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हदीस : पहले भोजन, पीछे प्रार्थना

पहले भोजन, पीछे प्रार्थना

निष्ठा की न्यूवता का परिचायक होते हुए भी यह नियम कुछ अंशों में यथार्थपरक है। मोमिन को प्रार्थना की तुलना में ब्यालू पसन्द करने को कहा गया है। मुहम्मद कहते हैं-”जब ब्यालू लाया जाय और प्रार्थना शुरू होने को हो तो पहले भोजन कर लेना चाहिए (1134)। अव्वल चीज अव्वल“।

author : ram swarup

अतिथि यज्ञ ऐसे किया

अतिथि यज्ञ ऐसे किया

श्री रमेश कुमार जी मल्होत्रा का श्री पं0 भगवद्दज़ जी के प्रति विशेष भज़्तिभाव था। पण्डित जी जब चाहते इन्हें अपने घर पर बुला लेते। एक दिन रमेश जी पण्डित जी का सन्देश पाकर उन्हें

मिलने गये।

उस दिन पण्डित जी की रसोई में अतिथि सत्कार के लिए कुछ भी नहीं था। जब श्री रमेश जी चलने लगे तो पण्डित जी को अपने भज़्त का अतिथि सत्कार न कर सकना बहुत चुभा। तब

आपने शूगर की दो चार गोलियाँ देते हुए कहा, आज यही स्वीकार कीजिए। अतिथि यज्ञ के बिना मैं जाने नहीं दूँगा। पं0 भगवद्दत जी ऐसे तपस्वी त्यागी धर्मनिष्ठ विद्वान् थे।

 

हदीस : यहूदियों पर लानत

यहूदियों पर लानत

मस्जिद बनाना पुण्य है, क्योंकि ”जो अल्लाह के लिए एक मस्जिद बनाता है, उसके लिए अल्लाह जन्नत में एक घर बनायेगा“ (1034)। पर कब्रों के ऊपर मस्जिद बनाना और मकबरों को तस्वीरों से सजाना वर्जित है। आयशा बतलाती हैं कि जब पैगम्बर ”आखिरी सांस ले रहे थे…….उन्होंने मुख उघाड़ा और उसी दशा में बोले-यहूदियों और ईसाईयों पर लानत है, क्योंकि उन्होंने अपने पैगम्बरों के मकबरों को पूजा-स्थल बना डाला है“ (1082)।

author : ram swarup

मैं वैदिक धर्म का उपदेशक हूँ

मैं वैदिक धर्म का उपदेशक हूँ

पश्चिमी पञ्जाब का एक परिवार बस में यात्रा कर रहा था। इस परिवार को अपने सगे-सज़्बन्धियों के यहाँ शादी पर जाना था।

इन्होंने मुलतान में बस बदली। बस बदलते हुए इनका एक ट्रंक अनजाने में बदल गया। किसी और यात्री का ट्रंक ज़ी ठीक उन्हीं के जैसा था। आगे की बस द्वारा यह परिवार अपने सगे-सज़्बन्धियों के घर पहुँचा। वहाँ जाकर ट्रंक खोला तो उसमें तो पुस्तकें व रजिस्टर, कापियाँ ही थीं।

जिस यात्री के हाथ इनका ट्रंक आया, वह भी मुलतान से थोड़ी दूरी पर कहीं गया। वहाँ जाकर इसने ट्रंक खोला तो इसमें आभूषण व विवाह-शादी के वस्त्र थे। दोनों ट्रंकों का ताला भी एक

जैसा था। यह एक विचित्र संयोग था। इसे यह समझने में देर न लगी यह सामान तो बस में यात्रा कर रहे किसी ऐसे परिवार का है जिसे विवाह में सज़्मिलित होना है। सोचा वह परिवार कितना दुःखी होगा, तुरन्त लौटकर ट्रंकसहित मुलतान आया। बस अड्डे पर बैठकर बड़े ध्यान से किसी व्याकुल, व्यथित की ओर दृष्टि डालता रहा।

उधर से वे लोग पुस्तकोंवाला ट्रंक लेकर रोते-धोते आ गये। उनको थोड़ा सन्तोष था कि पुस्तकों, रजिस्टरों पर ट्रंकवाले का नाम पता था, परन्तु साथ ही संशय बना हुआ था कि ज़्या पता वह भाई अपना ट्रंक न पाकर खाली हाथ ही रहा हो और अपने ट्रंक के लिए परेशान हो। इस परिवार को ट्रंक सहित रोते-चिल्लाते आते देखकर दूर बैठे दूसरी यात्री ने पुकारा और कहा कि दुखी होने की कोई आवश्यकता नहीं, यह लो तुज़्हारा ट्रंक। अपने माल की पड़ताल कर लो।

अब इस परिवार की प्रसन्नता का कोई पारावार ही नहीं था। पुस्तकोंवाला ट्रंक लौटाते हुए अपना बहुमूल्य सामान लेकर उस यात्री को बहुत बड़ी राशि पुरस्कारस्वरूप भेंट करने लगे तो वह यात्री बहुत विनम्रता से गरजती हुई आवाज में बोला-‘‘यह ज़्या कर रहे हो?’’ ‘‘यह आपकी ईमानदारी के लिए प्रसन्नतापूर्वक पुरस्कार दिया जाता है।’’ उस परिवार के मुखिया ने कृतज्ञतापूर्वक कहा।

इस यात्री ने कहा ‘‘ईमानदारी इसमें ज़्या है? यह तो मेरा कर्ज़व्य बनता था। मैं वैदिक धर्म का उपदेशक हूँ। ऋषि दयानन्द का शिष्य हूँ।’’

उस भाई ने एक पैसा भी स्वीकार न किया। सारे क्षेत्र में दूरदूर तक आर्यसमाज की वाह! वाह! होने लगी। सब ओर इस घटना की चर्चा थी। स्वामी वेदानन्दजी तीर्थ ने यह कहानी उन दिनों

एक लेख में दी थी। यह पुस्तकोंवाला भाई आर्यसमाज का एक पूजनीय विद्वान् पण्डित मनुदेव था। यही विद्वान् आगे चलकर पण्डित शान्ति प्रकाशजी शास्त्रार्थमहारथी के नाम से विज़्यात हुआ। ऐसे लोग मनुजता का मान होते हैं।

हदीस : विधि और निषेध

विधि और निषेध

विधि और निषेध अनेक हैं। उदाहरण के लिए, प्रार्थना के समय जूते पहनने की अनुमति है (1129-1130) किन्तु विभूषित तथा चित्रित वस्त्र चित्त-विक्षेपक हैं, अतः उनसे बचना चाहिए (1131-1133)। पैगम्बर ने मोमिन को आदेश दिया कि प्रार्थना के समय ”वह अपने सामने न थूके, क्योंकि प्रार्थना के वक्त अल्लाह सामने होता है“ (1116)। एक अन्य हदीस के अनुसार उन्होंने ”दाहिने तरफ या सामने थूकने को मना किया, पर बांई तरफ या बायें पैर के नीचे थूकने की इजाज़त है“ (1118)।

 

प्याज या लहसुन खाना हराम नहीं है। पर मुहम्मद को उनकी गन्ध ”बुरी“ लगी (1149) और इसीलिए उन्हें खाकर मस्जिद में आने से मना किया, ”क्योंकि फरिश्तों के लिए वही चीज़ नुकसानदेह है, जो मनुष्यों के लिए“ (1145)।

author : ram swarup

इनकी सामग्री समाप्त हो चुकी है

इनकी सामग्री समाप्त हो चुकी है

ऐसी ही घटना पं0 भीमसेनजी शास्त्री एम0ए0 ने अपने एक लेख में दी है। आर्यसमाज कोटा ने एक शास्त्रार्थ के लिए पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा को बुलाया गया था। पौराणिकों की ओर से

पण्डित श्री आत्मानन्दजी षड्-दार्शनिक बुलाये गये। आर्यसमाज ने पण्डित श्री शिवशंकरजी काव्यतीर्थ को भी अजमेर से बुला लिया, वे भी शास्त्रार्थ के ठीक समय पर पधार गये थे। कोटा निवासी पण्डित लक्ष्मीदज़ शर्मा (व्याकरण के प्रकाण्ड पण्डित) आदि कई सनातनी पण्डित शास्त्रार्थ में पण्डित आत्मानन्दजी की सहायता के लिए उपस्थित थे। शास्त्रार्थ में कुछ प्रश्न-उज़र के पश्चात् श्री पण्डित गणपति शर्माजी ने यह भी कह दिया-‘‘श्री पण्डित आत्मानन्दजी ने अब तक अपनी कोई एक भी बात नहीं कही। अब तक जो कुछ उन्होंने कहा, वह सब अमुक-अमुक ग्रन्थों की सामग्री थी, वह अब समाप्त हो चुकी है, आप देख लेंगे कि अब पण्डितजी के पास

मेरे प्रश्नों का कोई उज़र नहीं है।’’

पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा की ज़विष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। प्रतिपक्षी पर पण्डितजी का ऐसा रोब पड़ा कि वह एक शज़्द भी न बोल सका। बस, खड़ा होकर ‘बोल सनातनधर्म की जय’ कहकर चल दिया।

स्मरण रहे कि पण्डित श्री लक्ष्मीदज़जी कहा करते थे कि पण्डित गणपतिशर्मा दर्शनों के ही नहीं, प्रत्युत व्याकरण के भी उद्भट विद्वान् थे। जब कभी पण्डित गणपति शर्मा कोटा में प्रचारार्थ

आते, श्री पण्डित लक्ष्मीदज़जी उन्हें सुनने के लिए आर्यसमाज में अवश्य आया करते थे।

हदीस : औरतें और मस्जिदें

औरतें और मस्जिदें

औरतें मस्जिद में जा सकती हैं पर वे ”इत्र न लगाये हुए हों“ (893)। यदि वे इत्र लगा सकने में समर्थ हों तो मर्दों को यह विशेषाधिकार वर्जित नहीं है। औरतों से यह भी कहा गया है कि सजदे से सर उठाते समय मर्दों से पहले ऐसा न करें। अनुवादक स्पष्ट करते हैं कि यह हदीस उस समय से सम्बद्ध है, जब मुहम्मद के साथी लोग बहुत गरीब थे और पूरे कपड़े उनके पास नहीं होते थे। निर्देश का हेतु यह था कि इसके पहले कि औरतें सजदे से सर उठायें, इन गरीब लोगों को अपने कपड़े सम्हाल लेने का वक्त मिल जाये (हदीस 883 और टि0 665)।

 

मुहम्मद ने मोमिनों को हुक्म दिया कि ”अविवाहित औरतों और पर्दानशीन खातूनों को ईद की प्रार्थना में ले जाया जाय और उन्होंने रजस्वला औरतों को मुसलमानों के पूजा-स्थल से दूर रहने का आदेश दिया“ (1932)। किन्तु प्रार्थना में औरतों के शामिल होने के बारे में इस्लामी शरह के नजरिये को समझाते हुए अनुवादक महाशय एक पाद टिप्पणी में बतलाते हैं-”तथ्य यह है कि पाक पैगम्बर यह ज्यादा पसन्द करते थे कि औरतें अपनी प्रार्थनाएं घरों की चारदीवारियों के भीतर अथवा निकटतम मस्जिदों में कर लिया करें“ (टि0 668)।

author : ram swarup

पं0 गणपतिजी शर्मा ज्ञान-समुद्र थे

पं0 गणपतिजी शर्मा ज्ञान-समुद्र थे

आर्यसमाज के इतिहास में पण्डित गणपतिजी शर्मा चुरु- (राजस्थान)-वाले एक विलक्षण प्रतिभावाले विद्वान् थे। ऐसा विद्वान् यदि किसी अन्य देश में होता तो उसके नाम नामी पर आज वहाँ विश्वविद्यालय स्थापित होते। पण्डित गणपतिजी को ज्ञान-समुद्र कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं। श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज के शज़्दों में उनके पण्डित्य की यह कहानी पढ़िए-

‘‘पण्डित गणपति शर्मा शास्त्रार्थ करने में अत्यन्त पटु थे। मैंने उनके चार-पाँच शास्त्रार्थ सुने हैं। शास्त्रार्थ करते समय उनका यह नियम था कि शास्त्रार्थ के समय उन्हें कोई किसी प्रकार की सज़्मति न दे और न ही कुछ सुझाने की इच्छा करे, ज़्योंकि इससे उनका काम बिगड़ता था। लुधियाना में एक बार शास्त्रार्थ था। पण्डितजी ने सनातनधर्मी पण्डित से कहा था-पण्डितजी! मेरा और आपका शास्त्रार्थ पहले भी हुआ है। आज मैं एक बात कहना चाहता हूँ, यदि आप सहमत हों, तो वैसा किया जाए। पण्डित के पूछने पर आपने कहा-महर्षि दयानन्दजी से लेकर आर्यसमाजी पण्डितों ने जो पुस्तकें लिखी हैं, मैं उनमें से कोई प्रमाण न दूँगा और

इस विषय पर सनातनधर्मी पण्डितों ने जो पुस्तकें लिखी हैं, उनमें जो प्रमाण दिये हैं, आप उनमें से कोई प्रमाण न दें।

इसी प्रकार यदि आप चाहें तो जो प्रमाण आप कभी शास्त्रार्थ में दे चुके हैं और जो प्रमाण मैं दे चुका हूँ, वे भी छोड़ दें। आज सब प्रमाण नये हों। सनातनी पण्डित ने यह नियम स्वीकार नहीं किया। इससे पण्डितजी की योग्यता और स्मरणशक्ति का पूरा-पूरा परिचय मिलता है।’’

हदीस : इमाम

इमाम

मुस्लिम प्रार्थना मुख्यतः समूह-प्रार्थना है। उसकी अगुवाई एक इमाम द्वारा की जानी चाहिए। मुहम्मद आदेश देते हैं कि ”जब तीन व्यक्ति हों, तो उनमें से एक को उनका नेतृत्व करना चाहिए“ (1417)।

 

मुहम्मद अपने अनुयायियों से अपने इमाम का अनुसरण करने का आग्रह करते हैं-”जब वह सजदा करें, तुम्हें भी सजदा करना चाहिए; जब वह उठे तुम सबको भी उठना चाहिए“ (817)। वे यह भी वर्जित करते हैं कि इमाम से पहले कोई झुके और सजदा करे। ”इमाम से पहले अपना सिर उठाने वाला शख्स क्या डरता नहीं कि अल्लाह उसके चेहरे को गधे का चेहरा बना सकता है ?“ (860)। साथ ही, प्रार्थना कर रहे लोगों को इमाम से ताल मिलाकर बोलना चाहिए और ऐसे ऊंचे स्वर में नहीं बोलना चाहिए मानो वे इमाम से स्पर्धा कर रहे हों। एक बार किसी ने ऐसा किया, तो मुहम्मद उससे बोले-”मुझे लगा कि (तुम) मुझसे स्पर्धा कर रहे हो…..और मेरे मुंह का बोल मुझसे छीन रहे हो“ (783)। उपयुक्त कारण होने पर इमाम किसी को अपना नायब तैनात कर सकता है, जैसे कि मुहम्मद ने अपनी आखिरी बीमारी के दौरान अबू बकर को तैनात किया था (832-844)।

 

इस प्रकार हम देखते हैं कि योरोपीय साम्राज्यवाद के समस्त युक्तितर्क और दम्भ को इस्लाम ने उस साम्राज्यवाद के उदय से एक हजार वर्ष पूर्व ही प्रस्तुत कर दिया था। इतिहास का कोई युग ले लीजिए। उस युग में प्रवर्तित किसी भी साम्राज्यवाद के समस्त वैचारिक अवयव हमें इस्लाम में मिलते हैं-बर्बर कही जाने वाली जातियों अथवा अन्य धर्मावलम्बियों अथवा बहुदेववादियों का शोषण करने की दैवी अथवा नैतिक हिमायत; शोषित लोगों के देशों को आत्मप्रसार-प्रदेश समझना अथवा अपना अधिदेश मान कर हड़पना; और इस प्रकार दबाए हुए लोगों का ”सभ्य स्वामियों“ द्वारा अपने प्रश्रय में रखा जाना अथवा उनका दायित्व (जिम्मा) उठाना।

 

एक अन्य हदीस में कहा गया है कि मुहम्म्द को कयामत के दिन ”मध्यस्थता“ करने का जो सामथ्र्य मिला है वह दूसरे पैगम्बरों को नहीं मिला“ (1058)। अन्य हदीसों में अन्य बातें कही गई हैं। एक हदीस में मुहम्मद फरमाते हैं कि ”आतंक1 ने मेरा साथ दिया है और जब मैं सो रहा था तो संसार के सारे खजानों की कुंजियां मुझे सौंपी गई।“ इस हदीस को सुनाने वाले अबू हुरैरा बतलाते हैं कि पैगम्बर के अनुयायी ”उन खजानों को खोलने में लगे हुए हैं“ (1063)2।

 

  1. अर्थात् मेरे शत्रु मुझ से इतने भयभीत हैं कि बिना लड़े हार मान लेते हैं। मुहम्मद के आतंकवादी व्यवहार के परिणाम-स्वरूप ही इस भय का प्रसार हुआ था-उनके द्वारा करवाई गई हत्याएं, उनके द्वारा किया गया जनसंहार और मुसलमानों द्वारा निरन्तर किए जाने वाले धावों में होने वाली लूटपाट। उदाहरण के लिए, मक्का के बाजार में जिस समय कुरैजा नामक यहूदी कबीले के आठ-सौ सदस्यों के सिर क्रूरता के साथ काटे गए, उस समय दोस्त तथा दुश्मन, दोनों ही सिहर उठे होंगे अर्थात् मुहम्मद का लोहा मानने लगे होंगे।

 

  1. अबू हुरैरा का कथन विश्वसनीय है। वे दीर्घायु थे (मुहम्म्द के बाद पच्चीस बरस तक जिन्दा रहे)। उन्होंने मुसलमानों के उदीयमान राज्य को एक साम्राज्य में बदलते और मदीना की ओर प्रवाहमान प्रभूत कर-सम्पदा को देखा था। मुहम्मद की मृत्यु के बाद अबू बकर दो बरस तक खलीफा रहे। पहले बरस में कर-सम्पदा का जो बंटवारा हुआ उसमें मक्का तथा मदीना के प्रत्येक मुसलमान के हिस्से 9 दरहम आए थे। दूसरे बरस में प्रत्येक 20 दरहम मिले। तद्नन्तर दो दशकों में सब कुछ बहुत बदल गया। अरब के पड़ोस में अनेक अंचल मुसलमानों के उपनिवेश बने और कर-सम्पदा का परिमाण अत्यधिक बढ़ गया। खलीफा उमर ने एक दिवान अर्थात् भुक्ति-लेखा तैयार किया जिसके अनुसार मुहम्मद की विधवाओं को 12,000 दरहम प्रतिवर्ष मिलने लगे। बदर की लड़ाई के तीन-सौ से अधिक रणबांकुरों को 5,000 दरहम प्रतिवर्ष मिलने लगे। बदर के पूर्व जो लोग मुसलमान बने थे उनमें से प्रत्येक के लिए 4000 दरहम, और उनके बच्चों के लिए 2000 दरहम प्रतिवर्ष ठहराए गए। इस लेखे में प्रत्येक मुसलमान का नाम दर्ज होता था। साम्राज्य में फैली हुई छावनियों में जो अरब सेनाएं तैनात थीं उनके अफसरों को 6000 से 9000 दरहम प्रतिवर्ष मिलने लगे। छावनियों में जन्म लेने वाले प्रत्येक बालक को जन्म के समय से ही 100 दरहम प्रतिवर्ष दिये जाते थे। दीवान का पूरा विवरण तारीख तबरी के द्वितीय भाग में पृष्ठ 476-479 पर मिलता है।

author : ram swarup

मौलवी सनाउल्ला का आदरणीय आर्य-प्रधान

मौलवी सनाउल्ला का आदरणीय आर्य-प्रधान

डॉज़्टर चिरञ्जीवलालजी भारद्वाज जब आर्यसमाज वच्छोवाली लाहौर के प्रधान थे तो आर्यसमाज के उत्सव पर एक शास्त्रार्थ रखा गया। मुसलमानों की ओर से मौलाना सनाउल्लाजी बोल रहे थे

और वैदिक पक्ष स्वामी योगेन्द्रपालजी प्रस्तुत कर रहे थे। स्वामीजी कुछ विषयान्तर-से हो गये। आर्यजनता स्वामीजी के उज़र से असन्तुष्ट थी। आर्यसमाज का पक्ष वह ठीक ढंग से न रख सके।

कुछ लोगों ने प्रधानजी को सज़्मति दी कि आप यह घोषणा करें कि स्वामीजी की आवाज धीमी है, अतः आर्यसमाज की ओर से स्वामी नित्यानन्दजी बोलेंगे। डॉज़्टर चिरञ्जीवजी इस सुझाव से रुष्ट होकर बोले, ‘‘चाहते हो सत्य-असत्य निर्णय के लिए शास्त्रार्थ और बुलवाते हो उसके लिए मुझसे असत्य।’’ लोग इस बात का ज़्या उज़र देते। थोड़ी देर के पश्चात् श्री प्रधानजी ने घोषणा की, ‘‘हम देख रहे हैं कि हमारे प्रतिनिधि स्वामी योगेन्द्रपालजी विषयान्तर बात करते हैं, ठीक उज़र नहीं देते, अतः आर्यसमाज का प्रतिनिधित्व करने के लिए मैं उनके स्थान पर श्री स्वामी नित्यानन्दजी महाराज को नियुक्त करता हूँ।’’

इस घोषणा का चमत्कारी प्रभाव हुआ। मुसलमान भाइयों पर इसका अधिक प्रभाव पड़ा। मौलवी सनाउल्ला साहिब तो डॉज़्टरजी की इस सत्यनिष्ठा से ऐसे प्रभावित हुए कि वे सदा कहा करते थे, ‘‘भाई! आर्यसमाज का प्रधान तो एक ही देखा।’’ और वे थे डॉ0 श्री चिरञ्जीव जी।