरअ के पश्चात् बिइस्मेरब्बिका के स्थान पर बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम कहा होता।

मुज़िहुल कुरान में सूरत फ़ातिहा की टिप्पणी पर जो वर्तमान कुरान की पहली सूरत है, लिखा है—

यह सूरत अल्लाह साहब ने भक्तों की वाणी से कहलवाई है कि इस प्रकार कहा करें।

यदि यह सूरत होती तो इसके पूर्व कुल (कह) या इकरअ (पढ़) जरूर पढ़ा जाता।

कुरान की कई सूरतों का प्रारम्भ स्वयं कुरान की विशेषता से हुआ है। अतएव सूरते बकर के प्रारम्भ में, जो कुरान की दूसरी सूरत है प्रारम्भ में ही कहा—

‘ज़ालिकल किताबोला रैबाफ़ीहे, हुदन लिलमुत्तकीन’

यह पुस्तक है इसमें कुछ सन्देह (की सम्भावना) नहीं। आदेश करती है परहेज़गारों (बुराइयों से बचने वालों) को। तफ़सीरे इत्तिकान (कुरान भाष्य) में वर्णन है कि इब्ने मसूद अपने कुरान में सूरते फ़ातिहा को सम्मिलित नहीं करते थे। उनकी कुरान की प्रति का प्रारम्भ सूरते बकर से होता था। वे हज़रत मुहम्मद के विश्वस्त मित्रों (सहाबा) में से थे। कुरान की भूमिका के रूप में यह आयत जिसका हमने ऊपर उल्लेख किया है, समुचित है। ऋषि दयानन्द ने कुरान के प्रारम्भ के लिए यदि इसे इल्हामी (ईश्वरीय रचना) माना जाए यह वाक्य प्रस्तावित किये हैं। यह प्रस्ताव कुरान की अपनी वर्णनशैली के सर्वथा अनुकूल है और इब्ने मसूद इस शैली को स्वीकार करते थे। मौलाना मुहम्मद अली अपने अंग्रेज़ी कुरान अनुवाद में पृष्ठ 82 पर लिखते हैं—

कुछ लोगों का विचार था कि बिस्मिल्ला जिससे कुरान की प्रत्येक सूरत प्रारम्भ हुई है, प्रारम्भिक वाक्य (कल्मा) के रूप में   बढ़ाया गया है यह इस सूरत का भाग नहीं।

एक और बात जो बिस्मिल्ला के कुरान शरीफ़ में बाहर से बढ़ाने का समर्थन करती है वह है, प्रारम्भिक वाक्य (कल्मा) के रूप में बढ़ाया गया है यह इस सूरत का भाग नहीं।

एक और बात जो बिस्मिल्ला के कुरान शरीफ़ में बाहर से बढ़ाने का समर्थन करती है वह है सूरते तौबा के प्रारम्भ में कल्माए तस्मिआ (बिस्मिल्ला) का वर्णन न करना। वहाँ लिखने वालों की भूल है या कोई और कारण है जिससे बिस्मिल्ला लिखने से छूट गया है। यह न लिखा जाना पढ़ने वालों (कारियों) में इस विवाद का भी विषय बना है कि सूरते इन्फ़ाल और सूरते तौबा जिनके मध्य बिस्मिल्ला निरस्त है दो पृथक् सूरते हैं या एक ही सूरत के दो भाग-अनुमान यह होता है कि बिस्मिल्ला कुरान का भाग नहीं है। लेखकों की ओर से पुण्य के रूप (शुभ वचन) भूमिका के रूप में जोड़ दिया गया है और बाद में उसे भी ईश्वरीय सन्देश (इल्हाम) का ही भाग समझ लिया गया है।

यही दशा सूरते फ़ातिहा की है, यह है तो मुसलमानों के पाठ के लिए, परन्तु इसके प्रारम्भ में कुन (कह) या इकरअ (पढ़) अंकित नहीं है। और इसे भी इब्ने मसूद ने अपनी पाण्डुलिपि में निरस्त कर दिया था।

स्वामी दयानन्द की शंका एक ऐतिहासिक शंका है यदि बिस्मिल्ला और सूरते फ़ातिहा पीछे से जोड़े गए हैं तो शेष पुस्तक की शुद्धता का क्या विश्वास? यदि बिस्मिल्ला ही अशुद्ध तो इन्शा व इम्ला (अन्य लिखने-पढ़ने) का तो फिर विश्वास ही कैसे किया जाए?

कुछ उत्तर देने वालों ने इस शंका का इल्ज़ामी (प्रतिपक्षी) उत्तर वेद की शैली से दिया है कि वहाँ भी मन्त्रों के मन्त्र और सूक्तों के सूक्त परमात्मा की स्तुति में आए हैं और उनके प्रारम्भ में कोई भूमिका रूप में ईश्वरीय सन्देश नहीं आया।

वेद ज्ञान मौखिक नहीं—वेद का ईश्वरीय सन्देश आध्यात्मिक, मानसिक है, मौखिक नहीं। ऋषियों के हृदय की दशा उस ईश्वरीय ज्ञान के समय प्रार्थी की दशा थी। उन्हें कुल (कह) कहने की क्या आवश्यकता थी। वेद में तो सर्वत्र यही शैली बरती गई है। बाद के वेदपाठी वर्णनशैली से भूमिकागत भाव ग्रहण करते हैं। यही नहीं, इस शैली के परिपालन में संस्कृत साहित्य में अब तक यह नियम बरता जाता है कि बोलने वाले व सुनने वाले का नाम लिखते नहीं। पाठक भाषा के अर्थों से अनुमान लगाता है। कुरान में भूमिका रूप में ऐसे शब्द स्पष्टतया लिखे गए हैं, क्योंकि कुरान का ईश्वरीय सन्देश मौखिक है जिबरईल पाठ कराते हैं और हज़रत मुहम्मद करते हैं। इसमें ‘कह’ कहना होता है। सम्भव है कोई मौलाना (इस्लामी विद्वान्) इस बाह्य प्रवेश को उदाहरण निश्चय करके यह कहें कि अन्य स्थानों पर इस उदाहरण की भाँति ऐसी ही भूमिका स्वयं कल्पित करनी चाहिए। निवेदन यह है कि उदाहरण पुस्तक के प्रारम्भ में देना चाहिए था न कि आगे चलकर, उदाहरण और वह बाद में लिखा जाये यह पुस्तक लेखन के नियमों के विपरीत है।

ऋषि दयानन्द की दूसरी शंका बिस्मिल्ला के सामान्य प्रयोग पर है। ऋषि ने ऐसे तीन कामों का नाम लिया है जो प्रत्येक जाति व प्रत्येक मत में निन्दनीय हैं। कुरान में मांसादि का विधान है और बलि का आदेश है। इस पर हम अपनी सम्मति न देकर शेख ख़ुदा बख्श साहब एम॰ ए॰ प्रोफ़ेसर कलकत्ता विश्वविद्यालय के एक लेख से जो उन्होंने ईदुज़्ज़हा के अवसर पर कलकत्ता के स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित कराई थी, निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत किए देते हैं—

ख़ुदा बख्श जी का मत—“सचमुच-सचमुच बड़ा ख़ुदा जो दयालु व दया करने वाला है वह ख़ुदा आज ख़ून की नदियों का चीख़ते हुए जानवरों की असह्य व अवर्णनीय पीड़ा का इच्छुक नहीं प्रायश्चित? ……  वास्तविक प्रायश्चित वह है जो मनुष्य के अपने हृदय में होता है। सभी प्राणियों की ओर अपनी भावना परिवर्तित कर दी जाए। भविष्य के काल का धर्म प्रायश्चित के इस कठोर व निर्दयी प्रकार को त्याग देगा। ताकि वह इन दीनों पर भी दयापूर्ण घृणा से दृष्टिपात करे। जब बलि का अर्थ अपने मन के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु या अन्य सत्ता का बलिदान है। ”

—‘माडर्न रिव्यु से अनुवादित’

दयालु व दया करने वाले परमात्मा का नाम लेने का स्वाभाविक परिणाम यह होना चाहिए था कि हम वाणी हीन जीवों पर दया का व्यवहार करते, परन्तु किया हमने इसके सर्वथा विरोधी कार्य………..। यह बात प्रत्येक सद्बुद्धि वाले मनुष्य को खटकती है।

मुज़िहुल कुरान में लिखा है—

जब किसी जानवर का वध करें उस पर बिस्मिल्ला व अल्लाहो अकबर पढ़ लिया करें। कुरान में जहाँ कहीं हलाल (वैध) व हराम (अवैध) का वर्णन आया है वहाँ हलाल (वैध) उस वध को निश्चित किया है जिस पर अल्लाह का नाम पढ़ा गया हो। कल्मा पवित्र है दयापूर्ण है, परन्तु उसका प्रयोग उसके आशय के सर्वथा विपरीत है।

(2) इस्लाम में बहु विवाह की आज्ञा तो है ही पत्नियों के अतिरिक्त रखैलों की भी परम्परा है। लिखा है—

वल्लज़ीन लिफ़रूजिहिम हाफ़िज़ून इल्ला अललअज़वाजुहुम औ मामलकत ईमानु हुम। सूरतुल मौमिनीन आयत ऐन

और जो रक्षा करते हैं अपने गुप्त अंगों की, परन्तु नहीं अपनी पत्नियों व रखैलों से। तफ़सीरे जलालैन सूरते बकर आयत 223 निसाउकुम हर सुल्लकुम फ़आतू हरसकुम अन्ना शिअतुम  तुम्हारी पत्नियाँ तुम्हारी खेतियाँ हैं जाओ अपनी खेती की ओर जिस प्रकार चाहो। तफ़सीरे जलालैन में इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है—

बिस्मिल्ला कहकर—सम्भोग करो जिस प्रकार चाहो, उठकर, बैठकर, लेटकर, उल्टे-सीधे जिस प्रकार चाहो ……….. सम्भोग के समय बिस्मिल्ला कह लिया करो।

बिस्मिल्ला का सम्बन्ध बहु विवाह से हो रखैलों की वैधता से हो। इस प्रकार के सम्भोग से हो यह स्वामी दयानन्द को बुरा लगता है।

(3) सूरते आल इमरान आयत 27

ला यत्तख़िज़ु मौमिनूनलकाफ़िरीना औलियाया मिनदूनिल मौमिनीना………इल्ला अन तत्तकू मिनहुम तुकतुन

न बनायें मुसलमान काफ़िरों को अपना मित्र केवल मुसलमानों को ही अपना मित्र बनावें।

इसकी व्याख्या में लिखा है—

यदि किसी भय के कारण सहूलियत के रूप में (काफ़िरों के साथ) वाणी से मित्रता का वचन कर लिया जाए और हृदय में उनसे ईर्ष्या व वैर भाव रहे तो इसमें कोई हानि नहीं…….जिस स्थान पर इस्लाम पूरा शक्तिशाली नहीं बना है वहाँ अब भी यही आदेश प्रचलित है।

स्वामी दयानन्द इस मिथ्यावाद की आज्ञा भी ईश्वरीय पुस्तक में नहीं दे सकते। ऐसे आदेश या कामों का प्रारम्भ दयालु व दयाकर्त्ता, पवित्र और सच्चे परमात्मा के नाम से हो यह स्वामी दयानन्द को स्वीकार नहीं 1 ।

[1. इस्लामी साहित्य व कुर्आन के मर्मज्ञ विद्वान् श्री अनवरशेख़ को भी करनीकथनी के इस दोहरे व्यवहार पर घोर आपत्ति है।             —‘जिज्ञासु’]

इस्लाम का चमत्कार (अंधविश्वास) : पं॰ श्री चमूपतिजी एम॰ ए॰

चमत्कार

ईमान के दो साधन हैं—एक बुद्धि, दूसरा सीधा विश्वास, प्रकृति की पुस्तक दोनों के लिए खुली है।

प्रातःकाल सूर्योदय, सायंकाल सूर्यास्त, दिन व रात्रि का क्रम ऊषा की रंगीनी, बादलों का उड़ना, किसी बदली में से किरणों का छनना, इन्द्रधनुष बन जाना, पर्वतों की गगन चुम्बी चोटियाँ, सागर की असीम गहराई, वहाँ बर्फ के तोदे व दुर्ग, उछलती कूदती लहरों का शोर, बुद्धि देख-देखकर आश्चर्यचकित है। भूमि पर तो चेतन प्राणी हैं ही, वायु व जल में भी एक और ही विराट् संसार बसा हुआ है।

विज्ञान के पण्डित नित नए अनुसंधान करके नित नए नियमों का पता लगा रहे हैं और इन नियमों के कारण प्रकृति के ऊपर अधिकार प्राप्त करते जाते हैं। जो घटनाएँ पहले अत्यन्त आश्चर्यजनक लगतीं थीं। वह इन नियमों के प्रकाश में साधारण-सी घटनाएँ बनकर रह जाती हैं। मनुष्य यह देखकर दंग है कि पानी आकाश से कैसे बरसता है? वैज्ञानिक एक हण्डिया में पानी डालकर उसे आँच देता है। पानी सूखता है, उड़ता है। वैज्ञानिक उस उड़ते पानी को ठण्डी नली में से गुज़ारता है और उड़ती हुई भाप को फिर पानी बना देता है। यह पानी कण-कण होकर फिर गिर पड़ता है। वैज्ञानिक कहता है यही वर्षा होने का रहस्य है। हमने चमत्कार समझा था, परमात्मा की कुदरत का विशेष रहस्य माना था। वैज्ञानिक ने वही चमत्कार छोटे स्तर पर स्वयं करके दिखा दिया। हमारा आश्चर्य समाप्त हो गया। हम इन्द्रधनुष पर लट्टू थे। वैज्ञानिक ने त्रिकोण के एक शीशे में ही एक छोटा-सा इन्द्रधनुष उत्पन्न कर दिया। हम इसे साधारण बात समझ बैठे। वैज्ञानिक बुद्धिमान् था हमारी सरलता पर हँसा और कहा मेरी शक्ति प्रथम तो सीमा में छोटी है। साधारण है। भला इस इन्द्रधनुष की उस आकाश में फैले हुए इन्द्रधनुष से तुलना ही क्या? जो आकाश के एक भाग में छा जाता है? मेरे कण भर जल से कोई खेत हरियाले हो सकते हैं या झीलें भर सकती हैं? वे भण्डार प्रभु के ही

हैं जिनका संसार प्रार्थी है, याचक है। फिर मेरी खोजें और आविष्कार

तो परमात्मा की रचनाओं की नकल मात्र हैं, वह उसी भण्डार

की एक बानगी है जो वस्तु वर्तमान संसार में पहले से ही विद्यमान

है। मैं उसे देखता हूँ उसकी दशा का चित्र अपनी बुद्धि में उतारता हूँ

और अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस भण्डार से एक छोटी-सी बानगी

प्राप्त करता हूँ और उस पर परमात्मा के ही नियमों का प्रयोग करके

कहीं इन्द्रधनुष का खिलौना कहीं पानी व भाप की गुड़िया बना लेता

हूँ। यह प्रकृति के नियमों का छोटा-सा भाग जो मेरी छोटी-सी

बुद्धि में आता है परमात्मा को सर्वशक्तिमान् व पूर्ण ज्ञान का

स्वामी सिद्ध करता है। यदि उसके सामर्थ्य का प्रकटीकरण बिना

किसी नियम के होता तो मनुष्य को अपने प्रयास की सफलता का

विश्वास करना कठिन हो जाता। उस खेती में जिससे हम सबका पेट

पालन होता है, क्या कुछ कम चमत्कार है। एक दाने के लाखों व

करोड़ों दाने हो जाते हैं। परमात्मा ही तो इन्हें बढ़ाता है। हम

उससे लाभ उठा लेते हैं। इसमें यदि नियम व व्यवस्था न हो तो

कोई किस भरोसे पर बीज बोए। उसे पानी दे और फ़सल काटे?

यह है बुद्धि के द्वारा ईश्वर पर विश्वास, अज्ञानी व्यक्ति बुद्धि से कोरा

है उसे प्रतिदिन की खेती में परमात्मा का हाथ दिखाई देना कठिन है।

सूरज व चाँद के तमाशे उसकी दृष्टि में परमात्मा की शक्ति के खेल

नहीं? परमात्मा और उसके साथ उसके प्यारों की शक्ति का

प्रदर्शन किसी प्रकृति नियम के विपरीत चमत्कार के द्वारा होना चाहिए।

1[1. मुस्लिम विचारक डॉ॰ गुलाम जैलानी बर्क ने प्रचलित इस्लाम से हटकर यह लिखा है, “अल्लाह का सबसे बड़ा चमत्कार यह सृष्टि—यह रचना है।” देखिये ‘दो कुरान’ पृष्ठ 622। पं॰ गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने लिखा है, “The occurence of an unnatural phenomenon is a contradiction of terms. If it occurs, it is natural, if it is natural it must occur. Then is it anti natural? No who can defy nature successfully.” Superstition अर्थात् चमत्कार यदि स्वाभाविक है तो चमत्कार नहीं यदि सृष्टि नियम विरुद्ध हैं तो हो नहीं सकते।  —‘जिज्ञासु’]

इस लड़कपन के विचार ने अज्ञानी लोगों के दिलों में चमत्कारों की सृष्टि की है। वह उन्हीं लोगों को प्रभु तक पहुँचा हुआ     मानते हैं जिनसे कोई करामात चमत्कार या प्रकृति के नियम विरुद्ध काम सम्बन्धित हो। कुछ सम्प्रदायों की आधारशिला ही इन्हीं चमत्कारी कहानियों पर है। स्वयं चमत्कार करना कठिन है, क्योंकि उसके मार्ग में प्रकृति के नियम बाधक हैं इसलिए इन मतों की पुस्तकों में चमत्कारों की असम्भवता को कुछ स्वीकार किया गया है, जैसे कि इञ्जील में वर्णन है—

“उस ईसा ने ठण्डा सांस लिया और कहा यह पीढ़ी चमत्कार चाहती है? मैं तुम्हें सच कहता हूँ इस पीढ़ी को चमत्कार नहीं दिखाया जाएगा”1। —(मरकस आयत 8-12)

[1. डॉ॰ जेलानी ने भी अपनी पुस्तकों में चमत्कारों की चर्चा करते हुए यही प्रमाण दिये हैं।   —‘जिज्ञासु’]

और कुरान में भी आया है—

व कालू लौला उन्ज़िला इलैहे आयातुन मिन रब्बिही कुल 1 इन्नमल आपातो इन्दल्लाहे व इन्नमा इन्ना नजीरुन मुबीन॰ लो लमयक फिहिम अन्ना अंजलना अलैकल किताबो, तुतला अलैहिम इन्ना फ़ीजालिका लरहमता व ज़िकरालि कौमिय्योमिनून।

—(सूरते अनकबूत आयत 50-51)

और कहते हैं क्यों नहीं उतरीं उस पर उसके रब की ओर से निशानियाँ। पास अल्लाह के हैं और निश्चत ही मैं डराने वाला हूँ, प्रकट और क्या उनके लिये यह पर्याप्त नहीं कि हमने तुम पर पुस्तक उतारी है जो पढ़ी जाती है उन पर और उसमें कृपा है और वर्णन है मौमिनों के लिए।

परन्तु पूर्ववर्तियों के सम्बन्ध में चमत्कारों की कहानियाँ सुनाने में कोई कानून बाधक नहीं। इसलिए ऐसी पुस्तकों के अपने काल के चमत्कारों का लाख इन्कार हो, पूर्वकालीन कालों के पैग़म्बरों के साथ चमत्कार जोड़ दिए गए हैं। काल बीतने पर श्रद्धालुओं ने वैसे ही और उनसे बढ़-चढ़कर विचित्र चमत्कारों के सम्बन्ध अपने पथ-प्रदर्शकों के साथ जोड़ दिए हैं। चमत्कार वास्तव में प्रभु की सत्ता की स्वीकृति नहीं इन्कार हैं।

परमात्मा नित्य है, अनादि है तो उसकी शक्ति का प्रदर्शन भी नित्य है, शाश्वत है, क्षण-क्षण में होता है। परमात्मा का ज्ञान पूर्ण है। उसका ज्ञान जैसे प्रकृति के नियम हैं। जहाँ यह नियम टूटे समझो परमात्मा का ज्ञान भंग हुआ। परमात्मा के नियम व कार्य में परिवर्तन होना असम्भव है। उसके ज्ञान व कार्य का प्रदर्शन नित्य प्रति के कार्यों में हो रहा है। उनका साँचा पलटने की सद्बुद्धि को आवश्यकता नहीं। हाँ जिन लोगों की मान्यता ही यह है कि वह कानून से भी ऊपर हों जिस पर तर्क ननुनच न कर सके, वह परमात्मा को भी एक बड़ा, सारे संसार को घेरे हुए, मनमौजी राजा कल्पना कर सकते हैं। जिसकी इच्छा का भरोसा नहीं।

अपनी या अपने प्यारों के लिए किसी समय कुछ कर गुज़रे। किसी पर दिल आ गया उसे रिझाने के लिए कुछ भी कर देना उससे दूर नहीं। आजकल राजाओं का युग नहीं रहा। सो परमात्मा की भी कल्पना परिवर्तित हो रही है।

वेद की दृष्टि में परमात्मा के नियम परमात्मा की पवित्र आज्ञाएँ हैं। उनका उल्लंघन (नऊज़ो बिल्लाह—परमात्मा की शरणागति) करके परमात्मा अपना निषेध उल्लंघन करेगा यह असम्भव है। परमात्मा के प्यारे वे हैं जिनका जीवन विज्ञान के नियमों व आध्यात्मिकता के साँचे में ढल जाता है।

1[ 1. नियम नियन्ता के होने का एक बहुत बड़ा प्रमाण होता है। अनियमितता कहीं भी हो यही सिद्ध करती है कि यहाँ कोई नियन्ता नहीं। यह सृष्टि नियमों में बंधी है जो अटल Eternal हैं। ऋत व सत्य को वेद भूमि का आधार मानता है। इन नियमों के टूटने का कोई प्रश्न ही नहीं है। —‘जिज्ञासु’]

जिनका सदाचार ही उनकी महानता है। वे नियमों का उल्लंघन नहीं करते उसके ज्ञान का प्रचार करते हैं। उनकी भक्ति बुद्धि के साथ वाणी का रूप धारण करके उसका प्रकाश करती है जिसका पवित्र नाम वेद है।

इसके विपरीत कुरान शरीफ़ में स्थान-स्थान पर चमत्कारों का वर्णन आया है। हम नीचे कुछ पैग़म्बरों के सम्बन्ध में कुरान शरीफ़ की साक्षी प्रस्तुत करेंगे जिससे प्रकट हो कि उनकी महानता की आधारशिला कुरान की दृष्टि में उनके चरित्र पर नहीं चमत्कारों पर है। कुरान शरीफ़ के कुछ पैग़म्बरों के चरित्र पर एक संक्षिप्त आलोचना पिछले अध्याय में हो चुकी है।

आचार व आध्यात्मिकता की परिपूर्णता विद्यमान होने की दशा में किसी व्यक्ति का जीवन  चमत्कारों की अपेक्षा नहीं रखता। मनुष्यों के लिए लाभदायक व सृष्टि के नियमों के या ऐसा कहो कि परमात्मा की इच्छा के रंग में रंगी हुई कार्य प्रणाली सर्वश्रेष्ठ चमत्कार है। जो ऋषि दयानन्द व उनके पूर्ववर्ती वेद के ऋषियों के भाग में आया है। अन्य महापुरुष भी इस श्रेष्ठता से रिक्त नहीं होंगे, परन्तु हमें यहाँ उन महापुरुषों के वर्णन से तात्पर्य है कि जो उनके अनुयायियों के कथानकों के द्वारा हम तक पहुँचे हैं।

इस अध्याय में हमें देखना यह होगा कि इन महापुरुषों के चमत्कार कल्पना के कितने निकट हैं? यदि कल्पना करो कि उनकी सत्यता को क्षणभर के लिए स्वीकार भी कर लिया जाए तो इससे वर्तमान काल का मानव समाज क्या लाभ उठा सकता है? माननीय पैग़म्बरों के आचार के परिपालन का द्वार इस्लाम के भाग्य लेखों के नियमों के हाथों बन्द है। क्योंकि हम वैसे ही कर्म करने पर विवश हैं जैसे प्रारम्भ से हमारे भाग्य लेखक ने लिख दिए हैं फिर आश्चर्यप्रद चमत्कार तो—

र्इं सआदत बज़ोरे बाज़ू नेस्त,

ता न बख्शद ख़ुदाए बिख्शन्दा 1 ।

[1. अर्थात् यह पुण्य अथवा सामर्थ्य भुजा बल से प्राप्त नहीं होता। जब तक विधाता की कृपा न हो—इसकी प्राप्ति असम्भव है।   —‘जिज्ञासु’]

यह चमत्कार हमारे किस काम के? अभी तो हमें इन करामातों, चमत्कारों के तथाकथित वर्णनों पर दृष्टिपात करना चाहिए। सम्भव है, इसमें हमारे सदुपयोग की भी कोई बात निकल आवे—

हम दृष्टान्त के रूप में इन पैग़म्बरों के कुछ चमत्कारों की संक्षिप्त जाँच पड़ताल किए लेते हैं—

(1) हज़रत मूसा, (2) हज़रत ईसा, (3) हज़रत इब्राहिम, (4) हज़रत सालिह, (5) हज़रत नूह, (6) हज़रत मुहम्मद।

हज़रत मूसा

हज़रत मूसा की कहानी कुरान शरीफ़ में बार-बार दोहराई गई है। हम कुछ ऐसे प्रमाणों पर सन्तोष करेंगे जिनसे इन हज़रत के किए हुए कार्यों या उनकी कहानी में वर्णित प्रकृति नियम विरुद्ध कारनामों पर प्रकाश पड़ सके।

मनुष्य बन्दर बन गए

सूरते बकर में फ़रमाया है— वलकद अनिमतुमल्लज़ीना अइतिदू मिनकुम फ़िस्सबते फ़कुलनालहुम कूनू किरदतन ख़ासिईन। फ़जअलनाहा नकालन लिमा बेनायर्देहा वमा ख़लफ़हा।

—(सूरते बकर आयत 65-66)

इसकी व्याख्या तफ़सीरे जलालैन में इस प्रकार की गई है—

सचमुच सौगन्ध है कि तुम जानते हो उनको जिन्होंने (प्रतिबन्ध लगाने पर भी) शनिवार के दिन (मछली का शिकार करके) सीमा का उल्लंघन किया (वह लोग ईला के रहने वाले थे) सो हमने उनसे कहा कि तुम बन्दर बन जाओ रहमत (प्रभु कृपा) से दूर (सो वह) हो गए और तीन दिन बाद मर गए। फिर हमने (इस दण्ड को) उनके काल के पश्चात् और बाद में आने वाले लोगों के लिए मार्गदर्शन का साधन कर दिया। —जलालैन

शरीरों का अविलम्ब परिवर्तन प्रकृति के किस नियम के अनुसार हुआ? हज़रत डारविन को कठिनाई थी कि बन्दर की पूँछ मनुष्य शरीर में आकर लुप्त कैसे हो गई? पाठक वृन्द! कुरान की कठिनाई यह है कि दुम (पूँछ) कैसे उत्पन्न हो गई? मज़हब में तर्क का प्रवेश नहीं।

मृत शरीर बोल उठा

व इज़ा कतलतुम नफ़सन फ़द्दर अतुम फ़ोहा बल्लाहो मुख़- रिजुन मा कुन्तुम तकतिमूना, फ़कुलना अज़रिबहो विबाज़िहा। कज़ालिका यहयल्लाहो अलमूता व युरीकुम आयतिही लअल्लकुम तअकिलून। —(सूरते बकर आयत 73)

जबकि तुमने एक आदमी को मारा फिर उसमें झगड़ा किया और अल्लाह प्रकट करने वाला है। इस बात को जिसको तुम छुपाते थे। फिर हमने कहा कि इस (वध किए गए) से इस (गाय) की (शाब्दिक अर्थ हैं इस गाय) का एक टुकड़ा जीभ या दुम की हड्डी मारो उन्होंने मारा और वह जीवित हो गया और अपने चाचा के बेटों के बारे में कहा कि उन्होंने मुझे मारा है यह कहकर मर गया।  अल्लाह ताला इसी प्रकार मृत शरीरों को जीवित करेगा वह तुमको अपनी शक्ति की निशानियाँ दिखाता है कि तुम विचार कर समझो। —जलालैन

गाय का एक टुकड़ा लगने से मुर्दा जी उठा न जाने मरा क्या लगने से? पर मरते तो लोग नित्यप्रति हैं। चमत्कार जीने में था। बंकिमचन्द्र बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार मजिस्ट्रेट थे। एक मुकदमें में वास्तविक परिस्थिति का पता नहीं लग रहा था। आपने मुर्दे का स्वांग भरा। लाश बनकर पड़े रहे और उस पर कपड़ा डाल दिया गया। अपराधी भी वहीं थे। बातों-बातों में निःसंकोच सारी घटना सच-सच कह गए। मुर्दा जलाने से पूर्व ही जी उठा और न्यायालय में घटना की साक्षी दे गया। कुछ ऐसी ही दशा इन आयतों में लिखी हुई तो नहीं? यह अन्तर अवश्य है कि बंकिम फिर जीवित ही रहे तीन दिन पश्चात् मरे नहीं।

डण्डे का चमत्कार

व इजस्तस्का मूसालिकौमिही, फकूलनाजरिव बिअसाक- लहजरा फन्फजरत मिनहा इसनता अशरा ऐनन।

—(सूरते बकर आयत 73)

जब कि (उस जंगल में) मूसा ने अपनी जाति के लिए पानी माँगा सो हमने कहा कि अपनी लाठी पत्थर पर मार (यह वही पत्थर था जो मूसा के कपड़े ले भागा था) नरम (चौकोन जैसा आदमी का सिर) सो उसने मारा बस 12 जल के स्रोत (चश्मे) (जितने वह गिरोह थे) उसमें से निकलकर बहने लगे। —जलालैन

डण्डा अजगर बन गया

फ़लका असाहो, फ़इज़ाहिया सअबानुन मुवीनुन, वनज़ आयदुहू फ़इज़ाहिया बैज़ा अनलिन्नाज़िरीन।

—(सूरत ऐरा फ आयत 107)

बस मूसा ने अपनी लाठी डाली सो अचानक वह बड़ा अजगर साँप बन गई और (मूसा ने) अपना हाथ (कपड़ों में से) निकाला और वह चमकता हुआ प्रकाशमान प्रकट हुआ देखने वालों की दृष्टि में (यद्यपि उस हाथ की यह रंगत न थी। गेहुआ रंग था)।

—जलालैन

पतला साँप

व अलके असाका फ़लम्मा राअहा तहतज़्जुन कअन्नहा जानुन ववलामु दब्बिरन वलम यअकिब या मूसा ला तख़िफ़।

—(सूरते नहल आयत 10)

और अपनी लाठी डाल (सो मूसा ने) अपनी लाठी डाली (उसने) जब उस लाठी को देखा कि दौड़ती है जैसे पतला साँप। मूसा पीठ फेरकर भागा और पीछे को न लौटा (अल्ला ताला ने फ़रमाया) ए मूसा तू इससे भयभीत न हो।

—जलालैन

वेदान्त में भ्रमवश रस्सी को साँप समझने का वर्णन तो प्रायः होता है, यहाँ न जाने भ्रम था या वास्तविक दशा थी?

टिड्डियों जुंओं व मैढकों का मेंह

लोग हज़रत मूसा के भक्त न बने बस फिर क्या था?

नहनोलका बिमोमिनीना फ़अरसलना अलैहुम त्तूफ़ानावल जरादा वलकमला वज़्ज़फ़ादिए वद्दम्मा आयतिन मुफ़स्सिलातिन।

—(सूरते आराफ 132-133)

हम कभी तेरा विश्वास न करेंगे और ईमान न लाएँगे (सो मूसा ने उनको शाप दिया) फिर हमने उन पर पानी का तूफ़ान भेजा (कि सात दिन तक पानी उनके घर में पानी भरा रहा। जो बैठे हुए आदमी के हलक तक पहुँचता था) और भेजा टिड्डियों को (सात दिन की उनकी खेती व फल खा गए और (भेजा) जुओं को (या वह कीड़ा जो अनाज में पैदा हो जाता है) या चिचड़ी को जो उसने टिड्डियों का बचा हुआ खाया और कुछ शेष न छोड़ा और भेजा उन पर मैंढक (कि वह उनके घरों व खानों में भर गए) और रक्त को (उनके पानी में) और यह निशानियाँ प्रकट (भेजी)।

किसी की समझ में यह चमत्कार न आए तो इसका इलाज वही है जो इस आयत के अनुसार ईमान न लाने वालों का हुआ। अर्थात् पानी का तूफ़ान, टिड्डियों, जूएँ, रक्त व मैंढक, इस भय के होते कौन हैं जो ईमान न लाए?

नदी दो टुकड़े

आगे फ़रमाया है—

फ़ग़रकनाहुम फ़िलयम्मा बिइन्नहुम कज़्ज़बू बूआया तिनाव  कानू अनहा ग़ाफ़िलीन।

—(सूरते आराफ आयत 136)

फिर डुबा दिया (उनको शोर नदी में) इस कारण से कि वह निश्चय ही हमारे आदेश को झुठलाते थे और (हमारी निशानियों से) अज्ञान रखते थे कुछ सोच विचार नहीं करते थे। —जलालैन

व जावज़ना विनब्यिय इसराईल लवहरा।

—(सूरते आराफ आयत 138)

और हमने बनी इसराईल को नदी से पार कर दिया।

इस घटना का विवरण इससे पूर्व निम्न आयत में वर्णन हो चुका है।

व इज़ा फ़रकना बिकुलमुल बहरा फ़अन्जयतकुम व अग़रकना आले फ़िरओन व अन्तुम तंज़रुना।

—(बकर आयत 50)

जबकि हमने तुम्हारे (बनी इसराईल के) कारण दरिया को चीरा (ताकि तुम शत्रुता से भागकर इसमें दाखिल हो जाओ) सो हमने तुमको डूबने न दिया और फिरऔन की जाति को डुबो दिया (फ़िरऔन सहित) और तुम देखते थे (उनके ऊपर दरिया के मिल जाने पर)।

—जलालैन

आजकल की पनडुब्बी नौकायें इससे भी कहीं अधिक चमत्कार1 दिखा रही हैं। [1. डॉ॰ ग़ुलाम जैलानी बर्क ने अपनी पुस्तक दो कुरान पृष्ठ 322 पर नील नदी का फटना, लाठी का सर्प बनना आदि चमत्कारों को झुठला दिया है। —‘जिज्ञासु’]

  1. हज़रत मसीह

हज़रत ईसा मसीह को मुसलमान वह महत्ता नहीं देते जो ईसाई लोग देते हैं, परन्तु हज़रत मसीह से भी कुछ चमत्कार कुरान में ही जोडे़ गये हैं। जैसा कि सूरते बकर आयत 87 में वर्णन है।

व आतैना ईसा इब्ने मरयमल बय्यनाते व अय्यदनाही बिरुहिलकुदस।

और मरियम के पुत्र ईसा को कई चमत्कार दिए (जीवित करना मृतकों का और अन्धें व जन्मजात कोढी को निरोग करना) और उनको सामर्थ्य दी जिबरईल से (जहाँ ईसा चलते, जिबरईल उनके साथ होते थे)।

—जलालैन

बिना पिता के सन्तानोत्पत्ति

व इज़ा कालतिलमलाइकतो या मरयमो इन्नल्लाहा इस्तफ़ाका व तहरका वस्तफ़ाका अलानिसाइल आलमीन।

—(आले इमरान 39)

जब फ़रिश्ते बोले ए मरियम! अल्लाह ने तुझे पसन्द किया व शुद्ध बनाया (टिप्पणी में है—पुरुष के निकट होने से पवित्र किया) और पसन्द किया तुझको सब संसार की स्त्रियों से।

—जलालैन

व जकरा फ़िल कितावे मरियमा इज़म्बतजतामिन अहलिहा मकानन शरकिय्यन। फ़त्तरवजत मिन दूनिहिम हिजाबन फ़अर सलना इलैहा रुहना फ़तमस्सला लहवशरन सविय्यन। कालत इन्नो अऊजो बिर्रहमाने मिन्काइन कुन्ता नकिय्य्न। काला इन्नमा अनारसूलो रब्बिकालिअहल लका ग़ुलामन ज़किय्यन॰ कालत अन्नी यकूनोली ग़ुलामुन वलम यमसइनि बशरुन वलम अकोवगिय्यन काला कज़ालिका काला रब्बुका हुवा अलय्या हय्यनुन व लि नजअहु आयतुन लिन्नासे………फ़हमलतहू फ़न्तब्जत बिहीमकानन कसिय्यन।

—(मरयम 16-20)

याद करो कुरान में कथा मरियम की जबकि वह पृथक् हुई अपने घर वालों से एक मकान के कोने में जो पूर्व दिशा में था (वहाँ जाकर) घर के लोगों के सामने परदा छोड़ दिया (ताकि कोई न देखे यह परदा इसलिए छोड़ा था कि अपने सिर या कपड़ों से जूं निकालती थी या मासिक धर्म के पश्चात् स्नान करती थी पवित्र होकर) सो भेजा हमने उनकी ओर अपनी रूह (आत्मा, जिबरईल) को। सो वह हो गया आदमी पूरे हाथ पैर वाला सुन्दर (जबकि मरियम अपने कपड़े पहन चुकी थी) मरियम बोली, निःसन्देह मैं तुझसे ख़ुदा की शरण माँगती हूँ यदि तू कोई पवित्र हृदय पुरुष है (तू मेरे शरण माँगने से पृथक् रह) जिबरईल ने कहा—बात यह है कि मैं तेरे परमात्मा का भेजा हुआ हूँ कि तुमको एक पवित्र बेटा प्रदान करूँ (जो पैग़म्बर होगा) मरियम ने कहा—मेरे पुत्र कैसे होगा।

यद्यपि किसी पुरुष ने विवाह करके हाथ नहीं लगाया और न मैं व्यभिचारिणी हूँ…….. जिबरईल ने कहा—(यह बात अवश्य होने वाली है, अर्थात् बिना पिता के पुत्र अवश्य उत्पन्न होगा) तेरा परमात्मा कहता है कि यह काम मेरे लिए सरल है (इस प्रकार कि जिबरईल मेरे आदेश से तेरे अन्दर फूँक मारे तू उससे गर्भवती हो जाए)……..और हम उसको अवश्य पैदा करेंगे ताकि बनाएँ उसको अपने सामर्थ की निशानी…..फिर मरियम गर्भवती हुई और चली गई (गर्भवती होने के कारण अपने घर वालों से) दूर।

—जलालैन

फ़रिश्ते आजकल बात भी नहीं करते। प्राचीनकाल में करते थे। परमात्मा के सन्देश लाते और उसके आदेशों का पालन करने में भाँति-भाँति के पुरस्कार प्रदान कर जाते थे। हज़रत मरियम को बिना पति के सन्तान दी। हज़रत यहया को बिना शक्ति के पुत्र दिया। इस विज्ञान के युग में अल्लाह मियाँ व उसके फ़रिश्ते सब वैज्ञानिक हो गए हैं। मजाल है कोई बात प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कर जावें।

वल्लती अहसनत फ़रजहा फ़नफ़रवना फ़ीहा मिनरुहिनावजअलनांहां व अबनाहा आयतुन लिल आलमीन।

—(सूरते अम्बिया 88)

और स्मरण करो मरियम को जिसने अपनी योनि को (बुरे काम से) सुरक्षित रखा सो हमने अपनी रूह (आत्मा) फूँकी (अर्थात् जिबरईल ने उसके कुर्ते के गिरेबान में फूँक मारी जिससे उसको ईसा का गर्भ रह गया) और हमने मरियम को और उसके पुत्र को मनुष्यों, जिन्नों (भूतों) व फ़रिश्तों (देवताओं) के लिए एक निशानी बनाया। (क्योंकि मरियम ने ईसा को बिना पति के जन्म दिया)। —जलालैन

हज़रत इब्राहिम

कटे पशु जीवित किए

हज़रत इब्राहीम एक पुराने ईश्वरीय दूत हैं। हज़रत मुहम्मद का दावा है कि इस्लाम हज़रत इब्राहिम का ही धर्म है। उनके प्रकृति के नियमों के विरुद्ध चमत्कारों का वर्णन सूरते बकर में इस प्रकार है—

व इज़ा काला इब्राहीमो रब्बे अरनी कैफ़ा यहयुलमौता काला अवलय तौमिनो। काला बला वलाकिन लियमय्यिनाकलबी। काला फ़ख़ुज़ अरबअतन मिनत्तैरे फ़सर हुन्ना इलैका, सुम्मा अजअल अलाकुल्ले जबलिन मिनहुन्ना जुजअन सुम्मा अदउहुन्ना यातीन का सइयन व अलमी इन्नाल्लाहो अज़ीज़न हकीम। —(सूरते बकर आयत 260)

इब्राहिम ने कहा—ए मेरे प्रभु मुझको दिखला कि तू मुर्दों को कैसे जीवित कर देगा (अल्लाह ने उनसे फ़रमाया) क्या तुझको इस पर विश्वास नहीं? (कि मेरे अन्दर सामर्थ है कि मुर्दों को जीवित कर दूँ)……..(इब्राहीम ने) कहा कि मैंने निसन्देह विश्वास किया तेरी शक्ति पर……..यह मैंने तुझसे इसलिए पूछा कि आँख से देखकर पूरे हृदय को सन्तोष प्राप्त कर लूँ और विरोधियों से तर्क कर सकूँ (अल्लाह ने) फ़रमाया, अब तू चार पंछी पकड़…….और उनको अपने पास इकट्ठा कर और उनको काटकर उनके पंख गोश्त मिलाकर फिर अपनी ज़मीन के पहाड़ों में से प्रत्येक पहाड़ पर एक-एक टुकड़ा उनका रख दे फिर उनको अपनी ओर बुला वे दौड़कर आएँगे और जान ले कि अल्लाह शासक है (किसी बात से कमज़ोर नहीं उसका काम सुदृढ़ व पक्का है) सो इब्राहिम ने मोर, करगस, कौवा और मुर्ग पकड़ा और उनका मांस व पर काटकर मिला दिए और उनके सिर अपने पास रख लिए और उनको बुलाया सो तमाम टुकड़े उड़कर जिसका जो टुकड़ा था उसमें जा मिला। यहाँ तक कि पूरे होकर अपने-अपने सिरों से मिल गए।

—जलालैन

हज़रत सालिह

अल्लाह मियाँ की ऊँटनी

कौम समूद के पैग़म्बर सालिह के सम्बन्ध में सूरते हूद में आया है कि उन्होंने फ़रमाया—

वया कौमे हाजिही नाक तुल्लाहे लकुम आयतुन फजरुहा ताकुल फिलअरजे ल्लाहेवला तमस्सूहा बिसूइन फयारवुजकुम अजाबुन करीबुन फअकरुहा, फकाला तमत्तऊफी दारिकुम सलासता अय्यामिन जालिका व अदुन गैरो मकजूबिन।

—(सूरते हूद आयत 63)

और ए मेरी कौम यह अल्लाह की ऊँटनी है तुम्हारे लिए निशानी अतः इसे छोड़ दो फिर से अल्लाह की भूमि पर और इसके साथ किसी प्रकार का बुरा व्यवहार मत करो नहीं तो तुम पर बहुत बड़ा दण्ड आएगा। सो उन्होंने उसके पैर काटे (अर्थात् एक कज़ाज़ नामक व्यक्ति ने उस कौम के कहने पर ऊँटनी के पैर काट डाले)  (सालिह ने) फ़रमाया ज़िन्दा रहो तुम अपने घरों में तीन दिन फिर तुम वध कर दिए जाओगे।

—जलालैन

सूरते बनी इसराईल में कहा है—

व आतैना समूदुन्नाकतामब्सिरतुन फ़ज़लमू बिहा।

—(बनी इसराईल 58)

हमने समूद की ओर ऊँटनी को भेजा वह प्रकट निशानी थी सो उन्होंने उसका इन्कार किया। (अतः वे नष्ट हो गए)

तफ़सीरे हुसैनी में इस आयत की व्याख्या में कहा है—

समूद अज़ सालिह मोजिज़ा तलब करदन्द व ख़ुदाए बराए एशां अज़ संग नाका बेरूं आवुरद।

समूद ने सालिह से चमत्कार माँगा और ख़ुदा ने उनके लिए पत्थर से ऊँटनी उत्पन्न कर दी।

सूरते शुअरा में फ़रमाया है—

काला हाज़िही नाकतुन लहा शिरबुन वलकुम शिरबो योमिन मालूम।

—(सूरते शुअरा)

कहा यह ऊँटनी है उसके लिए पानी का एक भाग निश्चित है और तुम्हारे लिए एक निश्चित दिन का भाग।

—जलालैन

मूज़िहुल कुरान में इसी स्थान पर फ़रमाया है—

वह छूटी फिरती….जिस सरोवर पर पानी को जाती सब पशु वहाँ से भागते तब यह निश्चित कर दिया गया कि एक दिन पानी पर वह जाए एक दिन औरों के पशु जाएँ।

सूरते शमस में यह वार्ता इस प्रकार वर्णन की गई है—

फ़कालालहुम रसूलुल्लाहे नाकतुल्लाहे व सकयाहा फ़कज़िबूहा फ़अकरुहा फ़दमदमा अलै हुम रब्बुहुम बिज़नबिहिम फसब्वाहा।

—(सूरते शमस आयत 13-14)

फिर कहा उनको अल्लाह के रसूल ने सावधान हो अल्लाह की ऊँटनी से और उसके पानी पीने की बारी से फिर उसको उन्होंने झुठला दिया फिर वह काट मारी और फिर उल्टा मारा, उन पर उनके रब ने उनके पाप से फिर बराबर कर दिया।

—जलालैन

भला यह ऊँटनी क्या हुई! पत्थर से निकली और उसका अधिकार यह कि जिस दिन वह पानी पीए और पशु न पीवें आखिर अल्ला मियाँ की जो हुई। यह भी अच्छा हुआ कि पत्थर से कोई मनुष्य नहीं निकला नहीं तो मनुष्यों के लिये पानी का अकाल हो जाता। कोई पूछे कि इस चमत्कार से मनुष्य का क्या बना? और दयालु परमात्मा का क्या?

हज़रत नूह

लगभग हज़ार बरस जिए

सूरते अनकबूत में हज़रत नूह का वर्णन हुआ है। फ़रमाया है—

वलकद अरसलना नूह न इला कौमिहि फ़लबिसा फ़ीहिम अलफ़ा सनतिन इल्ला ख़मसीना आमन।

—(अनकबूत आयत 14)

और हमने भेजा नूह को उनकी कौम के पास। फिर रहे वे उनमें 50 कम 1 हज़ार बरस तक।

तफ़सीरे हुसैनी में इस आयत पर कहा है—

नूह चहल साल मबऊसशुद व नह सदपंजाह साल ख़लक रा बख़ुदा दावत करद। बाद अज़ तूफ़ान शस्त साल ज़ीस्त दर अहकाफ़ अज़ दहब नकल कुनन्द कि उम्रे नूह हज़ार व चहार सद साल बूद, साहब ऐनुलमआनी फ़रमूद कि सी सद व हफ़्ताद साल मबऊस शुद व नो सद व पंजाह साल दावत करद, बाद अज़ तूफ़ान सी सद व पंजाह साल ज़ीस्त।

नूह अलैहस्सलाम चालीस साल की आयु में पैग़म्बर हुए और नौ सौ पचास वर्ष तक लोगों को ख़ुदा का सन्देश देते रहे। तूफ़ान के पश्चात् साठ वर्ष जीवित रहे। अहकाफ़ में वह बसे रिवायत (वर्णनवार्ता) है कि नूह अलैहस्सलाम की आयु एक हज़ार चार सौ वर्ष थी। लेखक ऐनुलमआनी फ़रमाते हैं कि तीन सौ सत्तर साल की आयु में पैग़म्बर हुए नौ सौ पचास साल प्रचार किया और तूफ़ान के पश्चात् 3 सौ पचास साल जीवित रहे।

हज़रत नूह की आयु कुछ भी हो उनकी प्रचार की अवधि का प्रारम्भ पचास वर्ष स्वयं कुरान में वर्णित है। इस प्रचार का प्रभाव यह कि थोड़े गिने-चुने लोगों के उनके साथियों के अतिरिक्त कोई भी सन्मार्ग पर नहीं आया और सब को तूफ़ान की बलि होना पड़ा।   सारी सृष्टि अल्लाह की बनाई और बनाई भी वैसी जैसी अल्लाह को स्वीकार था। अल्लाह ने कुछ को जन्नत के लिए कुछ को दोज़ख़ के लिए पहले से ही चुन लिया था फिर हज़रत नूह को कष्ट देने की क्या आवश्यकता थी? यदि दिया ही था तो कुछ परिणाम निकलना चाहिए था।

हज़रत मुहम्मद

चाँद तोड़ दिया

हज़रत मुहम्मद ने चमत्कार दिखाने से इन्कार तो किया था, परन्तु अनुयायियों के आग्रह से विवश हो गए हैं। सूरते कमर में आया है—

बक्तरबत स्साअता वन्शक्कलकमरो।

निकट आ गया प्रलय दिन और फट गया चाँद (चाँद के दो टुकड़े होना)। हज़रत का चमत्कार हुआ जिसकी माँग काफ़िरों के द्वारा की गई थी। आपने उसकी ओर संकेत किया। और वह दो टुकड़े हो गया।

चाँद अरब का था क्या?—कोई प्रश्न कर सकता है कि वह चाँद अरब का था या इस चमत्कार को देखने वालों का कोई विशेष चाँद था? या यही चाँद था जो संसार की सभी जातियों के लिए सामान्य है? यदि सामान्य था तो क्या कारण है कि अरब के बाहर के लोग इस चमत्कार के साक्षी न हुए। वास्तव में यह चमत्कार ज्योतिष विद्या के इतिहास में कुछ कम महत्त्व का नहीं था कि हज़रत मुहम्मद की घटना उनके लेखकों के अतिरिक्त किसी और का ध्यान न खींचती। अपना-अपना भाग्य है इस गौरव से और लाभान्वित न हुए!

सूरते बनी इसराईल में कहा है—

सुबहानल्लज़ी असराबि अब्दिही लैलन मिनल मस्जिदल अकसा अल्लजी बरकना हौलहू लिनरीहू मिन आतेना।

—(सूरते बनी इसराईल आयत 71)

पवित्र है वह सत्ता कि अपने बन्दे को (मुहम्मद साहब को) रात में मस्जिदे हराम (अर्थात् मक्का) से मस्जिदे आकसा (बैतुल मुकद्दस-पवित्र घर) की ओर ले गया……जिसकी हर ओर से हमने बरकत दी……..कि उसको विचित्रताएँ व चिह्न दिखलाए…. आपकी भेंटें पैग़म्बरों से हुई व आपको आसमानों की ओर चढ़ाया………वास्तव में हज़रत सलअम ने फ़रमाया कि मेरे पास बुराक लाया गया कि वह एक सफ़ेद जानवर है गधे से बड़ा व खच्चर से छोटा उसके पैर वहाँ तक पड़ते हैं जहाँ तक उसकी दृष्टि पड़े सो मैं उस पर सवार हुआ। वह मुझको ले गया। यहाँ तक कि मैं बैतुल मुकद्दस पहुँचा। वहाँ मैंने अपनी सवारी को उस हलके (घर) में बाँधा जिसमें और पैग़म्बर अपनी सवारियाँ बाँधते थे।

—जलालैन

इसके पश्चात् आसमानों पर जाने का वर्णन है, द्वार खटखटाया जाता है, प्रश्न होता है कौन? हज़रत जिबरईल फरमाते हैं हज़रत मुहम्मद? पूछा जाता है। क्या वह पैग़म्बर हो गए? स्वीकारात्मक उत्तर मिलने पर द्वार खोल दिया जाता है। इस प्रकार विभिन्न आसमानों पर विभिन्न सम्मानीय पैग़म्बरों की भेंट के पश्चात्—

फिर मैं पहुँचा सदर तुलमुन्तहा (सर्वोच्च गन्तव्य स्थल) तक। उसके पत्ते ऐसे जैसे हाथी के कान और उसके फल ऐसे जैसे मटका। जब उस बेरी के वृक्ष को घेर लिया, अल्लाह के आदेश से उस वस्तु ने जिसने घेर लिया वह आश्चर्यचकित हो गया।…..आपने फ़रमाया मेरी ओर जो ईश्वरीय सन्देश मिला है वह प्रकट करने योग्य नहीं…….।

—जलालैन

हज़रत की उम्मत (समुदाय) पर पचास नमाजें  फर्ज़ हुर्इं। हज़रत वापिस लौटे, परन्तु सम्मानीय पैग़म्बरों ने समझाया1[1. नोट—यहाँ मूसा का वर्णन ।] बोझ तुम्हारे अनुयाइयों से सहन न हो सकेगा। हज़रत बार-बार ख़ुदा की सेवा में गए और वहाँ से लौटे अन्त में नमाज़ों की संख्या पाँच करा ली। हज़रत मूसा ने इसमें भी कमी कराने का परामर्श दिया तो फ़रमाया—

“मैं अनेक बार अपने रब के पास जा चुका हूँ अब मुझको लज्जा आती है। इस हदीस को बुख़ारी व मुस्लिम ने उद्धृत किया है और यह शब्द मुस्लिम के हैं।”

—जलालैन

इसमें सन्देह नहीं कि इस चमत्कारी यात्रा के विवरण कुरान के भाष्यों में लिखे हुए हैं। स्वयं कुरान में मस्जिद हराम से मस्जिदे अकसा तक एक रात में जाना वर्णन किया है। वह उस समय   कि यह  चमत्कार था, परन्तु आज गुब्बारों व विमानों का युग है। इस समय इसे कौन चमत्कार मान सकता है?

चमत्कार और भी बहुत से हैं, परन्तु यहाँ जैसे बहुतों में से कुछ नमूने के रूप में दिए हैं केवल कुछ चुने गए हैं। पाठक के लिए विचारणीय बात यह है कि क्या इन चमत्कारों से परमात्मा की किसी विशेष शक्ति का आभास होता है जो सृष्टि की कल को सामान्यतया चलाने से अधिक कठिन है? क्या इन चमत्कारों से परमात्मा के प्यारों की किसी विशेष महानता का आभास होता है जिससे उनकी पदवी बुद्धिमानों की दृष्टि में ऊँची हो? कहीं इन प्रकृति नियम के विरुद्ध कर्मों से यह तो प्रकट नहीं होता कि प्रकृति का नियम बेदाद नगरी अन्यायी नगरी का सा कानून है जो तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है।

यहाँ कर्मों की इतनी परवाह नहीं जितनी अपने प्यारों की प्रतिष्ठ व अपमान की है। लोगों ने एक मार्गदर्शक का कहना नहीं माना। बिना यह विचारे कि वह उपदेशक कैसे चरित्र का है। लोगों के लिए खून की वर्षा, नूह का तूफ़ान और न जाने क्या-क्या तैयार है। लोगों को अपना श्रद्धालु बनाने के लिए उपाय क्या-क्या प्रयोग किए जा सकते हैं। जादूगरी, डण्डे को साँप बना दिया। क्या इसी को धर्म व सत्य का प्रचार कहते हैं? इन खेलों से कहीं महान् गौरवशाली सच्चे कार्य सृष्टि-रचना में दिन-रात हो रहे हैं।

क्या बिना बाप के सन्तान उत्पन्न होने में परमात्मा की महानता का अनुमान होता है और माता- पिता दोनों के होते सन्तानोत्पत्ति होने में परमात्मा का कोई हाथ नहीं? बूढ़े के बच्चा हो जाना परमात्मा का चमत्कार है और युवक के पुत्र होना परमात्मा की कारीगरी का खण्डन है? ऊँटनी ने हज़रत सालिह के व्यक्तित्व में किस बड़प्पन की वृद्धि की? सच्चाई यह है कि परमात्मा पर विश्वास की निर्भरता यदि नित्य प्रति के साधारण कार्यों व घटनाओं पर रखो तो आज भी स्थिर रहेगा कल भी और जो किसी बीते काल के चमत्कारी कथानकों पर निर्भरता ठहरी तो जिस समय के लोग कहानियों से ऊपर उठकर वर्तमान परिस्थितियों के अभिलाषी हुए जैसे आज कल हैं उस काल में नास्तिकता ही नास्तिकता का सिक्का बैठ जाएगा। मनुष्य चरित्र से पूजा जा सकता है तथा परमात्मा अपने नियमों की सुदृढ़ता व अटलता से। जिसे न उसके (मत के अनुयायी) अपने तोड़ सकें न पराये ही।

कयामत की रात : पं॰ श्री चमूपतिजी एम॰ ए॰

 

कयामत की रात

 

एकदम अल्लाह को क्या सूझा?—पिछले अध्याय में अल्लाताला के न्याय के रूपों को तो एक दृष्टि से देख ही लिया गया! क्या ठीक हिसाब किया जाता है। अब हम इस न्याय की कार्य पद्धति देखेंगे। इसके लिए कयामत के दिन पर एक गहरी दृष्टि डाल जाना आवश्यक है, क्योंकि न्याय का दिन वही है।

मुसलमानों की मान्यता है कि सृष्टि का प्रारम्भ है। सृष्टि एक दिन प्रारम्भ हुई थी। पहले अल्लाह के अतिरिक्त सर्वथा अभाव था। एक दिन ख़ुदा ने क्या किया कि अभाव का स्थान भाव ने ले लिया। किसी के दिल में विचार आ सकता है कि इससे पूर्व अल्लाह मियाँ क्या करते थे? उनके गुण क्या करते थे? जो काम पहले कभी न किया था वह अकस्मात सूझा कैसे? क्या यह अल्लामियाँ के जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं था कि पहले अकेले विद्यमान थे और अब अपनी सत्ता में किसी और को भी सम्मिलित कर लिया? एकत्व से उकता गए थे क्या? वृद्धावस्था कुछ मनोरंजन चाहती थी? कुछ हो संसार पैदा हो गया।

इसमें असमान तत्त्व भी रख दिए। क्योंकि उसके बिना संसार का कारोबार न चलता था। असमानता में क्या नियम कार्य करता था? प्रकटरूप से अल्लाह मियाँ की इच्छा के अतिरिक्त और कोई नियम बरता ही नहीं गया। यह भी हुआ। हज़रत ने आत्माएँ उत्पन्न कीं। उनको काम करने की सामर्थ ही नहीं प्रदान की। कार्य भी निश्चित कर दिए। किसी के भाग्य लेख में पवित्रता लिखी गई। किसी के भाग्य में पाप करना। पाप कर्म का साधन शैतान को निश्चित किया गया। दोज़ख़ भर देने का निर्णय ख़ुदाई न्यायालय से प्रारम्भ से ही कर दिया गया था, इसमें जाने वाले, जलने वाले सब निश्चित हैं।

परन्तु अब एक दिन आना है जब अल्लामियाँ न्याय की कुर्सी को शोभा प्रदान करेंगे और कर्मों का फल दिया जाएगा। हम परेशान हो रहे हैं कि कर्म किसके? बदला क्यों? परन्तु अल्लाह मियाँ की इच्छा है कि करे कराए तो आप ही परन्तु बदला हमें दे। दे दें। इसके लिए दरबार लगाना क्या आवश्यक है? भाग्य लेख तो हमारा प्रारम्भ से ही निश्चित है फिर इस दिन नूतन क्या होगा? यदि इस दरबार लगाने का नाम ही न्याय है तो हमारा विनम्र निवेदन है कि यह न्याय का स्वांग एक ही दिन क्यों किया जाता है? कहीं इससे अल्लामियाँ के न्याय के गुण में अस्थाई होने का दोष तो लागू नहीं होगा 1?

[1. डॉ॰ जेलानी पहले मुस्लिम विचारक हैं जो अल्लाह द्वारा प्रतिपल न्याय देना मानते हैं। देखिये उनकी पुस्तक ‘अल्लाह की आयत’।   —‘जिज्ञासु’]

कयामत से पूर्व इस गुण का कोई प्रयोग नहीं और इसके पश्चात् भी कोई प्रयोग की अवस्था नहीं होगी।

ख़ैर आइए! इस दरबार का दर्शन करें। इस दरबार की भूमिका रूप में अवस्थाएँ बयान की गई हैं—

व तरल जिबाला तहसबहा जामिदतुन वहिया तमरुमर्रा अस्सहाबे।

—(सूरते नमल आयत 88)

और देखेगा तू पहाड़ों को कि अनुभव करेगा तू उनको जमे हुए और वह चलेंगे बादलों की भाँति।

व इज़ा रुज्जतिल अरज़ो रज्जन, व बुस्सतिल जवालो बुस्सन।

—(सूरते वाकिया आयत 4-5)

जब हिलाई जाएगी भूमि भली प्रकार और टुकड़े हों पहाड़ टूटकर।

व इज़श्शमसो कुर्रिरत व इज़न्नजूमो उन्कदिरत व इजल जवालो सुय्यरत व इज़स्समाओ कुशितत।

—(सूरते तकवीर आयत 1-2-3,11)

जब सूरज को लपेटा जाएगा और तारे गदले हो जाएँगे और जब पहाड़ चलेंगे और जब आसमान की खाल उतारी जाएगी।

सूरज लपेट दिया गया तो प्रकाश न हो सकेगा रात हो जायेगी। इसी विचार से स्वामी दयानन्द कयामत का दिन नहीं ‘रात’ लिखते हैं। अन्तिम आयत पर जलालैन ने लिखा है—

जैसे बकरी का चमड़ा उतारा जाता है।

व इज़स्समाउन्कतरनो, व इज़लकवाकिबो उन्तरसरत व इज़ल बिहार फुज्जिरत व इज़ल कबूरो बुइसरत।

—(सूरते इनफ़ितार आयत 1-4)

जब आसमान फट जावे, जब तारे झड़ जाएँ जब दरिया चीरे जाएँ, जब कबरें उठाई जाएँ।

कबरों का अर्थ यहाँ भाष्यकारों ने कबरों में लेटे मुर्दे किया है। वे मुर्दे शरीरों के साथ उठेंगे या इसके बिना1 ?

[1. अब श्री फारूकी आदि ने ये अर्थ बदल दिये हैं।   —‘जिज्ञासु’]

उठना बिना शरीर के क्या होगा? इस्लाम के अनुयायियों का सिद्धान्त यही है कि शरीर के साथ उठेंगे। वह शरीर कहाँ से आएगा? शरीर तो जर्जरित हो चुका और वह कब्र में मिलजुल गया। अब कब्र का उठना या शरीर का उठना एक ही बात है। और जो कबरें इससे पूर्व नष्ट हो चुकेंगी वह? कुछ होगा। यह हुई कब्रों की बात। अब तारे। ऊपर तो तारों को गदला (बुझे हुए) ही किया था, यहाँ झाड़ दिया है और दरिया चीरने से न जाने, क्या आशय है?

वजउश्शमसे व लकमरे।

—(शूरते कयामत आयत 9)

और इकट्ठा किया जाएगा सूरज और चाँद।

इस पर तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है—

यानी एशां रा बयक दीगर मज्तमअ साख्ता दर दरिया अफ़गन्द।

अर्थात् इन दोनों को इक्ट्ठा करके दरिया में डाल देंगे।

क्या उस चीरे हुए दरिया में? लीजिए अब तो प्रकाश का कोई साधन न रहा। सूरज का ही लपेटा जाना (इसके अर्थ कुछ भी हों) प्रकाश को समाप्त हो जाने के लिए पर्याप्त है, क्योंकि चाँद भी तो सूरज से ही प्रकाश पाता है। परन्तु यहाँ सूरज चाँद सितारे सब कुछ झड़ गया है। कोई लपेटा गया है, कोई दरिया में डाल दिया है। इसी कयामत के दिन को रात ही नहीं घुप अन्धेरी रात कहना चाहिए। यह सब निशानियाँ लिखते हुए हम एक बात भूल गए वह है नरसघे का फूँका जाना। वह पहली बार तो इन सारी अवस्थाओं के प्रकट होने से पहले बजेगा और एक बार कब्रों के उठने पर।

वनफ़ख़ा फ़िस्सूरे फ़इजाहुम मिनल अजदाते इलारब्वहुम यन्सिलून।

—(सूरते यासीन आयत 51)

और फूँका जाएगा नरसघा। फिर अचानक वह कबरों में से अपने परवरदिगार (परमात्मा) की ओर दौड़ेंगे।

इस आयत से तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सारी कब्र न दौड़ेगी उसका एक भाग शरीर बनकर दौड़ेगा। परन्तु हम तो यह देख रहे हैं कि एक कब्र क्या कब्रिस्तान के कब्रिस्तान नष्ट होते जाते हैं। उनके स्थान पर शहर बस रहे हैं। यह और बात है कि पहले पहल कब्रों के खुदने से रोग फैलने की आशंका होती है। वैज्ञानिकों की सम्मति है कि मुर्दे गाड़ने की रस्म स्वास्थ्य के नियमों के विरुद्ध है। इसी बात को ध्यान में रखकर योरोप व अमरीका में मुर्दे जलाने का रिवाज बढ़ रहा है। मुर्दों के उठने की भी एक योजना बताई है—

वल्लाहल्लज़ी अरसलर्रीहा फ़तुशीरो सहाबन फ़सुकानहू इलाबलदिन मय्यतिन फ़अहयैनाबिहिल अरज़ा बादो मौतिहा कज़ालिकन्नशूर।

—(सूरते फ़ातिर आयत 8-9)

और अल्लाह वह है जिसने भेजा हवाओं को, फिर उठाया बादलों को, फिर हाँक लाते हैं उसको शहरों की ओर फिर जीवित किया हमने उससे ज़मीन को उसकी मृत्यु के पश्चात्। इस प्रकार मुर्दे उठाए जाएँगे।

मिश्कात किताब फ़तन बाब नफ़ख़ फ़िस्सूर में लिखा है—

काला व लैसा मिनल इन्साने शैउन लायबली इल्लल उज़मा वाहिदहू व हुवा अजबुज़्ज़नबो व मिनहू यरकिबुल ख़लका योमिल कयामते।

कहा और नहीं मनुष्य में कोई ऐसी वस्तु जो पुरानी न हो जाए। एक हड्डी के अतिरिक्त और वह रीढ़ की हड्डी के नीचे की हड्डी है और इससे संसार की रचना होती है कयामत के दिन।

कहा जाता है कि यह हड्डी कयामत के दिन गले सड़े बिना सुरक्षित रहेगी। यह बीज का काम देगी जिससे सारा शरीर नवीन बनाया जायेगा। यह काम चालीस दिन की वर्षा से होगा जो अल्लाहताला भेजेगा। जो भूमि को आठ बलिश्त तक ढाँप लेगी और उसके इस काम से शरीर पौधों की भाँति उग आएँगे।

यह कयामत का प्रारम्भ है इसकी अवधि दो सूरतों में वर्णन की है—

सूरते सजदा में कहा है—

फ़ीयोमिन काना मिकदारहू अलफ़ा सिनत्तिन मिम्मात अदून।

—(सूरते सजदा आयत 4)

एक दिन में जिसकी मात्रा हज़ार वर्ष है तुम्हारे गणित से।

तफ़सीरे जलालैन में इस आयत पर लिखा है—

आशय हज़ार वर्ष के दिन से कयामत का दिन है। परन्तु सूरते मआरिज़ में हम एक और अवधि पाते हैं—

तअरजुल मलाइकतो वर्रुहो इलैहे फ़ीयोमिन काना मिकदारहू रवमसीना अलफ़ा सनतिन…….योमा यरवरजूना मिनल अजदाते सिराअनकअन्नहुम इलानुसुबिन युविफ़्फ़ज़ून।

—(सूरते मआरिज आयत 4)

चढ़ते हैं फ़रिश्ते और रूहें तरफ़ उसके उस दिन में जिसकी अवधि है पचास हज़ार साल………जिस दिन निकलेंगे कब्रों से दौड़ते हुए जैसे किसी निशानी पर दौड़ते हैं।

इन दो संख्याओं के मतभेद का निवारण कैसे हो? पहली संख्या के साथ गुण की वृद्धि की है और वह संख्या तुम्हारी गिनती के अनुसार है सम्भव है जो अवधि मनुष्यों की गिनती में एक हज़ार वर्ष होती है वह किसी और सृष्टि की गिनती में पचास हज़ार साल हो जाती हो।

गुत्थी सुलझा ली गई—तफ़सीरे जलालैन में इस गाँठ को यह कहकर खोला है—

दूसरी सूरत में पचास हज़ार साल फ़रमाया है यह लम्बाई कयामत की काफ़िरों को अनुभव होगी।

इन पचास हज़ार वर्षों में होगा क्या? मूजिह कुरान तो पचास हज़ार पर कहता है, जब से मुर्दे निकलेंगे जब तक दोज़ख़ बहिश्त भर जाएँगे।

तफ़सीरे हुसैनी में इस स्थान पर लिखा है—

दर अरसा हाए कयामत पंजाह मौतन व मौकफ़ ख़्वाहद बूद, व ख़लायक रा दर हर मौकफ़े हज़ार साल वाज़ दारन्द, व बयाने मवाकिफ़ दर जवाहरुत्तफ़ासीर अस्त।

कयामत के मैदान में पचास पड़ाव व ठहराव होंगे। लोगों को हर ठहराव पर पचास हज़ार साल रोका जाएगा। इन ठहरावों का वर्णन जवाहरुत्तफ़ासीर में है।

अब जरा कयामत की कार्यवाही के विवरण का दर्शन करें। चालीस दिन की बरसात से पौधों की भाँति कब्रों से उत्पन्न हुए मुर्दा मनुष्य दौड़कर न्यायालय के स्थान पर पहुँच चुके हैं। प्रत्येक को उसके भाग्य का पर्चा मिलता है। इसीलिए सूरते बनी इसराईल में आया है—

व कुल्ला इन्सानिन अलज़मनाहू ताइरतुन फ़ीउनकिही व युख़रजोलहु योमल कयामते किताबन यलकाहो मन्शूरन।

—(सूरते बनी इसराईल आयत 13)

और प्रत्येक व्यक्ति के लिए लगा दिया है हमने कर्म लेख उसका बीच उसकी गर्दन के और निकालेंगे हम उसके लिए कयामत के दिन एक पुस्तक (के रूप में) देखेगा उसको खुला हुआ।

इस पर तफ़सीरे जलालैन में लिखा है—

मुजाहिद ने कहा कि कोई बच्चा ऐसा नहीं जिसकी गर्दन में उसके एक कागज होता है उसमें यह लिखा होता है कि यह सौभाग्यशाली है या दुर्भाग्यशाली (अभागा)।

तफ़सीरे हुसैनी में इस वाक्य की भूमिका में लिखा है—

दर ज़ादुलमसीर अज़ मुज़ाहिद नकल मे कुनद।

जादुलमसीर में मुजाहिद से यह उद्धृत हुआ है।

इस कथन के बाद लिखा है—

यानी आँचे तकदीर करदा अन्द अज़ रोज़े अज़ल अज़ किरदारे ओ, लाज़िम साख्ता अन्द दर गर्दने ओ यानो ओ रा चारा नेस्त अज़ां।

अर्थात् जो भाग्य आरम्भ के दिन से उसके लिए कर्मों के लिए निश्चित कर दिए वह उसकी गर्दन में लटका दिया, अर्थात् उससे वह बच नहीं सकता।

दर ऐनुलमआनी गुफ़्ता कि तायर1 आं किताब अस्त कि रोज़े कयामत परां-परां बदस्ते बन्दा आयद।

1 [1. तायर शब्द का अर्थ पक्षी है। यह पक्षी रूपी पुस्तक कैसी होगी इसकी कल्पना करना अति कठिन है। न जाने इसके पृष्ठ कितने होंगे? —‘जिज्ञासु’]

तायर रूपी पुस्तक—ऐनुलमआनी में कहा है कि तायर  वह किताब है जो कयामत के दिन उड़ती-उड़ती बन्दे के हाथ आएगी।

प्रत्येक व्यक्ति के कर्म प्रारम्भ से ही नियत हैं। अटल भाग्य ने कर्मों का लेख बना दिया। इसमें हेर-फेर तो हो नहीं सकता। इसके अनुसार ही प्रत्येक व्यक्ति ने कार्य किया होगा। अब वह कर्मों का लेखा उसके हाथ में दे दिया जाता है।

व वज़अलकिताबा।

—(सूरते ज़मर आयत 67)

और रखे जाएँगे कर्म के हिसाब।

इस कर्म लेख के हिसाब में भी बहिश्त व जन्नत में जाने वालों में परस्पर अन्तर होगा। अतः सूरते हाका में कहा है—

कअम्मा मनओ किताबहु वियमोनिही फ़यकूली अकरऊ किताबहु व अम्मामन ऊती किताबहु बिशमालिही फ़यकूलो यालैतनी लमऊते किताबिहा।

—(सूरते हाका आयत 19 व 25)

तब जिसके दाएँ हाथ में उसका कर्मों का लेखा दिया जाएगा वह कहेगा लीजिए पढ़ो मेरा कर्म-लेख………..और जिसको कर्मों का लेखा बाएँ हाथ में दिया जाएगा वह कहेगा ऐ काश! न मिलता मेरा कर्मों का लेखा।

इस देने के ढंग से ही निर्णय का पता तो लग ही गया। अब आगे और कार्यवाही से क्या लाभ? दोज़ख़ वाले दोज़ख़ के लिए बहिश्त वाले बहिश्त के लिए तैयार हो गए। परन्तु कानून व्यवस्था फिर व्यवस्था है। इसे अल्लामियाँ भी निरस्त नहीं करते।

इधर तो इन भाग्य लेखों को नित्य कहा है। अब कहते हैं—

वल्लाहो यकतुबो मायुबेतून।

—(सूरते निसा आयत 81)

और अल्लाह लिखता है जो यह ठहराते हैं।

तफ़सीरे हुसैनी में इस पर लिखा है—

ख़ुदा मे नवीसद दरलोहे महफ़ूज़ या किरामुल कातिबीन ब अमरे ख़ुदा मे नवीसन्द।

ख़ुदा लोहे महफ़ूज़ में लिखता है या लिखने वालों में सम्मानीय ख़ुदा की आज्ञा से लिखते हैं।

नित्य लेख की पुष्टि की जाती है? या नया लेख लिखा जाता है? सम्भवतः पैंसिल के लेख पर स्याही या कोई रंग चढ़ाया जाता हो। इस प्रकार के स्मरण लेख रखने की उन्हें आवश्यकता होती है जिन्हें भूल जाने का भय हो, संसार का ज्ञान रखने वाले अल्लामियाँ को इतना दफ्तर रखने की क्या आवश्यकता पड़ी है? व्यर्थ की लेखकों में श्रेष्ठों की मेहनत। इतनी मात्रा में लेखन सामग्री का अपव्यय क्यों किया जाता है?

फिर यह भी तो आवश्यक नहीं कि स्मृतियाँ कर्मों का सही रोज़नामचा हों। क्योंकि एक और जगह फ़रमाया है—

व यमहू अल्लाहो मायशाओ।

—(सूरते रअद आयत 39)

और मिटा देता है अल्लाह जो चाहता है।

तफ़सीरे हुसैनी में इस आयत पर लिखा है—

आंचे अज़ बन्दा सादिर शुवद अज़ अकवालो अफ़आल हमा रा वनवीसन्द आं दफ्तर रा बमवमाकिफ़ अरज़ रसानन्द, हक्के सुबहानहू कोलो फ़ेले कि सवाबो व ख़ताए बदां मुतफ़र्रअनेस्त महव कुनद व बाकी रा मसबत बिगुज़ारद या सैय्याते ताइब रा महव कुनद।

जो कुछ बन्दे से काम होता है उसका लेखा वाणियों व कर्मों की दशा में वह सब लिखते हैं और उस रजिस्टर को पेश करते हैं। ख़ुदा-वन्द उस वाणी व कर्म को कि कोई पुरस्कार या दण्ड उससे कल्पनीय नहीं मिटा देते हैं व शेष को लिखा रहने देते हैं या तौबा करने वाले की बुराइयों को मिटा देते हैं।

जब यह शासकीय अधिकार भी काम में आते रहते हैं तो लिखना व्यर्थ है, परन्तु हाँ, कचहरी की परम्परा का पालन होना चाहिए। अल्लामियाँ ने स्वयं या फ़रिश्तों ने लिखा और अल्लामियाँ ने संशोधन करके पुष्टि कर दी, परन्तु कचहरियों में तो साक्षी भी होते हैं। अल्लाहमियाँ की कचहरी बिना साक्षियों के कैसे रहे? फ़रमाया है—

योमा नदऊ कुल्ला अनासिन बिइमामिहिम।

—(बनी इसराईल आयत 71)

जिस दिन बुलाएंगे सब मनुष्यों को उनके इमाम पेशवा मार्गदर्शकों के सहित।

बजाआ बिन्नबीयिन्ना व श्शुहदाए कज़ाबैनहुम बिलहक्के।

—(सूरते ज़ुमर आयत 69)

और लाए जाएँगे पैग़म्बर और साक्षी और निर्णय किया जाएगा उनमें न्याय से।

तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है कि साक्षियों से तात्पर्य—

मुराद उम्मते मुहम्मद अस्त।

तात्पर्य हज़रत मुहम्मद की उम्मत से है।

परन्तु नहीं, साक्षी कुछ और भी है—

व योमा तशहदो अलैहिम अलसनतहुम व ऐदिहिम व औजलहुम बिमा कानूयअमलून।

—(सूरते नूर आयत 24)

जिस दिन साक्षी देंगी उन पर उनकी वाणियाँ और उनके हाथ और उनके पाँव। जिनसे वह काम करते थे।

व तशहदो अरजलहुम बिमा कानूयकसिबून।

—(सूरते यासीन आयत 65)

और गवाही देंगे पाँव उनके जो कुछ वह कमाते थे।

हत्ताइज़ामाजाऊहा शहिदा अलैहिम समउहुम व अवसारिूहुम व जलूदुहुम बिमाकानूयअमलून। वा कालूलजुलूदहुम लिमा शाहिदा तुम अलैना कालू अन्तकनल्लाहुल्लज़ी अन्तका कुल्लाशैअन।

—(सूरते हम सजदा आयत 20-21)

यहाँ तक कि जब जाएँगे पास उसके, साक्षी देंगे उन पर कान उनके और आँखें उनकी और चमड़े उनके, जो कुछ करते थे और वह कहेंगे अपने चमड़ों से क्यों साक्षी दी तुमने हमारे ऊपर। वह कहेंगे बुलवाया हमको अल्लाह ने जिसने बुलवाया प्रत्येक वस्तु को।

एक एक अंग बोलेगा!—यह अन्तिम साक्षियाँ खूब रहीं, शरीरों के यह अंग कबर की मिट्टी में मिट्टी हो चुके। रहा केवल रीढ़ की हड्डी का निचला भाग। इस पर वर्षा पड़ने से शरीर उगेगा। कयामत की कचहरी में पहुँचे तो इन अंगों को वाणी भी मिल गई, क्या यह वही अंग नहीं जो संसार में थे? परन्तु अब तो मिट्टी नहीं रही। बनाएँगे किससे? यदि यह सारी वाक्य रचना केवल अलंकारिक है तो वह तो नित्य प्रति हो ही रहा है।

अपराधी की आँखें अपराध की स्वीकृति तो देती हैं? कयामत में विशेष क्या होना है? चमड़ा कहता है। मुझे बुलवाता है अल्लाह मियाँ। क्या वही बात बुलवाता है जो चाहता है या बोलने की स्वतन्त्रता है? स्वतन्त्रता न रही तो साक्षी विश्वसनीय न रही। अल्लाहमियाँ की इच्छा हो तो क्या स्वयं कर्त्ता अपने अपराध को स्वीकार करने को तैयार नहीं? वह विचारा तो बाएँ हाथ में कर्मों का लेखा मिलते ही काँप गया था। फिर और साक्षी की आवश्यकता क्या पड़ी थी? क्या केवल औपचारिकता पूरा करनी थी? यह तो केवल कम ज्ञान वालों के लिए होता है।

सर्वज्ञ का अपना ज्ञान पर्याप्त है फिर यहाँ तो प्रत्येक के कार्यों का लेखा स्वयं बना दिया है प्रारम्भ से ही जिससे बाल बराबर भी इधर-उधर नहीं हो सकता। इसके बाद ख़ुदा के अपने हिसाब रखने वाले निश्चित हैं। वे इस बात के उत्तरदायी हैं कि जो कुछ भी नित्य सत्ता का लेख है वह पूरी तरह कार्यान्वित हुआ है। सम्भव है कि वह दूसरा रजिस्टर तैयार करते हों जिसकी लोहे महफ़ूज़ से मिलान की जाती हो फिर अल्लामियाँ अपने पवित्र हाथों से उसमें घट बढ़ करते हैं।

नबियों व उनके समुदाय की साक्षी अलग है। फिर प्रत्येक कर्त्ता को वाणी प्रदान की जाती है और वह कर्त्ता की इच्छा के विरुद्ध पर्चा फड़वा देते हैं। साक्षी के विषय का स्वयं निर्णय देते हैं या कोई और? इसमें सन्देह है।

कचहरी की कार्यवाही पूरी है। हाँ! कमी है तो केवल वकील की व युक्ति की, भला सर्वज्ञ न्यायकारी को इसकी क्या आवश्यकता है? मगर फिर दूसरे प्रावधानों की क्या आवश्यकता? और यदि यह आवश्यकता का प्रश्न एक बार चल पड़े तो फिर प्रारम्भ में ही अभाव से भाव में लाने की क्या आवश्यकता? पाप कराने की भी अच्छे भले अल्लामियाँ को क्या आवश्यकता? प्रारम्भ से अन्त काल तक अल्लामियाँ की इच्छा के चमत्कार हैं। यदि अब इन साक्षियों के पश्चात् कर्त्ता को बोलने की आज्ञा हो तो वह कहे— मुझसे अल्लाह ताला ने कराया है जो सबसे कराता है—

वही कातिल वही मुख़बिर वही मुन्सिफ़ भी।

अकरिबा मेरे करें ख़ून का दावा किस पर॥1

[1. अर्थात् हत्यारा भी वही है, सूचना देने वाला भी वही है और इस अपराध के निर्णय के लिए न्यायाधीश भी उसीको बनाया जाता है। मेरे सगे-सम्बन्धी मेरी हत्या का केस किस पर करें? उर्दू के इस प्रसिद्ध पद्य का अर्थ देना हमने आवश्यक जाना।     —‘जिज्ञासु’]

अंगों ने साक्षी देने को दे दी, अब उन पर भी ‘फ़तवा’ ख़ुदाई आदेश लागू होता है। फ़रमाया है—

कल्लइल्लन लम यन्तही लनसफ़अन, नासियतुन काज़िबतिन ख़ातियतिन।

—(सूरते अलक आयत 15-16)

निश्चय ही हम उसको पेशानी के साथ घसीटेंगे वह पेशानी जो अपराधी व झूठी है।

दण्ड की विचित्र प्रक्रिया!—ऊपर मनुष्य को उसके अंगों से पृथक् कर दिया था। अनुमान हुआ था कि आर्य दर्शन की भाँति कुरान शरीफ़ भी मानव को चेतन कर्त्ता और उसके अंगों को अचेतन साधन निर्धारित करता है, परन्तु पेशानी (सिर का अग्र भाग) को दण्ड दिये जाने से अनुमान होता है कि सम्भव है नास्तिकों के सिद्धान्त के अनुसार यहाँ भी मस्तिष्क को कर्त्ता मानते हों।

क्योंकि आत्मा का स्वरूप कुरान शरीफ़ में वर्णन नहीं किया गया। यदि पेशानी भी शरीर के दूसरे अंगों की भाँति आत्मा से पृथक् है तो इस विचारी को दण्ड के लिए क्यों चुना गया? क्या दण्ड देते समय दूसरे अंगों को जो सरकारी साक्षी बने थे बरी कर दिया जाएगा? सांसारिक न्यायालयों में यह परम्परा है ख़ुदाई न्यायालय में भी सम्भव है ऐसा ही हो।

इस दशा में नरक की पीड़ा उठाने वाले मनुष्य का रूप व दशा क्या होगी? वाणी छूट गई, कान नहीं, आँखें निरस्त, चमड़ा अलग हो गया। पाँव भी गये। पेशानी भी बिना चमड़े की होगी जो घसीटी जायेगी। यदि कुछ अंगों को इसलिए छुट्टी मिल जाए कि उन्होंने सत्य साक्षी दी है और कुछ इसलिए कि उनका दुरुपयोग हुआ है तो दण्ड की पात्र केवल आत्मा ही रह जाए जो दर्शन के अनुसार उचित है, अचेतन के दण्ड के क्या अर्थ?

कुरान का उतरना

कुरान का उतरना

जो लोग परमात्मा के विश्वासी हैं और उसमें सत् ज्ञान की शिक्षा का गुण मानते हैं उनके लिए इल्हाम (ईश्वरीय सन्देश) पर विश्वास लाना आवश्यक है। परमात्मा ने अपने नियमों का प्रदर्शन सृष्टि के समस्त कार्यों में कर रखा है। इन नियमों का जितना ज्ञान मनुष्य को होता है उतना वह प्रकृति की विचित्र शक्तियों से जो स्वाभाविक रूप से उसके भोग के साधन हैं, उनसे लाभान्वित हो सकता है। मनुष्य के स्वभाव की विशेषता यह है कि विद्या उसे सिखाने से आती है। बिना सिखाए यह मूर्ख रहता है। अकबर के सम्बन्ध में एक कवदन्ती है कि उसने कुछ नवजात बच्चे एक निर्जन स्थान में एकत्रित कर दिए थे और केवल गूँगों को उनके पालन पर नियत किया था।

वे बच्चे बड़े होकर अपनी गूँगी वाणी से केवल वही आवाज़ें निकालते थे जो उन्होंने गूँगे मनुष्यों और वाणी रहित पशुओं के मुँह से सुनी थीं। कुछ वन्य जातियाँ जो किसी कारण से एक बार पाशविकता की अवस्था में पहुँच गई हैं स्वयमेव कोई बौद्धिक विकास करती दिखाई नहीं देतीं जब तक सभ्य जातियाँ उनमें रहकर उन्हें सभ्यता की शिक्षा न दें।

वे सभ्यता से अपरिचित रहती हैं। अफ़्रीका में कुछ गिरोह शताब्दियों से नंगे चले आते हैं यही दशा मध्य भारत की कुछ पहाड़ी जातियों की है। हाँ! एक बार इन जातियों के जीवन को बदल दो फिर वह उन्नति के राजमार्ग पर चल निकलती हैं। बच्चा भी विद्या का प्रारम्भ अध्यापक के पढ़ाने से प्रारम्भ करता है। परन्तु एक बार पढ़ने लिखने में निकल खड़ा हो फिर बौद्धिक विकास का असीम क्षेत्र उसके सन्मुख आ जाता है।

ज्ञान का स्रोत ही भाषा का आदि स्रोत है—मानव जाति इस समय बहुत-सी विद्याओं की स्वामी हो रही है। शासकों के सामने यह प्रश्न प्रायः आता रहा है कि इन विद्याओं का प्रारम्भ कहाँ से हुआ। मानवीय मस्तिष्क का उसकी बोल-चाल से बड़ा सम्बन्ध है। सभ्यता की उन्नति भाषा की उन्नति के साथ-साथ होती है। व्यक्ति और समाजें दोनों जैसे-जैसे अपनी भाषा की उन्नति करती हैं   त्यों-त्यों उनके मानसिक अवयवों का भी परिवर्तन व विकास होता जाता है।

वास्तव में ज्ञान के प्रारम्भ और भाषा के प्रारम्भ का प्रश्न सम्मिलित है। मानव के ज्ञान का जो प्रारम्भिक स्रोत होगा वही भाषा का भी स्रोत माना जाएगा।

मनोविज्ञान व भाषा विज्ञान के विशेषज्ञों ने इस समस्या पर बहुत समय विचार विनमय किया है। परमात्मा के मानने वाले सदा इस नियम के समर्थक रहे हैं कि भाषा और विद्याओं का आदि स्रोत समाधि द्वारा हुआ है। परमात्मा ने अपने प्यारों की बुद्धियों में अपने ज्ञान का प्रकाश किया वह प्रारम्भिक ज्ञान था। वेद में इस अवस्था को यों वर्णन किया गया है—

यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्।

—ऋग्वेद 10।71।3

उपासनीय परमात्मा से (ऋषियों ने) भाषा का मार्गदर्शन पाया और ऋषियों में प्रविष्ट हुई भाषा को (लोगों ने) तत्पश्चात् प्राप्त किया।

इस घटना की ओर संकेत प्रत्येक धार्मिक पुस्तक में पाया जाता है। कुरान शरीफ़ में पाया है—

व अल्लमा आदमल अस्माआ कुल्लहा।

—(सूरते बकर आयत 31)

बिना नामों के वार्तालाप कैसे? : अर्थात् सिखाये आदम को नाम सब वस्तुओं के।

यह और बात है कि इन आयतों में फ़रिश्तों का भी वर्णन है। उनसे अल्लाह ताला बातचीत करता है और आदम को श्रेष्ठता प्रदान की है कि उसे नाम सिखाए। फ़रिश्तों के साथ बातचीत बिना नामों के कैसे होती होगी यह एक रहस्य है। यह भी एक पृथक् प्रश्न है कि आदम को श्रेष्ठता प्रदान करने का क्या कारण था? और फ़रिशतों को इससे वञ्चित रखने का भी क्या कारण था? आदम को स्वर्ग से निकाले जाने की कहानी पिछले एक अध्याय में वर्णन की जा चुकी है। इस अवसर पर यह भी कहा गया है—

फ़तलक्का आदमामिन रब्बिही कलमातिन।

—(सूरते बकर आयत 37)

फिर सीखे आदम ने ख़ुदा से वाक्य।

परिणामस्वरूप यह सिद्ध है कि कुरान में इस्लाम का अस्तित्व सृष्टि के प्रारम्भ से माना है। कोई पूछ सकता है कि जो शंका तुम आदम को इल्हाम की विशेष श्रेष्ठता दिए जाने के सम्बन्ध में करते हो क्या वही शंका वेद के ज्ञान प्राप्त करने वालों के बारे में नहीं की जा सकती? उन्हें क्यों इस वरदान के लिए विशेषतया चुना गया। हम सृष्टि उत्पत्ति का क्रम अनादि मानते हैं। प्रत्येक नई सृष्टि में पुरानी सृष्टि के उच्चतम व्यक्तियों को ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करने को चुना जाता है। यह उनकी नैतिक व आध्यात्मिक श्रेष्ठता का स्वभाविक फल होता है। इस सिद्धान्त में उपरोक्त शंका का कोई स्थान नहीं। मुसलमानों को कठिनाई इसलिए है कि वे अभाव से भाव की उत्पत्ति मानते हैं। अब अभाव की दशा में विशेष वरदान नहीं दिया जा सकता, क्योंकि बिना योग्यता व कर्म के विशेष फल प्राप्त नहीं कराया जा सकता जिसका विशेष फल ईश्वरीय ज्ञान हो।

फिर भी मुसलमान इस सिद्धान्त के मानने वाले हैं कि आदम ने अल्लाह ताला से नाम व पश्चात् वाक्य प्राप्त किए थे। इस पर प्रश्न होगा कि क्या वह ज्ञान मानवीय आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त था? कुरान में कहा है कि नाम सभी वस्तुओं के सिखाए गए। स्वभावतः विज्ञान, सदाचार व आध्यात्मिकता यह सभी विद्याएँ उन नामों व वाक्यों में सम्मिलित होंगे। क्योंकि मानव भले ही उन्नति के किसी भी स्तर पर उत्पन्न किया गया हो उसकी आवश्यकताएँ वैज्ञानिक, नैतिक व आध्यात्मिक सभी प्रकार की होंगी।

मुसलमानों का एक और सिद्धान्त है कि अल्लाह ताला का ज्ञान लोहे महफ़ूज़ (आकाश में ज्ञान की सुरक्षित पुस्तक) में रहता है। सूरते वरुज में कहा है—

बल हुवा कुरानो मजीदुन फ़ीलोहे महफ़ूज।

—(सूरते बरुज आयत 21-22)

बल्कि वह कुरान मजीद है लोहे महफ़ूज़ के बीच। इस आयत की व्याख्या के सन्दर्भ में तफ़सीरे जलालैन में लिखा है—

इस (लोहे महफ़ूज़) की लम्बाई इतनी जितना ज़मीन व आसमान   के मध्य अन्तर है और इसकी चौड़ाई इतनी जितनी पूर्व व पश्चिम की दूरी 1 और वह बनी हुई है सफ़ेद मोती से।

—जलालैन

[1. पूर्व व पश्चिम की दूरी क्या है? रोहतक वालों के लिए देहली पूर्व में है और मथुरा वालों के लिये पश्चिम में है। पूर्व व पश्चिम में कोई विभाजक रेखा नहीं है, अतः यह दूरी वाला कथन अज्ञानमूलक है। —‘जिज्ञासु’]

तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है—

 

व ओ दर किनारे फ़रिश्ता अस्त व दर यमीने अर्श।

और उसे एक फरिश्ता है बगल में रखे, अर्श (अल्लाह का सिंहासन) के दाएँ ओर।

इस लोहे महफ़ूज़ को दूसरे स्थानों पर “उम्मुल किताब” (पुस्तकों की जननी) कहा है। दूसरे शब्दों में तमाम विद्या का आदि स्रोत। इस सिद्धान्त के होते यह प्रश्न अनुचित न होगा कि क्या हज़रत आदम की शिक्षा इसी लोहे महफ़ूज़ से हुई थी या इसके बाहर से? जब सारी वस्तुओं के नाम हज़रत आदम को सिखाए गए अपनी ज़ुबानी (बोली में अल्ला मियाँ ने सिखाए तो वह लोहे महफ़ूज़ ही पढ़ा दी होगी? दूसरे शब्दों में प्रारम्भ में पूर्ण ज्ञान ही दिया होगा। यदि ऐसा कर दिया तो हज़रत आदम के बाद कोई और पैग़म्बर भेजने की आवश्यकता नहीं रहती। मगर कुरान शरीफ़ में आया है—

वलकद आतैना मूसलकिताब व कफ़ैना मिन्बादिही ब रुसुलो।

—(सूरते बकर आयत 87)

और वास्तव में मूसा को किताब दी और लाए बाद में रसूलों को।

व इज़ा जाआ ईसा बिलबय्यनाते।

—(सूरते ज़खरुफ़ आयत 63)

और जब आया ईसा प्रकट युक्तियों के साथ

वलकद बअसना फ़ीकुल्ले उम्मतिन रसूलन।

—(सूरते नहल आयत 36)

और भेजें हैं हर समुदाय के बीच रसूल।

यही नहीं इन पैग़म्बरों और उनके इल्हाम पर ईमान लाना हर  मुसलमान के लिए आवश्यक है।

अल्लज़ीन योमिनूना बिमाउन्ज़िला इलैका वमा उन्ज़िला मिनकबलिक।

—(सूरते बकर आयत 4)

जो ईमान लाए उस पर जो तुझ पर उतारा गया और उस पर जो तुझसे पहले उतारा गया।

यह मुसलमानों को अनसूजा है—अब विचारणीय प्रश्न यह रहा कि अगर हज़रत आदम का इल्हाम सही व पूर्ण था तो उसके पश्चात् दूसरे इल्हामों की क्या आवश्यकता पैदा हो गई। हज़रत मूसा व हज़रत ईसा की पुस्तकें आजकल भी मिलती हैं उन्हीं से हज़रत मुहम्मद ने काम क्यों न चला लिया? इस पर मुसलमान दो प्रकार की सम्मितियाँ रखते हैं।

पहली यह कि हज़रत आदम मानव विकास की पहली कक्षा में थे उनके लिए इस तरह का ही इल्हाम पर्याप्त था अब वह अपूर्ण है। यही दशा उनके बाद आने वाले पैग़म्बरों व उन पैग़म्बरों के इल्हामों की है। इस मान्यता पर विश्वास रखने का तार्किक परिणाम यह होना चाहिए कि कुरान को भी अन्तिम इल्हाम स्वीकार न करें। क्योंकि यदि मानवीय विकास सही हो तो उसकी हज़रत मुहम्मद के काल या उसके पश्चात् आज तक भी समाप्ति तो हो नहीं गई।

फिर यह क्या कि इल्हाम का क्रम जो एक काल्पनिक  मानवीय विकास के क्रम के साथ-साथ चलाया जाए। वह किसी विशेष स्तर पर पहुँचकर पश्चात्वर्ती क्रम का साथ छोड़ दे। वास्तव में यह विकास का प्रश्न ही मुसलमानों का प्रारम्भिक विचार नहीं। यह विचार उन्हें अब सूझा है। जो लोग इस समस्या के समर्थक हैं उन्हें धार्मिक विकास की मान्यता के अन्य विषयों पर भी विचार करना होगा। धार्मिक उन्नति के अर्थ यह हैं कि पहले मनुष्य का कोई धर्म नहीं था। या कम से कम अनेक ईश्वरों का मानने वाला था, निर्जीव शरीरों को पूजता या फिर धीरे- धीरे उन्नति करके ईश्वरीय एकता का मानने वाला हुआ।

परन्तु कुरान में प्रत्येक पैग़म्बर के इल्हाम का एकेश्वरवाद को एक आवश्यक भाग माना गया है। प्रत्येक पैग़म्बर अपने सन्देश में यह मान्यता अवश्य सुनाता है। हज़रत मूसा का यह सन्देश दूसरी आयतों के अतिरिक्त सूरते ताहा आयत 50 में लिखा है। हज़रत ईसा का सूरते   मायदा आयत 111, में हज़रत यूसुफ का आयत 101 में। इसी प्रकार अन्य पैग़म्बरों के भी प्रमाण दिए जा सकते हैं।

कुरान के पढ़ने वाले इन कथनों से परिचित हैं। इन सन्देशों का आवश्यक और प्रमुख भाग ईश्वरीय एकता है। यदि यह विचार इससे पूर्व के सभी इल्हामों में स्पष्ट रूप से विद्यमान था तो फिर मुसलमानों के दृष्टिकोण से धार्मिक विकास के कोई अर्थ ही नहीं रहते।

वास्तव में इल्हाम और विकास दो परस्पर विरोधी मान्यताएँ हैं। यदि बौद्धिक विकास से धर्म में उन्नति हुई है तो इल्हाम की आवश्यकता क्या है? मुसलमानों का एक और सिद्धान्त यह है कि पहले के इल्हामों में परिवर्तन होते रहे हैं। कुछ इल्हामी पुस्तकें तो सर्वथा समाप्त हो गई हैं और कुछ में हेर-फेर हो चुका है।

चलो वाद के लिए मान लो कि ऐसा हुआ अब प्रश्न यह होगा कि वे पुस्तकें ईश्वरीय थीं या नहीं थीं? थीं और उसी परमात्मा की देन थीं जिसकी देन कुरान है तो क्या कारण है कि वे पुस्तकें अपनी वास्तविक अवस्था में स्थिर नहीं रहीं? और कुरान रह गया या रह जाएगा? हेर-फेर में दोष मनुष्यों का है या (नऊज़ोबिल्लाह) अल्लामियाँ का? अब मनुष्य भी वही हैं और अल्लामियाँ भी वही किसका स्वभाव समय के साथ बदल गया कि आगे चलकर ईश्वरीय पुस्तकों को इस हेरा-फेरी से सुरक्षित रख सकेगा जिनका शिकार पिछली पुस्तकें होती रहीं?

मुसलमानों की मान्यता है कि अल्लाताला ने कुरान की रक्षा का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया है। पूछना होगा कि पहली पुस्तक के सम्बन्ध में यह उत्तरदायित्व क्यों नहीं लिया गया? क्या अल्लामियाँ का स्वभाव अनुभव से बदलता है? या पहले जान बूझकर उपेक्षा बरती गई? दोनों अवस्थाओं में ईश्वर की सत्ता पर दोष लगता है। कुरान को दोष से बचाने के लिए अल्लामियाँ पर दोष लगाना इस्लाम के लिए बुद्धिमत्ता नहीं। या तो अल्ला मियाँ के ज्ञान में दोष मानना पड़ता है या उसकी इच्छा में। दोनों ही अनिवार्य दोष पूर्ण अवस्थाएँ हैं दोनों कुफ़्र (ईश्वरीय विरोधी) हैं।

बात यह है कि सृष्टि के प्रारम्भ में इल्हाम मान लेने के पश्चात् किसी भी बाद के इल्हाम को स्वीकार करना विरोधाभास का दोषी बनना पड़ता है। इल्हाम और उसमें हेर-फेर? इल्हाम और उसमें परिवर्तन? इल्हाम एक हो सकता है। वह पूर्ण होगा। जैसा कि परमात्मा पूर्ण है।

बौद्धिक विकास का प्रश्न आए दिन की ऐतिहासिक खोजों से झूठा सिद्ध हो रहा है। प्रत्येक महाद्वीप में पुराने खण्डहरात की ख़ुदाई से सिद्ध हो रहा है कि वर्तमान पीढ़ी से शताब्दियों पूर्व प्रत्येक स्थान पर ऐसी नस्लें रह चुकी हैं जो सभ्यता व संस्कृति के क्षेत्र में वर्तमान सभ्य जातियों से यदि बहुत आगे न थीं तो पीछे भी न थीं। इस खोज का आवश्यक परिणाम धर्म के क्षेत्र में यह विश्वास है कि इल्हाम प्रारम्भ में ही पूर्ण रूप में आया था।

यदि परमात्मा अपने किसी इल्हाम का रक्षक है तो उस प्रारम्भिक इल्हाम का भी पूर्ण रक्षक होना चाहिए था। उसके ज्ञान व आदेश में निरस्त होने व हेरा-फेरी की सम्भावना नहीं।

कुरान के इल्हाम होने पर एक और शंका यह उठती है कि यह अरबी भाषा में आया है—

व कज़ालिका अन्ज़ल नाहो हुकमन अरबिय्यन।

—(सूरते रअद आयत 37)

और यह उतारा हमने आदेश अरबी भाषा में।

क्या अरबी भाषा लौहे महफ़ूज़ की भाषा है। यदि है तो उसे मानव समाज की पहली भाषा होना चाहिए था जिसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं। अन्य भाषाओं के उत्पत्ति स्थल अरबी भाषा के शब्दों को कोई भाषा विज्ञान का विशेषज्ञ स्वीकार नहीं करता है। फिर हज़रत मूसा और ईसा को इबरानी भाषा में इल्हाम मिला था यदि वह भी लौहे महफ़ूज़ की नकल थी तो लौहे महफ़ूज़ की भाषा एक नहीं रही। भाषाओं की जननी अरबी के स्थान पर इबरानी को मानना पड़ेगा।

परन्तु प्रमाण न इबरानी के प्रथम भाषा होने का मिलता है और न अरबी भाषा होने का। यदि कुरान का इल्हाम समस्त मानव समाज के लिए होता तो उसकी भाषा ऐसी होनी चाहिए थी कि सारे संसार को उसके समझने में बराबर सरलता हो। किसी का तर्क है कि अन्य जातियाँ अनुवाद से लाभ उठा सकती हैं तो निवेदन है कि अनुवाद और मूल भाषा में सदा अन्तर रहता है।

जो लोग शाब्दिक इल्हाम के मानने वाले हैं उनके लिए इल्हाम के शब्द सदा अर्थों का भण्डार बने रहते हैं जिनका स्थान और तो और उसी भाषा का किया अनुवाद भी नहीं ले सकता। अरबी भाषा    इल्हाम के समय भी तो सारे संसार की भाषा नहीं थी। जैसे वेद की भाषा सृष्टि के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों की भाषा थी और संसार में प्रचलित बोलियाँ वेद की भाषा से मिली जुली हैं।

भाषा शास्त्रियों की यह सम्मति है कि मानव जाति के पुस्तकालय में वेद सबसे पुरानी पुस्तक है (मैक्समूलर) और उसकी भाषा वर्तमान भाषाओं की जननी है। वास्तव में कुरान का अपना प्रारम्भिक विचार केवल अरब जातियों का सुधार करना था। इसीलिए कुरान में आया है—

लितुन्जिरा कौमम्मा अताहुम मन्निज़ीरिन मिनकबलिका लअल्लकुम यहतदून।

—(सूरते सिजदा आयत 3)

ताकि तू डरा दे उस जाति को नहीं आया उनके पास डराने वाला तुझसे पूर्व जिससे उन्हें सन्मार्ग मिले।

यह जातियाँ अरब निवासी हैं। हज़रत मुहम्मद के सामने ईसाई और यहूदियों की मान्यता थी कि वह पुस्तकों के मालिक हैं और पैग़म्बरों के अनुयायी हैं। अरब निवासी यह दावा नहीं कर सकते थे। हज़रत मुहम्मद के कारण उनकी यह अभिलाषा भी पूरी हो गई।

कोई कह सकता है कि हज़रत मुहम्मद के प्रकट होने से पूर्व क्या अरब वासियों को बिना ज्ञान या शिक्षा के रखा गया था। कुरान शरीफ़ की भाषा से तो यही ज्ञात होता है। एक और स्थान पर लिखा है—

ओहेना इलैका कुरानन अरबिय्यन लितुन्ज़िरा उम्मिल कुरा व मन होलहा।

—(सूरते सिजदा रकुअ 1)

उतारा हमने कुरान अरबी भाषा का कि तू भय बताए बड़े गाँव को और उसके पास-पड़ौस वालों को।

बड़े गाँव से तात्पर्य प्रत्येक भाष्यकार के अनुसार ‘मक्का’ है। अरब वासी जिनमें मुहम्मद साहब का जन्म हुआ उनके लिए मक्का सबसे बड़ा गाँव था। कुरान के शब्दों के अनुसार हज़रत मुहम्मद के सुपुर्द यह सेवा सौंपी गई कि वह मक्का व उसके पास पड़ौस में इस्लाम का प्रचार करें।

दूसरे समुदायों के लिए तो और पैग़म्बर आ चुके थे। अरबवासियों के लिए इल्हाम की आवश्यकता थी। सो हज़रत के सन्देश से पूरी हो गई। कुरान की उपरोक्त आयतों का यदि कोई अर्थ है तो यही।

कुरान की मान्यता तो यह भी विदित होती है कि धर्म प्रत्येक जाति का पृथक्-पृथक् है। यह इस्लाम के लोगों की ज़बरदस्ती है कि जो मज़हब अरब के लिए निश्चित किया गया है उसे अन्य देशों में जो उसे अनुकूल नहीं पाते व्यर्थ ही में उसका प्रचार कर रहे हैं। इसीलिए लिखा है—

लिकुल्ले उम्मतन जअलना मन्सकन, हुमनासिकूहो।

—(सूरते अलहज्ज रकूअ 9)

प्रत्येक समुदाय के लिए बनाई है प्रार्थना पद्धति और वह उसी प्रकार प्रार्थना करते हैं उसको।

यही नहीं हमारी इस आपत्ति को परमात्मा का न्याय समर्थन करता है कि वह अपना इल्हाम ऐसी भाषा में प्रदान करें जिसके समझने में मनुष्य मात्र को बराबर सुविधा हो। स्वयं कुरान शरीफ़ स्वीकृति देता है। चुनांचे लिखा है—

वमा अरसलनामिनर्रसूले इल्ला बिलिसाने कौमिही।

—(सूरते इब्राहिम आयत 4)

और नहीं भेजा हमने कोई पैग़म्बर परन्तु साथ भाषा अपनी के।

कुरान का यह आशय है कि वह केवल अरबवासियों के लिए निर्धारित है। इससे अधिक स्पष्टता से और किस प्रकार वर्णन किया जा सकता है।

समय पाकर निरस्त हो जाने की साक्षी भी स्वयं कुरान में विद्यमान है। अतएव फ़रमाया है—

बलइनशअना लिनज़हबन्ना बिल्लज़ी औहेना इलैका।

—(सूरते बनी इसराईल रकूअ 10)

और यदि हम चाहें (वापिस) ले जाएँ वह चीज़ कि वही (सन्देश) भेजी है हमने तेरी ओर।

कुरान के लिये नया पाठ क्या विशिष्ट था?—वास्तव में इस्लाम मानने वालों के इल्हाम के सिद्धान्त के तार्किक निष्कर्ष का वह स्वयं समर्थक नहीं। यदि यह मान लो कि प्रारम्भिक इल्हाम के पश्चात् फिर इल्हाम होने की सम्भावना है तो यह भी मानना पड़ेगा कि कोई इल्हाम पूर्ण नहीं होता।

चाहे पहला इल्हाम अपने मानने वालों की उपेक्षा वृत्ति के कारण नष्ट हो जाए चाहे उनके दुराशय के   कारण उसमें हेरा-फेरी हो जाए। प्रत्येक इल्हाम में इसकी बराबर सम्भावना रहेगी, क्योंकि परमात्मा व मनुष्य जिन दो के मध्य इल्हाम का सम्बन्ध है वह प्रत्येक काल में एक से रहते हैं।

परमात्मा यदि पहले इल्हाम का उत्तरदायी न रहा तो किसी दूसरे का भी नहीं होगा। यदि एक आदेश के निरस्त हो जाने की सम्भावना है तो उसके पश्चात् आने वाले अन्य इल्हाम भी इस सम्भावना से बाहर नहीं हो सकते। हमें आश्चर्य है कि अल्ला मियाँ के आदेश के निरस्त होने की सम्भावना ही क्यों? मौलाना लोग एक उदाहरण देते हैं कि जैसे एक कक्षा के विद्यार्थी ज्यों-ज्यों उन्नति करते हैं, त्यों-त्यों उनके पाठ्य पुस्तकों में भी परिवर्तन होता रहता है।

इसी प्रकार हज़रत आदम के युग के लोग जैसे पहली कक्षा के विद्यार्थी थे अब के मानव अगली कक्षाओं में आ चुके हैं। उनके लिए इल्हाम पहले की अपेक्षा उच्चस्तर का होना चाहिए। हम इस तर्क का उत्तर ऊपर दे चुके हैं कि कुरान का सब से उच्च आदेश परमात्मा की एकता के सम्बन्ध में है तथा वह पूर्व काल के पैग़म्बरों के इल्हाम में भी स्वयं कुरान के शब्दों में विद्यमान है। फिर वह कौन-सा नया पाठ है जो कुरान के लिए ही विशिष्ट था? और वह पहले के पैग़म्बरों के इल्हाम में भी स्वयं कुरान के शब्दों में पाई जाती है।

यहाँ हम इस उदाहरण का उत्तर तर्क से देंगे। समय बीतने पर पाठ्य पुस्तक बदलने की आवश्यकता उस समय होती है जब विद्यार्थी विभिन्न कक्षाओं में एक रहें वही कक्षा उन्नति करती आगे बढ़ती जाए तो उन्हें निश्चय ही प्रत्येक कक्षा में नई शिक्षा देनी होगी। यदि मुसलमान पुनर्जन्म मानते होते कि इस समय भी वही मनुष्य जीवित अवस्था में हैं जो हज़रत आदम के समय में थे तो इस दृष्टिकोण से परिवर्तन की आवश्यकता की कल्पना की जा सकती थी। परन्तु मुसलमानी सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक नस्ल नई उत्पन्न की जाती है। प्रत्येक नस्ल अपने से पहली नस्ल के ज्ञान से वैसी ही अनजान होती है जैसे स्वयं पहली नस्ल प्रारम्भ में थी। उसे नया पाठ पढ़ाने के क्या अर्थ हुए? सच्चाई यह है कि जैसा हम ऊपर निवेदन कर चुके हैं कि इल्हाम व विकास दो परस्पर विरोधी मान्यताएँ हैं।

इल्हाम मानने वालों को प्रारम्भ में ही पूर्ण इल्हाम का उतरना स्वीकार करना पड़ेगा। प्रारम्भ में भाषाओं की विपरीतता का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि स्वयं कुरान कहता है—

मा कानन्नास इल्ला उम्मतन वाहिदतन फख्तलिफू।

—(सूरते यूनिस रकूअ 2)

सृष्टि के आरम्भ में (सब) लोग एक ही समुदाय के हैं बाद में पृथक् (समुदाय) बने।

उस समय भी ईश्वर ने आदम द्वारा इल्हाम भेजा यह मुसलमानों की मान्यता है। और वह इल्हाम कुरान के शब्दों में—

व इन्नहू फ़ीउम्मिल किताबे लदैनालि अल्लहुन हकीम।

और वह (ज्ञान) है उम्मुल किताब के बीच उच्चस्तर का कार्यकौशल भरा।

‘उच्चस्तर का कार्यकौशल भरा’ शाब्दिक अर्थ है, यही परिभाषा वेद भगवान की है। वेद के अर्थ हैं कार्यकौशल भरा ज्ञान, भगवान् के अर्थ हैं उच्चस्तर।

धर्मों के पारस्परिक मतभेदों का एक कारण यह है कि नया मत पुराने मत को निरस्त कहकर उसका विरोध करता है और पुराना मत नए मत को अकारण बुरा बताता है। नए पैग़म्बर के अपने दावे के अतिरिक्त उसके पैग़ाम के ईश्वर की ओर से होने की साक्षी भी क्या है? स्वयं कुरान ने कई नबिओं (ईश्वरीय दूतों) की ओर संकेत किया है—

व मन अज़लमा मिमनफ़्तिरा अलल्लाहि कज़िबन औ काला ऊही इलय्या वलम यूहा इलैहे शैउन व मन काला सउन्ज़िलो मिसला मा उंज़िलल्लाहो।

—(सूरते इनआम आयत 93)

और उस व्यक्ति से अधिक अत्याचारी कौन है जो ईश्वर पर ही दोष मढ़ता है और कहता है मेरी ओर इल्हाम उतरा है परन्तु वही (सन्देश) उसकी ओर नहीं की गई। मैं भी उतारता हूँ उसी प्रकार (सन्देश) जो ईश्वर ने उतारा।

कुरान के भाष्यकारों ने इसका संकेत मुसैलमा अबातील व इब्ने ईसा की ओर माना है जिन्होंने हज़रत मुहम्मद के जीवनकाल में पैग़म्बरी का दावा किया था। अब विद्वानों के पास ऐसा कौन-सा उदाहरण है जिससे पैग़म्बरी के झूठे व सच्चे दावा करने वालों की पहचान हो सके जिससे सच्चे पैग़म्बर और झूठे नबी में अन्तर करे?   दोनों अपने आप को अल्लाह की ओर से होने का दावा करते हैं।

कुरान को ईश्वरीय पुस्तक न मानने वालों की स्वयं कुरान की आयतों में बहुत आलोचना व उठा-पटक की हैं। उन पर लानतें (दुष्नाम) बरसाई हैं और पुराने समुदायों की कहानियाँ सुना-सुनाकर डराया है कि जिन दुष्परिणामों को पूर्ववर्ती पैग़म्बरों को न मानने वाले पहुँचाए गए हैं वही दशा तुम्हारी होगी। यही बात मुसैलमा अबातील व इब्ने ईसा अपने इल्हाम के दावे में प्रस्तुत करते होंगे। इसलिए यह धमकियाँ भी कुरान के इल्हामी होने का प्रमाण नहीं। सम्भव है कोई मुसैलमा अबातील और इब्ने ईसा की पुस्तकों के नष्ट हो जाने और कुरान के बचे रहने को कुरान के श्रेष्ठ होने को कुरान की महिमा बताए। सो शेष तो ऐसी पुस्तकें भी हैं जो चरित्रहीनता का दर्पण है जिनका पठन-पाठन का साहित्य लाभ केवल दुष्चरित्रों व समाज को भ्रष्ट करने वाले लोगों का मनोरंजन भरा है।

इससे यह सिद्ध नहीं होता कि इन पुस्तकों की जड़ में ईश्वरीय सन्देश है। कुरान में अपने सम्बन्ध में यह वाद भी प्रस्तुत किया गया है—

व इन कुन्तुमफ़ी रैबिनमिम्मा नज़्ज़लना अला अब्दिना फ़ातूबि सूरतिन मिन्मिसलिह व अदऊ शुहदाउकुम मिन इनिल्लाहे इन कुन्तुम सादिकीन फ़इनलम तफ़अलू वलन तफ़अलू।

—(सूरते बकर आयत 23)

और यदि तुम्हें सन्देह है उससे जो उतारा हमने अपने बन्दे के ऊपर तो लाओ एक सूरत उसके मुकाबिले की और अपने साक्षियों को बुलाओ। परमात्मा के अतिरिक्त यदि तुम सच्चे हो फिर यदि न करो और न कर सकोगे।

इस आयत का उद्धरण हम किसी पूर्व अध्याय में कर चुके हैं। कोई व्यक्ति अपने लेख के सम्बन्ध में यह दावा करे कि उस जैसा लेख नहीं हो सकता और कल्पना करो कि उस जैसा लेख दावेदार के समय में कोई न बना सके तो क्या उसके इस निरालेपन से ही वह अल्लाह मियाँ की ओर से मान लिया जायेगा? यदि ऐसा है तो प्रत्येक काल का बड़ा लेखक व महाकवि अवश्य ईश्वरीय दूत समझा जाया करे। ईश्वरीय सन्देश होने की यह कोई दार्शनिक युक्ति नहीं।

फिर भी हम इस दावे में प्रस्तुत अनुपमता की वास्तविकता पर विचार कर लेना चाहते हैं। क्या यह अनुपमता भाषा सौष्ठव के आधार पर है जैसा मौलना सनाउल्ला साहब का विचार है? सर सैयद अहमद—जैसा विचार हम इस पुस्तक के अन्तिम अध्याय में प्रस्तुत करेंगे कुरान की भाषा सौष्ठवता के समर्थक नहीं, वे अनुपम नहीं मानते। यही दशा अलामा शिबली नौमानी की थी। स्वयं कुरान के भाष्यों में एक भाष्य मौलाना फ़ैजी का है। उसका नाम सवाति अल इल्हाम है। वह सारी की सारी बिन्दु रहित पुस्तक है।

साहित्य रचना का यह भी तो कमाल है कि पूरी की पूरी पुस्तक बिना बिन्दु के लिख दी जाए। क्या इसलिए कि उस बिन्दु रहित भाष्य जैसी अनुपम पुस्तक लिखना अन्य लेखकों को असम्भव है उस भाष्य को ईश्वरीय सन्देश मान लिया जाए? इस दावे के सम्बन्ध में सूरते लुकमान की आयत 3 पर तफ़सीरे हुसैनी की टिप्पणी निम्न है—

आवुरदा अन्द कि नसरबिन हारिस लअनुल्लाहे अलैहे ब तिजारत ब बलादे फ़ारस आमदा बूद व किस्साए रुस्तम व असफ़न्द यार बख़रीद व मुअर्रब साख़्ता बमक्का बुर्द व गुफ़्त कि र्इं कि अफ़साना आवुरदा अम शीरींतर अज़ अफसाना हाय मुहम्मद……..।

कहा जाता है कि नसरबिन हारिस ईश्वरीय शाप हो उस पर व्यापार के लिए फ़ारस देश के शहरों में गया वहाँ उसने एक पुस्तक असफ़न्दयार की कहानी खरीदी और उसे अर्बी में कर दिया व कहने लगा कि यह कहानी जो मैं लाया हूँ मुहम्मद की कहानियों से अधिक रुचिकर है……..। 1 [1. मूल में उपरोक्त फ़ारसी उद्धरण के अर्थ छूट गये थे। श्री पं॰ शिवराज सह जी ने दे दिये सो अच्छा किया।   —‘जिज्ञासु’]

मआलिमु त्तंजील में यही कहानी सूरते लुकमान आयत 3 के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए लिखा है—

यतरकूना इस्तमा अलकुरान।

लोगों ने कुरान का सुनना छोड़ दिया।

अतः भाषा सौष्ठवता या भाव गम्भीरता का कमाल भी किसी पुस्तक के ईश्वरीय होने की निर्णायक युक्ति नहीं। इस विवाद में   मतभेद होने की आशंका है और जब यह मान्यता सभी मतवादियों की है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वरीय ज्ञान (वही) परमात्मा की ओर से हुई थी व वही मानव के ज्ञान का आदि स्रोत है तो इस पर व्यर्थ में परिवर्तन व निरस्तता के दोष लगाकर ईश्वरीय सन्देश का अपमान करना कहाँ तक ठीक है, अपितु उसी सन्देश पर सब को एकमत हो जाना कर्त्तव्य है। वह इल्हाम वेद है। 1 [1. सब आस्तिक मत ईश्वर को पूर्ण (PERFECT) मानते हैं। उसकी प्रत्येक कृति दोषरहित पूर्ण है। मानव, पशु, पक्षी सभी जैसे पूर्वकाल में जन्म लेते थे वैसे ही आज तथा आगे भी वैसे ही होंगे फिर प्रभु के ज्ञान में परिवर्तन व हेर-फेर का प्रश्न क्यों?   —‘जिज्ञासु’]

यह इल्हाम लोहे महफ़ूज़ में है—अर्थात् उसकी अनादि व अनन्त काल तक के लिए रक्षा की गई है। फलतः पाश्चात्य विद्वानों की भी सम्मति जिन्होंने वेद का अध्ययन किया है यही है कि वेद में हेरा-फेरी नहीं हुई। प्रोफ़ेसर मैक्समूलर अपनी ऋग्वेद संहिता भाग 1 भूमिका पृष्ठ 27 पर लिखते हैं—

हम इस समय जहाँ तक अनुसंधान कर सकते हैं हम वेदों के सूक्तों में विभिन्न्न सम्प्रदायों के होने का इस शब्द में प्रचलित अर्थों में वर्णन नहीं कर सकते।

प्रोफ़ेसर मैकडानल अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास में पृष्ठ 50 पर लिखते हैं—

इतिहास में अनुपम—परिणाम यह है कि इस वेद की रक्षा ऐसी पवित्रता के साथ हुई है जो साहित्य के इतिहास में अनुपम है।

कुरान ने अपने सम्बन्ध में तो कह दिया कि इसे वापिस भी लिया जा सकता है। यह अरबी भाषा में है। एक ऐसी जाति के लिए है जिसमें पहले पैग़म्बर नहीं आया। इसका उद्देश्य मक्का व उसके पास-पड़ौस की सामयिक सुधारना है और यही स्वामी दयानन्द व उसके अनुयायियों का दावा है।

उम्मुल किताब (पुस्तकों की जननी) जिसको वेद ने अपनी चमत्कारिक भाषा में वेद माता कहा है वही वेद है जो सृष्टि के आरम्भ में दिया गया था और जो सब प्रकार की मिलावटों एवं बुराईयों व हटावटों से पवित्र रहा है। भला यह भी  कोई मान सकता है कि पुस्तकों की माता का जन्म तो बाद में हुआ हो और बेटियाँ पहले अपना जीवन गुज़ार चुकी थीं?

इल्हाम के सम्बन्ध में हमारी मान्यता यह है कि परमात्मा ऋषियों के हृदयों में अपने ज्ञान का प्रकाश करता है यही एक प्रकार वही (ईश्वरीय ज्ञान) का है1

[1. ईश्वरीय ज्ञान के प्रकाश अथवा आविर्भाव का यही प्रकार है और इस्लाम भी अब मानव हृदय में ईश्वरीय ज्ञान के प्रकाश के वैदिक सिद्धान्त को स्वीकार करता है। डॉ॰ जैलानी ने भी अपनी एक पुस्तक में इसे स्वीकार किया है। फ़रिशते द्वारा वही लाने को भी मानना उसकी विवशता है। —‘जिज्ञासु’]

परमात्मा सर्वव्यापक है उसके व उसके प्यारों के मध्य किसी सन्देशवाहक की आवश्यकता नहीं परन्तु कुरान का इल्हाम एक फ़रिश्ते के द्वारा हुआ है जिसने हज़रत मुहम्मद से प्रथम भेंट के समय कहा था—

इकरअ बिइस्मे रब्बिका।

पढ़ अपने रब के नाम से।

एक गम्भीर प्रश्न—दूसरे शब्दों में कुरान की शिक्षा बुद्धि के द्वारा नहीं वाणी के द्वारा दी गई है। यह इल्हाम बौद्धिक नहीं वाचक है। हज़रत मुहम्मद साहब को तो जिबरईल की वाणी (भाषा) में इल्हाम मिला। हज़रत जिबरईल को किसकी वाणी (भाषा) से मिला होगा? अल्लाह ताला तो सर्वव्यापक है उसके अंग नहीं हो सकते। स्वामी दयानन्द उचित ही लिखते हैं कि—प्रारम्भ में अलिफ़ बे पे की शिक्षा किसने मुहम्मद साहब को दी थी? आशय यह है कि यदि इल्हाम वाणी के उच्चारण से प्रारम्भ होता है तो स्वयं इल्हाम देने वाला अध्यापक बनकर पहले इन शब्दों का उच्चारण करता है जो उसके पश्चात् देने वाले की वाणी पर आए हैं तो अल्लाह ताला यह इल्हाम अपने फ़रिश्ते की वाणी पर किस प्रकार पहुँचाता है? यदि इस प्रश्न का उत्तर यह है कि अल्लाह ताला फ़रिश्ते की बुद्धि में अपनी बात प्रकट करता है।

क्योंकि वह वहाँ उपस्थित है तो क्या वह पैग़म्बर के दिल में विद्यमान नहीं है कि वहाँ तक सन्देश पहुँचाने के लिए दूसरे दूत का प्रयोग करता है? सर्वव्यापक न भी हो जैसे कि हम किसी पिछले अध्याय में बता चुके हैं कि कुरान के कुछ वर्णनों   के अनुसार वह सीमित है तो भी जिस शक्ति के सहारे अर्श पर बैठाबैठा सारे संसार का काम चलाता है उसी से पैग़म्बर के हृदय में इल्हाम क्यों नहीं डालता? फ़रिश्ता अल्लाह व पैग़म्बर के मध्य एक अनावश्यक साधन है। यह दोष है इस्लामी इल्हाम के प्रकार में।

कुरान को परमात्मा की वाणी मानने में एक बात यह भी बाधक है कि परमात्मा की वाणी अटल होनी चाहिए उसमें परिवर्तन की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। परन्तु कुरान में स्पष्ट लिखा है कि उसके आदेशों में परिवर्तन होता रहा है। जैसे सूरते बकर रुकुअ 13 में लिखा है—

मानन्सरवा मिन आयतिन औ नुन्सिहाते बिख़ैरिन मिन्हा ओमितलहा।

जो निरस्त कर देते हैं हम आयतों को या भुला देते हैं हम लाते हैं उसके समान या उससे उत्तम।

कहानियाँ भी अनादि क्या?— मुसलमानों का दावा तो यह है कि कुरान के मूल पाठ की रक्षा का उत्तरदायित्व स्वयं अल्लाह मियाँ ने अपने ऊपर ले रखा है, परन्तु कुरान न केवल निरस्तीकरण की सम्भावना प्रकट करता है, अपितु भूल जाने की भी। चलो थोड़ी देर के लिए मान लो कि कुरान का कोई वचन निरस्त नहीं होता और यह वही कुरान है जो अनादि काल से लोहे महफ़ूज़ पर लिखा हुआ है तब इन ऐतिहासिक कथाओं का क्या कीजिएगा। जो कुरान में लिखे हुए हैं। जैसे सूरते यूसुफ़ में यूसुफ़ और जुलेख़ा की कहानी है—

व रावदतहू अल्लती हुवा फ़ी बतहा अन नफ़िसही व ग़ल्ल कतेल अल बवाबा व कालत हैतालका काला मआज़ल्लाहे, इन्नहू रब्बी अहसना मसवाए इन्हू लायुफ़लिज़ोल ज़ालिमून।

—(सूरते यूसुफ आयत 23)

और फुसला दिया उसको उस स्त्री ने कि वह उसके घर के बीच था उसकी जान से और बन्द किये द्वार और कहने लगी आओ, कहती हूँ मैं तुझको, कहा, पनाह पकड़ता हूँ मैं अल्लाह की वास्तव में वह पालन करने वाला है मेरा, अच्छी तरह से उसने मेरा कहना किया। सचमुच नहीं यशस्वी बनते अत्याचारी लोग।

यदि यह ज्ञान नित्य है तो स्पष्ट है कि हज़रत यूसुफ आरम्भ से ही पवित्रतात्मा नियत किए गए और ज़ुलैखा आरम्भ से ही अत्याचारिणी ठहरी, अब अल्लाह मियाँ का लेख भाग्य लेख है वह टल नहीं सकता। कोई पूछे ऐसा निर्धारण करने के पश्चात् इल्हाम की आवश्यकता क्या? पापी लोग आरम्भ से ही पापी बन चुके वे सुधारे नहीं जा सकते और पवित्रात्मा प्रारम्भ से पवित्रात्मा बनाए जा चुके उन्हें सुधार की शिक्षा की आवश्यकता नहीं।

कुरान का आना व्यर्थ।

यही दशा उस बुढ़िया की है जो लूत के परिवार में से नष्ट हुई थी, फ़रमाया है—

इज़ानजय्यनाहो व अहलहू अजमईन इल्ला अजूज़न फ़िल ग़ाबिरीन।

—(सूरते साफ़्फ़ात आयत 134-135)

जब हमने मुक्ति दी उनको और उनके सारे परिवार को एक बुढ़िया के सिवाय जो ठहरने वालों में थी।

हज़रत नूह का लड़का और पत्नी, हज़रत मुहम्मद के चाचा अबू लहब आदि ऐसे व्यक्तियों की चर्चा कुरान में है जिन्हें कुरान यदि नित्य है तो अज़ल (अनादि काल) से ही दौज़ख़ के लिए चुन लिया गया और पैग़म्बरों व उनके अन्य परिवार जनों को बहिश्त में स्थान मिल चुका है। कुरान के इल्हाम का लाभ किसके लिए है?

इससे हमने सिद्ध कर दिया कि न तो मुसलमानों का माना हुआ इल्हाम का प्रकार ठीक है, न इल्हामों के क्रम की मान्यता दोष रहित है। न कुरान इस सिद्धान्त के अनुसार अन्तिम सन्देश होने का पात्र ही है, न उसकी भाषा ऐसी है जो संसार भर की सभी जातियों की सम्मिलित भाषा हो, वेद की भाषा सृष्टि के आरम्भ में तो विश्वभर की सांझी बोली थी ही इस समय भी उस पर समस्त संसारवासियों का अधिकार सम्मिलित रूप से उसी प्रकार है कि वह प्रत्येक जाति की वर्तमान भाषा का प्रारम्भिक स्रोत है व उन अर्थों का भण्डार है जिसका प्रकटीकरण बाद की बिगड़ी हुई या बनी हुई भाषाओं के कोष के द्वारा हो रहा है।

वर्तमानकाल की प्रचलित भाषा की धातुएँ वेद की भाषाओं की धातुएँ हैं, जिनके योगिक, अर्थात् कोष के अर्थों के कारण वेद की वाणी अर्थों का असीम भण्डार बनी हुई है। फिर वेद में ऐतिहासिक कथाएँ व घटनाएँ भी   नहीं हैं जैसे कुरान में हैं। यदि कुरान अल्लाह मियाँ की प्राचीन वाणी है व वह निरस्त न हो सके तो उसके वर्णित स्थायी नित्य पापी व पवित्रात्मा प्रारम्भ से ही पापी व पवित्रात्मा घड़े गए हैं। उनका स्वभाव बदल नहीं सकता। इल्हाम से लाभान्वित कौन होगा?1

[1. जो प्रश्न महर्षि दयानन्द जी ने एक से अधिक बार उठाया फिर हमारे शास्त्रार्थ महारथी उठाते रहे। पं॰ चमूपति जी ने इस ग्रन्थ में इसे अत्यन्त गम्भीरता से उठाते हुए बार-बार उत्तर माँगा है। वही प्रश्न अब इससे भी कहीं अधिक तीव्रता व गम्भीरता से मुस्लिम विचारक पूछ रहे हैं। ‘दो इस्लाम’ पुस्तक के माननीय लेखक का भी यही प्रश्न है। आप यह कहिये कि पं॰ चमूपति उसकी वाणी से मुसलमानों से पूछते हैं, “इस हदीस घड़ने वाले ने यह न बताया कि जब एक व्यक्ति के कर्म, भोग, सौभाग्य व दुर्भाग्य का निर्णय उसके जन्म से पहले ही हो जाता है तो फिर अल्लाह ने मानवों के सन्मार्ग दर्शन के लिए इतने पैग़म्बरों को क्यों भेजा? असंख्य जातियों का विनाश क्यों किया?” दो इस्लाम पृष्ठ 306। आगे लिखा है, “चोर के हाथ काटने का आदेश क्यों दिया? जब स्वयं अल्लाह उसके भाग्य में चोरी लिख चुका था।”   —‘जिज्ञासु’]

वास्तव में कुरान नित्य वाणी नहीं है, हमने स्वयं कुरान के प्रमाणों से सिद्ध किया है कि कुरान स्वयं को अरबवासियों के लिए जो उस समय इल्हाम के वरदान से वंचित थी। उस समय की आचार संहिता बताता है और इस बात की सम्भावना भी प्रकट करता है कि उसे वापिस ले लिया जाये। उम्मुल किताब या वेद माता की ओर संकेत है कि वह उच्चकोटि का ज्ञान भण्डार है जो सदा के लिए सुरक्षित है अत्यन्त अर्थपूर्ण है।

इस्लामिक जिहाद

जिहाद (धर्मयुद्ध)

जिहाद के सिद्धान्त ने इस्लाम को तलवार का धर्म बना दिया है ।

[1. आज विश्व में इस्लामी आतंकवाद फैला हुआ। मुस्लिम संस्थाओं व मौलवियों ने इन जिहादियों आतंकवादियों के विरुद्ध कोई फ़तवा नहीं दिया। न इनका उग्र विरोध किया है। यह जिहादी चिन्तन की ही तो उपज है। भारत में ही जिहादियों के विरुद्ध सामूहिक रूप से इस्लामी जोश से मुसलमानों ने कुछ भी नहीं किया। यदा कदा कुछ लोग गोलमोल शब्दों में आतंकवाद की निन्दा करते हुए जिहाद की अपनी व्याख्या कर देते हैं।   —‘जिज्ञासु’]

इस्लामी परम्पराओं के अनुसार मुसलमानों के लिए, यदि उनमें शक्ति हो तो अमुस्लिमों पर आक्रमण करना, उनसे लड़ना और उन्हें मार डालना अथवा वे धार्मिक कर (जज़िया) देना स्वीकार करें तो ज़िम्मी (शरणागत) बना लेना धार्मिक कर्त्तव्य है।

इसमें सन्देह नहीं कि कुरान में यह शिक्षा है कि—

व कातिलू की सबीलिल्लाहै अल्लज़ीना युकातलूनकुम।

—(सूरते बकर 190)

और लड़ो ईश्वर के मार्ग में उनसे जो तुमसे लड़ते हैं।

परन्तु तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है कि—

र्इं हुकुम ब  आयते सैफ़  मन्सू ख अस्त।

यह आदेश आयते सैफ़ द्वारा निरस्त किया गया है।

मुज़िहुल कुरान की टिप्पणी इस आयत पर यह है—

यह जो फ़रमाया है कि जो तुमसे लड़े उनसे लड़ो और अत्याचार न करो इसके अर्थ यह हैं कि लड़ाई में लड़कों, स्त्रियों व बूढ़ों को लक्ष्य बनाकर न मारे, लड़ने वालों को मारे।

जलालैन में कहा है—

यह आयत आगामी आयत से निरस्त हो गई।

अर्थात् लड़ने का आदेश केवल आत्मरक्षा के निमित्त ही नहीं, अपितु आक्रमणकारी युद्ध व झगड़ा करने का आदेश है।

कुरान में एक स्थान पर यह भी कहा गया है—

अफ़अन्ता तकरिहुन्नासो हत्ता यकूनुल मौमिनीम।

—(सूरते यूनुस आयत 99)

ऐ मुहम्मद क्या तू लोगों पर उनके मुसलमान बनाने के लिए बलात्कार करेगा।

यह स्पष्ट ही अत्याचार का निषेध है। परन्तु इस पर भी भाष्यकारों ने लिख रखा है कि इस निषेध को आयत सैफ़ ने निरस्त कर दिया है। पाठक को यह आयत पढ़कर यह विचार भी होगा कि अल्लामियाँ को यह आदेश देने की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्यों हज़रत मुहम्मद से पूछताछ की गई? क्या हज़रत मुहम्मद की इच्छा बलात्कार करने की थी? यह इच्छा किसके आदेश से उत्पन्न हुई? और क्या यह सम्भव नहीं कि विवश अल्लाह के प्यारे ने अपनी इच्छा अल्लाह मियाँ से मनवा ही ली हो? भाष्यकारों का विचार है कि निषेध जहाँ भी हुआ परिस्थितियाँ अनुकूल न होने के कारण हुआ है। अल्लाह मियाँ प्रतीक्षा करा रहे थे, जब परिस्थितियाँ अत्याचार करने के अनुकूल हो गर्इं तो वह आदेश भी प्रदान कर दिया और अब इन सब आदेशों के अर्थ यही लिए जाते हैं कि बिना किसी झिझक व संकोच के अपनी ओर से ही आक्रमण करो। अतएव हदाया जो सुन्नी सम्प्रदाय की प्रामाणिक संहिता है उसमें जिहाद (धर्मयुद्ध) के अध्याय का प्रारम्भ ही इन शब्दों से हुआ है—

व कत्तालुल कुफ़्फ़ारो बाजिबुन व इनलम यब्तदिओ विही।

और काफ़िरों से युद्ध करना कर्त्तव्य है चाहे वे अपनी ओर से प्रारम्भ न भी करें।

सर अब्दुल रहीम जो बंगाल हाईकोर्ट के जज रहे उन्होंने एक पुस्तक लिखी है ‘मुस्लिम जुरिस्परोण्डेंस’, अर्थात् ‘इस्लामी आचार संहिता’ जिसे न्यायालयों में भी इस्लामी आचार संहिता पर प्रामाणिक पुस्तक माना जाता है। उसमें लिखा है—

“मक्का के काफ़िरों ने जो व्यवहार हज़रत रसूल से किया था उससे अनुमान किया जाता है कि इस्लाम को सदा अमुस्लिमों से शत्रुता व पक्षपात से प्रतिशोध व ख़तरों की आशंका है। इसलिए इस्लाम की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इस्लामी राज्य यदि उसमें   ऐसा करने का सामर्थ्य है तो किसी पराए या विरोधी या अमुस्लिम राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर सकता है। ” —पृष्ठ 393

कुरान में फ़रमाया है—

या यत्तरिवज़ुल मौमिनूना लकाफ़िरीना औलियाआ मिन दूनिल मौमिनीना व मन यफ़अलो ज़ालिका फ़लैसा मिनल्लाहे फी शैइन इल्ला अनतत्तकू मिनहुम तुकता।

—(सूरते आले इमरान आयत 28)

इस पर जलालैन की टिप्पणी यह है—

यदि किसी भय के कारण बचाव के दृष्टिकोण से मित्रता का वचन भी कर दिया जाए और दिल में उसके ईर्ष्या व शत्रुता रहे तो इसमें कोई हानि नहीं……जिस स्थान पर इस्लाम ने पूरी शक्ति नहीं पकड़ी है वहाँ अब भी यह आदेश चालू है…….काफ़िर की मित्रता ख़ुदा के क्रोध व अप्रसन्नता का कारण है।

जहाँ शत्रुता कर्त्तव्य हो जाए मित्रता उचित भी हो तो धोखाधड़ी के रूप में, वहाँ न्याय व प्रेम ही क्या है? अच्छे या बुरे सभी धर्मों में पाए जाते हैं। अमुस्लिम सज्जन भी हों तो भी उसके विरोधी रहो, यह कहाँ का सदाचार है?

यही बात सूरते निशा में फरमाई है—

या अय्युहल्लज़ीना आमनूला तत्तरिवज़ुल काफ़िरीना औलिया- आमिन दूनिल मौमिनीन।

—(सूरते निसा आयत 144)

ऐ वह लोगो! जो ईमान लाए हो मत चुनो काफ़िरों में से मित्र केवल मुसलमानों को ही मित्र बनाओ।

आजकल की राजनीतिक कठिनाईयों का बीज इस आयत में स्पष्ट मिल जाता है। हर काफ़िर का स्थान दोज़ख़ निश्चित करने के पश्चात् ऐसी शिक्षाएँ आवश्यक हैं। जिन लोगों को अल्लाह ताला ने बनाया ही दोज़ख़ का र्इंधन बनाने के लिए है उनसे मित्रता का सम्बन्ध कैसे अपनाया जा सकता है? वे तो ईश्वरीय क्रोध के पात्र हैं, उनका जीवन हो या मृत्यु समान है। उनके जीवन का मूल्य ही क्या? फ़रमाया है—

वक्तलुहुम हैसो तक्फ़ितमूहुम व रवरिजूहुम मिन हैसो अख़रजूकुम वलफ़ितनतो अशद्दो मिनल कतले।

—(सूरते बकर आयत 191)

और मार डालो उनको जहाँ भी पाओ उनको और निकाल दो उनको जहाँ से निकाल दिया तुमको और कुफ़्र कत्ल से भी बहुत बुरा है। —(अनुवाद शाह रफ़ीउद्दीन)

यह आयत कातिलू फ़ीसबीलिल्लाह के बाद आई है जिसमें कहा था जो तुमसे लड़े उनसे ही लड़ो। परन्तु जलालैन फ़रमाते हैं—

यह आयत अगली आयत द्वारा निरस्त (निरर्थक) कर दी गई है। अब अगली आयत वही है जिसका अनुवाद हमने ऊपर दिया है। इस पर जलालैन की टिप्पणी यह है—

और उनको जहाँ भी पाओ मारो और निकालो उनको मक्का से जैसे कि उन्होंने तुमको निकाला। (अतएव मक्का विजय के वर्ष में उन्हें निकाल दिया) और हरम (हजकाल) में जब तुम हज की अवस्था में हो, लड़ने से, जिसको तुम बुरा समझते हो इस्लामी परम्परा के विपरीत आचरण बहुत बुरा है।

सूरते इन्फ़ाल में कहा है—

व कातिलूहुम हत्तालातकूनो फ़ितनतुन व यकूनुद्दीना कुल्लहू लिल्लाहे।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 39)

और लड़ो उनसे यहाँ तक कि न शेष रहे काफ़िरों का उपद्रव व उनका वर्चस्व समाप्त हो जाये और सारा समुदाय अल्लाह के दीन (मत) में मिल जाये। —(अनुवाद शाह रफीउद्दीन)

जलालैन की टिप्पणी है—

और काफ़िरों की हत्या करो यहाँ तक कि इस्लाम विरोधी कोई भी विचारधारा मतभेद का नामो-निशान तक न बच पाए और सर्वत्र अल्लाह का दीन वहदहूला शरीक (कल्मा पढ़ने वाला) ही फैल जावे उसके सिवा किसी और की पूजा न रहे।

आगे फ़रमाया है—

या अय्युहन्नबियो हुर्रिजल मौमिनीना अललकिताले इनयकुन आशिरुना सबिरुना यग़लिबू मियतैने।

—(इन्फ़ाल)

ऐ पैग़म्बर मुसलमानों को (काफ़िरों से) लड़ने पर उत्तेजित करो यदि तुम में धीरज वाले (और मुकावले पर) जमने वाले बीस आदमी भी होंगे तो वह दो सौ पर अपनी विजय प्राप्त कर लेंगे।

—(टिप्पणी जलालैन)

सूरते तौबा में है—

या अय्युहुल्लज़ीना आमनू कातिलुल्लज़ीना यनूतकुम मिनल- कुफ़्फ़ारे व लयजिदूफ़ीकुम ग़िलज़तन।

—(सूरते तौबा आयत 123)

ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, लड़ो उन लोगों से जो तुम्हारे पास रहने वाले काफ़िर हैं। ऐसा होना जरूरी है कि वे तुम्हारे अन्दर कठोरता पावें।

अर्थात् सर्वप्रथम उन काफ़िरों से लड़ो जो तुमसे मिले हुए हैं फिर उनसे जो उनके निकटवर्ती हैं इस प्रकार एक के बाद दूसरे सभी काफ़िरों का मुकाबला करो।

सूरते फ़ुरकान में है—

फ़लाततअल काफ़िरीना व जाहदाहुम जिहादनकबीरन।

—(सूरते फ़ुरकान आयत 52)

और काफ़िरों का कहना मत मान बल्कि उनके साथ बड़ा धर्मयुद्ध कर।

तफ़सीरे हुसैनी में जिहाद की परिभाषा दी है—

या ब कुरआन या ब इस्लाम या ब शमशीर या ब तरके इताअते एशां।

कुरान, इस्लाम या तलवार के बल पर अथवा उनकी अधीनता को छोड़ देने पर।

सूरते तहरीम में कहा है—

ता अय्युहन्नबिओ जाहिदलकुफ़्फ़ारा वलमुनाफ़िकीना वग़ालज़ोअलैहुम।

—(सूरते तहरीम)

ऐ पैग़म्बर काफ़िरों से धर्मयुद्ध कर (साथ वाणी के) उन पर विजय पाने के लिए उन पर लड़ाई कर उन्हें झिड़क व क्रोध कर।

सूरते सफ़ में आया है—

इन्नल्लाहा यहिब्बुल्लज़ीना युकातिलूना फ़ी सबीलिही सफ़्फ़न।

—(सूरते सफ़्फ़ आयत 4)

वास्तव में ख़ुदा अपनाता है उनको जो गिरोह बनाकर उसके मार्ग में युद्ध करते हैं।

सूरते आले इमरान में है—

या अय्युहल्लज़ीना आमिनू असबरु वसाबिरु व राबितू।

—(सूरते आले इमरान आयत 200)

ऐ ईमान वालों धैर्य रखो परस्पर दृढ़ता व विश्वास रखो और युद्ध में लगे रहो। —(अनुवाद शाह रफीउद्दीन)

हम ऊपर प्रकट कर चुके हैं कि मुसलमान धर्माचार्यों के मत में  युद्ध केवल आत्मरक्षा के निमित्त ही कर्त्तव्य नहीं, अपितु यदि सामर्थ्य हो तो स्वयं दूसरे पर आक्रमण करने का भी आदेश है। सारे युद्ध का रोक देना तो कठिन है। अत्याचार के विरुद्ध युद्ध करने की आज्ञा दी जा सकती है, परन्तु इस्लामी आचार संहिता में इस सीमा को स्वीकार नहीं किया गया है। इस सीमा के साथ भी युद्ध का ढंग ऐसा होना चाहिए कि अनावश्यक कठोरता न बरती जाए। हत्या भी करनी पड़े तो बर्बरता पूर्वक न हो। परन्तु कुरान ने तो फ़रमाया है—

सउलिकीफ़ी कुलूबिल्लज़ीना कफ़रुर्रुअबो फ़जरिबू फ़ौकलअअनाके वज़रिबू मिनहुम कुल्ला बनानिन।

—(सूरते इनफ़ाल आयत 12)

मैं काफ़िरों के दिल में आतंक डालूँगा अब मारो उनकी गर्दनों पर और काटो उनकी बोटी-बोटी। गर्दनें तो उनकी आत्मरक्षा में काटी होंगी अब उंगलियों के पोर-पोर काटने में कैसी आत्मरक्षा हुई?

यह अत्याचार व प्रतिशोध की पराकाष्ठा है। सूरते मुहम्मद में फ़रमाया है—

फ़इज़ा लकीतुमुल्लज़ीना कफ़रु फ़लरव र्रिकाबिन हत्ता इज़ा अतरब्नतमूहुम।

—(सूरते मुहम्मद आयत 4)

फिर जब तुम भेंट करो उनसे जो काफ़िर हुए बस काट दो उनकी गर्दनें यहाँ तक कि चूर-चूर कर दो उनको।

—(अनुवाद शाह रफ़ीउद्दीन)

व माकाना लिमौमिनिन अन यकतुला मौमिनून इल्ला ख़ताअन व मनकतला मौमिननख़ताअन फ़तहरीरो मोमिनतिन वदिय्यतुन मुसल्लम तुन इला अहलिही इल्लाअन यस्तद्दिद्दू। फ़अनकाना मिनकौमिन उदुव्वकुम……….व मन यक्तुला मौमिनन मुअतमिदन फ़जज़ाउहू जहन्नमा खालिदन फ़ीहा व गज़बल्लाहो अलैहे व लअनहू।

—(सूरते निसा आयत 62,93)

मुसलमानों को मुसलमान का मारना उचित नहीं, परन्तु अनजाने में, परिणामतः एक मुसलमान को आज़ाद करना है व खून की क्षति-पूर्ति अदा करना उसके घर वालों को, परन्तु यह कि दान कर देवे अतः यदि होवे उस कौम से जो दुश्मन है तुम्हारे……और जो कोई मुसलमान जानकर मार डाले वहाँ उसका फल है कि दोज़ख़ में सदा के लिए रहेगा और क्रोध अल्लाह का उसके ऊपर और लानत है।

इतना पक्षपात!—इन आयतों ने जिहाद की वास्तविकता को और स्पष्ट कर दिया है यदि जिहाद आत्मरक्षा की लड़ाई है और प्रतिशोध में विरोधी की जाति की हत्या की जा रही हो तो उस जाति में चाहे जो कोई मुसलमान हो चाहे अमुस्लिम समानरूप से वध करने योग्य होगा, परन्तु नहीं अमुस्लिम की हत्या जानकर करना भी कर्त्तव्य है और मुसलमान की हत्या यदि भूल से भी हो जाए तो उसका रक्त का बदला प्रायश्चित। इससे अधिक पक्षपात और क्या हो सकता है और यदि खून का बदला व प्रायश्चित न करे तो उसका दण्ड क्या? वही दोज़ख़।

इस प्रकार के रक्तपात व हत्या में अपनी ओर के लोग भी मारे जायेंगे और रुपया भी खर्च होगा। इसकी व्यवस्था निम्नलिखित आयत में की है—

व लातकूल्लू लिमन्युकतलो फ़ो सवीलिल्लाहे अमवातुन बल अहयाउन।

—(सूरते बकर आयत 149)

और जो ख़ुदा के मार्ग में मारे जाते हैं उन्हें मरा हुआ मत कहो, अपितु वह जीवित है।

जलालैन में टिप्पणी में लिखा है—

हरे पक्षियों के लिबास में हैं जो जन्नत में चुगते हैं।

यदि धर्म प्रचार बलपूर्वक न हो तो व्यर्थ का रक्तपात व हत्या काण्ड क्यों हो? और क्यों मरे हुओं को व्यर्थ ही जीवित कहें और बहिश्त में उन्हें पक्षी बनाएँ?

सूरते तौबा में आया है—

व लाकिनिर्रसूलो वल्लज़ीना आमन् मअहूजाहिदू विअम- वालिहिम व अनफ़ुसिहिम व उलाइकालहुमल ख़ैरातो।

—(सूरते तौबा आयत 88)

परन्तु रसूल और जो लोग ईमान लाए उसके साथ, जिहाद किया उन्होंने अपने धन और अपने जीवन व व्यक्तित्व सहित और भलाईयाँ उन्हीं के लिए हैं।

फिर फ़रमाया है—

इन्नल्लाहश्तरा मिनउल मौमिनीना अनफ़ुसहुम व अमवालहुम व अन्ना लहुम जन्नता युकातिलूना फ़ीसबीलिल्लाहे फ़यकतलूना व युकतिलून।

—(सूरते तौबा आयत 111)

सचमुच अल्लाह ने ख़रीद ली है मुसलमानों से उनकी जानें और माल उनके, इस मूल्य पर कि उनके लिए बहिश्त (दे दिया) है। वे ख़ुदा के मार्ग में लड़ेंगे।

ख़ुजमिन अमवालिहुम सदकतन तुतहिरहुम व तुन्ज़की हिमविहा।

—(सूरते तौबा आयत 103)

उनकी सम्पत्ति में से दान ले लें कि पवित्र करें उनको (प्रकट रूप में) और शुद्ध करे तू उनको साथ उनके (आन्तरिक रूप से)।

मज़हब के लिए त्याग ऐसे भी—अब यदि मुसलमानों को केवल अपने जानोमाल मज़हब पर बलिदान करने का आदेश हो तो फिर भी ठीक है, क्योंकि अमुस्लिमों से लड़े बिना यह दोनों वस्तुएँ मज़हब को भेंट की जा सकती हैं। जैसे ताऊन के समय पीड़ितों की सहायता करें। आपत्तिग्रस्त लोगों की सहायता में अपनी जान जोखिम में डालें। परन्तु इस्लाम के इतिहास में इस प्रकार के उदाहरण नहीं मिलेंगे (कि ऐसे सेवा कार्य के लिए किसी ने अपनी जान व माल भेंट किया हो।)

[ कोष्ठक में दिये गये शब्द अनुवादक ने व्याख्या के लिए दिये हैं। —‘जिज्ञासु’]

यह जानें व यह माल इस्लाम पर कैसे सत्य सिद्ध होंगे? फ़रमाया है—

व ग़नहनो नतरब्बसो बिकुम अन्युसीबुकुसुल्लाहो विअज़ाबे मिनइन्दही औविएदेना।

—(सूरते तौबा आयत 52)

और हम प्रतीक्षा करते हैं तुम्हारे लिए कि अल्लाह पहुँचाए पीड़ा अपने पास से या तुम्हारे हाथों से। 

तफ़सीरे हुसैनी में इस अन्तिम वाक्य की व्याख्या ऐसे की है—

अज़ नज़दीके ख़ुद चूं सैहा व रजफ़ व ख़सफ़ ता हलाक शवेद या बिरसानद अज़ाबे बशुमा ब दस्तहाए मा कि शुमा रा बसबब कुफ़र बकतल रसानेम।

अपने पास से (पीड़ा) जैसे सूरज ग्रहण, चन्द्र ग्रहण से मृत्यु हो जावे या तुम्हें पीड़ा पहुँचाए हमारे हाथों ताकि तुम्हें कुफ़्र के कारण वध करें।

इन ख़ुदाई फ़ौजदारों को देखना कि अल्लामियाँ ने कुफ़्र दण्ड का आदेश नहीं दिया है कि काफ़िर को वध कर दो। क्या व्यंगोक्ति है? लड़ाई में यह मरें तो जीवित हैं और जो काफ़िर मरें तो उन पर क्रोध व दण्डादेश हुआ है। मृत्यु तो भाई दोनों की एक समान है इसका नाम बलिदान है तो, और दण्डादेश है तो—

यह तो जीवनों का प्रयोग, माल (सम्पत्ति) का भी सुन लीजिए। फ़रमाया है—

या अय्युहल्लज़ीना आमनू ला तरख़ुनुल्लाहा वर्रसूला।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 26)

ऐ लोगो! जो मुसलमान बने हो, विश्वासघात अल्लाह व रसूल से मत करो (धन मत छुपाओ)।

इस पर मूज़िहुल कुरान में लिखा है—

अल्लाह व रसूल की चोरी यह है कि काफ़िरों से छुपकर मिलें अपनी सम्पदा व सन्तानों को बचाने के लिए………और यह भी है कि लूट के (युद्धों के) माल को छुपाकर रखें, सेना के सरदार को न प्रकट करें।

मुसलमानों की जानें व माल अल्लाहमियाँ की सम्पत्ति हुए मगर अब अल्लाहमियाँ कर्ज़ भी चाहता है। कहा है—

मनज़ल्लज़ी युकरिज़ोल्लाहा करज़न हसनन फ़यजइफ़हू।

—(सूरते बकर आयत 245)

भला कौन है जो ऋण दे ख़ुदा को अच्छा ऋण फिर वह उसके लिए उस ऋण को दोगुना करे।

इस कर्ज़ की व्याख्या मूज़िहुल कुरान में की है—

धर्मयुद्ध (जिहाद) में खर्च करें।

तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है—

अबू अलदहद्दाह अंसारी पेश आमद व गुफ़्त वा रसूलिल्लाह ख़ुदा र्इं करज़ चिरा मेतलबद, आंहज़रत फ़रमूद कि मेख्वाहद कि ता शुमा रा ब वास्ताए आँबबहिश्त बिबुरद। अबूअलदहद्दाह गुफ़्त या रसूलिल्लाह मरा दोख़रामस्तान हस्तन्द व बहतरीन ख़रा मस्तान जनीमा नाम दारद अगर आंरा बकरज़ ख़ुदा दहम शुमा ज़ामिने बहिश्त मन मेशवेद, सैय्यद आलम फ़रमूद कि मन ज़ामिन मेशवम कि हक सुबहानहू दहचन्दा दर रियाज़े जिनां बतो अरज़ानी दारद। गुफ़्त ए सैय्यद, बशर्तें आंकि फ़रज़न्दाने मन व मादरे एशां बा मन बा मन बाशद। ख्वाजा आलम फ़रमूद कि आरे चुनीं बाशद।

अबू अलदहद्दाह अंसारी सामने आया और कहा कि या रसूलिल्लाह ख़ुदा यह कर्ज़ क्यों माँगता है। आं हज़रत ने फ़रमाया कि ख़ुदा चाहता है कि तुम्हें इसके द्वारा स्वर्ग में ले जाए। अबूअलदहद्दा ने कहा या रसूलिल्लाह मेरे पास दो नख़लिस्तान हैं उनमें से उत्तम का नाम जनीमा है, यदि उसे ख़ुदा को कर्ज़ दे दूँ तो क्या आप मेरे लिए बहिश्त के ज़ामिन (उत्तरदायी) होते हैं? सरवरे आलम ने फ़रमाया कि मैं उत्तरदायी होता हूँ कि सच्चा ख़ुदा बहिश्त में दस गुना तुझे देगा। कहा ऐ पैग़म्बर! इस शर्त पर कि मेरे लड़के व उसकी माँ भी मेरे साथ हो, फ़रमाया हाँ ऐसा ही होगा।

धर्मयुद्ध के लिए रुपये की ज़रूरत होती है। सरकार भी युद्ध के लिए कर्ज़ लेती है। अल्लाह मियाँ ने भी तो क्या बुरा किया? सरकार भी सूद का वचन देती है यह भी स्वर्ग में कई गुना दिये जाने का वचन है और केवल देने वाले को नहीं उसकी सन्तान व सन्तानों की माता को वहाँ ले जाने का वचन है। एक नख़लिस्तान के बदले में एक परिवार का परिवार स्वर्ग में, यह दयालुता है या आवश्यकता, ब्याज की दर बढ़ रही है।

यही बात सूरते माइदा में फिर फ़रमाई है—

व अकरज़ुतुमुल्लाहो करज़न हसनतन लउकुफ़िरन्ना अनकुम सियातिकुम व लअदरिवलन्नकुम जन्नातिन।

—(सूरते मायदा आयत 12)

और ऋण दो तुम अल्लाह को अच्छा, निश्चय ही मैं तुम्हारी बुराई दूर करूँगा और तुम्हें जन्नतों में प्रविष्ट करूँगा।

धर्मयुद्ध (जिहाद) में ख़र्च कर दिया। अब चाहे पाप किए भी हों सब दूर, ऊपर जो फ़रमा आय हैं। ले माल इनसे धर्मादे में ताकि तू इन्हें शुद्ध पवित्र कर दे।

यह माल किस काम में ख़र्च होता है फ़रमाया है—

व अइदूलहुम मस्ता अतुममिन कुव्वतिन व मिनरिबा तिलाहैले, तुरहिबूना बिहि अदुव्वाल्लाहो व अदुव्वकुम…………वा मातुनफ़िकू मिनशैइनकी सबीलिल्लाहे युवाफ़्फ़ा अलैकुम व अन्तुमला तुज़लिमून।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 59-60)

और जो तुम कर सको उनके लिए तैयारी करो शक्ति से और घोड़ों से और उनके द्वारा अल्लाह के शत्रुओं को डराओ और अपने शत्रुओं को डराओ………….और जो तुम व्यय करोगे अल्लाह के मार्ग में अल्लाह तुम्हें पूरा कर देगा। और तुम पर अत्याचार नहीं किया जाएगा।

इस्लामी शासन के काल में अधिकतर देशों में ग़ैर मुस्लिमों के लिए घोड़े की सवारी और हथियारों का प्रयोग निषिद्ध घोषित किया जाता रहा है। इसकी आधारशिला मुसलमान धर्माचार्यों ने इसी आयत को निश्चित किया है और इन सारे साधनों की आवश्यकता धर्मयुद्ध (जिहाद) के लिए है। काफ़िरों के हाथ में इन सभी साधनों को छोड़ना धर्मयुद्ध के नियमों की स्पष्ट आज्ञा का उल्लंघन है।

जान व माल ख़ुदा के मार्ग में ख़र्च करने का बदला अब तक परलोक के लिए रहा है, अर्थात् मृत्यु के पश्चात् सम्भव है कोई इस दूर के वचन के भरोसे इतना त्याग करने को तैयार न हो इसका भी फल बतलाया है—

व अदकुमुल्लाहो मग़ानिकसीरतन ताख़ुज़ूनहा।

—(सूरते फ़तह रकूअ 3)

और वचन दिया है तुमको अल्लाह ने बहुत लूटों का, कि उनको प्राप्त करोगे।

व आलमू अन्नमा ग़निमतुम मिनशैअन व अन्नल्लाहे ख़मसहू व लिर्रसूले।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 41)

और इस बात को समझलो कि जो कोई वस्तु तुम लूटकर लाओ उसमें से पाँचवाँ भाग अल्लाह के और रसूल के लिए (निर्धारित) है।

व यसइलूनका अनिल अन फ़ाले, कुलिल अनफ़ालो लिल्लाहे वर्रसूले बत्तकुल्लाहा।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 1)

तुमसे लूटों के माल के सम्बन्ध में पूछते हैं लूटें ख़ुदा के लिए और रसूल के लिए हैं इसलिए ख़ुदा से डरो।

अर्थात् ख़ुदा व रसूल का हिस्सा दो। और शेष तुम ले जाओ यही नहीं कुछ और भी है। फ़रमाया है—

ओ मा मलकत एमानहुम।

—(सूरते अलमोमिनून रकूअ 1)

और वह (लूटी हुई स्त्रियाँ) तुम्हारे दाएँ हाथ इन स्वामी बनें।

यह एक परिभाषा है कुरान की जिसका अनुवाद प्रत्येक भाष्यकार ने युद्धों में हाथ लगी हुई स्त्रियाँ किया है और वे लौंडियों (दासियों) के रूप में रखी जा सकती हैं।

गैर मुस्लिम के लिए केवल वध का ही आदेश नहीं है यदि वे धार्मिक कर (जज़िया) दे दें तो उसे प्रजा बनाकर रखा जा सकता है।

कातिलुल्लज़ीना लायोमिनूना बिल्लाहे व लाबिलयोमि लआरिवरे वला युहर्रिमूनामा हर्रमल्लाहो व रसूलूहा। वलायदीनूना दीनलहक्के मिल्लज़ीना उतुल किताबो हत्तायअतुलजतियता अनयदिव्वहुम साग़िरुन।

—(सूरते तौबा आयत 29)

जो मुसलमान नहीं बन जाते उनसे युद्ध करो, जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते और जो न्याय के दिन (कयामत) पर विश्वास नहीं लाते उनसे और सच्चे दीन (इस्लाम) का पालन नहीं करते जो जिन बातों को, हराम नहीं करते जो अल्लाह ने हराम किया है और उसके रसूल ने और उनमें से जिन्हें ख़ुदा ने किताब दी है जब वह आज्ञापालक हों और अपने हाथ से कर जज़िया दें और दुर्गति स्वीकार करें।

जलालैन की टिप्पणी इस आयत पर यह है कि—

उन लोगों को जो अल्लाह और कयामत पर विश्वास नहीं   रखते उनको मारो-काटो (अर्थात् रसूलिल्लाह सल्लम के प्रति भी अविश्वासी हैं, क्योंकि अल्लाह व कयामत पर विश्वास रखते तो रसूल पर भी विश्वास रखते) और जिन वस्तुओं को अल्लाह व उसके पैग़म्बर ने हराम (अवैध) निश्चित किया है जैसे शराब पीना। उसको हराम नहीं मानते और इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करते जो सच्चा दीन है व सब दीनों को निरस्त करने वाला है। ये लोग यहूदी व नसरानी हैं जिनको आसमानी किताब दी गई यह कदापि मुसलमान न होंगे फलतः जो कर उन पर लगाया जाएगा प्रति वर्ष अपमानित होकर उसे देंगे और इस्लामी शासन के अधीन विवशता में होंगे।

कुरान में जो यह सुविधा है कि कर (जज़िया) लेकर अपनी प्रजा बना लो ईसाइयों व यहूदियों तक ही सीमित है, परन्तु बाद के धर्माचार्यों (इस्लामी आचार संहिता के प्रणेताओं) ने इसे समस्त गैर मुस्लिमों के लिए सामान्य बना दिया है। अतएव हदाया (इस्लामी आचार संहिता) में लिखा है—

फ़इन्नमतनिऊ दऊहुम इललजियते फ़इन बज़लूहा कुलहुम मालिल मुसलिमीन।

यदि इस्लाम स्वीकार करने से अस्वीकृति दें तो उन पर कर निर्धारित किया जाए यदि उन्होंने स्वीकार कर लिया तो उनके लिए सुरक्षा है, जैसा मुसलमानों के लिए है।

 

कुरान में नारी की दुर्दशा

कुरान में नारी का रूप

फिर मानव मात्र का अर्थ ही कुछ नहीं—संसार की जनसंख्या की आधी स्त्रियाँ हैं और किसी मत का यह दावा कि वह मानव मात्र के लिए कल्याण करने आया है इस कसौटी पर परखा जाना आवश्यक है कि वह मानव समाज के इस अर्ध भाग को सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक अधिकार क्या देता है। कुरान में कुंवारा रहना मना है। बिना विवाह के कोई मनुष्य रह नहीं सकता। अल्प, व्यस्क, बच्चा तो होता ही माँ-बाप के हाथ का खिलौना है।


वयस्क होने पर मुसलमान स्त्रियों को यह आदेश है—

व करना फी बयूतिकुन्ना। —(सूरते अहज़ाब आयत 32)


यही वह आयत है जिसके आधार पर परदा प्रथा खड़ी की गई है। इससे शारीरिक, मानसिक, नैतिक व आध्यात्मिक सब प्रकार की हानियाँ होती हैं और हो रही हैं। स्वयं इस्लामी देशों में इस प्रथा के विरुद्ध कड़ा आन्दोलन किया जा रहा है। कानून बन रहे हैं जिससे परदे को अनावश्यक ही नहीं, अनूचित घोषित किया जा रहा है। परदा इस बात का प्रमाण है कि स्त्री अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रखती। वह स्वतन्त्र रह नहीं सकती। विवाह से पूर्व व बाद में दोनों दशाओं में परदे का प्रतिबन्ध बना रहता है। 1

[1. अब जो कट्टरपंथी पूरे विश्व में आन्दोलन चला रहे हैं इसका अन्त क्या होता है यह आने वाले युग का इतिहास बतायेगा।   —‘जिज्ञासु’]

इस्लाम में विवाह का सम्बन्ध निरस्त किया जा सकता है, परन्तु जहाँ पति जब चाहे तलाक दे सकता है और उसे किसी न्यायालय में जाने की आवश्यकता नहीं वहाँ स्त्रियों को न्यायालय में सिद्ध करना होता है कि उसे तलाक दिया जाना आवश्यक है। नारी और न्यायालय तलाक देते समय पुरुष पर केवल आवश्यक है कि वह महर (विवाह के समय निश्चित राशि) अदा कर दे। इसे कुरान की परिभाषा में अजूरहुन्ना कहा है।

फमा अस्तमतअतमाबिहि मिन्हुन्ना फ़आतूहुन्ना अजूरहुन्ना  फरी ज़तुन।

और जिनसे तुम फ़ायदा उठाओ उन्हें उनका निर्धारित किया गया महर दे दो।

तलाक से अल्लाह रुष्ट—शादी रुपयों-पैसों का रिश्ता नहीं। यह दो शरीरों का ही नहीं दो दिलों का बन्धन है जिसकी दशा शारीरिक रूप में सन्तान, परमात्मा की पवित्र सन्तान है। और आत्मिक दशा में दो आत्माओं की दो शरीरों में एकता है। इतना ही अच्छा है कि एक हदीस में फ़रमाया है कि ख़ुदा किसी बात से इतना रुष्ट नहीं होता जितना तलाक से।

सन्तान हो जाने पर किसी ने तलाक दे दिया तो? फ़रमाया है—

बल बालिदातोयुरज़िअना औलादहुन्ना हौलैने कामिलीने, लिमन अरादा अन युतिम्मरज़ाअता व अललमौलूदे लहू रिज़ कहुन्न व कि सवतहुन्ना बिल मारुफ़े।

—(सूरते बकर आयत 233)

और माँऐ दूध पिलायें अपनी सन्तानों को पूरे दो वर्ष। और यदि वह (बाप) दूध पिलाने की अवधि पूरा कराना चाहे। और बाप पर (ज़रूरी है) उनका खिलाना, पिलाना और कपड़े-लत्तों का (प्रबन्ध) रिवाज के अनुसार माँ का रिश्ता इतना ही है औलाद से, इससे बढ़कर उनकी वह क्या लगती है?

फिर बहु विवाह की आज्ञा है। कहा है—

फ़न्किहु मताबालकुम मिनन्निसाए मसना व सलास वरूब आफ़इन ख़िफ्तुम इल्ला तअदिलू फ़वाहिदतन ओमामलकत ईमानुकुम।

—(सूरते निसा आयत 3)

फिर निकाह करो जो औरतें तुम्हें अच्छी लगें। दो, तीन या चार, परन्तु यदि तुम्हें भय हो कि तुम न्याय नहीं कर सकोगे (उस दशा में) फिर एक (ही) करो जो तुम्हारे दाहिने हाथ की सम्पत्ति है। यह अधिक अच्छा है ताकि तुम सच्चे रास्ते से न उल्टा करो।

अधिक शादियों पर न्याय शर्त है। फिर कहा है—

व लन तस्ततीऊ अन तअदिलू बैनन्निसांए वलौहरसतुम।

—(सूरते निसा आयत 129)

और तुम औरतों में न्याय नहीं कर सकते चाहे तुम लालच    करो।

मुसलमान फिर भी बहुविवाह करते हैं—ऐसी दशा में तो अहले इस्लाम को एक से अधिक विवाह करने ही नहीं चाहिए, परन्तु हो रहे हैं और उनका (हानिकारक) फल भी भुगता जा रहा है।

इस हेराफेरी के द्वारा विरोध करने से तो उचित यही था कि स्पष्ट निषेध कर दिया जाता। बात यह है कि कुरान ने (अदल बिन्नसा) (स्त्रियों में न्याय) पर तो आग्रह किया है, परन्तु अदल बैना जिन्सैन (दो प्राणियों में न्याय) स्त्री व पुरुषों में न्याय को लक्ष्य नहीं बनाया है।

औरतों में न्याय का तो अर्थ यह हुआ कि मर्द शासक है औरतें उनकी कचहरी में एक पक्ष है। चाहिए था कि मर्द व औरत को परस्पर पक्ष बनाना जैसे मर्द को यह पसन्द नहीं कि उसकी स्त्री का परपुरुष से सम्बन्ध हो, वैसे ही औरत भी सौतन के डाह से जलती है।

न्याय यह है कि दोनों को एक ही विवाह पर सन्तोष करना चाहिए फिर दाहिने हाथ की सम्पत्ति, जिसके अर्थ सभी कुरान के भाष्यकारों ने बान्दियाँ किए हैं। यह दो प्राणियों में न्याय का सर्वथा विपरीत है। यह आज्ञा किसी नैतिकता के नियमानुसार उचित नहीं हो सकती।

शियाओं के मत में मुतआ (अस्थायी विवाह) भी उचित है। जो आयत हम ऊपर महर के अधिकार के दिए जाने के सम्बन्ध में प्रमाण रूप में उद्धृत कर चुके हैं।

शिया मुसलमान इस आयत से मुतआ का औचित्य ग्रहण करते हैं। सुन्नी मुसलमान भी मानते हैं कि मुहम्मद साहेब के जीवनकाल में कुछ समय तक मुतआ प्रचलित रहा बाद में निषिद्ध हुआ और मुतआ के अर्थ हैं अस्थायी विवाह। जिसका रिवाज ईरान में अब तक पाया जाता है।

विवाह और अस्थायी, फिर इस पर हलाला है, कहा है—

वत्तलाको मर्रतैने….फ़इनतल्लकहा फ़लातहिल्लु लहू मिनबादे हत्तातन्किहाज़ौजन गरहू, फ़इन तल्लकहा फ़ला जुनाहा। अलैहुमा।

—(सूरते बकर आयत 229-230)

तलाक दो बार दिया जा सकता है…….फिर यदि (तीसरी बार) दे दे तो उसे विहित (हलाल) नहीं उसे, उसके पश्चात् यहाँ तक कि वह निकाह करे दूसरे पुरुष से फिर जब वह भी तलाक दे दे तो फिर कोई दोष नहीं।

तीसरे निकाह पर कहा है—

मुतआ क्या है? इसे हम एक जाने माने मौलाना के शब्दों में बताते हैं, ‘‘It means that a man settles it, under the name of muta, with a woman not having a husband and with whom marriage is not forbidden,according to the shariat, that he will take her for a wife for a fixed period of time and on payment of a fixed amount of money, and then during that period he can legitimately have sex with her.No qazi, witness or vakil is required for it and it needs not, also be made known nor even disclosed to a third person. It can all be done clandestine manner which (we are told) is the usual practice.” Khomeini Iranian Revolution and the Shi’te faith P. 180

[इसका सारांश यह है कि कुछ राशि देकर एक निश्चित समय के लिए किसी स्त्री से जिसका पति न हो सम्भोग किया जाता है। उस काल में उसे बीवी बनाया जाता है। यह सम्बन्ध गुप्त होता है। किसी तीसरे व्यक्ति को पता तक नहीं लगने दिया जाता। इसमें कोई काज़ी, कोई साक्षी व वकील नहीं होता।    —‘जिज्ञासु’]

निकाह नहीं बन्ध सकता जब तक कि बीच में दूसरे पति से सम्भोग न हो चुके। (मूज़िहुल कुरान)।

इस हलाला पर संख्या का बन्धन नहीं जितनी बार तीसरा तलाक दिया जाएगा। उतनी ही बार पहले पति से निकाह करने के लिए हलाला आवश्यक होगा। यह कानून की बहुत बड़ी भूल है। इसकी दार्शनिक, तार्किक, सामाजिक परिणामों की कल्पना करके भी पाठक काँप उठेगा 1 ।

[1. कुर्आन व इस्लामी साहित्य के मर्मज्ञ विश्व प्रसिद्ध लेखक श्री अनवरशेख ने ‘हलाला’ पर एक लोकप्रिय पठनीय कहानी लिखकर विचारशील लोगों को झकझोर कर रख दिया है। सत्यान्वेषी पाठकों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए।   —‘जिज्ञासु’]

 

लव जिहाद में फंसती लड़कियां

लव जिहाद या रोमियो जिहाद

यह जिहाद का ही एक अंग है मुसलमानों की तरफ से कई तरह के जिहाद किये जाते है जिनके परिणाम अल्प समय में भी दिख जाते है तो कई परिणाम दूरगामी होते है

लव जिहाद शब्द पढ़कर जिन्हें यह लगता है की यह भारत की राजनीतिक रोटी सेकने के लिए पैदा किया गया शब्द है तो सच मानिए आपको स्वयम आपकी बुद्धि पर तरस आना चाहिए
मेने आजकल की पढीलिखी युवा पीढ़ी को इस शब्द के कानों में पड़ते ही मुह सिकुड़ते हुए देखा है

इसीलिए इतना विस्तृत लिखने की इच्छा होती है की यह शब्द किसी राजनितिक लाभ के लिए नहीं बनाया गया है

इसका इतिहास पुराना ही है बस आज इसके बुरे परिणाम देखने को मिल रहे है तो इतना बवाल मचा हुआ है और मचे भी क्यों नहीं जब आग घर में लगी हो तो परिवार मौहल्ले को सर पर तो उठाएगा ही

आज आग सनातनियों के घर में लगी है इसलिए हल्ला मचा है और इन आक्रान्ताओं के सहायक तत्वों ने इसे राजनितिक रंग देना प्रारम्भ कर दिया

परन्तु जब यह जिहाद अपने चरम पर पहुंचा है तो देश की कुछ मुख्य न्याय पालिकाओं को यह सत्य दिखाई देने लगा है

लव जिहाद यह शब्द भारत सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता है किन्तु कथित रूप से इसी तरह की गतिविधियाँ यूके आदि देशों में भी हुई हैं। केरल हाईकोर्ट के द्वारा दिए एक फैसले में लव जेहाद को सत्य पाया है।
इस्लाम फैलाने के दो मुख्य तरीके उपयोग में लिए जाते रहे है

पहला जबरदस्ती जो पहले बहुत उपयोग किया जाने लगा जब भारत या किसी भी देश में राज्य संगठित नहीं थे तब इस्लामिक आक्रान्ता जबरदस्ती तलवार के जोर पर इस्लाम कबूल करवाते थे और इसका इतिहास हमें पढने को मिलता है

दूसरा है प्यार मोहब्बत इश्क यह तरीका पहले भी अपनाने के प्रयास किये गये थे जिनमें इस्लामिक आक्रान्ताओं को मुह की खानी पड़ी थी सफलता उँगलियों पर गिनी जा सकती है इतनी ही मिली

इसका कारण है की पहले संस्कारों की कमी नहीं थी ना पाश्चात्य संस्कृति हावी थी

परन्तु आज की स्थिति बहुत ही भयावह है

 

जहाँ पहले लड़कियों की आदर्श हुआ करती थी

रानी लक्ष्मी बाई जिन्होंने देश की रक्षा के लिए छोटे बच्चे को कमर पर बांधकर शत्रुओं के खिलाफ तलवार उठाई,

रानी पद्मिनी जिन्होंने अपने स्त्रीधर्म की रक्षा हेतु जौहर कर लिया,

वीरांगना ऊदा देवी,

रणचंडी मुन्दर,

झलकारी बाई,

तपस्वनी देवी,

अवन्तिका बाई,

पन्ना धाय,

ऐसे सेंकडों नाम है जिनसे भारतीय इतिहास आज भी गौरवान्वित है

तब लव जिहाद जैसे शब्द सुनने में नहीं आये क्यूंकि हमारी लड़कियां स्वयं इतनी सशक्त थी की कोई मुल्ला पास तक फटकने से डरता था

वही जब से लड़कियों ने

करीना कपूर (जिसने एक नवाब के बेटे से विवाह कर भारतीय इतिहास में कुख्यात रह चुके तेमूर के नाम से अपने बेटे का नामकरण किया),

प्रियंका चौपडा (जो मेरी जिन्दगी मेरी पसंद के नाम पर गंदगी फैला चुकी है),

दीपिका पादुकोण (जो एक प्रेमी के होते हुए विन डीजल के बच्चे की माँ बनने का ख़्वाब देखती है),

अमृता राव (जो विवाह से पूर्व सेक्स को सही मानती है)

ऐसी ऐसी लडकियों को अपना आदर्श बनाया है तब से इन गजवा ए हिन्द का स्वप्न देखने वालों को मौक़ा मिल चूका है

फैशन की मारी इन लड़कियों को आकर्षित करना इनके लिए दाए हाथ का खेल बन चूका है और संस्कार विहीन ये लड़कियां इनके जाल में फस भी जाती है

इस पर विस्तार से लिखा जा सकता है

परन्तु यह बिलकुल उचित नहीं होगा की सम्पूर्ण दोष उन लड़कियों को दिया जाए जो ऐसी प्रवृति की है सबसे बड़ा दोष है परिजनों का जिन्होंने हद से अधिक अपने बच्चों को छुट दी है चाहे वो लड़की हो या लड़का एक हद तक छुट दी जाए तो ठीक है परन्तु पहले ही संस्कार से विहीन बच्चे फिर ऊपर से इतनी छुट यह तो आग में घी का कार्य हो रहा है

जब लडकी लव जिहाद के केस में फस जाती है तो इन्हें ये सत्य दिखाई देता है हाय तौबा मचाते है और इस देश में अभी तक ऐसा कानून है नहीं की परिवार वाले शिकार हो चुकी अपनी बच्ची को बच्चा सके

मारवाड़ी में कहते है की “राड़ बीचे बाड़ भत्ति” यानी डांटने मारने पीटने से अच्छा है की पहले की कुछ प्रतिबन्ध बच्चों पर लागू रखे जाए

बच्चों पर नजर रखी जाए उनकी दिनचर्या का पूरा ध्यान रखे बच्चा कहाँ जा रहा है किससे मिल रहा है, क्या खा रहा है, कैसे कपड़े पहन रहा है

हर एक छोटी से छोटी गतिविधि का ध्यान रखा जाए

 

और यह कोई मुश्किल कार्य नहीं हर बच्चे के पास स्मार्ट फोन आज मिल जाता है, बस इसीके सदुपयोग से आप अपने बच्चों की निगरानी रख सकते है

इसके लिए सभी जानकारियाँ इन्टरनेट पर मिल जाती है

अपने घर में आध्यात्मिक साहित्य के साथ वीर वीरांगनाओं के इतिहास की किताबे भी रखे बच्चों को लव जिहाद की सभी घटनाओं से परिचित करवाए

 

मेरा मानना है की हम बाद में पछताए यदि उससे पूर्व ही थोड़ी सी सतर्कता बरते तो शायद हमें कभी पछताना न पड़े

प्रयास रहेगा आपको इससे और अधिक जानकारी इसी वेबसाइट के माध्यम से दी जाए

नमस्ते

एक ऐसा ही केस अभी सुर्ख़ियों में है

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लव जिहाद कारण : निवारण

love jihad