Category Archives: महर्षि दयानंद सरस्वती

स्वामी दयानन्द प्राचीन ऋषियों की परम्परा वाले सच्चे ऋषि, संसार के सर्वोच्च गुरु एवं अपूर्व वेद-धर्म प्रचारक हैं

ओ३म्

स्वामी दयानन्द प्राचीन ऋषियों की परम्परा वाले सच्चे ऋषि,

संसार के सर्वोच्च गुरु एवं अपूर्व वेदधर्म प्रचारक हैं

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हमारे लेख के शीर्षक से आर्यसमाज के अनुयायी तो प्रायः सभी सहमत होंगे परन्तु इतर बन्धु इस तथ्य को स्वीकार करने में संकोच कर सकते हैं। अतः अपने ऐसे बन्धुओं से हम प्रश्न करते हैं कि वह महर्षि दयानन्द से अधिक प्रतिभावान व योग्य ऋषि का नाम बतायें? दूसरा प्रश्न यह है कि महर्षि दयानन्द से उच्च कौन सा गुरु है जिसने संसार को धार्मिक विषयों सहित सभी प्रकार का सत्य ज्ञान दिया है? गुरु, ज्ञान व विद्या में पराकाष्ठा व उसका लाभ संसार के अधिक से अधिक लोगों में निःस्वार्थ भाव से वितरित करने वाले को कहते हैं। अज्ञानी, अल्पज्ञान व जिसकी बातें, विचार व सिद्धान्त भ्रान्तिपूर्ण हो वह विश्व गुरू तो क्या एक साधारण गुरु भी नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार से महाभारत काल के बाद के पांच हजार वर्षों में ऐसा कौन सा विद्वान हुआ जिसकी तुलना महर्षि दयानन्द से कर सकते हैं, जिसने उनकी तरह से वेदों की खोज की हो और उनके सत्य अर्थों को प्राप्त कर उसको अधिकतम लोगों तक पहुंचाने का पुरजोर प्रयास किया है। महर्षि दयानन्द जी का एक गुण और है जो उनके पूर्व व बाद के महापुरुषों सहित धार्मिक विद्वानों व धर्मगुरुओं में नहीं पाया जाता। वह उनका बाल ब्रह्मचारी होने के साथ सिद्ध योगी होना भी है। इन सब व अन्य अनेक गुणों के कारण वह संसार के सर्वश्रेष्ठ मानव व सर्वोच्च विश्व गुरु सिद्ध होते हैं।

 

महर्षि दयानन्द गुरु, ऋषि व वेदप्रचारक कैसे थे? इसका उत्तर है महर्षि दयानन्द के समय चार वेदों की मन्त्र संहितायें हिन्दुओं वा आर्यों के आलस्य प्रमाद के कारण लुप्त प्रायः हो चुकी थीं। उनके जीवन काल में वेदों की मुद्रित मन्त्र संहितायें व सायण आदि भाष्य आदि देश भर में कहीं उपलब्ध नहीं होते थे। सायण ने जो मन्त्र भाष्य किया वह भी प्राचीन वेद परम्परा व अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त पद्धति के अनुरुप व उनसे पोषित नहीं था। उन्होंने सभी वेद मन्त्रों का प्रयोजन यज्ञार्थ बताकर उनके याज्ञिक अर्थ ही किये थे। इसके विपरीत महर्षि दयानंद अपने समय व महाभारत काल के बाद पहले विद्वान थे जिन्होंने चुनौती के स्वरों में घोषणा की थी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। अपनी इस मान्यता को वेदों का भाष्य आरम्भ करने से पूर्व उन्होंने चारों वेदों की भूमिका के रूप में लिखी पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया है। महर्षि दयानन्द ने चारों वेदों के भाष्यों के लेखन का उपक्रम आरम्भ किया था। यदि उनके विरोधियों ने उन्हें विष देकर मारा न होता तो वह चारों वेदों का अपूर्व भाष्य करते। सारे देश में घूम-घूम कर वेदों का प्रचार, प्रतिपक्षियों से शास्त्रार्थ व वार्तालाप व अन्य अनेक ग्रन्थों का लेखन, आर्यसमाजों की स्थापना, गोरक्षा आन्दोलन, हिन्दी रक्षा आन्दोलन आदि कार्यो को करते हुए भी उन्होंने यजुर्वेद का सम्पूर्ण और ऋग्वेद के कुल 10 मण्डलों में से 6 मण्डलों का पूर्ण और सातवे मण्डल का आंशिक भाष्य किया है। उनके द्वारा किया गया भाष्य आकार व परिमाण की दृष्टि से समस्त चार वेदों का 33 प्रतिशत से कुछ अधिक है। वेदों का यह भाष्य संस्कृत व हिन्दी दोनों में है। सभी मन्त्रों के ऋषि व देवताओं सहित स्वर व छन्द भी दिये गये हैं और मन्त्रों का पदच्छेद, अन्वय, पदों के संस्कृत व हिन्दी में अर्थ सहित इन दोनों भाषाओं में प्रत्येक मन्त्र का भावार्थ भी दिया गया है। मण्डल, सूक्त आदि के अन्त में पूर्व के सूक्त की बाद के सूक्त के साथ संगति कैसे लगती है, यह भी दर्शायी गई है। कई स्थलों पर सायण भाष्य की न्यूनता व त्रुटियों को बताया गया है। इस प्रकार से महर्षि दयानन्द द्वारा किया गया भाष्य संसार के इतिहास में अपूर्व व महत्ता में सर्वोपरि उत्कृष्ट है।

 

महर्षि दयानन्द के जीवन चरित से ज्ञात होता है कि उन्होंने चारों वेदों के प्रत्येक मन्त्र को जाना व समझा था तभी वह वेदों पर अनेक घोषणायें कर सके थे जिनमें चारों वेदों में मूर्तिपूजा का विधान कहीं नहीं है, घोषणा भी सम्मिति है। उनकी इस चुनौती को देश भर के बड़े से बड़े किसी पण्डित ने स्वीकार नहीं किया और काशी में इस विषय में जो शास्त्रार्थ हुआ उसमें भी पूरी काशी व देश के शीर्ष पण्डित वेदों में मूर्तिैपूजा का विधायी एक मन्त्र भी नहीं दिखा पाये थे और न ही उस शास्त्रार्थ के 14 वर्ष बाद तक उनके जीवन काल में व आज तक दिखा सके हैं। इस प्रकार से महर्षि दयानन्द चारों वेदों के मन्त्रों के अर्थों के द्रष्टा वा विद्वान थे। इस कारण उनको न केवल ऋषि=वदों के मन्त्रों के अर्थों के द्रष्टा ही अपितु अपूर्व ऋषि व महर्षि भी कह सकते हैं। भारत में वेदों का पहली बार मुद्रण उन्हीं के प्रयासों से हुआ जो उनका इतिहास में अन्यतम कार्य है। अतः स्वामी दयानन्द सच्चे व अपूर्व ऋषि सिद्ध होने के साथ चारों वेदों के ज्ञाता व व्याख्याता की दक्षता रखने के कारण महर्षि भी सिद्ध होते हैं।

 

मनुष्यों को शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। संसार की आदि से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत, विवरण व कुछ इतिहास रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में दृष्टिगोचर होता है। महाभारत काल के बाद भी यह क्रम जारी है परन्तु महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आईं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों में मूक पशुओं की हिंसा का क्रम जारी हुआ व बढ़ता रहा। सामाजिक विषमता व अनेक कुरीतियां प्रचलित हुई जिनका आधार अज्ञान व अन्धविश्वास थे जो अज्ञान व अविद्या से ही उत्पन्न होते हैं। उस समय में ऐसे किसी सुधारक का विवरण नहीं मिलता जिसने यज्ञों में हिंसा सहित अज्ञान, अन्धविश्वास तथा कुरीतियां का पूर्ण निवारण करने का बीड़ा उठाया हो और इन समस्याओं के सत्य समाधान प्रस्तुत किये हों। वेदों के सत्य अर्थों को तो इस अवधि में विलुप्त हुआ ही पाते हैं। महात्मा बुद्ध ने अवश्य यज्ञों में पशु हिंसा का विरोध किया परन्तु यह हिंसा जिस अज्ञान व स्वार्थ आदि के कारण अस्तित्व में आई थी उसका कोई समाधान नहीं किया। वेदों के सत्य अर्थ भी हमें उनसे नहीं मिलें। हम जानते हैं कि दूषित जल पीने योग्य नहीं होता परन्तु उसे छान कर, अशुद्धियों को हटाकर स्वच्छ व निर्मल बनाकर प्रयोग में लाया जा सकता है। यही विधि ग्राह्य होती है। यज्ञों का विरोध करने से यथार्थ हिंसारहित यज्ञों से होने वाले लाभों से भी मनुष्य समाज वंचित हो गया। नास्तिकता को बढ़ावा मिला। ईश्वर की यथार्थ उपासना भी विकृत वा बन्द हो गई। यह हमें कोई समाधान नहीं लगता। बाद में स्वामी शंकराचार्यजी हुए। वह विद्या की दृष्टि से महाभारत काल के बाद सर्वाधिक योग्य व शीर्ष स्थान पर थे। उन्हें समाज से ईश्वर की अवहेलना करने वाले नास्तिक मतों को हटा कर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के साथ वैदिक धर्म को प्रवृत्त करना था। परन्तु उन्होंने जिस अद्वैतवाद का सिद्धान्त दिया, वह उनसे पूर्व के इतिहासादि, वेद, दर्शन व उपनिषदों में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। वेद से लेकर महाभारत काल व उसके बाद के साहित्य में सर्वत्र त्रैतवाद अर्थात् ईश्वर, जीव व प्रकृति की पृथक-पृथक सत्ता का वाद ही प्रचलित पाया जाता है जो कि पूर्णतया व्यवहारिक एवं यथार्थ है।

 

आज का सारा संसार सृष्टि के अस्तित्व व महत्व को स्वीकार करता है। यह संसार व इसके दिन प्रतिदिन होने वाले आविष्कार एवं घटनायें स्वप्नवत न होकर वास्तविक व यथार्थ हैं। भारत में रेलें चलती हैं और हम उनका उपयोग करते हैं, यह स्वप्नवत नहीं, हकीकत व यथार्थ हैं। स्वामी शंकराचार्य जी के बाद जो मत देश व विदेश में उत्पन्न हुए वह एंकागीं व अपूर्ण थे। उनमें यदि बहुत सी बातें अच्छी, सत्य व उचित थी तो बहुत सी अज्ञान व अन्धविश्वासों से युक्त अविवेकपूर्ण भी हैं। अतः अज्ञान, अन्धविश्वास व अविवेकपूर्ण बातों को मानने वाले व प्रचार करने वाले सच्चे व सर्वोच्च गुरु की उपमा व उपाधि से अभिहित नहीं कहे जा सकते। महर्षि दयानन्द महाभारत काल के बाद इतिहास में पहले महापुरुष हुए हैं जिन्होंने सत्य की कसौटी को पकड़ा और चाहे ईश्वर का अस्तित्व व उसकी उपासना हो या कुछ अन्य भी, सभी को सत्य की कसौटी पर कसा और उसका ऐसा प्रचार किया जिसकी इतिहास में दूसरी मिसाल नहीं है। उन्होंने सभी मतों के अज्ञान, अन्धविश्वासों व मिथ्याचारों पर दृष्टि डाली और उन्हें मनुष्यजाति के सुख शान्ति के लिए हानिकर जानकर उसके निवारण का अपूर्व प्रयास व पुरुषार्थ किया। ऐसा करने में उनका अपना कोई निजी प्रयोजन, हित व स्वार्थ नहीं अपितु केवल ईश्वर की आज्ञा का पालन व लोकोपकार की भावना ही थी। महर्षि दयानन्द ज्ञान की दृष्टि से महाभारत काल के बाद उत्पन्न हुए सर्वोच्च व शीर्ष पुरुष तो थे ही, उन्होंने वेद की सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों के लेखन व मौखिक प्रचार का भी कीर्तिमान स्थापित किया है। इसके लिए उन्होंने कितने कष्ट सहे, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। वह शायद इतिहास में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने संसार से धार्मिक व सामाजिक अज्ञान, अन्धविश्वास, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न को दूर कर ईश्वर की सच्ची उपासना, यज्ञ के सत्य स्वरुप का प्रचार व उसके क्रियात्मक पक्ष की विधि आदि का निर्माण व प्रचार किया। उनके द्वारा किए गये एक नही ऐसे अनेकानेक काम हैं जिस पर बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। मानवता की सेवा व सुधार का उन्होंने अपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसके कारण हम स्वामी दयानन्द को विश्व का सर्वोच्च गुरु पाते है। ऐसा करके हम किसी अन्य गुरु की अवहेलना नहीं कर रहे हैं। अन्य सभी गुरु भी देश काल व परिस्थिति के अनुसार महान थे व हो सकते हैं परन्तु महर्षि दयानन्द का कार्य अन्यों की तुलना में अधिक महान व समाज सुधार व श्रेष्ठ समाज के निर्माण की दृष्टि से अतुलनीय है।

 

स्वामी दयानन्द मुत्यु के उपाय व सत्य की खोज में अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में घर से निकले थे। पूरे देश का भ्रमण कर उन्हें मिले सभी गुरुओं की संगति व सेवा कर तथा अपनी अपूर्व बौद्धिक क्षमताओं से उन्होंने अपूर्व ज्ञान व वैदुष्य प्राप्त किया था। योग में वह सिद्ध योगी बने और ज्ञान की पराकाष्ठा को उन्होंने संस्कृत भाषा की आर्ष व्याकरण, उपनिषदों, दर्शनों, वेदांगों व वेद के ज्ञान सहित दण्डी गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती के शिष्यत्व से प्राप्त किया। स्वामी दयानन्द के अनेक गुरुओं में स्वामी विरजानन्द सरस्वती उनके सर्वोच्च गुरु थे। उनकी प्रेरणा व आज्ञा से व अपने विवेक से उन्होंने अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक असमानता व विषमता, देश सुधार व देशोन्नति का कोई कार्य छोड़ा नहीं अपितु सभी कार्यों को प्राणपन से किया। इन सब कार्यों का आधार उनका वैदिक ज्ञान था। सभी सुधारों का सुधार वेदाध्ययन, वेदाचारण व वेद प्रचार ही है। स्वामी दयानन्द ने वेद प्रचार के लिए ही मुख्यतः सर्वाधिक प्रयत्न किये। उनके मौखिक प्रचार के अतिरिक्त वेदों का भाष्य, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कारविधि आदि अन्यान्य ग्रन्थ वेद प्रचार के ही अंग-प्रत्यंग हैं। वह महाभारत काल के बाद अपूर्व वेद प्रचारक हुए हैं। ऐसा वेद प्रचारक सृष्टि की आदि से वर्तमान युग तक होने का वर्णन नहीं मिलता और न हि अनुमान ही होता है। उनका वेद प्रचार का कार्य संसार के कल्याण की दृष्टि से सर्वोत्तम कार्य है। मनुष्य जीवन में वेद प्रचार का कार्य करना एक प्रकार से ईश्वर का ही कार्य व साधना है। अपने कल्याण की इच्छा करने वाले सभी मनुष्यों को वैदिक साधना के साथ वेदाध्ययन व वेद प्रचार को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाना चाहिये। सभी सरकारों को योग्य वेद प्रचारकों को सर्वाधिक सम्मान व उनकी आर्थिक आवश्यकताओं का ध्यान रखना चाहिये। देश व संसार में जितना अधिक वेदप्रचार होगा, जिसकी दशा व दिशा महर्षि दयानन्द अपने जीवन के उदाहरण से निर्धारित कर चुके हैं, उतना ही मानवता का हित होगा। यह कार्य ईश्वर का कार्य होने के साथ मानव जाति की समग्र उन्नति व सुख शान्ति का कार्य है। इसको समाज में मुख्य स्थान मिलना चाहिये। लेख को विराम देते हुए हम आशा करते हैं पाठक लेख को पसन्द करेंगे।

 

            –मनमोहन कुमार आर्य

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‘महर्षि दयानन्द ने वेदों का प्रचार और खण्डन-मण्डन क्यों किया?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द ने अपने वैदिक एवं यौगिक ज्ञान व तदनुरूप कार्यों से विश्व के धार्मिक व सामाजिक जगत में अपना सर्वोपरि स्थान बनाया है। उन्होंने सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि ज्ञानविज्ञान का स्रोत ईश्वर वेद हैं। आर्यसमाज के दस नियमों में से उन्होंने पहला ही नियम बनाया कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है। यहां प्रयुक्त विद्या शब्द में ज्ञान विज्ञान दोनों सम्मिलित हैं। जिस मनुष्य को ईश्वर व वेदों का पूर्ण, स्पष्ट व निर्भ्रांत ज्ञान नहीं है वह अध्यात्म में पूर्णता=ईश्वर साक्षात्कार को प्राप्त नहीं कर सकता। ईश्वर का सत्य वा यथार्थ ज्ञान भी मुख्यतः वेदों व तदाधारित वैदिक साहित्य से ही होता है। वेद ही आध्यात्मिक व सामाजिक ज्ञान की प्रमाणिकता की प्रमुख कसौटी है। यही कारण है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक वेदों के आश्रय से ही कर्तव्य व अन्य शास्त्रों की रचना हमारे निर्भ्रांत ज्ञानी ऋषियों ने की और उन्हीं का प्रचार प्राचीन काल में समूचे विश्व में रहा है। वैदिक विचारधारा ने ही भारत को अतीत में अगणित ऋषियों सहित महाराजा हरिश्चन्द्र, अयोध्या के राजा राम और महाभारत के योगेश्वर श्री कृष्ण सदृश महात्मा व महापुरुष दिये थे। वैदिक धर्म व संस्कृति रूपी ज्ञान की निर्मल व पवित्र धारा वेदों के आविर्भाव से ही सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुई जो कि वैदिक काल गणना के अनुसार लगभग 1.96 अरब वर्षों वा महाभारत काल तक चली और आज भी यह विचारधारा सर्वाधिक प्रभावशाली होने के कारण गौरव के साथ देश में विद्यमान है।

 

विगत पांच हजार वर्षों में भारत में धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक दृष्टि से अनेक उतार चढ़ाव आये हैं। महाभारत के महाविनाशकारी युद्ध के कारण देश भर में राजनैतिक, सामाजिक व शैक्षिक व्यवस्था ढीली वा भंग हो गई थी। इस कारण दिन प्रतिदिन ज्ञान व विज्ञान घटने लगा व आलस्य व प्रमाद वृद्धि को प्राप्त होता गया। इस कारण समाज में अन्धविश्वासों की सृष्टि हुई। यज्ञ व अग्निहोत्र जिसको ‘‘अध्वर इस कारण कहते हैं कि यह पूर्ण अंहिसक होता है, इसमें अज्ञानता व स्वार्थवश पशुओं की हत्याकर इनके मांस से आहुतियां दी जाने लगी। अश्वमेध यज्ञ जो राष्ट्र रक्षा के पर्याय कार्यों का यज्ञ होता था, उसमें घोड़े की हत्या कर उसके मांस से आहुतियां दी जाने लगी थी। इसी प्रकार अजामेध व गोमेध का भी हश्र हुआ। आश्चर्य होता है कि उस समय क्या भारत भूमि के एक भी ऐसा विद्वान नहीं रहा था जो इन दुष्कार्यों का विरोध करता? यह अत्याचार व अनाचार बढ़ता गया। अन्य अन्धविश्वास भी उत्पन्न होने लगे। क्योंकि यह सब हमारे वेद के यथार्थ अर्थों व अभिप्रायों को भूले हुए पण्डितों द्वारा किये जाते थे। इस कारण किसी मनुष्य में इसका विरोध करने का साहस नहीं होता था। गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर वैदिक काल में स्थापित और सुचारू रूप से कार्यरत वर्णव्यवस्था का स्थान जन्मना जाति व्यवस्था ने ले लिया जिससे दलित जातियों पर अत्याचार होने लगे। वैदिक काल में सभी स्त्रियों व शूद्रों को अन्यान्य विषयों के अध्ययन सहित वेदों के अध्ययन का भी अधिकार प्राप्त था जिसे मध्यकाल के पण्डितों ने समाप्त कर दिया। महर्षि दयानन्द (1825-1883) के समय में ऐसा भी एक समय आया कि जब वेदों के यथार्थ ज्ञान को जानने व समझने वाला एक भी विद्वान भारत में नहीं रहा। सारा समाज व देश अज्ञान व अन्धकार में डूब गया। इससे वैदिक धर्मी व अन्य मनुष्य जाति की हानि व पतन तो होना ही था, जो भरपूर हुआ, और इस कारण हम पहले यवनों के और बाद में अंग्रेजों के गुलाम बन गये। महर्षि दयानन्द के समय में ऐसी स्थिति आ गई थी कि गुलामी से निकलने का कोई रास्ता किसी देशवासी व महापुरुष को नजर नहीं आता था। अनेक अग्रणीय पुरूष तो अंग्रेजों कि मत व उनकी गुलामी के प्रशंसक भी देश में हुए हैं। ऐसे संक्रमण काल में यदि किसी ने देश समाज के धार्मिक सामाजिक रोगों का उपाय ढूंढा उससे समाज को रोग मुक्त करने का प्राणपण से प्रयास किया तो उस महान पुरूष का नाम है स्वामी दयानन्द सरस्वती।

 

स्वामी दयानन्द ने देश भर में भ्रमण कर विद्वानों की खोज की और उनसे जो ज्ञान प्राप्त हो सकता था, प्राप्त करते रहे। उन्होंने अनेक योगियों से योग की अनेक क्रियाओं व रहस्यों को जाना व उनका अभ्यास किया। इस क्रम में वह एक सफल योगी बन गये और योग के चरम लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार को भी प्राप्त किया। अभी उनकी विद्या की तृप्ति होनी शेष थी। सौभाग्य से उन्हें मथुरा में एक प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द जी पता मिला। वह सन् 1860 में वहां पहुंचे और उनसे 3 वर्षों तक संस्कृत के आर्ष व्याकरण सहित वैदिक साहित्य का अध्ययन किया। उन्होंने अपने इन गुरुजी से सत्य व असत्य के ज्ञान की कसौटी प्राप्त की। इसी कसौटी से उन्होंने वैदिक शास्त्रों व अन्य मतों के ग्रन्थों के सत्यासत्य की भी परीक्षा व अनुसंधान किया। गुरु विरजानन्द जी के सान्निध्य में तीन वर्ष रहकर अध्ययन पूरा हुआ और गुरु दक्षिणा का समय आया। स्वामीजी ने अपने गुरु विरजानन्द जी को उनके प्रिय लौंग दक्षिणा में दिये। गुरुजी ने उनकी दक्षिणा को ससम्मान स्वीकार किया परन्तु अपने मन की पीड़ा को भी उन्होंने स्वामी दयानन्द जी पर प्रकट किया। उन्होंने देश की दयनीय अवस्था का वर्णन करने के साथ देश में फैले अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, रूढि़वाद, सामाजिक असमानता व विषमता, फलित ज्योतिष व अवतारवाद आदि की चर्चा की और बताया कि वह नेत्रहीन होने के कारण वेद प्रचार द्वारा धार्मिक सुधार, समाज सुधार व देशोन्नति के कार्य नहीं कर सके। उन्होंने स्वामी दयानन्द को इन कार्यों को करने की प्रेरणा करते हुए अपनी इच्छा व्यक्त की। यह इच्छा प्रेरणा भी थी और देशोन्नति के लिए एक पवित्र आदेश भी था। स्वामी दयानन्द ने गुरुजी के इस प्रस्ताव पर कुछ क्षण मौन रहकर विचार किया और गुरुजी को उनकी आज्ञानुसार कार्य करने का आश्वासन दिया। गुरुजी जी प्रसन्नता से भरकर साश्रु हो गये और उन्होंने अपने शिष्य को सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद दिया। यही स्वामी दयानन्द जी के वेद प्रचार, धर्म सुधार प्रचार, समाज सुधार, देशोन्नति सहित असत्य पाखण्ड के खण्डन तथा सत्य के मण्डन की भूमिका है।

 

स्वामीजी ने अपने गुरु से विदा ली और असत्य व पाखण्डों का खण्डन और वैदिक सत्य मान्यताओं का मण्डन आरम्भ कर दिया। देश की सर्वाधिक हानि अवतारवाद की कल्पना, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, यज्ञ व अग्निहोत्र में विकार, ईश्वरोपासना का सत्यस्वरुप भूलने, सामाजिक असमानता व विषमता सहित स्त्रियों व शूद्रों के वेदाधिकार छीन लेने से हुई थी। कार्यक्षेत्र में उतर कर उन्होंने इन प्रचलित सभी मान्यताओं को धर्म के आदि स्रोत व परम प्रमाण ग्रन्थों वेद के विरुद्ध घोषित किया और विरोधियों को वेदों से सिद्ध करने की चुनौती दी। उन्होंने ने इन सभी विषयों के ज्ञान-विज्ञान युक्त वैदिक समाधान भी प्रस्तुत किये। काशी में 16 नवम्बर सन् 1869 को  मूर्तिपूजा पर काशी व देश के शीर्ष 30 पण्डितों के साथ काशी नरेश की मध्यस्था में उन्होंने शास्त्रार्थ किया और विजयी हुए। अनेक पौराणिक विषयों व मिथ्या विश्वासों पर देश के अनेक स्थानों पर आपने शास्त्रार्थ कर वैदिक मत व मान्यताओं को सत्य व प्रमाणित सिद्ध किया। ईसाई मत व इस्लाम के विद्वानों से भी आपके शास्त्रार्थ व चर्चायें हुईं जिसमें आपने वैदिक मत को युक्ति व तर्क के आधार पर सत्य सिद्ध किया। सभी मतों के विद्वानों ने आपकी विद्वता का लोहा माना परन्तु अपने अज्ञान व स्वार्थों के कारण वह वैदिक मत को स्वीकार नहीं कर सके जिसके प्रमुख कारणों में से एक उनकी आजीविका थी। आज भी न्यूनाधिक यही स्थिति है।

 

वेद सभी सत्य विद्याओं से युक्त धार्मिक ग्रन्थ है जो धर्म की दृष्टि से परम प्रमाण है। आज भी वेद पूरी तरह से प्रासंगिक एवं मनुष्य जाति के सभी प्रकार के भेदभाव मिटाकर उन्हें संगठित कर सबकी समान उन्नति करने में सक्षम व समर्थ हैं। वेदों की इसी विशेषता के कारण महर्षि दयानन्द ने वेदों को अपनाया था और मानवमात्र के हित व कल्याण की दृष्टि से उनका प्रचार किया और वैदिक मान्यताओं के विपरीत मत-मतान्तरों की अज्ञान व पाखण्ड मूलक बातों का खण्डन किया। खण्डन का कार्य कुछ ऐसा था जैसा कि दूषित स्थान पर झाडूं लगाकर उसे स्वच्छ बनाना अथवा किसी शल्य चिकित्सक द्वारा किसी रोगी के किसी वृहत शारीरिक विकार की शल्य क्रिया कर उसे स्वस्थ करना। इस कार्य में स्वामी जी का न तो अपना कोई निजी प्रयोजन था और न वेदों की भारतीय विचारधारा के प्रति पक्षपात। उन्होंने भारत में उपलब्ध सभी मतों के ग्रन्थों व उनकी मान्यताओं को अपनी ज्ञान की तराजू पर तोल कर सत्य सिद्ध होने पर ही अपनाया था। सत्य व असत्य के मन्थन से उन्हें जो अमृत प्राप्त हुआ था, उसे उन्होंने स्वयं इकिनक प्रयोग में न लेकर समस्त विश्व को उसका सहभागी बनाया था। अज्ञान व स्वार्थों में फंसा विश्व उनकी मानवहितकारी भावनाओं को समझ नहीं सका और उन्हें अनेकानेक प्रकार से पीडि़त करता रहा जिसकी अन्तिम परिणति विष देकर उनके प्राणहरण करके की गई। महर्षि दयानन्द ने जो कार्य किया उससे सारा संसार लाभान्वित हुआ है। बहुत से लोग जान कर भी उससे लाभ नहीं उठाना चाहते और अपने स्वार्थों में लगे हुए हैं।

 

आज यह भी देखा जाता है कि लोग धर्म विषयक सत्य वा असत्य को जानना ही नहीं चाहते। इसका एक कारण विज्ञान द्वारा सुख सुविधाओं में वृद्धि की चकाचैंध है जिससे आकृष्ट व विमोहित होकर सब उसमें फंस गये हैं और मतों के मताचार्य हैं जो सत्य का अनुसंधान व प्रचार नहीं करते। इन कार्यों ने मनुष्य का विवेक नष्ट कर दिया है। किसी को इस बात को जानने की चिन्ता ही नहीं है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य लक्ष्य क्या है? इन प्रश्नों का युक्ति तर्क प्रमाण सहित उत्तर वेदों वैदिक साहित्य में ही मिलता है। महर्षि दयानन्द का यह संसार के लोगों के लिए अनुपम उपहार है। जिस व जिन मनुष्यों को अपना भविष्य सुधारना व संवारना हो, वह वैदिक धर्म के सुख व शान्ति प्रदान करने वाले वटवृक्ष की शीतल छांव में आ सकता है। निष्पक्ष दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार, पाखण्ड खण्डन व सत्य के मण्डन का जो कार्य किया है वह मानव जाति के कल्याण की दृष्टि से अपूर्व था। इसके लिए वह इतिहास में चिरकाल तक अमर रहेंगे। असत्य का खण्डन व सत्य का मण्डन मानव जाति की उन्नति के अनिवार्य होने के कारण मानव धर्म है। महर्षि दयानन्द ने इस कर्तव्य को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाया और संसार का अपूर्व उपकार किया। महर्षि दयानन्द को उनके कल्याणकारी कार्यों के लिए हमारा नमन।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः  196  चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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सन् 1857 का विप्लवः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

सन् 1857 का विप्लवः-

 

भारत के प्रायः सब नेता अंग्रेजों के स्वर में स्वर मिलाकर सन् 1857 के विप्लव को Munity (गदर) ही लिखते व कहते आये हैं। महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय नेता व विचारक थे, जिन्होंने सन् 1878 में अपने जालंधर के एक भाषण में इसे विप्लव कहकर लखनऊ में अंग्रेजों के अत्याचारों की घोर निन्दा की। वीर सावरकर का ग्रन्थ Our First war of Independenceतो बहुत बाद में आया। आर्य समाज ऋषि-जीवन की इस घटना को मुखरित ॥ Highlight न करने का दोषी है। केवल पं. लेखराम जी, पं. लक्ष्मण जी के ग्रन्थों में यह छपी मिलती है। मैं आर्य मात्र से इसको मुखरित करने की विनती करता हूँ।

सर सैयद अहमद खाँ ने भी ‘गदर के असबाब’ पुस्तक लिखी। पं. कन्हैयालाल अमेठी ने भी उर्दू में इस पर एक ग्रन्थ लिखा, जिसके कई संस्करण छपे थे। एक संस्करण पर ‘मुंशी कन्हैयालाल’ छपा पढ़कर मैंने कन्हैयालाल अलखधारी जी को इसका लेखक समझ लिया। यह मेरी भूल थी। मिलान किया तो पता चला कि पृष्ठ संया बदल गई है, लेखक कन्हैयालाल ही हैं। ऐसी पुस्तकें और भारतीय लेखकों नेाी लिखीं। ऋषि जी के साहस, शौर्य का मूल्याङ्कन तो कोई करे।

दयानन्द बावनी और उसके रचयिता महाकवि दुलेराय जी

दयानन्द बावनी और उसके रचयिता महाकवि दुलेराय जी :-

महाकवि दुलेराय काराणी भुज-कच्छ में जन्मे एक जैनी समाज सेवी सज्जन हुए हैं। वे गुजराती तथा हिन्दी के जाने माने कवि थे। आपने गाँधी जी पर गुजराती भाषा में बावनी लिखी। आपने एक आर्यसमाजी मित्र श्री वल्लभदास की सत्प्रेरणा से दयानन्द बावनी नाम से एक उत्तम काव्य रचा, जिसे सोनगढ़ गुरुकुल से प्रकाशित किया गया। गुजरात के प्रसिद्ध आर्यसमाजी सुधारक शिवगुण बापू जी भी भुज-कच्छ में जन्मे थे। अहमदाबाद में महाकवि जी श्री शिवगुण बापू जी से मिलने उनके निवास पर प्रायः आते-जाते थे। दयानन्द बावनी का दूसरा संस्करण पाटीदार पटेल समाज ने छपवाया था। इसका प्राक्कथन कवि ने ही लिखा था। इसके विमोचन के अवसर पर आप घाटकोपर मुबई पधारे।

शिवगुण बापूजी के परिवार की तीन पीढ़ियाँ आज भी इस काव्य को सपरिवार भाव-विभोर होकर जब गाती हैं तो एक समा बँध जाता है। इस वर्ष ऋषि मेला पर शिवगुण बापूजी के पौत्र श्री दिलीप भाई तथा उनकी बहिन नीति बेन ने बावनी सुनाकर सबको मुग्ध कर दिया। इसके प्रकाशन की वड़ी जोरदार माँग उठी। श्री डॉ. राजेन्द्र विद्यालङ्कर ने यह दायित्त्व अपने ऊपर लिया है। अगले वर्ष के ऋषि मेला पर श्री शिवगुण बापू की छोटी पौत्री प्रीति बेन से जब आर्यजन बावनी सुनेंगे तो वृद्ध आर्यों को कुँवर सुखलाल जी की याद आ जायेगी।

महाकवि दुलेराय ने महर्षि के प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि में लिखा हैः-

वैदिक उपदेश वेश, फैलाया देश देश

क्लेश द्वेष को विशेष मार हटाया।

सत्य तत्त्व खोल खोल, अनृत को तोड़ तोड़

तेरे मन्त्रों ने महाशोर मचाया।

धन्य धन्य मात तात, तेरा अवतार

होती है भारत मात आज निहाला।

‘आंध्रभूमि’ के सपादक श्री शास्त्री जीः- इस बार ऋषि मेले से ठीक पहले कुछ दुःखद घटनायें घटीं, इस कारण सभा से जुड़े सब जन कुछ उदास थे, तथापि मेले पर दूर दक्षिण से ‘आंध्रभूमि’ के सपादक श्री म.वी.र. शास्त्री जी तथा युवा विद्वान् पं. रणवीर शास्त्री जी के तेलंगाना से अजमेर पधारने पर सब हर्षित हुए। मान्य शास्त्री जी सपादक ‘आंध्रभूमि’ एक कुशल लेखक हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी पर आपके ग्रन्थ ने धूम मचा दी है। अब आप राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने व नवचेतना के संचार के लिए वीर भगतसिंह पर एक ग्रन्थ लिखने में व्यस्त हैं। आर्य जनता की इच्छा है कि इसका विमोचन अगले ऋषि मेला पर हो।

‘सत्य के आग्रही व यथार्थवादी महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

महाभारत काल के बाद देश व संसार में वेदों के विद्वान होने के साथ यदि यथार्थवादी महापुरुषों पर दृष्टि डाली जाये तो हमें एक ही नाम दृष्टिगोचर होता है और वह नाम है स्वामी दयानन्द सरस्वती। महर्षि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ विद्वान, वेदों के प्रचारक, सच्चे योगी व समाज-देश सुधारक हुए हैं जिनकी तुलना में महाभारत के पश्चात अन्य दूसरा कोई विद्वान नहीं हुआ। महर्षि दयानन्द में यथार्थवादी महापुरुष होने के साथ अन्य भी अनेक गुण थे। वह आदर्श ब्रह्मचारी, ईश्वर भक्त, सिद्ध योगी, वेदभक्त, देशभक्त, सभी वैदिक ऋषियों के भक्त, समाज सुधारक, जाति रक्षक, देश की स्वतन्त्रता के मन्त्रदाता वा सूत्रधार, वेदों के ऋषियों की परम्परा में एक महान ऋषि, अपूर्व वैदुष्य के धनी, सामाजिक नेता, दूरद्रष्टा, आदर्श उपदेशक, शास्त्रकार और साहित्यकार, निर्भीक, साहसी, स्त्री, शूद्रों वा दलितों के उद्धारक, अनाथों के रक्षक, एक धर्म, एक संस्कृति, एक आचार-विचार, एक सुख-दुःख, संस्कृत व हिन्दी के समर्थक एवं पोषक विद्वान होने सहित धार्मिक  क्रान्ति के अपूर्व योद्धा थे। अपने अध्ययन के आधार पर हमें विश्व इतिहास में उनके समान दूसरा महापुरुष दृष्टिगोचर नहीं होता। उनका यश व कीर्ति इतिहास में अक्षुण है और वह सूर्य और चन्द्र के विद्यमान रहने तक संसार में अमिट रहेगी।

 

महर्षि दयानन्द के व्यक्तित्व में यथार्थवादी महापुरुष के होने की पुष्टि के लिए उनके उपदेशों व ग्रन्थों पर दृष्टि डालनी आवश्यक है। महर्षि दयानन्द ने योग की शिक्षा योग गुरूओं से प्राप्त की और वेदों की शिक्षा प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी गुरू विरजानन्द सरस्वती जी से सन् 1860 से सन् 1863 के मध्य मथुरा में प्राप्त की थी। गुरू वैदिक धर्मी देशवासियों की दुर्दशा से चिन्तित थे। उन्होंने प्रज्ञाचक्षु अर्थात् नेत्रान्ध होकर भी इसके उपायों पर विचार किया था और उन्हें लगा था कि महाभारत काल के बाद भारत में उत्पन्न अविद्या व अन्धविश्वास ही इसका मूल कारण हैं। उनका विश्वास था कि यदि भारत से अविद्या व अन्धविश्वासों को दूर कर सत्य ज्ञान के ईश्वरीय ग्रन्थ चार वेदों की सच्चे अर्थों में प्रतिष्ठा दी जाये तो न केवल धार्मिक व सामाजिक सुधार ही होगा अपितु विदेशियों की दासता से मुक्ति भी मिल सकती है। प्रज्ञाचक्षु होने के कारण वह अपने जीवन में सघन वैदिक प्रचार नहीं कर सके थे। उन्हें एक योग्य शिष्य की आवश्यकता थी जो उनके स्वप्नों को साकार कर सके। सौभाग्य से उन्हें स्वामी दयानन्द सरस्वती के रूप में एक योग्य अखण्ड आदर्श ब्रह्मचारी, सिद्ध योगी, गुरुभक्त व वेदों का अपूर्व विद्वान प्राप्त हुआ। इससे उनमें अपने स्वप्न की पूर्ति व सफलता के प्रति आशा बलवती हुई थी। स्वामी दयानन्द की विद्या पूरी होने पर उन्होंने उन्हें अपना सारा जीवन देश व संसार से वेदों के प्रचार द्वारा अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वास, सामाजिक कुप्रथायें आदि मिटाने के लिए अर्पित करने का अनुरोध किया था। स्वामी दयानन्द जी ने गुरुजी की वेदना व उनके प्रस्ताव की महत्ता को जानकर उन्हें इस कार्य को प्राणपण से पूरा करने का आश्वासन दिया और अपनी प्रतिज्ञा के पालन करने के लिए एक आदर्श ब्रह्मचारी, आदर्श योगी, आदर्श वेदवेत्ता, आदर्श उपदेशक, आदर्श देशभक्त, आदर्श समाज सुधारक के आदर्श जीवन का उदाहरण प्रस्तुत किया।

 

स्वामी दयानन्द ने अपनी सभी धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं व सिद्धान्तों को सत्य की कसौटी पर जांचा परखा व पूर्ण निष्पक्षता के साथ सत्य व यथार्थ विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों को अपनाया ही नहीं अपितु उनका देश देशान्तर में पुरजोर प्रचार व प्रसार किया। उनके प्रचार व प्रसार का ही प्रभाव है कि देश से धार्मिक अज्ञान, अविद्या व अन्धविश्वास सहित सामाजिक विषमता, दुर्बलता, अन्याय, अपराध, शोषण व पक्षपात के विरुद्ध अपूर्व वातावरण तैयार हुआ और दिन प्रतिदिन अज्ञान व अविद्या सहित सामाजिक विषमतायें दूर होकर सुधार होने लगा। उनके मुख्य कार्यों पर यदि दृष्टि डाली जाये तो उन्होंने धार्मिक अज्ञान के क्षेत्र में मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, स्त्री व शूद्रों के वेदाध्ययन में अनधिकार, मृतक श्राद्ध आदि का विरोध व प्रबल खण्डन किया और ईश्वर की सत्य उपासना पद्धति, अग्निहोत्र यज्ञ का प्रचलन, माता-पिता-आचार्य-विद्वान-संन्यासियों की सेवा व सत्कार का समर्थन व पशु-पक्षियों के पोषण की प्रेरणा देश व समाज को दी। इस कार्य के लिए उन्होंने मौखिक उपदेश व व्याख्यानों से तो प्रचार किया ही, साथ ही वार्तालाप, शंका-समाधान और शास्त्रार्थों द्वारा भी अपनी मान्यताओं को सत्य की कसौटी पर कसकर विरोधियों को चुनौती दी और अपनी सभी मान्यताओं को सत्य व यथार्थ सिद्ध किया। उन्होंने प्रतिकूल विचारधारा वाले सभी मत-मतान्तरों के आचायों व विद्वानों को चुनौती दी परन्तु उनकी मान्यताओं का उनके समय में प्रचलित किसी धर्म, मत, मजहब, पन्थ, सम्प्रदाय के आचार्यों ने न तो खण्डन ही किया गया और न किसी ने अपनी ओर से स्वामीजी से शास्त्रार्थ की पहल व इच्छा कर स्वमत का मण्डन और स्वामीजी के मत का खण्डन ही किया। प्रायः सभी प्रमुख मत के विद्वानों स्वामीजी के शास्त्रार्थ हुए जिसमें उनका पक्ष ही सत्य सिद्ध हुआ। उनके द्वारा प्रचारित मान्यतायें आज भी सत्य की कसौटी पर खरी व सत्य सिद्ध हैं।

 

स्वामी जी यथार्थवादी थे इसकी पुष्टि उनके ग्रन्थ मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि से भी होती है। उन्होंने अपने समय के प्रायः सभी मतों व पन्थों के धार्मिक व सामाजिक नियमों व सिद्धान्तों की मिथ्या मान्यताओं का खण्डन सत्यार्थप्रकाश में किया है। विपक्षी न तो उनके समय में और न उनके बाद ही उनकी मान्यताओं का युक्ति प्रमाणपूर्वक प्रतिवाद व खण्डन ही कर सके। इस कारण से स्वामी दयानंद के सभी सिद्धान्त सत्य सिद्ध हैं। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में जिन मतों को अपनी समीक्षा के लिये चुना उनमें भारत में प्रचलित सभी मत-मतान्तरों सहित चारवाक, बौद्ध, जैन, इस्लाम व ईसाई मत भी सम्मिलित हैं। इन सभी मतों की मान्यताओं व सिद्धान्तों का उनके प्रमुख मान्य ग्रन्थों से उद्धरण देकर स्वामी दयानन्द ने सत्य, युक्ति व तर्क प्रमाण के आधार पर समीक्षा व आलोचना की है व उनमें विद्यमान अनेक असत्य मान्यताओं का प्रकाश किया है। न केवल उन्होंने वेद विरुद्ध मतों की आलोचना ही की अपितु सभी मतों में पाई जाने वाली सत्य बातों को भी स्वीकार किया है। वह चाहते थे कि सभी मत अपने अपने मतों की स्वयं समीक्षा कर, उसमें जो असत्य व अग्राह्य कथन है उनको निकाल कर, उनके स्थान पर युक्ति व प्रमाणों से सिद्ध सत्य मान्यताओं को प्रयोग में लायें जिससे मनुष्य जाति की उन्नति होकर सर्वत्र सुख की वृद्धि हो। इन प्रयासों का उनका भाव व इच्छा एक सत्यमत को निर्धारित कर उसका प्रचलन करने की भी थी और इसके लिए उन्होंने प्रयास भी किया था परन्तु सभी मतों से अपेक्षा के अनुरुप सहयोग न मिलने के कारण उनका प्रयास सफल न हो सका। वह अपने जीवन के अन्तिम समय तक इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयास करते रहे। स्वामीजी ने सभी प्रकार की मूर्तिपूजा का खण्डन किया है। यह मूर्तिपूजा भी प्रायः सभी मतों में किसी न किसी रुप में विद्यमान है। वह अवतारवाद, ईश्वर के एकमात्र पुत्र व पैगम्बरवाद के विचारों से भी सहमत नहीं थे। वह सभी ऋषि-मुनियों व सच्चे धार्मिक विद्वानों को ईश्वर का पुत्र व सन्देशवाहक मानते थे। वह स्वयं भी ईश्वर के पुत्र थे और ईश्वर के सन्देशवाहक भी थे। स्वामीजी ने मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, जन्मना जातिवाद का विरोध किया व स्त्रियों व दलितों के वेदाध्ययन का समर्थन भी किया। महाभारत के बाद वह सत्य अध्यात्मवाद की सेवा करने वाले प्रथम सर्वाधिक प्रभावशाली महापुरुष थे। स्वामी शंकराचार्य जी का अद्वैत मत अनेक युक्तियों व तर्कों पर आधारित होने पर भी उन्हें मान्य नहीं था। उन्होंने अनेक नये तर्क देकर ईश्वर व जीव की एकता का खण्डन किया और सच्चे एकेश्वरवाद का दिग्दर्शन कराकर उसका प्रचार किया। ईश्वर जीव की एकता के स्थान पर उन्होंने इन्हें कुछ गुणों की समानता और कुछ गुणों की भिन्नता के कारण दो पृथक सत्तायें सिद्ध किया। जड़ प्रकृति को वह संसार का तीसरा अविनाशी, अनादि, नित्य तत्व स्वीकार करते थे और उसका उन्होंने ईश्वर के आधीन व नियंत्रण में होना सिद्ध किया है। ईश्वर, जीव   प्रकृति की भिन्न पृथक सत्ता, यह त्रैतवाद ही सर्वाधिक पूर्ण युक्तियुक्त सत्य वैदिक सिद्धान्त है। इसको व अन्य सभी मतों के यथार्थ को जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन अभीष्ट है।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों सहित समस्त दुर्लभ वैदिक साहित्य का अध्ययन किया था। इसके लिए उन्होंने जो कठोर पुरुषार्थ किया वह प्रशंसनीय है। वह सत्य के प्रशंसक व अनुयायी होने के साथ अपने निजी स्वार्थों व सभी एषणाओं से मुक्त थे और सच्चे व आदर्श ब्रह्मचारी और ईश्वरभक्त थे। वह असत्य मत का लेशमात्र भी स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं थे जिस कारण सभी मतों के अनुयायी उनके विरोधी हो गये और उन्हें हानि पहुंचाने की ताक में रहते थे। अन्तोगत्वा उनके विरोधी जोधपुर में उनकी जीवनलीला समाप्त करने में सफल हुए जहां विष देकर उन्होंने उनका प्राणान्त कर दिया। स्वामी जी ने अपने जीवन की अन्तिम श्वांस से भी ईश्वर, जीव व प्रकृति की पृथक सत्ता होने का परिचय दिया और आज इस सिद्धान्त को अनेक तथ्यों व तर्कों से सिद्ध किया जाता है और यही अन्तिम सिद्धान्त बन गया है। महर्षि दयानन्द यथार्थवादी थे और यथार्थवाद जो कि वेदों का मुख्य सिद्धान्त विषय है। वेदों का यथार्थवाद ही उनका आदर्श था और वेदों को सम्पूर्णता से जानने समझने में वह पूर्ण अपूर्व अधिकारी थे। वह अतुल्य वैदुष्य के धनी थे। उन्होंने अनेक युक्तियों प्रमाणों से वेद को मनुष्यमात्र का सर्वाधिक कल्याणकारी ईश्वर प्रदत्त ज्ञान सिद्ध किया जिसके लिए वह इतिहास में अमर हो गये हैं। उनकी धार्मिक विषयों में अकाट्य युक्तियां उनके यथार्थवादी होने का प्रमाण देती है और इस दृष्टि से वह संसार के सभी महापुरुषों से भिन्न, यूनिक अकेले हैं जिनकी समानता अन्य किसी से नहीं है सिवाय अपने गुरू स्वामी विरजानन्द अपने विद्वान अनुयायियों से। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘महर्षि दयानन्द के मुम्बई में ऐतिहासिक उपदेशों का विवरण’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने मुम्बई में जनवरी से जून, 1882 के अपने प्रवास में वहां की जनता को उपदेश दिये थे जो आर्यसमाज, काकड़वाड़ी, मुम्बई के मन्त्री द्वारा नोट कर उन्हें आर्यसमाज के कार्यवाही रजिस्टर में गुजराती भाषा में लिख कर सुरक्षित किया गया था। आज के लेख में महर्षि दयानन्द के उन 24 उपलब्ध उपदेशों में से 5 दुर्लभ उपदेशों को प्रस्तुत कर रहे हैं। 1 जनवरी, सन् 1882 को सायं साढ़े पांच बजे से आर्यसमाज में उनका ‘‘धर्मोन्नति विषय पर व्याख्यान हुआ था। इस व्याख्यान में उन्होंने कहा था कि लोगों को धर्माधर्म के विषय में विवेक पूर्वक विचार करना चाहिये। इस बात को उन्होंने अपने भाषण में पूरी तरह से दर्शाया और भारतवर्ष में धर्म सम्बन्धी महत् विचार में लोग कितने पिछ़ड़े हुए हैं, और मतवादी लोगों ने स्वार्थवश धर्म के नाम पर जाल फैलाकर जनता की किस प्रकार नष्ट भ्रष्ट कर दिया है और भाग्य के आधार पर उसे स्वत्वहीन बनाकर अज्ञान की स्थिति में पहुंचा दिया है, इस विषय में विवेचन करके इसका वास्तविक चित्र श्रोताजनों के हृदय पर अंकित कर दिया। यह सभा 2 घंटे तक चलकर सायं साढ़े सात बजे विसर्जित हुई थी।

 

स्वामी दयानन्द जी का मुम्बई में 8 जनवरी सन् 1882 को दिन के सायं साढ़े पांच बजे से आठ बजे तक दिये दूसरे प्रवचन का सार प्रस्तुत है। इस प्रवचन में स्वामी जी ने वेद मन्त्र से ईश्वरोपासना करके धर्मोन्नति विषय पर दूसरा व्याख्यान दिया था। इस भाषण में स्वामी जी ने चार सम्प्रदायों के मतवाद का स्पष्टीकरण करते हुए कहा कि (अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत तथा शुद्धाद्वैत) इन मतो में और इन मतवादी ग्रन्थों में जो बताया गया है वह वेद विरुद्ध है। वेदान्त का अद्वैत मत है। मैं उसके विरुद्ध नहीं हूं। (इन चार मतों में अद्वैत शंकराचार्य का, विशिष्टाद्वैत रामानुजाचार्य का, द्वैताद्वैत निम्बार्काचार्य का और शुद्धाद्वैत वल्लभाचाचर्य का है।) परन्तु उन्होंने आजकल जीवब्रह्म की एकता आदि से संबद्ध अनुचित विचार फैलाया है और इन विचारों से सम्बद्ध महावाक्यों की रचना करके जो कहते हैं वह बिलकुल असत्य है। अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसि इत्यादि वाक्य जो प्रमाण में देते हैं वे वेद के नहीं हैं, परन्तु ब्राह्मण और उपनिषद् ग्रन्थों के हैं तथा इन वाक्यों का जो अर्थ ये लोग करते हैं वह मूल ग्रन्थ में नहीं है। उनके पूर्वापर का सम्बन्ध देखने से इनका अर्थ उनसे भिन्न ही है। इस समय इन लोगों से इनका जो अर्थ बताया जाता है, वह वेदविरुद्ध और जाति के लिये हानिकारक है तथा उस पर बुद्धिमान् और निष्पक्ष पुरुषों को अवलोकन और विचार करना उचित है। जो अद्वैत मत से भिन्न दूसरे विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत और शुद्धाद्वैत ये तीन मत हैं, ये उतरोत्तर एक दूसरे से अधिक घोटाला भरे भ्रमोत्पादक हैं।

 

स्वामी दयानन्द जी का मुम्बई में तीसरा प्रवचन 15 जनवरी, 1882 को सायं साढ़े पांच बजे से आठ बजे तक आर्यसमाज के स्थान में धर्मोन्नति विषय पर दिया। इस प्रवचन में स्वामी जी ने वेद मन्त्र से परमात्मा की उपासना करके धर्मोन्नति विषय पर व्याख्यान दिया। पिछले व्याख्यान में विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत और शुद्धाद्वैत मत का अच्छी प्रकार स्पष्टीकरण करके श्रोताजनों के मन को सन्तुष्ट कर और धर्माधर्म का विचार किस प्रकार करना उचित है, यह दर्शाकर धर्म के विषय में घोटाला करके अधर्म को फैलाने से इस देश की किस प्रकार दुर्दशा हुई और उस उस धर्मवाद से परस्पर मतभेद बढ़ा और उसने किस प्रकार अज्ञान में इन आर्यजनों को गिराया, यह भले प्रकार स्पष्ट दर्शाकर इस स्थिति से किस प्रकार मुक्त हो सकते हैं, यह विषय को उत्तम रीति से समझाया और लोगों का ध्यान संस्कृत भाषा के अध्ययन तथा वेदाध्ययन करने की ओर आकृष्ट किया। आर्यसमाज के कार्यवाही रजिस्टर में लिखा है कि इस व्याख्यान में हजार से ऊपर गृहस्थी विराजमान थे।

 

चौथा व्याख्यान अहिंसा और ईसाइयत विषय पर मुम्बई के फ्रामजी कावशजी इंस्टीट्यूट में सायं साढ़े पांच बजे से आठ बजे तक रविवार 22 जनवरी, 1882 को हुआ। स्वामी जी ने प्रथम हिंसा किसे कहना चाहिये और अहिंसा किसे कहना चाहिये, का स्पष्टीकरण किया। मन, वचन और शरीर इन से किसी को हानि पहुंचाना और हानि का विचार करना इसका नाम हिंसा है और ऐसा करने से दूर रहना, इसका नाम अहिंसा है। आजकल इस देश में विदेशियों की संख्या बहुत बढ़ जाने से हिंसा बहुत बढ़ गई है। इस से इस देश को बहुत ही हानि पहुंची है। मनुष्यों का पालन करने हारे गौ आदि परोपकारी पशुओं की इस देश में हिंसा होने से देश की बहुत बड़ी हानि हो रही है और हिंसा करनेवाले ईश्वर के गुनहगार (अपराधी) होते हैं। पश्चात् ऐसे पशुओं के वध से कैसी कैसी हानि होती है, इस विषय का अच्छी प्रकार विवेचन करके इस विषय को अगले समय के लिये स्थगित किया और तत्पश्चात् सात बजे के लगभग क्रिश्चियन मत के विषय में व्याख्यान आरम्भ किया। उसमें ईसाई लोगों की बाइबल में कैसी कैसी न्याय शून्य लीला लिखी है, उसे भली प्रकार दर्शाया। कार्यवाही रजिस्टर के अनुसार इस व्याख्यान में लगभग दो हजार गृहस्थ उपस्थित हुए थे।

 

पांचवा व्याख्यान शुक्रवार 27 जनवरी, 1882 को सायं साढ़े पांच बजे से सात बजे तक फ्रामजी कावशजी इंस्टीट्यूट में अंहिसा विषय पर थोड़ा और ईसाइयत पर विशेष हुआ। इस व्याख्यान में पहले दिन के प्रवचन का उल्लेख करके स्वामी जी ने विशेष विवेचन किया। एक गाय का वध होने से कितने मनुष्यों के पोषण में हानि पहुंचती है, यह बात आकड़ों के द्वारा सिद्ध करके बताया था कि इस प्रकार हजारों गायों का वध होने से खेतीबाड़ी के कार्य में और लोगों के पोषण में प्रति वर्ष कितनी हानि होती है। इस बात को आंकड़ों द्वारा स्पष्ट रूप से बताया। इस के पश्चात् किसी गृहस्थ के कहने पर ईसाइयों की लीला पर दूसरा व्याख्यान दिया। इस व्याख्यान की कार्यवाही के बारे में रजिस्टर में लिखा है कि इस दिन बुद्धिमान गृहस्थों को आमन्त्रण पत्र भेज कर बुलाया गया था। कारण यह कि पहली सभा में समय से पूर्व ही श्रोता जनों की बहुत भीड़ हो गई थी। इससे अनेक योग्य गृहस्थों को स्थान न मिलने से वापस लौटना पड़ा था।

 

स्वामी दयानन्द जी द्वारा मुम्बई में इस श्रृखला में दिये गये कुल 24 उपदेशों का सार उपलब्ध है। बीस, बाईस व चैबीसवां, यह तीन व्याख्यान विस्तार सहित उपलब्ध हैं। इन तीन व्याख्यानों के विषय क्रमशः देशोन्नति, मूर्ति-मन्त्र-ऋषि-पितृ-उपासना आदि कर्तव्याकर्तव्य तथा योग विद्या हैं। यह सभी प्रवचन ऋषि दयानन्द सरस्वती के शास्त्रार्थ और प्रवचन ग्रन्थ में उपलब्ध हैं। इन सभी व्याख्यानों के अनुवादक तथा सम्पादक पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी हैं। हम व सारा आर्यजगत इस कार्य के लिए पण्डित जी का कृतज्ञ है। हम आशा करते हैं कि पाठक महर्षि दयानन्द के इन प्रवचनों से लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वराधीन कर्म-फल व तद् आश्रित सुख-दुःख व्यवस्था पर विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

संसार में मनुष्य ही नहीं अपितु समस्त जड़-चेतन जगत क्रियाशील हैं। सृष्टि पंचभौतिक पदार्थों से बनी है जिसकी ईकाई सूक्ष्म परमाणु है। यह परमाणु सत्व, रज व तम गुणों का संघात है। इन्हीं परमाणुओं से अणु और अणुओं से मिलकर त्रिगुणात्मक प्रकृति व सृष्टि का अस्तित्व विद्यमान है। परमाणु में इलेक्ट्रान कण भी निरन्तर गति करते रहते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति से भी पूर्व निर्मित इन परमाणुओं में इलेक्ट्रान ईश्वरीय नियमों के अनुसार गति करते आ रहे हैं एवं प्रलय अवस्था तक यह क्रम निरन्तर चलता रहेगा। मनुष्य व सभी प्राणियों में प्राणों का बाहर आना व अन्दर जाना निरन्तर होता रहता है। पलकें भी निरन्तर झपकती रहती हैं। जागृत अवस्था में मनुष्य का मन भी निरन्तर क्रियाशील रहता है। मन आत्मा से प्रेरणा लेता है और ज्ञान व कर्मेन्द्रियों को कर्मों में प्रवृत्त करता है। उठना-बैठना, चलना-फिरना, सोना-जागना, शौच जाना, भोजन करना, मल-मूत्र का त्याग आदि भी क्रियायें एवं कर्म हैं जो जीवित रहने के लिए आवश्यक हैं। इनसे भिन्न किसी विषय का चिन्तन वा विचार, तदनुसार शरीर को उसके अनुसार प्रवृत्त कर इच्छित परिणाम प्राप्त करना आदि भी सभी मनुष्य करते हैं। हमारे यह सभी कर्म हमारी शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक व आत्मिक उन्नति का आधार होते हैं। हमारे अनेक कार्यों वा क्रियाओं का प्रभाव पर्यावरण-परिवेश-वातावरण व दूसरे मनुष्यों पर भी पड़ता है। इसी प्रकार से दूसरे मनुष्यों व प्राणियों के कर्मों वा क्रियाओं का प्रभाव भी हम पर पड़ता है। उन कर्मों का यदि विभाजन व वर्गीकरण किया जाये तो मुख्यतः यह शुभ व अशुभ कर्म कहे जा सकते हैं। हमारे जिन कर्मों से हमें लाभ होता है परन्तु दूसरे निर्दोष प्राणियों वा मनुष्यों को किसी प्रकार से हानि नहीं पहुंचती, उन्हें शुभ कर्म कहा जा सकता है और इसके विपरीत कर्मों को अशुभ कहा जा सकता है। कर्म-फल व्यवस्था से सम्बन्धित एक शास्त्रीय वचन है अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं। अर्थात् मनुष्य को अपने किये हुए शुभ व अशुभ कर्मों के फल भोगने ही होते हैं।

 

कर्मफल व्यवस्था के सन्दर्भ में सृष्टि की उत्पत्ति के प्रयोजन को जानना भी महत्वपूर्ण है। सृष्टि की उत्पत्ति क्यों हुई? इसका उत्तर चारों वेदों एवं समस्त वैदिक व अवैदिक साहित्य के मर्मज्ञ महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में दिया है। सत्यार्थप्रकाश के अष्टम् समुल्लास में वह ऋग्वेद के एक मन्त्र इयं विसृष्टिर्यत बभूव यदि वा दधे यदि वा न। यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा वेद।। प्रस्तुत कर इसका अर्थ करते हुए लिखते हैं कि जिस से यह विविध सृष्टि प्रकाशित हुई है, जो धारण और प्रलयकर्ता है, जो इस जगत् का स्वामी है, जिस सर्वत्र व्यापक सत्ता में यह सब जगत् उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को प्राप्त होता है, सो परमात्मा है। उस को, हे मनुष्य ! तू जान और दूसरे किसी को सृष्टिकर्ता मत मान। इस मन्त्र में ईश्वर की सत्ता तथा उसके सृष्टि उत्पन्न करने के कार्य को बताया गया है। ईश्वर व सृष्टि के अस्तित्व को जान लेने के बाद प्रश्न होता है कि ईश्वर ने यह सृष्टि क्यों व किस प्रयोजन के लिए बनाई है? सृष्टि को देखकर ईश्वर का अपना कोई निजी प्रयोजन विदित नहीं होता। हम संसार में उद्योगों को देखते हैं जहां विवधि वस्तुओं का निर्माण होता है जिसे उद्योगपति दूसरे लोगों के उपयोग व धन कमाने के लिए करता है। उद्योगपति मनुष्य है अतः उसका प्रयोजन धन कमाना है व इससे अन्यों का हित भी जुड़ा, परन्तु ईश्वर मनुष्य नहीं है, वह धन व ऐसे किसी कार्य के लिए सृष्टि की रचना व पालन आदि कार्य नहीं करता। उसे किसी से किसी पदार्थ की अपेक्षा भी नहीं है। हां, जीवों को सुख व दुःख का मिलना इसका प्रयोजन प्रतीत होता है। ऋग्वेद के मन्त्र द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।। के शब्दों तयोरन्यः व स्वाद्वत्ति में कहा गया है कि (तयोरन्यः) इस संसार में जीव व ब्रह्म में से एक जो जीव है वह इस वृक्ष रूप संसार में पापपुण्यरूप फलों को (स्वाद्वत्ति) अच्छे प्रकार भोक्ता है। यहां कहा गया है कि जीवात्मा अपने शुभ व अशुभ जो पुण्य व पाप कर्म कहे जाते हैं उनके फलों अर्थात् सुख व दुःखी रूपी भोगों को भोक्ता अर्थात् उनका परिणाम व फल को पाता व ग्रहण करता है। वेद अर्थात् ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर ज्ञात होता है कि ईश्वर ने इस सृष्टि को जीवों के पाप व पुण्यरूपी कर्मों के फलों को प्रदान करने के लिए ही अपनी सामथ्र्य से मूल-कारण प्रकृति के द्वारा इस सृष्टि की रचना की है। श्वेताश्वरोपनिषद् के श्लोक अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः। अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः।। में कहा गया है कि इस अनादि प्रकृति से निर्मित सृष्टि का भोग करता हुआ अनादि जीवात्मा उसमें फंसता है। फंसने का तात्पर्य है कि जीवात्मा सृष्टि में फलों व सुख की कामना से कर्म करता हुआ इसमें फंसता है अर्थात् ईश्वर की कर्म-फल व्यवस्था में बंधता है। यदि इसे उलट दिया जाये तो इसका अर्थ होता कि यदि जीव संसार में सुख आदि भोगों की इच्छा से रहित होकर ईश्वरोपासना व परोपकारादि कर्मों को करता है तो वह बन्धनों में फंसता नहीं अपितु मुक्त हो जाता है।

 

उपर्युक्त द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया मन्त्र में ईश्वर, जीव व प्रकृति के अस्तित्व को अनादि बताया गया है। यह तीनों पदार्थ वा सत्तायें अनादि काल से विद्यमान हैं। ईश्वर को उपादान कारण प्रकृति से सृष्टि की रचना करने व इसे चलाने का ज्ञान स्वभाविक रूप से अनादि काल से है। जीवों को मनुष्य या प्राणियों के शरीर चाहियें तभी वह अपनी ज्ञान व कर्म स्वभाव वाली सत्ता का उपयोग अर्थात् पूर्व कर्मों का भोग व नये कर्मों को कर सकते हैं। यदि सृष्टि न हो तो उनका अस्तित्व निरर्थक सिद्ध होता है। यदि ईश्वर सृष्टि बनाने की सामथ्र्य रखता है, वह सृष्टि की रचना न करे तो उसका अस्तित्व होना उपयोगी नहीं और उसका ईश्वरत्व वा स्वामीत्व भी किसी काम का नहीं। इसी प्रकार से प्रकृति से यदि सृष्टि न रची जाये तो इसका अस्तित्व भी निरर्थक ही सिद्ध होता है। अतः जीवों को अपने अपने प्रारब्ध का भोग और नये कर्मों को करने के लिए ईश्वर द्वारा उपादान कारण प्रकृति का उपयोग कर सृष्टि की रचना करना आवश्यक है। ईश्वर कुछ जीवों को मनुष्य और किन्हीं को भिन्नभिन्न प्राणी योनियों में उत्पन्न करता है, इसका आधार जीवों के सृष्टि के पूर्व कल्पों वा पूर्वजन्मों के कर्म वा उन कर्मों का संचय रूपी प्रारब्ध होता है। यह उत्तर वैदिक दार्शनिकों ने सृष्टि विषयक तथ्यों का सूक्ष्म विवेचन करने पर पाया है। इस प्रकार से ईश्वर पक्षपात रहित न्यायकारी सत्ता सिद्ध होती है। ईश्वर के सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से वह सृष्टि के सभी जीवों का सभी कालों में साक्षी होता है। उसे हर जीव के हर कर्म का यथावत् अर्थात् मन व आत्मा के आन्तरिक भावों से लेकर कर्म का निर्णय करने से कर्म को करने तक का ठीक-ठीक ज्ञान रहता है, अतः उसे जीवों के कर्मों का फल देने में किसी प्रकार की समस्या व कठिनाई नहीं होती।

 

संसार में एक नियम काम कर रहा है कि हम जो भी कर्म करते हैं उनमें से कुछ क्रियमाण कर्मों का फल हमें साथ-साथ व कुछ का कालान्तर में मिलता है। जीवन के अन्त अर्थात् मृत्यु से पूर्व कर्म जिन्हें क्रियमाण कर्म कहा जाता है, उनका फल साथ-साथ मिल जाता है और अवशिष्ट संचित कर्मों का फल मृत्यु तक नहीं मिलता। इससे यह ज्ञात होता है कि कर्मों का फल वर्तमान व भविष्य दोनों कालों में सुख व दुःख के रूप में मिलता है। इससे यह भी सिद्ध है कि हमारा वर्तमान का सुख व दुख हमारे कुछ वर्तमान और कुछ पूर्व समय अर्थात् भूतकाल में किये हुए कर्मों पर आधारित है। मृत्यु के समय जिन शुभ व अशुभ कर्मों का फल भोगने से रह जाता है, प्रारब्घ नामी कर्म कहलते हैं, यह प्रारब्ध ही भावी जन्म अर्थात् पुनर्जन्म का आधार है। मनुष्य के जैसे कर्म प्रारब्ध होगा, उसी के अनुसार नये जन्म में जाति, आयु और भोग प्राप्त होंगे। योगदर्शन की यह बात तर्क एवं युक्ति संगत है। वेदों व स्मृतियों आदि के आधार पर मनुष्यों को सन्ध्या व दैनिक अग्निहोत्र यज्ञ सहित पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेवयज्ञ करने का विधान है। इन्हें करने से हमारा वर्तमान जीवन और भावी जीवन सुधरता व संवरता है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है। सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारत काल तक और उसके बाद भी विद्वानों द्वारा वेद मार्ग पर ही चलने का निर्देश दिया गया है। हमारे पूर्वज ज्ञान विज्ञान से पूर्ण सत्य का आचरण करने वाले थे, अतः उनकी युक्ति व तर्क संगत बातों को सभी मनुष्यों को मानना चाहिये। शंकालु बन्धुओं को वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति व सत्यार्थप्राकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर अपनी भ्रान्तियां दूर करनी चाहिये। संसार के अन्य ग्रन्थों का अध्ययन कर इस विषय का ज्ञान व समाधान नहीं होता। सभी कर्मों का फल ईश्वर देता है। किस कर्म का क्या फल होता है, यह ईश्वर को ज्ञात है जो कि उसकी व्यवस्था से हमें व सभी जीवों व प्राणियों को अवश्य मिलेगा। हमें ईश्वर के पक्षपात रहित व न्यायकारी होने में पूरा विश्वास रखते हुए बुरे कर्म नहीं करने चाहिये और अपने सभी अच्छे कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर निश्चिन्त होना चाहिये। इसका परिणाम शुभ होगा।

 

यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के दूसरे मन्त्र में मनुष्यों को वेदविहित कर्मों को करते हुए सौ वर्ष जीने की कामना करने की शिक्षा दी गई है। वेद विहित कर्मों को करने से मनुष्य अशुभ व पाप कर्मों करने से बच जाता है जिसका परिणाम दुःखों से मुक्ति व सुखों में वृद्धि होता है। वेद विहित कर्म न केवल सुखों की वृद्धि वा दुःखों की निवृति का आधार हैं वहीं इनसे मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। अतः सद्कर्मों को करने के साथ सभी मनुष्यों को इनका प्रचार करने का प्रयत्न भी करना चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘महर्षि दयानन्द का नवदम्पत्तियों व गृहस्थियों को वेदसम्मत कर्तव्योपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द महाभारतकाल के बाद संसार में वेदों के सर्वाधिक ज्ञानसम्पन्न विद्वान व ऋषि हुए हैं। उन्होंने वेदों वा वेदों की संहिताओं की खोज कर उनका संरक्षण करने के साथ वेदों पर भाष्य भी किया। मनुष्य जाति मुख्यतः वेदप्रेमियों का यह दुर्भाग्य था कि कुछ पतित लोगों ने उनको विषपान करा कर अकाल मृत्यु का ग्रास बना दिया जिससे उनका वेदभाष्य पूरा न हो सका। उन्होंने जितना वेदभाष्य किया है, वह उपलब्ध वैदिक साहित्य में महत्वूपर्ण एवं वैदिक विद्वानों द्वारा सर्वत्र आदरणीय एवं सम्माननीय है। स्वामीजी ने वेदभाष्य से इतर सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है जिसमें उन्होंने वेद अर्थात् ईश्वर की आज्ञानुसार सभी स्त्री-पुरुषों के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला है। संस्कारविधि ग्रन्थ में उन्होंने मनुष्यों के 16 संस्कारों पर प्रकाश डालने के साथ संस्कारों में प्रासंगिक वेदमन्त्रों का विनियोग कर संस्कार व उससे सम्बन्धित कर्तव्यों की विस्तृत व पूर्ण विधि पर भी प्रकाश डाला है। यह ज्ञातव्य है कि महर्षि दयाननन्द ने समावर्तन, विवाह एवं गृहस्थाश्रम संस्कारों में अनेक वेदमन्त्रों को प्रस्तुत कर उनके अर्थों पर प्रकाश डाला है। यह सभी मन्त्र व उनके अर्थ उनके नवदम्पतियों को वेदोपदेश ही हैं। आईये, गृहस्थ आश्रम पर उनका सम्पादनयुक्त एक उपदेश सुनते हैं।

 

(हे स्त्री-पुरुषों) गृहाश्रमसंस्कार उसे कहते हैं कि जो ऐहिक और पारलौकिक सुखप्राप्ति के लिए विवाह करके अपने सामथ्र्य के अनुसार परोपकार करना, नियतकाल में यथाविधि ईश्वरउपासना, गृहकृत्य करना, सत्य धर्म में ही अपना तनमनधन लगाना तथा धर्मानुसार सन्तानों की उत्पति करना। इसके बाद वेद मन्त्रों को प्रस्तुत कर उन्होंने उनके अर्थ किये हैं जिसमें वह कहते हैं कि सुकुमार, शुभगुणयुक्त, वधू की कामना करनेवाला पति तथा पति की कामना करनेवाली वधू और दोनों श्रेष्ठ, तुल्य गुण-कर्म-स्वभाववाले होवें। ऐसी जो सूर्य की किरणवत् सौन्दर्य गुणयुक्त, पति के लिए मन से गुणकीर्तन करनेवाली वधू है, उसको पुरुष और इसी प्रकार के पुरुष को स्त्री सकल जगत् का उत्पादक परमात्मा देता है अर्थात् बड़े भाग्य से दोनों स्त्रीपुरुषों का जो कि तुल्य गुणकर्मस्वभाव वाले हों, जोड़ा मिलता है।

 

हे स्त्री और पुरुषों ! मैं परमेश्वर आज्ञा देता हूं कि तुम्हारे लिए विवाह में जो प्रतिज्ञा हो चुकी है, जिसे तुम दोनों ने स्वीकार किया है, इसी में तत्पर रहो, इस प्रतिज्ञा से वियुक्त मत होओ। ऋतुगामी होके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सम्पूर्ण आयु जो सौ वर्षों से कम नहीं है, उसे प्राप्त होओ और वैदिक धर्म रीति से पुत्रों और नातियों के साथ क्रीड़ा करते हुए उत्तम गृहवाले आनन्दित होकर गृहाश्रम में प्रीतिपूर्वक निवास करो। वघू को सम्बोधित कर वह कहते है कि हे वरानने ! तू अच्छे मंगलाचरण करने तथा दोष और शोकादि से पृथक् रहनेवाली, गृहकार्यों में चतुर और तत्पर रहकर उत्तम सुखयुक्त होके पति, श्वशुर और सासु (देवर और ननद सहित) के लिए सुखकत्र्री और स्वयं प्रसन्न हुई इन घरों में सुखपूर्वक प्रवेश कर। हे वघू ! तू श्वशुरादि के लिए सुखदाता, पति के लिए सुखदाता, गृहस्थ सम्बन्धियों (देवर ननद आदि) के लिए सुखदायक हो और इस सब प्रजा के अर्थ सुखप्रद और इनके पोषण के अर्थ तत्पर हो। महर्षि दयानन्द कहते हैं कि जो दुष्ट हृदयवाली अर्थात् दुष्टात्मा जवान स्त्रियां (यदि कोई हो) और जो इस स्थान में बू्ढ़ी-वृद्ध स्त्रियां हों, वे भी इस वधू को शीघ्र तेज अर्थात् शुभकामनायें व आर्शीवाद देवें। इसके पश्चात् अपने-अपने घर को चली जायें और फिर इसके पास कभी न आवें। हे वरानने ! तू प्रसन्नचित होकर पलंग पर शयन कर और गृहाश्रम में स्थिर रहकर इस पति के लिए प्रजा को उत्पन्न कर। सुन्दर ज्ञानी उत्तम शिक्षा को प्राप्त सूर्य की कान्ति के समान तू उषःकाल से पहली ज्योति के तुल्य प्रत्यक्ष सब कामों में जागती रह (सजग व सावधान रह)।

 

हे सौभाग्यप्रदे नारी ! जैसे इस गृहाश्रम में प्रथम विद्वान लोग उत्तम स्त्रियों को प्राप्त होते हैं, वैसे तू विविध प्रकार से सुन्दररूप को धारण करनेहारी, सत्कार को प्राप्त होके सूर्य की कान्ति के समान अपने स्वामी के साथ मिलके प्रजा को प्राप्त होनेवाली अच्छे प्रकार हो। हे स्त्री-पुरुषों ! तुम बालकों के जनक गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए सन्तानों को अच्छे प्रकार उत्पन्न करो। हे पुरुष वा पति ! इस अपनी स्त्री को सन्तानों से बढ़ा और दोनों परस्पर मिलकर इस गृहाश्रम में प्रजा को उत्पन्न करो, पालन-पोषण करो और पुरुषार्थ से धन को प्राप्त होओ। हे वृद्धिकारक पुरुष ! जिसमें मनुष्य लोग बीज को बोते हैं, उस अतिशय कल्याण करनेवाली स्त्री को सन्तानोत्पत्ति के लिए प्रेम से प्रेरणा कर। हे स्त्री और पुरुष ! जैसे सूर्य सुन्दर प्रकाशयुक्त प्रभातवेला को प्राप्त होता है, वैसे सुख से घर के मध्य में सन्तानोत्पत्ति आदि की क्रिया को अच्छे प्रकार जाननेवाले, सदा हास्य और आनन्दयुक्त, बड़े प्रेम से अत्यन्त प्रसन्न हुए, उत्तम चालचलन से धर्मयुक्त व्यवहार में अच्छे प्रकार चलनेवाले, उत्तम पुत्रवाले, श्रेष्ठ गृहादि सामग्रीयुक्त उत्तम प्रकार की सत्नानों को धारण करते हुए गृहाश्रम के व्यवहारों को पूरा करो।

 

प्रवचन को जारी रखते हुए महर्षि दयानन्द आगे कहते हैं कि हे परमैश्वर्ययुक्त विद्वान् राजन् ! आप इस संसार में इन स्त्रीपुरुषों को समय पर विवाह करने की आज्ञा और ऐसी व्यवस्था दीजिए कि जिससे कोई स्त्रीपुरुष वैदिक रीति के विपरीत विवाह योग्य आयु से पूर्व वा अन्यथा विवाह कर सकें। वैसे सबको प्रसिद्धि से प्रेरणा कीजिए जिससे ब्रह्मचर्यपूर्वक शिक्षा को पाकर जाया और पति चकवाचकवी के समान एकदूसरे से प्रेमबद्ध रहें और गर्भाधानसंस्कारोक्त विधि से उत्पन्न हुई प्रजा से ये दोनों सुखयुक्त होके सम्पूर्णसौ वर्षपर्यन्त आयु को प्राप्त होवें। हे मनुष्यों! जैसे विद्यादि उत्तम गुणों का (उपदेश व प्रवचन द्वारा) दान करने वाले उत्तम स्त्री-पुरुष पुत्रोत्पत्ति करते और पुत्र की कामना करते हैं, वैसे हमारे भी सन्तान उत्तम होवें तथा बल, प्राण का नाश न करनेवाले होकर बड़े परोपकार के अर्थ विज्ञान और अन्न आदि के दान के लिए कटिबद्ध सदा रहें, जिससे हमारे सन्तान भी उत्तम होवें। पति अपनी पत्नी को सम्बोधित कर शिक्षा देता है कि हे पत्नि ! तू शतवर्षपर्यन्त वा दीर्घकाल तक जीने के लिए उत्तम बुद्धियुक्त, सद्ज्ञानयुक्त होकर मेरे घरों को प्राप्त हो और मुझ घर के स्वामी की तुझ स्त्री, जैसे तेरा दीर्घकाल-पर्यन्त जीवन होवे, वैसे प्रकृष्ट ज्ञान और उत्तम व्यवहार को यथावत् जान। दम्पति की इस आशा को सब जगत् की उत्पत्ति और सम्पूर्ण ऐश्वर्य को देनेवेाला परमात्मा अपनी कृपा से सदा सिद्ध करे। जिससे वह दोनों सदा उन्नतिशील होकर आनन्द में रहें। ईश्वर गृहस्थों को उपदेश कर कहते है कि हे गृहस्थो ! मैं ईश्वर तुमको जैसी आज्ञा देता हूं, वैसा ही आचरण व व्यवहार करो, जिससे तुम्हें अक्षय सुख हो, अर्थात् जैसे तुम अपने लिए सुख की इच्छा करते और दुःख नहीं चाहते हो, वैसे ही तुम दोनों माता-पिता, सन्तान, स्त्री-पुरुष, भृत्य, मित्र, पड़ोसी और अन्य सबसे समान हृदय रहो। मन से सम्यक् प्रसन्नता और वैर-विरोधादिरहित व्यवहार को तुम्हारे लिए स्थिर करता हूं। तुम (अघ्नया) हनन न करने योग्य गाय जैसे अपने सद्योजात उत्पन्न हुए बछड़े पर वात्सल्यभाव से वर्तती है, वैसे एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक कामना (सद्भावना) से वर्ता करो।

 

परमात्मा के गृहस्थियों को उपदेश को जारी रखते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि हे गृहस्थों ! जैसे तुम्हारा पुत्र माता के साथ प्रीतियुक्त मनवाला, अनुकूल आचारणयुक्त, और पिता के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार का प्रेमवाला होवे, वैसे तुम भी अपने पुत्रों के साथ सदा वर्ता करो। पुत्रों के समान व्यवहार ही पुत्रियों के प्रति भी करो। जैसे स्त्री पति की प्रसन्नता के लिए माधुर्यगुणयुक्त वाणी को कहे, वैसे पति भी शान्त होकर अपनी पत्नी से सदा मधुर भाषण किया करे। हे गृहस्थो ! तुम में भाई भाई के साथ द्वेष कभी करे। और बहिन बहिन से द्वेष कभी करे तथा बहिनभाई भी परस्पर द्वेष मत करो, किन्तु सम्यक् प्रेमादि गुणों से युक्त समान गुणकर्मस्वभाववाले होकर मंगलकारक रीति से एकदूसरे के साथ सुखदायक वाणी को बोला करो। हे गृहस्थो !  जिस प्रकार के व्यवहार से विद्वान लोग परस्पर पृथक भाववाले नहीं होते और परस्पर में द्वेष कभी नहीं करते, वही कर्म, मैं ईश्वर, तुम्हारे लिए निश्चित करता हूं। पुरुषों को अच्छे प्रकार चिताता हूं कि तुम लोग परस्पर प्रीति से वर्तकर बड़े धनैश्वर्य को प्राप्त होओ। हे गृहस्थादि मनुष्यो ! तुम उत्तम विद्यादिगुणयुक्त, विद्वान, सद्ज्ञानी, धुरन्धर होकर विचरण करते हुए और परस्पर मिलकर धन-धान्य व राज्यसमृद्धि को प्राप्त होते हुए विरोधी वा पृथक्-पृथक् भाव परस्पर मत करो। एक दूसरे के लिए सत्य, मधुर भाषण करते हुए एक-दूसरे को प्राप्त होओ। इसीलिए समान लाभ व हानि में एक-दूसरे के सहायक तथा एक-मत (समान-मत) वाले तुमको करता हूं अर्थात् मैं ईश्वर तुमको जो आज्ञा देता हूं, इसको आलस्य छोड़कर किया करो (जिससे तुम सुखी, आनन्दित व सम्पन्न हों)।

 

स्वामी दयानन्द जी का गृहस्थियों को यह उपदेश जारी है। यदि हम इसे पूरा प्रस्तुत करें तो इस सामग्री की दुगुगी सामग्री अभी शेष है। अतः हम सभी पाठकों वा गृहस्थियों से निवेदन करते हैं कि वह संस्कारविधि का गृहस्थाश्रम प्रकरण पूरा पढ़े और महीने में एक या दो बार इसे दोहरा लिया करें जिससे इसके पाठ व आचरण से परिवार में प्रेम, सुख, शान्ति व समृद्धि विद्यमान रहे। हम आशा करते हैं कि पाठक महर्षि दयानन्द के इन उपदेश को पसन्द करंेगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘संन्यास आश्रम की महत्ता पर संन्यासी स्वामी दयानन्द का उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द के प्रसिद्ध ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ संस्कारविधि है। इस ग्रन्थ में उन्होंने वेदों पर आधारित 16 संस्कारों का व्याख्यान किया है। इस व्याख्यान में सभी संस्कारों के स्वरूप का वर्णन करने के साथ उनकी विधि वा पद्धति भी दी गई है। संस्कारविधि से ही हम उनके संन्यास आश्रम पर उपदेश को पाठकों के लाभ हेतु सम्पादन के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

संन्याससंस्कार उसे कहते हैं कि जिसमें मोह आदि आवरण व पक्षपात छोड़ कर तथा विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकार्थ विचरण किया करते हैं। प्रथम वानप्रस्थ आश्रम के प्रसंग में जो बताया गया है कि ब्रह्मचर्य पूरा करके गृहस्थ और गृहस्थ होके वानप्रस्थ तथा वानप्रस्थ होके संन्यासी होवे, यह क्रम संन्यास, अर्थात् अनुक्रम से आश्रमों का अनुष्ठान करता-करता वृद्धावस्था में जो संन्यास लेना है, उसी को क्रमसंन्यास कहते हैं। संन्यास का दूसरा प्रकार यह है कि जिस दिन दृढ़ वैराग्य प्राप्त हो, उसी दिन चाहे वानप्रस्थ का समय पूरा भी न हुआ हो, अथवा वानप्रस्थ आश्रम का अनुष्ठान न करके गृहाश्रम से ही संन्यासाश्रम ग्रहण करें क्योंकि संन्यास में दृढ़ वैराग्य और यथार्थ ज्ञान का होना ही मुख्य कारण है। संन्यास आश्रम का तीसरा प्रकार यह है कि यदि पूर्ण अखण्डित ब्रह्मचर्य, सच्चा वैराग्य और पूर्ण ज्ञानविज्ञान को प्राप्त होकर विषयासक्त की इच्छा आत्मा से यथावत् उठ जावे, पक्षपातरहित होकर सबके उपकार करने की इच्छा होवे और जिसको दृढ़ निश्चय हो जावे कि मैं मरणप्र्यान्त यथावत् संन्यासधर्म का निर्वाह कर सकूंगा तो वह गृहाश्रम करे वानप्रस्थाश्रम, किन्तु ब्रह्मर्याश्रम को पूर्ण करके संन्याश्रम को ग्रहण कर लेवे।

 

वेदों में संन्यास आश्रम ग्रहण करने के प्रमाण उपलब्ध हैं। महर्षि दयानन्द जी ने संस्कारविधि में वेदों के 11 प्रमाण दिये हैं। लेख की सीमा के कारण हम यहां प्रथम दो प्रमाणों के ही उनके किये हुए हिन्दी अर्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। वह वेद मन्त्र का शब्दार्थ करते हुए कहते हैं कि मैं ईश्वर संन्यास लेनेवाले तुझ मनुष्य को उपदेश करता हूं कि जैसे मेघ का नाश करनेवाला सूर्य हिंसनीय पदार्थों से युक्त भूमितल में स्थित सोमरस को पीता है, वैसे संन्यास लेनेवाला पुरुष उत्तम मूल, फलों के रस को पीवे और अपने आत्मा में बड़े सामथ्र्य को उत्पन्न करूंगा, ऐसी इच्छा करता हुआ दिव्य बल को धारण करता हुआ परमैश्वर्य के लिए, हे चन्द्रमा के तुल्य सबको आनन्दित करनेहारे पूर्ण विद्वन् ! तू संन्यास लेके सब पर सत्योपदेश की वृष्टि कर। हे सोमगुण सम्पन्न सत्य से सबके अन्तःकरण को सींचनेवाले, सब दिशाओं में स्थित मनुष्यों को सच्चा ज्ञान देके पालन करनेवाले, शमादिगुणयुक्त संन्यासिन् ! यथार्थ बोलने, सत्यभाषण करने से सत्य के धारण में सच्ची प्रीति और प्राणायाम, योगाभ्यास से, सरलता से निष्पन्न होता हुआ अपने शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि को पवित्र कर। परमैश्वर्ययुक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिए सब प्रकार से प्रयत्न कर।

 

वेदों के प्रमाणों को प्रस्तुत करने के बाद महर्षि दयानन्द जी ने मनुस्मृति के 23 श्लोक प्रस्तुत कर उनके अर्थ दिये गये हैं जिनमें से 17 श्लोकों के अर्थ लेख की सीमा को ध्यान में रखकर प्रस्तुत हैं। यह अर्थ क्रमशः इस प्रकार कहे हैं। (वानप्रस्थ) काल में जंगलों में आयु का तीसरा भाग, अर्थात् अधिक-से-अधिक पच्चीस वर्ष अथवा न्यून-से-न्यून बारह वर्ष तक विहार करके आयु के चैथे भाग, अर्थात् सत्तर वर्ष के पश्चात् सब मोह आदि संगों (परिवार आदि संबंधों) को छोड़कर संन्यासी हो जावे।।1।। विधिपूर्वक ब्रह्मचर्याश्रम में सब वेदों को पढ़, गृहाश्रमी होकर धर्म से पुत्रोत्पत्ति कर, वानप्रस्थ में सामथ्र्य के अनुसार यज्ञ करके मोक्ष, अर्थात् संन्यासाश्रम में मन को लगाये।।2।। प्रजापति परमात्मा की प्राप्ति के निमित्त प्राजापत्येष्टि कि जिसमें यज्ञोपवीत और शिखा को त्याग दिया जाता है, इनका त्याग कर आह्वनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि संज्ञक अग्नियों को आत्मा में समारोपित करके, ब्राह्मण विद्वान गृहाश्रम से ही संन्यास लेवे।।3।। जो पुरुष सब प्राणियों को अभयदान, सत्योपदेश देकर गृहश्रम से ही संन्यास ग्रहण कर लेता है, उस ब्रह्मवादी, वेदोक्त  सत्योपदेशक संन्यासी को मोक्षलोक और सब लोक-लोकान्तर तेजोमय-ज्ञान से प्रकाशमय हो जाते हैं।।4।। जब सब कामों (इच्छाओं, कामनाओं आदि) को जीत लेवे और उनकी अपेक्षा न रहे, पवित्रात्मा और पवित्रान्तःकरण और मननशील हो जावे तभी गृहाश्रम से निकलकर संन्यासाश्रम का ग्रहण करे अथवा ब्रह्मचर्य ही से संन्यास का ग्रहण कर लेवे।।5।।

 

वह संन्यासी अनग्निः अर्थात् आह्वनीयादि अग्नियों से रहित और कहीं अपना स्वाभिमत घर (मठ, आश्रम आदि) भी न बांधे और अन्न-वस्त्रादि के लिए ग्राम का आश्रय लेवे। बुरे मनुष्यों की उपेक्षा करे और स्थिरबुद्धि व मननशील होकर परमेश्वर में अपनी भावना का समाधान करता हुआ विचरे।।6।।  न तो अपने जीवन में आनन्द और न अपने मृत्यु में दुःख माने, किन्तु जैसे क्षुद्र भृत्य अपने स्वामी की आज्ञा की बाट देखता रहता है, वैसे ही काल और मृत्यु की प्रतीक्षा करता रहे।।7।। चलते समय आगे-आगे देख के पग धरे। सदा वस्त्र से छानकर जल पीवे। सबसे सत्य वाणी बोले अर्थात् सत्योपदेश ही किया करे। जो कुछ व्यवहार करे, वह सब मन की पवित्रता से आचरण करे।।8।। इस संसार में आत्मनिष्ठा में स्थित, सर्वथा अपेक्षारहित, मांसमद्यादि का त्यागी, आत्मा के सहाय से ही सुखार्थी होकर विचरा करे और सबको सत्योपदेश करता रहे।।9।। सब शिर के बाल, दाढ़ी-मूंछ और नखों का समय-समय पर छेदन कराता रहे। पात्री, दण्डी और कुसुंभ के रंगे हुए वस्त्रों को धारण किया करे। सब भूत-प्राणिमात्र को पीड़ा न देता हुआ दृढ़ात्मा होकर नित्य विचरण करे।।10।।

 

जो संन्यासी बुरे कामों से इन्द्रियों के निरोध, रागद्वेषादि दोषों के क्षय और निर्वैरता से सब प्राणियों का कल्याण करता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है।।11।। चाहे संन्यासी को संसारी मूर्ख लोग निन्दा आदि से दूषित वा अपमानित भी करें, तथापि वह धर्म ही का आचरण करे। ऐसे ही अन्य ब्रह्मचर्य आश्रम आदि के मनुष्यों को करना उचित है। सब प्राणियों में पक्षपातरहित होकर समबुद्धि रक्खेइत्यादि उत्तम काम करने ही के लिए संन्यासाश्रम का विधान है, किन्तु केवल दण्डादि चिन्ह धारण करना ही संन्यास धर्म का कारण नहीं है।।12।। यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल जल को शुद्ध करनेवाला है तथापि उसके नामग्रहणमात्र से जल शुद्ध नहीं होता, किन्तु उसको ले, पीस, जल में डालने ही से जल शुद्ध होता है। वैसे नाममात्र आश्रम से कुछ भी नहीं होता, किन्तु अपने-अपने आश्रम के धर्मयुक्त कर्म करने ही से आश्रमधारण सफल होता है, अन्यथा नहीं।।13।। इस पवित्र संन्यास आश्रम को सफल करने के लिए संन्यासी पुरुष विधिवत् योगशास्त्र की रीति से सात व्याहृतियों के पूर्व सात प्रणव लगा के  (अर्थात् ओं भूः। ओं भुवः ओं स्वः। ओं महः ओं जनः। ओं तपः। ओं सत्यम्। बोलकर्), उसे मन से जपता हुआ तीन प्राणायाम भी करे तो जानों अत्युत्कृष्ट तप करता है।।14।। जैसे अग्नि में तपाने से धातुओं के मल छूट जाते हैं वैसे ही प्राण के निग्रह से इन्द्रियों के दोष नष्ट हो जाते हैं।।5।। इसलिए संन्यासी लोग प्राणायामों से मन व शरीरादि के दोषों को, धारणाओं से अन्तःकरण के मैल को, प्रत्याहार से संग से हुए दोषों और ध्यान से अविद्या, पक्षपात आदि अनीश्वरता (नास्तिकता) के दोषों को छुड़ाके पक्षपातरहित आदि ईश्वर के गुणों को धारण कर, सब दोषों को भस्म कर देवे।।16।। जो अन्तर्यामी परमात्मा बड़े-छोटे प्राणी और अप्राणियों में अशुद्ध आत्माओं से देखने के योग्य नहीं है, उस परमात्मा की गति व कार्यों को ध्यानयोग से ही संन्यासी देखा करे।।17।।

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती स्वयं संन्यासी थे। उन्होंने अपने जीवन में संन्यास के सभी कर्तव्यों व मर्यादाओं का प्राणपण से पालन किया। उन्होंने जो बातें वेद और मनुस्मृति के आधार पर अपने व्याख्यान में कही हैं, उन सब का आचरण उनके जीवन में परिलक्षित होता है। संन्यास आश्रम पर उनके द्वारा संस्कारविधि में दिये गये प्रमाणों और मनुस्मृति के अन्य उपदेशों को जानने के लिए पाठक महानपुभाव कृपया संस्कारविधि का अध्ययन करें। वैदिक आश्रम व्यवस्था ईश्वर से प्रेरित व स्थापित है और श्रेष्ठ समाज, समुन्नत देश व विश्व तथा मनुष्य की आत्मा की सर्वांगीण उन्नति व जीवन के चरम लक्ष्यों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सफलता की दृष्टि से रची गई है। सृष्टि के आरम्भ काल से महाभारत काल तक यह आश्रम व्यवस्था अपने यथार्थ रूप में प्रचलित रही। उसके बाद इसमें ह्रास की स्थिति उत्पन्न हुई जिसका कारण अज्ञान व अन्धविश्वासों का देश व समाज में प्रसार होना था। इसका परिणाम देश की पराधीनता व सभी मनुष्यादि प्राणियों को नानाविध दुःख के रूप में हुआ। यद्यपि संन्यास आश्रम का पालन कठिन अवश्य है परन्तु असंभव नहीं है। सृष्टि के आरम्भ काल से असंख्य व कोटिशः लोगों ने इसका पालन किया है। आज इसका पर्याप्त संख्या व यथार्थ रूप में पालन न होने से ही विश्व में सर्वत्र अशान्ति व क्लेश का वातावरण है। आज भी आर्यसमाज में सहस्रों संन्यासी हैं जो संन्यास धर्म का पालन करते हुए समाज व देश से अन्धकार दूर करने का प्रयास कर रहे हैं जिसके कारण वैदिक धर्म व संस्कृति जीवित है। लेख को विराम देने से पूर्व हम निवेदन करना चाहते हैं कि सभी बन्धुओं को संस्कारविधि का अध्ययन कर ग्रन्थकर्ता के अभिप्राय, ग्रन्थ की आत्मा व गहराई को समझना चाहिये और अपने हित व अहित को ध्यान में रखकर जो उन्हें ग्राह्य लगे उसे आचरण में लाना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘सन्त रोमां रोल्या के महर्षि दयानन्द विषयक उत्साहवर्धक यथार्थ विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

सन्त रोमां रोल्या (1866-1944) यूरोप के उच्चकोटि के ग्रंथकारों और साहित्यिकों में से थे जो यूरोप के महान् मस्तिष्कों का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रख्यात हैं। उन्हें सन् 1915 का साहित्य का नोबेल पुरुस्कार भी मिला है। फ्रेंच भाषा में उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवनी लिखी जिसके प्रथम भाग का अंग्रेजी अनुवाद कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रो. ई0एफ0 मलकीलन स्मिथ ने किया और जो सन् 1930 में अद्वैत आश्रम मायावती अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित हुई। इस जीवन चरित्र में विद्वान् ग्रन्थकर्ता ने एकता के निर्माता “Builders of Unity” शीर्षक के अन्तर्गत लगभग 25 पृष्ठों में महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के विषय में आलोचनात्मक दृष्टि से विचार किया है। उनका दृष्टिकोण पाश्चात्य था और भारत से दूर बैठ कर वह लिख रहे थे। वह महर्षि दयानन्द के प्रति सद्भावना रखते हुए भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा का मूल्यांकन करने में कहीं-कहीं असमर्थ रहे। उन्होंने उपलब्ध हुई सामग्री के आधार पर महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा उसका ऐतिहासिक मूल्य है। श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवनी में महर्षि दयानन्द से संबंधित सन्त रोमां रोल्या द्वारा लिखी सामग्र्री के अनुवादक श्री रघुनाथ प्रसाद पाठक ने मार्च, 1957 को लिखा है कि कई स्थलों पर तो संत रोमां रोल्या ने महर्षि दयानन्द के अभिनन्दन में जो शब्द लिखे हैं, उसे पढ़ कर लगता है कि उन्होंने महर्षि की इतनी प्रशंसा की है कि उन्होंने कलम ही तोड़ दी है। इस लेख में हम संत रोमां रोल्या द्वारा कहे गये 8 प्रमुख कथनों को अंग्रेजी भाषा व उसके अनुवाद सहित उद्धृत कर रहें हैं। शेष प्रसंगों को लेख की सीमा को ध्यान में रखते हुए छोड़ दिया है जिसके लिए हम पाठकों से अनुग्रह करेंगे कि वह सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली द्वारा प्रकाशित लघु पुस्तक ‘‘भारत का एक ऋषि पढ़ने का कष्ट करें।

 

सन्त रोमां रोल्या लिखते हैं कि  (1) “The man (Dayanand) with the nature of a lion is one of those whom Europe is too apt to forget when she judges India, but whom she will probably be forced to remember to her cost, for he was that rare combination, a thinker of action with a genius for leadership. (p.146)” अर्थात् सिंह समान निर्भीक प्रकृति वाला यह महापुरुष उन व्यक्तियों में था जिन्हें भारत का मूल्यांकन करते समय यूरोप भुलाने की चेष्टा करता हुआ भी भुला सकेगा, क्योंकि ऐसा करना उसके (यूरोप के) लिये महंगा सौदा सिद्ध होगा। इस महान् पुरुष दयानन्द में विचार, कर्म और नेतृत्व की प्रतिभा का अनुपम सम्मिश्रण था।’ 

 

(2) Dayanand was not a man to come to an understanding with religious philosphers imbued with Western ideas. (p.150) अर्थात् दयानन्द पाश्चात्य विचारों से विमोहित दार्शनिकों के साथ समझौता करने वाले महानुभाव थे।

 

(3) It was impossible to get the better of him for he possessed an unrivalled knowledge of Sanskrit and the Vedas while the burning vehemence of his words brought his adversaries to naught.  They likened him to a flood. Never since Shankara had such a prophet of Vedism appeared. (p.150) अर्थात् उन (दयानन्द) पर विजय पाना असम्भव था क्योंकि वे वैदिक वांड्मय और संस्कृत के अनुपम भण्डार थे। उनके शब्दों की धधकती हुई आग से उनके विरोधियों का विरोध भस्मसात हो जाया करता था। वे लोग जल की प्रबल बाढ़ के साथ दयानन्द की तुलना किया करते थे। शंकराचार्य के पश्चात् दयानन्द जैसा वेदवित् भारत भूमि में उत्पन्न नहीं हुआ।

 

(4)  Dayanand’s stern teachings corresponded to the thought of his countrymen and to the first stirrings of Indian nationalism to which he contributed. (p.153) अर्थात् दयानन्द की उग्र और प्रौढ़ शिक्षायें उसके देशवासियों की विचारधारा के अनुकूल थीं और उन शिक्षाओं से भारतीय राष्ट्रीयता का सर्वप्रथम नवजागरण हुआ।

 

(5) The enthusiastic reception accorded to the thunderous champion of the Vedas, a Vedist belonging to a great race and penetrated with the sacred writings of ancient India and with her heroic spirit is then easily explained.  He alone hurled the defiance of India against her invaders. (p.157) अर्थात् महान् वीर योद्धा दयानन्द का उत्साहपूर्वक स्वागत होने का कारण इस पृष्ठभूमि के प्रकाश में सहज ही में समझ में सकता है कि वे स्वयं वेदों के उग्र प्रचारक थे और वीरभावना के साथ प्राचीन भारत के पवित्र ग्रन्थों को साथ लेकर कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने अकेले ही भारत पर आक्रमण करने वालों के विरुद्ध मोर्चा लगाया।

 

(6) He had no pity for any of his fellow countrymen past or present who had contributed in any way to the thousand year decadence of India, at to one time the mistress of the world. अर्थात् दयानन्द ने अपने देश के प्राचीन वा अर्वाचीन किसी भी निवासी को क्षमा नहीं किया जिसने किसी किसी रूप में उस भारत के 1000 वर्ष के हुए पतन में योग दिया था, जो किसी समय संसार का शिरमौर था।

 

(7) It was in truth an epoch making date for India when a Brahman not only acknowledged that all human beings have the right to know the Vedas whose study had been previously prohibited by orthodox Brahmans, but insisted that their study and propaganda was the duty of every Arya (p.159) अर्थात् सत्य यह है कि भारत के लिए वह दिन एक युगप्रवर्तक दिन था जब एक ब्राह्मण ने केवल यह स्वीकार किया कि उस वेदज्ञान पर मानव मात्र का अधिकार है जिनका पठनपाठन उनसे पूर्व के कट्टर पन्थी ब्राह्मणों ने निषिद्ध कर दिया था, अपितु इस बात पर भी बल दिया कि वेदों का पढ़नापढ़ाना और सुननासुनाना सब आर्यो का परम धर्म है। इसके आगे एक अन्य स्थान पर वह लिखते हैं कि (8) दयानन्द ने भारत के निष्प्राण शरीर में अपना अदम्य उत्साह, अपना दृढ़ निश्चयात्मक संकल्प और सिंह जैसा रक्त भर कर उसे सजीव किया। उसके शब्द वीरोचित शक्ति के साथ गूंज गये।

 

संत रोमा रोल्या ने महर्षि दयानन्द जी के जीवन के अनेक प्रसंगों को भी अपनी लेखनी से श्रद्धापूर्ण शब्दों में प्रस्तुत किया है। यहां हम उनके द्वारा लिखित ‘‘काशी शास्त्रार्थ की एक घटना को देकर सन्तोष कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि शास्त्रार्थ में पराजित हुए पौराणिक पंडितों ने दयानन्द को अपने रोम (काशी) में आने के लिए आमंत्रित किया। दयानन्द निर्भयतापूर्वक वहां गए और सन् 1869 के नवम्बर मास के उस महान् शास्त्रार्थ में प्रवृत्त हुए जिसकी तुलना होमर के काव्य में वर्णित संग्राम के साथ की जा सकती है। लाखों आक्रान्ताओं के सामने जो उन्हें परास्त करने के लिए उत्सुक थे, उन्होंने अकेले 300 पंडितों के साथ शास्त्रार्थ किया, दूसरे शब्दों में पोप गढ़ की अग्रगामिनी और सुरक्षित दोनों सेनाओं के साथ दयानन्द ने यह सिद्ध किया कि जिन ग्रंथों पर आचरण किया जाता है वे वेदानुकूल नहीं हैं। उन्होंने अपना आधार वेद को बनाया हुआ था। पंडितों का धीरज टूटते हुए देर लगी। उन्होंने दयानन्द का परिहास और बहिष्कार किया। दयानन्द को अपने चारों ओर निराशा के बादल छाये हुए दिखाई पड़े परन्तु महाभारत जैसे इस संघर्ष की प्रतिध्वनि से समस्त भारत गूंज उठा जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतवर्ष में उनका नाम प्रसिद्ध हो गया।

 

हमने साहित्य का नोबल पुरुस्कार प्राप्त संत रोमां रोल्या जी की पुस्तक से महर्षि दयानन्द विषयक कुछ मुख्य प्रसंगों को प्रस्तुत किया है जिससे एक विदेशी निष्पक्ष विद्वान के शब्दों में महर्षि दयान्द के व्यक्तित्व व कृतित्व का अनुमान लगाया जा सके। महर्षि दयानन्द जैसा विलक्षण वेदभक्त, देशभक्त, ब्रह्मचर्य का आदर्श, वेदों के ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण, अपूर्व समाजसुधारक, पतितोद्धारक धर्मप्रचारक भारत में अभी तक दूसरा उत्पन्न नहीं हुआ। इतना और निवेदन करना चाहते हैं कि महर्षि दयानन्द का वेदों के प्रति कोई परम्परागत व अतार्किक पूर्वाग्रह नहीं था अपितु वेदों के महत्व व विशेषताओं ने ही उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया था। उन्होंने युक्ति व तर्क की कसौटी तथा सृष्टिक्रम के अनुकूल होने के कारण ही वेदों की महत्ता को स्वीकार किया था। वेदों का धर्म व समाज सम्बन्धी विचारों व शिक्षाओं में जो गौरवपूर्ण स्थान है, वह संसार के किसी अन्य ग्रन्थ का उसकी सामग्री की विशेषता की दृष्टि से नहीं है। वेद सार्वभौम धर्मग्रन्थ हैं जो मनुष्यों को सदाचारी और गुणवान बनाते हैं और जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त कराते हैं। अन्य ग्रन्थों में यह बात न होने के कारण ही महर्षि दयानन्द ने वेदों को अपनाया था। संत रोमां रोल्या जी ने स्वामी दयानन्द जी के प्रति जिन भावपूर्ण शब्दों को लिखा वह निष्पक्ष एवं यथार्थ है। महर्षि दयानन्द ऐसे ही थे व इससे भी अधिक महत्वपूर्ण, गौरवशाली व महान थे। वेद और दयानन्द जी की शरण में सच्चे आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान प्राप्त करने और अपने जीवन को सफल बनानें के लिए आईये और सफल मनोरथ होइये।  

 –मनमोहन कुमार आर्य

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